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कोई किसी से जैसा कराना चाहे वैसा खुद करे


संयम स्वर्ण महोत्सव

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कोई किसी से जैसा कराना चाहे वैसा खुद करे

 

सुशिक्षिता ने देखा कि अब मेरे जुम्मे कोई खास काम नहीं रहा है तो एक दिन वह चक्की तो घर में थी ही कुछ गेहूं लेकर पीसने बैठ गई। उसे ऐसा करते देखकर सास आई और बोली कि बहू आज यह क्या कर रही है? क्या पवन चक्की दुनिया से उठ गई? ताकि तू गेहं लेकर पीसने को बैठी है? इस पर सुशिक्षित बोली कि सासूजी आप या जेठानियां और तो कुछ करने नहीं देती, खुद करने लग गई हैं तो फिर मैं क्या करूं? काम नहीं करने से शरीर आलसी बन जाता है, दिन भर निठल्ला बैठे रहने से मन में अनेक प्रकार के खोटे विचार आते हैं। पीसने से कसरत भी कुछ सहज ही बन जाती है। ताकि शरीर और मन दोनों प्रसन्न ही रहते हैं। इसके अलावा पवन चक्की का आटा खाने से धार्मिक और आर्थिक हानि के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य भी बिगड़ता है। इसलिये मैंने ऐसा करना ठीक समझा है।

 

सुशिक्षिता को ऐसा करती हुई सुनकर जिठानियों को तमाशा सा लगा अतः एक-एक करके वे सब भी उसके पास में आ खड़ी हुयीं और देखने लगीं। एक ने देखा कि यह तो बड़ी ही आसानी से चक्की को घुमा रही है एवं एक प्रकार का आनन्द का अनुभव कर रही है जरा मैं भी इसे घुमाकर क्यों न देखूं? ऐसे मन से उसके साथ आटा पीसने को बैठी और थोड़ी देर बाद बोली कि ओह, यह तो बहुत अच्छी बात है। यद्यपि थोड़ा परिश्रम तो इसमें होता है, सो तो हिंडोले पर हींड़ने में भी होता है, जो कि मनोविनोद के लिये किया जाता है। इनमें तो विनोद का विनोद और काम का काम तथा शरीर बिल्कुल फूल जैसा ही हलका बन जाता है। मैं भी रोजमर्रा थोड़ा बहुत पीसा करूंगी। फिर क्या था, फिर तो क्रम-क्रम से सभी पीसने लगीं।

 

सुशिक्षिता ने फिर फुरसत पाई कि हाथ में बुहारी लेकर घर का कूड़ा कचरा साफ किया और फिर घड़ा लेकर कुएं पर पानी भरने को जाने लगी तो सासू ने प्रेम से कहा- बेटी यह क्या करती है? घर पर तो नौकर बहुत हैं, उनसे काम कराओ। जवाब में सुशिक्षिता ने कहा माताजी ! कोई व्यक्ति आप बैठा रहकर नौकरों से काम ले, मैं इसे अच्छा नहीं समझती, क्योंकि क्या उसके खुद के हाथ पैर नहीं हैं? अगर हैं तो क्यों होना चाहिये। ऐसा करना तो मेरी समझ में उन नौकरों के साथ में दुर्व्यवहार करना है, नौकर भी तो, समझदार के लिये भाई-बन्धुस्थानीय ही होते हैं। उन्हें तो इसलिये रक्खा जाता है कि समय पर मनुष्य से खुद से काम पूरा न किया जा सकता हो या जिस-जिस काम को वह नहीं कर सकता हो वह काम प्रेम-पूर्वक उनसे लेता रहे। कार्य करने से मनुष्य की प्रतिष्ठा कम नहीं होती प्रत्युत बढ़ती है। प्रतिष्ठा के कम होने का तो कारण है स्वार्थ-परायणता या विलासिता। सुशिक्षिता की ऐसी ज्ञान भरी बात सुनकर सेठानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह मन में सोचने लगी कि अहो ! देखो इसके कितने ऊँचे विचार हैं, यह साक्षात भलाई की मूर्ति की प्रतीत होती है

 

जिस की  वजह से आज मेरे इस घर में शांति का साम्राज्य हो गया है जहां पर कि इससे पूर्व में कलह का आतंक छाया हुआ था। अब एक रोज सेठानी ने बाजार से मंगवाकर सब बहुओं को उनके साल भर के खर्च के योग्य छ: छः जोड़ा साड़ियों के दिये तो सुशिक्षिता अपने उन जोड़ों में से एक जोड़ा लेकर, हे जीजी ! मेरे पास पहले ही से बहुत सी साड़िया मेरी पेटी में धरी रखी हैं काम में नहीं आती तो मैं अब इनका क्या करूंगी? अतः यह साड़ी जोड़ा आप ही ग्रहण करें, ऐसा कहते हुए बड़ी जेठानी को भेंट किया एवं एक-एक जोड़ा और जेठानियों को दिया तथा ननद को भी एक जोड़ा दे दिया जिससे वे सब बड़ी प्रसन्न हुयी।

 

इधर सेठानी को यह बात मालूम हुई तो उसने पूछा कि बहू यह क्या किया? तो सुशिक्षिता बोली कि सासूजी आप ही देखती हैं कि मैं तो मेरे हाथ के कते हुए सूत से खुद ही बुनकर तैयार कर लेती हूं, उसी साड़ी को पहनती हूं। जो कि साल भर में दो साड़िया ही मेरे लिये पर्याप्त होती हैं किन्तु मैं साल भर में छह: सात साड़ियां तैयार कर लेती हूं जो कि मेरे पास सन्दूक में भरी रक्खी हैं। मैं तो उनमें से भी इनको देना चाहती हूं, परन्तु ये जीजी बाइयाँ भले घरानों की हैं। इन्हें ये साड़ियाँ पसन्द नहीं आती। आज आपने ये बेशकीमती साड़ियाँ मंगवाकर हम सबको पारितोषक रूप में दी तो आपका हाथ पाछा गिराना तो मैंने उचित नहीं समझा किन्तु मैं व्यर्थ ही इनका संग्रह करके क्या करती? अतः एक-एक जोड़ा मैंने इनको दे दिया। अब यह एक जोड़ा और शेष है इसको भी अगर आप अपने लिये रख लें तो बहुत अच्छा हो। आपके काम में आ जावेगा, वरना मेरे पास तो व्यर्थ ही पड़ा रहेगा। मैं तो मेरी हाथ की बुनी हुई साड़ियों में से भी कभी किसी नौकरानी को तो कभी किसी गरीब बहिन को दे दिया करती हूं। संग्रहवृत्ति, या फैशनबाजी को मैं मेरे लिये अच्छा नहीं समझती। वस्त्रादि चीजों को संग्रह कर रखने में मन उन्हीं वस्तुओं में चिपका रहता है। मोह उत्पन्न होता है। जो बहिने नित्य नई पोशाकें बदलना जानती हैं वे सब अपने पतिदेवों को व्यर्थ की परेशानी में डालने का काम करती हैं। क्योंकि अन्याय अनर्थ का न होता कार्य करके भी धन कमा लाकर उनकी हविस पूरी करने की ही चिन्ता रहती है। जो कि एक बड़ी भारी हिंसा है।

 

जिसका उत्तरदायित्व उन मेरी फैशनबाज बहिनों के जुम्मे होता है, जिन्हें कि शोभा का प्रलोभन होता है। परन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि शोभा तो गहनों और कपड़ों से न होकर समुचित नि:स्वार्थ सेवा और परोपकार आदि सद्दगुणों द्वारा होगी। इस प्रकार सुनकर सेठानी ने कहा कि बहू तेरा कहना ठीक है, आज से मैं तो यह प्रतिज्ञा करती हूं कि तेरे हाथ के बने हुए कपड़ों को ही पहिना करूंगी एवं सादगी से अपना जीवन बिताऊँगी।

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