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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • Acharya Vidyasagar Ji has attained Samadhi. This Samadhi is a vessel of his lifelong penance, a celebration of death. Although he is not with us in this body, the ideals he set, the path he showed (5).png
     

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  • भले दूर हूं, निकट भेज देता अपनापनआचार्य श्री विद्यासागर

    भारत को भारत बनाना हैं - आचार्य श्री विद्यासागर जीआचार्य श्री विद्यासागर

    आचार्य श्री विद्यासागर जी दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

    आज के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

    10 मई 2023 आचार्य श्री जी के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

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    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    आचार्यश्री विद्यासागर जी की सूक्तियाँ (quotes)
  • मन-मंदिर में

    सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में नवनिर्मित अष्टधातु की आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा जी को वेदी में स्थापित करने के लिए ट्रक में लाया जा रहा था, पर वह वहीं बीच में ही रुक गया। ट्रक का आधा पहिया जमीन में धंस गया। ट्रक वहीं रुक गया, आगे नहीं बढ़ रहा था तब आचार्य श्री ने कहा - भैया भगवान् बिना परीक्षा के वेदी में नहीं बैठते तो सोच लो आपके मन मंदिर में भी बिना परीक्षा के कैसे बैठेंगे।

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संस्मरण मुनि श्री कुन्थुसागर जी

    काहे को दुनिया बसायी

    एक बार रास्ते में विहार करते हुए आ रहे थे। एक गाँव से गुजरना हुआ वहाँ दुकान पर एक भजन चल रहा था। "दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी, तूने काहे को दुनिया बनायी।” इस पंक्ति को सुनकर आचार्य श्री के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गयी तो साथ में चलने वाले सभी हँसने लगे। आचार्य महाराज ने कहा - ऐसा कहना ठीक नहीं बल्कि ऐसा कहो "दुनिया बसाने वाले क्या तेरे मन में समायी, तूने काहे को दुनिया बसायी।” संसार में तुम ही फँसे हो, गृहस्थी तुमने ही बसायी है खुद को दोषी कहो, भगवान को दोषी मत कहो।

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संस्मरण मुनि श्री कुन्थुसागर जी
  • विचार सूत्र संकलन

  • राजनेता की योग्यता

    जिस तरह प्रशासिनक वर्ग स्थाई होता है उस तरह राजनेता स्थाई नहीं होता, राजनेता सीमित समय के लिए बनते हैं, किन्तु राजनेता को जो मौका मिलता है उसे सही दिशा में लगा दे तो फिर जनता उन्हें भी स्थाई बना देते हैं। जो देशहित में उचित निर्णय ले, नि:स्वार्थ सेवाभावी हो, स्वच्छ छवि वाला हो, निष्पक्षी हो, निरहंकारी हो, संस्कृति का जानकार हो। इतनी योग्यताओं के साथ कार्य करने वाला हो। -२६ अगस्त २o१६, भोपाल 

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    भारतीय संस्कृति और लोकतंत्र

    ७o साल की आजादी में जनता का पक्ष कमजोर

    मुख्यमंत्री जी, आपको जनता ने विधायक बनाया था इसलिए जनता जो शासक है उसके भले के लिए सोचकर ही आगे कदम बढ़ाएँ क्योंकि केन्द्र कोई भी हो जनता केन्द्र बिंदु है। चुनाव के समय ही नहीं, आचार संहिता हमेशा के लिए लागू होना चाहिए। ७० साल हो गए आजादी को आज, परन्तु जनता का पक्ष कमजोर हो गया है। -२ अक्टूबर २०१६, भोपाल

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    भारतीय संस्कृति और लोकतंत्र

    अपने आपको सशक्त बनाएँ

    आज परमाणु की शक्ति जो एकत्रित की गई है वो बहुत विनाशकारी है। आज राष्ट्र को सशक्त बनाने के पहले अपने आपको सशक्त बनाएँ। -१७ अक्टूबर २०१६, सोमवार, भोपाल

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    भारतीय संस्कृति और लोकतंत्र
  • पाठ १० जैसे के जैसे 

    कहते हैं कि कार्य के आरंभिक समय में उत्साह एवं विशुद्धि का होना इतना महत्त्वशाली नहीं, जितना कि कार्य की पूर्णतापर्यंत उसका अनवरत बना रहना। इसी तरह दीक्षा के समय वैराग्य, उत्साह एवं विशुद्धि का होना तो स्वाभाविक है। महत्त्व तो तब है, जब समाधिमरण पर्यंत तक वह अनवरत बनी रहे।आचार्य भगवन् श्री विद्यासागरजी मोक्षमार्ग के एक ऐसे महत्त्वशाली व्यक्तित्व हैं, जिनकी विशुद्धि, उत्साह, चेतना एवं आध्यात्मिकता दीक्षा के समय जैसी थी, आज ५० वर्ष पश्चात् भी वैसी की वैसी ही है। वह तब से अब तक 'जैसे के जैसे हैं। ग

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ ७ उत्तम दस धर्मधारी 

    आचार्य भगवन् कहते हैं- 'आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादिधर्मों से ही मानी जाती है।' मूल गुणों में पठित दस धर्मों का आचार्यश्रीजी पूर्ण निष्ठा एवं उत्कृष्टता से किस तरह परिपालन करते हैं, इससे जुड़े हुए कुछ प्रसंगों को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।     श्रमणत्व अंगरक्षक : दस धर्म    * अर्हत्वाणी * धम्मो वत्थु-सहावो ... .... जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८॥   वस्तु के स्वभ

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ ९ जिनमार्ग पोषक 

    गुरु वह आध्यात्मिक शिल्पकार हैं, जो शिष्य को दीक्षा के साँचे में ढालकर न केवल एक मूर्ति का रूप देते हैं, बल्कि निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक संस्कारों के रंग-रोगन से भरकर उसके जीवन को श्रेष्ठ बनाते हुए उस पर अनुग्रह करते हैं। गुरु के द्वारा शिष्य में पोषित किए जाने वाले ऐसे ही अनमोल संस्कारों एवं शिक्षाओं से जुड़े कुछ प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है। आचार्यश्रीजी उच्चकोटी के साधक होने के साथ-साथ श्रमण परंपरा को संप्रवाहित करने के लिए शिष्यों को संग्रहित एवं अनुग्रहित करने व

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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक
  • कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)

    कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)   ‘कल्याणमंदिर स्तोत्र' आचार्य कुमुदचन्द्र, अपरनाम श्री सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित है। इसका पद्यानुवाद आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज.) में सन् १९७१ के वर्षायोग में किया। इस स्तोत्र को पार्श्वनाथ स्तोत्र भी कहते हैं। मूल स्तोत्र एवं अनुवाद दोनों ही वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध हैं।   इस कृति में उन कल्याणनिधि, उदार, अघनाशक तथा विश्वसार जिन-पद-नीरज को नमन किया गया है जो संसारवारिधि से स्व-पर का सन्तरण करने के लिए

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    कल्याण मंदिर स्तोत्र 2

    अंतर घटना

    उपलब्ध जैन-दर्शन साहित्य में प्राकृत-भाषा-निष्ठ साहित्य का बाहुल्य है। कारण यही है कि यह भाषा सरल, मधुर एवं ज्ञेय है। इसीलिए कुन्दकुन्द की लेखनी ने प्राकृत-भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना कर डाली। उन अनेक सारभूत ग्रंथों में अध्यात्म-शान्तरस से आप्लावित ग्रंथराज 'समयसार' है। इसमें सहज-शुद्ध तल की निरूपणा, अपनी चरम सीमा पर सोल्लास 'नृत्य करती हुई. पाठक को, जो साधक एवं अध्यात्म से रुचि रखता है, बुलाती हुई सी प्रतीत होती है। यथार्थ में, कुन्दकुन्द ने अपनी अनुभूतियों को 'समयसार' इस ग्रंथ के रूप में रूप

    Vidyasagar.Guru
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    कुन्दकुन्द का कुन्दन

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी   ज्ञानावरणादिक कर्मों से, पूर्णरूप से मुक्त रहे। केवल संवेदन आदिक से युक्त, रहे, ना मुक्त रहे ॥ ज्ञानमूर्ति हैं परमातम हैं, अक्षय सुख के धाम बने। मन वच तन से नमन उन्हें हो, विमल बने ये परिणाम घने ॥१॥   बाह्यज्ञान से ग्राह्य रहा पर, जड़ का ग्राहक रहा नहीं। हेतु-फलों को क्रमशः धारे, आतम तो उपयोग धनी॥ ध्रौव्य आय औ व्यय वाला है, आदि मध्य औ अन्त बिना। परिचय अब तो अपना कर लो, कहते हमको सन्त जना ॥२॥   प्रमेयतादिक गुणधर्

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    स्वरूप संबोधन पच्चीसी
  • प्रवचन सुरभि 67 - वात्सल्य अंग

    आज सम्यक दर्शन के वात्सल्य अंग के बारे में विचार करना है। जब संसारी प्राणी एक दूसरे से परस्पर प्रेम भाव रखता है, अर्थात् जीव जीव को पहचानता है वास्तविक दृष्टि से जान लेता है वह सम्यक दृष्टि हो जाता है। यह पहचान मात्र शब्दों से नहीं, अन्दर से हो। जब सम्यक दृष्टि तत्व चिंतन में लगता है, तब उसकी दृष्टि में कोई भी जीव किसी भी रूप में आ जाये तो भी वह विरोध भाव नहीं रखता। चाहे वह अनिष्ट करने वाला हो तब भी वह सब जीवों में मैत्री भाव रखेगा। जिस प्रकार सूर्योदय को देखकर कमल खिल जाता है उसी प्रकार वह गुणव

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    विद्या वाणी

    प्रवचन सुरभि 75 - बल का मद

    आज बल मद के बारे में बताना है। संसार अवस्था में अनेक प्रकार का बल माना जाता है, जैसे मनोबल, वचन बल, काय बल, इन्द्रिय बल, धन बल इत्यादि हैं। इनको लेकर अभिमान करना अनन्त बल यानि आत्मा के बल को खोना है। ये मनोबल हरेक के लिए प्राप्य नहीं है। मनोबल का वास्तविक लाभ कर्म मल को धोने के लिए होता है। मन के बिना मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते तथा उसके बारे में विचार भी नहीं कर सकते। प्रयोजन भूत तत्व के बारे में विचार मन के द्वारा होता है। अन्तिम पर्याप्ति मन:पर्याप्ति ही है, ये जब प्राप्त हो जाये तो मोक्ष म

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    विद्या वाणी

    सर्वोदयसार 16 - द्रश्य नहीं द्रष्टा को पहचानो

    किसी भी कार्य की शुरूआत और सानंद सम्पन्नता के लिये विशेष पुण्य-भावनाओं की आवश्यकता होती है, धन की नहीं। आँखें सभी के पास हैं जो देखने का काम करती हैं किन्तु बीच में कुछ ऐसी खराबी आ जाती है जिसकी वजह से साफ-साफ दिखाई नहीं देता। नेत्र चिकित्सा भी इसीलिए की जाती है कि हम एक दूसरे को पहचान सकें। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें आँखों में मोतियाबिंद आदि कोई रोग नहीं है फिर भी उन्हें किसी की पहिचान नहीं हो पाती। पता नहीं उनकी दृष्टि में कौन सा रोग है। इसे तो दृष्टि दोष (विकृति) ही कहा जा सकता है। इन आँखों स

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    विद्या वाणी
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