कहते हैं कि कार्य के आरंभिक समय में उत्साह एवं विशुद्धि का होना इतना महत्त्वशाली नहीं, जितना कि कार्य की पूर्णतापर्यंत उसका अनवरत बना रहना। इसी तरह दीक्षा के समय वैराग्य, उत्साह एवं विशुद्धि का होना तो स्वाभाविक है। महत्त्व तो तब है, जब समाधिमरण पर्यंत तक वह अनवरत बनी रहे।आचार्य भगवन् श्री विद्यासागरजी मोक्षमार्ग के एक ऐसे महत्त्वशाली व्यक्तित्व हैं, जिनकी विशुद्धि, उत्साह, चेतना एवं आध्यात्मिकता दीक्षा के समय जैसी थी, आज ५० वर्ष पश्चात् भी वैसी की वैसी ही है। वह तब से अब तक 'जैसे के जैसे हैं। गुरुदेव के जैसे के जैसे' भावों से जुड़े प्रभावकारी,मनमोहक कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत पाठ का विषय बनाया जा रहा है।
अनियत विहारी
दादागुरु श्री ज्ञानसागरजी की समाधि के तुरंत बाद से ही पूर्व निर्धारित कार्यक्रम एवं सूचना के बिना ही विहार, प्रवास एवं वर्षायोग करना प्रारंभ कर आचार्यश्रीजी वास्तविक अर्थ में ‘अतिथि' और 'अनियत विहारी' सिद्ध हुए हैं। पूर्व घोषणा करना तो दूर कभी-कभी तो संघस्थ साधुओं को भी विहार का संकेत नहीं होता। जब वे पिच्छी-कमण्डलु उठाकर चल देते हैं, तब ज्ञात होने पर शिष्यगण उनके पीछे पीछे हो जाते हैं।
अधिक क्या कहें, कभी-कभी तो स्वयं गुरुवर को भी निश्चय नहीं होता कि वह किस दिशा की ओर गमन करेंगे। पूछने पर कई एकबार वह ऐसा भी कहते हैं कि 'मुझे तो ज्ञात नहीं, आपको कहीं से ज्ञात हो जाए, तो मुझे जरूर बता देना।' अथवा ऐसा भी कहते हैं कि जिस स्थान के निवासियों का पुण्य होगा, पैर उस ओर अपने आप मुड़ जाएँगे।' उनके विषय में अनुमान लगा पाना भी संभव नहीं होता। अनुमान यदि पूर्व दिशा की ओर विहार का लगाया तो पता चलता कि उनका विहार पश्चिम दिशा की ओर हो गया। वह तो वर्तमान युग के चलते-फिरते जीवंत तीर्थ हैं, जिनका विहार समवसरण की भाँति 'भवि भागनवश जोगे वशाय" वाला होता है। उनके विहार काल के समय भारत वर्ष ही क्या विदेशों से सभी दिशाओं के श्रावकगण आ-आकर अपना-अपना निवेदन-प्रार्थना चरणों में रखते हैं, पलक-पावड़े बिछाए प्रतीक्षारत रहते हैं। एक गाँव की सीमा के बाहर ज्यों ही विहार के लिए उनके कदम उठते हैं, चारों तरफ के श्रावक पपीहा की भाँति आतुर हो उठते हैं। जिस ओर उनके चरण बढ़ जाते हैं, वह लोग जन्मों-जन्मों का फल समझकर स्वयं में कृतार्थता का अनुभव करते हैं।
आरंभ से
यथार्थ अतिथि
सन् १९७५ का वर्षायोग बाहुबली जिनालय, जैन नगर, फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश में हुआ। आचार्यश्रीजी के यहाँ प्रतिदिन प्रवचन होते थे और प्रवचन का विषय भी पहले से बता दिया जाता था। एक दिन आयोजकों ने सूचना पटल पर लिखा कि कल महाराज के प्रवचन ‘अतिथि' से संबंधित विषय पर होंगे। दूसरे दिन जब प्रवचन के समय लोग सभाभवन में पहुँचे, तब मालूम पड़ा कि महाराज का तो विहार हो गया। सभी लोग अपने-अपने वाहनों से उनके पीछे भागे। दो-तीन मील जाकर जब उन्हें आचार्य महाराज मिले, तो सभी ने निवेदन किया कि महाराज! आपका तो आज ‘अतिथि' पर प्रवचन होना था, पर आपने अचानक विहार कर दिया। आचार्यश्रीजी हँसने लगे, बोले- 'भैया! वही तो कर रहा हूँ। अतिथि का अर्थ ही यह होता है कि जिसके आने व जाने की कोई तिथि निश्चित नहीं होती।'
धन्य हैं आचार्यश्रीजी! जिन्होंने अतिथि की तरह स्वयं आचरण करके सभी को उपदेश दे दिया कि जो कुछ कहो, उसे चरितार्थ भी करो। स्वयं जीकर दिखाना ही सच्चा उपदेश है।
हुए सभी अचंभित
सन् १९७५ में आचार्यश्रीजी का विहार राजस्थान से उत्तरप्रदेश में चल रहा था। जब वे छीपीटोला. आगरा. उत्तरप्रदेश में ससंघ विराजमान थे, उस समय संघ में आचार्यश्रीजी के अलावा मुनि कोई नहीं थे, एक मात्र क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदजी एवं संभवतः ६-७ ब्रह्मचारी भाई ही थे। आचार्यश्रीजी प्रातः शौच क्रिया हेतु यमुना नदी के निकटवर्ती स्थान तक जाते थे। एक दिन प्रातः जब वह गए, तब वहाँ से लौटे ही नहीं। सब जगह खलबली मच गई। कुछ समय बाद ज्ञात हुआ कि वह यमुना नदी के तट पर स्थित भगवान नेमिनाथ मंदिर में जाकर विराजमान हो गए हैं। श्रावक वहाँ पहुँचे और निवेदन किया कि आपने कुछ पहले तो बताया होता। एक भव्य शोभा यात्रा निकाली जा सकती थी, कुछ बैण्ड-बाजे भी साथ होते। आप तो बिना कुछ बताए विहार कर जाते हैं । आचार्यश्रीजी का फिर वही मौन संदेश कि इस प्रकार के विहार की क्रिया एक नियमित चर्या है, जिसमें न तो किसी बैण्ड-बाजे की जरूरत होती है, न किसी शोभा यात्रा की। समान परिस्थितियों में साधु अमुक स्थान को लक्ष्य करके विहार नहीं करते, यही आर्षमार्ग है।
चाहे कुछ भी हो, पर पूर्व सूचना नहीं
सन् १९७६, खजुराहो (छतरपुर) मध्यप्रदेश की बात है। आचार्यश्रीजी उस समय अकेले मुनि थे, संघ में नवदीक्षित चार क्षुल्लकजी थे। वहाँ के मैनेजर का कहना था कि जो भी साधु विहार करने लगें तो वे स्वयं उनसे विहार की व्यवस्था के बारे में कहेंगे, तभी व्यवस्था करेंगे। आचार्यश्रीजी तो ठहरे अनियत विहारी, अतः व्यवस्था तो व्यवस्था वे तो बिना संकेत दिए ही विहार कर गए।मैनेजर को जब पता चला तो उसने भी अपनी अड़ी में किसी को रास्ता तक बताने नहीं भेजा। जंगली रास्ता और, जंगली जानवरों से भरा जंगल। आगे पता नहीं गाँव कितनी दूर है। चलते-चलते शाम हो गई। छोटे-छोटे क्षुल्लक महाराजों से आचार्यश्रीजी ने कहा- 'रात तो जंगल में ही बितानी होगी। नियम ले लो, सुबह जीवन बचेगा तो कुछ लेंगे, नहीं तो सब का त्याग।' सभी को अपने पास में बैठा लिया और स्वयं ध्यान में बैठ गए। रात्रि में जब जंगली जानवरों की आवाजें आने लगीं,तो आचार्यश्रीजी शिष्यों को इशारे से साहस देते जाते। सुबह-सुबह एक ग्रामीण बाबाजी निकले, तब इन्हें देखकर वे बोले- 'आप लोग रात्रि में यहाँ कैसे रुके? यहाँ से २ कि.मी. पर ही तो गाँव था, वहाँ जाकर रुक जाते।'
जब दूसरी बार सन् १९८१ में खजुराहो पंचकल्याणक के समय आचार्यश्रीजी अपने विशाल संघ के साथ उसी रास्ते से निकले तो उस स्थान को देखकर हँसते हुए बोले 'यह मानो हमारी समाधिस्थली है।' क्षुल्लक श्री परमसागरजी महाराज (सम्प्रति मुनि श्री सुधासागरजी महाराज) ने पूछा- कैसे? तब उन्होंने उपर्युक्त घटना सुनाई। खजुराहो पहुँचने पर वही मैनेजर चरणों मे गिर गया और बोला- 'महाराज! मुझे क्षमा कर दो।"
पूर्वसूचना नहीं और आगे का विकल्प भी नहीं
एक बार आचार्यश्रीजी संघ सहित विहार करके एक गाँव में पहुँचे। गाँव के लोगों ने सोचा आज तो चतुर्दशी है, अतः सब महाराजों का उपवास होगा। गर्मी का समय था। सभी महाराजों ने शौच क्रिया के उपरांत अपने-अपने कमण्डलु के जल से हाथ-मुँह धोए और कमण्डलु को उल्टा करके रख दिया। न कोई श्रावक कमण्डलु भरने आया और न ही आहारचर्या के लिए बोलने आया। आचार्यश्रीजी सहित सभी महाराज सामायिक में बैठ गए। सामायिक के उपरांत १.३० बजे स्थानीय एक पंडितजी को पता चला तो वे आए और बोले- 'महाराज! आप इतना सारा विहार करके आए और उपवास कर लिया। कम से कम इन छोटे छोटे महाराजों को तो उपवास नहीं देते।' आचार्यश्रीजी ने सब सुन लिया, लेकिन बोले कुछ नहीं। तब पंडितजी छोटे-छोटे क्षुल्लक महाराजों के पास पहुँचे, और उनसे भी यही बात कही। तब एक महाराज बोले कि न हम लोगों ने उपवास लिया है,न उन्होंने दिया है और न स्वयं उन्होंने ही किया है। तब पंडितजी ने श्रावकों को सूचना दी, फिर वहाँ शीघ्र ही तैयारियाँ होकर चौके लगे और सभी महाराज व आचार्यश्रीजी के आहार हुए।
और अभी भी
अपूर्व विहार
आचार्यश्रीजी का विहार तो अपूर्व ही है। एक बार आचार्यश्रीजी ससंघ अभाना (दमोह) मध्यप्रदेश में विराजमान थे। वहाँ आचार्यश्रीजी प्रतिदिन प्रातः शौच क्रिया हेतु २ किलोमीटर दूर जाते थे। एक दिन दोपहर में आचार्यश्रीजी अपने स्थान से बाहर आए और एक छोटे बच्चे के साथ शौच वाले स्थान की ओर चल दिए। सबने सोचा कि आचार्यश्रीजी शौच के लिए जा रहे हैं। वह बालक भी यही सोचकर साथ गया था, पर आचार्यश्रीजी शौच वाले स्थान को छोड़कर आगे बढ़ गए। यह देख वह छोटा बालक बोला कि महाराजजी! शौच का स्थान तो यही है। आचार्यश्रीजी बोले- 'तुम्हें जाना हो तो चले जाओ और मेरा कमण्डलु मुझे दे दो।' उस बच्चे ने एक साइकिल वाले से मंदिरजी में विहार की सूचना भिजवाई। तब संघ के साधुओं को ज्ञात हुआ। गाँव में भी अचानक विहार की खबर सुनकर चहल-पहल मच गई। संघस्थ साधुओं को २ किलोमीटर पीछे देखकर किसी श्रावक ने कहा- 'महाराजजी! आप लोगों को विकल्प नहीं होता।' तब एक महाराज बोले- 'नहीं, जो आज्ञा में नहीं रहना चाहते, उन्हें विकल्प होता है। हम लोगों को तो गर्व होता है कि ऐसे गुरु के शिष्य हैं, जो इतने बड़े संघ के संचालक होकर भी पूर्णतः निर्लिप्त होकर रह लेते हैं।
आगमानुसार विहार अनुकूलता चरण पखारें
सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में आचार्य संघ विराजमान था। एक दिन आचार्यश्रीजी आहारचर्या को निकले।थोड़े-से ही आहार हुए कि अंतराय आ गया।सभी साधु निश्चित थे कि अब आज तो विहार होगा नहीं। पर यह क्या दोपहर २.३० बजे आचार्यश्रीजी ने अपना कमण्डलु उठाया और बड़े बाबा मंदिर की ओर चल दिए। संघस्थ मुनि श्री क्षमासागरजी ने गुरुवर को अकेले ऊपर पहाड़ की ओर जाते देख, पूछा- ‘दर्शन करने चलना है?' आचार्यश्रीजी बोले- 'हाँ, दर्शन करके विहार भी करना है।' यह सुनकर सभी साधुओं ने जल्दी-जल्दी अपने-अपने ग्रंथ आदि रखे और आचार्यश्रीजी के पीछे-पीछे विहार कर दिया। रास्ते में साधुजन आपस में चर्चा करते जा रहे थे कि अंतराय में कैसे विहार कर दिया? आहार में वैसे भी कुछ लेते नहीं और अंतराय में विहार कर दिया।धूप भी देखो कितनी तेज है।इस तरह दुखी मन से सभी साधुजन आचार्यश्रीजी के पास पहुंच गए। कुंडलपुर से ८ किलोमीटर दूर कटनी रोड़ पर बर्रट ग्राम पहुँचने पर थोड़ी ही देर में अचानक एक छोटी-सी बदली आई और बड़ी-बड़ी बूंदों के साथ पानी गिरने लगा।सभी महाराज भींग गए। मुनि श्री क्षमासागरजी आचार्यश्रीजी के बाजु में चल रहे थे। उनके मुख से अचानक निकल गया कि बड़े बाबा अपने छोटे बाबा का बड़ा ध्यान रखते हैं। आज अंतराय है, गर्मी न बढ़ जाए इसलिए ठंडक की व्यवस्था कर दी। देखो यहाँ के अलावा आगे-पीछे और कहीं बादल-पानी नहीं दिख रहा है।'
आचार्यश्रीजी थोड़ी देर बाद बोले- 'अरे भैया! बड़े बाबा का जो ध्यान करता है, उसकी व्यवस्था अपने आप हो जाती है। तभी मुनि श्री क्षमासागरजी ने कहा- 'आचार्यश्रीजी आप ही तो कहते हैं कि बड़े बाबा की रेंज बहुत बड़ी है। वे वहाँ पर बैठे-बैठे सब काम कर देते हैं। फिर छोटे बाबा के लिए भी तो बड़े बाबा बहुत अच्छे लगते हैं तो बड़े बाबा भी छोटे बाबा का पूरा ध्यान रखते हैं।' पानी बंद हो चुका था। तभी एक श्रावक कुंडलपुर से आए और वाहन से उतरे। किन्हीं ने उनसे पूछा- ‘क्यों? कुंडलपुर में भी पानी गिरा है?' वे सज्जन बोले- 'दो किलोमीटर दूर भी पानी नहीं है, कुंडलपुर में तो एक बूंद पानी नहीं गिरा।' आचार्यश्रीजी यह सुनकर बोले- 'जो मोक्षमार्ग में आगम के अनुसार चलता है, उसकी व्यवस्था सहज में हो जाती है। इसलिए हमें मार्ग से विपरीत नहीं चलना चाहिए, उसके अनुकूल ही चलना चाहिए।' यह प्रसंग सुदृढ़ संकल्प शक्ति का परिणाम है, जिससे बाधाएँ भी साधक कारण बनकर साधना करने वाले की सहायता करती है।
सचमुच, आचार्य महाराज अतिथि हैं। वे कब/कहाँ पहुँचेंगे, कहा नहीं जा सकता। उनका यह अनियत विहार कठिन भले ही है, लेकिन बड़ा स्वाश्रित है। विहार की बात पहले से कह देने में दो मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। यदि किसी कारण निर्धारित समय पर विहार नहीं कर पाए, तो झूठ का दोष लगेगा और जब तक विहार नहीं किया तब तक विहार का विकल्प बना रहेगा। इससे अच्छा यही है कि क्षण भर में निर्णय लिया और हवा की तरह निःसंग होकर निकल पड़े। आगे क्या होगा, इसकी जरा भी चिंता नहीं है। यही तो निर्द्वन्द्व साधना है गुरुवर की।
आकस्मिक दीक्षा प्रदाता
आरंभसे
आचार्य श्री कुंदकंदस्वामी और आचार्य श्री समन्तभद्रजी की परंपरा को आचार्य श्री विद्यासागरजी आगे ले जाने वाले आचार्य हैं। साधु की जिन-जिन क्रियाओं को आधार बनाकर गृहस्थों द्वारा आडंबर या आरंभ (आरंभ-सारंभ) किए जा सकते हैं, उन क्रियाओं के होने का वह पहले से किसी को आभास तक नहीं होने देते। केशलोंच, गमन आदि तो अकस्मात् होता ही है संघ में क्षुल्लक, एलक एवं मुनि दीक्षाएँ भी इतनी सादगी के साथ उन्होंने दी हैं कि परिकर के दूसरे महाराजों को भी उसका कोई पूर्वाभास नहीं हो पाया।वे अपने दीक्षार्थी शिष्यों को भी पूर्व घोषणा के बिना ही दीक्षा हेतु तैयार करते हैं। दीक्षा समारोह तक दीक्षार्थी भाई-बहनों के नामों की पूर्व घोषणा भी नहीं होती। हाथी, घोड़े, पालकी व बैंड-बाजों की चकाचौंध से अलग सादे समारोह में दीक्षा का आयोजन करते हैं। वर्तमान समाज आचार्यश्रीजी के अचानक होने वाले कार्यक्रमों को समझने लगी है। अतः अचानक घोषणा होने पर भी वर्तमान में उपलब्ध सुविधाओं का उपयोग धर्म-प्रभावना हेतु वह कर ही लेती है। और बिना प्रचार-प्रसार के भी दीक्षाओं में भव्यता आ ही जाती है। लाखों-लाख की संख्या में जनमानस येन-केन-प्रकारेण पहुँच ही जाता है।
प्रथम मुनि दीक्षा देखसंघ हुआ चकित
आचार्यश्रीजी ‘छोटा सम्मेदशिखर' कहे जाने वाले सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरिजी (छतरपुर) मध्यप्रदेश में विराजमान थे। वह ससंघ पर्वत पर बने एक छोटे से श्री नेमिनाथ जिनालय में रुके हुए थे। मात्र आहारचर्या के लिए वे नीचे आते और पुनः चर्या के बाद पहाड़ पर जाकर आत्मसाधना में लीन हो जाते थे। यहाँ रहकर प्रतिदिन तपती-दुपहरी में सूर्य की प्रखर किरणों के नीचे शिलातल पर बैठकर तीन-तीन घंटे ध्यान करते और सारे संघको साधना के साथ-साथ अध्यात्म की शिक्षा भी देते। इस समय तक संघ में आचार्य महाराज के शिष्यों में सभी एलक, क्षुल्लकजी ही थे।अभी तक एक भी मुनि दीक्षा नहीं दी गई थी। यद्यपि । शिष्यों की मुनि दीक्षा की भावना थी, निवेदन भी वे पूर्व में कर चुके थे, पर अब तक योग ही नहीं बन पाया था।
एक दिन श्री नेमिनाथ जिनालय में ७ मार्च, १९८० की रात्रि १० बजे के लगभग कुछ शिष्य आचार्यश्रीजी की वैयावृत्ति कर रहे थे। तभी । आचार्यश्रीजी ने इशारे से एक शिष्य को इशारा किया कि चौथे नंबर वाले एलकजी को बुलाओ। चौथे नंबर वाले एलक श्री समयसागरजी तुरंत आचार्यश्रीजी से दीक्षित प्रथम मुनि शिष्य श्री समयसागरजी आचार्यश्रीजी के पास पहुँचे। आचार्यश्रीजी ने उन्हें इशारे में केशलोंच करने को कहा। एलकजी बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्हें लगा अभी कुछ दिन पूर्व ही तो केशलोंच किए थे और हमारा समय अभी पूरा नहीं हुआ, फिर..! गुरु आज्ञा सो गुरु आज्ञा, अतः प्रातः कर लिए केशलोंच। सुबह संघ को शौच क्रिया हेतु बहुत दूर जाना होता था। एलक श्री समयसागरजी सहित जो शिष्य आचार्यश्रीजी के साथ गए थे, वे तो उन्हीं के साथ वापस आ गए। पर एलक श्री योगसागरजी सहित कुछ शिष्य बाद में जंगल के लिए निकले थे। वे अभी आ भी नहीं पाए थे कि आचार्यश्रीजी ने अपने निकटस्थ शिष्य से कहा- 'देखो, कोई श्रावक अष्ट द्रव्य रूप पूजन सामग्री लेकर आ रहा है क्या?' यह सुनकर वे आश्चर्य में पड़ गए। और उनके मुख से अनायास ही निकल पड़ा- ‘क्या! अष्ट द्रव्य! (विनम्रतापूर्वक) क्यों चाहिए?' आचार्यश्रीजी बोले- 'पहले यह देखो कि कोई अष्ट द्रव्य लेकर आ रहा है क्या? तो उसे बुलाओ।' इतने में उन्होंने ब्राह्मी आश्रम, जबलपुर, मध्यप्रदेश की संचालिका मणिबाईजी को हाथ में अष्ट द्रव्य की थाली लेकर आते हुए देखा। तो बोले- 'वो आए तो उसे द्रव्य चढ़ाने नहीं देना, उससे द्रव्य की थाली ले लेना।' शिष्य ने बाईजी से जब द्रव्य देने की बात कही तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, आखिर द्रव्य की क्या जरूरत पड़ गई! वह एलकजी से बोलीं- 'आपको क्या करना है अष्ट द्रव्य का?' यह सुनकर आचार्यश्रीजी बोले- 'मेरे मन में मुनि दीक्षा देने का भाव आया है।' बाईजी अवाक रह गईं। न तो कोई व्यवस्था है और यहाँ तक कि संघ भी पूरा उपस्थित नहीं है। ऐसे में कैसे मुनि दीक्षा होगी। आचार्यश्रीजी ने बाईजी का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा- 'ये द्रव्य यहाँ रख दो।' बाईजी ने द्रव्य वहीं रख दी और गुरुवर का दृढ़ निश्चय देख उसी नेमिनाथ जिनालय के बाहर चबूतरे पर गुरुवर का आसन लगवा लिया एवं दीक्षा के योग्य आवश्यक व्यवस्थाएँ करवा लीं। आचार्यश्रीजी ने दीक्षा के संस्कार प्रारंभ कर दिए। जब तक बाद में शौच के लिए निकले शिष्यगण वापस आए, तब तक मुनि दीक्षा के संस्कार पूर्ण हो चुके थे। सामने तत्काल दीक्षित मुनि श्री समयसागरजी को देख वे सभी आश्चर्यचकित रह गए। इस तरह चैत्र वदी षष्ठी, विक्रम संवत् २०३६, वीर निर्वाण संवत् २५०६, शनिवार, अनुराधा नक्षत्र में ८ मार्च, १९८० को प्रातः लगभग नौ बजे अत्यंत सादगी से, बिना किसी आडम्बर व प्रदर्शन के, आचार्यश्रीजी के द्वारा प्रथम मुनि दीक्षा सम्पन्न हुई।
अनभिज्ञ एवं अघोषित दीक्षा
जो भव्य जीव ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करते हैं, उनका इस जीवन का मुख्य एवं अंतिम लक्ष्य जैनेश्वरी दीक्षा की प्राप्ति ही रहता है। सन् १९८० का प्रसंग है। आचार्यश्रीजी सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) म.प्र में विराजमान थे। उन्होंने मन ही मन में कुछ ब्रह्मचारियों को दीक्षा प्रदान करने का भाव बना रखा था कि कल हम इन चार ब्रह्मचारी भाइयों को दीक्षा देंगे। इतने में ब्रह्मचारी जयकुमारजी (सम्प्रति मुनि श्री सुधासागरजी) आचार्यश्रीजी दर्शन करने आए, और बोले कि हम तीर्थराज श्री सम्मेदशिखरजी की तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं। आचार्यश्रीजी बोले- 'अच्छा अच्छा।' वे ब्रह्मचारीजी बोले- 'आप आशीर्वाद दे दीजिए।' आचार्यश्रीजी पुनः बोले- 'अच्छा-अच्छा।' ब्रह्मचारीजी से नहीं रहा गया, अतः उन्होंने गुरुवर से पूछ ही लिया कि आप आशीर्वाद के स्थान पर अच्छा अच्छा क्यों कह रहे हैं? आचार्यश्रीजी मुस्कुराकर बोले- 'तुम्हें ही तीर्थ बना दें तो।' ब्रह्मचारीजी बोले- 'मैं आपका अभिप्राय नहीं समझा।' आचार्यश्रीजी बोले- 'कल दीक्षाएँ संभावित हैं।' ब्रह्मचारीजी ने खुश होकर चरणों में मस्तक रख दिया।और आचार्यश्रीजी का भरपूर आशीर्वाद प्राप्त किया।
अब दीक्षार्थियों की संख्या ४ की जगह ५ हो गई। आचार्यश्रीजी ने पूज्य एलक श्री योगसागरजी से पूछा- 'दुपट्टा कितने हैं?' एलक जी बोले- 'दुपट्टे तो हैं, कमण्डलु भी दो रखे हैं, परन्तु उन्हें थोड़ा सुधरवाना पड़ेगा। लेकिन पिच्छी चार ही हैं।' आचार्यश्रीजी बोले- 'चार को खोलकर पाँच बना दो।' यह चर्चा एलक श्री योगसागरजी से एलक श्री नियमसागरजी तक पहुँची, और फैलते-फैलते सागर, मध्यप्रदेश तक पहुँच गई। दीक्षाओं को देखने सागर नगर एवं आस-पास के अनेक ग्राम व नगरों से भी अनेक मुनिभक्त आए, जिनमें आचार्यश्रीजी को समर्पित सिंघई श्री जीवेन्द्रकुमारजी के सुपुत्र श्री वीरेन्द्रकुमारजी, सागर भी आए हुए थे। वह दीक्षा के समय की वैराग्य भावना से प्रेरित होकर आचार्यश्रीजी से बोले- 'मुझे भी क्षुल्लक दीक्षा लेना है। आप आशीर्वाद दीजिए। मैंने संकल्प कर लिया कि अब मैं घर नहीं जाऊँगा।' आचार्यश्रीजी किंकर्तव्यविमूढ-से हो गए। ये एम. टेक.-भूगर्भशास्त्र का छात्र है, प्रतिभावान् है । कठोर चर्या का पालन कर पाएगा या नहीं? पर स्व-पर कल्याणक आचार्य भगवन् ने उन्हीं से पूछ लिया- 'केशलोंच कर लोगे?' वे बोले- 'हाँ, कर लेगें। आचार्यश्रीजी बोले- 'यदि घर वाले उठा के ले जाएँगे तो?' वह बोले- 'तब भी नहीं जाऊँगा।' वीरेन्द्र भैया की प्रबल भावना को देखकर गुरुवर को आशीर्वाद देना पड़ा। फिर आचार्यश्रीजी ने एलक श्री योगसागरजी से कहा- ‘इनके केशलोंच कर दो और जो पाँच पिच्छी हुई थीं, उन्हें अब खोलकर छह कर दो।' एलकजी धीरे से बोले- 'संभव नहीं है।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'सब संभव है।' एलकजी बोले- ‘डण्डी भी नहीं है। आचार्यश्रीजी बोले- 'पिच्छी के पीछे के हिस्से से डंठल की बना दो, डण्डी फिर मँगवा लेंगे।' इसलिए क्षुल्लक श्री क्षमासागरजी को बिना डण्डी की पिच्छी मिली। कमण्डलु भी बड़े-बड़े ही थे। आचार्यश्रीजी बोले- ‘इन्हें पूरा नहीं भरवाना।"
इस तरह १० जनवरी,१९८०, माघ कृष्ण अष्टमी, विक्रम संवत् २०३६, गुरुवार के दिन तत्काल ही तत्काल में चार की जगह छह दीक्षाएँ सानंद संपन्न हुई। ब्रह्मचारी जयकुमारजी एवं वीरेन्द्रकुमारजी तो ठीक, किंतु जिन चार भाइयों को दीक्षा देने का मन गुरुजी ने पूर्व से ही बना रखा था, उनकी भी कोई पूर्व घोषणा नहीं की गई। यदि ब्रह्मचारी जयकुमारजी नहीं आते तो शायद ज्ञात ही नहीं होना था कि कल दीक्षाएँ भी हैं। धैर्य गुण की पराकाष्ठा के पुंज हैं गुरुवर।
और अभी भी
राजयोग बना महाराज योग
सन् २०१४ में आचार्यसंघ का वर्षायोग शीतलधाम, विदिशा, मध्यप्रदेश में चल रहा था आचार्यश्रीजी की भाषा प्रायःकर सांकेतिक होती है। १६ अक्टूबर, २०१४ कार्तिक कृष्ण अष्टमी, वीर निर्वाण संवत् २५४०, विक्रम संवत् २०७१, गुरुवार के दिन प्रातःकालीन सामायिक के बाद आचार्यश्रीजी ने मुनि श्री संभवसागरजी से कहा- 'आज का योग अच्छा है।' महाराज जी बोले- 'हाँ।' बस बात खत्म हो गई? किसे पता था कि इस वाक्य में क्या राज छिपा है। आज के दिन आचार्यश्रीजी ने आहार-चर्या के लिए शीतलधाम मंदिर जी से निकल कर लगभग २.५० किलोमीटर दूर शहर में किले अंदर मंदिर के पास स्थित एस. ए. टी. आई. कॉलेज, विदिशा में एप्लाइड मैकेनिक्स डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर ब्रह्मचारी ऋषि भैया (हृषीकेश जैन सतभैया) जी के यहाँ पड़गाहन हुआ। परिवार की खुशी का ठिकाना न रहा। उनकी खुशी का क्या कहना, जिन्हें तीर्थंकर महावीर के समान स्वयं घर तक चलकर आए आचार्य भगवन् ने अपना पड़गाहन दिया हो। आहार के बाद सारा परिवार आचार्य भगवन् को शीतलधाम छोड़ने जा रहा था। तभी रास्ते में आचार्यश्रीजी ने ब्रह्मचारी ऋषि भैयाजी से कहा- 'आज तो राजयोग है, फिर धीमे से बोले, राजयोग नहीं महाराजयोग है।' भैयाजी आचार्यश्रीजी का मंतव्य न समझ सके। आचार्यश्रीजी शीतलधाम पहुँच गए। ईर्यापथ भक्ति संपन्न हुई। भक्ति के बाद लगभग ११.३५ बजे आचार्यश्रीजी ने मुनि श्री संभवसागर जी को बुलवाया। एक महाराजश्रीजी मुनि श्री को बुलाने चले गए। तब तक ब्र.ऋषि भैया वहीं बैठे थे। मुनिश्रीजी आए तो आचार्यश्रीजी ने उनसे कहा-'आज एक नहीं चार-चार शुभयोग- सर्वार्थसिद्धि योग, अमृत सिद्धियोग, गजकेसरी योग, गुरुवार को पुष्य नक्षत्र होने से- गुरुपुष्य योग एवं राजयोग है। सामने ऋषि खड़ा है, उसकी दीक्षा की भावना भी है।' मुनि श्री संभवसागरजी ने ब्रह्मचारीजी से पूछा 'दीक्षा लेना है क्या?' ब्रह्मचारीजी बोले- 'हाँ, क्यों नहीं।' मुनिश्रीजी ने कहा- 'तो श्रीफल लेकर निवेदन करो।' ऋषि भैया ने बाहर खड़े दर्शनार्थ आए श्रावकों से श्रीफल लिया और आचार्यश्रीजी को चढ़ाकर दीक्षा का निवेदन किया- 'गुरुदेव मुझे मुनि दीक्षा देने की कृपा कीजिए।' आचार्यश्रीजी ने पूछा- 'कॉलेज से निवृत्ति मिल जाएगी?' ब्रह्मचारीजी बोले- 'हाँ, एक घंटे में सब काम हो जाएगा।' फिर आचार्यश्रीजी ने उसी समय साथ में आए उनके पिता श्री सुरेशचंद्रजी को बुलाकर उनसे पूछा- 'इसको दीक्षा दे दें?' पिताजी ने आश्चर्यजनक जबाव दिया- 'महाराज, पहले मेरा नंबर है। अतः मुझे पहले दीक्षा दीजिए।' आचार्यश्रीजी प्रसन्न हो गए, बोले- ‘अच्छी भावना है। पहले इसको दीक्षा दे दें, फिर बाद में देखेंगे।' फिर धीरे से ब्रह्मचारी ऋषि भैया से पूछा- 'आज सुबह से कुछ खाया-पीया तो नहीं?' ब्रह्मचारीजी बोले 'आज अष्टमी का उपवास मैंने आपसे ही तो कल शाम को लिया था।' आचार्यश्रीजी बोले- 'ठीक है। मैं सामायिक करता हूँ । तब तक तुम सारे कार्यों से निवृत्त हो जाओ।'
अभी तक दीक्षार्थियों की संख्या का कोई निर्धारण नहीं हुआ था। दीक्षा का यह समाचार सभी जगह आग की तरह फैल गया। आचार्यश्रीजी के पास दीक्षा का निवेदन करने हेतु ब्रह्मचारी भाइयों की लाइन लग गई। आचार्यश्रीजी द्वारा इनमें से केवल चार दीक्षार्थियों का ही चयन किया, क्योंकि संभव है शायद यह सोचकर कि यहाँ विदिशा में दशवें तीर्थंकर भगवान श्री शीतलनाथजी के चार कल्याणक हुए हैं। इनमें प्रथम ऋषि भैया तो थे ही, दूसरे ब्रह्मचारी विनोदजी, (लम्हेटा वाले), जबलपुर, मध्यप्रदेश, जिनका लगभग १८ वर्ष से सवारी का त्याग था, इसलिए वे पद विहारी थे। पूर्व में कई बार दीक्षा की प्रार्थना कर चुके थे। एक दिन पहले सप्तमी के दिन उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा था कि कल प्रातः मैं यहाँ से निकल जाऊँगा।आचार्यश्रीजी उनसे बोले थे कि विहार आहार करके करना।वह बोले- ठीक है गुरुवर। उन्हें क्या पता था कि कौन-सा आहार मिलने वाला है? मन ही मन पाणिपात्र की तैयारी कर रहे हैं गुरुवर, ये कौन जानता था। और शेष दो ब्रह्मचारी संजय भैया, एल.आई.सी, गंजबासौदा, मध्यप्रदेश एवं ब्रह्मचारी मनीष भैया, सिहोरा (सागर) म. प्र., जिन्हें सामायिक से पहले दीक्षा की स्वीकृति नहीं मिलने पर वह पूरे सामायिक काल तक आचार्यश्रीजी के कक्ष के बाहर ही माला फेरते रहे। पुण्य वर्धित हुआ और सामायिक के बाद इन्हें भी स्वीकृति मिल गई। इस तरह अकस्मात् ही दीक्षा काल के कुछ समय पूर्व दीक्षार्थियों का निर्णय हुआ, और उन्हें जैनेश्वरी दीक्षा प्राप्त हो गई।
शिष्य अनुग्रही
आरंभ से
प्रमाद सह्य नहीं
यह प्रसंग उस समय का है जब सन् १९७३, ब्यावर (अजमेर) राजस्थान के वर्षायोग में आचार्यश्रीजी के साथ मात्र क्षुल्लक श्री मणिभद्रसागरजी, क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदसागरजी ही थे। एक दिन आहारचर्या के लिए शुद्धि करते समय क्षुल्लक स्वरूपानंदसागरजी के कमण्डलु का हत्था टूट गया। आचार्यश्रीजी बोले- 'बिना कमण्डलु के आहार चर्या के लिए नहीं जा सकते।' अतः आचार्यश्रीजी ने क्षुल्लकजी को उस दिन का उपवास दिया। इस तरह आचार्यश्रीजी किसी भी प्रकार का प्रमाद या दोष स्वीकार नहीं करते थे।
और अभी भी
सदोषता सह्य नहीं
सन् १९८२, सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) म.प्र. में तीसरे वर्षायोग की स्थापना से पूर्व का प्रसंग है। सारा संघ जल-मन्दिर में ठहरा हुआ था। वर्षा अभी शुरू नहीं हुई थी। गर्मी बहुत थी। एक दिन जल मन्दिर के बाहर रात्रि के अंतिम प्रहर में सामायिक के समय एलक श्री क्षमासागरजी के लिए एक जहरीले कीड़े ने काट लिया।वेदना इतनी हुई कि सामायिक भी ठीक से नहीं कर पा रहे थे। आचार्य महाराज समीप में ही विराजमान थे और शांत भाव से यह सब देख रहे थे। जैसे-तैसे सुबह हुई। वेदना कुछ कम हो गई। उन्होंने आचार्यश्रीजी के चरणों में निवेदन किया कि वेदना अधिक होने से समता भाव नहीं रह पाया, अतः सामायिक ठीक से नहीं हुई। आचार्यश्रीजी ने अत्यंत गंभीरतापूर्वक कहा- 'साधु को तो परीषह और उपसर्ग आने पर उसे शांत भाव से सहना चाहिए, तभी तो कर्म-निर्जरा होगी।आवश्यकों में कमी करना भी ठीक नहीं है। समता रखना चाहिए। जाओ, रस परित्याग करना। यही प्रायश्चित्त है। सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पीड़ा के बावजूद भी इतने करुणावंत आचार्यश्रीजी ने प्रायश्चित्त दे दिया। वास्तव में, अपने शिष्य को परीषह-जय सिखाना, शिथिलाचार से दूर रहने की शिक्षा देना और आत्मानुशासित बनाना, यही आचार्य की सच्ची करुणा व सच्चा अनुग्रह है।
धन्य हैं आचार्यश्रीजी! जो अपने शिष्यों की दिनचर्या पर आरंभ में जैसी कड़ी दृष्टि रखते थे, वैसी ही दृष्टि वे अभी भी रखते हैं। और उनकी इस तरह की करुणा एवं अनुग्रह शिष्यों पर सदैव बरसता रहता है।
समवसरण-सम शोभाशाली
आरंभ से
प्रशस्त वर्गणाएँ खीचें अपनी ओर
कहते हैं कि पूर्व के कई भवों में जब मुनिपद की साधना की गई होती है, तब कहीं जाकर आगे किसी भव में मुनिपद का पूर्णता से निर्दोष परिपालन हो पाता है। आचार्य श्री विद्यासागरजी की सधी-सधाई मुनिचर्या को देखकर ऐसा ही लगता है कि निश्चय ही यह उनकी पूर्व भवों की साधना का ही सुफल है।और इस कारण ही जन्म से उनकी कर्म प्रकृतियाँ प्रशस्त रही हैं। आपकी वर्गणाएँ इतनी प्रशस्त हैं कि सामने वाला अनायास ही खिंचा चला आता है। सन् १९७३ को आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि के बाद आपका संघ विशाल नहीं था। एक आप आचार्य और साथ में दादा गुरु से दीक्षित क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदजी एवं शिक्षा प्राप्ति हेतु आए क्षुल्लक श्री मणिभद्रसागरजी महाराज संघ में थे। फिर भी आपका प्रभाव इतना था कि जब आपने चातुर्मास स्थापना हेतु ब्यावर (अजमेर) राजस्थान में प्रवेश किया, उस समय संघ की आगवानी बड़ी भव्यता से हुई थी। इसका उल्लेख 'जैन संदेश' मथुरा, उत्तरप्रदेश में १९ जुलाई, १९७३ वाले अंक में प्रकाशित हुआ था- “दिनांक ६ जुलाई, शुक्रवार को पूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागरजी महाराज ने अपने संघ के साथ ब्यावर नगर में पदार्पण किया। नगर निवासी सभी सम्प्रदाय के जैन भाई और बहिनों ने डेढ़ मील नगर सीमा पर जाकर बैण्ड-बाजों के साथ स्वागत किया। जुलूस नगर के प्रमुख बाजारों में होते हुए तथा मन्दिरों के दर्शन करते हुए सेठ जी की नसिया में आकर सभा के रूप में परिणत हो गया। नसिया के विशेष प्रागंण में बनाये गए मण्डप में आचार्यश्री का समाज के अध्यक्ष श्री धर्मचंद जी मोदी ने स्वागत किया और चातुर्मास ब्यावर में ही करने के लिये प्रार्थना करते हुए श्रीफल चढ़ाया।'
इसी तरह सन् १९७९ में कुंडलपुर (दमोह) म. प्र. से विहार कर मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान में जन्मकल्याणक के दिन जब आपका मंगल पदार्पण हुआ, उस समय की भव्य शोभा यात्रा का चित्रण श्री मूलचंद्रजी लुहाड़िया 'और मौत हार गई' लेख में करते हुए लिखते हैं- '२८ मई, १९७९, जन्मकल्याणक के दिन प्रातः काल ३०-४० हजार नर-नारी, आबाल-वृद्ध आदि के मध्य विशाल जुलूस के साथ आचार्यश्री का ससंघ किशनगढ़ में मंगल पदार्पण हो गया। इसी समय आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी का संघ भी यहाँ विराजमान था। दोनों संघों का भव्य मिलन हुआ।अपनी अभीष्ट भावना को पूरा होता देख समाज के हर्ष का ठिकाना न रहा। किशनगढ़ का यह पंचकल्याणक महोत्सव आचार्यश्रीजी का सान्निध्य पा ऐतिहासिक और अभूतपूर्व बन गया।'
और अभी भी
आना, समवसरण-सा लागे
एक विशाल संघ के साथ आचार्यश्रीजी को आया देख, प्रत्येक स्थानवासी गद्गद हो उठते हैं। उन्हें ऐसा लगता मानों जैसे साक्षात् तीर्थंकर का समवसरण ही आ गया हो। आचार्य संघ के आगमन की सूचना पाकर उन्हें लगता है कि इनके सम्मान में वह क्या कुछ नहीं न्यौछावर कर दें। जब सामान्यजन को कुछ नहीं सूझता तो वे स्वयं ही समर्पित हो जाते हैं । ३२ वर्ष बाद आचार्यश्रीजी का ससंघ ललितपुर, उत्तरप्रदेश पहुँचना हुआ था। इससे पूर्व आपने सन् १९८७ का ग्रीष्मकाल एवं शीतकाल तथा सन् १९८८ का ग्रीष्मकाल भी क्षेत्रपालजी, ललितपुर, उत्तरप्रदेश में संपन्न किया था। तब से अब आना हुआ था। प्रवेश के समय की भव्यता अद्भुत ही थी। यहाँ गुरुवर की आगवानी से पूर्व ही उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय महंत आदित्यनाथजी योगी ने आचार्यश्रीजी को ‘राज्य अतिथि' का दर्जा प्रदान कर सम्मानित किया था। और स्वयं आगवानी में सम्मिलित होने की भावना व्यक्त की थी। किंतु गुरुवर का विहार अनियत होने से एक दिन पूर्व ही उनका प्रवेश हो गया, अतः वह उपस्थित न हो सके। पर पूर्व सांसद श्री चन्द्रपालजी,ज्योति कल्पनीतजी ने अपने साथियों सहित इलाईट चौराहे पर समाजवादी पार्टी की ओर से आरती की। तात्कालीन विधायकजी ने भी अपने साथियों के साथ आगवानी की एवं पदविहार किया। ललितपुर से ८ किलोमीटर दूर ‘आदिनाथ कॉलेज, महर्रा से गुरुजी की आगवानी की गई। सारा नगर दुल्हन की भाँति सजाया गया। घर-घर रंगोली बनाई गईं, आरती सजाईं गईं एवं मिठाईयाँ वितरित की गई। यहाँ की जैन समाज की जनसंख्या लगभग तीस हजार के करीब है और आगवानी में ६०-७० हजार की संख्या उपस्थित थी।आगवानी का जुलूस जब क्षेत्रपालजी मंदिर में प्रवेश कर गया था, तब उसका दूसरा छोर इलाईट चौराहे से भी अंतहीन नज़र आ रहा था। इस जुलूस की लंबाई के कारण इसे विश्व रिकॉर्ड में दर्ज किया गया है। सभी को संतोषजनक रूप से दर्शन एवं आशीष प्राप्त हो सके इसके लिए वर्णी कॉलेज से क्षेत्रपालजी मंदिर तक एक ऊँचा पथ बनाया गया था। उस पर चलकर आशीर्वाद देते हुए आचार्य भगवन् ने मंदिरजी में प्रवेश किया।ललितपुर का कुल प्रवास १० दिन का रहा। इस दौरान ललितपुर नगर के निकट मसौरा ग्राम में स्थित श्री दयोदय पशु संरक्षण केन्द्र, गौशाला परिसर में नव निर्मित जिनालय के जिनबिम्बों के निमित्त संपन्न हो रहे पंचकल्याणक के बीच में तप कल्याणक के दिन २८ नवंबर, २०१८ (मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, बुधवार, वीर निर्वाण संवत् २५४५, विक्रम संवत् २०७५) को संघ का एक नया इतिहास रचा गया। आचार्य भगवन् के हाथों से जैनेश्वरी १० मुनि दीक्षाएँ प्रदान की गई। इस अवसर पर गुरुवर ने संघ के ज्येष्ठ-श्रेष्ठ मुनि श्री समयसागरजी के लिए 'निर्यापक श्रमण' का पद प्रदान किया, और घोषणा की कि संघ के कुछ अन्य साधु भी नए-नए श्रमणों को पठन-पाठन अर्थात् सँभालने में कुशल हैं, उन्हें भी हम समय पर निर्यापक श्रमण' पद की जिम्मेदारी प्रदान करेंगे। इस तरह ललितपुर का सौभाग्य और आगवानी अलग ही रही।
खैर, गुरुवर की आगवानी की भव्यता का क्या कहना। जब-कभी और जहाँ-कहीं भी उनका प्रवेश हुआ, चाहे कलकत्ता हो या सागर, विदिशा, भोपाल, अथवा टीकमगढ़, म.प्र. सभी जगह ही उनकी आगवानी की भव्यता निराली ही होती है। गुरुवर के आगमन का समाचार सुनकर जनमानस अति उत्साही हो उठता है । सन् २००२ में जब गुरुवर का विदिशा, म.प्र. में मंगल प्रवेश हुआ था, तब इनसान तो क्या, एक हाथी ने नगर के मुख्य चौराहे पर गुरु चरणों में सोने की चेन चढ़ाकर, बैठकर अभिवादन करते हुए गुरुवर की आगवानी की थी। सन् २०१६ के वर्षायोग के समय मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में मंगल प्रवेश के दौरान मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय श्री शिवराज सिंह चौहान ने स्वयं ४ किलोमीटर दूर से नंगे पैर पद विहार कर गुरुजी का नगर प्रवेश कराया था। भोपाल राजधानी है, सो यहाँ गुरुवर का प्रवेश भी कुछ राजशाही ढंग से ही हुआ था। एक चौराहे पर सिंधी समाज स्वागत करने प्रतीक्षारत खड़ा था तो किसी एक पर पंजाबी समाज, तो किसी पर सिक्ख समाज, तो किसी पर मुसलमान समाज, तो किसी चौराहे पर राजनेता, व्यापारी मंडल आदि-आदि। इस तरह अलग-अलग चौराहे पर अलग-अलग ढंग से, अलग अलग संप्रदाय के लोगों ने गुरुजी की आगवानी की थी। इसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो जैसे किसी राजा की सवारी आ रही हो, पर तभी मन ने कहा राजा की सवारी नहीं कह सकते, क्योंकि उसके निकलने पर तो मार्ग को खाली करवा दिया जाता है, पर यहाँ तो मार्ग जनसमूह से खचाखच भरा पड़ा है। तो क्या भगवान के समवसरण की कल्पना साकार दिख रही थी। इससे भी मन ने इनकार करते हुए कहा- 'अरे नहीं, वह भी नहीं, क्योंकि उनका तो विहार आकाश मार्ग से होता है और यह तो पदविहारी हैं। फिर भी इतना जलसा है, जब गुरुवर के आगवानी की भव्यता की उपमा हेतु कोई उपमेय नज़र नहीं आया, तब मन ने कहा कि जो अनुपमेय हैं, उनके लिए उपमा कहाँ से प्राप्त होगी। यह तो जिनशासन के शासनसूर्य आचार्य श्री विद्यासागरजी की भव्य आगवानी है, जो ऐसे ही असंख्य भव्यात्माओं के द्वारा की जाती है तो फिर ललितपुर की आगवानी में भव्यता क्यों न होती?
धन्य हैं अनुपमेय आचार्य भगवन्! जिनकी उपमा किसी से नहीं की जा सकती।
पुण्य वर्चस्वी
आरंभ से
संघ का निर्वाह, क्षेत्रों पर संभव
आचार्यश्रीजी का पुण्य आरंभ से ही छाया की भाँति उनके साथ-साथ चल रहा है। जहाँ कह-कह कर आहारों के लिए चौकों की व्यवस्था करनी पड़ती थी, वहाँ आपकी उपस्थिति होने पर झरने की भाँति चौकों की होड़ लग जाती है। जब वह बुंदेलखण्ड आए और क्षेत्रों पर प्रवास करने की भावना व्यक्त की। तब कुछ समय के लिए समाज के लोगों को लगा कि कैसे-क्या होगा? कितनी व्यवस्थाएँ करनी होगी? पर मौर्यकालीन मुनि श्री चन्द्रगुप्त की भाँति इनके लिए भी कोई व्यवस्था प्रयत्नपूर्वक करनी नहीं पड़तीं, बल्कि व्यवस्थाएँ स्वयं चल कर आ जाती हैं। इसकी पुष्टि सन् १९८१ में प्रकाशित ‘सागर में विद्यासागर' नामक स्मारिका में प्रकाण्ड संस्कृतज्ञ एवं सिद्धांतज्ञ पंडित श्री पन्नालालजी जैन, साहित्याचार्य, सागर ने अपने लेख आचार्य विद्यासागर : 'व्यक्तित्व और कृतित्व' नामक शीर्षक के विषय से होती है, वह लिखते हैं- 'अंतिम अनुबद्ध केवली श्रीधर स्वामी की निर्वाण भूमि कुण्डलगिरि में आप दो चातुर्मास कर चुके हैं, तीसरा चातुर्मास सिद्धक्षेत्र नैनागिरि में और चौथा चातुर्मास थूबौनजी क्षेत्र में कर चुके हैं। इन तीनों क्षेत्रों पर मुनीम एवं पुजारी के सिवाय अन्य गृहस्थों के घर नहीं हैं। यहाँ चातुर्मास का संकल्प देखकर मुझे लगता था कि इन क्षेत्रों पर संघ का निर्वाह किस प्रकार होगा, परन्तु पूज्य आचार्य महाराज के पुण्य-परमाणुओं का आकर्षण देख आश्चर्य होता है कि इन क्षेत्रों पर चौका लगाने वाले भक्तों की एक लम्बी पंक्ति खड़ी होती थी और उनके नमोऽस्तु-नमोऽस्तु, अत्र-अत्र, तिष्ठ-तिष्ठ' की ध्वनि से आकाशगूंज उठता था। तपस्वी साधु के आहार जिसके चौके में हो जाते हैं, वह अपने को पुण्यशाली मानता है। चर्या के समय परिचित अपरिचित या अमीर-गरीब का विकल्प आपकी दृष्टि में नहीं रहता।'
इसी स्मारिका के सागर में विद्यासागर' नामक लेख में जैन संदेश के प्रधान सम्पादक पंडित श्री कैलाशचन्द्रजी सिद्धांतशास्त्री, वाराणसी आचार्यश्रीजी के सागर प्रवास के समय उनके पुण्य का प्रभाव बताते हुए लिखते हैं लोगों का कहना था कि आज तक यहाँ इतनी भीड़ एकत्र नहीं हुई और न इतने चौके ही लगे।'
और अभी भी
पहुँचें कहीं भी भव्यता ही भव्यता
आचार्य भगवन् का पुण्य पहले से ही असीम था, और अब तो विशुद्ध चर्या परिपालन से वह सहस्रगुणित क्रम में बढ़ता ही जा रहा है। वह कहीं भी विराजमान हो जाएँ, क्षेत्र अथवा नगर चारों तरफ भव्यता ही भव्यता नज़र आने लगती है। चौके लगाने वालों की होड़ लग जाती है । क्षेत्रों पर तो जितना स्थान होता, उतने ही लोगों को अवसर मिल पाता, पर शहरों में तो अनगिनत ।संघ में मात्र ३०-४० साधु रहते और चौके २५०-३00 तक पहुँच जाते। जब गुरुजी के ज्येष्ठ शिष्य मुनि श्री योगसागरजी संघस्थ ६६ पिच्छीधारी मुनि-आर्यिकाओं के समूह के साथ सागर पंचकल्याणक के समय दिनांक ८ से १४ दिसम्बर, २०१८ तक रहे, तब वहाँ २५० के लगभग चौके लग रहे थे। तब गुरुजी के प्रभाव का क्या कहना, वे तो सातिशयकारी हैं। ललितपुर पंचकल्याणक के समय २१ नवंबर, २०१८ के दिन गुरुजी का ललितपुर पहुँचना हुआ। यहाँ तो पूर्व के सारे रिकॉर्ड ही टूट गए। इस समय यहाँ संघ में मात्र ३२ साधु थे और चौके लगभग ६५०-७00 लग रहे थे। गुरुवर की महिमा अनंत है।
अपरिग्रही खजांची
खजांची अर्थात् जिसके पास खजाना ही खजाना होता है। आचार्यश्रीजी के पास सुख, शांति, अध्यात्म, वैराग्य, ज्ञान-विज्ञान एवं धैर्य-समता-संतोष आदि गुणों का खजाना तो है ही, साथ ही साथ कुबेर की भाँति अपार धन-समृद्धि का खजाना भी है। कहने को वह निस्परिग्रही हैं, पिच्छी-कमण्डलु के अलावा कुछ नहीं रखते, पर वास्तव में देखा जाए तो उनसे अधिक अमीर जैन समाज में शायद ही कोई मिले।जहाँ भी उनकी उपस्थिति होती है वहाँ पैसा बरसने लग जाता है, कई एकड़ों जमीनें दान में प्राप्त होने लग जाती हैं। उनकी प्रेरणा से पारमार्थिक जिस योजना हेतु जितना धन अपेक्षित होता है, उतना अल्प समय में ही संग्रहीत हो जाता है। ऐसे अपरिग्रही खजांची तो इस सृष्टि पर दुर्लभतम ही हैं।
आरंभ से
धन दौलत छोड़ी,फिर भी पीछे दौड़ी
सन् १९८० अर्थात् आज से ३९ वर्ष पूर्व का प्रसंग है। २७ मार्च के दिन आचार्यश्रीजी का ससंघ मोराजी, सागर, मध्यप्रदेश में प्रवेश हुआ। २९ मार्च को महावीर जयंती के दिन प्रातः आचार्यश्रीजी का संक्षिप्त प्रवचन हुआ। पश्चात् मानस्तम्भ पर स्थित चार प्रतिमाओं का अभिषेक करने के लिए कलशों की बोलियाँ हुई थीं। जनता ने आचार्यश्रीजी के सान्निध्य से प्रभावित हो, अच्छी राशि देकर कलशों की बोलियाँ लीं और मानस्तम्भ स्थित प्रतिमाओं का अभिषेक किया था। १७ अप्रैल से यहाँ पर ग्रीष्मकालीन ऐतिहासिक श्री षट्खण्डागम वाचना प्रारंभ हुई। इस दौरान आचार्य भगवन् के मन में भाव आया कि यहाँ के 'श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय' का एक स्थायी फंड होना चाहिए। अपनी इस भावना को उन्होंने उपदेश के द्वारा अभिव्यक्त किया, जिससे प्रेरित हो समाज ने एक लाख रुपए का फंड स्थापित करने का निश्चय किया।इस निश्चित राशि को जिस निश्चित समय में एकत्रित करने की घोषणा जब सार्वजनिक मंच से की गई, तब निर्धारित समय से पूर्व ही निर्धारित राशि से भी अधिक राशि अर्थात् पौने दो लाख रुपए संकलित हो गए और इसी दौरान ' ब्राह्मी विद्या आश्रम ' सागर के लिए भी लगभग ५० हजार रुपए की राशि संकलित हुई। सागर में इतने विशाल दान का यह प्रथम अवसर था।
वाचना के समापन समारोह संबंधी कार्यक्रमों की श्रृंखला गुरूणांगुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज के समाधि दिवस ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, १२ जून, १९८० से शुरू हुई। इस अवसर पर अजमेर तथा मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान से अनेक महानुभाव पधारे थे। श्री रतनलालजी पाटनी, किशनगढ़ वालों ने पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के चित्र का अनावरण किया व ११०१ रुपए की धनराशि दान में दी थी। पूजा के बाद मंदिर के कलशारोहण एवं नवीन ध्वजा चढ़ाने की १३ बोलियाँ हुई थीं, जिसमें जनता ने सोत्साह भाग लिया था। समापन समारोह की इसी श्रृंखला में श्रुतपंचमी के एक दिन पूर्व, १६ जून को सिंघई श्री जीवेन्द्रकुमारजी जैन सागर,मध्यप्रदेश ने अपने पुत्र श्री वीरेन्द्रकुमारजी (क्षुल्लक श्री क्षमासागरजी) द्वारा छोड़ी हुई सोने की अंगूठी जिनवाणी के प्रचार-प्रसारार्थ गुरुचरणों में अर्पित की। वह अंगूठी एक मोक्षपथिक के द्वारा छोड़ी हुई होने से वैसे ही बहुमूल्य थी। और अब आचार्यश्रीजी के चरणों में अर्पित होकर अनमोल हो गई थी। अतः अगले दिन इस अंगूठी की बोली लगाई गई और इससे प्राप्त धनराशि का उपयोग शास्त्र संरक्षणार्थ एवं प्रचारार्थ किया जाएगा, ऐसा निर्णय लिया गया था।"
इस तरह आरंभ से ही आचार्यश्रीजी के सान्निध्य मात्र से लोगों के भाव दान के बनने लग जाते थे।
और अभी भी
अब तो कुछ पूछो ही मत
अब वर्तमान में तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। सब प्रत्यक्ष ही है।आपका सान्निध्य प्राप्त कर जनसमुदाय में दान की भावना ऐसी बलबती हो उठती कि धन पानी की तरह एकत्रित होने लग जाता।
नवंबर २००३, अमरकंटक, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी अपने संघ के साथ विराजमान थे। इस समय अमरकंटक में नवनिर्माणाधीन जिनालय में विराजमान करने हेतु लाई गई प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेवजी की जिन मूर्ति के प्रवेश के समय पर लोगों का उत्साह देखने लायक था। लोगों के हाथ में जो आया उन्होंने भगवान को वह न्यौछावर किया। अंगूठी, हार, पायल, धन, रुपया आदि-आदि न्यौछावर किए गए। इस अवसर पर आचार्यश्रीजी को समर्पित गुरुभक्त सूरत वाले श्रेष्ठी श्रीमान् ओमप्रकाश बाबूजी ने अपने गले में पहनी हुई बहुत भारी सोने की चैन जो संभवतः ४-५ तौले की होगी, न्यौछावर कर दी थी। सन् २००६ में आचार्यश्रीजी ने जब बड़े बाबा को उच्चासन पर विराजमान किया था, उस समय बड़े बाबा के ऊपर नवनिर्मित सोने के छत्र के लिए लोगों ने दोनों ही हाथों से धन न्यौछावर किया था। इस समय श्री मती सुशीलाबाईजी जैन, सुनवाहा अपने पति सवाई सिंघई श्री रतनचंद्रजी जैन, सुनवाहा, टीकमकढ़ म.प्र. के वियोग के बाद गुरुजी के दर्शनार्थ आई थीं, उन्होंने अपने शृंगार के सभी आभूषण जैसे चूड़ी, कान के कुण्डल, गले की चैन आदि सभी का दान कर आचार्यश्रीजी के चरणों में नाक की कील को छोड़कर शेष आभूषण जीवनभर के लिए पहनने का त्याग कर दिया था। सन् २००८ में तो गज़ब ही हो गया था। रामटेक वर्षायोग में रक्षाबंधन के दिन प्रवचन हेतु जब आचार्य भगवन् मंचासीन हुए तो पता ही नहीं चला कि कब-किसने गुरुजी के बाजौटै पर राखी के स्थान पर अपने गले का हार बाँध दिया।संभव है गुरुजी ने उसे देख भी लिया हो पर वह बोलते कहाँ हैं? हाँ, इतना जरूर रहा कि मंद-मंद मुस्कुराते हुए उन्होंने ही आयोजकों का ध्यान उस हार की ओर आकर्षित कराया, जिसे देखकर आयोजक भी अचंभित रह गए। उस कंठाहार की जब बोली लगाई गई तो वह पाँच लाख की गई, जिसे प्राप्त करने का सौभाग्य इंदौर, मध्यप्रदेश निवासिनी श्रीमती जयश्रीजी को मिला।
ऐसे एक नहीं, अनेक प्रसंग हैं। वर्तमान में पंचकल्याणक आदि के अवसर पर गुरुवर की उपस्थिति पाकर श्रावक अपना सब कुछ न्यौछावर कर सौधर्मेन्द्रादि के पद प्राप्त करने हेतु लालायित रहते हैं। आचार्यश्रीजी के सान्निध्य में इन पदों की प्राप्ति हेतु भक्तगण एक दो नहीं चार-चार, छह-छह करोड़ रुपयों का त्याग कर एक-एक पद प्राप्त कर हर्षित होते हैं और जीवनभर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
इस तरह गुरुवर की प्रेरणा से अहिंसा परिपालनार्थ, जिनायतन संरक्षणार्थ, सात्त्विक जीवन के प्रोत्साहनार्थ करोड़ों-करोड़ों रुपयों की योजनाएं संचालित हैं। सैकड़ों भव्य पुरुष सात्त्विक मार्ग पर आरूढ़ हो अपना जीवनयापन कर रहे हैं। आपकी उपस्थिति मात्र से ही जनसमुदाय में त्याग की भावना स्वतः बन जाती है। धनराशि पानी की तरह पलभर में एकत्रित हो जाती हैं। आपकी प्रेरणा से कहाँ-कहाँ, कौन-कौन सी योजनाएँ संचालित हैं इसकी जानकारी पाठकों को आगामी पाठ्य पुस्तकें शिक्षा, संस्कृति, राष्ट्र एवं पंचकल्याणक नामक आदि पुस्तकों से प्राप्त होगी।
तन ढला, पर चेतना वही
आरंभसे..
मुनि कभी नहीं छोड़ते अपना संकल्प
आचार्यश्रीजी दीक्षा के समय से ही परीषहजय नामक उत्तरगुणों का पालन मूलगुणों के समान ही करते आ रहे हैं। सन् १९७२, नसीराबाद(अजमेर) राजस्थान वर्षायोग में गुरुणांगुरु की चरण छाँव तले एक दिन वह शाम की सामायिक खुले आसमान के नीचे कर रहे थे। तभी तेज बारिश आ गई। वह सामायिक में जैसे के जैसे बैठे रहे। करीब आधे घंटे बाद कुछ श्रावक आए और उन्हें पाटे सहित उठाकर बरामदे में ले गए। दूसरे दिन उन्हीं श्रावकों ने आकर मुनिश्रीजी से कहा- 'आप पानी में सामायिक कर रहे थे, ऐसे में तो आप बीमार होजाएँगे।' तब वह बोले- 'पानी में सामायिक नहीं कर रहा था।' श्रावकों ने कहा- 'कल हम लोगों ने तो बारिश में से पाटा सहित आपको उठाया था।' वह बोले- 'मैं वही तो कह रहा हूँ सुनो तो, मैं पानी में सामायिक नहीं कर रहा था। सामायिक कर रहा था तो पानी आ गया था, और सामायिक संकल्पपूर्वक की जाती है। मुनि अपना संकल्प नहीं छोड़ते। अभी तो जवानी है, जवानी में ही तो साधना होगी।
ऐसे परिणाम गुरुवर की निकट भव्यता को प्रकट करते हैं। इतनी अल्पवय में दीक्षित होकर भी आरंभ से ही उन्हें हेय-उपादेय के प्रति पूर्ण सजगता थी। उन्होंने अपनी साधना में कभी भी किन्तु-परन्तु नहीं लगाया, और न ही किसी का हस्तक्षेप पसंद किया।
और अभी भी..
परीषहजयसे आता साधना में निखार
सन् १९८०, सागर, मध्यप्रदेश में ग्रीष्मकालीन वाचना के समय का एक प्रसंग यहाँ उल्लेखनीय है। सभी महाराज सामायिक में बैठे हुए थे। तभी अचानक बहुत तेज बारिश आ गई। थोड़ी देर बाद ही कुछ श्रावक आए और आचार्यश्रीजी को पाटे सहित उठाकर कमरे के अंदर ले गए। इस समय तो आचार्यश्रीजी ने कोई संकेत या प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, वह सामायिक में लीन रहे। परंतु दूसरे दिन आचार्यश्रीजी बोले- 'यह शरीर नमक की डली थोड़े ही था, जो पानी में गल जाता। परीषह सहन करने का अवसर मिला था, वह भी आप लोगों ने नहीं करने दिया। परीषह सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती है एवं साधना में निखार आता है।
धन्य है कठोर साधना की प्रतिमूर्ति आचार्य गुरुवर को! वह योगि भक्ति की इन पंक्तियों को अपने जीवन में चरितार्थ कर रहे हैं-
“वर्षा-ऋतु में जल की धारा,मानों बाणों की वर्षा,
चलित चरितसे फिर भी कब हो, करते जाते संघर्षा।
वीररहे, नर-सिंह रहे, मुनि-परिषह, रिपुको घात रहे,
किंतु सदा भव-भीत रहे हैं, इनके पद में माथरहे" ॥६॥
उपसंहार
आचार्यश्रीजी की विशुद्धि, चर्या, क्रिया, सोच, चिंतन, साधना, प्रभाव, तेज, गांभीर्य, व्रतों के प्रति उत्साह, पर-पदार्थ के प्रति निर्ममत्वता, आगम के प्रति निष्ठा, समयानुसारी दिनचर्या, जीवन के प्रत्येक पहलुओं पर उनकी दृष्टि, गुरु के प्रति समर्पण भाव, गुरु की समाधि के पश्चात् हर पल उनकी उपस्थिति का अहसास आदि सब कुछ ही तो जैसा मुनि दीक्षा के समय था, आज भी वैसा का वैसा ही है। उनकी उम्र बढ़ी है और तन ढला है, पर सिद्धांत वही हैं, श्रमणत्व वही है। उनका विवेक, बुद्धि, सोच, बोध, दृष्टि एवं दृष्टिकोण अर्थात् उनकी चेतना आज भी वही की वही है। किसी व्यक्तित्व के द्वारा अपने जीवन के दीर्घकाल पर्यंत समान रूप से स्थिर, धैर्यवान्, समयनिष्ठ, उत्साही, सजग, क्रियाशील एवं गंतव्यनिष्ठ बने रहना स्वयं में एक आश्चर्य ही है।आचार्य श्री विद्यासागरजी ऐसे ही अद्भुत एवं आश्चर्यकारी संत हैं।आज वह हम सबके सामने जैसे के जैसे' हैं।
सन् १९७८ में कलकत्ता (पश्चिम बंगाल) से प्रकाशित पत्रिका, ‘समाचार पत्रक' में हिम्मत सिंहजी जैन, पृष्ठ १३ पर लिखते हैं- 'अहो भाग्य है उस मानव का जिसको इनका सान्निध्य प्राप्त हुआ है।
दिगम्बर जैन धर्म को इस ज्योतिपुंज से अनेक आशाएँ-आकांक्षाएँ हैं। वे सब भविष्य के गर्भ में हैं- सब पूरी हों-यही कामना है।' जो आशाएँ आकांक्षाएँ भविष्य के गर्भ में थीं, वह आज पूर्णता को प्राप्त होकर शोभायमान हैं। आचार्यश्रीजी सब के आश-विश्वास, जैनत्व के रक्षक, बहुतों की उम्मीदें, टूटते-बिखरते घरों के सहारे, दुखियों के मसीहा, गरीबों के हितचिंतक, राष्ट्र के दिशाबोधक हैं। ऐसा क्या नहीं है जिसको इन्होंने अपने भावों से स्पर्श न किया हो अर्थात् जिसके हित की चाहना इन्होंने न की हो, जिस विषय पर अपनी सोच के बिंदु न दिए हों। जो लोगों के लिए असंभव हो चुका हो उसे अपनी प्रेरणा से संभव न किया हो। बिगड़ते सामाजिक हालातों को सँभालने वाले भी यही हैं। ऐसा आभासित होता है कि जितना जो कुछ भी नियत, व्यवस्थित, शांत और अच्छा हो रहा है वह इन्ही के होने पर है। जिस तरह तीर्थंकर की उपस्थिति से आस-पास सर्वत्र सुभिक्ष फैल जाता है, वैसे ही आपके प्रभाव से चहुँओर सुख-समृद्धि-आनंद फैल जाता है। आपकी महिमा अनंत है। आपके आभामण्डल में रहने वाले भाग्यशालियों का इतना तक कहना है कि हमारे श्वासों के संचारणकर्ता भी वही हैं। उन्हें अपनी श्वासों के चलने से गुरुवर की उपस्थिति का अहसास होता है।
आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ऊपर से उन्हें देखकर प्रफुल्लित होते होंगे, गर्व होता होगा उन्हें अपने लाडले, आज्ञानुसारी, प्रत्यक्षवत् परोक्ष विनयी, मोक्ष उत्कंठी शिष्य पर। गुरु और शिष्य की ऐसी जोड़ी निराली ही रही। परम गुरु अरिहंत भगवान से प्रार्थना है कि मुक्ति तक यह जोड़ी परस्पर में मोक्षपथ की अनुकूलता बनाए रखे। एक तीर्थंकर बन जाएँ और एक उन्हीं के गणधर बनकर शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष महल में प्रवेश कर जाएँ। पर हे भगवन्! इतना अवश्य ध्यान रखना, भले ही हम गुरुचरणानुरागी कुशल एवं सधे-सधाए साधक न हों, पर हैं तो आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के ही नाती-पोते एवं आचार्य श्री विद्यासागरजी के ही शिष्य। हमारा समर्पण, निष्ठा, भावना सब कुछ उन्हीं के चरणों में ही है। कहीं ऐसा न हो कि यह गुरु-शिष्य मोक्ष चले जाएँ और हम।... नहीं-नहीं भगवन्! हमारा सम्यक्त्व सुरक्षित रखना, और इन्हीं के समवसरण में रहते-रहते ही हमारी भी मुक्ति का उद्यम करा देना। हमारी करुण प्रार्थना पर दृष्टि रखना। जब तक संसार रहे तब तक इन्हीं गुरु का चरण सान्निध्य प्राप्त रहे, और इन्हीं के शिष्यत्व में हम सब भी मुक्ति को प्राप्त हो जाएँ...बस।