उपलब्ध जैन-दर्शन साहित्य में प्राकृत-भाषा-निष्ठ साहित्य का बाहुल्य है। कारण यही है कि यह भाषा सरल, मधुर एवं ज्ञेय है। इसीलिए कुन्दकुन्द की लेखनी ने प्राकृत-भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना कर डाली। उन अनेक सारभूत ग्रंथों में अध्यात्म-शान्तरस से आप्लावित ग्रंथराज 'समयसार' है। इसमें सहज-शुद्ध तल की निरूपणा, अपनी चरम सीमा पर सोल्लास 'नृत्य करती हुई. पाठक को, जो साधक एवं अध्यात्म से रुचि रखता है, बुलाती हुई सी प्रतीत होती है। यथार्थ में, कुन्दकुन्द ने अपनी अनुभूतियों को 'समयसार' इस ग्रंथ के रूप में रूपांतरित ही किया है। अमूर्त का हृदय मूर्त के माध्यम से देखना तो कठिन है ही, किन्तु दूसरों को दिखाना कठिनतम है। इस प्रकार से दुस्साध्य कार्य को सिद्ध करने का सौभाग्य आप जैसे महान्पूत पवित्र आत्माओं को ही प्राप्त है। तभी तो हम, आपकी इस कृति को बाह्य निमित्त बनाकर, उस निजी समयसारमय सरस सत्ता का रसास्वादन करने का परम सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं। इस अपूर्व कार्य में आप (कुन्दकुन्द) ही परम निमित्त हैं
यह कहना असत्य तो नहीं है, परन्तु कटु सत्य अवश्य है कि बाह्य सभी प्रकार के ग्रंथों को तजकर, निर्भीक-निर्ग्रन्थ हो, शेष आभ्यन्तर ग्रंथों के विमोचनार्थ, ग्रंथराज 'समयसार' का अवलोकन करना ही सार्थक है। निर्ग्रन्थ हुए बिना 'समसयार' का निरूपण तो संभव है, किन्तु 'समयसार' का साक्षात् निरीक्षण तो आकाश-कुसुमवत् ही है। पञ्चेन्द्रियों के विषम-विषयों मे रच-पचने वाले विषयी-कषायों पुरुषों को 'समयसार', शिरोगम तो हो सकता है किन्तु हृदयंगम कदापि नहीं। 'समयसार' पाचन उतना सुगम नहीं है, जितना कि वाचन या भाषण-संभाषण। वस्तुतः 'समयसार' बहिर्वस्तु नहीं है जिसे खरीदा जा सके, जिसके ऊपर अपनी सत्ता-बलवत्ता जमा सके, वह तो आंतरिक आत्मोत्य शुद्ध परिणति सहज अन्तर घटना है। हां, दिगम्बर मुनि भी ऐसा न समझें कि हमने सब परिग्रह का त्याग तो कर ही दिया है, तिल तुष-मात्र भी परिग्रह नहीं रखते, अतः हमने 'समयसार' का साक्षात्कार कर ही लिया है, अथवा नियम से कर ही लेंगे, यदि ऐसा समझते हैं तो उनकी यह भ्रान्तधारणा है। क्योंकि 'समयसार' की अनुभूति के लिए मात्र दिगम्बरत्व पर्याप्त नहीं है। दिगम्बर होने के उपरान्त भी दिगम्बरत्व की विस्मृति नितान्त आवश्यक है, परिधि में अटकी हुई चैतन्यधारा को केन्द्र की ओर प्रवाहित करना होगा, जिससे चेतना में स्थिरता की उद्भूति होगी, जिसमें 'समयसार' का नियमरूपेण दर्शन होता है।
मुनि-दीक्षा के उपरांत, परम-पावन, तरण-तारण, गुरु-चरण सान्निध्य में इस महान् ग्रंथ का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। यह भी गुरु की “गरिमा" कि कन्नड भाषा-भाषी मुझे अत्यन्त सरल एवं मधुर भाषा शैली में 'समयसार' के हृदय को श्रीगुरु महाराज ने (आ. श्री गुरुवर ज्ञानसागर महाराज ने) बार-बार दिखाया। जिसकी प्रत्येक गाथा में अमृत ही अमृत भरा है और मैं पीता ही गया! पीता ही गया!! मां के समान गुरुवर अपने अनुभव और मिलाकर, घोल-घोलकर पिलाते ही गये, पिलाते ही गये। फलस्वरूप एक उपलब्धि हुई, अपूर्व विभूति की, आत्मानुभूति की! अब तो समयसार ग्रंथ भी "ग्रंथ" (परिग्रह के रूप में) प्रतीत हो रहा है। कुछ विशेष गाथाओं के रसास्वादन में जब डूब जाता हूं, तब अनुभव करता हूं, कि ऊपर उठता हुआ, उठता हुआ ऊर्ध्वागममान होता हुआ, सिद्धालय को भी पार कर गया हूं, सीमोल्लंघन कर चुका हूं। अविद्या कहा? कब सरपट चली गई, पता तक नहीं रहा। आश्चर्य तो यह है कि जिस विद्या की चिरकालीन प्रतीक्षा थी, उस विद्या-सागर के भी पार! बहुत दूर!! पहुंच चुका हूं। विद्या-अविद्या से परे, ध्येय, ज्ञान-ज्ञेय से परे, भेदाभेद, खेदाखेद से परे, उसका साक्षी बनकर, उद्ग्रीव उपस्थित हूं अकम्प निश्चल शैल!! चारों ओर छाई है सत्ता, महासत्ता, सब समर्पित स्वयं अपने में।
आचार्य विद्यासागर मुनि