अनुचरों
सहचरों औ
अग्रेचरों
के विकासोन्मुखी
विविध गुणों की
सुरभि-सुगंधि की
जो अपनी धीमी गति से
सुगंधित करती
वातावरण को
फैल रही...
...उपहासिका
नहीं बने
किन्तु...
सुगंधि को
सूँघती हुई
पूर्ण रूपेण
सादर / सविनय
अपने चारों ओर
बिखरे हुए
घिरे हुए
काँटों को भी
खुल खिल हँसने
जगने
मृदुतम बनने की
प्रेरणा देती हुई
सकल दलों सहित
उत्फुल्ल फूलों-सी
फूली न समाये
यह मम नासिका
बने...ध्रुव गुण उपासिका
ऐसी दो आसिका
गुणावभासिका
हे अविकल्पी
अमूर्त शिल्प के शिल्पी...!