Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • Acharya Vidyasagar Ji has attained Samadhi. This Samadhi is a vessel of his lifelong penance, a celebration of death. Although he is not with us in this body, the ideals he set, the path he showed (5).png
     

    नवीनतम पोस्ट

    समाधि महोत्सव सम्पन्न

    Whatsapp Channel

    अंतराष्ट्रीय गुरु विनयांजलि

    समाचार

    आपके संस्मरण

  • www.Vidyasagar.Guru (2).png

    नवीनतम पोस्ट

    सूचना पट्ट

    मोबाईल ऐप्प

    वर्तमान स्थान

    समाचार

    आपकी समीक्षा

  • भले दूर हूं, निकट भेज देता अपनापनआचार्य श्री विद्यासागर

    भारत को भारत बनाना हैं - आचार्य श्री विद्यासागर जीआचार्य श्री विद्यासागर

    आचार्य श्री विद्यासागर जी दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

    आज के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

    10 मई 2023 आचार्य श्री जी के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

  • Videos

  • उपकरण मोक्षमार्ग (7).jpg

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    आचार्यश्री विद्यासागर जी की सूक्तियाँ (quotes)
  • पूर्व संस्कार

    गर्मी बहुत थी उस दिन तापमान लगभग 48 - 49 C पर पहुँच गया था, विहार चल रहा था आचार्य श्री से शिष्य ने कहा कि- गर्मी में बहुत परेशानी होती है और सल्लेखना के समय और भी होती होगी।   आचार्य श्री जी ने कहा - आप लोगों को यह दाल-रोटी की गर्मी है सल्लेखना के समय तो मठा इत्यादि लेते है इसलिए इतनी गर्मी नहीं बढ़ती। आज के ये अनुभव, संस्कार सल्लेखना के समय काम आयेंगे। ज्यादा उपवास करने की आवश्यकता नहीं है, बस संस्कार डालते चलो काम होता जायेगा।   पुनः शिष्य ने कहा कि - एक कथानक आता है कि सल

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    अनुभूत रास्ता

    पक्का रंग

    मनुष्य के पास पाँच इन्द्रियाँ हुआ करती हैं जिनके माध्यम से वह विषयों को ग्रहण करता रहता है। यह संसारी प्राणी अनादिकाल से चार संज्ञाओं (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह) और पंचेन्द्रियों के विषयों के वशीभूत होता आया है और ज्ञान का हमेशा दुरुपयोग करता आया है। इसने अपने मन को कभी भी वश में नहीं किया इसलिए इसके इतिहास में पाँच पापों की लालस्याही पुती हुई है।   आचार्य श्री जी ने बताया कि-पाँच इन्द्रियों का व्यापार जीव की मानसिकता को बता देता है। यह जीव स्वयं इन्द्रिय और मन का दास बनकर उसकी पूर्ति

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    अनुभूत रास्ता
  • विचार सूत्र संकलन

  • वोट की शक्ति पहचानो

    जनता का भी कर्तव्य होता है कि वह ऐसे व्यक्ति का चयन करे जो अहिंसक हो। पापों का समर्थन करने वाले व्यक्ति का चयन नहीं करना चाहिए। यह प्रजातन्त्र है। यहाँ प्रजा ही अपने प्रतिनिधि का चुनाव करती है। अत: जनता को बड़े सोच विचारकर, विवेकपूर्ण उस व्यक्ति का चुनाव करना चाहिए जो प्रजा को सुख-समृद्धि के लिए व्यवस्था दे एवं देश की गरिमा को कलंकित न करे, जो पशु हत्या रोके, कत्लखाने बंद कर पशुओं का संरक्षण करे एवं अहिंसा, दया, न्याय का पालन करे। आपके वोट में बहुत शक्ति है। आप जरा विचार करो, जिनको आपने चुना है

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार

    उद्यम करो ऊधम नहीं : समृद्धि संभव

    यदि हम अपने देश की समृद्धि चाहते हैं तो वह समृद्धि उद्यम से ही हो सकती है, ऊधम से नहीं लेकिन आज हम उद्यम कम ऊधम ज्यादा कर रहे हैं। ऊधम से दम घुटता है, हम उद्यम करें, ऊधम नहीं। यदि हम उद्यम करेंगे तो हम एक सही आदमी बन सकते हैं और सही आदमी बनने के बाद ही हमारा कदम एक आचरण की कोटि में आ सकता है अत: हम उद्यम करें, ऊधम नहीं। मांस का निर्यात करना देश में ऊधम करना है क्योंकि यह उद्यम नहीं कहलाता। आज हमारे सामने हमारा कोई उद्देश्य नहीं है, विश्व का कल्याण तभी हो सकता है जबकि उसके सामने अपना एक उद्देश्य

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार

    यह मेरा तन भी वतन की सम्पदा

    गुरुवर आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि "यह मेरा तन भी वतन की सम्पदा है, यह शरीर भी राष्ट्रीय संपत्ति है इसका दुरुपयोग मत करो”, इससे बड़ा राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र भक्ति और राष्ट्रीयता की मिसाल और क्या हो सकती है। यह राष्ट्रीयता का जीवन आदर्श है। आज हम अपने राष्ट्र को भी अपना राष्ट्र नहीं समझ रहे हैं तो फिर इस शरीर की तो बहुत दूर की बात है। वस्तुत: हमारा यह तन राष्ट्रीय संपत्ति ही है और समझना चाहिए। प्रत्येक प्राणी का तन राष्ट्रीय संपत्ति है इतना ही नहीं चाहे वह मनुष्य हो या जानवर। वे सब र

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार
  • पाठ ९ जिनमार्ग पोषक 

    गुरु वह आध्यात्मिक शिल्पकार हैं, जो शिष्य को दीक्षा के साँचे में ढालकर न केवल एक मूर्ति का रूप देते हैं, बल्कि निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक संस्कारों के रंग-रोगन से भरकर उसके जीवन को श्रेष्ठ बनाते हुए उस पर अनुग्रह करते हैं। गुरु के द्वारा शिष्य में पोषित किए जाने वाले ऐसे ही अनमोल संस्कारों एवं शिक्षाओं से जुड़े कुछ प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है। आचार्यश्रीजी उच्चकोटी के साधक होने के साथ-साथ श्रमण परंपरा को संप्रवाहित करने के लिए शिष्यों को संग्रहित एवं अनुग्रहित करने व

    Vidyasagar.Guru
    Vidyasagar.Guru
    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ १० जैसे के जैसे 

    कहते हैं कि कार्य के आरंभिक समय में उत्साह एवं विशुद्धि का होना इतना महत्त्वशाली नहीं, जितना कि कार्य की पूर्णतापर्यंत उसका अनवरत बना रहना। इसी तरह दीक्षा के समय वैराग्य, उत्साह एवं विशुद्धि का होना तो स्वाभाविक है। महत्त्व तो तब है, जब समाधिमरण पर्यंत तक वह अनवरत बनी रहे।आचार्य भगवन् श्री विद्यासागरजी मोक्षमार्ग के एक ऐसे महत्त्वशाली व्यक्तित्व हैं, जिनकी विशुद्धि, उत्साह, चेतना एवं आध्यात्मिकता दीक्षा के समय जैसी थी, आज ५० वर्ष पश्चात् भी वैसी की वैसी ही है। वह तब से अब तक 'जैसे के जैसे हैं। ग

    Vidyasagar.Guru
    Vidyasagar.Guru
    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ ७ उत्तम दस धर्मधारी 

    आचार्य भगवन् कहते हैं- 'आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादिधर्मों से ही मानी जाती है।' मूल गुणों में पठित दस धर्मों का आचार्यश्रीजी पूर्ण निष्ठा एवं उत्कृष्टता से किस तरह परिपालन करते हैं, इससे जुड़े हुए कुछ प्रसंगों को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।     श्रमणत्व अंगरक्षक : दस धर्म    * अर्हत्वाणी * धम्मो वत्थु-सहावो ... .... जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८॥   वस्तु के स्वभ

    Vidyasagar.Guru
    Vidyasagar.Guru
    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक
  • कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)

    कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)   ‘कल्याणमंदिर स्तोत्र' आचार्य कुमुदचन्द्र, अपरनाम श्री सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित है। इसका पद्यानुवाद आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज.) में सन् १९७१ के वर्षायोग में किया। इस स्तोत्र को पार्श्वनाथ स्तोत्र भी कहते हैं। मूल स्तोत्र एवं अनुवाद दोनों ही वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध हैं।   इस कृति में उन कल्याणनिधि, उदार, अघनाशक तथा विश्वसार जिन-पद-नीरज को नमन किया गया है जो संसारवारिधि से स्व-पर का सन्तरण करने के लिए

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    कल्याण मंदिर स्तोत्र 2

    अंतर घटना

    उपलब्ध जैन-दर्शन साहित्य में प्राकृत-भाषा-निष्ठ साहित्य का बाहुल्य है। कारण यही है कि यह भाषा सरल, मधुर एवं ज्ञेय है। इसीलिए कुन्दकुन्द की लेखनी ने प्राकृत-भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना कर डाली। उन अनेक सारभूत ग्रंथों में अध्यात्म-शान्तरस से आप्लावित ग्रंथराज 'समयसार' है। इसमें सहज-शुद्ध तल की निरूपणा, अपनी चरम सीमा पर सोल्लास 'नृत्य करती हुई. पाठक को, जो साधक एवं अध्यात्म से रुचि रखता है, बुलाती हुई सी प्रतीत होती है। यथार्थ में, कुन्दकुन्द ने अपनी अनुभूतियों को 'समयसार' इस ग्रंथ के रूप में रूप

    Vidyasagar.Guru
    Vidyasagar.Guru
    कुन्दकुन्द का कुन्दन

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी   ज्ञानावरणादिक कर्मों से, पूर्णरूप से मुक्त रहे। केवल संवेदन आदिक से युक्त, रहे, ना मुक्त रहे ॥ ज्ञानमूर्ति हैं परमातम हैं, अक्षय सुख के धाम बने। मन वच तन से नमन उन्हें हो, विमल बने ये परिणाम घने ॥१॥   बाह्यज्ञान से ग्राह्य रहा पर, जड़ का ग्राहक रहा नहीं। हेतु-फलों को क्रमशः धारे, आतम तो उपयोग धनी॥ ध्रौव्य आय औ व्यय वाला है, आदि मध्य औ अन्त बिना। परिचय अब तो अपना कर लो, कहते हमको सन्त जना ॥२॥   प्रमेयतादिक गुणधर्

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    स्वरूप संबोधन पच्चीसी
  • सर्वोदयसार 21 - सन्मति मिले समर्थ

    कल्पवृक्ष से अर्थ क्या कामधेनु भी व्यर्थ। चिन्तामणि को भूल जा सन्मति मिले समर्थ।   अनन्तकाल से यह आत्मा अज्ञान दशा में सोई हुई आ रही है। यह जागे इसका उदय हो इसलिये इस सर्वोदय तीर्थ पर समय-समय पर कार्यक्रम आयोजित किये गये। संसारी प्राणी सांसारिक लिप्साओं की पूर्ति के लिये बहुत सारी चिन्तायें/कामनायें करता है पर सन्मति/सद्बुद्धि पाने की कामना नहीं करता। एक बार यह मिल जाये तो फिर किसी की आवश्यकता नहीं। आज तक इसे पर का ही परिचय प्राप्त हुआ है स्व का नहीं, अब हमें पर की बात नहीं करना,

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    विद्या वाणी

    सर्वोदयसार 22 - आत्मद्रष्टि ही अपना पथ

    इस संसार में बहुत सारे कठिन कार्य हैं किन्तु मान को नियंत्रण में रखना सबसे कठिन कार्य है। यह मान कषाय की ही परणति है कि हम अपनी मान्यता दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं पर दूसरों की मान्यता हम स्वीकार करना नहीं चाहते। हम यह देखते रहते हैं कि हमारी मान्यता का समर्थन कौन-कौन कर रहा है। जिस प्रकार फूल को यदि पानी मिलता रहे तो वह खिला रहता है किन्तु पानी नहीं मिलने पर वह मुरझा जाता है ठीक इसी प्रकार हमारी प्रसन्नता दूसरों पर टिकी हुई है। परन्तु भगवान् कहते हैं कि अपने जीवन को दूसरों से नहीं अपने आ

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    विद्या वाणी

    कुण्डलपुर देशना 8 - अनंतकालीन संतति

    आत्मिक संस्कारों के सामने वैषयिक संस्कार बलजोर नहीं हो पाते, अपितु बलहीन हो जाते हैं। विषय कषायों के संस्कार तो अनंतकालीन हैं जो अज्ञान के कारण सदा बलजोर रहे, पर जो व्यक्ति तत्वज्ञान को प्राप्त कर लेता उसके बुरे संस्कार समाप्त होना प्रारंभ हो जाते हैं। उसमें ऐसी भी शक्ति विद्यमान है जिससे अत्यल्प समय में भी उन्हें धोया जा सकता है। संसारी प्राणी तो पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति राग के आकर्षण से खिंचता चला जाता किन्तु जिसके पास तत्व ज्ञान होता, वह उन विषयों के बीच में रहते हुए उनसे निर्लिप्त अप्रभाव

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    विद्या वाणी
×
×
  • Create New...