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वतन की उड़ान: इतिहास से सीखेंगे, भविष्य संवारेंगे - ओपन बुक प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • Acharya Vidyasagar Ji has attained Samadhi. This Samadhi is a vessel of his lifelong penance, a celebration of death. Although he is not with us in this body, the ideals he set, the path he showed (5).png
     

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    आज के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

    10 मई 2023 आचार्य श्री जी के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

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    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    आचार्यश्री विद्यासागर जी की सूक्तियाँ (quotes)
  • स्वभाव

    एक बार आचार्य महाराज जी ने बताया कि पाठ करते समय मात्र पाठ (शब्दों) की ओर दृष्टि जाने पर लीनता नहीं आती है बल्कि लीनता तो अर्थ की ओर जाने पर आती है। शिष्य ने कहा - लेकिन आचार्य श्री जी अर्थ की ओर चले जाते हैं तो पाठ भूल जाते हैं। आचार्य श्री ने कहा - भूलना तो स्वभाव है। "जैसे ज्ञान आत्मा का स्वभाव है वैसे ही भूलना मनुष्य का स्वभाव है।” मनुष्य तो भूल का पुतला है। दूसरे शिष्य ने कहा - भूलता तो पागल है, आचार्य श्री जी बोले - यह भी एक भूल है, दूसरे को पागल कहना। भूल तो मात्र भगवान् से नहीं होती बांक

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संस्मरण मुनि श्री कुन्थुसागर जी

    1 वृक्ष 100 संतान

    रामटेक से छिंदवाड़ा की ओर विहार करते हुए चले जा रहे थे, धूप होने की वजह से रास्ते में बैठने के भाव हो रहे थे, लेकिन बहुत दूर-दूर तक कोई भी छायादार वृक्ष दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ दूर और चलने पर देखा आचार्य श्री जी एक पेड़ के नीचे बैठे थे हम लोगों को देखकर आचार्य महाराज ने कहा आओ महाराज बैठ लो अब थोड़ा और चलना है। हम दोनों महाराज आचार्य महाराज के समीप जाकर बैठ गये जो साथ में महाराज थे उन्होंने कहा हम लोग अभी यही चर्चा कर रहे थे कि कितना चलना हो गया, आचार्य श्री तो कुछ आहार में लेते भी नहीं और इतन

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संस्मरण मुनि श्री कुन्थुसागर जी
  • विचार सूत्र संकलन

  • यह मेरा तन भी वतन की सम्पदा

    गुरुवर आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि "यह मेरा तन भी वतन की सम्पदा है, यह शरीर भी राष्ट्रीय संपत्ति है इसका दुरुपयोग मत करो”, इससे बड़ा राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र भक्ति और राष्ट्रीयता की मिसाल और क्या हो सकती है। यह राष्ट्रीयता का जीवन आदर्श है। आज हम अपने राष्ट्र को भी अपना राष्ट्र नहीं समझ रहे हैं तो फिर इस शरीर की तो बहुत दूर की बात है। वस्तुत: हमारा यह तन राष्ट्रीय संपत्ति ही है और समझना चाहिए। प्रत्येक प्राणी का तन राष्ट्रीय संपत्ति है इतना ही नहीं चाहे वह मनुष्य हो या जानवर। वे सब र

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार

    जानवर प्रकृति का संतुलन बनाते : उनकी रक्षा करो

    इन छोटे-छोटे पशुपक्षियों में भी प्राण हैं, उनके पास भी ज्ञान है, सोचने-विचारने की शक्ति है। वे भी धर्म को समझ जाते हैं और अपने जीवन की उन्नति कर लेते हैं। हमारा इन तमाम पशु-पक्षियों की रक्षा करना परम कर्तव्य है, ये जानवर प्रकृति के संतुलन को बनाते हैं। यह धरती की हरियाली जानवरों की किस्मत से है, मनुष्य की किस्मत से नहीं। यदि ये जानवर समाप्त हो जायेंगे तो धरती की हरियाली भी समाप्त हो जायेगी और हरियाली के अभाव में यह मनुष्य जाति भी जिंदा नहीं रह सकती। अत: जानवरों की रक्षा करना ही हरियाली को जिन्दा

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार

    महापुरुषों का अभाव क्यों हो रहा है ?

    अच्छे कार्य के लिए धर्मादा निकालते हैं तो पुण्य का मंगलाचरण हो जाता है। पहले गौ के लिए पहली रोटी निकाली जाती थी। आज भी ये परम्परा सतत होनी चाहिए क्योंकि यही दया का भाव होता है। आज दया की भावना का नितांत अभाव होता जा रहा है इसलिए महापुरुषों का अभाव धरती पर होता जा रहा है। -१४ सितम्बर २०१६, दोपहर ३ बजे, भोपाल 

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार
  • पाठ ७ उत्तम दस धर्मधारी 

    आचार्य भगवन् कहते हैं- 'आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादिधर्मों से ही मानी जाती है।' मूल गुणों में पठित दस धर्मों का आचार्यश्रीजी पूर्ण निष्ठा एवं उत्कृष्टता से किस तरह परिपालन करते हैं, इससे जुड़े हुए कुछ प्रसंगों को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।     श्रमणत्व अंगरक्षक : दस धर्म    * अर्हत्वाणी * धम्मो वत्थु-सहावो ... .... जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८॥   वस्तु के स्वभ

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ ९ जिनमार्ग पोषक 

    गुरु वह आध्यात्मिक शिल्पकार हैं, जो शिष्य को दीक्षा के साँचे में ढालकर न केवल एक मूर्ति का रूप देते हैं, बल्कि निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक संस्कारों के रंग-रोगन से भरकर उसके जीवन को श्रेष्ठ बनाते हुए उस पर अनुग्रह करते हैं। गुरु के द्वारा शिष्य में पोषित किए जाने वाले ऐसे ही अनमोल संस्कारों एवं शिक्षाओं से जुड़े कुछ प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है। आचार्यश्रीजी उच्चकोटी के साधक होने के साथ-साथ श्रमण परंपरा को संप्रवाहित करने के लिए शिष्यों को संग्रहित एवं अनुग्रहित करने व

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ ६ पंचाचार पालक 

    पंचाचार संसार सागर से पार होने में घाट के समान होने से परम तीर्थ तथा जन्म-मरणादि की बाधा दूर करने में सहायक होने से परम मंगल रूप हैं। इन पंचाचारों का निर्मल रीति से पालन स्वयं करने एवं अपने शिष्यों को भी करवाने से जिनका जीवन एक उत्कृष्ट तीर्थ बन गया है, ऐसे आचार्य भगवन् के जीवन में परिपालित पंचाचारों से संबंधित प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है।    शुद्धात्म-परिचायक : पंचाचार * अर्हत्वाणी *   सुदृनिवृत्ततपसां.......आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु॥७/३५॥

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक
  • कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)

    कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)   ‘कल्याणमंदिर स्तोत्र' आचार्य कुमुदचन्द्र, अपरनाम श्री सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित है। इसका पद्यानुवाद आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज.) में सन् १९७१ के वर्षायोग में किया। इस स्तोत्र को पार्श्वनाथ स्तोत्र भी कहते हैं। मूल स्तोत्र एवं अनुवाद दोनों ही वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध हैं।   इस कृति में उन कल्याणनिधि, उदार, अघनाशक तथा विश्वसार जिन-पद-नीरज को नमन किया गया है जो संसारवारिधि से स्व-पर का सन्तरण करने के लिए

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    कल्याण मंदिर स्तोत्र 2

    अंतर घटना

    उपलब्ध जैन-दर्शन साहित्य में प्राकृत-भाषा-निष्ठ साहित्य का बाहुल्य है। कारण यही है कि यह भाषा सरल, मधुर एवं ज्ञेय है। इसीलिए कुन्दकुन्द की लेखनी ने प्राकृत-भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना कर डाली। उन अनेक सारभूत ग्रंथों में अध्यात्म-शान्तरस से आप्लावित ग्रंथराज 'समयसार' है। इसमें सहज-शुद्ध तल की निरूपणा, अपनी चरम सीमा पर सोल्लास 'नृत्य करती हुई. पाठक को, जो साधक एवं अध्यात्म से रुचि रखता है, बुलाती हुई सी प्रतीत होती है। यथार्थ में, कुन्दकुन्द ने अपनी अनुभूतियों को 'समयसार' इस ग्रंथ के रूप में रूप

    Vidyasagar.Guru
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    कुन्दकुन्द का कुन्दन

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी   ज्ञानावरणादिक कर्मों से, पूर्णरूप से मुक्त रहे। केवल संवेदन आदिक से युक्त, रहे, ना मुक्त रहे ॥ ज्ञानमूर्ति हैं परमातम हैं, अक्षय सुख के धाम बने। मन वच तन से नमन उन्हें हो, विमल बने ये परिणाम घने ॥१॥   बाह्यज्ञान से ग्राह्य रहा पर, जड़ का ग्राहक रहा नहीं। हेतु-फलों को क्रमशः धारे, आतम तो उपयोग धनी॥ ध्रौव्य आय औ व्यय वाला है, आदि मध्य औ अन्त बिना। परिचय अब तो अपना कर लो, कहते हमको सन्त जना ॥२॥   प्रमेयतादिक गुणधर्

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    स्वरूप संबोधन पच्चीसी
  • प्रवचनामृत 3 - विनयावनति

    विनय जब अंतरंग में प्रादुभूत हो जाती है तो उसकी ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है, आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भूत होती है और व्यवहार में प्रदर्शित होती है।   विनय का महत्व अनुपम है। यह वह सोपान है जिस पर आरूढ़ होकर साधक मुक्ति की मंजिल तक पहुँच सकता है। विनय आत्मा का गुण है। यह विनय नामक गुण तत्व-मंथन से ही उपलब्ध हो सकता है। विनय का अर्थ है-सम्मान, आदर, पूजा आदि। विनय से हम आदर और पूजा तो प्राप्त करते ही हैं, साथ ही, सभी विरोधियों पर विजय भी प्राप्त क

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    विद्या वाणी

    प्रवचनामृत 4 - सुशीलता

    'निरतिचार' शब्द बड़े माके का शब्द है। व्रत के पालने में यदि कोई गड़बड़ न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी छाप पड़ती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस व्रत और व्रती के संपर्क में आ जाते हैं वे भी तिर जाते हैं।   शील से अभिप्राय स्वभाव से है। स्वभाव की उपलब्धि के लिए निरतिचार व्रत का पालन करना ही शीलव्रतेष्वनतिचार कहलाता है। व्रत से अभिप्राय नियम, कानून अथवा अनुशासन से है। जिस जीवन में अनुशासन का अभाव है वह जीवन निर्बल है। निरतिचार व्रत पालन से एक अद्भुत बल की प्राप्ति जीवन मे

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    विद्या वाणी

    सर्वोदयसार 8 - वर्तमान में जीने वाला सुखी

    कल कभी आता नहीं, कल की आशा व्यर्थ है। जीवन एक यात्रा है तथा यह लोक कर्मभूमि है। भोगों में रच-पच कर प्राणी लगातार हानि उठा रहा है तथा अनुचित अध्यवसाय का फल प्राप्त कर रहा है। आत्मा का स्वभाव जानना है तथा सुव्यवस्थित जानना ही विज्ञान है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जानने के भिन्न-भिन्न रूप हैं। जानना मूल स्वभाव है। आत्मा के क्षेत्र में जानने को स्वाध्याय कहा जाता है। सही दिशा में ज्ञान की तरफ बढ़ने से, सही अध्यवसाय होता है। विफलता हाथ लगने से मनुष्य निराश हो जाता है जबकि विश्वास से ओत-प्रोत ची

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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