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अंतराष्ट्रीय सामूहिक गुरु विनयांजलि का आवाह्न : श्रद्धांजलि महोत्सव 25 फरवरी 2024, रविवार मध्यान्ह 1 बजे से ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • (जैन धर्म व दर्शन)

     

    1. जैन धर्म

    धर्म : विभिन्न धर्मों में धर्म की व्याख्या अलग-अलग की गई है। जैन धर्म के अनुसार “वत्थु सहावो धम्मो” अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई स्वभाव होता है। जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है और जल का स्वभाव शीतलता है। प्रत्येक वस्तु अपने मूल स्वभाव को कभी नहीं छोड़ती है। अन्य वस्तु का संयोग पाकर स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। जब यह संयोग नहीं रहता है तो वह वस्तु अपने मूल स्वभाव में लौट आती है। जैसे पानी का स्वभाव शीतल है। यदि इसे अग्नि का संयोग प्राप्त हो जावे तो इसके स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। अर्थात् गर्म हो जाता है और जब संयोग समाप्त हो जाता है, तो पानी अपने मूल स्वभाव शीतलता में लौट आता है। इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञाता-दृष्टा है व मूल में शुद्ध है, मगर कर्मों के संयोग से यह अशुद्ध होकर संसार में भ्रमण कर रही है। जब कर्मों का संयोग समाप्त हो जावेगा तो यह आत्मा अपने मूल स्वभाव अर्थात् शुद्धता को प्राप्त कर लेगी और सिद्धालय में विराजमान हो जावेगी।

     

    “खमादिभावो य दसविहो धम्मो” अर्थात् क्षमा आदि १० भावों को भी धर्म कहते हैं। क्षमा आदि दस भावों से ही शुद्धात्म स्वभाव को जानकर उससे लिप्त वैभाविक परिणामों (विभाव) से मुक्त हो पाते हैं। इसलिये क्षमा आदि दस भाव धर्म हैं।

     

    “उत्तमे सुखे धरतीति धर्मः” अर्थात् धर्म वही है जो उत्तम सुख (मोक्ष) में पहुँचा दे। आचार्य समंतभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा भी है -

     

    “देशयामि समीचीनं धर्मं  कर्म निवर्हणम् ।

    संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।।”

     

    अर्थात् प्राणियों को सांसारिक दुःख से छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला धर्म ही “समीचीन धर्म” है।

     

    “चारितं खलु धम्मो” चारित्र को भी धर्म कहा गया है। चारित्र को निश्चय से धर्म कहा है क्योंकि चारित्र धारण किये बिना आत्मा से बद्ध पुद्गल कर्मों की निर्जरा सम्भव नहीं है। चारित्र भाव से क्रियात्मक होना चाहिए अर्थात् शुद्ध भाव पूर्वक आचरण में महाव्रत रूप लेना आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘प्रवचनसार’ में “चारित्तं खलु धम्मो” से यही निर्देशित किया है।

     

    इस प्रकार धर्म शब्द से दो अर्थों का बोध होता है। एक वस्तु का स्वभाव और दूसरा चारित्र या आचार का। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका कोई स्वभाव नहीं हो। जबकि चारित्र केवल चैतन्य आत्मा में ही पाया जाता है। इस प्रकार धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है। वास्तव में धर्म तो वस्तु का स्वभाव ही है और उसकी प्राप्ति के कारणों को भी कथंचित धर्म कहा जाता है। क्योंकि कारण के बिना कार्य की निष्पत्ति नहीं होती है।

     

    धर्म एक ऐसा विज्ञान है जिसके माध्यम से मानव अपनी चेतना को, मन को केन्द्रित करता है, व्यवस्थित करता है। धर्म के माध्यम से मानव अपने विक्षिप्त मन को शांत करता है और आत्मा में शांति का अनुभव करता है। धर्म प्राणियों को उत्तम सुख में पहुँचाता है।

     

    जैन धर्म : जैन धर्म दो शब्दों से बना है- जैन और धर्म। जैन से अभिप्राय ‘जिन' के उपासक से है। “कर्मारातीन जयतीति जिनः” अर्थात जिसने काम, क्रोध, मोह आदि अपने विकारी भावों को जीत लिया है, वह ‘‘जिन” कहलाता है। “जिनस्य उपासकः जैनः” अर्थात् ‘जिन' के उपासक को जैन कहते हैं। जो व्यक्ति ‘जिन' के द्वारा बताये मार्ग पर चलते हैं। और उनकी आज्ञा को मानते हैं, वे जैन कहलाते हैं। ऐसे जैन के धर्म को जैन धर्म कहते हैं। यह जैन धर्म का शाब्दिक अर्थ है।

     

    जैन धर्म का एक अन्य अर्थ है- “जिन” द्वारा कहा गया धर्म। जीवात्मा काम, क्रोध आदि से घिरा होता है। अतः आत्मा के स्वाभाविक गुण (अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य) प्रकट नहीं हो पाते हैं। जब जीव अपने पुरुषार्थ से कर्मों की निर्जरा कर देता है तो वही जीव परमात्मा बन जाता है। वह सर्वज्ञ और वीतरागी होता है तथा वह जो भी उपदेश देता है, किसी वर्ग या सम्प्रदाय विशेष के लिये नहीं होता है अपितु प्राणी मात्र के हित के लिये होता है। अतः ऐसे “जिन” (सर्वज्ञ, वीतरागी व हितोपदेशी) द्वारा कहा गया जो धर्म है वही जैन धर्म है। इसे श्रमणधर्म अथवा जिनधर्म भी कहते हैं।

     

    धर्म २ प्रकार का होता है:-

    (१) व्यवहार धर्म - दान, जप, तप, त्याग आदि व्यवहार धर्म है। अणुव्रत धारण करना व्यवहार धर्म है। पूजा - उपासना करना धर्म का साधन मात्र है। हिंसा नहीं करना, चोरी नहीं करना, झूठ नहीं बोलना आदि भी व्यवहार धर्म है। यह निश्चय धर्म का कारण है।

     

    (२) निश्चय धर्म - परिणामों (भावों) की निर्मलता, समता या वीतरागता निश्चय धर्म है। निश्चय धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है, उसकी सुख-शांति से है, वह कषाय मुक्ति स्वरूप है। जितनी मात्रा में कषाय मुक्ति होगी, उतनी मात्रा में समता भाव होकर आत्मिक सुख - शांति भी अवश्य मिलेगी। यह निश्चय धर्म है। व्यवहार धर्म पालने से निश्चय धर्म की प्राप्ति होती है और निश्चय-धर्म मोक्ष का कारण है।

     

    2. जैन धर्म की प्राचीनता

    विश्व के सभी धर्मों से जैन धर्म प्राचीन है। कुछ लोगों का यह मानना कि जैन धर्म का प्रारम्भ महावीर स्वामी के समय से हुआ है, नितान्त भ्रामक है। महावीर भगवान तो वर्तमान काल की दृष्टि से जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर हुए हैं। उनसे पूर्व २३ तीर्थंकर और हो चुके हैं जिनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं।

     

    जैन धर्म अनादि है : जैन आगम के अनुसार भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में २४-२४ तीर्थंकर होते हैं। अभी तक अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल हो चुके हैं। इस प्रकार अभी तक इन कालों में २४-२४ तीर्थंकर अनन्त काल से होते आ रहे हैं। इस प्रकार जैन धर्म भी अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। ढाई-द्वीप में ५ भरत, ५ ऐरावत व १६० विदेह (देशों) क्षेत्रों में तीर्थंकर होते रहते हैं और उनकी परम्परा चली आ रही है तथा भविष्य में भी चलती रहेगी। जैसे तीर्थंकरों की परम्परा अनादि-निधन है, वैसे ही जैन धर्म भी अनादि है और यह कभी नष्ट भी नहीं होगा।

     

    आजकल अवसर्पिणी काल चल रहा है। इस अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ में भोगभूमि थी और भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि आवश्यकताओं की पूर्ति बिना श्रम (कर्म) किये दस प्रकार के कल्पवृक्षों से हो जाती थी। यह स्थिति नौ कोड़ाकोड़ी सागर तक चलती रही। जब कल्पवृक्ष समाप्त होने लगे तो कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुआ। अवसर्पिणी के तीसरे काल के अन्त में ही कुलकर (मनु) होने लगे जो लोगों को जीवन निर्वाह हेतु तरह-तरह की शिक्षाएँ देते थे। प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति थे और अंतिम (चौदहवें) कुलकर नाभिराय हुए हैं। इनके पुत्र ऋषभदेव हुए हैं।

     

    जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर : आज से असंख्यात वर्ष पूर्व अवसर्पिणी के तृतीय काल के अंत में अयोध्या में राजा नाभिराय के यहां जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ था। वर्तमान हुण्डावसर्पिणी काल के ये जैन धर्म के प्रथम उपदेशक थे। इन्होंने लोगों को अपनी आजीविका चलाने हेतु षट्-कर्मों आदि की शिक्षाएँ दी थी। ये षट्-कर्म निम्न हैं:-

    (१) असि - शस्त्र चलाना।

    (२) मसि - लेखन (खाता-बही आदि) कार्य।

    (३) कृषि - खेती का कार्य।

    (४) वाणिज्य - व्यापार का कार्य।

    (५) शिल्प - दस्तकारी अर्थात् हाथ की कारीगरी से वस्तुएँ बनाना।

    (६) विद्या - गायन, वाद्य, नृत्य, चित्रकारी आदि।

     

    उपरोक्त ६ कार्यों के आधार पर प्रारम्भ में समाज को तीन भागों में विभक्त किया गया थाः

    (१) क्षत्रिय - असि अर्थात् अस्त्र आदि के द्वारा दूसरों की रक्षा करके

    आजीविका करने वाले।

    (२) वैश्य - मसि, कृषि और वाणिज्य के द्वारा अपनी आजीविका करने वाले ।

    (३) शूद्र - शिल्प व विद्या के द्वारा अपनी आजीविका करने वाले ।

    इस प्रकार प्रथम तीर्थंकर ने लोगों को आजीविका करने हेतु और अपनी आत्मा के कल्याण के लिये विभिन्न क्रियाओं का उपदेश दिया। इस प्रकार वर्तमान युग की अपेक्षा से ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम उपदेशक हुए हैं और उन्हें जैन धर्म के वर्तमान युग का प्रथम प्रवर्तक माना जाता है। इनकी दो रानियाँ थी - यशस्वती और सुनन्दा। यशस्वती के भरत आदि सौ पुत्र और ब्राह्मी पुत्री थी तथा सुनन्दा के बाहुबली पुत्र और सुन्दरी पुत्री थी। इस प्रकार इनके भरत, बाहुबली आदि १०१ पुत्र और ब्राह्मी व सुन्दरी दो पुत्रियाँ थी। भगवान ऋषभदेव ने ब्राह्मी को लिपि विद्या (अ, आ, इ, ई आदि वर्ण) तथा सुन्दरी को अंक विद्या (१, २, ३ आदि संख्या) सिखाई और पुत्रों को भी विभिन्न प्रकार की विद्याओं और कलाओं में प्रवीण किया। भगवान ऋषभदेव ने १००० वर्ष तक तप किया और चतुर्थ काल शुरू होने से ३ वर्ष व ८'/, माह पूर्व ही मोक्ष चले गये।

     

    भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत इस युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् हुए हैं। इनके ही नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। कालान्तर में उन्होंने ब्राह्मण वर्ण का प्रारम्भ किया। भगवान ऋषभदेव के पश्चात् अभी तक असंख्यात वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और इस अवधि में जैन धर्म के २३ तीर्थंकर और हो चुके हैं। इन्होंने अपने-अपने समय में उसी जैन धर्म की प्रभावना की। २० वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत नाथ के समय मर्यादा पुरुषोत्तम राम हुए और २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ के समय में कृष्ण हुए। कृष्ण जी तीर्थंकर नेमिनाथ जी के चचेरे भाई थे। नेमिनाथ भगवान के ८४,६५० वर्ष पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। उनके २७८ वर्ष पश्चात् महावीर भगवान का जन्म हुआ।

     

    महावीर भगवान : महावीर भगवान का जन्म सन् ५६६ ईसा पूर्व (बी.सी.) में हुआ और मोक्ष सन् ५२७ ईसा पूर्व में हुआ है। उनके मोक्ष जाने के समय चतुर्थ काल की समाप्ति में ३ वर्ष व ८ '/, माह का समय शेष था। इनके पश्चात् जैन धर्म का अन्य कोई तीर्थंकर नहीं हुआ है अर्थात् ये जैन धर्म के इस काल के अन्तिम तीर्थंकर हैं और आजकल इनका ही शासन काल चल रहा है।

     

    भगवान महावीर के पश्चात की स्थिति :

    भगवान महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात् अब तक २५३५ वर्ष से अधिक अवधि गुजर चुकी है। इस अवधि में यद्यपि तीर्थंकर कोई नहीं हुआ, किन्तु केवली, आचार्य आदि अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने जैन धर्म की प्रभावना को आगे बढ़ाया है। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:-

     

    (१) तीन अनुबद्ध केवली - गौतम स्वामी, सुधर्म स्वामी और जम्बू स्वामी तीन अनुबद्ध केवली इस पंचम काल में मोक्ष गये हैं। इनका काल ६२ वर्ष (५२७ ईसा पूर्व से ४६५ ईसा पूर्व) है।

     

    (२) पांच श्रुतकेवली - द्वादशांग रूप समस्त श्रुत के जानने वाले महामुनि को श्रुतकेवली कहते हैं। विष्णुकुमार, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु नामक पांच श्रुतकेवली हुए हैं। इनका काल १०० वर्ष (४६५ ईसा पूर्व से ३६५ ईसा पूर्व) है। इनके पश्चात् पंचम काल में अन्य कोई श्रुतकेवली नहीं हुए हैं। यहाँ तक सम्पूर्ण ज्ञान-प्रवाह अनवरत चलता रहा और इसके पश्चात् आचार्यों की स्मृति क्षीण होने लगी।

     

    (३) ११ ग्यारहअंग - दशपूर्वधारी - विशाखाचार्य, प्रोष्ठिलाचार्य, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिलिंग, गंगदेव और धर्मसेन नाम के ग्यारह आचार्य ग्यारह अंग और दस-पूर्व के धारी हुए हैं। इनका काल १८३ वर्ष (३६५ ईसा पूर्व से १८२ ईसा पूर्व) है।

     

    (४) पांच ग्यारह - अंगधारी - नक्षत्र, जयपाल, पांडु, ध्रुवसेन और कंसाचार्य नाम के पांच मुनि हुए हैं जिन्हें ग्यारह अंग का ज्ञान था। इनका काल २२० वर्ष (१८२ ईसा पूर्व से ईस्वी सन् ३८) है।

     

    (५) चार आचारांगधारी - सुभद्राचार्य, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य नामक चार आचार्य एक अंग (आचारांग) के धारी हुए हैं। इनका काल ११८ वर्ष (ईस्वी सन् ३८ से १५६) है।

     

    इनके अलावा जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में और कोई भी आचार्य अंग-पूर्व के धारक नहीं हुए हैं। इनके अंशों को जानने वाले अवश्य हुए हैं। इस प्रकार महावीर स्वामी के पश्चात् ६८३ वर्षों तक अंगों का ज्ञान रहा। लोहाचार्य के पश्चात् गुणधर, विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्हदत्त, अर्हबलि, माघनन्दी और धरसेन आदि आचार्य हुए जो क्षीण अंग के धारी थे। इस अवधि तक कोई भी शास्त्र लिपिबद्ध नहीं था। आचार्य धरसेन ने सोचा कि मुनियों की स्मृति क्षीण होने लगी है और इस प्रकार श्रुत का लोप हो जावेगा। अतः उन्होंने महिमानगर (महाराष्ट्र) में हो रहे साधु सम्मेलन से दो योग्य साधुओं को बुलाया। उनकी परीक्षा लेने पर आचार्य धरसेन को यह विश्वास हो गया कि दोनों शिष्य ज्ञानी हैं। अतः उन्होंने दोनों को शिक्षा दी और उनके नाम पुष्पदंत और भूतबलि प्रसिद्ध हुए |

     

    दोनों शिष्यों ने मिलकर जैन आगम के महान् सिद्धान्त ग्रंथ “पट-खण्डागम” की रचना की और ईस्वी सन् १५६ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चतुर्विध संघ एवं देवों ने इसकी पूजा की। इसी वजह से यह तिथि जैनों में “श्रुत-पंचमी” के नाम से प्रसिद्ध हुई। (कृपया पृष्ठ ३६५ भी देखिये।)। इनके पश्चात् अनेक महान् आचार्य हुए हैं। इनमें प्रमुख हैं - कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, योगीन्दुदेव, मानतुंग, अकलंक, रविषेण, जिनसेन, विद्यानन्दी, वीरसेन आदि। इन महान् आचार्यों में सर्वोच्च स्थान आचार्य कुन्दकुन्द को प्राप्त है।

     

    आचार्य कुन्दकुन्द : दिगम्बर आम्नाय के सिरमौर आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म कौण्डकुन्दपुर (कर्नाटक) में हुआ था। पूर्व जन्म (ग्वाले) में उन्होंने मुनि श्री को शास्त्र भेंट किये थे। इस शास्त्र-दान के प्रभाव से इनका जन्म सेठ के घर हुआ। बचपन में उन्होंने मुनि जिनचन्द्र के दर्शन किये और उनका उपदेश सुना। वे उपदेश से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ११ वर्ष की अल्प आयु में ही मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली।

     

    जिनचन्द्र आचार्य ने प्रतिभाशाली शिष्य कुन्दकुन्द को ३३ वर्ष की आयु में ही आचार्य पद प्रदान कर दिया। इनके पांच नाम थे - पद्मनंदि, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्र-ग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य। इनका आचार्य काल ई. सन् १२७-१७६ है। उमास्वामी इन्हीं के शिष्य थे। इन्हें चारण-ऋद्धि प्राप्त थी जिसके फलस्वरूप ये भूमि से चार अंगुल ऊपर चल सकते थे। ये अपनी जिज्ञासा दूर करने हेतु पूर्व विदेह की पुण्डरीकणी नगरी गये और वहाँ तीर्थंकर सीमंधर स्वामी की साक्षात् वन्दना की और उनकी दिव्य-ध्वनि सुनकर आए।

     

    गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बर आचार्यों के साथ हुए वाद-विवाद के समय पाषाण-निर्मित सरस्वती की मूर्ति से आपने यह कहलवा दिया था कि दिगम्बर धर्म प्राचीन है। आपने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पन्चास्तिकाय, रयणसार, मूलाचार, अष्टपाहुड़ आदि अनेक महान् ग्रन्थों की रचना की। आप जैसे तत्त्वज्ञानी मुनि अन्य नहीं हुए हैं। आपको जैन-जगत् में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है और इसी कारण मंगल श्लोक (“मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमोगणी, मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलं”) में भगवान महावीर तथा गौतम स्वामी के पश्चात् आपका नाम आदर सहित लिया जाता है।

     

    इन महान् आचार्यों ने अनेक उच्च कोटि के ग्रन्थों की रचना की है। और जैन परम्परा को अक्षुण्ण रखने में अविस्मरणीय योगदान दिया है। यह उनके परिश्रम का ही फल है कि आज भी संसार में जैन धर्म का अस्तित्व है।

     

    3. श्वेताम्बर पंथ

    श्वेताम्बर पंथ का प्रादुर्भाव : अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने निमित्त ज्ञान से जाना कि १२ वर्ष का अकाल पड़ने वाला है। अतः वे उज्जैन छोड़कर संघ के साथ दक्षिण भारत की ओर चले गये। कुछ साधु स्थूलभद्र (जो कि उस समय भद्रबाहु के संघ में उपाध्याय थे) के साथ उत्तर भारत में रह गये। स्थानीय परिस्थितियों से पीड़ित होकर उन साधुओं ने वस्त्र, पात्र आदि अंगीकार कर लिये। अकाल के बाद जब साधु दक्षिण से वापस आये तो उन्होंने इन्हें समझाया। मगर ये नहीं माने। फलस्वरूप साधु संघ में भेद हो गये। वस्त्र, पात्र आदि के पोषक साधु श्वेताम्बर कहलाए और जो बिना वस्त्र रहते थे वे दिगम्बर कहलाए। सम्वत् १३६ में श्वेताम्बर संघ की स्थापना हुई और इस प्रकार दूसरी शताब्दी में जैन समाज श्वेताम्बर व दिगम्बर दो प्रमुख सम्प्रदायों में बंट गया। 

     

    श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं में प्रमुख भेद :

    इन दोनों में सैद्धान्तिक रूप से विशेष भेद नहीं है, फिर भी मान्यताओं में प्रमुख अन्तर निम्न प्रकार हैं:-

     

    क्र.

    श्वेताम्बर

    दिगम्बर

    १.

    केवली के आहार/निहार होता है |

    नहीं होता है।

    २.

    वस्त्रधारी की मुक्ति होती है।

    केवल दिगम्बर की ही मुक्ति होती है।

    ३.

    स्त्री की मुक्ति होती है।

    नहीं होती है।

    ४.

    साधु के वस्त्र आदि १४ उपकरण होते हैं।

    ३ उपकरण (पीछी, कमण्डल और शास्त्र) होते हैं।

    ५.

    तीर्थंकर मल्लिनाथ स्त्री थे।

    पुरुष थे।

    ६.

    महावीर भगवान का विवाह हुआ |

    नहीं हुआ।

    ७.

    अनेक गृहों से भिक्षा ग्रहण

    एक ही घर में विधि (प्रतिज्ञा)

    मिलने पर ही आहार ग्रहण

    ८.

    वस्त्र, आभूषण युक्त प्रतिमा

    पूर्ण दिगम्बर प्रतिमा

    ९.

    तीर्थकर की माता को १४ स्वप्न ।

    १६ स्वप्न

    १०.

    स्वर्ग १२ होते हैं।

    स्वर्ग १६ होते हैं।

    ११.

    इन्द्र ६४ होते हैं ।

    इन्द्र १०० होते हैं।

    १२.

    केवली के उपसर्ग होता है।

    नहीं होता है।

    १३.

    मानुषोत्तर पर्वत के आगे मनुष्य जा सकता है।

    नहीं जा सकता है।

     

    कालान्तर में इन दोनों सम्प्रदायों में भी अन्य प्रकार के भेद हो गये। जैसे दिगम्बर में तेरापंथी, बीसपंथी आदि और श्वेताम्बर में मंदिरमार्गी, स्थानकवासी आदि।

     

    4. वर्तमान दिगम्बर परम्परा

    तेरहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक लगभग ७०० वर्ष तक दिगम्बर मुनियों का अभाव सा रहा और इस अवधि में धर्म का प्रचार भट्टारकों के हाथों में रहा। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी “दक्षिण'' (दीक्षा सन् १९१६ और समाधि १६५५), आचार्य शांतिसागर जी “छाणी' (दीक्षा १६२३ और समाधि १९४४) तथा आचार्य आदिसागर (अंकलीकर) जी (दीक्षा १६१३ और समाधि १६४३) ने दिगम्बर मुनिराजों की परम्परा को आगे बढाया। वर्तमान में विभिन्न आचार्यों ने इस दिगम्बर परम्परा को आगे बढ़ाया है और समग्र देश में विहार करके जैन धर्म की महती प्रभावना की है। श्रावकों को सच्चे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देकर इन गुरुओं ने हमारे ऊपर महान् उपकार किया है।

     

    5. जैन दर्शन

    जिसके द्वारा देखा जावे अर्थात् जीवन व जीवन-विकास का ज्ञान प्राप्त किया जावे, उसे दर्शन (Philosophy) कहते हैं। युक्तिपूर्वक तत्त्व-ज्ञान को प्राप्त करने के प्रयत्न को ही दर्शन कहते हैं। दर्शन में आत्मा, परलोक, विश्व, ईश्वर आदि गूढ़ विषयों को समझने का प्रयत्न किया जाता है। धर्म में आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग बताया जाता है। धर्म प्रवर्तकों ने केवल आचार-रूप धर्म का ही उपयोग नहीं किया है, अपितु स्वभाव-रूप धर्म का भी उपदेश दिया है, जिसे दर्शन कहा जाता है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित दर्शन ही जैन दर्शन है। छः द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ आदि का इसमें मुख्यतया वर्णन है। जैन धर्म आत्मा, परमात्मा व पुनर्जन्म में विश्वास करता है।

     

    यद्यपि दर्शन और धर्म (वस्तु स्वभाव/आचार-रूप धर्म) दोनों अलग अलग विषय हैं, फिर भी दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह सर्वविदित है कि विचार के अनुसार ही मनुष्य का आचार भी होता है। जैसे जो व्यक्ति आत्मा, परलोक और पुनर्जन्म को नहीं मानता है, उसकी प्रवृत्ति व आचार भोगवादी होगा और जो इन्हें मानता है, उसकी प्रवृत्ति और आचार इसके विपरीत (निवृत्ति की ओर) होगा। इस प्रकार विचारों का प्रभाव मनुष्य के आचार पर गहरा पड़ता है। अतः दर्शन का प्रभाव धर्म पर भी गहरा पड़ता है और एक को समझे बिना दूसरे को समझा नहीं जा सकता है। जैन धर्म भी एक दर्शन है। चूंकि वह वस्तु स्वभाव-रूप धर्म में ही अन्तर्भूत हो जाता है, अतः उसे भी हम धर्म का ही एक अंग समझते हैं। अतः जैन दर्शन से अभिप्राय ‘‘जिन” द्वारा कहे गये विचार और आचार दोनों ही लेना चाहिए।

     

    जैन दर्शन की विशेषताएँ : जैन दर्शन के मूल सिद्धान्त अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह, छः द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ आदि हैं। इनका विवरण आगे यथा स्थान दिया गया है। लेकिन जैन दर्शन की कुछ अन्य विशेषताओं का वर्णन यहाँ दिया जा रहा है:-

    १. ईश्वर सृष्टि का कर्ता-हर्ता नहीं : जैन धर्म ईश्वर की सत्ता को तो स्वीकार करता है, मगर अन्य धर्मों। की भाँति ईश्वर को इस सृष्टि का बनाने वाला (कर्ता), पालने वाला (पालक) और नाश करने वाला (हर्ता) नहीं मानता है। जो आत्मा मोक्ष प्राप्त करके लोक के शिखर पर विराजमान होकर अनन्त सुख भोग रही है, वे ही जैन धर्म के अनुसार ईश्वर, भगवान, सिद्ध आदि नामों से जाने। जाते हैं। ये किसी भी कार्य के कर्ता या हर्ता नहीं हैं अपितु मात्र ज्ञाता व दृष्टा हैं। इनका अब इस संसार के किसी भी कार्य से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहा है। ये कृतकृत्य हैं अर्थात् कोई भी कार्य इनके करने। हेतु बाकी नहीं रहा है। वे किसी का भी हित या अहित नहीं करते हैं। इस प्रकार वे सृष्टि के कर्ता, पालक या हर्ता नहीं हो सकते हैं।

     

    जैन धर्म यह भी नहीं मानता कि किसी दुष्ट व्यक्ति को दण्डित करने तथा सज्जन व्यक्ति की रक्षा करने वाली कोई शक्ति (ईश्वर) होती है। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव स्वयं के द्वारा किये गये कर्मों के अनुसार ही विभिन्न योनियाँ धारण करता है और सुख-दुःख उठाता है। ऐसी कोई अन्य शक्ति नहीं है जो उसे सुख या दुःख दे सके।

     

    जैन धर्म के अनुसार जीव-अजीव द्रव्य का कर्म-प्रकृति अनुसार एक देश संयोग ही जगत् का कर्ता-हर्ता है। इनके द्वारा संसार अनादि काल से रचा हुआ है। इन्हें किसी ने बनाया नहीं है और संसार में स्वतंत्र हैं। ये ही संसार की सबसे बड़ी ताकतें हैं जो संसार में कार्य कर रही हैं। इनके अलावा अन्य कोई शक्ति नहीं है। जीव अजीव द्रव्यों का यह खेल अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा।

     

    २. कर्म सिद्धान्त : जैन धर्म का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। संसारी जीव अनादि काल से कर्मों से संयुक्त है और इन कर्मों के कारण जन्म-मरण के चक्र में फंसा हुआ है। जब पूर्व में बँधे कर्म उदय में आते हैं तो जीव उनके फल को समतापूर्वक नहीं सहता है और उसके परिणाम राग-द्वेष रूप होते हैं, जिससे नये कर्म बँधते हैं। कर्मों के बँधने से गतियों में जन्म लेता है और जन्म लेने पर शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियां होती हैं जो अपने विषयों को ग्रहण करती हैं। विषयों के ग्रहण करने से इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष उत्पन्न होते हैं और फिर रागी-द्वेषी परिणामों से नवीन कर्म बंधते हैं और इस प्रकार कर्म बँधने का यह चक्र चलता ही रहता है। यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। यदि जीव ऐसे सार्थक प्रयास करके आत्मा के साथ बँधे कर्मों का सर्वथा नाश (अभाव) कर देता है, तो उसे शुद्ध अवस्था प्राप्त हो सकती है, जिसे मोक्ष कहा जाता है। जीव द्वारा मोक्ष प्राप्त करना जैन दर्शन का सर्वोच्च लक्ष्य है।

     

    जीव द्वारा मन-वचन-काय से की गई क्रियाओं से प्रभावित होकर कुछ पुद्गल-वर्गणा जीव के प्रदेशों में प्रवेश करती हैं। यह बात केवल जैन दर्शन में ही है, अन्य दर्शनों में नहीं है। जैन धर्म कर्म-सिद्धान्त पर ही टिका हुआ है। जैन धर्म प्रत्येक जीव के कर्मों को ही उसका विधाता मानता है। जब तक ये कर्म जीव के साथ लगे हुए हैं, वह जीव संसार में विभिन्न योनियों में भ्रमण करता रहता है और सुख-दुःख उठाता है। अन्य धर्मों में भी कर्मों की प्रधानता को माना गया है। तुलसीदास जी ने भी इसी सिद्धान्त को स्वीकारा है:-

     

    "कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।

    जो जस करहिं, सो तस फल चाखा ।।”

    अंग्रेजी की कहावत “As we sow, so we reap” में भी यही भाव दर्शाया गया है कि हम जैसे कर्म करेंगे, वैसे ही फल भोगेंगे। जीव इन कर्मों का नाश करके अपने को कर्मों से सर्वथा मुक्त कर लेता है तो वही जीव परमात्मा (ईश्वर) बन जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन इस कर्म सिद्धान्त के माध्यम से आत्मा से परमात्मा बनने की कला सिखाता है। प्रत्येक जीव अपने आत्म-पुरुषार्थ से आत्मा की इस परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है। 

     

    ३. पुनर्जन्म : जैन धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है। जैन धर्म के अनुसार जब तक जीव कर्मों से मुक्त नहीं हो जाता है, अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक उसका पुनः-पुनः जन्म विभिन्न योनियों में होता रहता है। मोक्ष पद प्राप्त करने के पश्चात् उस जीव का पुनः जन्म नहीं होता आज के वैज्ञानिक युग में पुनर्जन्म के समाचार यदा-कदा प्रकाशित होते रहते हैं। कुछ बच्चे अपने पूर्व जन्म के माता, पिता, पत्नी, गाँव, मित्र आदि के नाम बता देते हैं और सम्बन्धित ग्राम में जाकर उन्हें पहचान भी लेते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पुनर्जन्म होता है। यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य मर कर मनुष्य गति में ही जन्म ले। वह अपने कर्मों के अनुसार किसी भी गति में जन्म ले सकता है।

     

    ४. मोक्ष मार्ग : जैन धर्म यह भी सिखलाता है कि पुनः-पुनः जन्म से मुक्ति कैसे प्राप्त हो। इस हेतु जैन आगम में एक सिद्धान्त प्रतिपादित है "सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः” इसके अनुसार सम्यक् रूप से दर्शन, ज्ञान व चारित्र के होने से ही जीव को मुक्ति मिल सकती है और यही मोक्ष का एक मात्र मार्ग है। आत्मा के उद्धार के लिये अन्य कोई रास्ता नहीं है। हिन्दू धर्म में भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग अलग-अलग मोक्ष के मार्ग हैं, मगर जैन धर्म में सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकरूपता ही एकमात्र मोक्ष का मार्ग है। 

     

    ५. अहिंसा : अहिंसा जैन धर्म का आधार स्तम्भ है। जैन धर्म में प्राणी मात्र के कल्याण की भावना निहित है। जैन धर्म में मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े-मकोड़े के अलावा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति को भी जीव माना गया है। जैन धर्म के अनुसार इन जीवों को न मारना अहिंसा है। किसी का दिल दुःखाना तथा अपने अन्दर राग-द्वेष जनित विकारी भावों की उत्पत्ति को भी हिंसा माना गया है। भगवान महावीर के प्रमुख संदेश “अहिंसा परमोधर्मः” तथा “जीओ और जीने दो” भी अहिंसा पर आधारित हैं।

     

    ६. काल परिवर्तन : जैन धर्म के अनुसार कालचक्र एक बार उत्सर्पिणीरूप और एक बार अवसर्पिणीरूप में पार्वतन करता है और इनमें २४-२४ तीर्थंकर होते हैं। जिनके द्वारा जैन धर्म प्रकाशित व उपदिष्ट हुआ है। भविष्य में भी इसी प्रकार २४-२४ तीर्थंकर होते रहेंगे।

     

    ७. अवतार परम्परा नहीं : अन्य धर्मों की भांति जैन धर्म में अवतार लेने की परम्परा नहीं है। जैन धर्म के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी कठोर तप-साधना से भगवान बन सकता है और जो भगवान बन जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। इस प्रकार भगवान बनने वाले व्यक्ति (आत्मा) का पुनः भगवान के या अन्य रूप में अवतरित होना संभव ही नहीं है।

     

    ६. देव-शास्त्र-गुरु : जैन धर्म में ऋषियों की परम्परा, उनकी चर्या, धार्मिक साहित्य, तीर्थ, आत्मा व परमात्मा का स्वरूप, मूर्तियों की मुद्रा, उपासना-क्रिया आदि अन्य धर्मों से भिन्न हैं। पूज्य व पूज्यता में भी अन्तर है। जैन धर्म में वीतरागी देव और वीतरागता ही पूज्य है। इस प्रकार जैन धर्म अन्य धर्मों से भिन्न व स्वतंत्र धर्म है जो अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा।

     

    6. जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान

    आज का युग वैज्ञानिक युग है और इस युग में व्यक्ति किसी तथ्य को मानने से पूर्व उसे विज्ञान की कसौटी पर कसना चाहता है। जैन दर्शन में द्रव्य, तत्त्व, सूक्ष्म जीव, सूदूरवर्ती पर्वत, सागर, द्वीप, स्वर्ग, नरक आदि के बारे में जो वर्णन है वह जन-सामान्य को सहजगम्य नहीं है। क्योंकि इनकी पुष्टि वर्तमान विज्ञान द्वारा अभी तक नहीं की जा सकी है। वस्तुतः ये विषय वर्तमान विज्ञान की पहुँच के बाहर हैं। केवलज्ञानी के वचनों के आधार पर आचार्य भगवन्तों ने इनके बारे में शास्त्रों में निष्पक्ष भाव से लिखा है। अतः केवली भगवान की वाणी पर अश्रद्धान करने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

     

    इसके अलावा यह भी विचारणीय है कि जो चीज विज्ञान द्वारा अभी तक खोजी नहीं जा सकी है, वह नहीं है; यह तर्क सुसंगत और मान्य नहीं है। वास्कोडिगामा ने अमेरिका की खोज की तो यह नहीं माना जा सकता है कि इस खोज से पूर्व अमेरिका का अस्तित्व नहीं था। जो सत्य है, उसे विज्ञान जल्दी या विलम्ब से खोज सकता है। जैसे पूर्व में वनस्पति में जीव नहीं माना जाता था, किन्तु बाद में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा० जगदीश चन्द वसु द्वारा की गई खोज के पश्चात् वनस्पति में जीव होना विज्ञान मानने लगा है।

     

    इसके अतिरिक्त वैज्ञानिकों ने जो खोजा है वह शाश्वत सत्य भी नहीं होता है क्योंकि उनके द्वारा नई-नई खोजों के आधार पर पुरानी मान्यताओं में अन्तर आ जाता है अर्थात् विज्ञान की खोज शाश्वत नहीं होती है और जिसे विज्ञान आज मानता है, उसमें कल परिवर्तन कर देता है। जैसे पूर्व में एक पृथ्वी को मानते थे लेकिन अब अनेक पृथ्वियाँ होना मानते हैं और उनमें जल व जीव के संभावना भी बताते हैं। पूर्व में एक सूर्य को मानते थे, किन्तु अब दो सूर्यों को मानने लगे हैं। इसी प्रकार वैज्ञानिक पूर्व में सूर्य को स्थिर व पृथ्वी आदि को घूमनेवाली मानते थे। मगर अब बहुत से वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि सूर्य आदि घूमते हैं और पृथ्वी स्थिर है। (जैन मान्यता के अनुसार मनुष्य-लोक में सूर्य-चन्द्र आदि घूमते हैं और पृथ्वी स्थिर है।) इस प्रकार जैन दर्शन में वर्णित विभिन्न तथ्यों को वर्तमान विज्ञान अब मानने लगा है।

     

    वस्तुतः आधुनिक विज्ञान की पहुँच बहुत ही सीमित है और केवली भगवान के अनन्त-ज्ञान की अपेक्षा तो आधुनिक विज्ञान की पहुँच नगण्य है। सत्यता की खोज हेतु अभी तक विज्ञान के प्रयासों की सफलता बहुत ही सीमित है। यह संभव है कि आज जो विषय विज्ञान की पहुँच से बाहर है, उसका कुछ भाग कालान्तर में कदाचित् विज्ञान की पहुँच में आ सकता है। किन्तु विज्ञान की इस कमी/विफलता को जैन दर्शन पर विश्वास नहीं करने का आधार बनाना नितान्त औचित्यहीन है। सुदूरवर्ती स्थानों (सुमेरू पर्वत, नंदीश्वर द्वीप, स्वर्ग, नरक आदि), सूक्ष्म पदार्थ (अणु, कार्मणवर्गणा, सूक्ष्म जीव आदि) तथा अतिप्राचीन तथ्यों (भगवान आदिनाथ कब हुये आदि) के बारे में हम अपनी इन्द्रियों तथा बुद्धि से नहीं जान सकते हैं और ये आस्था के विषय हैं। शास्त्रों में इनके बारे में जो आचार्यों ने लिखा है, वह जिनेन्द्र की वाणी के अनुसार ही है। आचार्य सत्य-महाव्रत के धारी होते हैं और उन्होंने शास्त्रों में सत्य बाते ही लिखी हैं, अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ा है। अतः हमें केवली भगवान के वचनों पर आधारित शास्त्रों में वर्णित तथ्यों की सत्यता पर पूर्ण श्रद्धान रखना ही चाहिए और किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए।

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