स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी
ज्ञानावरणादिक कर्मों से, पूर्णरूप से मुक्त रहे।
केवल संवेदन आदिक से युक्त, रहे, ना मुक्त रहे ॥
ज्ञानमूर्ति हैं परमातम हैं, अक्षय सुख के धाम बने।
मन वच तन से नमन उन्हें हो, विमल बने ये परिणाम घने ॥१॥
बाह्यज्ञान से ग्राह्य रहा पर, जड़ का ग्राहक रहा नहीं।
हेतु-फलों को क्रमशः धारे, आतम तो उपयोग धनी॥
ध्रौव्य आय औ व्यय वाला है, आदि मध्य औ अन्त बिना।
परिचय अब तो अपना कर लो, कहते हमको सन्त जना ॥२॥
प्रमेयतादिक गुणधर्मों से, अचिदात्मा यह होता है।
तथा ज्ञानगुण दर्शन से तो, चिन्मय शाली होता है।
अतः सचेतन तथा अचेतन, स्वभाव वाला आतम है।
तत्त्वदृष्टि से भीतर देखो, पलभर में मिटता तम है ॥३॥
संज्ञा संख्या लक्षण द्वारा, आत्मज्ञान दो भिन्न रहे।
किन्तु भिन्न ना प्रदेश उनके, अनन्य हैं, ना अन्य रहे॥
आत्म द्रव्य हो ज्ञान उसी का, त्रैकालिक गुण साथ रहे।
आतम गाथा गाता आगम, यही हमें शिव-पाथ रहे ॥४॥
मात्र ज्ञान के रहा बराबर, आतम ऐसा मत समझो।
तथा देह के रहा बराबर, समझो मानो मत उलझो॥
इसीलिए भी रहा सर्वगत, नहीं सर्वथा माना है।
संत जमाना यही मानता, ज्ञानोदय का गाना है ॥५॥
नाना ज्ञानों की पर्यायों, को धारण करने से ही।
एक रहा है अनेक भी है, कह ना सकते ऐसे भी॥
मात्र चेतना एक स्वभावी, होता है नि:शंक रहा।
एकानेकात्मक आतम हो, यही न्याय अकलंक रहा ॥६॥
पर के गुणधर्मों से निश्चित, अवाच्य है माना जाता।
अपने गुणधर्मों से सुनलो, अवक्तव्य ना कहलाता।
इसीलिए एकान्त रूप से, वाच्य नहीं निज आतम है।
वचन अगोचर नहीं सर्वथा, सन्तों का यह आगम है ॥७॥
अपने गुणधर्मों से आतम, अस्तिरूप से रंजित है।
पर के गुणधर्मों से यह तो, नास्तिरूप से संचित है।
बोधमूर्ति होने से सचमुच, मूर्तिक माना जाता है।
किन्तु रहा विपरीत धर्म से, सदा अमूर्तिक भाता है॥८॥
इसविध बहुविध धर्मों को औ, बन्ध मोक्ष के कारण को।
बन्ध मोक्ष को बन्ध मोक्ष के, फल को अघ के वारण को॥
आतम ही खुद धारण करता, निजी योग्यता यही रही।
श्रद्धा ऐसी मति को करती, और चरित को सही सही ॥९॥
ज्ञात रहे यह नियम रहा, जो कर्मों का कर्ता होता।
कर्म फलों का भी वह निश्चित, आतम होता है भोक्ता॥
उपादान औ निमित्तपन से, कर्मों का हो छुटकारा।
होता है यह स्वभाव से ही, मन को दो अब फटकारा ॥१०॥
ज्ञान चरित दर्शन ये, तीनों समीचीन जब होते हैं।
उपाय बनते आत्म सिद्धि के, कर्म कीच को धोते हैं।
तथा तत्त्व में अचल अचल से, होना माना जाता है।
आतम दर्शन दुर्लभतम है, आगम ऐसा गाता है ॥११॥
पदार्थ जिस विध उस विध उसको, जाननहारा ज्ञान सही।
यथा प्रकाशित दीपक करता, निज को पर को भान सही॥
समीचीन यह ज्ञान कथंचित् , ज्ञप्ति क्रिया से भिन्न रहा।
करण क्रिया से अभिन्न भी ना, नहीं सर्वथा भिन्न रहा ॥१२॥
ज्ञान तथा दर्शन गुण की जो, पर्यायें होती रहती।
लहरें सी है लगातार हो, पीछे ना आगे बहती॥
उन पर सवार होकर यात्रा, पूरी अपनी करनी है।
या सुख दुख में समता रखना, ममता तन की हरनी है ॥१३॥
जाननहारा देखनहारा साकारा हूँ अविकारा।
सुख का अवसर या दुख का हो, एकाकी तन से न्यारा॥
इस विध चिंतन मंथन का जो, प्रवाह बहता है मन में।
परमोत्तम सो चारित होता, विरले ही साधक जन में ॥१४॥
चिंतन मंथन मौनादिक, ये निशिदिन मन का जो रमना।
मूल-भूत निज उपादान को, जागृत करना उपशमना॥
उचित देश में उचित काल में, उचित द्रव्य से तप तपना।
निमित्तकारण बाह्य रहा सो, पूरण करता है सपना ॥१५॥
प्रमाद तजकर इन विषयों पर, विचारकर भरपूर सही।
दुविधा में हो या सुविधा में, अपने बल को भूल नहीं॥
रागरंग से दूर रहा जो, रोष कोष से रहित रहा।
आतम का अनुभव कर ले अब, और भाव तो अहित रहा ॥१६॥
कषाय कलुषित चित्त हुआ है, चिन्ता से जो आहत है।
भूल कभी भी तत्त्वबोध में, होता ना अवगाहित है।
नीलकण्ठ सम नील वसन पर, कुंकुम का वह रंग कभी।
चढ़ सकता क्या? आप बता दो, तथ्य रहा यह व्यंग नहीं ॥१७॥
अतः मूलतः दोषों को यदि, उखाड़ना है आर्य महा।
मोह भाव को प्रथम पूर्णतः, उजाड़ना है कार्य रहा॥
उदासीनता की धरती पर सुखासीन हो रहना है।
तथा तत्त्व की गहराई में, खोना फिर क्या कहना है ॥१८॥
उपादेय सो कौन रहा है, और हेय वह कौन रहा।
उचित रूप से सोच समझ ले, और और सो गौण अहा॥
हेय तत्त्व के आलम्बन को, पूर्णरूप से तजना है।
उपाय का आलम्बन लेकर, उपादेय को भजना है ॥१९॥
पर में निज को, निज में पर को मत परखो तुम बचपन से।
पर को परखो, परपन से तो, निज को निरखो निजपन से॥
विकल्पजालों संकल्पों से, सो ऊपर उठते उठते।
जाओ जाओ अन्त अन्त तक, अनन्त सुख हो दुख मिटते ॥२०॥
सुनो मोक्ष की अभिलाषा भी, ना होती जिसके मन में।
मोक्ष उसी को नियम रूप से, मिलता है इस जीवन में।
इसविध सन्तों का कहना है, पालन उसका करना है।
कहीं किसी की आकांक्षा से, नहीं भूलकर करना है ॥२१॥
चूंकि सुलभ है आतम में वह, अभिलाषा का उदय रहा।
इसीलिए बस उसके चिंतन, में जुटता यह हृदय रहा॥
सुख भी तो फिर निज आतम, के सुनो तात! आधीन रहा।
वहाँ यतन क्यों नहीं करोगे, मन क्यों होता दीन रहा ॥२२॥
पर को जानो मना नहीं है, किन्तु किसी से मोह नहीं।
सही सही पहचानों निज को, सोना है सो लोह नहीं॥
अपने संवेदन में आता, स्वरूप अपना अपना है।
सदा निराकुल केवल निज में, रहना बाहर सपना है ॥२३॥
अपने से अपने को अपने, द्वारा अपने लिए तथा।
अपने में अपना अपना सो, लखना अपने आप यथा॥
इसी ज्ञान से इसी ध्यान से आनंदामृत का झरना।
झर झर झर झरता झरता, मिटता फलतः चिर मरना ॥२४॥
आत्मतत्त्व का चिंतन इस विध, करता अन्तर बाहर से।
इसको सुनता और सुनाता, औरों को जो आदर से॥
यथाशीघ्र परमार्थ संपदा, इस पर वह बरसाती है।
‘स्वरूप संबोधन पच्चीसी', उसकी बनती साथी है ॥२५॥