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सकामता के साथ निष्कामता का संघर्ष


संयम स्वर्ण महोत्सव

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सकामता के साथ निष्कामता का संघर्ष

 

माता-पिता ने सोचा इसे छोटी-सी बात कहकर मनवा लेना चाहिए, फिर तो यह खुद ही अपने दिल में आई हुई बात को भूल जावेगा। सब यही सोचकर उन्होंने कहा था कि विवाह तो करलो। इस पर जम्बू ने विचार किया कि ये माता-पिता हैं। इनका इस मेरे शरीर पर अधिकार है अतः इस साधारण सी बात के लिये नाराज करना ठीक नहीं है। वैरागी का अर्थ किसी को नाराज करना या किसी पर नाराज होना नहीं है। वह तो स्वयं आत्मावत् परमात्मा के समझा करता है। उसकी निगाहों में तो जितनी अपने आप की कीमत होती है। उतनी ही दूसरे की भी। फिर तो ये मेरे इस जन्म के माता-पिता हैं, इनका तो इस शरीर की ओर निगाह करते हुए बहुत ऊँचा स्थान है। फिर कहा कि -

 

"ठीक है, आप कहते हैं तो मैं विवाह कर लूंगा किन्तु दूसरे ही राज गुरु के चरणों में जा प्राप्त होऊँगा।" जिन आठ लड़कियों के साथ जम्बू का विवाह होना निश्चित हुआ था उन्हें भी सावधान कर दिया गया। उन सबने जवाब दिया हम तो प्रतिज्ञा कर चुकी हैं कि इस जन्म में तो हमारे ये ही पति हैं, इनके अतिरिक्त और सब नर तो हमारे बाप, भाई समान हैं अतः बेखटके शादी रचा दी जावे, फिर या तो हम उन्हें लुभा लेगीं या हम सब भी उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर लेंगी। विवाह हो गया और सुना जाता है कि उसमें इन्हें 99 करोड़ सोने का दहेज मिला। परन्तु जहां वैराग्य है वहां चक्रवर्ती की सम्पदा भी तिनके के समान है निस्सार है, वह उसकी नहीं, अगर है भी तो दुनिया की है। असतु, रात हुयी और रंगमहल में जहां कि विषयानुराग वर्द्धक सभी तरह का परिकर संभव से भी अधिक संख्या में जुटाया गया था वहां एक तरफ तो दिल से समता को संभाले हुए स्वयं जम्बूकुमार विराज रहे थे, उधर दूसरी तरफ उनकी नव विवहिता आठों पत्नियां वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर ममता की मोहक महक लिए हुए आकर खड़ी थीं। जो कि अपना रंग उन पर जमाना चाह रही थीं, परन्तु वहां उनके चित्त पर तो साधु सुधर्माचार्य की चरण सेवा का अमिट रंग लगा हुआ था वहां दूसरा रंग कैसे चढ़ सकता था?

 

इधर एक ओर घटना घटी। एक प्रभव नाम का प्रख्यात चोर था, जो कि पांच सौ चोरों का सरदार था, उसने सुना कि जम्बू को दहेज में खूब धन मिला है, चलो आज उसी पर हाथ साफ किया जावे। इस चोर की यह विशेषता थी कि जहां भी वह जाता था वहां के लोगों नींद लिवा देता था ओर अपना काम बड़ी आसानी से कर लिया करता था। वह आया और धन की गठरियां बांध कर चलने को तैयार हुआ तो उसके पैर चिपक गये और चोर आश्चर्य में पड़ा और इधर-उधर देखने लगा तो बगल के कमरे में औरत मर्द आपस में बात कर रहे थे। चोरों की फिक्र छोड़कर कर प्रभव पहुंचा और जम्बू को उसे जुहार किया जम्बूकुमार बोले कौन है? प्रभव! तुम आज यहां इस समय कैसे आये? प्रभव ने कहा प्रभो! अपराध क्षमा कीजिये, मैं चोरी करने के लिए आया था।

 

आज तक मैं मेरे काम में कहीं भी असफल नहीं हुआ किन्तु आज आपने मुझे हरा दिया आपके पास ऐसा कौन-सा मंत्र बल है कि जिससे धन लेकर जाते हुए मेरे पैर चिपक गये। जम्बूकुमार बोले प्रभव! मुझे तो पता ही नहीं कि तुम कब आये और क्या कर रहे थे, में तो सिर्फ गुरुचरणों की सेवा का मंत्र जपता हूं और अपने मन में उसी की टेर लिए हुए हूं प्रभात होते ही मैं उनके पास जाकर निर्ग्रन्थव्रत ग्रहण करने वाला हूं। तब फिर इस सारी सम्पत्ति को तुम ले जाना। मैं स्वेच्छा से इसका अधिकारी तुम्हें बनाता हूं, फिर इसमें चोरी करने की बात कौनसी है? ऐसा सुनकर प्रभव बहुत प्रभावित हुआ, उसने मन में सोचा कि- यह भी तो पुरुष ही है जो प्राप्त हुई सम्पत्ति (लक्ष्मी) को इस तरह से ठुकरा रहा है। और कहने के लिए तो मैं भी पुरुष ही हूं जो कि एक पागल की तरह इसके पीछे फिर रहा हूं फिर भी यह मुझे प्राप्त नहीं होती, तथा हो भी जाती है तो ठहरती नहीं है।

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