किसी भी कार्य की शुरूआत और सानंद सम्पन्नता के लिये विशेष पुण्य-भावनाओं की आवश्यकता होती है, धन की नहीं। आँखें सभी के पास हैं जो देखने का काम करती हैं किन्तु बीच में कुछ ऐसी खराबी आ जाती है जिसकी वजह से साफ-साफ दिखाई नहीं देता। नेत्र चिकित्सा भी इसीलिए की जाती है कि हम एक दूसरे को पहचान सकें। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें आँखों में मोतियाबिंद आदि कोई रोग नहीं है फिर भी उन्हें किसी की पहिचान नहीं हो पाती। पता नहीं उनकी दृष्टि में कौन सा रोग है। इसे तो दृष्टि दोष (विकृति) ही कहा जा सकता है। इन आँखों से जब हम इन्सान की भी पहचान नहीं कर पा रहे तब फिर भगवान् की पहचान कैसे होगी। यहाँ पर हमें यह बात भी याद रखनी चाहिये कि सिर्फ दिखाई देने वाला दृश्य हमारा प्राप्तव्य नहीं है किन्तु देखने वाला दृश्य प्राप्तव्य है। अपने यहाँ कहा जाता है कि उस दृष्टा आत्मतत्व की रक्षा गुप्ति के बिना संभव नहीं उसे एकाग्रता सावधानी की बड़ी जरूरत होती है। इसी प्रकार मैं सोचता हूँकि इस नेत्र चिकित्सा शिविर में गुप्ता जी ने जिस तत्परता और एकाग्रता से अपने सभी सहयोगी डॉक्टरों के माध्यम से चिकित्सा की है वह सराहनीय है। आयोजक और कार्यकर्ता सभी प्रशंसा के पात्र हैं। यह सब समर्पण भाव के बिना सम्भव नहीं। इसमें विशेष रहस्य की बात तो यह है कि आँखों में ज्योति पहले से ही विद्यमान थी फिर भी परदा आवरण हटाकर मरीजों को जो गुप्ता जी ने ज्योति प्रदान की है उनकी इस योग्यता का विकास जीवन में होता रहे और वे स्वयं एक दिन अपनी भटकती हुई आत्मा की ज्योति प्राप्त करें। जनहित के कार्य में सर्वोदय का अभी यह मंगलाचरण मात्र है। पथ में हम रुकें नहीं किन्तु ज्योतिपुंज को आदर्श बनाकर अथक बिना रुके लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें।