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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ७ उत्तम दस धर्मधारी 

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    Vidyasagar.Guru

    आचार्य भगवन् कहते हैं- 'आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादिधर्मों से ही मानी जाती है।' मूल गुणों में पठित दस धर्मों का आचार्यश्रीजी पूर्ण निष्ठा एवं उत्कृष्टता से किस तरह परिपालन करते हैं, इससे जुड़े हुए कुछ प्रसंगों को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।

     

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    श्रमणत्व अंगरक्षक : दस धर्म 

     

    * अर्हत्वाणी *

    धम्मो वत्थु-सहावो ... .... जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८॥

     

    वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। क्षमा आदि दस प्रकार के भावों को धर्म कहते हैं। रत्नत्रय को धर्म कहते हैं। और जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं। 

     

    दशलक्ष्मयुतः.........प्रकीर्तितः।image-001.png

    जिनेन्द्र भगवान ने धर्म को दस लक्षण युक्त कहा है।

     

    धर्म के भेद 

    उत्तमखममद.............................दसविहं होदि ॥७०॥

    उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस भेद मुनिधर्म के हैं।

    इन दसों को धर्म क्यों कहा? 

     

    तेषां संवरण.............संज्ञा अन्वर्थेति। 

    इन धर्मों में चूँकि संवर (कर्म निरोध) को धारण करने की सामर्थ्य है, इसलिए धारण करने से धर्म' इस सार्थक संज्ञा को प्राप्त होते हैं। 

    'उत्तम'विशेषणक्यों? 

     

    उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थम्।

    ख्याति व पूजा आदि की भावना की निवृत्ति के अर्थ उत्तम विशेषण दिया है। अर्थात् ख्याति, पूजा आदि के अभिप्राय से धारी गई क्षमा आदि उत्तम नहीं है।

    यथासंभव श्रावक भी पालें 

     

    आद्योत्तमक्षमा.................यथाशक्ति यथागमम् ॥५९॥

    उत्तम क्षमा है आदि में जिसके तथा जो दश भेदों से युक्त है, उस धर्म का श्रावकों को भी अपनी शक्ति और आगम के अनुसार सेवन करना चाहिए। 

     

    * विद्यावाणी *

    • image-002.pngसंसाररूपी दुःख से आत्मा को जो ऊपर उठा ले उसका नाम धर्म है। धर्म करने की चीज है, पढ़ने की नहीं।
    • यह दस प्रकार का धर्म रत्नत्रय केधारी मुनि महाराज ही पालन करते हैं।। रत्नत्रय मुनिराजों की शोभा है, तो क्षमादि दस धर्म उनके अलंकार हैं। 
    • धन साधन है, जबकि धर्म साधना है। धन पेट के लिए है और धर्म आत्मा की शांति के लिए है। जैसे कोई व्यक्ति धागे को गले में नहीं लटकाता, किंतु फूलों की माला के साथ वह धागा भी गले में शोभा पाता है। इसी प्रकार यदि धर्म साथ है, तो शरीर भी शोभा पाता है। धर्म के अभाव में जीवन शोभा नहीं पाता। 
    • दसलक्षण धर्म उस मानसरोवर में रहते हैं, जहाँ कषाय रूपी मगरमच्छ नहीं रहते। इसलिए अपने मन रूपी सरोवर को कषाय रूपी मगरमच्छ से रहित निःशंक बनाओ। तभी धर्म को प्राप्त कर पाओगे।
    • प्रमादरक्षक दस धर्म- प्रवृत्ति के समय प्रमाद की संभावना भी हो सकती है। उस समय दस धर्मों का आलंबन लिया जाता है। जैसे- छाता लगाते हैं, तो कब लगाते हैं? घर में लगाते हैं क्या? नहीं, धूप व वर्षा के पानी से बचने के लिए छाता लगाते हैं। उसी प्रकार प्रमाद से बचने के लिए दस धर्म यहाँ बताए हैं। 

     

    क्रोध विनाशक : उत्तम क्षमा धर्म

     

    * अर्हत्वाणी * 

    कोहुप्पत्तिस्स .............खमा होदिधम्मोत्ति ॥७१॥

    क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाहरी कारण मिलने पर भी थोड़ा भी क्रोध नहीं करना, उसके क्षमा धर्म होता है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • भाव पूर्वक किया हुआ क्षमा धर्म का पालन विपरीत भावों को उपशांत करने में जैसा सक्षम होता है, वैसा अन्य कोई भाव सक्षम नहीं होता। 
    • क्षमा वह अलौकिक निधि है, जो कभी समाप्त होती नहीं। जैसे भरत चक्रवर्ती की निधि कभी समाप्त नहीं होती थी।
    • आप क्षमावाणी मनाते हैं। पर उनके साथ क्षमा मनाओ, जिनके साथ वैर (द्वेष) है। मन की गाँठों को खोलो।
    • क्षोभ का पलायन- क्रोध के अभाव में ही क्षमा धर्म जीवन में प्रकट होगा। एक बार यदि यह क्षमा धर्म अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाए, तो लोक में होने वाला कोई भी विप्लव उसे प्रभावित नहीं कर सकता अर्थात् उसे स्वभाव से च्युत नहीं कर सकता जैसे, सरोवर का जल स्वच्छ होकर बर्फ बनकर जम जाए, तो उसमें कंकर फेंककर कोई क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता। ऐसा ही आत्मा के स्वभाव के बारे में समझना चाहिए। हमें आत्मा की शक्ति को पहचानकर, उसे ऐसा ही सघन बनाना चाहिए कि क्षोभ उत्पन्न न हो सके। हमारा ज्ञान, घन रूप हो जाना चाहिए। अभी वह पिघला हुआ होने से छोटी-छोटी-सी बातों को लेकर के भी क्षुब्ध हो जाता है। हमारे अंदर छोटी-सी बात भी क्रोध कषाय उत्पन्न कर देती है। और हम क्षमा धर्म से विमुख हो जाते हैं। 

     

    बचो बचाओ

    पाप से पापी से ना 

    पुण्य कमाओ। 

     

     

    * विद्याप्रसंग *

     

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    क्षमा नीर से सिंचित जीवन 

    मई-जून, १९७६, कुंडलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश में एक दिन आचार्यश्रीजी के नेत्रों में जलन हो रही थी। अतः संघस्थ क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदजी ने आचार्यश्रीजी की आँखों में चंदन का तेल डाल दिया।ज्यों ही तेल डाला, जलन शांत होने की बजाय और अधिक बढ़ गई। आँखें एक दम सुर्ख लाल हो गईं। उनमें इतना खून उतर आया, जिसे देखकर ऐसा लगता मानों अभी बहने को हैं । आँखों की असह्य वेदना देख क्षुल्लकजी घबरा गए और बोले- 'महाराजजी! यह क्या हो गया ? क्षमा कीजिए।' यह सुनकर क्षमा धर्मधारी आचार्यश्रीजी बोले- 'आपने तो आँखों को आराम पहुँचाने के लिए यह चंदन का तेल डाला था, पर मेरे तीव्र असाता कर्मोदय के कारण आँखों में जलन और ज्यादा हो गई।' आँखों जैसे नाजुक एवं महत्त्वपूर्ण भाग में खून को तैरता देख क्षुल्लकजी स्वयं को दोषी मान दुःखी हो रहे थे। उन्हें देख आचार्यश्रीजी इस विकट स्थिति में भी उन्हें सांत्वना देते हुए बोले- 'देखो, नारायण श्री कृष्ण और बलभद्रजी ने द्वारिका की अग्नि को बुझाने के लिए जल डाला था, पर वह जल भी उस समय अग्नि में घी का काम कर गया था, जिससे अग्निज्यादा भभक-भभक कर जलने लगी।'

     

    क्षुल्लकजी को अपनी अविवेक पूर्ण वैयावृत्ति पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। तत्काल डॉ. शिखरचंद्रजी जैन हटा, दमोह, म.प्र. वालों को सूचना दी। उन्होंने आकर उपचार किया। कुछ दिनों तक गुरुवर को तकलीफ़ रही, फिर धीरे-धीरे आराम हुआ। जब क्षुल्लकजी ने चंदन का तेल, जो आँखों में डाला था, उसका परीक्षण करवाया तब पता चला कि उस तेल में स्पिरिट मिला हुआ था। 

     

    धन्य हैं! क्षमा धर्म से ओत-प्रोत गुरुवर, जिन्हें क्षुल्लकजी की असावधानी पूर्ण वैयावृत्ति पर किंचित् भी रोष नहीं आया, बल्कि क्षमा रूपी नीर से सिंचित होकर उन्हें भी सांत्वना दे दी।और स्वयं भी शीतलता का अनुभव करने लगे। 

     

    मानमर्दक : उत्तम मार्दव धर्म

     

    * अर्हत्वाणी * 

    कुलरूव ........हवे तस्स ॥७२॥

     

    जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र और शील आदि के विषय में थोड़ा-सा भी घमण्ड नहीं करता, उसके मार्दव धर्म होता है।

     

    image-004.png* विद्यावाणी *

    • जो मान को जीतने का पुरुषार्थ करता है, वही मार्दव धर्म को अपने भीतर प्रकट करने में समर्थ होता है।
    • एक-एक पत्थर/पर्त निकालने पर भीतर से पानी का स्रोत निकल आता है। तब हमें नीचे जाने की आवश्यकता नहीं होती। वैसे ही भीतर मान या कषायों की पर्त को समाप्त करते जाने पर मार्दवता रूपी स्वभाव भीतर से प्रस्फुटित हो जाता है।
    • मार्दव धर्म की प्राप्ति हो, यह कहने की अपेक्षा भीतर मृदुता को जाग्रत करें। चारित्र में मृदुता लाना ही कषायों का हनन है। इसलिए मार्दव धर्म के द्वारा स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
    • मृदुता के बिना ज्ञान का पात्र नहीं होता।
    • अपने अंदर जाना सीखो- आप महामोक्ष रूपी महल बनाना चाहते हो, तो पहले यह सोच लो कि आपकी धर्म की नींव कितनी मजबूत है। महामोक्ष रूपी महल खड़ा करना है, तो मार्दव धर्म की ही नींव मजबूत बनानी होगी। इसलिए जीवन में ऊपर उठना है तो अंदर जाना सीखो। जैसे, पेड़ पर नज़र तो डालो, देखो और समझो वह हरा-भरा पेड़ इसीलिए ऊपर उठता जाता है, क्योंकि जमीन के अंदर उसकी जड़ें मजबूत हैं। अंदर जड़ मजबूत करते जाओ, तो आप ऊपर उठते जाओगे। बड़े-बड़े मकान भी बिना नींव के नहीं बनाए जा सकते। जितना ऊँचा मकान होगा, उसकी नींव भी जमीन में उतनी ही गहराई तक बनाई जाएगी।

    दर्प को छोड़

    दर्पण देखता तो

     अच्छा लगता।

     

    * विद्याप्रसंग *

    मनोविनोद में भी झलकता मार्दव धर्म 

    मृदुता अर्थात् मृदु, सुकुमार, सुकोमल, नम्र। आचार्य भगवन् बाहर अर्थात् शारीरिक दृष्टि से और अंदर अर्थात् आत्मा और मन से इन गुणों से परिपूर्ण हैं। मान का अभाव होने पर ही ये गुण अपना स्थान बनाते हैं। मान किया जा सके जिन पर, ऐसे गुणों के धनी होने पर भी आचार्य भगवन् में मान की कणिका भी नहीं है। स्वयं के ही शिष्यों को अपने साथ अपने आसन पर बैठा लेना यह इसका ज्वलंत उदाहरण है। ऐसा ही हुआ सन् १९९९ में। आचार्यश्रीजी का विहार सिद्धोदय क्षेत्र नेमावर, (देवास,म.प्र.) से गोम्मटगिरिजी (इंदौर, म.प्र.) की ओर चल रहा था। श्रावकों ने रास्ते में विश्राम हेतु एक प्लाई का पाटा लगा दिया, और आचार्यश्रीजी से उच्चासन पर विराजने का निवेदन करने लगे। आचार्यश्रीजी निवेदन स्वीकार कर पाटे पर बैठ गए। फिर जब अन्य महाराज आए, तो आचार्यश्रीजी हाथ से इशारा करते हुए उन्हें भी बुलाने लगे कि 'आओ महाराज अत्र-अत्र, तिष्ठ-तिष्ठ! यह आसन शुद्ध है, आकर मेरे पास बैठिए।' image-005.pngवे महाराज गुरुवर की आज्ञा मानकर बैठ गए। इतने में ही मुनि श्री समयसागरजी महाराज आ गए, सभी महाराजजी हँसने लगे और उन्हें भी बुलाने लगे। तब आचार्यश्रीजी पाटे की ओर देखकर बोले- 'उनकी हमारे यहाँ विधि नहीं मिलेगी।' क्योंकि पाटे पर इतना अब स्थान शेष नहीं था कि वह विराज पाते। अतः वह आगे बढ़ गए और आगे जाकर बैठ गए। 

     

    आचार्यश्रीजी की मनोविनोद में भी मार्दव धर्म, मृदुता की झलक स्पष्टतः मिल जाती है। वास्तव में जिनशासन को गौरवान्वित करने वाले आचार्यप्रवर जो सबके प्रभु होते हुए भी इतने लघु बन जाते हैं। उनकी प्रभुता और लघुता प्रणम्य है, स्तुत्य है। 

     

    नम्रता से पाई गुरुता 

    गुरुणांगुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज के सल्लेखना के अंतिम क्षण चल रहे थे। आचार्यश्रीजी हमेशा गुरुजी के निकट ही बैठे रहते थे। एक पल भी गुरु से दूर नहीं जाते थे। चार उपवास हो चुके थे।अचानक ही एक दिन पूज्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज बोले- मेरी अंतिम इच्छा है। आचार्यश्रीजी- कहिए... गुरुदेव क्या इच्छा है? गुरुणांगुरु- शायद तुम पूरी नहीं कर सकोगे। आचार्यश्रीजी- कहिए तो आप। image-006.pngतब पूज्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज बोले- मैंने : तुम्हें अपना गुरु बनाया है, पर आपने मुझे अपना शिष्य बनाया कि नहीं? तब आचार्यश्रीजी ने बड़ी मार्मिक बात कही- कौन गुरु? कौन शिष्य? यह तो मोक्षमार्ग है, उत्तर पाकर पूज्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज गद्गद हो गए। फिर कहने लगे- गर तुमने मुझे शिष्य बनाया है तो एक बार वत्स कहकर हाथ से सहला दो। और...अंतिम परीक्षा में भी गुरुदेव पास हो गए। आश्चर्य! महत् आश्चर्य! आचार्यश्रीजी में ऐसी कितनी नम्रता होगी कि गुरुणांगुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज जाते-जाते भी उन्हें गुरुत्व की अनुभूति प्रदान कर गए।

     

    कणभर भी मान नहीं 

    ब्रह्मचारी सुकौशल भैया व क्षुल्ल्क श्री प्रज्ञासागरजी महाराज, एक दिन आचार्यश्रीजी की वैयावृत्ति कर रहे थे। तब आचार्यश्रीजी ने कहा- ऐसी वैयावृत्ति तो हमारे ज्ञानसागरजी महाराज इतने वृद्ध होते हुए भी नहीं करवाते थे। शिष्य ने कहा- उनका इतना त्याग भी नहीं था जितना आपका है। तब आचार्यश्रीजी ने उत्तर दिया- हाँ, तुम्हारे जैसा ध्यान रखने वाला शिष्य भी उनके पास नहीं था। 

     

    धन्य है ! गुरु की महानता, इतने महान् होकर भी अपने आपको इतना लघु बताते हैं।"

     

    जबकि आचार्यश्रीजी ने अपने गुरु की ऐसी सेवा की कि देखने वाले कहने लगते थे कि ऐसी सेवा तो एक बेटा अपने बाप की भी नहीं करता होगा। यहाँ तक कि स्वयं ज्ञानसागरजी महाराज को भी कई बार लगने लगता कि विद्या' के स्पर्श में जादू है। वह जहाँ हाथ धर देता, वहाँ का दर्द चला जाता है। वे अपने प्रिय शिष्य की सेवा से चकित हो उठते और कहते कि तू वैद्य बनकर आया है मेरी देख-रेख करने। कैसे सीखा है तूने वैयावृत्ति का यह वेदना निग्रहगुण। 

     

    माया संहारक : उत्तम आर्जव धर्म

     

    * अर्हत्वाणी *

    मोत्तूण कुडिलभावं............... संभवदि णियमेण ॥७३॥

    जो मनस्वी पुरुष कुटिल भाव वा मायाचारी परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है, उसके नियम से तीसरा आर्जव नाम का धर्म होता है।

     

    * विद्यावाणी *

    • मन वचन-काय की सरलता का नाम आर्जव धर्म है।
    • मुनि महाराज जब तन और मन से सीधे होते हैं, तो उनमें आर्जव (सरलता, छल, कपट का अभाव) धर्म प्रवेश करता है।
    • इन्द्रिय-विषयों एवं कषायों से संबंध नहीं रखने पर ऋजुता स्वयमेव प्राप्त हो जावेगी।
    • आर्जवता को चाहने वाला स्वयं सीधा बनता है। इसे पाने के लिए भीतर और बाहर से यथावत् (जैसे पैदा हुए वैसे रहना) होना अनिवार्य है। तन से यथावत् होना सरल है, लेकिन मन से होना बहुत कठिन है, मुश्किल भी है।
    • ऋजुता से आत्मलीनता- सर्प जब अपने बिल में या घर में प्रवेश करता है तब वह सीधा सरल हो जाता है। ठीक उसी प्रकार आप अपने आत्मा में आना चाहते हैं तो टेढ़ापन छोड़ना होगा। कुटिल चाल छोड़े बिना अपने घर (आत्मा) में प्रवेश नहीं किया जा सकता है। जिस प्रकार बड़े-बड़े पंखों वाले पक्षी भी आकाश में पंख फैलाकर उड़ते हैं, पर अपने नीड़ों के छोटे से छिद्र में प्रवेश करते समय उन्हें संकुचित कर लेते हैं, संयत बन जाते हैं। वैसे ही हम अपने असंयम/चंचलता को त्यागें तथा दो नयों रूपी पंखों की फड़कन को बंद कर, संयत होकर, अपने स्वभाव रूप ऋजुता को प्राप्त कर आत्मलीनता को प्राप्त करें।

     

    बाहर टेढ़ा

    बिल में सीधा होता

     भीतर जाओ।

     

    * विद्याप्रसंग *

    क्या आसन...? क्या सिंहासन...? 

    सन् १९७७, सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर, दमोह, म.प्र. में आचार्य भगवन् का वर्षायोग चल रहा था। उस समय पंडित जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी वाले कुण्डलपुर के उदासीन आश्रम में ही रहते थे। जिस दिन बरसात नहीं होती, मौसम खुला रहता, उस दिन १०-२० लोग सायं ५.३०-६.00 बजे के लगभग वहीं मानस्तम्भ के पास चौक में फर्श पर बैठ कर धार्मिक चर्चा किया करते थे। एक दिन आचार्यश्रीजी उन सभी को देखकर उनकी चर्चा का आनंद लेने के लिए बाहर चौक में आए और आकर पाषाण पट्टिका पर ही बैठ गए।image-007.png एक श्रावक तुरंत चटाई लाए और आचार्यश्रीजी से प्रार्थना करने लगे, ‘महाराजजी! चटाई पर बैठ जाइए।' (उस समय आचार्यश्रीजी चटाई का प्रयोग करते थे) आचार्य महाराज ने बड़ी ही सरलतापूर्वक कहा- 'आप बैठ जाइए, इस चटाई पर।आपकी धोती भूमि पर बैठने से खराब (गंदी) हो सकती है। हमारी धोती तो है नहीं, जो मैली हो जाएगी।' और वहीं जमीन पर बैठे रहे।

     

    धन्य है आचार्यश्रीजी की सरलता! जिनके मन में आसन-सिंहासन विषयक कोई भी विकल्प नहीं उठते। ऐसे तन और मन से यथाजात रहने वाले आचार्यश्रीजी आर्जव धर्म नाम के मूलगुण को प्रायोगिक रूप से जी रहे हैं। 

     

    लोभ घातक : उत्तम शौच धर्म

    *अर्हत्वाणी *

    सम-संतोस-जलेणं.. .....................सउच्च हवे विमलं ॥३९७॥

    जो सम-भाव और संतोष रूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के समूह को धोता है, तथा भोजन की गृद्धि नहीं करता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है।

     

    * विद्यावाणी *

    • शौच धर्म का सहज अर्थ है- मन की शुचिता, मन की पवित्रता। हमें भावों में शुचिता/निर्मलता लानी चाहिए।
    • शुचिता, निर्मलता, पवित्रता आत्मा की प्रकृति है। अशुचि भाव का विमोचन किए बिना उसकी प्राप्ति संभव नहीं है।
    • धार्मिक क्षेत्र में शौच धर्म वह औषधि या रसायन है, जो इहलोक तथा परलोक दोनों को सुधारने वाला है। 
    • शरीर अशुचिमय है और आत्मा से पृथक् है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम उसकी अशुचिता को समझें, और उसके प्रति आसक्ति को छोड़कर, रत्नत्रय से पवित्र आत्मा के प्रति अनुरक्त हों।
    • अनासक्त भाव शौच धर्म में साधक- भावों में मलिनता का कारण शरीर के प्रति बहुत आसक्त होना ही है। जब तक शरीर के प्रति आसक्ति बनी रहेगी, आत्मा का दर्शन उपलब्ध नहीं होगा। जैसे, गाय, भैंस के थन (स्तन) पर चिपक जाने वाली जोंक खराब खून तो पी लेती है, लेकिन थन से दूध नहीं पी पाती।उसी प्रकार अशुचिता में डूबा व्यक्ति आत्मा में लीन नहीं हो सकता। 

    अपना ज्ञान

    शुद्ध ज्ञान न जैसे

    वाष्प पानी न।

     

    * विद्याप्रसंग *image-008.png

    बालकवत् निर्मल हृदयी

    ३१ मई, २०१५, रविवार की शाम जबलपुर, मध्यप्रदेश में शाम ४-५ बजे के करीब आचार्यश्रीजी कमरे के बाहर अकेले बैठे थे। तीसरी कक्षा का एक बालक देव जैन, जयपुर, राजस्थान कागज-पेंसिल हाथ में लिए आचार्यश्रीजी के समक्ष पहुँचा। आचार्यश्रीजी ने पूछा- ‘क्या है?' वह बोला- 'आपका चित्र बनाना है।' आचार्यश्रीजी मुस्कुराने लगे।' वह बालक आचार्यश्रीजी के सामने बैठकर उनका चित्र बनाने लगा। इतने में मुनि श्री संभवसागरजी महाराज आए। उन्होंने आचार्यश्रीजी से कमरे में चलने का निवेदन किया। आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो, यह बालक चित्र बना रहा है। इसके लिए कोई व्यवधान न हो।' मुनिश्रीजी बोले- 'आप कमरे में चलेंगे तो यह भी पीछे-पीछे आ जाएगा।' आचार्यश्रीजी कमरे में बैठ गए। मुनिश्री ने उस बालक को भी अंदर बुला लिया। वह छोटा-सा बालक एक कुशल चित्रकार की भाँति सामने बैठकर आचार्यश्रीजी का चित्र बनाने लगा। और आचार्यश्रीजी भी राजा-महाराजा की भाँति एक आसन में ही बैठे रहकर मानो चित्र बनवाने लगे। जब तक वह बालक चित्र बनाता रहा, आचार्यश्रीजी ने किसी को भी समय नहीं दिया। जिनके सामने अच्छे-अच्छे, बड़े-बड़े लोग भी डरते हैं, वहाँ आधे घंटे बैठकर जिस आसन में गुरुजी बैठे थे उसी आसन का उस नन्हें चित्रकार ने हू-ब-हू चित्र बना दिया। वह चित्र आचार्यश्रीजी को दिखाया और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो, यह कैसे इस प्रकार चित्र निकाल रहा है।' उस बालक का नाम देव जैन, जयपुर, राजस्थान है। 

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    इसी तरह दयोदय, जबलपुर, मध्यप्रदेश में ९ जून, २०१५ के दिन गुरुजी का केशलोंच हुआ। गर्मी चरम पर थी। एक बालक आर्जव (सुपुत्र पंकज जैन, दिल्ली, पारस चैनल) वैयावृत्ति के समय उबली हुई कैरी (कच्चा आम) लाया और बोला 'आचार्यश्रीजी इसे लगवाने से गर्मी कम लगती है। ऐसा कहकर उसने कैरी का छिक्कल हटा दिया। आचार्यश्रीजी हँसने लगे। वह बालक आचार्यश्रीजी के पैरों में कैरी लगाने लगा। आचार्यश्रीजी बोले- 'मैंने २७-२८ साल बाद कैरी लगवाई। इससे पहले ललितपुर में जब बहुत गर्मी रहती थी, तो रात में श्रावक लोग कैरी ले आते थे और पैरों में घिसते रहते थे। 


    धन्य है आचार्यश्रीजी की निर्मलता! जहाँ वे एक मिनट का समय भी किसी को आसानी से नहीं देते। फोटो आदि निकालने पर, अविनय होती है ऐसा कहकर मना कर देते हैं, वहीं जिस उम्र में बच्चों को पेंसिल भी पकड़ना नहीं आती, उस उम्र में चित्र बनाने का प्रयत्न करने वाले बालक को प्रोत्साहन देने हेतु बालक की भाँति निर्मलहृदयी आचार्यश्रीजी ने न केवल समय ही दिया, अपितु बिना हिले-डुले एक ही आसन में बैठे भी रहे। और जहाँ २७-२८ वर्ष से कैरी का उपयोग नहीं किया था, वहाँ एक बालक के सामने मौन हो गए। 

    कीर्तिप्रदायक : उत्तम सत्य धर्म

    * अर्हत्वाणी *

    परसंतावयकारण............................धम्मो हवेसच्चं ॥७४॥

    जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुँचाने वाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • स्व और पर का हित जिसमें हो, वह सत्य है। 
    • जो असत्य को धोता है, वही सत्य है । सत्य सफ़ेदी है।
    • हजार वर्ष अन्याय के समर्थन में जीने की अपेक्षा एक पल सत्य के साथ जीना उचित है।
    • अधर्म से चलने पर असत्य हावी हो जाता है। सत्य से चलने पर असत्य का राज्य नहीं आ सकता।
    • हम थोड़ा-सा भीतर देखने का प्रयास करें और अपना इतिहास समझें कि मैं कौन हूँ? किस तरह 
    • छोटे से बड़ा हो गया और एक दिन मरण के उपरांत सारे के सारे लोग इस देह को जला आएँगें। मैं फिर भी नहीं जलूँगा। यह सत्य है।
    • दुनिया में सभी लोग दुनिया को देख रहे हैं। दुनिया को पहचानने की चेष्टा में लगे हैं, लेकिन सत्य को पहचानने की जिज्ञासा किसी के अंदर नहीं उठती। बार-बार कहने, सुनने के उपरांत भी ज्ञान नहीं होता, तो यह मोह की प्रबलता का ही प्रभाव समझना चाहिए।
    • शाश्वत सत्य- भेद रत्नत्रय से अभेद रत्नत्रय को पाने वाले मुनिराज कभी बाहर आना ही नहीं चाहते हैं । जैसे, आप लोग एयर कंडीशन में से बाहर नहीं आना चाहते। वैसे ही वे मुनि अपने अभेद रत्नत्रय (आत्मानुभूति) रूपी एयर कंडीशन से बाहर नहीं आना चाहते। अपने स्वरूप के दर्शन, अपने शाश्वत सत्य को पाने में लीन होते हैं। वे सत्य धर्म के बारे में कहते नहीं, अनुभव करते हैं।

     

    image-010.jpgतेरा सत्य है

    भविष्य के गर्भ में 

    असत्य धो ले।

     

    * विद्याप्रसंग *

    यही सत्य है

    सन् १९७४ में अजमेर, राजस्थान, वर्षायोग के पश्चात् आचार्यश्रीजी का शीतकालीन प्रवास मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान में हआ। वहाँ आयोजित सिद्धचक्रमंडल विधान में समाज के अनुरोध पर जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् पंडित श्री कैलाशचंद्रजी सिद्धांतशास्त्री, बनारस,उत्तरप्रदेश ने मात्र एक प्रवचन देने की अनुमति दी थी। उनके साथ जैन न्याय और दर्शन के एक मात्र विद्वान् पंडित श्री दरबारीलालजी कोठिया भी पधारे थे। ये दोनों विद्वान् आचार्यश्रीजी के प्रवचन और चर्या से प्रभावित होकर स्वेच्छा से तीन दिन तक रुके रहे। और जब वे जाने लगे, तब आचार्यश्रीजी से बोले 'महाराजजी! मैं जा रहा हूँ।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'पंडितजी! आना-जाना तो लगा हुआ है।' यह सुनकर पं. श्री दरबारीलालजी विस्मयभरी दृष्टि से आचार्यश्रीजी को देखने लगे। उन्हें बात समझ में आ गई कि आना तो हुआ उत्पाद'। जाना अर्थात् 'व्यय'। लगा हुआ, यही द्रव्य की ध्रुवता है। अर्थात् जीव द्रव्य ध्रुव है। और 'है' यानी सत्। यही सत् का लक्षण है। यह अनुभव में आ जाए, तो बनने-मिटने पर हर्ष-विषाद नहीं होगा। छोटे-बड़े की बात नहीं आएगी। कौन, किसका पिता है? कौन, किसका पुत्र है? यह मात्र पर्याय की ओर दृष्टिपात करने पर ही दिखाई देता है। शरीर का अवसान होने पर यह सारे संबंध छूट जाते हैं । सत्य ही तो है कि सारा संसार एक रंगमंच की तरह है, जो सत्य को जान लेता है, वह मुग्ध नहीं होता। हर्ष-विषाद नहीं करता है । सत्य को जानने वाला फालतू बोलता नहीं है। 

     

    image-011.pngधन्य है आचार्य भगवन्! एक वाक्य में ही आगम का पूरा सार उड़ेल देते हैं आप। आपका एक-एक वाक्य सूत्र रूप में रहता है।

     

    प्रदर्शक नहीं,आत्मदर्शक हूँ

    आचार्यश्रीजी ऐसे पुण्यात्मा महापुरुष हैं, जिनकी छत्रच्छाया में आने वाले जीवों का, प्राणियों का उद्धार हो जाता है। फिर वह चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र में हो अथवा संसारिक क्षेत्र में। जहाँ कहीं भी उनका प्रवास होता है, वहाँ कई व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त हो जाते हैं। व्यक्ति अपनी-अपनी दुकान लगा लेते हैं, फल-सब्जी, घर-गृहस्थी की सामग्री, आचार्यश्रीजी के प्रवचन-भजन आदि की सीडी, पूज्य पुरुषों की फोटो एवं शुद्ध भोजन, चाय, नाश्ता आदि-आदि की दुकानों से बहुतों को जीविकोपार्जन के सात्त्विक साधन सुलभ हो जाते हैं।

     

    एक बार श्री अतिशय क्षेत्र कोनी जी, पाटन-जबलपुर, म.प्र. का प्रसंग है। आचार्यश्रीजी प्रातः जंगल (शौच) जा रहे थे। जाते समय अचानक उनकी दृष्टि एक दुकान पर पड़ी। जहाँ पर आचार्यश्रीजी सर्पों को आशीर्वाद दे रहे हैं, ऐसी एक बड़ी-सी फोटो रखी थी। शौच क्रिया से लौटकर आचार्यश्रीजी ने उस दुकान वाले को बुलवाया। वह घबराते हुए आचार्यश्रीजी के पास पहुँचा। हाथ जोड़कर विनय भाव से नमोऽस्तु करके बैठ गया। आचार्यश्रीजी ने उससे पूछा- 'सर्पों को आशीर्वाद देने वाली फोटो तुमने खींची है?' दुकानदार बोला- 'नहीं।' आचार्यश्रीजी ने पूछा- 'तो कहाँ से आई?' बड़े शान से वह बोला- 'हमने कम्प्यूटर से बनाई है।' आचार्यश्रीजी बोले- 'ऐसी झूठी फोटो नहीं बनाई जाती। इससे पाप बंध होता है। इस फोटो को मत बेचना। और आगे भी इस तरह की झूठी फोटो मत बनाना।' दुकानदार को अपनी गलती का अहसास हुआ। वह आगे से ऐसा नहीं करने का नियम लेकर एवं आशीर्वाद प्राप्त कर वापस चला गया।

     

    धन्य है सत्य धर्म के पालन कर्ता आगमोक्तपुरुष आचार्य भगवन्! जिन्हें स्वयं की यथार्थ प्रशंसा ही इष्ट नहीं, फिर झूठी प्रशंसा कैसे भा सकती है? उन्हें प्रदर्शन में नहीं,आत्मदर्शन में आनंद आता है। 

     

    सर्वज्ञविभूति दायक : उत्तम संयम धर्म 

    * अर्हत्वाणी *

    वदसमिदिपालणाए ....... हवे णियमा ॥७६॥

     

    image-012.pngव्रत व समितियों का पालन, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति का त्याग, इन्द्रिय जय, यह सब जिसको होते हैं, उसको नियम से संयम धर्म होता है।

     

    * विद्यावाणी *

    • संयम वह है, जिसके द्वारा अनंतकाल से बँधे । संस्कार समाप्त हो जाते हैं। तीर्थकर भगवान भी घर में रह कर मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वे भी संयम लेने के उपरांत निर्जरा करके सिद्धत्व को प्राप्त करते हैं। संयम के माध्यम से ही आत्मानुभूति होती है।
    • संयम वह है, जिसके द्वारा जीवन स्वतंत्र और स्वावलंबी हो जाता है। ऐसा संयम सरल भी है और कठिन भी। जो चौबीसों घंटे अपने में लीन रहे, अपनी आत्मा के आनंद का पान करे, उसे तो सरल है। और जब कोई अपने अकेले होने से आनंद के स्थान पर दुःख का अनुभव करने लगे, तो यही उसे कठिन हो जाता है।
    • मनुष्य जीवन में नाइट लेम्प के समान संयम जलता (प्रकाश देता) रहता है। उसके बिना तो जीवन चल ही नहीं सकता। जैसे,समय-समय पर इकट्ठा किया हुआ कण-कण मेरु के समान हो जाता है। इसी प्रकार एक-एक क्षण संयम के साथ निकालते-निकालते मोक्ष मंज़िल तक पहुँच सकते हैं।
    • इस बात को ध्यान से सुनना, इसे 'रंग पंचमी' के रंग के समान यूँ ही नहीं उड़ा देना। रावण ने असंयम को नहीं छोड़ा। इसलिए परिवार को ही नहीं, सभी के जीवन के लिए कंटकाकीर्ण बन गया। 
    • संयम ही है, जो ज्ञान को क्षायिक बनाता है, और सम्यग्दर्शन को परम अवगाढ़ बनाता है।
    • संयम महत् आवश्यक- संयम के बिना आत्मा का विकास संभव नहीं है। यह ऐसा सहारा है , जिससे आत्मा ऊर्ध्वगामी होती है, पुष्ट और संतुष्ट होती है। सम्यग्दृष्टि संयम को सहज स्वीकार करता है। इसलिए वह सब कुछ छोड़कर भी आनंदित होता है। जैसे, गाड़ी चलाना सीखने और समझने के उपरांत भी संयम और सावधानी की बड़ी आवश्कता है। ऐसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो जाने के उपरांत भी संयम की बड़ी आवश्यकता है।

     

    कछुवे सम

    इन्द्रिय संयम से 

    आत्म रक्षा हो।

     

    * विद्याप्रसंग *

    निर्बंध बनाता बंधन 

    एक बार संयम धर्म' पर प्रवचन करते हुए आचार्यश्रीजी ने अपने बचपन की घटना सुनाई- 'जब हमें साइकिल चलाना तो आता नहीं था, और मन करता था कि साइकिल चलाएँ और पूरी गति से चलाएँ, तभी आनंद आएगा। साइकिल बड़ी थी और सीट पर हम बैठ नहीं पाते थे, क्योंकि शरीर की ऊँचाई कम थी।और यदि सीट पर बैठ भी जाएँ, तो पैर पैडल तक नहीं पहुंच पाते थे। तब कोई एक व्यक्ति एक हाथ से पीछे पकड़ता था। और दूसरे हाथ से आगे हैंडिल भी पकड़ता था। धीरे-धीरे हैंडिल पकड़ना आने लगा। लेकिन बिना सहारे चला नहीं पाते थे। जब पैरों में अभ्यास हुआ और हाथ से पकड़ने की क्षमता भी आ गई और अपने बोझ को सँभालने का साहस भी आ गया, तब हमने कहा कि भैया तुम पकड़ते क्यों हो, छोड़ दो।' लेकिन कुछ दिन तक वह पीछे से सहारा दे कर पकड़े रहता था। कभी ज़रा भी छोड़ता था, तो गिरने की नौबत आ जाती थी। फिर उसने कहा- 'देखो, मैं इस तरह पकड़े हूँ कि तुम्हें चलाने में बाधा नहीं आती। पीछे पकड़कर मैं खींचता नहीं हूँ, मैं तो मात्र सहारा दिए रहता हूँ।'

     

    image-013.pngयह संयम का बंधन ऐसा ही सहारा देने वाला है। फिर जब पूरी तरह अपने बल पर चलने की क्षमता आ गई, तो उसने अपने आप छोड़ दिया। लेकिन समझा दिया कि ध्यान रखना, मोड़ आने पर या किसी के सामने आ जाने पर ब्रेक का सहारा अभी भी लेना पड़ेगा। संयम के पालन में निष्णात हो जाने पर भी प्रतिकूल परिस्थितियों में विशेष सावधानी की आवश्कता पड़ती है। इस प्रकार प्रारंभ में तो संयम बंधन जैसा लगता है। लेकिन बाद में वही जब हमें निर्बंध बना देता है और हमारे विकास में सहायक बनता है, तब हमें ज्ञात होता है कि यह बंधन तो निबंध करने का बंधन था।'

     

    संयम परीक्षक : उत्तम तप

     

    * अर्हत्वाणी *image-014.png

    विसयकसाय .............. होदि णियमेण ॥ ७७॥

    जो मुनि पंचेन्द्रियों के विषय और कषाय परिणामों का निग्रह कर आत्मध्यान और शास्त्र स्वाध्याय करते हुए अपनी आत्मा का निरंतर स्वरूप चिंतवन करते हैं, उसका वह उत्तम तप धर्म नियम से कहलाता है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • दशलक्षण धर्मों में तप एक प्रौढ़ धर्म है। इस तप के द्वारा अन्य धर्मों में भी पास हो जाते हैं।
    • आनंद की चरम सीमा तक पहुँचने का एक अनन्य साधन तप है।
    • आप लोग धूप खेकर सुगंधी बिखेरते हैं। लेकिन उत्तम तप धर्म को स्वीकार करने वाले महामुनि प्रतिदिन तपाग्नि में कर्म रूपी धूप को जलाते हैं,और अपनी आत्मा को सुगंधित करते जाते हैं।
    • सम्यग्दर्शन युक्त तप ही समीचीन तप है। सम्यक् तप करने से पुरुष, बंधु की तरह लोगों को प्रिय होता है।
    • मुक्ति पाने के लिए चतुर्विध आराधना करनी होगी। रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के साथ ही साथ तप की आराधना करनी भी आवश्यक है।
    • तुझको तपना होगा- एक इच्छा की पूर्ति कई इच्छाएँ पैदा कर देती है। इच्छाएँ तो अनंत हैं, जो मरते दम तक समाप्त नहीं हो सकतीं। अब इच्छा की समाप्ति करना है। इच्छा की गुलामी ही मन को भटकाती रहती है। मन को इस गुलामी से मुक्त करना है, सो तप की अग्नि में सारी इच्छाएँ जला डालो। मन में कुछ पाने की इच्छा ही नहीं रहेगी, तब वह सब पा लोगे, जिसकी प्राप्ति हेतु प्रयास छोड़कर रखे हैं। तप रूपी अग्नि में सब इच्छाएँ जल जाएँगी, मोह खत्म हो जाएगा, तो मोक्षमार्ग आसान हो जाएगा। जैसे लकड़ी में अग्नि तत्त्व है, दूध में घी तत्त्व है, वैसे ही आत्मा में परमात्म तत्त्व है। जो भी सिद्ध हुए हैं, उन्होंने कर्म को तप रूपी अग्नि में जलाया है। सोना भी तभी सोना माना जाता है जब सोलह बार तप कर बाहर आए। पारे को हम हाथ से पकड़ नहीं सकते, लेकिन अग्नि उसे भी भस्म कर देती है। आप सोचें कि हमारे लिए कोई और तप कर लेगा, तो दूसरे का तप हमारे काम नहीं आ सकता। जीवन सार्थक करना है, तो तप हमें ही करना होगा।

     

    नौ मास उल्टा

    लटका आज तप (रहा पेट में)

     कष्ट कर क्यों ? 

     

    image-015.png* विद्याप्रसंग *

    साधु की साधना 

    आचार्यश्रीजी के साथ संघस्थ साधुओं की चर्चा चल रही थी। चर्चा का विषय था साधु की साधना कैसी होनी चाहिए? आचार्यश्रीजी ने बताया कि समयानुसार हमें कभी कठोर, तो कभी मृदु चर्या के माध्यम से अपनी साधना को विकासोन्मुखी बनाना चाहिए। लेकिन तेज गर्मी, तेज सर्दी में साधना करना बड़ा मुश्किल है। आज खुले में साधना करने वालों के दर्शन दुर्लभ हैं। इस चर्चा के दौरान आचार्यश्रीजी से किसी शिष्य महाराजजी ने पूछा- 'आप जब राजस्थान में थे, तब खुले में पहाड़,श्मशान आदि में जाकर तप-साधना करते थे।' यह सुनकर आचार्यश्रीजी कुछ क्षण मौन रहे, फिर बोले  

    _ 'केकड़ी, अजमेर, राजस्थान के पास बघेरा गाँव है, जहाँ १००८ श्री शांतिनाथजी भगवान का मंदिर है। वहाँ से १ किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ है।गाँव में आहार चर्या करके सीधे ही पहाड़ पर चले जाते थे। वहाँ पर उस समय गर्मी का समय था, सो गरम-गरम हवा चलती थी। वहाँ पर बड़े-बड़े पत्थर थे। उन पत्थरों की ओट में बैठ जाते थे। उस समय साथ में क्षुल्लक मणिभद्रजी (समाधिस्थ मुनि श्री ब्रह्मानंदजी) भी थे। उनकी आँखों में गरम हवा की वजह से जलन होती थी। सो मैंने उनसे कहा कि आप अपने दुपट्टे को कमण्डलु के पानी से गीला करके आँखों पर रख लिया करो। हम लोग रात्रि विश्राम वहीं एक गुफा में किया करते थे।'

     

    फिर आचार्यश्रीजी हँसकर बोले- 'एक बार पहाड़ पर ज्यादा ऊपर चढ़ गए, और रास्ता भटक गए। नीचे उतरते वक्त हाथ पकड़कर, कमण्डलु पत्थरों से टिकाते हुए नीचे उतर आए। कभी-कभी श्मशान में चले जाते थे, वहाँ एक छतरी जैसी बनी थी, वहीं रात्रि विश्राम करते थे। और कभी-कभी नदी की रेत में रात्रि विश्राम हो जाता था। तभी एक शिष्य महाराजजी बोले- 'आचार्यश्रीजी! रेत तो गरम रहती होगी? तब आचार्यश्रीजी बोले- 'हाँ, देर रात होने तक ठंडी हो जाती थी।' दूसरे महाराजजी ने पुनः पूछा 'आचार्यश्रीजी! वहाँ दिन-रात क्या करते थे?' तब आचार्यश्रीजी बोले- 'वहाँ सामायिक, स्वाध्याय आदि करते रहते थे। समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि का पाठ करते थे।

     

    धन्य है! आचार्यश्रीजी की ऐसी अनोखी तप साधना को।

     

    प्रवृत्ति, बिन इच्छा कहाँ? 

    सन् १९७५, फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश, वर्षायोग का प्रसंग है। यहाँ आचार्यश्रीजी के प्रवचन प्रतिदिन होते थे। आचार्यश्रीजी की चर्या और प्रवचन से प्रभावित होकर उनके पास सभी वर्ग के लोग चर्चा करने आ जाते थे। एक बार कुछ समयसारपाठी सज्जन आचार्यश्रीजी के दर्शन और चर्चा करने आए। और कहने लगे- 'महाराज! हमें तो कुछ इच्छा है नहीं। न खाने की इच्छा है, न पीने की इच्छा है और न ही कोई अन्य इच्छाएँ होती हैं। सब कुछ सानंद चल रहा है।' उनकी बात सुनकर आचार्यश्रीजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। और फिर आचार्यश्रीजी बोले- 'अगर आपको खाने की इच्छा नहीं है, तो फिर लड्डू आदि मुँह में ही क्यों डाले जाते हैं? कान में या और किसी के मुँह में क्यों नहीं डाल दिए जाते? बिना इच्छा के ये सब क्रियाएँ कैसे चल सकती हैं? आगे आचार्यश्रीजी ने उन्हें समझाते हुए कहा- 'भइया! प्रवृत्ति इच्छा के बिना नहीं होती। इच्छाएँ प्रत्येक के पास हैं, किंतु इच्छा का निरोध केवल तप द्वारा ही संभव है। यदि इच्छाओं का निरोध नहीं हुआ, तो ऐसा तप भी तप नहीं कहा जाएगा।(तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्याय में आया है) 'तपसा निर्जरा च' तप से संवर एवं निर्जरा भी होती है । यदि तप करने से आकुलता हो और निर्जरा न हो, तो वह तप भी तप नहीं है। अतः प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग पर जाना ही श्रेयस्कर है।

     

    धन्य है! आचार्यश्रीजी की तपानुभूति को, जिसके द्वारा वे अच्छे से अच्छे कट्टरपंथियों को भी सहजता से समझाकर सत्पंथी बना देते हैं।

     

    स्व-पर प्रभावक : उत्तम त्याग धर्म

     

     * अर्हत्वाणी *

    णिव्वेगतियं भावइ .............. भणिदं जिणवरिंदेहिं ॥ ७८॥

     

    जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि जो जीव सारे परद्रव्यों के मोह को छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • उत्तम त्याग का आशय है, जो अनुत्तम है अर्थात् उत्तम नहीं है, उसे मन, वचन और कर्म से त्यागना उत्तम त्याग है। जो आत्मा का स्वभाव है, उसका त्याग तो मनुष्य अनंतकाल से करता आया है, लेकिन राग-द्वेष नहीं छोड़ पा रहा है। अच्छे को त्यागकर बुरा अपनाने का नाम ही तो संसार है।
    • जो लोभ कर्म हमारे आत्मप्रदेशों पर मजबूती से चिपक गया है, जिससे हमारी स्वर्ग और मोक्ष की गति रुक गई है, उस लोभ-कर्म को तोड़ने का काम यही त्याग धर्म करता है।
    • त्याग जीवन का अलंकार है। गृहस्थावस्था में भले ही राग भाव से विभिन्न प्रकार के अलंकार धारण किए जाते हैं, लेकिन मुनि आश्रम में त्याग भाव ही अलंकार है। 
    • त्याग धर्म के अंतर्गत दो शब्द आते हैं- दान और त्याग। दोनों में थोड़ा-सा अंतर है। राग-द्वेष से अपने को छुड़ाने का नाम त्याग है। और दान में भी राग-भाव हटाया जाता है, किंतु जिस वस्तु का दान किया जाता है, उसके साथ किसी दूसरे के लिए देने का भाव भी रहता है। दान पर के निमित्त को लेकर किया जाता है, किंतु त्याग में पर की कोई अपेक्षा नहीं रहती। किसी को देना नहीं है, मात्र छोड़ देना है त्याग। 'त्याग' स्व को निमित्त बनाकर किया जाता है।
    • मोह घाव, तो त्याग मरहम पट्टी- त्याग एक ऐसा सरोवर है, जिसके पास जाने के बाद गर्म लू भी ठण्डी बन जाती है। मोह एक प्रकार का घाव है, उसे ठीक करने के लिए त्यागरूपी मरहम पट्टी करते रहना चाहिए। जिनसे यह मोह रूपी घाव बढ़ता है, ऐसे कषाय, राग-द्वेष, परिग्रह आदि भावों से बचना चाहिए। 

     

    अर्पित यानी

    मुख्य समर्पित सो

    अहं का त्याग।

     

    * विद्याप्रसंग *

    त्याग धर्म पोषक

    image-016.pngसन् १९८२ में नैनागिरि, छतरपुर, मध्यप्रदेश के वर्षायोग के बाद आचार्यश्रीजी विहार करके बण्डा, जिला सागर, म.प्र. पहुँचे। ठंड के दिन थे। उस समय कोई संत भवन तो था नहीं, सो मंदिर में ही ऊपर के एक कच्चे से कमरे में सारा संघ रुक गया। वहीं रात्रि विश्राम हुआ। उस कमरे का छप्पर लगभग टूटा-सा था। बहुत सारी खिड़कियाँ थीं और दरवाजा भी हवादार था। उसमें बहुत-सी दरारें होने के कारण सनसनी हवा आ रही थी। उस समय आचार्यश्रीजी का चटाई का त्याग नहीं था, परंतु एक ही चटाई का प्रयोग भी न के बराबर ही करते थे। और संघ के सभी साधुओं का भी एक ही चटाई लेने का संकल्प था। संघ में घास आदि का प्रयोग होता नहीं था। जैसे-जैसे रात बढ़ती गई, वैसे-वैसे ठंड का प्रकोप भी बढ़ता गया। इस तरह सारी रात बैठे-बैठे गुजर गई। सुबह हुई तो आचार्य भक्ति के बाद आचार्यश्रीजी ने मुस्कुराते हुए सभी से पूछा-'रात में ठंड बहुत ज़्यादा थी। आप लोगों के मन में क्या विचार आए, कैसा लगा?' तब सभी छोटे-छोटे अल्पवयी महाराज सोच में पड़ गए कि गुरुजी से क्या कहें? परंतु एक महाराज साहस करके अपने मन की बात बताते हुए बोले 'आचार्यश्रीजी ठंड बहुत लग रही थी, तो ऐसा लग रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता।' प्रायः सभी महाराजों के मन में ऐसा विचार आया था। इतना सुनकर आचार्यश्रीजी के चेहरे पर हर्ष छा गया। और शिष्यों को प्रोत्साहित करते हुए बोले- 'देखो! यह त्याग का मार्ग है। त्याग का यही महत्त्व है कि तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं के ग्रहण करने का विचार भी नहीं आया। तुम सबसे यही आशा थी। हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना। त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन में न आए, यह सावधानी रखना, क्योंकि मुनि अवस्था में त्याग भाव ही अलंकार, आभूषण है।

     

    धन्य हैं ऐसे त्याग धर्म के धारी आचार्यश्रीजी! जो अपने शिष्यों को भी त्याग धर्म की प्रेरणा देते रहते हैं। उन्हें प्रोत्साहित करते रहते हैं। कुछ वर्षों के बाद आचार्यश्रीजी का जब चटाई न लेने की साधना का अभ्यास हो गया, तब उन्होंने सन् १९८५, सिद्धक्षेत्र अहारजी, टीकमगढ़, म.प्र. में चटाई का पूर्णतः त्याग कर दिया था।

     

    परम सुखदायक : उत्तम आकिंचन्य धर्म

    * अर्हत्वाणी *

    होऊण य णिस्संगो...........अणयारो तस्स किंचण्ह ॥७९॥

    जो मुनि सर्व प्रकार के परिग्रहों से रहित होकर और सुख-दुःख के देने वाले कर्मजनित निज भावों को रोककर निर्द्वन्द्वता से अर्थात् निश्चिन्तता से आचरण करता है, उसके आकिञ्चन्य धर्म होता है।

     

    * विद्यावाणी *

    • आकिंचन्य धर्म का अर्थ है- मन को इच्छाओं से खाली कर देना, परिग्रह के संस्कार त्याग देना, भूत को भुला देना, भविष्य की अपेक्षा नहीं रखना और वर्तमान को लात मार देना और मन-वचन काय से खाली हो जाना।
    • सारी इच्छाएँ जहाँ विसर्जित हो जाएँ, वह आकिंचन्य धर्म है।
    • शारीरिक बीमारी के उपचार के लिए तो बहुत से डॉक्टर-वैद्य मिल जाएँगे, परंतु मन को जिन इच्छाओं की बीमारी ने घेर रखा है, उसका उपचार आकिंचन्य धर्म के पास ही है।
    • आकिंचन्य आत्मधर्म है। यह एक ऐसा भारी पदार्थ है, जो हर किसी के पास नहीं होता।
    • एकाकी होने में है सुख- दुनिया के सारे संबंधों के बीच भी मैं अकेला हूँ, यही भाव बना रहना, आकिंचन्य धर्म का सूचक है। जैसे अनेक आवाजों के बीच टेलीफोन की आवाज आप सुन लेते हैं, बाकी छोड़ देते हैं। नगाड़े के बीच बाँसुरी की आवाज चलती है, तो जो संगीत प्रेमी हैं या संगीतकार हैं, वह उसे पहचान लेते हैं। इसी तरह हम लोगों को अपने स्वरूप को देखने की रुचि हो जाए, हम अंतर्मुखी होते चले जाएँ, तो बाहर कुछ भी होता रहे पता ही नहीं चलेगा। सुख तो अपने भीतर एकाकी होने में है।अन्यत्र कहीं नहीं है। 

     

    भरा घट भी

    खाली-सा जल में सो

    हवा से बचो

     

    image-017.png* विद्याप्रसंग *

     

    अद्भुत बैंक बैलेंस 

    आचार्यश्रीजी एक ऐसे कीर्ति प्राप्त आचार्य हैं, जिनका नाम पूरे भारत वर्ष में ही नहीं, अपितु विश्व-भर में सुविख्यात है। अतः इनकी छवि को निहारने सभी सम्प्रदाय के बंधुजन प्रायः कर आते ही रहते हैं । २९ जून, २००५,अतिशय क्षेत्र बीना बारहाजी, जिला सागर, म.प्र. में एक जिज्ञासु व्यक्ति आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ आए। दर्शन करते ही उन्होंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। इसी बीच उन्होंने एक प्रश्न किया- “महाराज साब! आपका बैंक बैलेंस कितना है?' आचार्यश्रीजी समझ गए कि यह जैनेतर बंधु है, जो जैन साधु की निष्परिग्रही वृत्ति से अनभिज्ञ है। आचार्यश्रीजी ने कहा- 'बस, यह पिच्छी कमण्डलु है, मेरे पास।' उसने पुनः प्रश्न किया- 'लेकिन आपके नाम से जो बड़ी-बड़ी दाल मिलें, दुकानें, ट्रक, बसें, फैक्ट्री, स्कूल, बैंक न जाने और क्या-क्या चलता है, कुछ तो होगा? आप बताएँ नहीं, यह बात अलग है।' उस व्यक्ति की बात सुनकर आचार्यश्रीजी को हँसी आ गई, और हँस कर बोले- 'अरे भाई! हमारे पास तो मात्र दो उपकरण रहते हैं- एक पिच्छी और दूसरा कमण्डलु । यही बैंक बैलेंस समझो।वे भी सामायिक के समय छूट जाते हैं। उस समय तो इस शरीर को भी पड़ोसी मानकर शुद्ध एकाकी आत्मा का आनंद लेने का प्रयास करता हूँ। जो पर अर्थात् दूसरा है, उसे पड़ोसी कहा जाता है। पर:+असि परोऽसि। यह शरीर भी पड़ोसी है, जो हमारे साथ जाने वाला नहीं है। इस तरह शरीर से भी ममत्व भाव का त्याग हो जाता है। वह व्यक्ति समझ गया कि जिनके लिए श्रावक तन, मन, धन, यहाँ तक कि अपना सब कुछ न्यौछावर करने तत्पर हैं, उनके लिए इन सब चीजों का कोई मूल्य नहीं, यहाँ तक कि इन्हें तो अपने शरीर से भी ममत्व नहीं है।

     

    धन्य हैं चेतन रूपी धन के धनी गुरुवर! जो मन, वचन और काय से अपने जीवन में आकिंचन्य धर्म को जी रहे हैं, पी रहे हैं। 

    नायक नहीं,ज्ञायक हूँ 

    २५ अप्रैल, २००२, गुरुवार के दिन आचार्य भगवान ससंघ मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में विराजमान थे। महावीर जंयती के दिन आचार्य भगवन् लाल परेड ग्राउंड से प्रवचन करके चौक धर्मशाला वापस आ रहे थे। तब गुरुभक्ति के वशीभूत भक्तगण तरह-तरह के नारे लगाकर गुरु-गरिमा गुणगान कर रहे थे। और ख्याति, पूजा, लाभ से दूर रहने वाले आचार्य भगवन् ईर्यापथ शुद्धि से आगे बढ़ते चले जा रहे थे। चौक मंदिर पहुँचने के बाद एक सज्जन ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आपकी आत्मा चतुर्थकाल की है, काया पंचम काल की' तब आचार्यश्रीजी ने कहा- 'भैया! आत्मा तो अनंत काल की है।' तब उन सज्जन ने पुनः गुरुजी की प्रशंसा करते हुए कहा- 'वर्तमान में, विश्व में अभी तक किसी का इतना बड़ा संघ देखने में नहीं आया। आप विशाल संघ के नायक हैं।' तब आचार्यश्रीजी गंभीर होकर बोले- 'सुनों! मैं किसी संघ का 'नायक' नहीं हूँ, मैं तो अपनी आत्मा का ज्ञायक हूँ।"

     

    ज्ञायक बन गायक नहीं,पाना है विश्राम। 

    लायक बन नायक नहीं,जाना है शिव-धाम ॥८॥"

     

    ऐसे आकिंचन्य धर्म के धारी आचार्य भगवन् जयवंत रहें, जो नित नूतन इतिहास लिखते हुए भी अपने आत्मतत्त्व को ही लखते हैं।

     

    शीलसमुद्र वर्धक : उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म 

    * अर्हत्वाणी *

    सव्वंगं पेच्छंतो............... सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ॥ ८०॥image-021.png

     

    जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सुन्दर अंङ्गों को देखकर भी उनमें रागरुप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है। 

     

    * विद्यावाणी *

    • आत्मा में रमना ही सच्चा ब्रह्मचर्य है, जिसके उपरांत किसी भी प्रकार की विकृति या विकारी भावों का प्रादुर्भाव होना संभव नहीं है।
    • उपयोग को विकारों से बचाकर, राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए। यही ब्रह्मचर्य है। 
    • पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होने का नाम ही 'ब्रह्मचर्य धर्म' है।
    • दान, पूजा, शील एवं उपवास- ये चार धर्म श्रावक के लिए बताए हैं। शील का अर्थ स्वभाव होता है, ब्रह्मचर्य होता है।
    • स्वतत्त्व में रमण, ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य का अर्थ है अपनी परोन्मुखी उपयोग धारा को स्व की ओर मोड़ना। बाहरी पथ पर यात्रा न होकर अंतर पथ पर यात्रा होना। बहिर्जगत् शून्यवत् हो जाए एवं अंतर्जगत् उद्घाटित हो जाए। जिस प्रकार आप लोग खिचड़ी बनाने के लिए चावलों को साफ़ करते हैं, तो कंकड़ अलग कर देते हैं और चावल रख लेते हैं। उसी प्रकार भेद-विज्ञान के द्वारा हमें स्वतत्त्व और परतत्त्व की पहचान करके स्वतत्त्व में रमना चाहिए तथा परतत्त्व से राग को हटाना चाहिए। 

     

    लजा न बेचो

    शील का पालन सो

    ढीला ढीला न।

     

    * विद्याप्रसंग *

    मैं चैतन्य पुँज हूँ 

    सन् १९७९, जयपुर, राजस्थान में आचार्यश्रीजी के प्रवचन के पूर्व कुछ लोगों के द्वारा आचार्यश्रीजी के आकर्षक व्यक्तित्व से संबंधित परिचय दिया जा रहा था। आचार्यश्रीजी चुपचाप नीची निगाह किए बैठे शांत-भाव से सब सुन रहे थे। चेहरे पर कोई हाव-भाव की झलक नहीं थी। जब आचार्यश्रीजी के प्रवचन का समय हुआ, तब वे बोले- 'आजकल सभी लोग शरीर में अटक जाते हैं, आत्मा तक नहीं पहुँचते। अभी कुछ लोग मेरा परिचय दे रहे थे, पर वह मेरा परिचय कहाँ था? मेरा परिचय देने वाला तो वही है, जो मेरे अंदर आए, जहाँ मैं हूँ। आपकी दृष्टि भौतिक काया तक ही जा पाती है। आत्मा से परिचय नहीं हो पाता। मेरा सही परिचय है कि 'मैं चैतन्य पुँज हूँ', जो इस भौतिक शरीर में बैठा हुआ है। यह ऊपर, जो अज्ञान दशा में कर्मफल चिपक गया है, उसे हटाने में मैं लगा हूँ, और चाहता हूँ कि वह हट जाए और साक्षात्कार हो जाए आतमराम का, परमात्मा का।' आगे भाव-विभोर होते हुए बोले- 'बस एक बार अनंत चैतन्य के साथ मिलन हो जाए। जब ध्यान में लीन होते समय कुछ अनुभूति के बिन्दु मिल जाते हैं, तो हम आनंद-विभोर हो जाते हैं। उस समय अनंत सिंधु में गोता लगाने वाले के सुख की कोई सीमा नहीं होती, वह सुख असीम है।'

     

    बालयति योगीराज आचार्यश्रीजी धन्य हैं! धन्य हैं! आप अपनी चैतन्य आत्मा में रमण कर ब्रह्मचर्य धर्म के सुख की अनुभूति करते रहते हैं। 

     

    उपसंहार

     

    सितंबर, १९८१, सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी, छतरपुर, म.प्र., वर्षायोग में दशलक्षण पर्व के समय प्रवचन करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'जिस प्रकार आप लोग कोई बहुमूल्य हार पहन लेते हैं, तो उसकी सुरक्षा के साथ चलते हैं। उसी प्रकार रत्नत्रय का हार पहनने वाला व्यक्ति (मुनि) इस प्रकार की सुरक्षा के साथ चलता है। मुनि महाराज दस प्रकार के अंगरक्षकों को साथ लेकर के चलते हैं। क्योंकि उनके पास रत्नत्रय का बहुत बड़ा पिटारा, रत्नत्रय की खान है। कोई चुरा ले, तो क्या करेंगे? इसलिए दस धर्म रूपी व्यक्तियों को लगा रखा है। दसों दिशाओं में वो चलते रहते हैं, और बीच में रक्षा के साथ मुनि महाराज चलते हैं। जैसे धनुर्विद्या में अर्जुन निष्णात थे। किधर से भी बाण आ जाएँ, उसके प्रतिकार के लिए उनके पास तैयारी रहती है। और दसों दिशाओं में बाण छोड़ने की क्षमता भी उन्हीं के पास रहती है। शब्दभेदी बाण हैं। देखने की कोई आवश्यकता नहीं, शब्द सुन करके ही, कि किधर से आवाज आ गई? इधर से आ गई तो यूँ करके छोड़ दिया। एक साथ एक ही धनुष के माध्यम से कई-कई दिशाओं में वे बाणों की वर्षा करते थे। रणांगण में किधर से भी, कोई भी आ जाए, तब भी वे सुरक्षित रहते हैं। उसी प्रकार दसों दिशाओं में ये दस धर्म दस बाण के समान हैं। ये रक्षा करने वाले हैं। हमारे पास दशलक्षण धर्म हैं, तो कहीं भी जाओ रक्षा गेरेन्टेड (अवश्य) होगी, और इसमें एक भी अंश की गलती नहीं हो सकती।

     

    जब प्यास लगती है तो मालूम है क्या दशा होती है? भागते फिरते हैं आप पानी की तलाश में । जहाँ मिले, वहीं जाएँगे।रेल से जाएँगे या पैदल भी जाएँगे आप। नदी आपके घर नहीं आएगी और आ भी जाए, तो भी आपको ही अंजुली बाँध कर प्यास बुझानी होगी।अब तो प्यास बुझाने के लिए घर में ही नलों में टोंटी लगी हुई है। यह तो आपके हाथ में है उस टोंटी को खोलो अथवा न खोलो।बटन को ऑन कर दो और जी भर कर पानी पी लो। बटन बंद कर दो, तो पानी मिलेगा नहीं। इसी तरह पर्युषण पर्व सदा आपके साथ हैं। आप चाहो तो दस दिन अनुभव कर लो, वर्ष भर अनुभव करो अथवा बिल्कुल भी अनुभव न करो।

     

    दशलक्षण धर्म को अपने जीवन में धारण करने के

    बाद पूरा जीवन पर्वमय हो जाता है। धर्म हमारा 

    पुष्प है और दशलक्षण उसकी पंखुड़ियाँ।

    धर्म एक सागर है और दशलक्षण उसकी लहरें।

     

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    आचार्यश्रीजी जिनशासन रूपी सरोवर में सहस्रदलीय कमल की भाँति सुशोभित हैं, जिससे ३६ मूलगुण रूपी पूर्ण विकसित पंखुड़ियों से आकर्षित होकर सरोवर के जल-पान हेतु सभी खिंचे चले आ रहे हैं।

     

    गुप्ति, संवर का सबसे उत्तम साधन है। गुप्ति की प्राप्ति समिति के माध्यम से होती है, इसलिए उसके साथ समिति को रखा है। और समिति को समीचीन बनाना चाहो तो वे दशलक्षण धर्म के बिना नहीं बन सकतीं। और दशलक्षण धर्म में बारह भावनाओं के चिंतन को करने से उत्तमता प्राप्त होती है। तो बारह भावनाओं का चिंतन कहाँ करें? एयर कंडीशन मकान में बैठकर या जहाँ पंखा चल रहा हो, कूलर चल रहा हो, हीटर लगे हों, रेडियो भी चल रहा हो वहाँ हो सकता है क्या? ऐसा नहीं है। बारह भावनाओं का चिंतन करना चाहो तो उसके योग्य बाईस परीषह अपनाने होंगे। बारह भावनाएँ, जो संवर का कारण मानी गई हैं उनको कैसे पढ़ना चाहिए, कैसे चिंतन करना चाहिए? तो यह बाईस परीषह सहन करते हुए करना चाहिए। और यह बाईस परीषह बिना चारित्र के सहन करना संवर की कोटि में नहीं आएगा। चारित्र धारण करने के उपरांत परीषह, परीषह कहलाते हैं। सही-सही रूप में तो चारित्र के माध्यम से इन्हें प्राप्त किया जा सकता है।


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