डाल - डाल के
गाल - गाल पर
लाल - लाल हैं
फूल गुलाब!
फूल रहे हैं
लज्जा की घूँघट
खोल - खोल कर
अधर में डोल रहे
मार्दव अधरों पर
कल - कमनीयता
भीतरी संवेदन
रहस्यमय बोल
बोल रहे हैं
अनमोल रहे
या मोल रहे,
यह एक प्रश्न है
दर्शकों के सम्मुख
और उस ओर
पराग प्यासा
सुगन्धमोजी
भ्रमर दल ने
अपलक
एक झलक
दृष्टिपात किया
बस! धन्य!
इतने से ही
आँखों का पेट भर गया
तृप्ति का अनुभव,
अपने में रूप-रंग समेट कर
पलक बन्द हुए
और रसना
गुनगुनाती
प्रारम्भ हुआ
गुण - गान - कीर्तन
हाव - भाव
टुन.....टुन..... नर्तन,
किन्तु नासा की भूख
दुगुणी हुई
गंध से मिलने
बातचीत करने
लालायित है
उतावली करती - करती
गम्भीर होती जा रही है
जैसे कहीं
विषयी उपस्थित होकर भी
विषय अनुपस्थित हो,
अब नासा
अपनी अस्मिता पर
शंकित होती
कि
इस समय
मैं हूँ क्या नहीं ?
यदि हूँ,
गंध का स्वाद
क्यों नहीं आता,
जब कि गंधवान्
उपस्थित है सम्मुख
इसी बीच स्पर्शा भी इस विषय में
सक्रिय होती
अपनी तृषा बुझाने,
जब वह छुवन हुआ
स्पर्शा ने घोषणा कर दी
कि
यहाँ प्रकृति नहीं है
मात्र प्रकृति का अभिनय है
या प्रकृति का अविनय है
माया छल
ये फूल तो हैं
पर! कागद के हैं
तब तक
नासा की आसा
निराशता में लज्जावश
डूबती चली
फलस्वरूप
भ्रम विभ्रम से
भ्रमित हुआ
भ्रमर-दल
उड़ चला वहाँ से,
गुनगुनाता, कहता जाता
कि
सत्य की कसौटी
नेत्र पर नहीं
संयम-नियंत्रित
ज्ञान-नेत्र पर
आधारित है |