चिर से बिछुड़े
दो सज्जन मिलते हैं
वृद्धावस्था में
परस्पर प्रेम वार्ता होती है
गले से गले मिलते हैं
गद्गद् कण्ठ से,
एक ने पूछा एक से
तुमने क्या साधना की है
पर के लिए और अपने लिए ?
उत्तर मिलता है
द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ना हो
टूटे दो टुकड़ों को
एक रूप देना हो
तो सुनो
सुई होना सीखा है !
फिर दूसरे ने भी पूछा
इस दीर्घ जीवन में
ऐसी कौन सी साधना की तुमने
फलस्वरूप सब के स्नेह-भाजन हो,
उत्तर मिलता है
कि
कर्म के उदय में
जो कुछ होना सो होना है
सो धरा - सा
जरा होना सीखा है
दूसरों के सम्मुख
अपनी वेदना पर
भला ! रोना ना सिखा है,
हाँ !
दूसरा आ अपनी
व्यथा - कथा
सुनाता हो, रोता हो
यह मन भी व्यथित हो रोता है
और तत्काल
उसके आँसू
जरा धोना सीखा है |