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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • कुण्डलपुर देशना 8 - अनंतकालीन संतति

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    आत्मिक संस्कारों के सामने वैषयिक संस्कार बलजोर नहीं हो पाते, अपितु बलहीन हो जाते हैं। विषय कषायों के संस्कार तो अनंतकालीन हैं जो अज्ञान के कारण सदा बलजोर रहे, पर जो व्यक्ति तत्वज्ञान को प्राप्त कर लेता उसके बुरे संस्कार समाप्त होना प्रारंभ हो जाते हैं। उसमें ऐसी भी शक्ति विद्यमान है जिससे अत्यल्प समय में भी उन्हें धोया जा सकता है। संसारी प्राणी तो पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति राग के आकर्षण से खिंचता चला जाता किन्तु जिसके पास तत्व ज्ञान होता, वह उन विषयों के बीच में रहते हुए उनसे निर्लिप्त अप्रभावी रहता है।


    इन विषय कषायों ने संसारी प्राणी को इस छोरहीन संसार में अब तक भटकाया और इसी कारण विभिन्न नातों-रिश्तों रूपी जेलों में फंसकर जीवन अभी तक पिसता आया है। विषय कषायों के चक्कर में रच-पचकर भी दुनिया बोरियत महसूस नहीं कर रही अपितु कुछ और प्राप्ति की आशा में पढ़कर वास्तविक सुख-दुख को ही नहीं समझ पा रही है। ऐसी दशा में गलत संसर्ग हो जाने के कारण वह जीवन में अनर्थ ही करता जाता है और धर्म-कर्म सब कुछ भूलता जाता है। किन्तु संसारशरीर और भोगों के प्रति अरुचि होने रूप वैराग्य भावों के कारण वह स्वयं को परखता हुआ कर्मोदय के कारण बीच की दशाओं में अपना मूल्यांकन करता हुआ जीवन में आने वाले अनेक कष्टों को सहन करता हुआ भी अपने आत्म स्वरूप को समझता है। ऐसी दशा में कर्मों का आरोहण-अवरोहण करता हुआ वह गलत माहौल के बीच में पहुँचकर भी अपने आपको गलत कार्यों से बचा सकता है। समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं -


    सुद परिचिदाणु भूदा, सव्वस्स वि काम भोग बंध कहा।

    एयतस्सुव लंभो, णवरि ण सुलभो विहत्तस्य॥

    यह प्राणी आज तक काम, भोग एवं बंध की कथाओं से सुपरिचित रहा है किन्तु यह मोक्ष तत्व से आज तक अछूता दूर रहा है। जैन साहित्य में वर्णित चारुदत्त नामक धनाढ्य व्यक्ति के चरित्र आख्यान को उदाहरण के रूप में समझाते हुए आचार्य श्री ने कहा कि वह तत्वज्ञान से युक्त था। वैराग्य पथ से विचलित कराने हेतु परिजनो ने उसकी संगति वेश्या से करा दी और यही चारुदत्त विषयों में रच-पचकर, उन्हीं में फंसकर भटक-भटक कर परिवार की अपार सम्पदा को समाप्त करता हुआ दीन दरिद्री चारुदत्त बन जाता है। भीतरी संस्कार होते हुए माहौल परिवर्तित हो जाने से जैसे पारे का संसर्ग पाकर स्वर्ण अपनी स्वर्णता को समाप्त कर पारे में ही लीन हो जाता, उसी प्रकार यह आत्मा भी अनंत कालीन दुर्गतियों के संसर्ग/ संस्कारों के कारण अच्छे संस्कारों से अप्रभावित रहती है। जैसे हिंगड़े की गंध से युक्त डिब्बी में बहुमूल्य कस्तूरी को रखने पर कस्तूरी की गंध भी बेकार होकर अपना परिचय खो देती है वैसे ही कुसंगतियों के प्रभाव में पड़कर हम अपना निज स्वरूप भूल गये हैं। एक बार भी यदि आत्मा कुसंस्कारों से मुक्त हो जावे तो तत्वज्ञान के माध्यम से एक अंतर्मुहूर्त में भी अनंत कालीन बुरे संस्कारों को समाप्त किया जा सकता है।


    यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर।

    पग-पग पल-पल बढ़ चलूँ, मोक्ष महल की ओर।

    आचार्य कहते हैं कि ये धार्मिक चरित्र या आख्यान दूसरे को सुनाने के लिए नहीं अपितु स्वयं समझने के लिए है। एक बार नहीं अपितु बार-बार पढ़ें, तभी हम अल्प जीवन में भी विषय कषायों के कारण होने वाली अपनी दुर्दशा को तत्वज्ञान से समझ सकेंगे। तब भावज्ञानरूपी कदम पाकर विशेष रसपान करने से सांसारिक कार्यों के प्रति नीरसता आ जाती है। और तब धर्म-कर्म को करता हुआ। व्यक्ति जिनवाणी या सद्गुरु के उपदेश-संत कृपा, आशीष पाकर अपने ध्रुव लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।


    सांसारिक कार्यों को करते हुए व्यक्ति जो कार्य करता वह उसी में रम जाता है। मनुष्य कदम पर कदम बढ़ाता जाता और आदि से अंत तक कमाने के चक्कर में पड़कर इसमें उलझ जाता है। जैसे सिंह का बच्चा बकरियों की संगत में पड़कर मैं मैं करता हुआ अपना जीवन गुजारता रहता है किन्तु किसी सिंह को देखकर या उसकी दहाड़ सुनकर अपनी शक्ति परिचय प्राप्त कर लेता है। और अपनी दिशा और दशा दोनों को ही परिवर्तित कर लेता है।


    कुन्दकुन्द को नित नमुं हृदय कुन्द खिल जाय।

    परम सुगन्धित महक में जीवन मम धुल जाय॥

    आचार्य भगवत् कुन्दकुन्द स्वामी ने ग्रन्थराज समयसार में बताया है कि जिस प्रकार १०० टंच सोने से बने आभूषण कीचड़ में गिरकर और एक-दो दिन नहीं अपितु महीनों, वर्षों उसी में पड़े रहने पर भी कीचड़ के प्रभाव से प्रभावित नहीं होते। परन्तु लोहे का टुकड़ा उस कीचड़ में गिरकर कुछ ही समय के पश्चात् अपना मूल स्वरूप खो देता है। और कीचड़ के कारण जंगयुक्त हो जाता है। एक ही खान से दोनों धातुएँ निकली, परंतु अपने-अपने गुणधर्म के अनुसार स्वर्ण तो उसके प्रभाव से प्रभावित नहीं होता किन्तु लोहा अपना वास्तविक गुणधर्म छोड़कर उस मिट्टी में क्रमश: क्षीणता को प्राप्त होता हुआ नष्ट हो जाता है। वैसे ही मोही अपने स्वरूप के तत्वज्ञान के अभाव में स्वभाव को भूलकर अपना अस्तित्व खो देता है, किन्तु ज्ञानी व्यक्ति परमार्थज्ञान प्राप्त कर विषय कषायों के बीच में रहकर भी उससे निलिप्त है।

    Edited by admin


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    रतन लाल

      

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