Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • entries
    83
  • comments
    9
  • views
    17,420

About this blog

लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री 

(आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)

Entries in this blog

ज्ञानाष्टक

ज्ञानाष्टक   इस भद्र भारतवर्ष में, थे ज्ञान में नेता गुरू। इस लोक में सबसे अधिक, स्वाधीनता रखते गुरू॥ स्वाधीनता ही सन्त का, भूषण बना इस लोक में। इस लोक में परलोक में, सब लोक में दिखते गुरू ॥१॥   थे ज्ञानासागर पूज्य गुरुवर, आन जिनकी ज्ञान थी। उन ज्ञान ने उस ज्ञान से, ज्योति जगायी ज्ञान थी। जिस ज्योति ने लाखों जगायी, ज्योतियाँ अब ज्ञान की। जलती रहेगी ज्योति नित, अब ज्ञान की उर ध्यान की ॥ २ ॥   जिनके न मन में राग था, न द्वेष रखते थे कभी

महाराजा रामसिंह

महाराजा रामसिंह   महाराजा रामसिंह जयपुर स्टेट के एक प्रसिद्ध भूपाल हो गये हैं। जो कि एक बार घोड़े पर बैठकर अकेले ही घूमने को निकल पड़े। घूमते-घूमते बहुत दूर जंगल में पहुँच गये तो दोपहर की गर्मी से उन्हें प्यास लग आई। एक कुटिया के समीप पहुँचे जिसमें बुढ़िया अपनी टूटी सी चारपाई पर लेटी हुयी थी। बुढ़िया ने जब उन्हें अपने द्वार पर आया हुआ देखा तो वह उनके स्वागत के लिए उठ बैठी और उन्हें आदर के साथ चारपाई पर बैठाया। राजा बोले कि माताजी मुझे बड़ी जोर से प्यास लग रही है अत: थोड़ा पानी हो तो पि

मौत क्या चीज है?

मौत क्या चीज है?   एक सेठ था जिसके पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से ऐहिक सुख की सब तरह की साधन-सामग्री मौजूद थी। अतः उसे यह भी पता नहीं था कि कष्ट क्या चीज होती है? उसका प्रत्येक क्षण अमन चैन से बीत रहा था। अब एक रोज उसके पड़ोसी के यहां पुत्र जन्म की खुशी में गीत गाये जाने लगे जो कि बड़े ही सुहावने थे, जिन्हें सुनकर उस सेठ का दिल भी बड़ा खुश हुआ। परन्तु संयोगवंश थोड़ी देर बाद ही वह बच्चा मर गया तो वहां पर गाने के स्थान पर छाती और मूड कूट-कूट कर रोया जाने लगा। जिसे सुनकर सेठ के मन में आश्च

समाधिकरण

समाधिकरण   जिसने भी जन्म पाया है, जो भी पैदा हुआ है उसे मरना अवश्य होगा, यह एक अटल नियम है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक लोग इस पर परिश्रम कर के थक लिये कि कोई भी जन्म लेता है तो ठीक, मगर मरता क्यों हैं? मरना नहीं चाहिये। फिर भी इस में सफल हुआ हो ऐसा एक भी आदमी इस भूतल पर नहीं दिख पड़ा रहा है। धन्वन्तरिजी वैष्णवों के चौबीस अवतारों में से एक अवतार माने गये हैं। कहा जाता है कि जहां वे खड़े हो जाते थे, वहां की जड़ी बूटियां भी पुकार-पुकारकर कहने लगती थीं कि मैं इस बीमारी में काम आती हूं, मैं अमुक र

बड़ा दान

बड़ा दान   यद्यपि आमतौर पर लोग एक रूपया देने वाले की अपेक्षा पांच रूपये देने वाले को और पांच देने वाले की अपेक्षा पचास तथा पांच सौ देने वाले को महान दानी कहकर उसके दान की बड़ाई किया करते हैं। मगर समझदार लोगों की निगाह में ऐसी बात नहीं है क्योंकि एक आदमी करोड़पति, अरबपति जिसकी अपने खर्च के बाद भी हजारों रूपये रोजाना की आमदनी है वह आड़े हाथ भी किसी को यदि सौ रूपये दे देता है तो उसके लिए ऐसा करना कौनसी बड़ी बात है। हां, कोई गरीब भाई दिन भर मेहनत मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से कही अपना पेट पा

दान का सही तरीका

दान का सही तरीका   आपने ‘‘राजस्थान इतिहास' देखा होगा। वहां महान उदयन का वृत्तांत लिखा हुआ है। वह मननशील विद्वान था, परन्तु दरिद्रता के कारण उसके पैर जमीन पर नहीं जम सके थे। अत: वह नंगे पैर मारवाड़ के रेतीले मैदान को पार करते हुए बड़े कष्ट के साथ सिद्ध पुर पाटन तक पहुंच पाया। उसने दो दिन से कुछ भी नहीं खाया था और शरीर पर मैले तथा फटे कपड़ों को पहने हुए था। उसका नाते रिश्तेदार या परिचित तो था ही नहीं जो कि उसके सुख-दुःख की उसे पूछता। थोड़ी देर बाद वह एक जैन धर्मस्थान के द्वार पर जा बैठा।

दान अपनी कमाई में से देना

दान अपनी कमाई में से देना   किसी एक गांव का राजा मर जाने से उसकी एवज में उसके बेटे का राजतिलक होने लगा। जिसकी खुशी में वही उसने दान देना शुरू किया जिसे सुनकर बहुत से आशावान लोग वहां पर जमा हो गये। उन्हीं में एक पढ़ालिखा समझदार पण्डित भी था जिसने होनहार राजा की प्रशंसा में कुछ श्लोक सुनाए। राजा बड़ा खुश हुआ और बोला कि तुमको जो चाहिये सो लो। पण्डित ने कहा मैं अभी आप से क्या लू? फिर कभी देखा जावेगा। राजा ने कहा कि कुछ तो अभी भी तुमको मुझ से लेना ही चाहिये। पण्डित बोला कि यदि आप देना ही चा

दान करना

दान करना   दान का सीधा-सा मतलब है अपने तन मन और धन से औरों की सहायता करना। मनुष्य जीवन ही ऐसा है कि किसी न किसी रूप में दूसरे से सहायता लिए बिना उसका कुछ भी काम नहीं बन सकता है। जब कि औरों से सहायता लिए बिना निर्वाह नहीं तो फिर औरों की सहायता करना भी उचित ही है। अत: दान करना परमावश्यक है। परन्तु इसके साथ यह बात भी सही है कि मनुष्य लेना तो जानता है और देने में संकोच किया करता है।   आम तौर पर देखने में आता है कि मनुष्य दोनों हाथों से कमाया करता है। मगर खाता एक हाथ से है, इसका म

उपवास का महत्व

उपवास का महत्व   यह कोई नई बात नहीं है कि शरीर को स्थिर करने के लिए आहार की खास आवश्यकता होती है। जो कुछ हम भोजन करते हैं उसका रस रक्तादि बन कर हमारे शरीर को बनाये रखने में सहायक होते हैं। परन्तु वह भोजन भी प्राकृतिक और मितमात्रा में तथा समुचित रीति से खाया जाना चाहिये, नहीं तो वही भोजन लाभ के स्थान पर हानिकारक हो जाता है। भोजन शरीर का साधन है इसीलिये यह शरीरधारी भी भोजन का आदी बना है और इसीलिये हो सके जहां तक अच्छे से अच्छा स्वादिष्ट रूचिकर भोजन बनाकर खाया करता है। भोजन रूचिकर होने से

पर्यालोचन

पर्यालोचन   मनुष्य विस्मरणशील होता है और उसके जुम्मे अपने शरीर को संभाल कर रखना, बाल बच्चों का लालन-पालन करना, अभ्यागतों का सत्कार करना, बुजुर्गों का टहल करना, दीन-दु:खियों की सेवा करना, मित्र दोस्तों के साथ प्रेम से सम्भाषण करना, भगवद्भभजन करना आदि अनेक तरह के कार्य लगे हुए होते हैं। उनमें से कौन-सा कार्य किस प्रकार से आज मुझे सम्पादित करना चाहिये, कौन से कार्य सम्पादित करने में मैंने क्या गलती खाई है, कहीं मैंने मेरे तन-मन-वचन और धन के घमण्ड में आकर कोई न करने योग्य अनुचित बर्ताव तो

रात्रि में भोजन करने से हानि

रात्रि में भोजन करने से हानि   अकबर बादशाह कौम से मुसलमान थे किन्तु हिन्दुओं के साथ भी उनका अच्छा संपर्क था। उनका प्रधानमंत्री बीरबल भी ब्राह्मण था। उनके पास और भी भले-भले हिन्दू रहते थे। एक दिन, दिन में खाने वाले किसी विचारशील हिन्दू आदमी ने उनसे कहा कि हुजूर! आप रात्रि में खाना खाते हैं यह ठीक नहीं कर रहे हैं। बादशाह बोले क्यों क्या हानि है? जवाब मिला कि हानि तो बहुत है। सबसे पहली हानि तो यही है कि रात्रि में अंधकार की वजह से भोजन में क्या है और क्या नहीं है यही ठीक नहीं पता चला करता

रात्रि में भोजन करना मनुष्य के लिए अप्राकृतिक है

रात्रि में भोजन करना मनुष्य के लिए अप्राकृतिक है   शारीरिक शास्त्र जो कि मनुष्य स्वास्थ्य को दृष्टि में रख कर बना उसका कहना है कि दिन में पित्त प्रधान रहता है तो रात्रि में कफ। एवं भोजन को पचाना पित्त का कार्य है अतः मनुष्य को दिन में ही भोजन करना चाहिये। इसलिये वैद्य लोग अपने रोगी को लंघन कराने के अनन्तर जो पथ्य देते हैं वह कर्तव्य पथ प्रदर्शन रात्रि में कभी भी न देकर दिन में ही देते हैं। दिन में भी सूर्योदय से एक डेढ़ घण्टे बाद से लगातार मध्यान्ह के बारह बजे से पहले ही पथ्य देने का आ

नशेबाजी से दूर हो

नशेबाजी से दूर हो   दुनिया की चीजों में से कुछ अन्न आदि चीजें तो ऐसी हैं जिनका संबंध मनुष्य की बुद्धि के साथ में नहीं होकर वे सब केवल शरीर के सम्पोषण के लिये ही खाये जाते हैं। ब्राह्मी, शंख पुष्पी आदि जड़ी बूटियां ऐसी हैं जो मनुष्य की बुद्धि को ठिकाने पर रखकर उसके बढ़ाने में सहायक होती है परन्तु भांग, तम्बाकू, चरस, गांजा, सुलफा वगैरह वस्तुएं ऐसी भी हैं जो उत्तेजना देकर मनुष्य की बुद्धि को विकृत बना डालती हैं। जिनके सेवन करने से काम वासना उद्दीप्त होती है। अतः ऐस चीजों को कामुक लोग पहले

दूध का उपयोग

दूध का उपयोग   भोले भाई ही नहीं बल्कि कुछ पढ़े लिखे लोग भी ऐसा कहते हुए पाये जाते हैं कि जो दूध पीता है वह भी तो एक प्रकार से मांस खाने वाला है,  क्योंकि दूध मांस से ही होकर आता है, फिर दूध तो पिया जाये और मांस खाना छोड़ा जाए यह व्यर्थ की बात है। उन ऐसा कहने वाले भले आदमियों को जरा सोचना चाहिये कि अन्न भी तो खाद में से पैदा होता है सो क्या अनाज को खाने वाला खाद को भी लेता है? नहीं, क्योंकि खाद के गुण -धर्म कुछ और हैं तो अन्न के गुण -धर्म कुछ और ही। अत: खाद जुदी चीज है तो अन्न उससे जुद

शाकाहारी बनना चाहिये

शाकाहारी बनना चाहिये   जिससे शरीर पुष्टि को प्राप्त हो या भूख मिटे उसे आहार कहते हैं। वह मुख्यतया दो भागों में विभक्त होता है। शाकपात और मांस। जब हम पशुओं की ओर निगाह डालते हैं तो दोनों ही तरह के जीव उनमें पाते हैं। गाय, बैल, भैंस, ऊँट, घोड़ा, हाथी, हिरण आदि पशु शाकाहारी हैं जो कि उपयोगी तथा शान्त होते हैं परन्तु सिंह, चीता, भालू, भेड़िया आदि पशु मांसाहारी होते हैं जो कि क्रूर एवं अनुपयोगी होते हैं। इनसे मनुष्य सहज में ही दूर रहना चाहता है।    इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मां

मानवपन नपा तुला होना चाहिये

मानवपन नपा तुला होना चाहिये   मनुष्य जीवन पानी की तरह होता है। पानी बहता न होकर अगर एक ही जगह पड़ा रहे तो सड़ जाये। हां, वही बहता होकर भी बगल के दोनों तटों को तोड़-फोड़ कर इधर-उधर तितर बितर हो जाये तो भी शीघ्र ही नष्ट हो रहे। मनुष्य भी निकम्मा हो कर पड़ा रहे तो शोभा नहीं पा सकता। उसे भी कुछ न कुछ करते ही रहना चाहिये। उचितार्जन और त्यागरूप दोनों तटों के बीच में होकर नदी की भांति बहते रहना चाहिये। यह तो मानी हुई बात है कि खाने के लिये कमाना भी पड़ता ही है परन्तु कोई यदि विष ही कमाने

अनर्थदण्ड के प्रकार

अनर्थदण्ड के प्रकार   बात ही बात में यदि ऐसा कहा जाता है कि देखो हमारे भारत वर्ष में गेहूं बीस रुपये मन है और सोना सौ रुपये तोले से बिक रहा है परन्तु हम से पन्द्रह बीस कोस दूर पर ही पाकिस्तान आ जाता है जहां कि गेहूं तीस रुपये मन में बिक रहे हैं तो सोना पचहत्तर रुपये तोला पर मिल जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति यहां से वहां तक यातायात की दक्षता प्राप्त कर ले तो उसे कितना लाभ हो। इस बात को सुनते ही कार-व्यापार करने वाले का या किसान को सहसा अनुचित प्रोत्साहन मिल जाता है जिससे कि वह ऐसा करने मे

व्यर्थ का पाप पाखण्ड

व्यर्थ का पाप पाखण्ड   कहते हुए सुना जाता है कि पेट पापी है इसी के लिए अनेक तरह के अनर्थ करने पड़ते हैं। जब हाथ-पैर हिला डुला कर भी मनुष्य पेट नहीं भरपाता है तो वह चोरी-चकोरी करके भी अपने पेट की ज्वाला को शान्त करना चाहता है, यह ठीक हे। इसी बात को लक्ष्य में रखकर हमारे महर्षियों ने स्थितिकरण अंग का निर्देश किया है। यानी समर्थ धर्मात्माओं को चाहिये कि आजीविका भ्रष्ट लोगों को उनके योग्य आजीविका बताकर उन्हें उत्पथ में जाने से रोकें ताकि देश में विप्लव न होने पावे।   कुछ लोग ऐसे

साधक का कार्य क्षेत्र

साधक का कार्य क्षेत्र   भूमितल बहुत विशाल है और इसमें नाना विचारों के आदमी निवास करते हैं, कोई बुरी आदत वाला आदमी है तो कोई कुछ अच्छी आदत वाला। एवं मनुष्य का हिसाब ही कुछ ऐसा है कि यह जैसे की संगति में रहता है तो प्रायः आप भी वैसा ही हो रहता है जिसमें भी अच्छे के पास में रह कर अच्छाई को बहुत कम पकड़ पाता है किन्तु बुरे के पास में होकर बुराई को बहुत शीघ्र ले लेता है जैसे कि उजला कपड़ा कोयलों पर गिरते ही मैला हो जाता है परन्तु फिर वही साबुन पर गिर कर उजला बन जाता है, सो बात नहीं कर्

कर्त्तव्य और कार्य

कर्त्तव्य और कार्य   शरीर के भरण-पोषण के लिये जो किया जाता है ऐसा खाना पीना, सोना, उठना वगैरह कार्य कहलाता है जिससे संसारी प्राणी चाह पूर्वक अनायास रूप से किया करता है। जो आत्मोन्नति के लिए प्रयत्नपूर्वक किया जाता है ऐसा भगवद्भजन, परोपकार आदि कर्तव्य होता है। कार्य तो इतर प्राणियों की भांति नामधारी मानव भी लगन के साथ करता है मगर वह कर्त्तव्य को सर्वथा भूले हुये रहता है। उसके विचार में कर्तव्य का कोई मूल्य नहीं होता परन्तु वही जब मानवता की ओर ढलता है तो कर्तव्य को भी पहिचानने लगता है। य

अन्याय के धन का दुष्परिणाम

अन्याय के धन का दुष्परिणाम   एक दर्जी के दो लड़के थे जो कि एक-एक टोपी रोजाना बनाया करते थे, उनमें से एक जो संतोषी था वह तो अपनी टोपी के दो पैसों में से एक पैसा तो खुद खाता था और एक पैसा किसी गरीब को दे देता था। एक रोज दो दिन का भूखा एक आदमी उसके आगे आ खड़ा हुआ उस दर्जी ने जो टोपी तैयार की थी उसके दो पैसे उसके पास आये तो उनमें के एक पैसा उसने उस पास में खड़े गरीब को दे दिया। गरीब ने उस पैसे के चने लेकर खा लिये और पानी पी लिया। अब उसके दिल में विचार आया कि देखों यह दर्जी का लड़का एक टोपी

पशु पालन

पशु पालन   सुना जाता है कि एक न्यायालय में न्यायाधीश के आगे पशुओं में और मनुष्यों में परस्पर में विवाद छिड़ गया। मनुष्यों का दावा था कि पशुओं की अपेक्षा से हम लोगों का जीवन बहुमूल्य है। पशुओं ने कहा कि ऐसा कैसे माना जा सकता है बल्कि कितनी ही बातों को लेकर हम सब पशुओं का जीवन ही तुम्हारी अपेक्षा से अच्छा है। देखो कि गजमुक्ता सरीखी कितनी ही बेशकीमती चीजें, तुम्हें पशुओं से ही प्राप्त होती है। इसी तरह कवि लोग जब कभी तुम्हारी प्रेयसी के रूप का वर्णन करते हैं तो मृगनयनी, गजगामिनी इत्यादि रू

उदारता का फल सुमधुर होता है

उदारता का फल सुमधुर होता है   रामपुर नाम के नगर में एक रधुवरदयाल नाम के बोहराजी रहते थे। जिनके यहां कृषकों को अन्न देना, जिसे खाकर वे खेती का काम करें और फसल पककर तैयार होने मन भर अन्न के बदले में पांच सेर, मन अन्न के हिसाब से बोहराजी को दे दिया करें बस यही धन्धा होता है। बोहराजी के दो  107 लड़के थे, एक गौरीशंकर दूसरा राधाकृष्ण बोहराजी के मरने पर दोनों भाई पृथक-पृथक हो गये और अपने-अपने कृषकों को उसी प्रकार अन्न देकर रहने लगे। विक्रम सम्वत् उन्नीस सौ छप्पन की साल में भयंकर दुष्काल पड़ा।

व्यापार

व्यापार   व्यापार शब्द का अर्थ होता है किसी चीज को व्यापकता देना यानी आवश्यकताओं से अधिक होने वाली एक जगह की चीज को जहां पर उसकी आवश्यकता हो वहां पर पहुंचा देना एवं सब जगह के लोगों के लिए सब चीजों की सहूलियत कर देना ही व्यापार कहलाता है। व्यापार का मतलब जैसा कि आजकल लिया जाने लगा है धन बटोरना, सो कभी नहीं हो सकता है। किन्तु जनसाधारण के सम्मुख उसकी आवश्यक चीज को एक सरीखी दर पर उपस्थिति करना और उसमें जो कुछ उचित कमीशन कटौती मिले उस पर अपना निर्वाह करना ही व्यापार का सच्चा प्रयोजन है। उदा

शिल्प कला

शिल्प कला   यद्यपि खाने पीने और पहनने ओढ़ने वगैरह की, हमारे जीवन निर्वाह योग्य चीजें सब खेती करने से प्राप्त होती हैं, जमीन जोतकर पैदा कर ली जाती है, फिर भी इतने मात्र से ही वे सब हमारे काम में आने लायक हो रहती हों सो बात नहीं, किन्तु उन्हें रूपान्तर करने से उपयोग में लाई जाती हैं, जैसे कि खेत मैं उत्पन्न हुए अन्न को पीसकर उसकी रोटियां बनाकर खाई जाती हैं अथवा उसे भूनकर चबाया जाता है। कपास को चरखी में से निकालकर उसे पींजकर फिर उसे चरखें से कातकर सूत बनाया जाता है और बाद में उसका कर्मे क
×
×
  • Create New...