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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ६ पंचाचार पालक 

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    Vidyasagar.Guru

    पंचाचार संसार सागर से पार होने में घाट के समान होने से परम तीर्थ तथा जन्म-मरणादि की बाधा दूर करने में सहायक होने से परम मंगल रूप हैं। इन पंचाचारों का निर्मल रीति से पालन स्वयं करने एवं अपने शिष्यों को भी करवाने से जिनका जीवन एक उत्कृष्ट तीर्थ बन गया है, ऐसे आचार्य भगवन् के जीवन में परिपालित पंचाचारों से संबंधित प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है। 

     

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    शुद्धात्म-परिचायक : पंचाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    सुदृनिवृत्ततपसां.......आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु॥७/३५॥

    मुक्ति की इच्छा करने वाले भव्य जीवों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किए गए सम्यग्दर्शनादि में स्थिर रहने का जो यत्न किया जाता है, उसे आचार कहते हैं। 

     

    दंसणणाणचरित्तेतवे विरियाचारह्मि पंचविहे।....

    दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य-ये पाँच प्रकार के आचार हैं। 

     

    * विद्यावाणी *

     

    • दीक्षा के समय पहले पंचाचार दिए जाते हैं, जो आध्यात्मिक पद्धति है। प्रत्येक साधु श्रमण बनता है, तो पंचाचार के माध्यम से बनता है, उसके अनुसार ही चलता है।
    • 'प्रवचनसार' ग्रंथ की चूलिका में आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि आत्मानुभूति के लिए पंचाचारों का होना अनिवार्य है। और पंचाचार का सीधा-सा अर्थ है कि पाँच पापों को मन, वचन, काय से छोड़ना होगा।
    • शुद्धात्मानुभूति को प्राप्त करना ही श्रामण्य है। उस श्रामण्य पद को प्राप्त करने के लिए पंचाचार को ग्रहण किया जाता है।
    • ये पंचाचार की शरण तभी तक है, जब तक कि शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती। उद्देश्य शुद्धात्मा की प्राप्ति का होना चाहिए। 

     

    image-001.pngमुक्ति का बीज : दर्शनाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    तत्त्वार्थविषयपरमार्थश्रद्धानुष्ठानं दर्शनाचारः।

     परमार्थभूत जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना और उन्हीं रूप श्रद्धाविषयक अनुष्ठान-आचरण करना दर्शनाचार है। 

     

     * विद्यावाणी *

    • सम्यग्दर्शन के बिना आपके चारित्र की शुद्धि नहीं हो सकती है और न ही चारित्र में विकास हो सकता है। इसलिए हमें सम्यग्दर्शन को अच्छे से विशुद्ध बनाए रखना चाहिए।
    • जिस प्रकार माँ कहती है कि जल्दी-जल्दी बेटा बड़ा हो जाए और घर में बहु आ जाए। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रूपी माँ कहती है कि बेटा जल्दी-जल्दी बड़े हो जाओ और चारित्र ग्रहण कर लो, तो मुक्ति रूपी वधू आकर तुम्हारा वरण कर लेगी।image-002.png
    • सम्यग्दर्शन रूपी बयाना देकर, फिर ज्ञान और चारित्र रूपी पूर्ण मूल्य देकर ही मोक्ष को शीघ्र अपने हाथ में ले लो। आस्था ही बयाना है। उसके बिना खरीदी नहीं होती। 
    • जिस प्रकार ललाट पर तिलक (बिंदी) के अभाव में स्त्री का संपूर्ण शृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के न होने पर जैसे मंदिर की कोई शोभा नहीं है। इसी प्रकार बिना संवेग के सम्यग्दर्शन कार्यकारी नहीं है।संवेग सम्यग्दृष्टि साधक का अलंकार है। 
    • सम्यग्दर्शन है, तो ही मोक्षमार्ग है- सम्यग्दर्शन पेट के लीवर के समान है। यदि लीवर ठीक है, तो पूरी पाचन प्रणाली (स्वास्थ्य) ठीक रहेगा। उसी प्रकार यदि सम्यग्दर्शन है, तो मोक्ष का मार्ग भी है।

    * विद्याप्रसंग *

     

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    होता सम्यग्दर्शन का दर्शन

    सन् २००२, मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आचार्यश्रीजी ससंघ विराजमान थे। वैसे तो चेहरे का हमेशा ही प्रसन्न एवं प्रशस्त रहना गुरुवर की अपनी एक स्वतंत्र पहचान है। पर एक दिन ईर्या भक्ति के समय आचार्यश्रीजी की कुछ विशेष प्रशस्त भाव से भरी मुस्कान थी। ईर्यापथ भक्ति के उपरांत सभी महाराजों ने साहस कर आचार्यश्रीजी से पूछ ही लिया- आचार्यश्रीजी, आज आप क्यों मुस्कुरा रहे थे? तब आचार्यश्रीजी बोले- 'आप लोगों के लिए मैं एक अकेला दिख रहा हूँ। परंतु मुझे तो अपने सामने ४०-४0 भावी सिद्धों (निग्रंथ साधुओं) के दर्शन हो रहे हैं। इसलिए प्रसन्न हो रहा हूँ।

     

    धन्य हैं आचार्यश्रीजी! स्वयं के द्वारा दीक्षित श्रमणों में भावी सिद्धों के दर्शन एक शुद्ध सम्यग्दृष्टि पुरुष को ही हो सकते हैं । सम्यग्दर्शन जब भावों की परिधि से बाहर निकल कर आचार में ढलता है, तब कहीं जाकर ऐसी परिकल्पना आकार पाती है।

     

    मुक्ति का दीपदान : ज्ञानाचार 

    * अर्हत्वाणी *

     

    पंचविधज्ञाननिमित्तं शास्त्राध्ययनादिक्रिया ज्ञानाचारः।

    पाँच प्रकार के ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय एवं केवलज्ञान) के निमित्त शास्त्र अध्ययन आदि क्रियाएँ करना ज्ञानाचार है।

     

    कालविनयोपधानबहुमाना............तदु भयसंपन्नत्वलक्षणज्ञानाचारः॥१६

    कालाचार, विनयाचार, उपधानाचार, बहुमानाचार, अनिह्नवाचार, अर्थाचार, व्यंजनाचार, और उभयाचार संपन्न ज्ञानाचार है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • विश्व के जितने भी पदार्थ हैं, उनको ज्ञानाचार प्रकाशित करता है। इसलिए विश्व दीपक संज्ञा ज्ञानाचार को दी है। सिद्धालय को देखने के लिए टार्च के समान ज्ञानाचार है।

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    • ज्ञानी का ज्ञान, वही माना जाता है, जो विषयों एवं कषायों से बचा रहता है। लेकिन जो विषय कषायों में लगा है, वह ज्ञान किसी काम का नहीं है।
    • आत्मज्ञान ही ज्ञानाचार है। जिससे आत्मज्ञान नहीं होता है, वो ज्ञान नहीं है। पापों से यदि मुक्ति नहीं मिलती है तो वो ज्ञान किस काम का? वह ज्ञान बेकार है, जो क्रिया से रहित है।
    • यदि ज्ञान का सदुपयोग करें, उसे अच्छे कार्यों में लगाएँ तो हमारे मन में उत्पन्न होने वाले संकल्प विकल्प समाप्त हो सकते हैं। 
    • धर्म से जो बचाए (धर्म की ओर न जाने दे), सत्कार्यों से जो बचाए उसे पाप कहते हैं। जो पाप से बचाए, धर्म की ओर ले जाए उसे पुण्य कहते हैं। जो पुण्य-पाप को एक मानकर चल रहे हैं वह ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे हैं। ज्ञान के दुरुपयोग से पुण्य नहीं, पाप का बंध होता है। ज्ञान का उपयोग दुर्लभ है।
    • आस्था व चारित्र से पोषित ज्ञान- संयमित ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान को दर्शन व चारित्र के मध्य में रखा जाता है। जैसे, मेले में घूमने जाते हैं तो छोटा लड़का बीच में रहता है। उसका एक हाथ माँ पकड़ती है, दूसरा हाथ पिता पकड़ लेता है। उसी प्रकार दर्शन (आस्था) माँ है, ज्ञान लड़का है, चारित्र कठोर है सो पिता है। इसलिए लड़के को बीच में रखा। आस्था मजबूत होगी तो ज्ञान का पोषण होगा। जिसके पीछे आस्था व आगे चारित्र हो तो वह ज्ञान सही होता है।

     

    ज्ञान ज्ञेय से

    बड़ा आकाश आया

    छोटी आँखों में।

    विशुद्धिकारक : कालाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    पूर्वाह्नस्यापराह्नस्य................सिद्धान्तपाठाद्ययोग्यमेव च ॥१६२९-१६३०॥

    पूर्वाह्न के पूर्व प्रहर की एक घड़ी, बाद के प्रहर की एक घड़ी, मध्य की दो घड़ी, अपराह्न के अंतिम की एक घड़ी, आगे के प्रहर की पूर्व घड़ी, मध्य की दो घड़ी। मध्य रात्रि के पूर्व और पश्चिम बाद की एक-एक दो घड़ी, मध्याह्न की भी पहले और बाद की एक-एक घड़ी ऐसे दो-दो घड़ी का मध्यकाल से सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ने के लिए अयोग्य काल है अथवा संधि काल के पहले और बाद की दो-दो घड़ी छोड़कर स्वाध्याय का काल है। संधि काल के आगे और पीछे की दो-दो घड़ी (चारों संधियों की) स्वाध्याय के लिए अयोग्य है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • स्वाध्याय करने के काल को कालाचार के अन्तर्गत रखा जाता है। विशेष रूप से सिद्धांत ग्रंथों का निषेध है।
    • पर्व आदि के दिनों में सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्याय का हम लोगों को भी निषेध किया है। अब आज कोई पालन नहीं कर रहा है। ग्रहण लग जाने पर एवं अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, इन दिनों में स्वाध्याय नहीं किया जाता है।
    • सल्लेखना के समय सिद्धांत ग्रंथों का वाचन नहीं करने को कहा है, क्योंकि पूरे संघ को विकल्प रहता है।
    • कालाचार जरूरी- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन चारों की शुद्धिपूर्वक सिद्धांत ग्रंथों का पठन-पाठन करते हैं, तो इसमें संघ की, श्रुत की, परंपरा की सुरक्षा होती है।

    स्वाध्याय करते समय १००-१०० हाथ का क्षेत्र शुद्ध होना चाहिए। क्रोध, मान, माया आदि विभाव परिणामों को त्याग कर स्वाध्याय करें ये भाव शुद्धि है। पूज्यवर धरसेन, गुणभद्र आदि आचार्यों द्वारा लिखे शास्त्र पढ़ने जा रहे हो तो मन शुद्ध होना चाहिए। द्रव्य व मन बिगड़ा है तो वचन कैसे सुधरेगा? आज एक कमरे में सब कुछ होता है, और सिद्धांत ग्रंथों का संपादन भी ऐसा हुआ कि एक हाथ से जलेबी खा रहे हैं और दूसरे हाथ से पढ़ते हुए संपादन हो रहा है। आज ये बात हो रही है, इसी का दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहा है।

     

    * विद्याप्रसंग *

    क्रिया में विधि आवश्यक 

    कोई भी क्रिया करो विधि के अनुसार करो, दाता और पात्र को देखकर करो। इन सभी बातों को ध्यान में रखकर करने से ही क्रिया फलवती होती है। किसी पेट के रोगी को वैद्यजी ने दवाई में गोली दी और कहा कि सुबह-शाम लेते जाओ, पेट ठीक हो जाएगा। बीस गोलियाँ थीं। उसने पूछा नहीं कि एक बार में कितनी लेना है और एक ही दिन में इकट्ठी बीस गोली ले लीं। गर्मी ज़्यादा हो गई, बर्दाश्त नहीं हुई, आँखें जलने लगीं, और भूख-भूख कहने लगा। पूछा, अरे भैया! पेट तो ठीक है, अब तो पेट भी गड़बड़ होने लगा। दस दिन की खुराक एक दिन में लेंगे, तो क्या होगा? सहन नहीं कर सका। आस्था बिगड़ गई। अनुपात चाहिए औषधि सेवन में । जैसे वैद्य के अनुसार खुराक और अनुपात का ध्यान रखा जाता है, इसी प्रकार प्रत्येक क्रिया में विधि आवश्यक है।

     

    स्वाध्याय करो, कहने से आज प्रायः ऐसा ही करते हैं। उस व्यक्ति के समान गोली एक दिन में ही खा लेते हैं । एक वर्ष में जो स्वाध्याय करना है उसे एक माह में कर लो। रात-दिन एक कर लो, किंतु ऐसा नहीं है। अपना अनुपात बिगाड़ लेते हैं। संभव है इसलिए अष्टमी, चतुर्दशी, प्रतिपदा इत्यादि के दिन श्री वीरसेन भगवान ने सिद्धांत ग्रंथों के पढ़ने का निषेध किया है। हम यह नहीं करते हुए बंदर के समान गाल भर लेते हैं। बंदर इसलिए भर लेता है कि आप लोग ले न लें। फिर बंदर एकांत में जाकर उसको निकाल कर खा लेता है और आप लोग क्या करते हैं? कल और सुन लेंगे, क्या बात हो गई? पर ध्यान रखो, उसका कुछ भी पाचन नहीं होगा। उसके प्रति बहुमान, उसके प्रति विनय, उसके लिए कुछ काल अपेक्षित है। कोई भी एक वस्तु को ग्रहण करते हैं, तो उसके बाद ग्रहीत वस्तु का चिंतन करना आवश्यक होता है। और फिर धारणा बनाओ, फिर आगे बढ़ो।" 

     

    धन्य है! आचार्यश्रीजी को, जो आगम में कथित निषेध प्रकरणानुसार ही सिद्धांत ग्रंथों की वाचना करते हैं। उनकी कथनी एवं करनी में साम्य है।वह उपदेश में जो आगम का कथन करते हैं, उसका तो हू ब-हू परिपालन करते ही करते हैं, साथ ही साथ स्वाध्याय के दौरान जिन विषयों की मात्र अनुभूति होती है, पर जिन्हें अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, उनके परिपालन के प्रति भी वह सजग -सतर्क रहते हुए अपने आचारों का पालन स्वयं करते हैं एवं शिष्यों को भी करवाते हैं।

     

    ज्ञानसिद्धि सोपान : विनयाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    सुपर्यंकार्द्ध...........................विनयो मतः ॥१६६२-१६६३॥

    मुनि लोग जो पर्यंकासन, अर्द्धपर्यंकासन, वीरासन आदि में से कोई एक आसन लगाकर, हाथों को शुद्धकर, सिद्धांत सूत्रों को ही नमस्कार कर तथा उन्हीं को हृदय में विराजमान कर मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक जो सूत्र वा सूत्र के अर्थको पढ़ते हैं, उसको ज्ञान का विनय वा विनयाचार कहते हैं। 

     

    * विद्यावाणी *

     

    image-005.pngसम्यग्दर्शन के आठ अंगों के बारे में तो चर्चा बहुत हो जाती है, पर सम्यग्ज्ञान के आठ अंग हैं तथा उनके लक्षण, परिभाषा, भेद आदि किसी को नहीं मालूम। उसमें एक विनयाचार भी है। अधिक शास्त्र होने से आज विनय में कमी आती जा रही है। बहुमान नहीं रख  पाते हैं। उन्हें कहीं भी रख देते हैं, कैसे भी उठा लेते हैं। ऐसा होता हुआ देखते हैं, तो मन में खेद खिन्नता हो जाती है।

    शास्त्र कम मात्रा में होने से अध्ययन परिश्रम से होता है। उसकी विनय भी बनी रहती है। पढ़ना इतना आवश्यक नहीं, जितना आचरण होना चाहिए। वे पार्सल से आए, कैसे पटके गए, कैसे रखे गए हैं? यह सब विनय नहीं है। 

    शास्त्र जिस स्थान से लाते हैं, उसी स्थान पर रखना चाहिए।जैसे श्रीजी को वेदी से उठाते हैं,थाली में रखते हैं, अभिषेक आदि करके पुनः विराजमान कर देते हैं। बीच में और कोई बातें आदि नहीं करते हैं। ये विनय है। कम से कम ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी, त्यागी, तपस्वियों को तो इस ढंग से रखना, उठाना चाहिए।

    पात्र का महत्त्व समझो- जिस किसी को भी नहीं पढ़ना चाहिए। इससे भी जिनवाणी का अनादर होता है। पात्र को ही पढ़ना चाहिए।और पात्र को ही पढ़ाना चाहिए। यदि योग्यता नहीं है, तो नहीं पढ़ाना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जीव विद्या का दुरुपयोग नहीं करता है। इसीलिए पात्रता को देख शुद्धि और विशुद्धि दोनों के साथ आर्षप्रणीत ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। जो विनयशील हो, ग्रहण करने की योग्यता रखता हो, हमारी बात समझने की पात्रता जिसमें हो, उसे ही विद्या का दान करना चाहिए। विनयहीन को शिक्षा देना व्यर्थ है। वह अकीर्ति का कारण बनेगा।

     

    image-006.png* विद्याप्रसंग *

    ज्ञान विनयी 

    ८ जून, २०१८, पपौराजी (टीकमगढ़) म.प्र. में गर्मी अपनी चरम सीमा पर नृत्य कर रही थी। आचार्यश्रीजी एवं संघ के प्रायःकर अधिकांश साधु पुरानी चौबीसी में विराजमान थे। चौबीसी के बीच चौक में एक मुख्य मंदिर है, उसके चारों तरफ़ दहलान, और दहलान में दीवाल की ओर से पंक्तिबद्ध मढ़िया रूप में बनी चौबीस वेदियाँ हैं। इस समय जीर्णोद्धार का कार्य चलने से वेदियों में श्रीजी विराजमान नहीं थे। मुख्य मंदिर के दाहिनी ओर की खुली दहलान में आचार्य भगवन् विराजमान थे। शेष तीनों तरफ़ की दहलान में अन्य साधुओं के आसन लगे हुए थे। किन्हीं-किन्हीं मुनिराजों  के वेदी के भीतर भी स्थान थे। आचार्यश्रीजी को अपने स्थान से अन्यत्र कहीं जाना होता, तो इन दहलानों से निकलना होता। निकलते समय उनके दोनों हाथ में पिच्छी ऐसे झूलती जैसे देव वंदना के समय उठी रहती है। मस्तक भी नम्रीभूत रहता। एक दिन यह दृश्य जब टीकमगढ़ की बहन ब्र. अनीता दीदी ने देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वेदियों में भगवान् नहीं, फिर भी देववंदनावत् गुरुजी की मुद्रा क्यों ? सो पूछ बैठी वहीं उपस्थित मुनि श्री नीरोगसागरजी से- 'महाराजश्रीजी! वेदी में भगवान् भी नहीं, फिर भी आचार्यश्रीजी ढोक देते हुए यहाँ से निकल रहे हैं, आखिर क्यों ?' महाराजश्रीजी बोले- 'अरे! अर्हत् प्रभु को नहीं, हम लोगों के बाजोटे पर जो माँ जिनवाणी विराजमान हैं, उन्हें ढोक देते हुए निकलते हैं गुरुवर।' यह सुनकर उनका हृदय आश्चर्य एवं आनंद से भर गया। उसने पूछा- 'जब-जब निकलते, तब तब हमेशा?' वह बोले- 'हाँ, हमेशा। जब कभी भी वह शास्त्रों के सामने से निकलते हैं, तब वह पिच्छी हाथ में लेकर ढोक देते हुए ही निकलते हैं।' गुरुजी के निकलने पर सारे साधु हाथ में पिच्छी लिए गुरुजी की विनय हेतु नमोऽस्तु मुद्रा में खड़े थे और गुरुजी माँ जिनवाणी की विनय हेतु नमोऽस्तु मुद्रा में गमन कर रहे थे। उस समय बड़ा ही हृदयहारी दृश्य था। इसे देखकर लगा कि कितनी ज्ञानविनय अंतस् में समाई होगी, तब कहीं बाह्य में इस प्रकार से प्रस्फुटित हो जाती है। निश्चित ही गुरुवर की ज्ञानविनय केवलज्ञान प्रकटाने में शीघ्र ही साक्षात् कारण बनेगी।

     

    श्रेष्ठमति का हेतु : उपधानाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    आचाम्लनिर्विकृताद्यैः............. स्मृतो महान् ॥१६६४-१६६५॥

    शास्त्रज्ञान की उत्कट इच्छा रखने वाले मुनि ग्रंथ की समाप्ति तक केवल भात मिला माड़ खाने का निर्विकृति (विकार रहित पौष्टिक रहित) आहार ग्रहण करने का वा पक्वान्न रस को त्याग करने का जो नियम लेते हैं और ऐसा नियम लेकर अपनी आत्मा का कल्याण करने के लिए आग्रह पूर्वक जो सिद्धांतों का पठन-पाठन करते हैं, उसको ज्ञान का उपधान नाम का आचार कहते हैं।

     

    * विद्यावाणी *

    उपधानाचार विनय में किसी वस्तु का त्याग अथवा कोई नियम लिया जाता है।

    स्वाध्याय काल में अर्थात् ग्रंथ के पूर्ण होने तक इष्ट वस्तु का त्याग करना चाहिए। इससे ज्ञान में वृद्धि होती है। किन्तु त्याग मन से करना चाहिए।

    रटें नहीं, अर्थ खोलते-खोलते पढ़ें तो याद हो जाएगा। आज सेल्फ रीडिंग हो गई है, तो खूब सारी किताबें छपने लगीं। याद करने की आज बात रही नहीं।

    रत्नकरण्डक श्रावकाचार, मूलाचार, कुन्दकुन्द भारती जीवित रहे। मूल को सुरक्षित रखना है। पहले आम्नाय के माध्यम से सुरक्षित रखते थे। आचार्यों की गाथा को हृदय में स्थान देना चाहिए। उसमें बहुत विशुद्धि घुली होती है।

    मूल बीज सुरक्षित रखें- जैसे, किसान बीज को बचाए रखता है, वैसे ही हमें आचार्यों के मूल ग्रंथ बचाए रखना चाहिए । यहाँ-वहाँ के सम्पादित ग्रंथ नहीं पढ़ना चाहिए। शास्त्र परिवर्तन से दोष आ जाते हैं। आज भारत का मूल बीज प्रायः समाप्त होता चला जा रहा है, विदेशी आता जा रहा है। शैथिल्य (शिथिलता) अलग वस्तु है और शास्त्र का परिवर्तन अलग वस्तु है। आज घर घर डॉक्टर बन रहे (सम्पादक) हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए, वरना रोग कभी ठीक नहीं होगा।

     

    * विद्याप्रसंग *

    जिनवाणीआराधक 

    सन् १९९७, सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर (देवास) म.प्र. का प्रसंग है। कई वर्षों के अंतराल के बाद आचार्यश्रीजी ने संघ के लिए षट्खण्डागम-धवला पुस्तक-४ की कक्षा लगाने का मन बनाया।और अपनी यह भावना संघ के समक्ष रखी। image-007.pngइसे सुनकर संघस्थ ब्रह्मचारी भाइयों ने उत्साह व्यक्त करते हुए कहा 'आचार्यश्रीजी हम लोगों को भी आपके मुखारविंद से धवला ग्रंथों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। तब आचार्यश्रीजी बोले- 'नहीं, षट्खण्डागम-धवला पुस्तक-९ में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि का वर्णन आया है। अतः हमें ग्रंथों का बहुमान रखना चाहिए। जब तक आरंभ-परिग्रह के त्यागी नहीं बनते, तब तक इन ग्रंथों का पठन नहीं करना चाहिए। आप लोग अभी ग्रंथ पढ़ने के योग्य नहीं हो, इसलिए मैं कक्षा में बैठने की अनुमति नहीं दे सकता। हाँ! यदि आरंभ परिग्रह त्याग कर दशवीं प्रतिमा का संकल्प ले लें, तो बैठ सकते हैं।

    श्रावण कृष्ण प्रतिपदा-वीर शासन जयंती  के दिन कतिकर्म पूर्वक बड़े ही बहुमान के साथ षट् खण्डागम- धवला पुस्तक-४ की कक्षा प्रारंभ होने से पूर्व आचार्यश्रीजी ने कहा- 'सिद्धांत ग्रंथों का जब भी अध्ययन करो, तो कोई विशेष संकल्प अथवा कोई इष्ट वस्तु का त्याग करके ही करना चाहिए।' तब क्षुल्लक श्री प्रज्ञासागरजी (वर्तमान में मुनि श्री अजितसागरजी) ने सेवफल का त्याग किया। अन्य महाराजों ने भी इष्ट वस्तु के त्याग का संकल्प लिया। आचार्यश्रीजी ने भी कोई न कोई संकल्प अवश्य ही लिया होगा, पर वह अपने विषय में कुछ भी image-008.pngबताते कहाँ हैं, सो अज्ञात ही रहा। और ब्रह्मचारी भाई रजनीशजी (वर्तमान मुनि श्री संभवसागरजी), ब्र. भाई अजयकुमारजी (मुनि श्री प्रभातसागरजी), ब्र. भाई सर्वेशजी (मुनि श्री प्रणम्यसागरजी), ब्र. भाई अजितजी (मुनि श्री प्रसादसागरजी) आदि ने आरंभ-परिग्रह त्याग कर अनुमति त्याग' रूप दशवी प्रतिमा का संकल्प लेकर कक्षा में बैठने की योग्यता प्राप्त की। इस तरह आचार्यश्रीजी के द्वारा कराए गए उपधानाचार पूर्वक सिद्धांत ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन की कक्षा शुरू हो गई, तब से अब तक संघ में षट्खण्डागम-धवला, कषायपाहुड-जयधवला, महाबंध-महाधवला की कक्षाएँ अनवरत चलती रहती हैं । उपधानाचार का ही फल समझा जाए कि इन ब्रह्मचारी भाइयों के ऊपर ऐसी गुरुकृपा हुई जिससे आचार्य श्री जी ने सिद्धोदय तीर्थ नेमावर में एक माह में ही ९ अगस्त, १९९७, श्रावण शुक्ल षष्ठी के दिन क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की।

     

    धन्य है! जिनवाणी के आराधक गुरुवर, जो आगम में कथित स्वाध्याय पद्धति का पूर्णतः पालन स्वयं करते और करवाते हैं।

     

    गुणकीर्तन का उपाय : बहुमानाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    अङ्गपूर्वश्रुतादीना................ लभेत सः ॥१६६६-१६६७॥

    अंग पूर्व और अन्य शास्त्रों का सूत्र अर्थ जैसा है उसी प्रकार जो वाणी से उच्चारण करते हैं, उसी प्रकार दूसरों के लिए प्रतिपादन करते हैं । यह सब पठन-पाठन केवल कर्मों के क्षय के लिए करते हैं तथा अभिमान से आचार्य,शास्त्र वा किसी योगी का कभी तिरस्कार नहीं करते उसको बहुमान नाम का ज्ञानाचार कहते हैं।

     

    * विद्यावाणी *

    • कालाचार आदि अष्टांग युक्त जिनवाणी का बहुमान होता है, तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता। 
    • ज्ञान का दुरुपयोग पाप को लाने वाला होता है। ज्ञान के द्वारा पुण्य होना चाहिए। उससे कर्म की निर्जरा होनी चाहिए। एक-एक क्षण मोक्षमार्ग में ही लगाना चाहिए। पसीना बहा-बहा करके एक-एक क्षण की साधना की, तो उसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। यह बीज है। उसे अच्छी तरह बोना चाहिए। ऐसे बीज बोओ कि हजार गुणित फल आए, भटकन मिट जाए। ज्ञान का बहुमान यही है।
    • जिनवाणी को रेवड़ी की तरह बाँटना नहीं है। आज यही हो रहा है। यह बाँटने की चीज है ही नहीं। इसके प्रति आप बहुमान नहीं रखेंगे, तो यह गलत हो जाएगा।आप इसका बहुमान करो।
    • जिनवाणी का क्या गौरव होना चाहिए? उसे कैसे रखें, उठाएँ-इसका ख्याल रखना चाहिए।
    • शास्त्रों को यदि पवित्र मन से छूते हैं, तो अलग प्रकार की अनुभूति-संवेदना होती है। वही एक बात आचार्यों ने बता दी कि जिनवाणी की उपासना करने से हमें सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि होती है।
    • ऐसे करो माँ का बहुमान- लोग जब धुले हुए साफ़ सुथरे अच्छे कपड़े पहनकर आ जाते हैं, तो कैसे बैठते हैं? मालूम है आपको? उनके बैठने में आदान-निक्षेपण समिति (बैठने से पूर्व मार्जन करना) आ जाती है, भीतरी जेब में रखी हुई रूमाल, एक प्रकार से पिच्छी का काम करने लग जाती है। उस समय हम सोचते हैं कि भैया! यह कौन से मुनि महाराज आ गए। कैसी आदान निक्षेपण समिति चल रही है? यदि रूमाल नहीं है उनके पास, तो फंक ही मारते हैं, और ऐसे बैठ जाते हैं जैसे बिल्कुल ठीक आसन लगाकर प्राणायाम होने वाला हो। ऐसे कैसे बैठ गए? कौन सी आसन है? आसन-वासन कुछ नहीं वह, किन्तु वसन गन्दी न हो, इसलिए ऐसा बैठते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्ति करते समय जरा सोचो तो बंधुओ! इससे किसकी रक्षा हो रही है? वस्त्र की या जीवों की? जब वस्त्रों की रक्षा आप इतने अच्छे ढंग से करते हैं, तब जिनवाणी की रक्षा किस प्रकार करना चाहिए? आचार्यों ने कहा है- उसको नीचे मत रखो।उसे कहीं ऊँचे स्थान पर रखो। उसके प्रति आदर से खड़े होओ।

     

    * विद्याप्रसंग *

    अनोखा दृश्य 

    आचार्यश्रीजी द्वारा संघ में सामूहिक कक्षा के रूप में अध्ययन-अध्यापन का कार्य अनवरत चलता रहता है। सामूहिक कक्षा के लिए एक उचित स्थल नियत होता है। आचार्यश्रीजी सिंहासन पर विराजकर कक्षा नहीं लगाते । कक्षा के समय वह एक सामान्य तख़्त पर विराजमान हो जाते एवं उनके तीनों ओर भूमि पर एक-डेढ़ इंच ऊँचे पाटे रखे होते हैं जिन पर शिष्यगण image-009.pngविराजमान होते हैं। कक्षा प्रारंभ होने से कुछ समय पूर्व कोई एक मुनि महाराज आचार्यश्रीजी के कक्ष में जाकर जिस ग्रंथ की कक्षा चल रही होती है, उस ग्रंथ को आचार्यश्रीजी जिस पुस्तक से पढ़ रहे होते हैं, उसे लाकर कक्षा स्थल में स्थित आचार्यश्रीजी के बाजौटे पर रख देते हैं। प्रतिदिन का यही क्रम रहता है।

     

    ३ अप्रैल, २००५, कुण्डलपुर (दमोह) मध्य प्रदेश ग्रीष्मकालीन वाचना के समय मध्याह्न में मूलाचार ग्रंथ की कक्षा चल रही थी। जैसे ही कक्षा का समय हुआ कि संघस्थ ५२ साधु अपनी-अपनी पुस्तक हाथ में लिए विद्यार्थी की तरह कक्षा स्थल में आकर आचार्यश्रीजी की प्रतीक्षा में खड़े थे। तभी देखा कि ज्ञान साधना' संज्ञक संत निवास में बड़े बाबा छाया' नामक कक्ष से निकलते हुए आचार्य महाराज स्वयं ही एक हाथ में अपना ग्रंथ लिए और दूसरे हाथ में पिच्छी लिए हुए एक आकर्षक विद्यार्थी के रूप में चले आ रहे हैं। यह देखकर सभी महाराज आपस में एक-दूसरे को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगे कि क्या आज कोई भी आचार्यश्रीजी के ग्रंथ को लाने नहीं पहुँचा और सभी अपने आप में लज्जा का अनुभव करने लगे। परंतु आचार्य भगवन् इन सभी विकल्पों से परे, प्रसन्न मुद्रा में,प्रतिदिन की भाँति आज भी उत्साह पूर्वक आकर अपने स्थान पर आसीन हो गए। 

     

    धन्य है आचार्य भगवन् को! कक्षा के समय उनका उत्साह, उनके चेहरे का तेज कुछ अलग ही रहता है। कितने भी अस्वस्थ्य अवस्था से क्यों न उठे हों, पर कक्षा में उनका रूप कुछ अलग ही आकर्षक होता है।आचार्यश्रीजी के इस अनोखे दृश्य ने उनके शिष्यों के लिए सरलता, सहजता, कर्त्तव्य परायणता एवं जिनवाणी के प्रति बहुमान की एक अमिट छाप छोड़ दी। 

     

    परम कल्याण साधक : अनिह्नवाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    सामान्यादि.............सर्वोऽप्यनिह्नवाचार उच्यते ॥५२

    कोई अभिमानी पुरुष किसी उत्तम शास्त्र को किसी सामान्य मुनि से पढ़कर यह कहे कि मैंने तो यह शास्त्र अमुक महर्षि से पढ़ा है अथवा किसी उत्तम शास्त्र को किसी निग्रंथ मुनि के समीप पढ़कर यह कहे कि मैंने तो यह शास्त्र अमुक मिथ्या साधु से, कुलिंगी से पढ़ा है अथवा पढ़े हुए शास्त्र के लिए भी यह कहे कि मैंने यह शास्त्र नहीं पढ़ा है अथवा नहीं सुना है अथवा मैं इसको नहीं जानता इस प्रकार जो मूर्ख लोग कहते हैं उसको निह्नव कहते हैं। इस निह्नव दोष का त्याग कर आचार्य आदि योगियों की, गुरु की, उपाध्याय की, शास्त्रों की और सुनने व पढ़ने की प्रसिद्धि करना लोक में आचार्य, गुरु, उपाध्याय आदि के गुण प्रकाशित करना मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों के अनिह्नवाचार कहलाता है।

     

    * विद्यावाणी *

    • जिस ग्रंथ का अध्ययन किया जाता है उसके प्रति बहुमान रखना। जिनसे पढ़ता है, जिनसे सुनता है, उनका नाम बता देना उसको छुपाना नहीं। उनकी पूजा, उनका गुणस्तवन इत्यादि करना। बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। बिल्कुल ऐसा पढ़ाते हैं कि क्या बताएँ? हमें पढ़ना नहीं आता था, इनसे बहुत बड़ी पढ़ाई कर ली तभी अब आज तत्त्वनिष्ठ हो गए हैं। ऐसा उनका गुणानुवाद करना, अनिह्नवाचार है।हमारा नहीं, गुरुदेव का है, मात्र ऐसा कहना भी पर्याप्त है।
    • हमने बहुत परिश्रम किया, तब ज्ञान हो पाया। वो कम बताते थे, लेकिन हम तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे। हमारी प्रतिभा जन्मजात थी और हमने इसको यूँ पकड़ा कि बस...बहुत मेहनत की है, तब ज्ञान हुआ है। कई बार हम ही उनकी शंका का समाधान कर देते थे। ऐसा कहना उल्टा काम है। यह निह्नव नामक दोष है। निह्नव कर देंगे, तो गड़बड़ जो जाएगा। परंपरा टूट जाएगी।
    • जैसे कोई मुनि पहले अच्छे से पढ़ाते हों और बाद में यदि वो भ्रष्ट या किसी गलत मार्ग या यद्वा-तद्वा आचरण करने लग जाएँ, तो उसका नाम नहीं लेना चाहिए। यदि हम उनका नाम लेते हैं तो जिनवाणी के बारे में और आपके आचरण के बारे में भी प्रश्नचिह्न लगने लगते हैं । इसलिए ऐसे नाम नहीं लेना चाहिए।
    • किससे क्या सुनना चाहिए, किससे क्या पढ़ना चाहिए, यह विवेक होना चाहिए। जिस किसी से मोक्षमार्ग संबंधी बातें नहीं सीखते। इसलिए गुरु बनाए जाते हैं। आज ऋद्धि-सिद्धि, तपों में वृद्धि होनी चाहिए, पर नहीं हो रही है। मतलब कहीं न कहीं विशुद्धि में, गुरु की विनय में कमी है।" 

     

    * विद्याप्रसंग *

    अनिह्नवाचार गुण बताऊँ कैसे 

    अनिवाचार का 'विद्याप्रसंग' लिखने का जब अवसर आया, तब ऐसा लगा कि जिसका रोम रोम, कण-कण अनिह्नवाचारी हो, गुरु के परोक्ष (समाधिस्थ) हो जाने पर भी जो स्वयं के द्वारा किए जाने वाले हित संपादनों के पीछे अपने गुरु का ही हाथ मानते हों। जब कभी भी कोई उनकी प्रशंसा करे या उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे, तब वह तुरंत ही इस सबका श्रेय image-010.pngअपने गुरु को देते हुए कहते हैं- इसमें मेरा कुछ भी नहीं, सब कुछ गुरु महाराज का ही है। वह जो बताकर गए हैं, वही तो मैं कर रहा हूँ। यह सब कुछ वही तो करा रहे हैं। वो हमें दिशा निर्देश देते रहते हैं,हर क्षण मेरे साथ रहते हैं। वो कहीं गए ही नहीं। आज्ञा रूप में, शिक्षा रूप में हमेशा-हमेशा हमारे साथ हैं।' इस तरह जो पल-पल, पग-पग पर अपने गुरु को स्मरण करते हों, उनके प्रसंगों को यदि लिखा जाएगा, तो एक स्वतंत्र शास्त्र तैयार हो जाएगा। ऐसे समर्पण एवं कृतज्ञता से भरे हुए व्यक्तित्व के अनिवाचारत्व के विषय में क्या लिखा जाए? कितना लिखा जाए? कैसे बताया जाए? असंभव ही है। पाठक भी अब तक के पठित चरित्र में समय-समय पर आचार्यश्रीजी के मुख से कथित गुरु उपकारों से परिचित हुए हैं। यहाँ उपलक्षणभूत कुछे के प्रसंग प्रस्तुत हैं- 

     

    गुरु उपकार गाऊँ कैसे 

    १२ जून, १९८०, गुरुवार, सागर, म.प्र. में दादा गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के समाधि दिवस ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन श्रद्धांजलि के अवसर पर आचार्यश्रीजी का अनिह्नवाचार गुण स्पष्टतः परिलक्षित हुआ था। उन्होंने कहा- 'पूर्व भव का संस्कार या संयोग ही समझना चाहिए कि मैं हिन्दी तथा संस्कृत-प्राकृत के ज्ञान से शून्य अवस्था में, दूर देश कन्नड़ प्रांत से पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के संपर्क में आ पहुँचा। और उन्होंने सिर्फ पाँच वर्ष में मुझे जैन सिद्धांत, व्याकरण, न्याय तथा साहित्य का अध्ययन करा दिया। अध्ययन ही नहीं कराया, किंतु संसार सागर से पार करने वाली दैगंबरी दीक्षा भी प्रदान की। उन्होंने मेरे प्रति महान् उपकार किया है। किन शब्दों में उनका उपकार प्रकट करूँ? प्रकट करने की मुझमें क्षमता नहीं है।

     

    'गुरु आपकी कृपा से सब काम हो रहा है, करते हैं मेरे गुरुवर मेरा नाम हो रहा है', ऐसे भावों से भरे आचार्यश्रीजी के अनिह्नवाचार को देखकर ऐसा लगता है कि जिस तरह सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में आठ व्यक्ति प्रसिद्ध हुए हैं, वैसे ही आगामी तीर्थंकरों की वाणी में भरत क्षेत्र के पंचम काल के ज्ञानाचार के अंग अनिह्नवाचार' गुणधारी में आचार्यश्रीजी का नाम प्रसिद्धी को प्राप्त होगा। धन्य है! धन्य है!!

     

    वही सिखाता हूँ, जो मेरे गुरु ने मुझे सिखाया 

    एक बार विहार के दौरान आचार्यश्रीजी के पैर के अंगूठे में चोट आ गई। और खून बहने लगा। सभी ने आचार्यश्रीजी को image-011.pngठहरने का निवेदन किया। उसी समय एक आर्यिका संघ को आचार्य भगवन् के दशना का लाभ प्राप्त हुआ। उन्हान भा ठहरन का बहुत बहुत बार विनम्र निवेदन किया। पर मोक्षपथ के अथक राही बीच राह में ठहर भी कैसे सकते थे, सो जाकर मुकाम पर ही विश्राम किया। आर्यिकाजी ने गुरुवर से कहा 'भगवन्! विहार के दौरान अँगूठे में इतनी चोट आ जाने पर निवेदन किया, फिर भी आप ठहरे नहीं। नदी की प्रवाह की । तरह अबाधगति से चलते ही रहे। यह देखकर हमें बहुत दुःख हो रहा था।'

     

    अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ गुरुदेव । बोले- 'यदि मैं रुक जाता, तो असंख्यातगुणी निर्जरा का ।लाभ एवं तृण परीषह, चर्या परीषह विजय करने का सुअवसर नहीं मिल पाता। और फिर अभी तक वचनों के द्वारा उपदेश दिया है, कुछ ‘प्रवृत्तिमूलक शिक्षा भी होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं करूँगा. तो अधूरा निर्देशन, अधूरा उपदेश एवं अधूरी शिक्षा कहलाएगी। मेरे गुरुदेव ने भी मुझे ऐसा ही सिखाया है। जो भी मिला है, उन्हीं से मिला है। उन्होंने यही कहा कि आपको मिला है, आप भी बाँटते जाओ।' जिन्होंने मुझे बालक अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा से ही पढ़ाया है,वो तो परम उपकारी हैं। 

     

    स्वाध्याय की पृष्ठ भूमि : व्यंजनाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    अक्षरस्वरमात्राद्यैर्यच्छुद्धं............. व्यंजनाचार एव सः॥

    चतुर पुरुष गुरु के उपदेश के अनुसार जो अक्षर, स्वर ,मात्राओं का शुद्ध उच्चारण करते हैं उसको व्यंजनाचार कहते हैं।

     

    * विद्यावाणी *

    • मोक्षमार्ग में पदार्थ की ओर दृष्टि बाद में जाती है। सर्वप्रथम शब्द की ओर दृष्टि जाती है, क्योंकि जिस शब्द के द्वारा अर्थ प्ररूपित होने वाला है, जिसको वाच्य बोलते हैं, वाचक के बिना नहीं हो सकता और वाचक यानी शब्द है। तो शब्दरूप नय, अर्थरूप नय, और भाव यानी ज्ञानरूप नय-ये तीन नय कम से कम अपने पास होना चाहिए।
    • भाव प्रत्यय की ओर यात्रा तब होती, जब हमारा अर्थ प्रत्यय मजबूत होता है। और अर्थ प्रत्यय हमारा यदि मजबूत है, तो निश्चित है कि हमारा शब्द प्रत्यय मजबूत है।
    • इस शब्द का संबंध इस वाले वाच्यभूत जो पदार्थ हैं, उससे है। यह निर्णय जब तक हम सही नहीं लेते, तब तक भाव प्रत्यय की ओर हमारी गति नहीं होगी।
    • वस्तुतः वाच्य-वाचक संबंध एक घनिष्ठ संबंध है। इस संबंध के मर्म को आप लोगों को पहले समझना चाहिए। क्योंकि शास्त्रों में आपको शब्द मात्र मिलेंगे।शब्दों के कर्ता किस रूप में लिख रहे हैं, ये हम शब्दों के माध्यम से ही समझ सकते हैं।

     

    image-012.png* विद्याप्रसंग *

    व्यंजनाचार में ढला जीवन 

    सन् १९८१, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी पहाड़ के मंदिर में ही शयन करते थे। वह प्रतिदिन प्रातः सामायिक के पश्चात् उच्चारण पूर्वक 'स्वयंभूस्तोत्र' का पाठ करते थे। उनका उच्चारण इतना स्पष्ट एवं सुमधुर होता था कि वहाँ से आने-जाने वालों को उनके मुख से उच्चरित होने वाले पाठ का एक-एक अक्षर, पद, वाक्य, यति, छंद आदि का पूर्ण बोध हो जाता था। अतः संघ में आई हुईं, नई-नई, छोटी-छोटी ब्रह्मचारिणी बहनें- कमला दीदी, गीतमाला दीदी, जयंती दीदी आदि चुपके से दूर जाकर स्वयंभूस्तोत्र' का उच्चारण गुरुमुख से सुनने हेतु बैठ जातीं। एक दिन गुरुवर ने पिपासु की भाँति बैठी हुईं इन बहनों को देखकर अपने पाठ की गति थोड़ी और धीमी कर ली एवं स्वर हल्का-सा बढ़ा दिया। इससे बहनों का उत्साह बढ़ गया और उन्होंने एक दिन पाठ की पुस्तक 'धर्मध्यान दीपक' प्राप्त कर ली। पाठ के समय पहुँचना और गुरुमुख से 'स्वयंभूस्तोत्र' का उच्चारण पुस्तक में मिला-मिलाकर सीखना, यह उनका रोज़ का क्रम हो गया। और इन पुण्यशाली बहनों को गुरुमुख से पाठ उच्चारण सीखने का परम सौभाग्य मिला।

     

    धन्य है व्यंजनाचार धारी आचार्य भगवन्! जिनके विषय में जो भी कहा जाए, जितना भी कहा जाए, वह सब अलौकिक-सा ही लगता है।आश्चर्य होता है यह देखकर कि प्रतिदिन किए जाने वाले पाठ को भी वह इतनी धीमी-धीमी गति से, सुस्पष्ट रीति से, मंद-मंद, मधुर स्वर में पूर्णतः व्यंजनाचार पूर्वक पढ़ते हैं कि सुनने वालों ने शुद्ध उच्चारण तक सीख लिया! व्यंजनाचार का इतने सूक्ष्म ढंग से पालन करने वाले यतियों में आचार्य भगवन् महा यतिराज हैं ।

     

    ढालते व्यंजनाचार में 

    आचार्यश्रीजी की संस्कृत प्रौढ़ है। जहाँ वह स्वयं एकदम शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण करते हैं, वहीं वह अपने शिष्यों को भी न केवल इसकी प्रेरणा देते है, अपितु उन्हें शुद्ध उच्चारण करना भी सिखाते हैं। साथ-ही-साथ अक्षर, पद, वाक्य, छंद, यति, image-013.pngविराम आदि का ज्ञान भी प्रदान करते हैं। सन् १९९७, सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट (खण्डवा) म.प्र. ग्रीष्मकालीन प्रवास के दौरान संघ में परीक्षामुख' ग्रंथ का स्वाध्याय आरंभ हुआ। उस समय संघ में नए-नए क्षुल्लकजी महाराज थे। इन क्षुल्लक महाराजों के लिए आचार्यश्रीजी स्वयं अलग से 'परीक्षामुख' ग्रंथ के सूत्रों का शुद्ध उच्चारण सिखाते थे। अगले दिन सभी से सारे सूत्रों का पाठ करने को कहते। जब सही उच्चारण नहीं होता, तो पुनः स्वयं उच्चारण करके शुद्ध उच्चारण करवाते थे। फिर अगला सूत्र पढ़ाते थे।

     

    धन्य है व्यंजनाचार का पालन कराने वाले आचार्य भगवन्! जिनकी अध्यापन कराने की कला ही अनौखी है।

     

    भावप्रत्यय प्राप्तिकारक : अर्थाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    अर्थेनात्र विशुद्धं............सोर्थाचाराश्रुतस्य वै॥

    अर्थ से अत्यंत सुशोभित शास्त्रों का शुद्ध अर्थ पढ़ना और शुद्ध ही अर्थ पढ़ाना ज्ञान का अर्थाचार कहलाता है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • जो व्यक्ति आशय नहीं समझता, वह भावार्थ नहीं निकाल सकता।और जिस व्यक्ति ने भावार्थ को पकड़ने का प्रयास नहीं किया, वह कभी भी अर्थ प्रत्यय को प्राप्त नहीं कर सकता। और जो अर्थ प्रत्यय को प्राप्त नहीं कर सकता, तो वो भाव प्रत्यय को भी प्राप्त नहीं कर सकता।
    • जब तक अर्थ सुनिश्चित नहीं होता, तब तक भटकन होती है।
    • आगमार्थ को जिसने आत्मसात् किया, वह व्यक्ति आगम के अनुसार ही अर्थ निकालेगा।और जिसको आगम का भाव ज्ञात नहीं, केवल छहढाला' पढ़ करके करने लग जाए, तो वो काम कभी भी नहीं बना सकेगा।
    • मैं तो एक-एक शब्द का अर्थ चाहूँगा। चोटी के विद्वानों को लेकर के आएँ। आज तो सब कटी चोटी वाले हैं। हम तो व्याकरण से चलेंगे।शब्द नय इसी का नाम है।
    • यदि आस्था नहीं, बहुमान नहीं, हमने जो कह दिया सो कह दिया बस, तो यह गलत बात है। जो टीका लिखी गई है, उसका सही अर्थ तो करो, आचार्यप्रवर श्री जयसेनजी, श्री अमृतचंद्रजी सारे के सारे टीकाकार हैं। यदि उल्टा हो जाए तो आचार्य श्री अमृतचंद्रजी, जयसेनजी के प्रति हमारा क्या बहुमान हुआ? आप समझो। जब हिन्दी सही नहीं आती और संस्कृत के बारे में आप पढ़ो नहीं, तो क्या अर्थ निकलेगा ?
    • जो लिखा अर्थ, वही निकालें- ऊपर कुछ लिखा है, नीचे कुछ अनुवाद किया जा रहा है, तो हम कैसे स्वीकार करेंगे? आज भी ऐसा हो रहा है। ध्यान रखना, वे कुन्दकुन्द की बात तो कहेंगे, लेकिन कुन्दकुन्द की बात व्याख्या में नहीं आएगी।कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रंथों का उद्धरण तो दिया जाएगा, गाथा तो पढ़ी जाएगी, लेकिन हिन्दी किसने की है- इसका कोई पता नहीं चलेगा। वे अंडर-लाइन करके बता देंगे, यह-यह महत्त्वपूर्ण है। पर हमारे लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, (कि ग्रंथ में क्या-क्या महत्त्वपूर्ण है) बल्कि कुन्दकुन्द देव क्या कह रहे हैं, यह जानना महत्त्वपूर्ण है। 

     

    image-014.png* विद्याप्रसंग *

    आगमार्थ के यथार्थ शुद्धग्राही 

    आचार्यश्रीजी की मेधा अद्वितीय है। उनका ज्ञान मँज चुका है, एवं पच चुका है। आगम में कौन-सा शब्द, किस विवक्षा से, किस अर्थ में डाला गया है, उसको वह उसी रूप में अवधारण करते हैं। एक दिन विद्वान् पंडित श्री रतनलालजी बैनाड़ा, आगरा, उत्तरप्रदेश ने गुरुवर के समक्ष एक जिज्ञासा रखी- 'आचार्यश्रीजी! श्रेणी चढ़ने के सम्मुख जो मुनिराज हैं, उन्हें ही द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन होता है। अन्य किसी को नहीं हो सकता, इसका प्रमाण क्या है ?' तब आचार्यश्रीजी बोले- 'कषायपाहुड की जयधवला' पुस्तक - १ में लिखा है कि जो ‘गुणी' श्रेणी चढ़ने के सम्मुख हैं, उसी को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है। परंतु पंडितजी! आपने 'जिनभाषित' पत्रिका में 'गुणी' शब्द के स्थान पर 'मुनि' क्यों लिख दिया ?' गौरतलब है कि पंडितजी जिनभाषित' पत्रिका के सहयोगी संपादक थे, वह बोले- 'जीवकाण्ड, मुख्तारजी' वाले ग्रंथ में, और भी अन्य ग्रंथों में यही आता है कि श्रेणी चढ़ने के सम्मुख जो मुनि होते हैं, उन्हीं के द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है। और मुनि ही तो अंतर्मुहूर्त में श्रेणी चढ़ने के योग्य होते हैं।' तब आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो, आचार्यों ने जो लिखा है, वो ही लिखो।ग्रंथ में तो 'गुणी' लिखा है। आगम के शब्दों को हिलाओ-डुलाओ नहीं, हेर-फेर नहीं करो।अभी अपने पास आगम की एक बूंद है, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के स्वामी के विषय में आचार्यों ने और कुछ भिन्न भी बताया है ? यदि उन्हें मुनि ही कहना होता तो उन्होंने 'गुणी' शब्द क्यों डाला, यह विचारणीय है।

     

    धन्य है! आचार्य भगवन् को, यद्यपि प्रायः मुनि को ही द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का पात्र बताया गया, तथापि गुरुवर्य का अर्थाचार इतना दृढ़ है कि वह 'गुणी' शब्द के विषय में आर्ष आचार्य का क्या अभिप्राय छुपा है, अतः उसे परिवर्तित करने की अनुमति भी नहीं देते।अहोभाग्य! जो ऐसे गुरुवर के शासन में जन्म हुआ।

     

    ज्ञान-विज्ञान का मूल : उभयाचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    अर्थाक्षरविशुद्धं यदधीयते...................... ज्ञानस्य कथ्यते महान्॥

    जो जिनागम को शब्द-अर्थ दोनों से विशुद्ध अध्ययन करता है उसकों विद्वान् लोग ज्ञान का महान् उभयाचार कहते हैं। 

     

    * विद्यावाणी *

    • वाचना से प्रारंभ करते हैं, तो वाचना का अर्थ मात्र पढ़ना नहीं। निर्दोष शब्द व अर्थ दोनों होना चाहिए। 
    • शब्द की यात्रा यदि अर्थ की ओर नहीं जाती है, तो शब्द का कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है।
    • व्यंजन शुद्धि में दोनों हो गए यानी शब्द का भी शुद्ध उच्चारण करना, और अर्थ का भी स्पष्ट रूप से ग्रहण करना। 

     

    * विद्याप्रसंग *

    शब्द-अर्थ के पठन-पाठन में माहिर 

    सन् १९९५, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश, वर्षायोग में आचार्यश्रीजी ने संघ के लिए 'आलाप पद्धति' की कक्षा आरंभ की। आलाप पद्धति' नय का ग्रंथ है। उभयाचार परिपालक आचार्य भगवन् इस ग्रंथ के सूत्रों का सर्वप्रथम उच्चारण करवाते, image-015.pngपहले वे स्वयं बोलते, पश्चात् शिष्यों से बुलवाते। फिर एक एक शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताते जाते कि आचार्यों ने किस शब्द का, किस विवक्षा में क्या अर्थ किया। और हाँ, केवल वह पढ़ाते मात्र नहीं थे, अपितु दादागुरु श्री ज्ञानसागरजी की भाँति कंठस्थ भी करवाते थे। कक्षा प्रारंभ होने से पूर्व शिष्यों से जब तक रोज़ पूरा सूत्र, उसके पारिभाषिक शब्द और शब्दों के अर्थ, सूत्र का शुद्ध उच्चारण आदि सब पूछ न लेते, तब तक अगला पाठ नहीं पढ़ाते थे। यदि कोई शिष्य से पिछला पाठ सुनाने में, सूत्र के उच्चारण अथवा उसका अर्थ सुनाने में कुछ गलती हो जाती, तो वह उसे पुनः उच्चारण करवाकर ठीक करवाते थे। कदाचित् कोई शिष्य यदि याद करके नहीं आता तो कहते, पहले पिछला पाठ अच्छे से याद करो, दोहराओ, फिर आगे का पाठ पढ़ाएँगे। 

    धन्य है! आचार्य भगवन् धन्य है! आपके गुरु ने जिस तरह आपको आगमार्थ का सही-सही बोध कराया, इसी तरह आप भी अपने शिष्यों को तैयार कर रहे हैं। आगम का यथारूप अर्थ ग्रहण करने वाला 

    ही तो सच्चा मोक्ष पथिक है।

     

    मोक्ष का साक्षात्कारण : चारित्राचार

    * अर्हत्वाणी *

     

    प्राणिवधपरिहारेन्द्रियसंयमनप्रवृत्तिश्चारित्राचारः।

    प्राणियों के वध का त्याग करना और इंद्रियों के संयमन-निरोध में प्रवृत्ति होना चारित्राचार है।

     

    * विद्यावाणी *

     

    • image-016.pngपंचाचार में जो आचार आते हैं, उसके साथ चारित्र जुड़ा रहता है। चारित्र वे चरण हैं, जो हमें गंतव्य स्थान तक पहुँचाने में सहायता देते हैं। पूर्ण शक्ति के साथ एक मात्र सुनिश्चित लक्ष्य की ओर जब साधक की गति होती है, तब वह चारित्रवान् कहलाता है।
    • ज्ञान व दर्शन के बिना चारित्र में गति नहीं आती है तो चारित्र के बिना ज्ञान-दर्शन भी पूर्णपने (केवलज्ञान, केवलदर्शनपने) को प्राप्त नहीं हो सकता।
    • ज्ञान नेत्र हैं। नेत्र के बिना लक्ष्य को देखना कठिन है। किंतु पैरों के बिना क्या नेत्र लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ होंगे? कदापि नहीं।अतः सुख प्राप्ति के उपायों में चारित्र का स्थान प्रमुख है।
    • चारित्र में शिथिलता आने पर संयमी की मोक्षमार्ग में शोभा नहीं रहती। छन्द पद्धति तो है अपने यहाँ, किंतु स्वच्छन्दता पद्धति नहीं है।
    • तीनों की (सम्यग्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) एकतापूर्वक मोक्षमार्ग है। बीच में विराम नहीं, स्वल्प विराम भले ही रखा जाता है। अन्यथा छन्द भंग हो जाएगा, मजा नहीं आएगा। इसलिए तीनों में द्वन्द्व समास रखा है, अन्यथा परस्पर में द्वन्द्व छिड़ जाएगा मोक्षमार्ग में। 
    • चारित्राचार कारण व शुद्धानुभूति कार्य- चारित्राचार- पाँच महाव्रत, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति- यह तेरह प्रकार का चारित्र धारण करना। यह तेरह प्रकार का चारित्र कारण है और शुद्धात्मानुभूति कार्य है। जिस प्रकार टेलीविजन में देखने से एक्शन देखकर पूरे भाव समझ में आ जाते हैं, रेडियो में नहीं। उसी प्रकार चारित्र का पालन करने में आत्मा की अनुभूति होती है, मात्र श्रद्धान में नहीं। आत्म-साधना करने वाले मुनिराजों के दर्शन बड़े भाग्य से मिलते हैं। ये दुनियाँ से दूर रहने वाले हैं। ऐसे चारित्रवान् मुनियों के दर्शन मात्र से कर्मों का क्षय हो जाता है। 

     

    * विद्याप्रसंग *

    चलते और चलाते 

    आचार्यश्रीजी शायद ही है कि कभी किसी शिष्य को टोककर शिक्षा देते हों। पहले वह स्वयं चलते, पश्चात् शिष्यों को चलने की शिक्षा स्वयं ही मिल जाती। एक बार आचार्य महाराज संध्या-कालीन प्रतिक्रमण खड़े होकर कर रहे थे। वह खड़े होकर प्रतिक्रमण कभी-कभार ही करते हैं, प्रायःकर बैठकर ही करते हैं। प्रतिक्रमण के उपरांत एक मुनि महाराज ने अवसर पाकर आचार्यश्रीजी से पूछ लिया- आज आप खड़े होकर प्रतिक्रमण कर रहे थे, कोई विशेष बात थी क्या ? आचार्य महाराज हँसकर बोले- 'जब मैं खड़े होकर करूँगा, तभी तो तुम लोगों को सजग होकर प्रतिक्रमण करने की प्रेरणा मिलेगी। बाद में मालूम पड़ा कि संघ में कोई एक मुनिराज दीवार से टिककर प्रतिक्रमण कर रहे थे। गुरुवर ने उन्हें देख लिया था, पर बोले कुछ नहीं और आकर स्वयं खड़े होकर प्रतिक्रमण करने लगे। यह प्रसंग संघ में फैल गया।शिष्यों को सजग, सावधान एवं प्रमाद से रहित होकर प्रतिक्रमण करने की शिक्षा मिल गई।

     

    मूलाचार ही है आचार संहिता 

    ०२ अप्रैल, २००५, दोपहर में मूलाचार की कक्षा कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में चल रही थी। उसमें ९५५वीं गाथा की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'आज वर्तमान में कई समितियाँ, कई महासभाएँ श्रावकों की चल रही हैं। वे आकर कहते हैं कि वर्तमान में जो साधु-साध्वियों को लेकर अपवाद हो रहे हैं, उनकी एक आचार संहिता बनाना चाहिए। परंतु उन श्रावकों को सोचना चाहिए कि इतने महान् आचार्य पहले से 'मूलाचार' के रूप में आचार-संहिता बना कर गए हैं। इसमें इतना स्पष्ट कथन है कि आर्यिकाओं की वसतिका में रहने वाले साधु की दो प्रकार से जुगुप्सा (निंदा) होती है- एक व्यवहार से एवं दूसरी परमार्थ से। लोकापवाद होना व्यवहार निंदा और व्रत भंग होना परमार्थ निंदा। आर्यिकाओं की वसतिका में साधु का रहना, आना-जाना, स्वाध्याय आदि करना अनुचित है। इस प्रकार से अनेक कथन किए गए हैं कि साधुओं को कहाँ रहना, कैसी चर्या करना, आर्यिकाओं के साथ कैसा व्यवहार करना। फिर नई आचार संहिता की क्या आवश्यकता ?'

     

    इसी बीच आचार्यश्रीजी ने एक-दो ऐसे प्रसंग सुनाए जहाँ ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणी को एक साथ बैठ कर ग्रंथ रचना, पठन-पाठन करना, शोध आदि करने का कार्य करते हुए जैनेतरों ने देखा, तो वे उन्हें पति-पत्नी समझ बैठे। ऐसा अपवाद होने के कारण हमेशा मुनि, आर्यिका, ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणियों को अलग-अलग रहना चाहिए। इसी बीच किसी महाराजश्रीजी ने आचार्यश्रीजी से पूछा क्या ‘मूलाचार' ग्रंथ का श्रावकों के बीच स्वाध्याय कर सकते हैं। तब आचार्यश्रीजी ने कहा-वर्तमान में 'समयसार' की तरह 'मूलाचार' के स्वाध्याय का प्रचार-प्रसार भी होना चाहिए।

     

    धन्य हैं कुशल शिष्टाचारी आचार्य भगवन्! जो यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं, न करणीयं न चरणीयं' की उक्ति को स्वयं चरितार्थ करते हुए अपने शिष्यों को भी समय-समय पर इसकी शिक्षा देते रहते हैं। 

     

    महान् कल्पद्रुम : तपाचार"

    * अर्हत्वाणी *

     

    कायक्लेशाद्यनुष्ठानं तप ध्ययनादिक्रिया तपाचारः।

    कायक्लेश आदि तपों का अनुष्ठान करना तप-आचार है।

    इसका वर्णन पूर्व के बाह्य एवं अभ्यंतर तप के पाठों में विस्तार से किया जा चुका है।

     

    स्व सामर्थ्य प्रकाशक : वीर्याचार

    अर्हत्वाणी

     

    अणुगूहियबलविरिओ .......................विरियाचारो त्ति णादव्वा॥४१३॥

    अपने बल एवं वीर्य को न छिपाकर जो मुनि यथोक्त तप में यथास्थान अपनी आत्मा को लगाता है, उसे वीर्याचार जानना चाहिए।

     

    * विद्यावाणी *

    • चारों प्रकार के आचारों की सुरक्षा के लिए वीर्याचार आवश्यक है। ज्ञान-दर्शन में तो अधिक शक्ति खर्च करते हैं और चारित्र एवं तप के लिए तो शक्ति ही नहीं है, ऐसा कहते हैं। अपनी शक्ति सबमें सुनियोजित करना चाहिए। रुचि पैदा करने से भी भीतर से वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम होता रहता है।
    • वीर्यांतराय कर्म के बिना रत्नत्रय में आगे नहीं बढ़ सकते।सावधानी के साथ शक्ति का प्रयोग करो। शक्ति का सही-सही उपयोग करें, तो आत्मानुभूति का लाभ भी प्राप्त हो सकता है।
    • वीर्याचार का महत्त्व निकट भव्य ही समझता है। क्षयोपशम का लाभ मिला है तो काम में ले लो, समय मिला है, पुण्य मिला है, तो चूको नहीं।समयावधि रहते हुए कर लो बस..।
    • वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से शक्ति मिलती है, शरीर मिला है। उसका सही उपयोग नहीं करोगे तो बीमारी आएगी, और फिर पछताना पड़ेगा कि कुछ नहीं किया।
    • थकना नहीं है, करते चले जाओ।काल ही ऐसा है। कठिनाई बहुत है, परंतु आमदनी भी बहुत है। घबड़ाना नहीं, थोड़ा-सा तप और निर्जरा बहुत है।
    • मन रूपी तराजू को संतुलित रखो- ग्रंथराज 'मूलाचार' की वाचना के समय आचार्यश्रीजी ने वीर्यांतराय कर्म के महत्त्व को बताते हुए कहा- बहुत तप करने की भावना होती है, होनी भी चाहिए। पर वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है, तो जल्दी नहीं करना। जैसे गाड़ी हमारी है, सड़क भी अच्छी है पर ड्राइवर सही नहीं है, तो काम गड़बड़ है। लेकिन हमें शक्ति को ढकना भी नहीं चाहिए।मन रूपी तराजू को (पालड़ी को) संतुलित रखना बहुत कठिन होता है।तप करना उतना सही है कि शरीर टूटना नहीं चाहिए। एक दिन तो दिवाली कर लो, फिर दूसरे दिन क्या करोगे? गति रुकना नहीं चाहिए।

     

    * विद्याप्रसंग *

    वन में रहने की चाह 

    वर्तमान के देश, काल (पंचम काल) परिस्थिति, वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम, हीन संहनन आदि के रहते आज साधु चतुर्थकाल की भाँति वन में विचरण नहीं कर पा रहे हैं, जंगलों, गुफाओं में ध्यान नहीं लगा पा रहे हैं। इसकी पीड़ा आचार्यश्रीजी को हमेशा-हमेशा सताती रहती है। यद्यपि इसी भावना के रहते वह जन कोलाहल से दूर तीर्थस्थलों पर, एकांत स्थानों पर ही प्रायः वास करते हैं तथापि समय-समय पर उनकी पीड़ा बाहर प्रकट हो जाती है।

     

    जनवरी, १९९२, आचार्यश्रीजी रामटेक से विहार करते हुए बालाघाट पहुँचे। प्रातःकाल ससंघ उनका शौच क्रिया के लिए नगर से जुड़े फॉरेस्ट एरिया में जाना हुआ। फॉरेस्ट अधिकारी एस. डी. ओ. सोनी साहब के बंगले पर शेर के दो शावक थे। उन्होंने आचार्यश्रीजी के लिए शावकों को दिखाते हुए कहा कि आचार्यश्रीजी आपने श्रावकों को तो उपदेश दिया है, इन image-017.pngशावकों को भी दीजिए। आचार्यश्रीजी के साथ बालाघाट के प्रतिष्ठित नागरिक भी थे। समाज के मंत्रीजी ने इन शावकों पर जब हाथ फेरना चाहा तो शावकों ने मुँह फाड़कर पंजा उठा लिया, लेकिन जब उन्हें आचार्यश्रीजी ने आशीर्वाद के लिए हाथ उठाया तो वे पालतू गाय की भाँति एकदम शांत हो गए। उन शावकों को आशीर्वाद देते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा 'देखो देश-काल की परिस्थिति. वन में स्वतंत्र विचरण करने वाले वनराज भी आज भवन में रह रहे हैं। इसी प्रकार सिंह वृत्ति वाले, वन में रहकर तपस्या करने वाले मुनिराज को भी आज शहरों में रहना पड़ रहा है। भवनों में रहना हमारा स्वभाव नहीं।

     

    भवन में रहकर भी वन में रहने की चाह रखने वाले आचार्य भगवन् धन्य हैं।

     

    साधनाहो बलानुसारी 

    १४ मई, २००५, कुंडलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश की बात है। आचार्य भक्ति के बाद संघस्थ कुछ साधु आचार्यश्रीजी की वैयावृत्ति के निमित्त से उनके पास गए। वहाँ वर्तमान के परिवेश को लेकर कम्प्यूटर से होने वाली बीमारियों की चर्चा चल रही थी। एक महाराजजी ने कहा- 'आचार्यश्रीजी! न तो मैं कम्प्यूटर चलाता, न ही टी.व्ही. देखता, फिर मुझे रीढ़ एवं आँखों में तकलीफ़ क्यों हो रही है?' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'देखो, पढ़ने-लिखने की भी सीमा होनी चाहिए। सुबह से शाम तक पुस्तक पर ही आँखें लगाकर, गर्दन नीचे करके रखोगे तो आँख और रीढ़ खराब होगी ही।' फिर अत्यंत वात्सल्य भरे शब्दों में कहने लगे 'ध्यान रखना । ये आँखें तुम्हारी नहीं, अब मेरी हैं। मैं जैसा कहूँगा, वैसा करना होगा।

     

    'ध्यान-अध्ययन आदि कार्य भी उतना करो जितना बल-वीर्य हो' शिष्यों को इस प्रकार की शिक्षा देने वाले गुरुवर की महिमा क्या, कहाँ तक कहें।

     

    निष्कंप साधक 

    आचार्यश्रीजी कहते हैं कि जिसने मोक्षमार्ग का चयन कर लिया उसके चेहरे पर कभी भी खिन्नता के भाव नजर नहीं आना चाहिए। कैसी भी प्रतिकूल परिस्थिति क्यों न हो, उसमें समता-भाव लाने की सामर्थ्य प्रकट करनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो image-018.pngकि हमारे चेहरे की खिन्नता देख, दूसरा कोई मोक्ष पथ पर आगे बढ़ने के भाव रखने वाला भव्य जीव अपने कदम पीछे कर ले। हमें अपने बल वीर्य का प्रयोग केवल पाँच इन्द्रियों के विजय में ही नहीं, मन को विजय करने में भी लगाना चाहिए। यदि हमने अपने मन को जीत लिया और प्रतिकूलता के समय मन में किसी भी प्रकार की कोई हलचल नहीं होने दी, तो हमारे चेहरे पर परेशानियों के भाव नज़र नहीं आ सकते। हमें ऐसी सामर्थ्य अपने वीर्य से प्रकट करनी चाहिए। आचार्य श्री  विद्यासागरजी ऐसे ही साधक हैं, जिन्होंने अपने वीर्य का प्रयोग छहों इन्द्रियों को जीतने में किया।

     

    सम्मेद शिखर की यात्रा के दौरान लगभग २१ जनवरी, १९८३ को आचार्य संघ का विहार हजारीबाग, बिहार प्रान्त, वर्तमान में झारखण्ड से तीर्थराज सम्मेदशिखरजी को ओर हुआ। आचार्य संघ के साथ हजारीबाग समाज की आबाल-वृद्ध जनता ने बैंड बाजे के साथ २२ किलोमीटर तक का पैदल विहार करवाया। रास्ते के नाम पर मार्ग में नुकीले पत्थर और काँटे बिछे हुए थे। इस कारण आचार्यश्रीजी के पैरों से खून छलकने लगा। उसे देखकर कलकत्ता निवासी एक श्रावक ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आचार्यश्रीजी! आप इस पथरीले रास्ते में भी वही चाल से चल रहे हैं, जो अच्छे रास्ते में चाल होती है। यह दृश्य भी हमें याद रहेगा।' तब आचार्यश्रीजी ने साधना पथ के पथिक से संबंधित दो पंक्तियाँ सुनाई-

    'वह पथ क्या और पथिक भी क्या? पथ में बिखरे यदि शूल न हों। 

    उस नाविक की धैर्य परीक्षा क्या? यदि धारा प्रतिकूल न हो।' 

     

    आचार्यश्रीजी की कठिन साधना और अडिग चर्या को देख जनसाधारण ने कहा- कि भगवान महावीर का नाम किताबों में तो बहुत पढ़ा है, लेकिन भगवान महावीर कैसे थे, उनकी चर्या कैसी थी, वह आज देखने को मिल गई।

     

    २४ जनवरी, १९८३ को संघ ने तीर्थराज सम्मेदशिखरजी में मंगल पदार्पण किया।०९ धन्य है! ऐसे निष्कंप साधक की साधना, जिनका हर कदम पूर्ण सुविचारित, निश्चित और अडिग है।

     

    आत्मरक्षक : गुप्ति

    * अर्हत्वाणी *

     

    यतः संसारकारणादात्मनो गोपनं भवति सा गुप्तिः।

    सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः।

    जिसके बल से संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा होती है, वह गुप्ति है। योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है।

     

    सा त्रितयी कायगुप्तिर्वाग्गुप्तिर्मनोगुप्तिरिति।

    वह गुप्ति तीन प्रकार की होती हैं- काय गुप्ति, वचन गुप्ति और मनो गुप्ति।

     

    image-019.png* विद्यावाणी *

    • जिसके द्वारा आत्मा की रक्षा, रत्नत्रय की रक्षा और मन प्रशस्त हो, इसी का नाम गुप्ति है।
    • आगम भाषा में जिसे ध्यान कहते हैं, उसे ही अध्यात्म भाषा में गुप्ति कहते हैं।
    • आत्मानुभूति के लिए गुप्ति आवश्यक है, जैसे मंजिल के लिए सीढ़ी आवश्यक है।
    • गुप् गोपने संरक्षणे वा। गुप् धातु जो है,  वह संरक्षण के अर्थ में आती है। गुप्ति एक ऐसा संबल है, जो संरक्षण करता है। जब गुप्ति के माध्यम से कर्मों का आना रुक जाता है, तभी आगे का काम ठीक-ठीक बनता है। कर्मों का आना बना रहे और हम अपने गुणों का विकास करना चाहें, तो यह संभव नहीं है।
    • तीन गुप्ति में शुक्ल लेश्या होती है और गुप्ति के बिना शुद्धोपयोग की भूमिका बन ही नहीं सकती। यदि एक मिनट भी मिल गया, तो गुप्ति लगाइए। जब-जब समय मिले, तभी गुप्ति में लीन हो जाइए। भले एक कायोत्सर्ग ही क्यों न लगाएँ।
    • शल्यचिकित्सक सम एकाग्रता गुप्ति 

     

    सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय आतम ध्यावते।

    तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते॥६/४॥

     

    इसमें गुप्ति की बात छहढालाकार ने कही है, जिसमें उदाहरण दिया है कि मुनिराज पत्थर की तरह ध्यान में स्थिर बैठे हैं। जिनके शरीर से हरिण आदि पशु खाज खुजाते हुए चले जाते हैं। गुप्ति के जैसा ही दृश्य ऑपरेशन थियेटर में रहता है। डॉक्टर घंटों तक भीतर ऑपरेशन थियेटर में काम करता है। तब उसे खाना-पीना आदि कुछ याद नहीं आता। वह बाहर आता ही नहीं है। बाहर के पूरे कनेक्शन काट दिए जाते हैं। ऑपरेशन करते समय डॉक्टर्स की एकाग्रता देखकर लगा कि श्रमण भी त्रिगुप्ति में गुप्त होकर ध्यान में ऐसे ही लीन हो जाते हैं। इससे बड़ा ध्यान हो ही नहीं सकता।आप लोग कहते हैं कि ध्यान में तो हमारा मन लगता ही नहीं आदि-आदि...।जब मन में लगन-निष्ठा होती है, दुःख-दर्द दूर करने का लक्ष्य हो जाता है, उस समय न स्पर्श-रूप-रस-गंध-वर्ण का ज्ञान रहता है, और न ही भूख-प्यास लगती है। बाहर की हवा भी भीतर नहीं जा सकती। कितनी एकाग्रता, मनोयोग कितना सधा हुआ है। आत्मा को किस प्रकार बाहरी हवा से सुरक्षित रखना, ध्यान कैसे करना, यह ऑपरेशन थियेटर देखकर ज्ञान हो जाता है।

    वक्ता व श्रोता

    बने बिना लूंगा-सा

    निजी स्वाद ले। 

     

    कर्म निर्झरणी : काय गुप्तिimage-020.png

    * अर्हतवाणी *

     

    स्थिरीकृतशरीरस्य.....कायगुप्तिर्मता मुनेः॥१८॥

    स्थिर किया है शरीर जिसने तथा परीषह आ जाए तो भी अपने पर्यंकासन से ही स्थिर रहें, किंतु डिगे नहीं, उस मुनि के ही काय गुप्ति मानी गई है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • शरीर की निष्पंदता का नाम काय गुप्ति है।
    • पर्यंकासन, अर्द्धपद्मासन, सुखासन आदि अनेक प्रकार के आसनों से बैठा स्थिर शरीर है। और परीषह का होना प्रारंभ हुआ, फिर भी वह शरीर हिलता-डुलता नहीं। उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। इसको बोलते हैं 'काय गुप्ति'। इसके द्वारा क्या होता है? आचार्य कहते हैं, कि इससे कर्म निर्जरा होती है। निर्जरा शब्द सुना है? जो कि साक्षात् मुक्ति के लिए कारण है, उसका संपादन इस ढंग से हुआ करता है। ध्यान को जन्म देने के लिए काय गुप्ति माँ के समान है।
    • ध्यान की सिद्धि चाहते हो, तो प्रतिदिन काय गुप्ति लगाइए।इसके द्वारा आसन सिद्धि होती है।

    संदेह होगा

    देह है तो देहाती!

    विदेह हो जा।

     

    * विद्याप्रसंग *

    मूसलाधार वर्षा में आत्मस्थ 

    १५ अप्रैल, २००१, बहोरीबंद (कटनी) मध्यप्रदेश का प्रसंग है। सायंकालीन आचार्य भक्ति के उपरांत आचार्यश्रीजी बाहर खुले आकाश में पाटे पर विराजमान थे। उस दिन गर्मी कुछ ज्यादा ही थी। आचार्य भगवन् खुले आसमान के नीचे आसन लगाकर सामायिक में लीन हो गए। वह ध्यानस्थ होकर जैसे-जैसे आत्मा के शीतल समुद्र में गोता लगाते जा रहे थे, वैसे-वैसे बाहर का मौसम भी परिवर्तित होता जा रहा था। लगभग एक घंटा ही हुआ था कि मूसलाधार वर्षा होने लगी। वर्षा की वे बड़ी-बड़ी बूंदें तेज हवा के साथ तीर के समान लग रही थीं। परंतु आचार्यश्रीजी त्रिगुप्ति से गुप्त होकर ऐसे ध्यानस्थ थे, जैसे कुछ हो ही न रहा हो।थोड़ी देर बाद ही कुछ श्रावक आ गए और उन्होंने गुरुजी का पाटा उठाकर दीवाल के किनारे रख दिया एवं ऊपर से पन्नी की व्यवस्था कर दी। परंतु आचार्यश्रीजी अभी भी पूर्ववत् आत्मस्थ रहे।

     

    अगले दिन प्रातःकाल जब सामायिक के पश्चात् एक महाराजजी ने गुरुवर से पूछा- 'आपको रात्रि में बहुत कष्ट हुआ होगा?' तब आचार्यश्रीजी ने बड़े सहज भाव से कहा- 'मैं परीषह-उपसर्ग सहन करना भी चाहता हूँ, पर लोग मुझे सहन करने ही नहीं देते। देखो, वे मुनिराज जो चार माह तक उपसर्ग-परीषह जंगलों में रहकर सहन करते हैं। वह दिन मेरा कब आएगा, जब मैं भी वैसा ही सहन कर सकूँगा।

     

    अटल काययोगी 

    सन् १९७९, मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान पंचकल्याणक हेतु आचार्य भगवन् का विहार सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर, मध्यप्रदेश से ३0 जनवरी, १९७९ को हुआ। मार्ग में एक दिन दोपहर के समय दादिया से संखाड़ की ओर विहार हुआ लेकिन स्थान पर पहुँचने के पूर्व ही शाम हो गई। अतः आचार्य भगवन् सड़क के किनारे ही सामायिक आदि करने बैठ गए। वहीं पास में लाल चीटियों का बिल होगा। हजारों चीटियाँ आचार्यश्रीजी के शरीर पर चढ़कर काटने लगीं। पर एकाग्रता के स्वामी आचार्य भगवन् गुप्ति में लीन रहे। उपसर्ग दूर होने पर ही उन्होंने स्थान छोड़ा। इसी प्रकार सारोल (कोटा) से आगे थूबौनजी जाते समय हिंसक वन्य पशुओं से भरे हुए निर्जन वन में नदी के किनारे आचार्य भगवन् सारी रात ध्यान में लीन रहे।

    धन्य है! उत्कृष्ट से उत्कृष्ट साधनारत रहते हुए भी वन में जाकर पूर्ण आत्मस्थ होने की चाह रखने वाले गुरुदेव की एक-एक क्रिया मनभावक एवं आत्मप्रदेशों को स्पंदन करने वाली होती है। 

     

    गुण मणियों की खानि : वचनगुप्ति

    * अर्हत्वाणी *

     

    थीराजचोरभत्तकहा....अलीयादिणियत्तिवयणं वा॥६७॥

    पाप के कारणभूत स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा और भक्तकथा आदि वचनों का त्याग करना अथवा मिथ्या आदिवचनों का त्याग करना वचन गुप्ति है।

     

    image-021.png* विद्यावाणी *

    • वचन गुप्ति में पाप से बचने रूप और पुण्य का संचय करने रूप प्रवृत्ति भी होती है, लेकिन प्राथमिकता में तो वचन प्रयोग का अभाव ही है।
    • आगम के अनुसार वचन बोलना वचन गुप्ति में आता है।
    • मौन धारण करना वचन गुप्ति है।मौन में ज्ञान ठोस होता है, केवलज्ञान को लाता है।
    • संयम के द्वारा, इन्द्रिय और मन के व्यापार का शमन करना मौन है। ‘मौनं सर्वत्र साधनम्' मौन समस्त सिद्धियों का मूल है।
    • मौन साधना, स्वर साधने से भी कठिन है। बोलना सीखने में एक वर्ष लगता है, पर चुप रहना सीखने में सारा जीवन चला जाता है ।
    • सोचने से मन में गर्मी आती है। कम सोचो, कम बोलो, अहिंसा से ये होगा। स्वस्थ रहेंगे।

    'मा बहू जंप- कहा है बहुत मत बोलो। हम बोलकर वचन गुप्ति को नष्ट क्यों करें? हमारी वचन गुप्ति पल जाए तो अच्छा माना जाता है। बनती कोशिश मौन रहना चाहिए, तभी एकाग्रता बनती है। मुख से निकलने के बाद वर्गणाएँ पुनः शब्द के रूप में परिवर्तित नहीं होती, लोक के अंत तक जाती हैं। यहाँ से वह शब्द यात्रा करता हुआ सात राजू तक चला गया। आजू बाजू सभी दिशाओं में त्रस जीव भी वहाँ हैं और स्थावर भी हो सकते हैं। वह शब्द उन्हें आहत करते जा रहा है, हिंसा हो रही है। पिच्छी से तो वहाँ परिमार्जन किया नहीं, वायु में कितने जीव हैं? कहाँ तक परिमार्जन किया, बताओ? कोई वस्तु रखते-उठाते हैं तो परिमार्जन करते हैं। शब्द कहाँ-कैसे जा रहे हैं, परिमार्जन कहाँ करते- सोचो तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं । अतः हिंसा से बचना चाहो तो मौन रहो। अहिंसा का पालन बहुत विवेक के साथ करना चाहिए। यह बहुत सूक्ष्म बात है। तभी यह काम हो सकता है। व्रत व मूलगुण का तुलनात्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि अहिंसा ही मूल है। मूल में अहिंसा देवता है।

    • एक दिन मौन लो, दूसरे दिन दुगुना बोल लो, ऐसा नहीं। सामने वाला कुछ भी बोले, फिर भी उत्तर न दो। इतना साहस, इतना संयम होना चाहिए। और जवाब भी देंगे, तो सामने वाला कितना ग्रहण करता है? उसका महत्त्व समझता है अथवा नहीं, विचार करो?

     

    गूंगा गुड़ का

    स्वाद क्या नहीं लेता?

    वक्ता क्यों बनें?

     

    * विद्याप्रसंग *image-022.png

    वचन गुप्ति संरक्षक 

    भाषा समिति पूर्वक ही वचन गुप्ति का पालन होता है। और वचन गुप्ति से अहिंसा महाव्रत का पालन होता है, जिससे आत्मा का संरक्षण हो जाता है।


    एक बार आचार्यश्रीजी के प्रवचन चल रहे थे, तभी अचानक तेज वर्षा होने लगी। पांडाल पर पानी की बूंदों के गिरने से उसकी आवाज तेज आ रही थी। और माइक होते हुए भी आचार्यश्रीजी की आवाज श्रोताओं तक स्पष्ट रूप से नहीं पहुंच पा रही थी। सो बोलते बोलते आचार्यश्रीजी चुप हो गए। जब बाद में उनसे पूछा- 'आप चुप क्यों हो गए थे?' तब आचार्यश्रीजी बोले-'भइया! आचार्यों ने हमारे लिए भाषा समिति पूर्वक बोलने का आदेश दिया है। आचार्यों ने कहा कि हमेशा संयम का ध्यान रखना। असंयमी के बीच बैठकर असंयम का व्यवहार नहीं करना। जिस समय सहजरूप से बोलना संभव हो, उसी समय बोलना। यदि बोलते समय किसी व्यवधान के कारण बोलने में विशेष शक्ति लगानी पड़े, तो भाषा समिति भंग होने की संभावना रहती है।और भाषा समिति गई, तो वचन गुप्ति भी कैसे पल सकती है? अतः वर्षा की तेज आवाज के कारण मुझे भी बहुत तेज आवाज में बोलना पड़ता, जो ठीक नहीं था। इसलिए चुप रह गया। क्योंकि मौन से गुप्ति आएगी, समिति नहीं।और फिर हम जोर से बोलेंगे, तो भी दोष मुझे ही लगेगा। जोर-जोर से बोलने से कान और मन पर प्रभाव पड़ता है। वचन गुप्ति जितनी पावन होगी, उतनी ही अहिंसा महाव्रत की भी रक्षा होगी। आप बोलें और उसे (सुनने वाले)अर्थ समझ में नहीं आया, तो आपका बोलना भी व्यर्थ चला गया।

     

    भो वचन गुप्ति अनुपालक गुरुवर! आप कहते हैं- शब्द पंगु हैं, जवाब न देना ही, लाजवाब है। धन्य है ! जो मोक्षमार्ग रूपी रथ में आरुढ़ होकर संयम रूपी यात्रा पथ पर निर्बाध विचरण कर रहे हैं।

     

    परम पद साधिका : मनो गुप्ति

    * अर्हत्वाणी *

     

    विहाय सर्वसंकल्पान् .............मनोगुप्तिर्मनीषिणः॥१५-१६॥

    राग-द्वेषसे अवलंबित समस्त संकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को स्वाधीन करता है और समताभाव में स्थिर करता है तथा सिद्धान्त के सूत्र की रचना में निरन्तर प्रेरणारूप कार्य करता है, उस बुद्धिमान् मुनि के सम्पूर्ण मनो गुप्ति होती है।

     

    * विद्यावाणी *

    • जैसे-जैसे तत्त्वों के सागर में डूबता है उसकी मनो गुप्ति होती है। नदी के जैसे-जैसे पास में गया ठंडक मिलती है, डुबकी लगाई तो और ठंडक एवं जब गहराई में जाता है तो और भी अधिक ठंडक मिलती है। उसी प्रकार जैसे-जैसे तत्त्वों में डुबकी लगाएगा, हीरा-पन्ना रूपी तत्त्वों का निखार आने लगता है।
    • जिसका धैर्य है वही श्वास रोक सकता है। पानी में वही डूबता है जिसके मुख से पूरा-पूरा श्वास निकल जाता है। वैसे ही आप मनो गुप्ति के द्वारा पानी की तरह हवा में भी डूब (गिर) सकते हैं, उड़सकते हैं, ऊपर उठ सकते हैं तथा तैर सकते हैं।
    • मन प्रशस्त होने से बड़े-बड़े संकल्प की धारणाएँ बन जाती हैं। व्रत निर्दोष होने लगता है और मोक्षमार्ग अपने आप खुल जाता है।
    • मन में विकार रहेंगे तो वह आगे की चर्या में प्रशस्तता ला नहीं सकता। मन में तृप्ति का अनुभव नहीं होगा, चर्या में सुन्दरता नहीं आएगी। इसलिए यदि मन में विकार है तो उसे निकाल दो, नहीं तो सेप्टिक हो जाएगा। 
    • किसी से बोलो नहीं, तो क्या करो- जैसे रेडियम वाली घड़ी दिन में चार्ज करते हैं, तब रात में वह रेडियम चमकता है। ठीक उसी तरह अपने आपको दिन में चार्ज करो और रात में चर्वण करते रहो। किसी से बोलो नहीं। जो मुखाग्र है उसको अपने चिंतन की धारा बनाना। परिभाषा वगैरह, पंक्ति की पंक्ति सामने दिखने लग जाती हैं। दिन के प्रकाश में पंक्ति देख लें,वह रात में अपने आप दिखती हैं। दिन में चर्वण होता, रात में जुगाली करो, मंथन करो।श्लोक का अर्थ लगाना हो, सो लगा लो।कविता बनाना हो, तो बना लो।दुहराना हो, तो दुहरा लो, तो गुप्ति बन जाएगी।दोपहर में संस्कृत या प्राकृत की कारिका या गाथा देख लो, और रात में उसका अर्थ लगा लो। सबसे अच्छा बारह भावनाओं का चिंतन ‘राजा-राणा छत्रपति'... (भूधरदास कृत) अथवा 'कहाँ गए...वह सुवरन की नगरी' (मंगतराय कृत) आदि का चिंतन कर लो।रात में जितना अँधेरा रहेगा उतना अधिक चिंतन होगा, जितनी लाइट में रहेंगे, उतने हिंसक विचार होंगे।

     

    कब बोलते ?

    क्यों बोलते ? क्या बिना

    बोले न रहो ?

     

    image-023.png* विद्याप्रसंग *

     

    मनोगुप्ति में अधिकतम वास 

    आचार्यश्रीजी कहा करते हैं कि 'मौन और गौण' इन दो को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। आचार्य भगवन् कहते वही हैं, जो वह स्वयं किया करते हैं। उनकी दिनचर्या की ओर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि उनका अधिकतम समय मौन में ही व्यतीत होता है। कदाचित् उन्हें मौन से बाहर आना भी पड़ता है तो उस समय वह 'गौण' गुण से सुसज्जित दिखाई देते हैं। उदाहरण के तौर पर जैसे उन्हें किसी से चर्चा करनी भी पड़े तो उस समय वह अपने बोलने को गौण एवं सामने वाले का सुनना मुख्य किए रहते हैं। और उनका बोलना तब तक गौण बना रहेगा, जब तक उन्हें लगेगा कि उनका बोलना अभी आवश्यक मात्र है, अनिवार्य नहीं। जब उन्हें लगने लगे कि अब बोलना अनिवार्य है, तब कहीं जाकर उनके वचन झरते हैं। नहीं तो यह भी संभव है कि चर्चा पूरी हो जाए और वह मौन ही बने रहें । उनका अनुमान ज्ञान बड़ा ही पुख्ता है। प्रायः कर वह भाँप ही लेते हैं कि यह सामने वाला किस उद्देश्य से बात करने आया है। ऐसे में वह पहले से अपनी बात मात्र रखकर मौन होकर चर्चा खत्म-सी कर देते हैं। सामने वाले को बोलने का अवसर ही नहीं देते हैं। आगे न तो कुछ सुनते हैं और न ही स्वयं कुछ बोलते हैं। उन्हें एक अक्षर अतिरिक्त बोलना तो ठीक, सुनना भी पसंद नहीं है। वह समय के इतने पाबंद हैं कि स्वयं समय तक इन्हें देखकर सतर्क हो जाए। उन पर तो किसी से लेना एक, न देना दो' वाली कहावत पूर्ण चरितार्थ होती है। अपनी चर्या परिपालन करने में वह बड़े कुशल हैं। नीचे आचार्य भगवन् की दिनचर्या समयसारणी प्रस्तुत की जा रही है। वैसे तो उनका समय एकदम नियत ही रहता है, पर उसमें ऋतु परिवर्तन के अनुसार कुछ आगे-पीछे होना संभव है।

    रात्रि १.३०/२.00 से ५.१५/५.३० -प्रातःकालीन प्रतिक्रमण, सामायिक, सामायिक पाठ,ध्यान, स्वयंभूस्तोत्र पाठ एवं नंदीश्वरभक्ति पाठ
    प्रातः ५.३०/६.00 से ६.००/६.३० -प्रातःकालीन आचार्यभक्ति
    ६.३०/७.00 से ७.३०/७.४० -शौच क्रिया तत्पश्चात् देववंदना
    ७.३०/७.४0 से ८.४०/८.५० -प्रातःकालीन संघस्थ कक्षा
    ९.00 से ९.३०/९.४५ तक -गुरुपूजन एवं गुरुवचन
    ९.४५/१०.00 से १०.४५/११.00 -आहारचर्या
    १०.४५/११.00 से ११.२० -आहार पश्चात् मंचासीन
    ११.२० से ११.३०/११.३५ -परकल्याणार्थ
    ११.३५ से ११.४५/११.५० -ईर्यापथ-भक्ति
    १२.०० से १.४०/२.00 -मध्याह्न सामायिक, सामायिक पाठ, स्वयंभू स्तोत्र पाठ एवं नंदीश्वरभक्ति पाठ
    २.00/२.१० से ३.00/३.१० -परहितार्थ चर्चा या स्वतंत्र स्वाध्याय
    ३.00/३.१० से ४.१५/४.३० -सामूहिक स्वाध्याय
    ४.३० से ५.०० -स्वतंत्र चिंतन-पठन-आलेखन अथवा परकल्याणार्थ चर्चा
    ५.00 से ५.४०  -सायंकालीन प्रतिक्रमण
    ५.४५ से ६.०० -देववंदना
    ६.00 से ६.२०  -सायंकालीन आचार्यभक्ति
    ७.00/७.१५ से ९.00/९.३० -सामायिक पाठ, स्वयंभूस्तोत्र पाठ एवं नंदीश्वरभक्ति पाठ तत्पश्चात् सायंकालीन सामायिक एवं ध्यान
    ९.००/९.३० से १०.00 -वैयावृत्ति
    १०.00 से १.३०/२.00  -रात्रि विश्राम 

     

    आचार्यश्रीजी की उपरिलिखित अत्यंत व्यस्तम दिनचर्या के बीच देश-विदेश से आए हुए श्रावकगण प्रयासरत रहते हैं कि अवसर मिलते ही कुछ समय का सदुपयोग अपने हित के लिए गुरुवर से पा लेवें। कुछ श्रावक, ब्रह्मचारीगण एवं ब्रह्मचारिणी बहनों के अलावा संघस्थ साधुजन भी इस बीच अपने आत्महित हेतु निर्देश या प्रायश्चित्तादि को प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षातुर रहते हैं, तो कुछ शिष्यगण वैयावृत्ति के अवसर की बाट जोठते रहते हैं। और इस बीच जिसे भी अवसर मिल जाता है वह अपना परम सौभाग्य मानता है।

     

    आचार्यश्रीजी विशाल संघ का संचालन करते हुए भी स्वयं को राग-द्वेषात्मक विषयों से बचा लेते हैं। जब कभी कोई अपने राग-द्वेषात्मक विकल्पों को लेकर आता भी है तो वह इशारे से कहते हैं- 'देखो, अभी नहीं, बाद में आना।' ऐसा बार-बार करते-करते समय निकल जाने पर बहुत कुछ विकल्प बिना उलझे ही धीरे-धीरे शांत हो जाते हैं । यदि कुछ शेष रह भी जाता तो वह मुख्य विषय पर चर्चा कर विषय को खत्म कर देते हैं। किसी की गलती पर वह उसे डाँटना, फटकारना, बड़बडाना आदि नहीं करते। इसके लिए उपेक्षा-संयम उनका सबसे बड़ा अस्त्र-शस्त्र है। इससे धीरे-धीरे उसे अपनी गलती स्वयं समझ आ जाती है। और यदि नहीं भी आई तो वह स्वयं पूछकर क्षमा याचना कर लेगा और आगे के लिए सतर्क हो जाएगा। वह बोलने से तो ऐसे डरते हैं जैसे कोई तत्काल का जन्मा चिड़िया का बच्चा घोंसले से बाहर झाँकने में डरता है। वह ऐसे कुशल गोताखोर हैं, जो संसार सागर में रहकर भी अपनी आत्मा की गहराइयों में गोता लगाते ही चले जा रहे हैं। राग-द्वेष रूपी कषाय एवं विकारी भाव रूपी बड़ी-बड़ी व्हेल जैसी मछलियों से स्वयं को सुरक्षित बचाकर अपने में भीतर ही भीतर उतरत चले जा रहे हैं। शीघ्र ही वह एक दिन अपनी आत्मनिधि को प्राप्त कर हमेशा-हमेशा के लिए शाश्वत सुख में ठहर जाएँगे।

     

    वर्तमान समय में मनो गुप्ति की सर्वोच्च साधना करने वाला यदि साधक कोई हैं तो वह आचार्य भगवन्ही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है। उनके यह गुण सभी मोक्ष पुरुषार्थियों में आवें, यही इस प्रस्तुति का उद्देश्य है।

     

    उपसंहार

    एक कला वह होती है जो पाषाण में छुपे भगवान को प्रकट करती है तो दूसरी कला वह होती है जो आत्मा में छुपे परमात्मा को प्रकट कर देती है ।आत्मा में परमात्मा को प्रकट करने वाले वर्तमान के पुरुषार्थी कलाकारों मे आचार्य भगवन् शिरोमणि कलाकार हैं। वह अपनी आत्मा के साथ-साथ शरण में आए सभी भव्य पुरुषों को भी अपनी भेद-विज्ञान रूपी छैनी से तराश कर उन्हें भी परमात्म रूप की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थरत हैं। साधना, तप, त्याग और अध्यात्म की अतल गहराइयों में उतर कर जिस शाश्वत सत्य का शंखनाद उन्होंने किया है, उसे सुनकर श्रद्धा और विश्वास के कारण प्रत्येक मानव नतमस्तक हो उठता है। उनके व्यक्तित्व का सान्निध्य जिन्हें प्राप्त हो जाता है उनके जीवन में स्फूर्ति और ऊर्जा का एक नवीन संचार हो उठता है। उन्हें जीवन की सार्थकता का बोध होने लगता है। उनके दर्शन मात्र से अध्यात्म की जो दृष्टि मिलती है उससे जीवन में एक अलग ही प्रकार की ताजगी.का अहसास होने लगता है। उनके पास रत्नत्रय एवं पंचाचार की अमूल्य निधियाँ हैं, जिनका पालन पूर्ण आस्था, संकल्प और दृढ़ता के साथ वे स्वयं करते हैं और शिष्यों को भी करवाते हैं । २० अगस्त, सन् २000, अमरकंटक (शहडोल) मध्यप्रदेश, वर्षायोग में रविवारीय प्रवचन में विद्वान् डॉ. राजारामजी द्वारा संपादित शास्त्र ‘पुण्यास्रव कथाकोश' अपभ्रंश भाषा में प्रथम बार प्रकाशित हुआ। उसके विमोचन के समय पंडितजी ने कहा- 'मूलाचार की मूल पाण्डुलिपि इस देश में नहीं बल्कि जर्मनी के म्यूजियम में है। कितना दुर्भाग्य व दुःख की बात है कि इसे हम सुरक्षित नहीं रख पाए।' तब आचार्यश्रीजी ने कहा- 'वहाँ विदेश में 'मूलाचार' की द्रव्यलिपि हो सकती है, किंतु यहाँ (संघ की ओर इशारा करते हुए) तो भावलिपि मंच पर विराजमान है, अतः चिंता की कोई बात नहीं है।' सर्वांगीण ज्ञान, दूरदृष्टि, अंतर्मुखी व्यक्तित्व, उदारवादी चिंतन, लक्ष्य निष्ठा, स्पष्ट चर्या आपके जीवन के श्रेष्ठतम गुण हैं। यही वजह है कि वह आज आचार्यों में शिरोमणि आचार्य' कहे जाते हैं।

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