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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • Acharya Vidyasagar Ji has attained Samadhi. This Samadhi is a vessel of his lifelong penance, a celebration of death. Although he is not with us in this body, the ideals he set, the path he showed (5).png
     

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  • भले दूर हूं, निकट भेज देता अपनापनआचार्य श्री विद्यासागर

    भारत को भारत बनाना हैं - आचार्य श्री विद्यासागर जीआचार्य श्री विद्यासागर

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    आज के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

    10 मई 2023 आचार्य श्री जी के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

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    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    आचार्यश्री विद्यासागर जी की सूक्तियाँ (quotes)
  • टोपी बनी पहचान

    गुना नगर में चातुर्मास चल रहा था, उसी समय महावीर भाई (ब्रह्मचारी विद्याधर जी के बड़े भाई) दर्शनार्थ आये। गुना के श्रावकों को टोपी लगाकर प्रवचन सुनते देखा तो वे बहुत खुश हुए और बोले टोपी लगाने की यह परंपरा आज समाप्त होती चली जा रही है। मुझे यहां सभी श्रावकों को टोपी लगाये हुए देखकर बहुत खुशी हो रही है। दक्षिण प्रांत में तो सभी श्रावकगण टोपी लगाया करते हैं, यह सज्जन की पहचान है। हमेशा सिर ढककर ही आना चाहिए, यह देव, शास्त्र एवं गुरू का बहुमान है।   उन्होंने बताया कि जब मैं ब्रह्मचारी विद्

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संस्मरण मुनि श्री कुन्थुसागर जी

    ज्ञानी का कर्तव्य

    जैसा कर्म सिद्धांत का वृहद विवेचन जैन दर्शन में मिलता है, वैसा अन्य किसी दर्शन में नहीं मिलता। जैन दर्शन का सिद्धांत कर्म को प्रधानता देता है। जीव को सुख-दुःख, पुण्य-पाप रूपी कर्मों के फल से प्राप्त होता है, ईश्वर का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ करता है। जीव की एक अपनी स्वतंत्र सत्ता है वह चाहे तो नर से नारकी एवं नर से नारायण भी बन सकता है।   एक दिन आचार्य श्री जी ने कहा कि- प्रत्येक व्यक्ति के लिए कर्म सिद्धांत को समझकर कर्म बंधन से बचना चाहिए। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि-

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    दिशा बोध
  • विचार सूत्र संकलन

    • आज्ञा

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    • कार्य

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    • गाय और किसान

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    • क्षमा, अनुराग

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  • मांस नियति : हिंसक घोटाला

    माँस निर्यात करना सबसे बड़ा घोटाला है लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि इस महा घोटाले को कोई घोटाला नहीं समझ रहा है और इसके विषय में कोई आवाज नहीं उठा रहा है। देशवासियों का यह पहला कर्तव्य है कि वे सबसे पहले माँस नियति के हिंसक घोटाले को बंद करवायें, जब तक पशु हत्या का घोटाला रुकेगा नहीं, तब तक यह भारत अपना विकास नहीं कर सकता। भारत का विकास पशु हत्या को रोकने में ही है।   इन जानवरों को मारकर हम कैसे जिंदा रह सकते हैं? इन गायबैल इत्यादि को फसल की तरह नहीं उगाया जा सकता। पेड़-पौधों को तो उगा

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार

    वोट की शक्ति पहचानो

    जनता का भी कर्तव्य होता है कि वह ऐसे व्यक्ति का चयन करे जो अहिंसक हो। पापों का समर्थन करने वाले व्यक्ति का चयन नहीं करना चाहिए। यह प्रजातन्त्र है। यहाँ प्रजा ही अपने प्रतिनिधि का चुनाव करती है। अत: जनता को बड़े सोच विचारकर, विवेकपूर्ण उस व्यक्ति का चुनाव करना चाहिए जो प्रजा को सुख-समृद्धि के लिए व्यवस्था दे एवं देश की गरिमा को कलंकित न करे, जो पशु हत्या रोके, कत्लखाने बंद कर पशुओं का संरक्षण करे एवं अहिंसा, दया, न्याय का पालन करे। आपके वोट में बहुत शक्ति है। आप जरा विचार करो, जिनको आपने चुना है

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार

    ये कैसा पागल मनुष्य

    ओवर कान्फीडेन्स मात्र मनुष्य में ही पाया जाता है, जानवरों में नहीं। जीवन के लिए कान्फीडेन्स चाहिए ओवर कान्फीडेन्स नहीं। पाप करने में मनुष्य जितना आगे बढ़ जाता है, उतना जानवर नहीं, सबसे अधिक क्रोध करने में, सबसे अधिक अहंकार करने में, सबसे अधिक छल कपट करने में और सबसे अधिक लालच करने में मात्र मनुष्य ही आगे रहता है जानवर नहीं, मनुष्य क्या-क्या नहीं करता, सभी कुछ तो करता हैं, इस मनुष्य ने सबको सुखा दिया है और स्वयं ताजा रहना चाहता है, यह कैसा मनुष्य है जो हरी को समाप्त करके हरियाली को चाहता है, स्वय

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार
  • पाठ १० जैसे के जैसे 

    कहते हैं कि कार्य के आरंभिक समय में उत्साह एवं विशुद्धि का होना इतना महत्त्वशाली नहीं, जितना कि कार्य की पूर्णतापर्यंत उसका अनवरत बना रहना। इसी तरह दीक्षा के समय वैराग्य, उत्साह एवं विशुद्धि का होना तो स्वाभाविक है। महत्त्व तो तब है, जब समाधिमरण पर्यंत तक वह अनवरत बनी रहे।आचार्य भगवन् श्री विद्यासागरजी मोक्षमार्ग के एक ऐसे महत्त्वशाली व्यक्तित्व हैं, जिनकी विशुद्धि, उत्साह, चेतना एवं आध्यात्मिकता दीक्षा के समय जैसी थी, आज ५० वर्ष पश्चात् भी वैसी की वैसी ही है। वह तब से अब तक 'जैसे के जैसे हैं। ग

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ ७ उत्तम दस धर्मधारी 

    आचार्य भगवन् कहते हैं- 'आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादिधर्मों से ही मानी जाती है।' मूल गुणों में पठित दस धर्मों का आचार्यश्रीजी पूर्ण निष्ठा एवं उत्कृष्टता से किस तरह परिपालन करते हैं, इससे जुड़े हुए कुछ प्रसंगों को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।     श्रमणत्व अंगरक्षक : दस धर्म    * अर्हत्वाणी * धम्मो वत्थु-सहावो ... .... जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८॥   वस्तु के स्वभ

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ ६ पंचाचार पालक 

    पंचाचार संसार सागर से पार होने में घाट के समान होने से परम तीर्थ तथा जन्म-मरणादि की बाधा दूर करने में सहायक होने से परम मंगल रूप हैं। इन पंचाचारों का निर्मल रीति से पालन स्वयं करने एवं अपने शिष्यों को भी करवाने से जिनका जीवन एक उत्कृष्ट तीर्थ बन गया है, ऐसे आचार्य भगवन् के जीवन में परिपालित पंचाचारों से संबंधित प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है।    शुद्धात्म-परिचायक : पंचाचार * अर्हत्वाणी *   सुदृनिवृत्ततपसां.......आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु॥७/३५॥

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक
  • कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)

    कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)   ‘कल्याणमंदिर स्तोत्र' आचार्य कुमुदचन्द्र, अपरनाम श्री सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित है। इसका पद्यानुवाद आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज.) में सन् १९७१ के वर्षायोग में किया। इस स्तोत्र को पार्श्वनाथ स्तोत्र भी कहते हैं। मूल स्तोत्र एवं अनुवाद दोनों ही वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध हैं।   इस कृति में उन कल्याणनिधि, उदार, अघनाशक तथा विश्वसार जिन-पद-नीरज को नमन किया गया है जो संसारवारिधि से स्व-पर का सन्तरण करने के लिए

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    कल्याण मंदिर स्तोत्र 2

    अंतर घटना

    उपलब्ध जैन-दर्शन साहित्य में प्राकृत-भाषा-निष्ठ साहित्य का बाहुल्य है। कारण यही है कि यह भाषा सरल, मधुर एवं ज्ञेय है। इसीलिए कुन्दकुन्द की लेखनी ने प्राकृत-भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना कर डाली। उन अनेक सारभूत ग्रंथों में अध्यात्म-शान्तरस से आप्लावित ग्रंथराज 'समयसार' है। इसमें सहज-शुद्ध तल की निरूपणा, अपनी चरम सीमा पर सोल्लास 'नृत्य करती हुई. पाठक को, जो साधक एवं अध्यात्म से रुचि रखता है, बुलाती हुई सी प्रतीत होती है। यथार्थ में, कुन्दकुन्द ने अपनी अनुभूतियों को 'समयसार' इस ग्रंथ के रूप में रूप

    Vidyasagar.Guru
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    कुन्दकुन्द का कुन्दन

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी   ज्ञानावरणादिक कर्मों से, पूर्णरूप से मुक्त रहे। केवल संवेदन आदिक से युक्त, रहे, ना मुक्त रहे ॥ ज्ञानमूर्ति हैं परमातम हैं, अक्षय सुख के धाम बने। मन वच तन से नमन उन्हें हो, विमल बने ये परिणाम घने ॥१॥   बाह्यज्ञान से ग्राह्य रहा पर, जड़ का ग्राहक रहा नहीं। हेतु-फलों को क्रमशः धारे, आतम तो उपयोग धनी॥ ध्रौव्य आय औ व्यय वाला है, आदि मध्य औ अन्त बिना। परिचय अब तो अपना कर लो, कहते हमको सन्त जना ॥२॥   प्रमेयतादिक गुणधर्

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    स्वरूप संबोधन पच्चीसी
  • प्रवचन सुरभि 78 - तन पाकर - तनो नहीं

    यदि मोक्षमार्गी बने रहना चाहते हो तो आठ प्रकार के मद, जो कि आप लोगों को मोक्ष मार्ग से स्खलित करने वाले हैं, उनसे दूर रहें। आठवाँ मद शरीर को लेकर है। प्राय: लोग शारीरिक सुरक्षा के लिए मद करते हैं। वपु यानि शरीर कहा है। शरीर की कीमत है या आत्मा की कीमत है, इसके बारे में सोचना है। शरीर तो शरारती है, पर आत्मा के पास गुण है, वह शरीफ है। शरीर को वही व्यक्ति महत्व देता है जो वास्तविक आत्मा का विकास नहीं करना चाहता है। अनादि से बंधन का अनुभव जो हो रहा है, वह शरीर को लेकर है। आत्मा को दुख शरीर के कारण ह

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    विद्या वाणी

    सर्वोदयसार 17 - दर्पण सा संन्यास

    पुनरावृत्ति हानिकारक है तथा मंजिल प्राप्ति में बाधक। मनुष्य का जीवन यदि वृत्त सम हो जाय तो पूर्णता की प्राप्ति तथा पुनरावृत्ति से मुक्ति मिल सकती है। भव्य जीवों ने पूर्णता प्राप्त कर ली, वे वृत्त हो गये। ऐसे वृत्तों के वृतांत जीवन में उतारते ही हमारी यात्रा पूर्ण हो सकती है और हम उस सुख को प्राप्त कर सकते हैं जिसे भगवान् ने प्राप्त किया है। संसारी प्राणी सुख की गवेषणा में रत रहता है किन्तु उसे सुख मिलता नहीं। लक्ष्य तक पहुँच ही नहीं पाता। वह। सारा का सारा संसार समस्याओं का संस्थान हो गया है क्यो

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    विद्या वाणी

    तपोवन देशना 16 - वे कहेते नहीं

    धर्म की बात सुनने का अधिकार जीव मात्र को है। ये बात अलग है कि सुनने के उद्देश्य की पूर्ति कौन करता है ? भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण की रचना होने के बाद देवों से खचा-खच भरा था समवशरण फिर भी वाणी नहीं खिरी, क्योंकि भगवान् को एक भव्य मुमुक्षु मनुष्य की आवश्यकता थी। दुनिया की बात तो किसी से भी की जा सकती है किन्तु मोक्ष की बात मुमुक्षु से ही की जाती है।   अहिंसा धर्म और मोक्ष की बात सुनकर उसके उद्देश्य की पूर्ति मनुष्य ही कर सकता है और कुछ अंशों में तिर्यच भी कर सकते हैं। देव मोक्ष की ब

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    विद्या वाणी
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