हायकूजापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
आओ करे हायकू स्वाध्याय
आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं।
आप इनका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं।
आप इन हायकू का चित्र बना सकते हैं।
लिखिए हमे आपके विचार
क्या किसी हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं।
इनके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
गुरू जो होते हैं वो हवा के जैसे हमें रास्ता बताते हैं जिस प्रकार हवा का रुक्ह हमें रास्ता बताता हैं उसी प्रकार गुरू हमारे जीवन में रास्ता बताते हैं जो की अदृश्य होता हैं गुरू के द्वारा बताया गया रास्ता केवल तभी समझ आता हैं जब हम उस पर चलते हैं |
हे भव्य जीव तुम इस नशवर संसार को ग्रहण ना करो ओर ना ही ऐसे कर्म करो की बार बार यह भव फिर से मिले और जिन कर्मो के कारण् यह जीव बार बार जन्म मरण को धारण करता हे उसका तयाग करें ओर ऐसे कर्मो को करें कि मोक्ष को पाये ओर दुबारा जन्म ना हो
एक और एक ग्यारह होते है अगर समाज मे एकता है तो सभी धार्मिक कार्य निविध्न पूर्ण हो जाते है एक से कुछ भी नही होता जंगल मे एक लकड़ी भी अच्छी नही लगती अकेला प्राणी हॅसता भी रोता भी अच्छा नही लगता जैजिनेन्द्र
ऐसे जुड़ो कि हम बेजोड़ हो जाएं बचपन में हमने सभी ने एक लघु कथा सुनी थी उसमें एक गरीब किसान के 5:00 पुत्र थे उसने अपने अंतिम समय में पांचों को बुलाकर एक एक लकड़ी लाने को कहा और फिर एक एक को तोड़ने के लिए कहा तो वह लकड़ियां आसानी से टूट गई किसान ने फिर पांचों पुत्रों को एक एक लकड़ी लाने को कहा और बड़े पुत्र को इन लकड़ियों को रस्सी से बांधने को कहा फिर पांचों पुत्रों को बारी बारी से तोड़ने के लिए कहा अब वह लकड़ियां तोड़ना संभव नहीं था यही संदेश आचार्य श्री इस हाइकु के माध्यम से शायद देना चाहते हैं जय जिनेंद्र
एक जुट हो मतलब सब एक साथ रहे पर किसी एक के साथ या एक ही से जुड़ कर नही रहे बल्कि सभी से इस तरह जुड़ जाए कि वह बेजोड़ हो जाये ।जब आप सभी से जुड़ जाएंगे तो उसे कोई अलग नही कर सकता।वह जोड़ मजबूत हो जाता है बेजोड़ हो जााता है।
प्रत्येक शब्द का अर्थ होता है प्रतिफल भी होगा निश्चित है। संसार मे प्रत्येक वस्तु लौट कर आती है। शब्द भी ।तो क्यो न बोलते हुए ध्यान रखा जाये जिसे प्रायोगिक भाषा मे विवेक कहा जाता है।
संयमित भाषा का प्रयोग आप के ज्ञान को और आप की परवरिश को दर्शाता है।
इसलिये जब भी बोले सार्थक शब्दो का प्रयोग करे। साधक के लिये परम आवश्यक है जितना जरुरी है उतना ही बोले।शब्दो का चयन और प्रयोग उत्तम साधना के फलीभूत होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इसलिये साधक की साधना की सफलता शब्दो के चयन पर निर्भर करती है। सो बात को कह देना कोई छोटी बात नही है अर्थ क्या है पहले से विचार कर कहना ही साधना है। यह नियम साधक और गृहस्थ दोनो पर समान रूप से लागू होता है। सो विचार किजीये तभी शब्दो को कहिये।
आचार्य श्री आदमी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ऊधम करना अर्थात व्यर्थ में ही उद्दंडता का प्रदर्शन करना हेय (छोड़ने योग्य) है|
इसकी बजाय हम पुरुषार्थ करे और दमी मी (मेहनती) बने |
आचार्य भगवन और समस्त मुनिसंघ के चरणोमे नमोस्तु !!!
ज़ब भी कोई मुनिराज सल्लेखना व्रत को धारण करते है उस समय पेट और पीठ मानो एक ही है ! उस वक्त जीभ का कोई काम ही नहीं !!
हर घटना और सभी बातो के दो पहलु होते हैं एक अच्छा और दुसरा बुरा ।
आम तौर से संसारिक मनुष्य आलोचना से बुरा मान जाता है। किन्तु साधना के पथ पर भीतरी और बाहरी दोनो ही प्रकारकी आलोचला साधक के जीवन को निखार कर और अधिक उज्जवल बनाती है। यदि लोगों द्वारा की गई है तो जीवन में सकारात्मकता और साधना के प्रति दृढता को बढाती है और भीतर से गल्तियों की आलोचना होती है तो वह दृष्टिकोण को निखार देती है जो भीतरी लोचन जिसे आम भाषा मे तीसरा नेत्र कहते हैं को खोल देने मे सहायक बनती है। सो आलोचना का साधक अपने जीवन में स्वागत करता है जीवन मे और साधना मे निखार लाने के लिये।
टिमटिमाते दीप को भी पीठ दिखाना रात्रि के लिये क्यो है मुश्किल क्या एक ऐसा दिया जो बुझने की और अग्रसर है उससे रात्रि सामना नही कर पाती है और भागने के लिये मजबुर हो गई है या यु कहे कि स्वयं को विपरित परिस्थितयो मे भी संभाले रखने के दृड इरादो और बुलन्द हौंसलो की वजह से ही नकरात्मक उर्जा से भरी स्याह रात्रि जिसके पास देने के लिये भय और अन्धकार के अलावा और कुछ नही होता एक छोटे से दिये के प्रकाश फेलाने के उसके मजबुत इरादो के सामने हार मान लेती है। ये सच है कि पाप का अन्धकार कितना भी घना क्यु न हो परन्तु धर्म के उजाले के समक्ष कभी टिक नही सकता है। अन्यथा इतनी बडी आबादी को आटे में नमक के समान मुनिराज की संख्या ही बहुत अच्छे से सम्भाल रही है।
घर की बात जो घर की हसीं कराती है,घर के सदस्यो को दूर कर सकती है, हो सकता है किसी बडे नुक्सान के लिये जिम्मेदार बने अथवा घर के कलह का कारण बने लेकिन कैसे ?हानिकारक तब बनती है जब घर के ही किसी सदस्य द्वारा कोई बात बेघर कर दी जाये अथारथ घर के सदस्यो के अलावा किसी पडोसी को या जाने अनजाने व्यक्ति को या फिर दूर या पास के किसी रिश्तेदार को बात साँझा की जाये।ऐसा हम तब करते है जब हमे लगता है कि हमारी बात को माना नही जा रहा है या ऐसा लगता है कि घर के बडे सदस्य भेद भाव करने लगे हैं या अन्य प्रकार से दिल को ठेस पहुंचती है तब हम भीतर से बाहर की ओर रुख करते है। क्या ये सही है की किसी छोटी या थोडा बडी मान लेते हैं बात पर नाराज हो कर और गलतफहमी के शिकार बन कर हम घर की बात बेघर कर दे ?
कितना सरल है स्वयं एक स्थान पर बेठ कर किसी अनय से दूर रखी वस्तु उठा कर लाने की आज्ञा देना।आज्ञा पालन करने वाले की आज्ञा देने वाले के प्रति श्रध्दा और लगन ही उस जीव को कार्य करने के लिये प्रेरित करती है। आज्ञा पालन से कठिनतम है आथार्थ आज्ञा का पालन करना मुश्किल काम है। आज्ञा देना सरल होता है पर उसका पालन कठिनतम कार्य है। धार्मिक व्यक्ति गृहस्थ के समान आज्ञा नही देता अपितु आज्ञा पालन को सरल मानता है। जबकि आज्ञा देना कठिन दिखाई देता है। आज्ञा देने के जो परिणाम फल स्वरुप प्राप्त होंगे उसकी जानकारी धार्मिक जीव को सतत स्वाध्याय से होती है। ऐसी स्थिति में आज्ञा का देना कठिन मानना चाहिए।
जीव अरुपी और ज्ञानमय है शरीर रुपी और जड़ है। मिथ्यातवी हमेशा यही मानता है कि जीव और देह एक ही है। लेकिन जैसे जैसे जीव का उपयोग अशुभ से शुभ की और परिनमन करता है तो सन्देह होता है जीव और काया के एकरूप पर धीरे-धीरे सन्देह के बादल छँट जाते है और जो देह देहाती लगती है वो विदेशी अथार्थ पराई दिखने लगती है। अब देह से मोह छूट कर भीतर की और दृष्टि होने लगी है। जीव का लक्षण उपओग है। वह निरन्तर अशुभ , शुभ और शुद्ध रुप से परिनमन करता है। कहना न होगा अब विदेह हो जा अथार्थ देह से परे शुभ उपयोग मे समय बिता जो शुद्ध उपयोग मे परिवर्तित हो जाए।
मीठा कब बोलते हैं जब स्वार्थ हो। सभी को प्राय मालूम होता है कि कटु शब्दों का प्रयोग करने से या रूक्ष भाषा के प्रयोग से किसी से कभी भी कोई काम नही लिया जा सकता। तो क्या स्वार्थ वश मीठा बोल कर काम लेना सही है ? मान लिजिये किसी गुरु ने अपने पास शिष्य को रोक कर रखने के लिये सदा मीठे और स्वार्थ पूर्ण वचनो का ही प्रयोग किया तो क्या कभी शिष्य की कमियाँ दूर हो पायेंगी? कभी नही अथार्थ बिना कटु वचन और कठोर दंड के गलती मे सुधार करना मुश्किल है। सो क्यो ना मात्रा में सुधार कर दिया जाये और जीवन मे निस्वार्थ भावना का संचरण किया जाये।जब स्वार्थ से निस्वार्थ की और कदम बढ़ाते है तो जीवन में सकारत्मक परिवर्तन आने लगता है। दूसरो को बात समझाने के लिए छल का सहारा लेने की जरुरत नही पड़ती।
जरा सोचियें मनुष्य जीवन मे सिर्फ कमी हि कि बात की जाती है ऐसा नही है। नर भव मे मिले सुख भी देखे जाते हैं। दुखो को दूर करने के लिये जो कोशिशें की जाती है वह भोग की और ही तो ले जाती हैं। और सुख मिलने पर???
सुख की प्राप्ति हमे उन सुखो को बनाय रखने के लिये प्रेरित करती है।योगी दोनो ही भावो से दूर रहते हुए तटस्थ भाव से जीवन के सत्य की अनुभुति करते हैं।सत्य का अनुभव योगी को सहज ही मौन कर देता है।
साधना यु ही तो नही की जाती है। हो सकता है कि बहुत से भवो के संचित पुनय कर्म हमे साधना की और ले जाये या फिर एक दो भव की गहरी आस्था और भगति ही वर्तमान मे साधना के लिये प्रेरित करे। कौन जानता है आत्मा के भीतरी प्रकोष्ठ मे क्या अंकित है। समय आने पर भाग्य उदय होता है। और ये चंचल मन साधना की और उन्मुख होता है। संसार मे आटे में नमक के समान मात्रा है साधको की।जाहिर सी बात है संसार के आकर्षण से विरले ही बच पाते है। ऐसे मे साधना के लिये कड़े अभ्यास की जरुरत होती है। जल्दबाजी हर क्षेत्र मे बुरी होती है। साधना के क्षेत्र में भी ऐसा ही है। स्वाभाविक है कि तैयारी यदि अधुरी है तो आप साधना के क्षेत्र में ज्यादा समय टिक नही पाय गे। भीतर की और दृष्टि और इन्द्रियो का सयम का निरन्तर अभ्यास ही साधना की और पहला कदम है। साधना का अर्थ है मोक्ष सुख ,निरन्तर सुख, अकल्पनीय सुख,श्ब्दातित सुख।लेकिन साधक को ये एक ही बार के अभ्यास से नही मिलता लम्बे और कड़े अभ्यास से ही ये सम्भव है। लेकिन मानव दुर्बलता और इच्छाओ से भरा पुंज है। इतना जल्दी और आसानी से संसार छोड़ना नही चाहता। थोडी सी विपरित परिस्थितयों का सामना होते ही देह सुख की और लौट जाना ही तो अभ्यास की कमी है। प्राकृतिक विपरित परिस्थितय और त्रियंच या देव परिषय से घबरा कर कोई कायर हि तो अपनी नश्वर देह की सुरक्षा के लिये मोक्ष सुख प्रदाता साधना को छोड देने की सोचेगा