परम श्रद्धेय गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के अनेक रूपों में दर्शन होते हैं जब प्रज्ञाचक्षु उन्हें किसी भी अवस्था में देखते हैं तो वे मुनि, आचार्य, उपाध्याय, निर्यापकाचार्य, अभीक्षणज्ञानोपयोगी, आगमनिष्ठ, श्रेष्ठचर्यापालक, साधना की कसौटी, श्रमणसंस्कृति उन्नायक, ध्यानयोगी, आत्मवेत्ता-आध्यात्मिक संत, निस्पृही साधु, दार्शनिक कवि, साहित्यकार, महाकवि, बहुभाषाविद्, भारतीय भाषाओं के पैरोकार, भारतीय संस्कृति के पुरोधा महापुरुष, युगदृष्टा, युगप्रवर्तक, राष्ट्रीय चिंतक, शिक्षाविद्, सर्वोदयी संत, नवपीढ़ी प्रणेता, अपराजेय साधक आदि के रूप में पाते हैं।
सन् १९६८ अजमेर नगर (राज.) में महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी मुनिराज से दिगम्बर मुनि दीक्षा लेकर आज तक २८ मूलगुणात्मक कठोर व्रतों का पालन कर मुनित्व को सार्थक कर रहे हैं। २२ नवम्बर १९७२ को नसीराबाद (राज.) में आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ने आपकी योग्यता को देखते हुए अपना आचार्यपद देकर उन्हें ही अपना आचार्य बना लिया और स्वयं शिष्य बन गए। ऐसे महान् आचार्य आज तक ३६ मूलगुणों का पालन करते हुए १२o मुनि, १७२ आर्यिका (साध्वी), ५६ ऐलक (साधक), ६४ क्षुल्लक (साधक), ३ क्षुल्लिका (साध्वी) को दीक्षा देकर एवं ५00 से अधिक ब्रह्मचारीब्रह्मचारिणियों को साधना के सोपानों पर आरूढ़ कर आचार्यत्व से शोभायमान हो रहे हैं।
सम्पूर्ण आगम के अध्येता एवं शिष्यों को सतत् अध्यापन कराते रहने के कारण उपाध्याय परमेष्ठी का सच्चा स्वरूप दर्शक आप में ही पाते हैं। सन् १ जून १९७३ नसीराबाद (राज.) में आपने अपने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की आगमयुक्त सल्लेखना समाधि के साथ-साथ मुनि श्री पार्श्वसागर जी की आकस्मिक समाधि कराई उसके बाद से आज तक 30 से अधिक मुमुक्षु साधकों ने आपके कुशल निर्यापकाचार्यत्व में I समाधि धारण कर मृत्यु महोत्सव मनाकर सिद्ध कर दिया कि सल्लेखना आत्मघात नहीं है।
बचपन से ही सत्संग से जागृत ज्ञान की पिपासा आज तक अतृप्त है। यही कारण है कि आपको हमेशा सरस्वती की आराधना करते हुए देख विद्वत् वर्ग आप जैसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी से सम्यग्ज्ञान के प्रकाश की चाहत में सतत् आपकी सत्संगति करते हुए देखे जाते हैं। आप सतत् आगम स्वाध्याय से आत्मशोधन करते हुए निजज्ञान, विचार, चिंतन, मनन, लेखन से अपने आप को परिष्कृत करते रहते हैं। यही कारण है कि पाठक-शोधार्थी आपके विचार साहित्य को आगमनिष्ठ पाकर संतुष्ट होते हैं।
जैनागम अध्येता आपकी हर क्रिया में मुनिचर्या का संविधान मूलाचार को इस कलिकाल में भी चरितार्थ होते हुए पाता है। यही कारण है कि आज आपको श्रमणत्व की कसौटी के रूप में पाकर श्रमण अनुयायी जयकारा बुलन्द करते हैं। हमारा गुरु कैसा हो-विद्यासागर जैसा हो, दिगम्बर मुनि देख लो-त्याग करना सीख लो, माँ का लाल कैसा हो विद्यासागर जैसा हो। सही मायने में आप श्रमण संस्कृति उन्नायक हैं। आप से श्रमण-मुनियों ने आगमयुक्त चर्या को पालने में उत्साह, साहस, साधना, प्रेरणा को पाया है।
जैन श्रमण-मुनि के स्वरूप कथन करते हुए प्राचीन आचार्यों ने लिखा है- "ज्ञानध्यानतपोरत्नस्तपस्वि स प्रशस्यते।” उपरोक्त सूत्र को आज आपमें जीवंत होते हुए देखा जा रहा है। यथा-सन् १९६८-६९ अजमेर में, १९७३ ब्यावर में, १९७४ अजमेर एवं भीलवाड़ा में चातुर्मास के दौरान कई बार १२घण्टे, २४ घण्टे, २८ घण्टे, ३६घण्टे, ४४घण्टे, ७२ घण्टे तक समाज ने आपको ध्यानयोग में लीन देखा है। तब से आप ध्यानयोगी की पहचान बन गए हैं।
बचपन के परमात्म ध्यानी आप आज अरिहंतों का अनुशरणकर्ता बन आत्मवेत्ता आध्यात्मिक संत शिरोमणि के रूप में प्रख्यात हैं। आप शरीर से इतने निस्पृह रहते हैं कि सर्दी-गर्मी हो या हजारों किलोमीटर की पदयात्रा, कीड़े-मकोडों का उपसर्ग हो या रोगादि परिषह हों। हर स्थिति में आत्मस्थ बने रहते हैं। स्वयं किसी भी प्रकार का प्रतिकार न तो करते और न ही करवाते एवं न ही शरीर की पुष्टता के लिए स्वादिष्ट रस नमकमीठा, फल-मेवे ग्रहण करते हैं।
आप आचार्यत्व के धनी होने के साथ-साथ एक प्रतिभावान दार्शनिक कविहृदय संत भी हैं। आपके ४ हिन्दी कवितासंग्रह एवं १२ हिन्दी शतक, ६ संस्कृत शतक, सहस्राधिक जापानी काव्य शैली में हिन्दी भाषा की हाईकू की रचना प्रकाशित हो चुकी है। आपके साहित्य पर डॉक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त साहित्यविदों ने आपको उच्चकोटि के साहित्यकार के रूप में स्थापित किया है। आपने हिन्दी भाषा में 'मूकमाटी' महाकाव्य की रचना कर महाकाव्य की परिमित परिभाषा को पुनर्समीक्ष्य पटल पर ला खड़ा किया है।
आपने न केवल हिन्दी भाषा में रचनाएँ की हैं अपितु संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, बंगला, अंग्रेजी भाषा में भी काव्य सृजन किया है। इसके साथ ही आप मराठी एवं अपभ्रंश भाषाविद् भी हैं। बहु भाषाओं से सम्पृक्त आपकी प्रज्ञा ने भारतीय भाषाओं के संरक्षण की वैचारिक क्रान्ति पैदा की हैं। आज आप भारतीय भाषाओं में शिक्षा के पैरोकार बन गए हैं।
आज आप भारतीय सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के पतन को देखते हुए संरक्षणात्मक संवाद का बिगुल बजा रहे हैं, यही कारण है कि आप जनमानस के बीच भारतीय संस्कृति के पुरोधा महापुरुष के रूप में आदरणीय बन गए हैं। भारतीय जीवन पद्धति को कुचलने के लिए आज शिक्षा में विदेशी भाषा को आधार बना दिया गया है। इस कुचक्र के कुचाल को भाँपकर युगदृष्टा, युगप्रवर्तक आपश्री के द्वारा राष्ट्रहित में युगांतरकारी मशाल को पुन: प्रज्ज्वलित किया गया है। यथा-
- राष्ट्रीय भाषा ‘हिन्दी' हो,
- देश का नाम 'इण्डिया' नहीं ‘भारत' हो,
- भारत में भारतीय शिक्षा पद्धति लागू हो,
- अंग्रेजी में नहीं, भारतीय भाषा में सरकारी एवं न्यायिक कार्य हो
- छात्र-छात्राओं की शिक्षा पृथक्-पृथक् हो,
- भारतीय प्रतिभाओं का पलायन रोका जाए
- शत-प्रतिशत मतदान हो
- शिक्षा के क्षेत्र में योग्यता की रक्षा हो।
इसके साथ ही आपने अपने शैक्षणिक विचारों को मूर्तरूप प्रदान करते हुए प्रेरित किया, फलस्वरूप बालिका शिक्षा के तीन शिक्षायतन प्रतिभास्थली के नाम से जबलपुर (म.प्र.), डोंगरगढ़ (छ.ग.), रामटेक (महा.) में स्थापित हुए। जो आपके द्वारा प्रदत्त शिक्षा के उद्देश्य-स्वस्थ तन, स्वस्थ मन, स्वस्थ वचन, स्वस्थ चतन, स्वस्थ वेतन, स्वस्थ वतन, स्वस्थ चिंतन आदि विचारों के संस्कार प्रदान कर रहे हैं। यही कारण है कि आप एक महान शिक्षाशास्त्री के रूप में शोधार्थियों के शोध के विषय बन गए हैं।
आप करुणाहृदयी, दयालु, देशप्रेमी संत हैं, देश में बढ़ती बेरोजगारी एवं विदेशी परावलंबता को सुनकर गाँधी जी के विचारों का समर्थन करते हैं और सबको रोजगार मिले एवं देश स्वावलंबी बने इस दिशा में अहिंसक रोजगार की प्रेरणा देते हैं। आप उद्घोषणा करते हैं
- नौकरी नहीं, व्यवसाय करो,
- चिकित्सा व्यवसाय नहीं, सेवा है,
- अहिंसक कुटीर उद्योग संवर्धित करो,
- बैंकों के भ्रमजाल से बचो और बचाओ,
- खेतीबाड़ी देश का अर्थतंत्र है-ऋषि बनो या कृषि करो,
- खादी अहिंसक है और हथकरघा रोजगार को बढ़ाता है, पर्यावरण की रक्षा करता है तथा स्वावलम्बी बनने का सोपान है
- मांस निर्यात, कुकुट पालन, मछली पालन कृषि नहीं है, इसे कृषि बताना छल है,
- गौशालाएँ जीवित कारखाना हैं।
आपके इन सर्वोदयी विचारों ने आपको सर्वोदयी संत के रूप में पहचान दी है। नवपीड़ी के लिए आप सशक्त प्रणेता के रूप में विचार प्रकट करते हैं। आपके सर्वोदयी राष्ट्रीय चिंतन से नवयुवा उत्साह, ऊर्जा, दिशाबोध पाकर निजजीवन को परोपकार में लगा रहे हैं। ऐसे अपराजेय साधक महामना के स्वर्णिम विचारों को संकलित कर राष्ट्रहित में राष्ट्रीय हाथों में "सर्वोदयी संत की राष्ट्रीय देशना” समर्पित करते हुए हर्ष हो रहा है।
- 12
- 2
Recommended Comments
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now