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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आचार्यश्री जी और सल्लेखना


    जैनधर्म में सल्लेखना/समाधि का स्वरूप

    जैनधर्म एक ऐसा धर्म है जो मनुष्य के लिये जन्म के बाद जीने की कला सिखाता है और अपने जीवन का अंत कैसे करना है इसके लिए मरण की पद्धति भी बतलाता है। जैनधर्म के उपासक श्रमण और श्रावक दोनों अपने व्रत संयम का पालन करते हुए अपने जीवन को ज्ञान-ध्यान में लगाये रखते हैं। जैनदर्शन एक सात्विक आहार और सात्विक विचार की संस्कृति वाला धर्म है। इस धर्म के मानने वाले अहिंसा, दया, करुणा को अपने जीवन का मूल सिद्धान्त मानकर के अपने धर्म की आराधना करते हुए जीवन जीते हैं। अब इस मानव देह का स्वभाव है, जन्म हुआ है तो इसका मरण भी एक दिन होता ही है। जैनधर्म का उपासक, साधक, मुनि और श्रावक व्रतों का पालन करता हुआ और इसके साथ अपने अंदर त्याग, वैराग्य की परिणति को बढ़ाता हुआ अपनी इन्द्रियों को संयमित करने के लिये भोजनपान और पाप-परिग्रह आदि की वृत्ति को संयमित और सीमित करके सर्वप्रथम श्रावक के व्रतों का पालन करता हुआ जीवनयापन करता है और जैसे ही अपने संपूर्ण पाप और परिग्रह का त्याग करता है, इन्द्रिय संयम का पालन करता हुआ वैराग्य भाव को बढ़ाता जाता है और मुनि बन कर के अपने इन्द्रिय और प्राणी संयम का पालन करता हुआ अपनी आत्म-साधना करता हुआ अपनी इस देह से अपने आत्म तत्व को जानने का पुरुषार्थ करता रहता है।

    जब जन्म-मृत्यु की पीड़ा से पीड़ित प्राणी संसार चक्र को समाप्त कर लेने की सोच लेता है, तब मृत्यु की अनिवार्यता पर अफसोस नहीं मात्र सावधानी का अवलम्बन लेता है। अपने शरीर को साधता हुआ यथायोग्य आहार पानी करता हुआ शरीर को धीरे-धीरे क्रमश: अपनी त्याग व्रती के माध्यम से उसे कृश करता हुआ अपना मार्ग प्रशस्त करता चला जाता है। जैसे-जैसे शरीर की साधना करता है पर उसकी मानसिक दुर्भावनायें जैसे -क्रोध, घृणा, अहंकार, ईष्र्या, लोभ जैसी तीव्र दुर्भावनाओं को दूर करता हुआ अपने अंदर सदा प्रसन्नता, प्रेम, करुणा, दया और आत्म वैराग्य की परिणति को बढ़ाता चला जाता है। वह अपने संसार के सारे सम्बन्ध और राग-द्वेष के जनक ऐसे शोक आदि के कारण जमीन, जायदाद आदि का स्नेह जैसी सूक्ष्म ग्रंथियों को खोलकर मन को निर्विकार करके वह साधक सल्लेखना की साधना में निमग्न हो जाता है।

    भारतीय संत परम्पराओं में मृत्यु के भय को कोई स्थान नहीं है, उसमें भी जैनदर्शन में तो साधक हमेशा मृत्यु के आमंत्रण को स्वीकार करने वाला होता है। वह कभी मृत्यु से डरता नहीं है, हमेशा यही भावना भाता है कि मेरे जीवन का अंत समाधि मरण के साथ हो। वह अपना शौर्य और धैर्य दोनों अपने साथ रखकर के अपनी साधना को बढ़ाता चला जाता है। भारत के अनेक दर्शनों में सल्लेखना का उल्लेख एवं विधि-विधान को नियोजित किया गया है, किन्तु जैनदर्शन ने गृहस्थों के लिये भी एक १२ व्रतों के पालनरूप आचार संहिता दी है तो गृह त्याग कर श्रमण बनने वाले ऐसे मुनिराजों के लिये भी एक २८ मूलगुणों के पालन रूप आचार संहिता प्रदान की है। आचार संहिता में अनेक प्रकार के व्रत-संयमों का संकल्प लेकर अंतिम व्रत उसका सल्लेखना हुआ करता है। 

    सल्लेखना क्या है ?

    जैन मुनि एवं श्रावकों की सल्लेखना की साधना क्या है? तो इसका सीधा सा उत्तर है अपनी इस देह से आत्मा की विदाई की अंतिम बेला। वह साधक अपनी देह की स्थिति हर पल ध्यान में रखता है, उसकी स्थिति का निरीक्षण करता रहता है। शरीर की स्थिति जैसे-जैसे कमजोर होती जाती है, तो वह धीरे-धीरे आहार पानी को कम करता जाता है। उसकी इस प्रकार की साधना को जैन दर्शन में सल्लेखना अथवा समाधि और श्वेताम्बर जैन मत के अनुसार संथारा शब्द का प्रयोग किया गया। ‘सल्लेखना' शब्द का अर्थ हम देखें तो इसका अर्थ सत्लेखना अर्थात सत् यानि समीचीन रूप से, अपने आपकी आत्मा का लेखन करना, संशोधन करना, निरीक्षण करना, उसका परिमार्जन करना ही सल्लेखना है। अपने अंदर की कषायों को यानि अपने अंदर के क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारी भावों का संशोधन करता हुआ धीरे-धीरे सल्लेखना की साधना करता है। 

    सल्लेखना कब और किस समय ?

    आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है कि सल्लेखना कब और किस समय ली जाती है


    उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे। 
    धर्माय तनु विमोचन माहुः, सल्लेखना मार्या ॥१२२॥

     
    अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् ने, उपसर्ग होने पर, दुर्भिक्ष पड़ा हो, बुढ़ापा आने पर, ऐसी बीमारी जिसका कोई प्रतिकार न हो, ऐसे समय में अपने रत्नत्रय धर्म की रक्षा के लिए अपने तन का मोह छोड़ देना ही सल्लेखना कहा है।

    सल्लेखना विधि तर्क एवं अनेक चरणों में विभाजित की गई है। सल्लेखना को भी किन्हीं परिस्थितियों में टालने का विधान भी किया गया है, उनमें है युवावस्था या रोग जिसका प्रतिकार किया जा सके। ऐसी स्थिति में सल्लेखना नहीं ली जाती है, पर विषम परिस्थितियों का आगमन हो जाने पर काल अल्प हो किन्तु एक क्षण ऐसी परिस्थिति हो जाती है जो अपरिहार्य रूप में स्थिति हो तब सल्लेखना ली जा सकती है। जैसे उपसर्ग के आने पर और दुर्भिक्ष का वातावरण आने पर असाध्य रोगों का आक्रमण होने पर ही सल्लेखना धारण की जा सकती है और जिसे मिटाया नहीं जा सकता, हटाया नहीं जा सकता ऐसे वृद्धावस्था को देखकर के वह साधक, श्रमण या श्रावक दोनों अपने जीवन के अंत में सर्वप्रकार का आरंभ-परिग्रह त्याग करके और संतोष व्रत को धारण करते हुए, किसी कषाय आदि भावों को न रखता हुआ समता भाव के साथ अपने जीवन का उपसंहार सल्लेखना के साथ करता है। कभी-कभी सल्लेखना के रहस्य का न समझने वाले अनभिज्ञ पुरुषों के द्वारा सल्लेखना की क्रिया को आत्महत्या जैसे शब्द लगने लगते हैं, किन्तु सल्लेखना आत्महत्या नहीं है। 

    सल्लेखना क्या आत्मघात है ?

    सल्लेखना क्या आत्मघात है? नहीं है तो सल्लेखना आत्मघात नहीं है आत्म साधना की उत्कृष्ट क्रिया है। इस साधना को ध्यान से समझने की जरूरत है। आत्मघात किस स्थिति में किया जाता है, इसका हम तुलनात्मक अध्ययन करें।

    सल्लेखना आत्मघात नहीं

    आत्महत्या सल्लेखना
    जिन्हें कोई मानसिक टेंशन होता है, वह आत्मघात करता है। सल्लेखना का साधक मानसिक टेशन नहीं रखता हैं वह सदा अटेंशन रहता है, सजग रहता है।
    जिसको अपने जीवन में अपना परिवार बोझ लगने लगे वहे करता है | सल्लेखना का साधक अपने परिवारजनों से आज्ञा लेकर व्रत करता है। संयम का पालन करता हुआ उत्साह के साथ इस व्रत की स्वीकार करता है।
    जिस समाज में वह रहता है,जब वह किसी कारण से समाज में हीन भावना से ग्रसित हो जाये तब वह करता है। सल्लेखना का साधक सभी समाज जन की बीच रहकर सभी श्रावक श्रमण गण उसकी सेवा करते हैं, उसका सहयोग करते हैं।
    क्षणिक आवेग में आ जाने सेभी मनुष्य आत्मघात कर लेता है। सल्लेखना वाले साधक को भी मानसिक आवेग नहीं होता है | वह वैराग्य, संवेग भाव से भरा होता है, किसी के प्रति वैर भाव नहीं रखता है।
    आत्महत्या छुपकर की जाती है। सल्लेखना छुपकर नहीं होती सबकी सदावनाओं को लेकर पूरी समाज और जनसमूह के बीच में साधना करता है।

    इस प्रकार हम सल्लेखना की इस प्रक्रिया को मात्र जैन दर्शन में नहीं, हमारी सारी भारतीय संस्कृति की सनातन धर्म परम्परा का अंग है। गीता, रामायण आदि में सल्लेखना की क्रिया का समर्थन और बहुत ही उत्तम स्थान दिया गया है। आज वर्तमान में इस क्रिया को आत्महत्या और सती प्रथा के समान मानकर आत्महत्या कहा जा रहा है। यह सिर्फ अध्ययन की गहराई का अभाव होने से इस प्रकार के निर्णय हो रहे हैं। हमें अपने संस्कृति, धर्म की परम्परा की रक्षा के लिये समीचीन निर्णय करना जरूरी है |

    भारत के इतिहास के पन्नों में सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य, नीति विशेषज्ञ कुमारिल्ल जैसे सम्राटों ने तथा भद्रबाहु जैसे महान् संतों ने जीवन की अंतिम साँसों में सचेतता के साथ सल्लेखना व्रत को धारण कर अपने संयम साधना को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये सल्लेखना के साथ स्वयंवर किया।

    २०वीं शताब्दी में सल्लेखना को पुनर्जीवित करने वाले जैनाचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागरजी महाराज ने सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरि जी में ३६ दिन तक मात्र जल ग्रहण करके मृत्यु से साम्य, सौम्य, विचारों के साथ मिलन किया। द्वितीय भाद्रपद शुक्ल-२, विक्रम संवत-२०२१ दिनरविवार, १८ सितम्बर सन्—१९५५, बीसवी सदी के उद्घाटक अग्रगामी बनकर के विन्ध्यांचल की पहाड़ियों को पार कर सारे भारत में व्याप्त हो गये। उनकी यह विचारधारा से प्रभावित होकर संत विनोबा भावे ने अपने जीवन में सल्लेखना जैसे व्रत को अपनाया।

    आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की परम्परा में संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् अनेक महाकाव्यो के रचयिता आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज ने भीषण गर्मी के बीच में सल्लेखना व्रत का संकल्प लिया और अपने ही शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज के लिये अपना आचार्य पद देकर उन्हें अपना निर्यापकाचार्य बनाकर उनके ही चरण सन्निधि में रहकर सल्लेखना की साधना की और आचार्यश्री ने उनकी सेवा कर अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर भीषण गर्मी में अपने ही गुरु महाराज की समाधि कराई।

    इस श्रमण परम्परा के आज अग्रणी आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज एक ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने अपनी आत्मसाधना के बल से अनेक साधकों की सल्लेखना कराई। इसमें सर्वप्रथम उन्होंने अपने गुरुदेव आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज की सल्लेखना कराई। ऐसे गुरुवर के मार्गदर्शन में अनेक समाधियाँ हुई, जिनका क्रमश: वर्णन इस प्रकार है

    आचार्यश्री के सानिध्य एवं निर्देशन में हुई समाधियों का परिचय

    १. मुनि श्री पवित्रसागरजी महाराज
    शुक्रवार, १०.०१.१९६९, माघ कृष्ण षष्ठी, वि० सं० २०२५ को केसरगंज, अजमेर में ७६ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आपका पूर्व में नाम ब्र० श्री पन्नालालजी था। आपको आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने दीक्षा दी थी।

    २. मुनि श्री पाश्र्वसागरजी महाराज
    बुधवार, १६.०५.१९७३, वैशाख शुक्ल चतुर्थी, वि० सं० २०३० को नसीराबाद, अजमेर में आपकी समाधि हुई। आप आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि देखने आये १५ मई को आकस्मिक व्याधि हो जाने से आपका समाधिमरण हुआ।

    ३. आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज
    sallekhna.pngज्ञान एवं तप में युवा आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का शरीर वृद्धावस्था के कारण क्रमश: क्षीण होने लगा। गठिया के कारण सभी जोड़ों में अपार पीड़ा होने लगी। इस स्थिति में उन्होंने स्वयं को आचार्य पद का निर्वाह करने में असमर्थ पाया और जैनागम के नियमानुसार आचार्य-पद का परित्याग कर सल्लेखना व्रत ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय किया। अपने संकल्प को कार्य रूप में परिणति करने हेतु उन्होंने नसीराबाद में मगसिर कृष्ण २, वि० सं० २०२९, बुधवार, २२ नवम्बर, १९७२ को लगभग २५००० जनसमुदाय के समक्ष अपने योग्यतम शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी से निवेदन किया-‘‘यह नश्वर शरीर धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है, मैं अब आचार्य पद छोड़कर पूर्णरूपेण आत्मकल्याण में लगना चाहता हूँ। जैनागम के अनुसार ऐसा करना आवश्यक और उचित है, अत: मैं अपना आचार्य पद तुम्हें सौंपता हूँ।”

    आचार्यश्री के इन शब्दों की सहजता तथा उनके असीमित मार्दव गुण से मुनि श्री विद्यासागर जी द्रवित हो उठे। तब आचार्यश्री ने उन्हें अपने कर्तव्य, गुरु सेवा, भक्ति और आगम की आज्ञा का स्मरण कराकर सुस्थिर किया। उच्चासन का त्यागकर उसपर मुनि श्री विद्यासागरजी को विराजित किया। शास्त्रोत विधि से आचार्य पद प्रदान करने की प्रक्रिया सम्पन्न की। अनन्तर स्वयं नीचे के आसन पर बैठ गये। उनकी मोह एवं मान मर्दन की अद्भुत पराकाष्ठा चरम सीमा पर पहुँच गयी। अब मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने अपने आचार्य श्री विद्यासागरजी से अत्यन्त विनयपूर्वक निवेदन किया

         "भो गुरुदेव! कृपा कुरु।"
        हे गुरुदेव! मैं आपकी सेवा में समाधि ग्रहण करना चाहता हूँ। मुझ पर अनुग्रह करें। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अत्यन्त श्रद्धा विह्वल अवस्था में उनको सल्लेखना व्रत ग्रहण कराया। मुनि श्री ज्ञानसागरजी सल्लेखना व्रत का पालन करने के लिए क्रमश: अन्न, फलों के रस एवं जल का परित्याग करने लगे। २८ मई, १९७३ को आहार का पूर्ण रूपेण त्याग कर दिया। वे पूर्ण निराकुल होकर समता भाव से तत्व चिन्तन करते हुए आत्मरमण में लीन रहते। आचार्य श्री विद्यासागरजी, ऐलक सन्मतिसागरजी एवं क्षुल्लक स्वरूपानंदजी निरन्तर अपने पूर्व आचार्य के समीप रहकर तन्मयता व तत्परता से सेवा करते, सम्बोधित करते थे।

    ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, १ जून, १९७३ का दिन, समाधिमरण का पाठ चल रहा था। चारों ओर परम शांति थी। 'ॐ नम: सिट्रेभ्य:' का उच्चारण हृदयतन्त्री को झंकृत कर रहा था। उसी समय आत्मलीन मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने प्रात: १०: ५० मिनट पर पार्थिव देह का परित्याग कर दिया।

    ४. क्षुल्लक श्री श्रेयांससागरजी महाराज
    आपकी समाधि आचार्यश्री ने करायी। सन् १९७४, सोनीजी की नसियां, अजमेर में। तारीख, तिथि उपलब्ध नहीं हो पायी। 

    ५. क्षुल्लक श्री चन्द्रसागरजी महाराज
    आषाढ़ कृष्ण अमावस्या, वि० सं० २०३५ बुधवार, सन् १९७८ में सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी, जिला-छतरपुर (म०प्र०) में सायं ७:३० बजे आपकी समाधि हुई। यह समाधि ८ दिन चली। 

    ६. श्री समाधिसागरजी (दशम् प्रतिमाधारी)
    शनिवार, १४.०८.१९८२, भाद्रपद कृष्ण दशमीं, वि० सं० २०३९ को दोपहर १०:५५ बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरि जी, जिला— छतरपुर (म॰प्र॰) में ७४ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आपका पूर्व नाम ब्र० राजारामजी वर्णी था। आपने दसवीं प्रतिमा के व्रत लेकर २२ जून १९८२ को संकल्प, अन्न त्याग, समाधिसागर नामकरण, २६ जून, १९८२ को दूध त्याग, २५ दिन बाद छाछ त्याग, २१ दिन बाद जल त्याग पूर्वक समाधि हुई। 

    ७. श्री समतासागरजी (दशम् प्रतिमाधारी)
    सोमवार, १८.१०.१९८२, आश्विन शुक्ल द्वितीया, वि• सं २०३९ को सायं ४ बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरि जी, जिला-छतरपुर (म॰प्र॰) में ८३ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आपका पूर्व नाम ब्र० श्री चिरोंजीलाल जैन, विदिशा था। आपने २० जुलाई, १९८२ को दस प्रतिमा सल्लेखना व्रत क्षेत्र न्यास एवं समतासागर नामकरण, १४ अगस्त, १९८२ अन्न त्याग, एक माह बाद १३ सितम्बर, १९८२ को छाछ त्याग, ३४ दिन बाद १६ अक्टूबर, १९८२ को जल त्याग पूर्वक समाधि हुई। 

    ८. श्री स्वभावसागरजी (दशम् प्रतिमाधारी)
    मंगलवार ०२-११-१९८२, कार्तिक कृष्ण एकम्, वि• सं २०३९ को श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरि जी, जिला-छतरपुर (म॰प्र॰) में ९३ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आपका पूर्व नाम श्री बालचंद जैन (महुनावारे) था। आपने १ अक्टूबर, १९८२ को दस प्रतिमा नामकरण, अन्न त्याग, ३१ दिन बाद २ नवम्बर छाछ त्याग, जल त्याग, रात्रि ११:२० पर समाधि मरण। 

    ९. ऐलक श्री सुमतिसागरजी
    सोमवार, १५.११.१९८२, कार्तिक कृष्ण अमावस्या दीपावली की प्रातः ८ बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरि जी, जिला-छतरपुर (म॰प्र॰) में आपकी समाधि हुई। आप १९ सितम्बर, १९८२ को नैनागिरी जी आये, २० सितम्बर से मात्र छाछ एवं जल, आहार पूर्व से ही लकवा की शिकायत होने के कारण १० नवम्बर, १९८२ को दोनों ग्रहण में अशक्यता, अंतिम ५ दिन निराहार रहे। 

    १०. क्षुल्लक श्री सिद्धान्तसागरजी महाराज
    २४ मई, १९८३ ईसरी (बिहार) में ख्याति प्राप्त बा० ब्र० श्री जिनेन्द्रकुमारजी वर्णी से प्रसिद्ध विद्वान् जैनसिद्धान्तकोश के प्रणेता, आपने आचार्य श्री से १५ अप्रैल, १९८३ को क्षुल्लक दीक्षा ली।। १७ अप्रैल से सल्लेखना प्रारम्भ हुई। क्रमश: साधना करते हुए ३५-३६ दिन की समाधि काल रहा। २४ मई, १९८३ को आपकी समाधि हुई। 

    १. ब्रह्मचारी श्री दीपचंदजी
    मंगलवार, १८.०६.१९८५, आषाढ कृष्ण अमावस्या, वि, सं २०४२ को प्रातः ८ बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र अहारजी, जिला-टीकमगढ़ (म॰प्र॰) में ६० वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आपने ६ जून, १९८५ को अन्न त्याग किया, १३ जून, १९८५ को अहार जी आये एवं १८ जून, १९८५ को सल्लेखना हुई। 

    १२. मुनि श्री वैराग्यसागरजी महाराज
    सोमवार, ०९.०९.१९८५, भाद्रपद कृष्ण दशमीं, वि० सं० २०४२ को सायं ५:५० बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र आहारजी, जिला-टीकमगढ़ (म॰प्र॰) में ८२ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आप २८ जून, १९८५ की अहार जी आये, ३० जून, १९८५ को सल्लेखना हेतु निवेदन ०१ जुलाई, १९८५ चातुर्मास स्थापना के दिन आचार्यश्री के द्वारा मुनि दीक्षा दी गई, सल्लेखना विधि प्रारम्भ। २९ जुलाई, १९८५ को अन्न त्याग ७ अगस्त, १९८५ लौकी पानी का त्याग, ९ सितम्बर, १९८५ को मठा एवं जल का त्याग पूर्वक आपकी समाधि हुई। 

    १३. क्षुल्लिका श्री संयमश्री माताजी
    रविवार, ०८.१२.१९८५, मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, वि० सं २०४२ को रात्रि १२:१५ बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र अहारजी, जिला-टीकमगढ़ (म०प्र०) में ८० वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। ८ नवम्बर, १९८५ को क्षुल्लिका दीक्षा के पूर्व आपने अन्न का त्याग कर दिया, सिर्फ जल आदि ही लेती रहीं। ३ दिसम्बर, १९८५ को चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया और पाँच दिन उपवास के साथ ८ दिसम्बर, १९८५ को आपकी समाधि हो गई। 

    १४. ब्रह्मचारी श्री ताराचंदजी
    सोमवार १८.०८.१९८६, श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, वि० सं० २०४३ को रात्रि १२ बजे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पपौराजी, जिलाटीकमगढ़ (म॰प्र॰) में आपकी समाधि हुई। १५ दिनों तक आपकी सल्लेखना का काल रहा। 

    १५. क्षुल्लक श्री गुणभद्रसागर जी
    बुधवार २७.०८.१९८६, भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, वि० सं० २०४३ को दोपहर २ बजे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पपौराजी, जिलाटीकमगढ़ (म॰प्र॰) में आपकी समाधि हुई। 

    १६. क्षुल्लिका श्री आत्मश्री जी
    गुरुवार १९.०९.१९९१, भाद्रपद शुक्ल एकादशी, वि० सं० २०४८, उत्तम तप धर्म के दिन श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि जी, जिलाबैतूल (म॰प्र॰) में ७० वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आपकी क्षुल्लिका दीक्षा १९ सितम्बर, १९८१ को प्रातः ६ बजे हुई एवं इसी दिन प्रातःकाल ११ बजे आपकी सल्लेखना हो गई। 

    १७. श्री प्रज्ञाश्री जी (दशम् प्रतिमाधारी)
    मंगलवार, १०.११. १९९२, कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, चातुर्मास में दोपहर २ बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर जी, जिला-दमोह (म॰प्र॰) में आपकी समाधि हुई। आप जबलपुर व्रती आश्रम में रहीं। आप ४ नवम्बर, १९९२ को कुण्डलपुर आयीं। सल्लेखना के कुछ दिन पूर्व आपने आचार्य श्री से दसवीं प्रतिमा के व्रत लिये। आपका नामकरण प्रज्ञाश्री किया गया। 

    १८. क्षुल्लिका श्री समाधिमति माताजी
    बुधवार ०६.०१.१९९३, पौष शुक्ल त्रयोदशी, वि• सं २०४९ को प्रात: १०:२० बजे मढ़िया जी, जबलपुर (म॰प्र॰) में ७४ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आप जबलपुर ब्राह्मी विद्याश्रम की संचालिका रहीं, गुरु आज्ञा में रहकर करीब ३० दिन तक समाधि साधनारत रहीं, आपकी क्षुल्लिका दीक्षा २८ दिसम्बर, १९९२ को हुई। आपकी समाधि के समय ११० पिच्छीधारी उपस्थित थे । 

    १९. ब्रह्मचारी श्री राजधरलाल जी (सात प्रतिमाधारी)
    बुधवार, २१.०४.१९९३, वैशाख कृष्ण अमावस्या, वि० सं० २०५० को दोपहर १२:३० बजे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, बीनाबारहा जी, जिला-सागर (म०प्र०) में आपकी समाधि हुई। आप ऐलक श्री नि:शंकसागरजी महाराज के गृहस्थ अवस्था के पिता श्री थे। 

    २०. आर्यिका श्री १०५ निर्वाणामति माताजी
    शनिवार, २१.०८.१९९३, प्रथम भाद्र शुक्ल चतुर्थी, वि० सं २०५० को प्रातः ५:५५ बजे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेक, जिलानागपुर (महा॰) में ७९ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आपने १८ जुलाई, १९९३ से अन्न त्याग किया तथा १९ अगस्त, १९९३ की आचार्यश्री द्वारा आपको आर्यिका दीक्षा प्रदान की गई । 

    २१. आर्यिका श्री १०५ शान्तिमति माताजी
    मंगलवार, २१.०९.१९९३, द्वितीय भाद्र शुक्ल षष्ठी, उत्तम मार्दव धर्म, वि० सं० २०५० को रात्रि १०:५० बजे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेक, जिला-नागपुर (महा॰) में ९६ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आपने ६ अगस्त, १९९३ को अन्न त्याग किया तथा २२ अगस्त, १९९३ को आचार्यश्री द्वारा आपको आर्यिका दीक्षा प्रदान की गई।

    २२. क्षुल्लक श्री धर्मसागरजी महाराज
    शुक्रवार, २९.०८.१९९४, श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, वि० सं० २०५१ को सायं ७ बजे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेक, जिला-नागपुर (महा) में ७६ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आषाढ़ शुक्ल पंचमी, वि० सं० २०५१ आचार्यश्री के दीक्षा के २६ वर्ष पूर्ण होकर २७ वे वर्ष के प्रारम्भ में १० प्रतिमा ग्रहण कर २३ जुलाई, १९९४ श्रावण वदी एकम् शनिवार को क्षुल्लक दीक्षा आचार्यश्री द्वारा दी गई एवं नामकरण क्षुल्लक धर्मसागर किया। 

    २३. ब्रह्मचारी श्री रोशनलाल जी (सात प्रतिमाधारी)
    शुक्रवार, २३.०९.१९९४, आसोज कृष्ण चतुर्थी, वि• सं २०५१ को सायं ८:२५ बजे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेक, जिलानागपुर (महा) में ७५ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आप पूर्व में आचार्यश्री के संघ में रहे एवं दिगम्बर जैन युवक संघ के संघपति भी रहे। पर्युषण में एक आहार तथा एक उपवास की साधना की। 

    २४. क्षेल्लिक श्री पुनीतसागरजी
    मंगलवार, २६.०९.१९९५, आश्विन शुक्ल द्वितीया, वि० सं० २०५२ की दोपहर १२:१९ बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र, कुण्डलपुर, जिलादमोह (म॰प्र॰) में ९६ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। ५६ दिनों की सल्लेखना में आपके २९ उपवास हुए। १ से २७ अगस्त के बीच १० उपवास बाद में एक दिन के अंतर से एक उपवास। १४ सितम्बर, १९९५ को उपवास, १६ सितम्बर, १९९५ को छाछ एवं जल के अतिरिक्त सभी प्रकार के आहार का त्याग। २३ सितम्बर, १९९५ को क्षुल्लक दीक्षा। 

    २५. ब्रह्मचारी पंडित श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री (सात प्रतिमा— धारी)
    शनिवार, ०७.१०.१९९५, आश्विन शुक्ल चतुर्दशी, वि० सं० २०५२ को सायं ७:२० बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र, कुण्डलपुर, जिला-दमोह (म॰प्र॰) में ९५ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। आप दिगम्बर जैन विद्वत् समाज के ख्याति प्राप्त विद्वान् थे। आचार्यश्री की षट्खण्डागम ग्रन्थ की वाचनाओं में ग्रन्थ वाचक विद्वान् तथा कुलपति रहे, सल्लेखना प्रक्रिया में एक माह तक मट्ठा ही ग्रहण कर रहे थे। अंतिम दस दिनों में केवल जल ग्रहण किया। 

    २६. ऐलक श्री आनंदसागरजी
    मंगलवार, २१.०४.१९९७, चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि० सं० २०५४ को रात्रि १०:४५ बजे श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट, जिलाखरगोन (म॰प्र॰) में ८६ वर्ष की उम्र में आपकी समाधि हुई। १ अप्रैल, १९९७ को क्षुल्लक दीक्षा, ९ अप्रैल को अन्न त्याग, १३ अप्रैल को ऐलक दीक्षा, २० अप्रैल को सर्वपरिग्रह त्याग। सल्लेखना के समय आचार्यश्री सहित ८१ पिच्छीधारी उपस्थित थे। 

    २७. ब्र० भगवानदासजी जैन
    शुक्रवार, २१.०८. १९९८, भाद्र कृष्ण चतुर्थी, वि० सं० २०५५ रात्रि १२:५५ बजे, भाग्योदय तीर्थ, सागर (म॰प्र॰) में हुई। आप गढ़ाकोटा निवासी थे। आचार्यश्री के पास २३ जुलाई, १९९८ गुरुवार को आये। आपने दशमीं प्रतिमा का संकल्प लेकर समाधिमरण किया। 

    २८. मुनि श्री सिद्धसागरजी महाराज
    शनिवार, ३ जुलाई, १९९९, आषाढ़ कृष्ण पंचमी, वि० सं० २०५६ प्रात:काल ९:१० बजे सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर देवास में हुई। आप आचार्य श्री सुमतिसागरजी महाराज के शिष्य थे। आचार्यश्री के पास कुण्डलपुर से विहार करते हुए १५ अप्रैल, १९९९ को नेमावर आये। ८० दिन का समाधिकाल रहा। आपकी समाधि के समय आचार्यश्री के साथ ४८ मुनि, RR आर्यिका, १ ऐलक महाराज थे। 

    २९. पं. श्री दरबारीलालजी कोठिया (बीना)
    सोमवार, ३ जनवरी, २००० पौष कृष्ण दशमीं, वीर निर्वाण संवत् २५२६ वि० सं० २०५६ दोपहर ३:५० बजे सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर जिला देवास में आपकी समाधि हुई। आप न्यायाचार्य, जैनदर्शन के ख्याति प्राप्त राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित थे। आप आचार्यश्री के पास २६ दिसम्बर, १९९९ दिन बुधवार को नेमावर में आये। उसी दिन से आप सल्लेखना प्रारम्भ हो गई। आपने आचार्यश्री से ९ वीं प्रतिमा के संकल्प लेकर समाधिमरण किया। 

    ३०. श्री शिखरचंदजी जैन (दिल्ली वाले)
    आपकी सल्लेखना सन् २००२ को सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर के चातुर्मास के दौरान हुई। आपका श्रावक के व्रतों को लेकर समाधिमरण हुआ। आपकी तिथि/तारीख ज्ञात नहीं हो सकी। 

    ३१. डॉ० शिखरचंद जी जैन (हटा वाले)
    २६ मार्च, २००५, शनिवार, चैत्र कृष्ण एकम्, सायं ६.४३ बजे आचार्य भक्ति के बाद सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुरजी में आचार्यश्री जी एवं संघस्थ ५१ मुनिगणों के सानिध्य में १० वीं प्रतिमा के संकल्प के साथ आपकी समाधि हुई। 

    ३२. ब्र० बहिन सरला दीदी (वाशिम, महा०)
    १फरवरी, २००६ को सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर, जिला-दमोह (मoप्र०) में आचार्यश्री जी के साथ ४८ मुनि और १०४ आर्यिकाओं की उपस्थिति में समाधिमरण हुआ। आप आचार्यश्री के गुरुभाई आचार्यकल्प श्री विवेकसागरजी महाराज की गृहस्थावस्था की पुत्री थीं। आप इन्दौर महिलाश्रम की २ वर्ष तक संचालिका रहीं। आपको पथरी की बीमारी हो जाने और उसका लेजर ऑपरेशन फैल हो जाने के कारण किडनी खराब हो गयी, ऐसी स्थिति में आपने आचार्यश्री जी के चरणों में पहुँचकर समाधिमरण किया। 

    ३३. श्रीमति इन्द्रा देवी धर्मपत्नि गुलाबचंद जी बांझल्य (भाष्यजी) (हाटपीपल्या, जिला-देवास)
    आप मुनि श्री विशालसागरजी महाराज की गृहस्थ अवस्था की माँ थीं। आपका समाधिमरण १९ अगस्त २००९, बुधवार, भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी के दिन अन्तिम दिन तक मात्र जल लेकर आचार्यश्री जी के सानिध्य मेंसर्वोदय तीर्थ अमरकंटक, जिला-अनूपपुर (म०प्र०) में हुआ था ।

    ३४. श्री रूपचंद जी जैन (दाऊ)
    आप परम पूज्य मुनि श्री सुधासागरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के पिताश्री थे। आपकी समाधि अतिशय क्षेत्र रामटेक जी, जिला-नागपुर (महाराष्ट्र) में परम पूज्य आचार्यश्री जी एवं संघ के चरण सानिध्य में २५ अक्टूबर, २०१३, शुक्रवार, कार्तिक शुक्ल षष्ठी की दोपहर १:२० बजे सातवीं प्रतिमा के संकल्प के साथ हुई थी। 

    ३५. सिंघई श्री कन्छेदीलाल जी (दमोह)
    ८ मई, २०१४, सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर, जिल-देवास (म० प्र०) में आपका समाधिमरण हुआ था। आप गुरुभत कुण्डलपुर तीर्थ क्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष सिंघई संतोषकुमारजी के पिताश्री थे। वृद्धावस्था को देखकर और बीमारी के आने से गुरु चरणों में पहुँचे। आपने मुनि श्री भव्यसागरजी महाराज से २ प्रतिमाओं के व्रत भी लिए थे। 

    ३६. श्री शिखरचद जी बंसल (एस० के० बंसल), गुना
    सातवीं प्रतिमा के संकल्प के साथ परम पूज्य आचार्यश्री जी के ससंघ सानिध्य में ३० जून, २०१४, सोमवार, आषाढ़ शुक्ल तृतीया को प्रातःकाल ४ बजे आपका समाधिमरण सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर जी, जिला-देवास (म०प्र०) में हुआ था। 

    ३७. विमलचद जी पाटौदी, इन्दौर
    आप परम पूज्य आचार्यश्री के चरणों में २४ सितम्बर, २०१४ को शीतलधाम, विदिशा (म० प्र॰) पहुँचे। १९ दिन की सल्लेखना साधना दसवीं प्रतिमा के संकल्प के साथ १३ अक्टूबर, २०१४, सोमवार, कार्तिक कृष्ण पंचमी के दिन प्रात:काल आपका समाधिमरण हुआ। 

    ३८. भैयालाल जी जैन, भौरिया वाले, अशोकनगर
    आप इन्दौर आश्रम के अधिष्ठाता बा० ब्र० अनिल भैयाजी के पिताजी थे। आपने १०वीं प्रतिमा का संकल्प १५ जनवरी, २०१५ को खातेगाँव में लिया था। पूज्य गुरुदेव के ससंघ सानिध्य में रहते हुए १० फरवरी, २०१५, मंगलवार, फाल्गुन कृष्ण षष्ठी को प्रात:काल ९.१५ बजे सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर, जिला-देवास (म०प्र०) में आपका समाधिमरण हुआ था |

     नोट : संक्षिप्त रूप से इसके बाद आचार्यश्री जी के पास बहुत से व्रती श्रावक-श्राविकाओं की समाधि होती रही है, पर उनकी जानकारी हमारे लिए उपलब्ध नहीं हो पायी। प्रस्तुत समाधियों के साथ ही करीब २०-२५ श्रावक-श्राविकाओं की समाधियाँ पूज्य आचार्यश्री जी के चरण सानिध्य एवं मार्गदर्शन में हुई हैं, उनकी समय, तिथि आदि की जानकारी हमें उपलब्ध नहीं हो पायी है, इसलिए उनके नाम का उल्लेख नहीं किया गया है।

    आचार्य श्री से दीक्षित शिष्यगण जो समाधिस्थ हो गये हैं उनका विवरण

    मुनिगण

    १. मुनि श्री संयमसागरजी महाराज
    समाधि की तिथि-ज्येष्ठ शुक्ल ४, वि० सं० २o४० दिनांक-१४ जून, १९८३, मंगलवार समाधि स्थल-भेलूपुर, वाराणसी (ऊप्र०) 

    २. मुनि श्री वैराग्यसागरजी महाराज
    समाधि की तिथि-भाद्रपद कृष्ण १०, वि० सं० २०४२ दिनांक-९ सितम्बर, १९८५, सोमवार समाधि स्थल-अतिशय क्षेत्र अहारजी, जिला-टीकमगढ़ (म॰प्र॰) 

    ३. मुनि श्री प्रवचनसागरजी महाराज
    समाधि की तिथि-मार्गशीर्ष शुक्ल ६, वि० सं० २०६० दिनांक-२९ नवम्बर, २००३, शनिवार समाधि स्थल-कटनी (मoप्र०) 

    ४. मुनि श्री अपूर्वसागरजी महाराज
    समाधि की तिथि-कार्तिक कृष्ण ३, वि० सं० २०६२ दिनांक-२० अक्टूबर, २००५, गुरुवार समाधि स्थल-धामनी, जिला-सांगली (महा)

    ५. मुनि श्री सुमतिसागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-फाल्गुन शुक्ल १२, वि० सं० २०६५ दिनांक-८ मार्च, २००९, रविवार समाधि स्थल-अशोकनगर (मoप्र०) 

    ६. मुनि श्री शान्तिसागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-भाद्रपद कृष्णा ४, वि० सं० २०७१ दिनांक-१३ अगस्त, २०१४, गुरुवार समाधि स्थल-शीतलधाम, विदिशा (म॰प्र॰) 

    ७. मुनि श्री क्षमासागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-चैत शुक्ल ८ दिनांक-१३ मार्च, २०१५ समाधि स्थल—मोराजी, सागर 

    ८. मुनि श्री धीरसागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-पौष शुक्ल १३, वि० सं० २०७३ दिनांक-१० जनवरी, २०१७, मंगलवार समाधि स्थल-गुना (मoप्र०)

    आर्यिकायें 

    १. आर्यिका श्री निर्वाणमति माताजी 
    समाधि की तिथि-प्रथम भाद्रपद शुक्ल ४, वि० सं० २०५० दिनांक-२१ अगस्त, १९९३, शनिवार समाधि स्थल-रामटेक, जिला-नागपुर (महा) 

    २. आर्यिका श्री शान्तिमति माताजी 
    समाधि की तिथि-द्वितीय भाद्रपद शुक्ल ६, वि० सं० २०५० दिनांक-२१ सितम्बर, १९९३, मंगलवार समाधि स्थल-रामटेक, जिला-नागपुर (महा) 

    ३. आर्यिका श्री जिनमति माताजी 
    समाधि की तिथि-कार्तिक शुक्ल १४, वि० सं० २०५८ दिनांक-२९ नवम्बर, २००१ गुरुवार समाधि स्थल-खिमलासा, जिला-सागर (म०प्र०) 

    ४. आर्यिका श्री एकत्वमति माताजी 
    समाधि की तिथि-मार्गशीर्ष कृष्ण ११, वि० सं० २०५८ दिनांक-११ दिसम्बर, २००१, मंगलवार समाधि स्थल-टी० टी० नगर, भोपाल (मoप्र०) 

    ५. आर्यिका श्री अतिशयमति माताजी 
    समाधि की तिथि-भाद्रपद शुक्ल १, वि० सं० २०६६ दिनांक-२१ अगस्त, २००९, शुक्रवार समाधि स्थल-रांझी, जिला-जबलपुर (मoप्र०) 

    ६. आर्यिका श्री अविकारमति माताजी 
    समाधि की तिथि-आश्विनी कृष्ण ९, वि० सं० २०७१ दिनांक-१७ सितम्बर, २०१४, बुधवार समाधि स्थल-अशोकनगर (मoप्र०)

    ऐलकगण

    १. ऐलक श्री आनंदसागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-चैत्र शुक्ल १४, वि० सं० २०५४ दिनांक-२१ अप्रैल, १९९७, मंगलवार समाधि स्थल-सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट, जिला-खरगोन (मध्प्र०) 

    २. ऐलक श्री निःशंकसागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-पौष कृष्ण-८/९, वि० सं० २०७१ दिनांक-१५ दिसम्बर, २०१४, सोमवार समाधि स्थल-बंगला चौराहा, जिला-अशोकनगर (मठप्र०)

    क्षुल्लकगण 

    १. क्षुल्लक श्री सिद्धान्तसागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-चैत्र शुक्ल १२, वि० सं० २०४० दिनांक-२४ मई, १९८३, रविवार समाधि स्थल-ईसरी, जिला-गिरीडीह (झारखंड)

    २. क्षुल्लक श्री धर्मसागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-श्रावण शुक्ल १३, वि० सं० २०५१ दिनांक-२९ अगस्त, १९९४, शुक्रवार समाधि स्थल-रामटेक, जिला-नागपुर (महा) 

    ३.क्षुल्लक श्री पुनीतसागरजी महाराज 
    समाधि की तिथि-आश्विन शुक्ल २, वि० सं० २०५२ दिनांक-२६ सितम्बर, १९९५, मंगलवार समाधि स्थल-सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर जी, जिला-दमोह (मoप्र०) 

    ४. क्षुल्लक श्री चारित्रसागर जी महाराज 
    समाधि की तिथि-मार्गशीर्ष शुक्ल ८, वि० सं० २०५३ दिनांक-१७ दिसम्बर, १९९६, मंगलवार समाधि स्थल-अलीगढ़ (उ०प्र०)

    क्षुल्लिकायें 

    १. क्षुल्लिका श्री संयमश्री जी 
    समाधि की तिथि-मार्गशीर्ष कृष्ण ११, वि० सं० २०४२ दिनांक-८ दिसम्बर, १९८५, रविवार समाधि स्थल-अतिशय क्षेत्र अहारजी, जिला-टीकमगढ़ (म॰प्र॰) 

    २. क्षुल्लिका श्री आत्मश्री जी 
    समाधि की तिथि-भाद्रपद शुक्ल ११, वि० सं० २०४८ दिनांक-१९ सितम्बर, १९९१, गुरुवार समाधि स्थल-सिद्धक्षेत्र मुतागिरि जी, जिला-बैतूल (म॰प्र॰) 

    ३. क्षुल्लिका श्री समाधिश्री जी 
    समाधि की तिथि-पौष शुक्ल १३, वि० सं० २०४९ दिनांक-६ जनवरी, १९९३, बुधवार

     

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