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एक भील का अटल संकल्प


संयम स्वर्ण महोत्सव

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एक भील का अटल संकल्प

 

महाभारत में एक जगह आया है कि बाण-विद्या की कुशलता के बारे में द्रोणाचार्य की प्रसिद्धि सुनकर एक भील उनके पास आया और बोला कि प्रभो ! मुझको बाण विद्या सिखा देवें। द्रोणाचार्य ने जवाब दिया कि मैं अपनी विद्या क्षत्रिय को ही सिखाया करता हूं यह मेरा प्रण है। अत: मैं तुझे सिखाने के लिए लाचार हूं। इस भील ने कहा प्रभो ! मेरा भी यह दृढ़ संकल्प है कि मैं आप से ही विद्या सीखूंगा ऐसा बोलकर चला गया और द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उसके आगे बाण चलाना सीखने लगा।

 

कुछ दिन में वह अर्जुन से भी अधिक प्रवीण हो गया। एवं उसकी फैलती हुई बाण विद्या की कीर्ति को सुना तो घूमते फिरते हुए द्रोणाचार्य एक रोज उसके पास आये और बोले कि भाई ! तुमने यह विद्या किससे सीखी है। उत्तर में यह कहते हुए कि प्रभो ! मैंने आपसे ही सीखी है। यह देखिये आपकी मूर्ति बना कर रख छोड़ी है। द्रोणाचार्य के चरणों में गिर गया। द्रोणाचार्य बोले यदि ऐसा तो इसकी दक्षिणा मुझे मिलनी चाहिए। जबाव मिला आप जो चाहें सो ही लीजिये। द्रोणाचार्य बोले और कुछ नहीं सिर्फ अपने दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो।

 

भील ने झट अंगूठा काटकर दे दिया। द्रोणाचार्य हंसे ओर बोले कि भील अब तुम बाण कैसे चलाओगे? गुरु कृपा चाहिए, ऐसा कहता हुए भील ने पैर के अंगूटे से बाण चला दिया द्रोणाचार्य ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा शाबास बेटे! किन्तु किसी भी प्राणी की हिंसा करने में इस विद्या का दुरुपयोग मत करना। जबाव मिला कि प्रभो ! हिंसा करना तो कमीनापन है मैं कमीना नहीं हूं। इस पर द्रोणाचार्य हंसे। उनके हँसने का मतलब भील समझ गया। अत: वह बोला कि प्रभो ! यद्यपि मैं एक वनचर का लड़का हूं किन्तु मैं समझता हूं कि जन्म से कोई नीच और उच्च नहीं होता।

 

जन्म तो सब का एक ही मार्ग से होता है। नीचता और उच्चता तो मनुष्यों के विचारों या कर्तव्य पर निर्भर है। जो आदमी एकान्त स्वार्थपरता को अपनाकर चोरी, चुगलखोरी जैसे दुष्कर्मों में फंसा रहता है वह मनुष्यता से दूर होने के कारण नीच बना रहता है। परन्तु जो मनुष्यता को समझता है वह इन दुर्गुणों से बिल्कुल दूर रह कर परोपकार, सेवाभाव आदि सद्दगुणों को अपनाता है एवं उच्च बनता है। मैं भी अपने आप को मनुष्य मानता हूं फिर आप ही कहे कि मैं मनुष्यता को कैसे भूल सकता हूँ?

 

शस्र सम्धारण कर्ता को भी आज हिंसा का कारण मान कर हेय समझा जाने लगा है कि पूर्व जमाने में क्षत्रियता का भूषण होता हुआ चला आया है। पाषाण काल के अन्त में जब लोगों के लिए कृषि सम्पादन की आवश्यकता हुई तब दिव्य ज्ञानी भगवान् ऋषभदेव ने उसकी सुव्यवस्था के लिए मनुष्यमात्र को तीन भागों में विभक्त किया। १. क्षत्रिय। २. वैश्य। ३. शूद्र। उनमें से वैश्यों में जुम्मे खेती करने का और उसमें उत्पन्न हुयी चीजों को यहां वहां पहुंचाने का काम सौंपा गया। शूद्रों को उन्हीं चीजों को मुनष्यों के काम में आने योग्य बनाने का काम सौंपा गया और क्षत्रियों को सब की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया था। तब उन सबको उनके योग्य हथियार बना कर दिये गये थे ताकि वे लोग आसानी से अपने-अपने कार्य को सुसम्पन्न कर सकें। जैसे-किसान के लिए हल, मूसल वगैरह। लोहार के लिए हथौड़ा, घन वगरैरह। वैसे ही क्षत्रिय के लिए तलवार, बन्दूक वगैरह दिये गये थे जिनके द्वारा क्षत्रिय वर्ग अपने प्रजा संरक्षण रूप कार्य में कुशलता पूर्वक उत्तीर्ण हो रहे हैं। एवं वास्तव में वह हिंसा का नहीं बल्कि अहिंसा का पोषक ही ठहरता है, यह बात दूसरी है कि वह अगर किसी सांसी बावरिया आदि हिंसक व्यक्ति के हाथ में आ जावेगा तो अवश्य ही हिंसा में प्रयुक्त होगा परन्तु वह उस हथियार का दोष नहीं, वह तो उस व्यक्ति के मनचलेपन का फल है, हां, आज की जनता का अधिकांश यह हाल है

 

कि वह क्षत्रियता से दूर होकर स्वार्थपरायणता की ओर ही बड़ी तेजी से दोड़ी चली जा रही है। इसलिए शस्रवृत्ति भी अनुपयोगी ही नहीं प्रत्युत घातक बनती जा रही है। जब कोई किसी भी शस्त्रधारी को देखता है तो भय के मारे थर-थर कापं उठता है क्योंकि उसके मन में यह शस्त्रधर है, सबल है, अतः मेरी रक्षा करेंगे ऐसा विचार न आकर इसके स्थान पर यही भाव उत्पन्न होता है। कि यह कहीं मुझे मार न डाले। क्योंकि आज जहां तहां बलियानबलं ग्रसते वाली कहावत के अनुसार जो भी बलवान है वह अपने उस बल का दुरुपयोग दुर्बलों को हड़पने में करता हुआ देखा जाता है। इसलिए हमारी सरकार को भी यह नियम बनाना पड़ा है कि जो कोई भी शस्त्र रखना चाहे वह शस्त्र धारण करने से पहले इस बात को प्रमाणित कर दे कि “मैं उस शस्त्र के द्वारा संरक्षण का ही काम लूंगा, संहार करने को नहीं।'' एवं भले ही हमारी सरकार ने सर्वसाधारण को चुनौती दी है फिर भी मनचले आदमी समय पर अपनी काली करतूतों से बाज नहीं आते हैं।

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