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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. इस प्रकार धरती की श्रेष्ठता को पूजा के फूलों से सम्मानित करता हुआ, समुद्र की नीचता को डाँट के कठोर-काँटों से तिरस्कृत करता हुआ सूर्य फिर स्वाभिमान से भर गया और उसकी उष्णता और अधिक तेज हो गई। खून में लिप्त ऊपर उठी हुई, भय को पैदा करने वाली भृकुटियाँ मानो आग की बूंद टपकाती हुई कह रहीं हैं किसी को नहीं छोडूंगी और जंगल में लगी भयंकर आग-सी बनी धधक रही है। उसकी दोनों आँखों से मानो ज्वालामुखी ही फूट कर बाहर आ रहा है। जो अग्नि तत्त्व का मूल स्रोत है, सारे विश्व को प्रकाश और प्रताप देने वाला है इसके अभाव में सारे संसार के चेतन-अचेतन सभी की क्रिया-प्रतिक्रियाएँ समाप्त हो जावेगी। मात्र चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा जायेगा। जो सदा दूसरों को निन्दा की ही नजरों से देखने में तल्लीन रहते हैं, ऐसे बादलों को जलाने की चेष्टा करने वाले सूर्य को देख, सागर ने राहू को याद किया और कहा - क्या सूरज तुमसे परिचित नहीं है? जो इतनी उद्दण्डता कर रहा है। सौरमण्डल की शालीनता को नष्ट करता हुआ, धरती की ही सेवा प्रशंसा कर रहा है, क्या हिरण भी शेर के सम्मुख पहुँच मनमानी करता है? क्या मेंढक भी सर्प के मुख पर जा खेल खेल सकता है? यदि नहीं तो फिर सूर्य का यह कार्य धरती की सेवा के बहाने आपका मजाक तो नहीं है? जितनी चाहो जितनी माँगों उतनी राशि सम्मान के साथ आपको भेंट की जावेगी, कारण- "शिष्टों का उत्पादन-पालन हो दुष्टों का उत्पातन-गालन हो, सम्पदा की सफलता वह सदुपयोगिता में है ना !" ( पृ. 235 ) यह जो धन सम्पदा हमने इकट्ठी कर रखी है, इसका सदुपयोग इसी में है कि सज्जनों की सुरक्षा हो और दुर्जनों की दुर्जनता नष्ट हो। सागर की बात सुनते ही राहु के मुख में पानी आ गया (लोभ जागृत) और उसने अपने गमन की दिशा बदल दी। फिर क्या ! इधर सागर ने भी विमानों में भर-भरकर चमचमाती असंख्य निधियाँ, हीरे, मोती, मूंगा, माणिक और पुखराजों की पट्टियाँ, राजाओं के मन को लुभाती नीलम के नग जड़ी चाँदी की छड़िया इत्यादि सौरमण्डल की ओर भेजी। यह सब काम चुपचाप, दिन दहाड़े चलता रहा। राहु ने राशि स्वीकार किया सो सागर का पक्ष मजबूत हुआ। ज्यों ही उसके घर में बिना मेहनत किए रिश्वत का पैसा पहुँचा त्यों ही उसका सिर भी पाप समूह से भर गया और बुद्धि भ्रष्ट हो गई । लगता है इसलिए राहु इतना काला हो गया कि किसी को दिखाई नहीं देता और न ही कोई उसे छू सकता है। अभी तक सागर अकेला था अब राहु भी उसके साथ हो गया, गुरबेल तो स्वभाव से ही कड़वी होती है और नीम-वृक्ष पर चढ़ जाए तो फिर उसकी कटुता का कहना ही क्या? कई गुनी अधिक बढ़ जाती है। भला-बुरा जो होगा सो भविष्य की गोद में ही देखा जाएगा किन्तु उन दोनों के मन की आकुलता कई गुनी बढ़ गई, चैन (शान्ति) कहीं खो गई। दिन हो या रात, प्रकाश हो या अंधकार आँखें बंद कर भी दोनों प्रलय की बात ही सोच रहे हैं, एक ही लक्ष्य पृथ्वी पर प्रलय मचे, अशांति फैले किसी तरह।
  2. बादलों की कठोर, कर्कश, कर्णकटुक घोर गर्जना से दशों दिशाएँ बहरी हो गईं, आकाश का तेज फीका पड़ गया और सबको सहारा देने वाला प्रकाशवान सूर्य, बेसहारा बना बादलों में लीन हुआ। जिससे प्रभाकर की किरणों का समूह भी प्रभावित हो फीका पड़ा कुछ कहता है बादलों से -अरे ! ठगों पापखण्ड का पक्ष लेने वालों, रहस्य की बात समझने में तुम्हें अभी समय लगेगा, समझना चाहो तो सुनो - "गन्दा नहीं, बन्दा ही भयभीत होता है विषम-विघन संसार से - और, अन्धा नहीं, आँख-वाला ही भयभीत होता है परम-सघन अन्धकार से।" (पृ. 232) जिसका जीवन पाँच पापों की कीचड़ से लिप्त है वह नहीं, अपितु प्रभु भक्ति में लीन रहने वाला पवित्र मानव ही, संसार की बुराइयों से, नरकादि दुर्गतियों से डरता है। नेत्रहीन नहीं, किन्तु आँख वाला मनुष्य ही घोर अन्धकार से डरता है। सफेद स्वच्छ वस्त्र पहनने वाला ही गंदगी, दाग लगने से भयभीत होता है जिसने गंदा, काला वस्त्र पहना हो उसे गंदगी से क्या भय? हिंसा रूप परिणामों को नष्ट करना हिंसा नहीं अपितु परम अहिंसा धर्म की पूजा करना-'अहिंसा' ही है और हिंसा करने वाले की हिंसा करना अथवा उसकी प्रशंसा, सराहना करना नियम से अहिंसा धर्म की क्रूर हत्या है। बुद्धि, ज्ञान पूर्वक कार्य करना ही धरती का पांडित्य है, प्रशंसनीय गुण है। मात्र जड़ में लीन होना, जड़ की चाह रखना ही समुद्र की कायरता, भीरूता है।
  3. सत्कार्यों को करने में कभी आनंद नहीं लेते, विषय-भोगों में ही रस लेने वाले, कषाय को पैदा करने वाले इन बादलों का ‘जलधर' नाम सार्थक ही है। अज्ञान को धारण करने से इनकी बुद्धि अत्यन्त मन्द हुई है, मद में अन्धे बने हैं। यद्यपि इनका एक नाम ‘पयोधर' भी है फिर भी वर्षा ऋतु में ये विष ही बरसाते हैं। लगता है, तभी तो भौंरे के समान काले होते हैं अन्यथा वर्षा ऋतु के बाद हीरे के समान स्वच्छ रंग वाले क्यों होते? ये बात अलग है कि पृथ्वी/धरती का समागम पा विष भी अमृत बन जाता है। किसी कार्य की सफलता के लिए - "उपाय की उपस्थिति ही पर्याप्त नहीं है, उपादेय की प्राप्ति के लिए अपाय की अनुपस्थिति भी अनिवार्य है। और वह अनायास नहीं, प्रयास-साध्य है।" (पृ. 230) लक्ष्य की/ग्रहण करने योग्य वस्तु की प्राप्ति के लिए मात्र सहयोगी. साधक कारणों की उपस्थिति ही मात्र पर्याप्त यानी सामर्थ्यवान नहीं है किन्तु अपाय यानी बाधक कारणों का अभाव होना भी अनिवार्य है। जैसे-दीप जलाने के लिए माचिस की काड़ी (तीली) के साथ-साथ तीव्र हवा का अभाव होना भी आवश्यक है। तेज हवा हो और कितनी बार भी जलाकर तीली लगाई जावे दीपक बुझ ही जावेगा। बाधक कारणों का अभाव सहज ही अपने आप नहीं होता उसके लिए पुरुषार्थ करना आवश्यक होता है। सो इस व्यवस्था को याद रखते हुए बादल, सर्वप्रथम अपने बाधक तत्त्व प्रभाकर से जा भिड़ते हैं और गंभीर गर्जना करते हुए कहते हैं-तू धरती का पक्ष ले सागर से क्यों चिढ़ता है? अरे! तेज प्रभाकर तुम भले ही सब ग्रहों में प्रधान, देवता रूप गगनमणि कहलाते हो, पर हो बड़े उग्र स्वभाव वाले, तुम्हारा शरीर धारण करना व्यर्थ ही है क्योंकि तुम्हें दिन भर दीन-हीन हो दर-दर भटकना पड़ता है। क्षण भर भी विश्राम के लिए तुम्हें कोई स्थान नहीं मिलता। फिर तू क्या समझकर सागर के साथ संघर्ष करने हेतु साहस करता है। मेरी मान वक्त है दिमाग से काम ले और समुद्र का पक्ष स्वीकार कर, अपने आप पर, उपकार कर, जीवन में सुख-शान्ति और यश को जोड़ ले, अपनी उल्टी बुद्धि को सीधी करले वरना कुछ ही क्षणों में ग्रहण की व्यवस्था होगी। क्योंकि- "अकीर्ति का कारण कदाग्रह है' कदाग्रही को मिलता आया है। चिर से कारागृह वह!" (पृ. 232) कुत्सित (बुरा) आग्रह, हठाग्रह ही अपयश का कारण बनता है और हठाग्रही, एकान्त पक्षधारी को निश्चित ही अनादिकाल से शरीरादि बंधन रूप जेल मिलती आयी है।
  4. ज्यों ही सागर ने बड़वानल की बात सुनी, त्यों ही वह जोर से ठहाका मारकर हँसता हुआ बोला- जो कहता है, वह करता नहीं और जो करता है, वह कहता नहीं। करनी और कथनी में बहुत अन्तर हुआ करता है। ऊपर से सूरज क्रोधित हो रहा है, नीचे से तुम चिल्ला रहे हो किन्तु बीच में रहकर सागर न जला और न ही उबला इसने अपने शीतल स्वभाव को कभी नहीं बदला, किन्तु क्या करें? शीतलता का योग पाकर भी तुम शीतल ना बन सके, ना ही तुमने उष्णता छोड़ी। दूसरी बात तुम्हारा स्वभाव ही गरम है, पित्त सदा भड़का रहता है, चित्त (मन) सदा विचलित रहता है अन्यथा पागलों के समान यद्वा-तवा कुछ भी क्यों बकते तुम। मेरी मानो पित्त के उपशमन हेतु मुझसे याचना कर, सुधा (अमृत) लेकर चन्द्रमा के समान सुधा का सेवन किया करो तथा सूर्य का पक्ष ना लिया करो, समझे मेरी बात ! पृथ्वी पर प्रलय मचाना ही प्रमुख उद्देश्य है सागर का। अतः इस बार बहुत समय देकर तीन पुरुष बादलों को प्रशिक्षित किया गया है, बदलियों-स्त्रियों को नहीं झट से बदलने वाली । बादल सघन घने हैं, प्रमुख कार्यों में विघ्न डालना ही इनका प्रमुख कार्य है। जघन्य परिणाम और जघन्य ही इनका काम है, 'घन' सार्थक नाम है इनका । सागर से खारे जल को भर, वायुयान के समान अपने दलों सहित उड़ते-उड़ते आकाश में पहुँचते हैं बादल-दल ये। पहला बादल इतना काला है कि अपने साथियों से बिछुड़ा भौंरों का समूह इन्हें ही अपना साथी समझ कर बार-बार इनसे आ मिलता है और निराश हो लौट जाता है। दूसरा बादल महादेव के गले में क्रीड़ा करता हुआ महाविषैले नीले-नाग के समान नीला, जिसकी आभा से पीली फसल भी हरी दिखने लगी है और अन्तिम बादल कबूतर के रंग वाला है। तीनों तन के समान ही मन से भी दूषित हृदय वाले हैं। इनका दूषित मन कैसा है सो आगे बताया जाता है। चाण्डाल सम विकराल रूप वाले, घमण्ड के अखण्ड पिण्ड, क्रूरता का आवास हैं जिनका हृदय, सदा कलह करने वाले, भूत भी डर जाये इतने डरावने, रात्रि इनकी बहिन लगती है शशि (चन्द्रमा) से जिसका विवाह हुआ है, कारण कि सागर से मित्रता होने से अपयश का पात्र बना, शशि को कोई कन्या नहीं देना चाहता था, अत: बादलों की बहिन रात्रि से ही शशि का सम्बन्ध कर दिया गया, सो सागर को इसका श्रेय जाता है। किसी के वश में नहीं आने वाले, दुष्ट हृदयी, दूसरों को दुख देकर तृप्त होने वाले, दूसरों को देखते ही रुष्ट होने वाले, सदा प्रतिकार करने की प्रवृत्ति वाले, वैर-विरोध पालने वाले, निर्दोषों में दोष लगाने वाले, संतोषी-क्षमावान प्राणियों में भी क्रोध जगाने वाले, पूज्य पुरुषों की निन्दा करने वाले तथा अच्छे कार्यों से दूर रहने वाले हैं ये बादल-दल ।
  5. सागर के मन में धरती के प्रति बढ़ती ईर्ष्या, बैर भाव, गुरुजनों के प्रति अहंकार युक्त दृष्टि, सबको वश में रखने की प्रबल आकांक्षा, दुनिया को भक्षण करने की प्रवृत्ति देख, प्रभाकर से सहा नहीं गया यह सब। और उसने अपनी जाति वाले, अपने द्वारा शासित, सागर की गहराई में रहने वाले अग्नि तत्त्व को जागृत किया। परिणाम स्वरूप समुद्र में बड़वानल' पैदा हुआ, भयंकर रूप ले खौल उठा और वह सागर से कहता है-अरे खारे सागर! क्या तुझे पता नहीं मैं एक क्षण में तेरे सारे जल को पी तुझे सुखा सकता हूँ, तू अपनी विपरीत चाल को छोड़, धरती का सम्मान कर। सो बड़वानल ने उचित समय पर ठीक ही किया क्योंकि - "आवश्यक अवसर पर सज्जन - साधु पुरुषों को भी, आवेश-आवेगों का आश्रय लेकर ही कार्य करना पड़ता है। अन्यथा, सज्जनता दूषित होती है दुर्जनता पूजित होती है जो शिष्टों की दृष्टि में इष्ट कब रही ......?" (पृ. 225) सात्त्विक आचरण को धारण करने वाले सच्चे सरल पुरुषों को, हमेशा शांत रहते हुए क्षमा भाव धारण करना ही चाहिए ऐसी एकान्त धारणा बनाना ठीक नहीं, क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें भी उद्वेग एवं क्रोध का सहारा लेकर ही कार्य करना पड़ता है तभी धर्म और धर्मात्मा की रक्षा हो पाती है। यदि आवश्यक समय पर भी सज्जन पुरुष शान्त ही बने रहे तो सज्जनता पर भी दोषारोपण हो सकता है। और दुष्टों की दुर्जनता भी निर्दोषता को प्राप्त हो पूज्यता को प्राप्त हो सकती है, जो कि आत्मानुशासन में रहने वाले, शिष्टाचार का पालन करने वाले महापुरुषों के लिए कभी भी प्रिय अथवा वांछित नहीं हो सकती। विशेष- विष्णुकुमार मुनि ने विक्रिया ऋद्धि से शरीर बड़ा कर तीन पग धरती नापते हुए 700 मुनियों की रक्षा की। बालि मुनिराज ने पैर का अंगूठा दबाकर रावण को सबक सिखा कर, 72 स्वर्णमयी जिनालयों की सुरक्षा एवं असंख्यात जीवों को प्राण दान दिया। तो श्री अकलंक स्वामी ने छह माह तक बौद्धों से वाद- विवाद किया, समन्तभद्र स्वामी ने पिण्डी में से चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा प्रकटाकर जिनशासन की प्रभावना की।
  6. इसी प्रकार धरती की उज्वल कीर्ति, चन्द्रमा की किरणों को तिरस्कृत करती हुई दशों दिशाओं को पार कर अनन्त आकाश में फैलती ही जा रही है। धरती पर रहने वाले शूरवीरों, श्रीमानों, धीमानों, ऋषि, असि, मसि, पर्वत, सरिताओं इत्यादि अनेक प्रकार की आभाओं/प्रतिभाओं का धरती से सहज प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। इधर दूसरी ओर धरती के बढ़ते यश को देखकर सागर की कुटिल मनोवृत्ति कुढ़ती ही जा रही है। यह सब शत्रुता का ही परिणाम है इसमें कोई सन्देह नहीं। कुम्भ को मिटाने के लिए जिन बदलियों को भेजा था, उनके द्वारा बदला लेने की जगह उल्टा पर-पक्ष का समर्थन, मोतियों की वर्षा कर वापस लौटती देख सागर का क्रोध चरम सीमा को छूने लगा। आँखें लाल हुईं, भोहें टेढ़ी हो गईं। सागर की गम्भीरता, कायरता, भयता में बदली। भविष्य धूमिल दिखता है यूँ सोचता हुआ वह कुछ मन के विचार व्यक्त करता है कि-अपनी हो या दूसरों की स्त्री, स्त्री जाति का स्वभाव ही है वह किसी एक पक्ष की होकर नहीं रहती अन्यथा जिस भूमि में जन्म लिया, ऐसी मातृभूमि और जिसने जन्म दिया ऐसी माँ और अपने सगे भाई-बहिन एवं परिवार-जन को छोड़कर अन्यत्र ससुराल चले जाना हँसी-खेल, सहज है क्या? और वह भी बिना संक्लेश, बिना आना-कानी किए। यह कार्य पुरुष समाज के लिए टेढ़ी खीर अर्थात् अत्यन्त कठिन ही नहीं असंभव ही है। इसलिए भूलकर भी - "कुल-परम्परा संस्कृति का सूत्रधार स्त्री को नहीं बनाना चाहिए। और गोपनीय कार्य के विषय में विचार-विमर्श-भूमिका नहीं बताना चाहिए......।" (पृ. 224) कुल या वंश परम्परा, सभ्यता की सुरक्षा का भार स्त्री को नहीं सौंपना चाहिए, ना ही प्रधान बनाना चाहिए। और गुप्त कार्य के विषय में स्त्रियों से विचार-विमर्श करना, सलाह लेना, मूल रचना की बात इत्यादि नहीं कहना चाहिए।
  7. धरती की बढ़ती कीर्ति, सागर द्वारा लौटी बदलियों को डाँट, स्त्री जाति का स्वभाव बताना। सागर का धरती के प्रति बैर-वैमनस्क भाव देख प्रभाकर ने सागर तल के रहवासी तेज तत्त्व को सूचित किया, परिणाम स्वरूप बड़वानल द्वारा सागर पर आक्रोश व्यक्त, धमकी बदले में सागर का जवाब । पुनः सागर द्वारा तीन बादलों को प्रशिक्षित कर गगन में भेजना, तीनों के तन-मन की मीसांसा, रूप-स्वरूप की व्याख्या। बादलों का प्रभाकर से भिड़ना तथा सागर का पक्ष लेने हेतु सलाह देना अन्यथा शीघ्र ही ग्रहण की व्यवस्था होगी धमकी देना। प्रभा-मण्डल द्वारा जवाब-गन्दा नहीं बन्दा ही संसार से भयभीत होता है। तेज हुए सूर्य को देख सागर ने राहु को याद किया, मन चाही-मुँह माँगी राशि दे राहु को गुमराह कर दिया। राहु ने साबुत ही सूर्य को निगल लिया । सूर्य ग्रहण होने पर पृथ्वी- पृथ्वीवासियों की दशा । प्रलयकारी वर्षा की पूरी सम्भावना देख माँ धरती से आशीर्वाद ले, धरती के कण-कण आकाश में ऊपर उड़ जाते हैं, बादलों से संघर्ष करने हेतु । जल-कणों को सुखाने का प्रयास, जलकण भू-कणों का टकराव, इन्द्रधनुष का अवतरण, लेखनी की भावना, इन्द्र का पुरुषार्थ, बिजली का काँपना, ओला वृष्टि, लेखनी द्वारा सौर मण्डल और भू मण्डल की तुलना, अन्त में बादलों-ओलों की हार तथा भू-कणों की जीत।
  8. कुम्भकार की बात सुन थर्मामीटर में उतरते पारे के समान जल की कुछ बूंदें पड़ते ही शान्त होते दूध के समान, राजा की मति की उद्वेगता (उफान) भी कम हुई । राजा शान्त और स्वस्थ्य हुआ ऐसी स्थिति देख पुनः कुम्भकार ने निवेदन किया राजा से हे तलवार को धारण करने वाले कृपा-प्राण! इस निधि को स्वीकार कर मुझ पर कृपा करो, यह उपहार नहीं किन्तु आपका ही श्रृंगार है, जीत है इसका उपयोग करना हमारी पराजय है स्वामिन ! कुम्भकार की प्रार्थना को बोरियों में भरी उपरिल मुक्ता-राशि देख-सुन रही है और राजा के मन की गुदगुदी' को समझ रही है मन्द मुस्कान के बहाने मानो कह रही है कि हे राजन्! यह आपके पद के अनुकूल है स्वीकार करियेगा। कुम्भकार के निवेदन, मुक्ता और माहौल का समर्थन पा राजा स्वीकृति प्रदान करता है और सानन्द मोतियों की दुर्लभ राशि ले राजकोष को समृद्ध करता है। परन्तु इतना सब होने पर भी मुक्ता अपने नाम के अनुसार ही ना राग करती-ना द्वेष, मद-ई-अहंकार इन सबसे परे है वह। आकाश से गिरी, बोरियों में भरी राजप्रासाद की ओर जा रही है वह। सब उसकी प्रशंसा कर रहे हैं पर वह उन्हें सुनती कहाँ, प्रसन्न मुखी महिलाओं के गले का हार बनती, तो कभी तारणहार तोरणद्वार बनती। इतना सब होने पर भी अहंभाव से मुक्त ही रहती है वह मुक्ता।
  9. कुम्भ की व्यंग्यात्मक भाषा को सुन राजा का माथा भी एक साथ तीन भावों से भर गया। प्रथम लज्जा में डूब गया, दूसरा क्रोध कम-ज्यादा होने लगा और घटना की सत्यता पर चिन्ता मिश्रित चिन्तन चलने लगा। राजा की मुख मुद्रा को देख शिल्पी ने राजा के मन की स्थिति को जाना और कुम्भ की ओर तिरछी नजर करते हुए विचारता है-आत्मबोध में कारण, किन्तु हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाले, मर्मभेदी आगामी समय में मधुरता देने वाले किन्तु आज कटुक, कुम्भ के वचनों को विराम मिले। और राजा के प्रति अपने अच्छे विचार व्यक्त हों, इसी उद्देश्य से कुल परम्परा से चली आई कुलीनता, अच्छे आचरण, विचारधारा का परिचय मिलता है, कुम्भ को कुम्भकार से, छोटे होकर भी अपने से बड़ों को उपदेश देना महा अज्ञान का ही फल है दुख का कारण। परन्तु बड़ों से अच्छे गुण ग्रहण कर, मोक्षमार्ग में चलेंगे हम, ऐसा वचन देना महा वरदान है सुख का अमृत पेय। और- "गुरु होकर लघु जनों को स्वप्न में भी वचन देना, यानी उनका अनुकरण करना सुख की राह को मिटाना है।" ( पृ. २१९) बड़े होकर छोटों को स्वप्न में भी वचन देना, उनका अनुकरण करना सुख को छोड़, दुख के मार्ग में जाना है। हाँ, इतना जरूर है कि यदि कोई विनय, अनुनय सहित आत्महित की बात पूछता हो तो बिना स्वार्थ के, एकान्त पक्षीय हठाग्रह से दूर, हितकारी, सीमित और मीठे-मीठे वचनों से प्रवचन देना दुख को दूर करता है।
  10. धरती पर सूखने रखा अपक्व (कच्चा) कुम्भ सब घटना देख रहा है, अतः वह चुप न रह सका और राजा से कहता है - बड़ी आपत्ति में पड़ते-पड़ते बच गए राजन् ! बड़े ही पुण्य का उदय समझिये। वरना आपका और सबका जीवन समाप्त हो आकाश में खो गया होता और फिर जलती अगरबत्ती को हाथ लगाना कौन-सी बुद्धिमानी थी, यदि अगरबत्ती अपनी सुगंध स्वयं ग्रहण करती तो अलग बात थी। वह अपनी सुगंध आपकी नासिका तक भेज ही रही थी अर्थात् शिल्पी मोती स्वयं रखता ही नहीं वह तो आपको ही भेट करता। दूसरी बात यह भी है - "लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन रावण हो या सीता हो राम भी क्यों न हों दण्डित करेगा ही !" (पृ. 217) मर्यादा का उल्लंघन रावण और सीता ही नहीं, राम भी करेंगे तो उन्हें भी दण्ड भोगना ही पड़ेगा। अधिक धन की चाह रूपी आग में जो जल रहा है अर्थ ही प्राण और अर्थ ही रक्षक बना है, ऐसा मानकर जो धन से प्रभावित हो रहा है वह सही-सही अर्थ नीति को नहीं जानता है। इस कलिकाल में बढ़ती हुई विषयों की चाह से विश्व ने यही ग्रहण किया है कि व्यापार की आड़ में, किसी भी तरह न्याय-अन्याय से धन अर्जित करना ही लक्ष्य बन गया है। सारी लोकलाज को छोड़कर, तन का ही व्यापार होता जा रहा है आज कलिकाल का ही प्रभाव लगता है।
  11. स्व-पर की चेतना के विकास हेतु प्रभु से प्रार्थना करता है शिल्पी - "जीवन का मुण्डन न हो सुख-शान्ति का मण्डन हो, इन की मूच्र्छा दूर हो बाहरी भी, भीतरी भी इन में ऊर्जा का पूर हो।" (पृ. 214) हे भगवन् ! यह जीवन विषय-कषायों के वशीभूत हो यूं ही नष्ट न हो जाए बल्कि सुख शान्ति से विभूषित हो और इन सबकी बाहरी शरीर सम्बन्धी बेहोशी तथा भीतरी पर पदार्थों के ग्रहण की इच्छा रूपी मूच्र्छा शीघ्र ही दूर हो। आत्म तत्त्व की प्राप्ति हेतु उत्साह से इनका जीवन भरा हो, इनमें शान्ति का संचार हो। फिर कुछ पलों के लिए आँख बन्द कर, शान्त भावों से प्रभु की वन्दना में डूब जाता है शिल्पी-फिर ओमकार के उच्च उच्चारण के साथ ही मौन खोलता हुआ हाथ की अंजुलि में पानी भरकर मन ही मन मंत्र जपता हुआ, मन में मंगल- कुशलता का अभिप्राय ले मन्त्रित जल को मूर्छित मंत्रीमण्डल के मुख पर डालता है। फिर क्या कहना? क्षण भर में सबकी मूच्र्छा दूर हुई, सूर्य किरणों के स्पर्श से खिलती कमलिनी के समान सबके नेत्र खुलने लगे। मूच्र्छा दूर होते ही मण्डली मोतियों से दूर भाग गई, राजा ने भी अपना स्थान परिवर्तित किया। कहीं पुनरावृति न हो जाए इसी भय से। उत्सुकता नहीं रही जिस कण्ठ में, दुःख से भरा रुका हुआ स्वर है जिसका, दबी-दबी कंपती वाणी से, आँखों में आँस लिए, दोनों कर जोडे विनम्र हुआ शिल्पी कहता है राजा से-अपराध क्षमा हो स्वामिन् ! मेरी अनुपस्थिति के कारण आप लोगों को कष्ट हुआ। आप तो हमारे स्वामी हैं दया के सागर, हम प्रजा आपकी दया के पात्र हैं, आप पालक हैं, हम बालक हैं। यह सब वैभव, मुक्ता राशि आपकी ही है हमें बस आपका सानिध्य ही पर्याप्त है। आप निर्भय रहें अब पुनरावृत्ति नहीं होगी। यूँ कहते हुए बिना किसी भय के कुम्भकार ने स्वयं ही अपने हाथों से मोतियों की राशि बोरियों में भर दी। यह दृश्य देख मंत्री समेत राजा के मुख से निकली ध्वनि सत्य धर्म की जय हो ! सत्य धर्म की जय हो!!
  12. तभी तो कर्ण कटुक, अप्रिय वचन सुनकर भी मण्डली मोती लेने झुकती है किन्तु मोतियों को हाथ लगाते ही सबके शरीर पापड़ जैसे सिकने लगते हैं, लगा बिच्छु ने डंक मार दिया हो अंग-अंग में तड़फन होने लगी, सब धरती पर गिर पड़े, करवटें बदलने लगे। कुछ ही देर में सबके पूरे शरीर में विष फैल गया, शरीर नीले-नीले पड़ गये। मोही मन्त्री सहित सारी की सारी मण्डली मूर्छित हो गई। यह सब देख राजा भी भयभीत हो चुपचाप खड़ा रहा उसे लगा, किसी ने उसे स्तम्भित कर दिया हो, हाथ, पैर, कान, मुख सब शून्य से हो गये। आँखों के सामने अंधेरा-सा छा गया। मन में प्रतिकार का भाव होते हुए भी राजा किंकर्तव्य विमूढ़-सा खड़ा है ऐसा माहौल क्यों बना, कुछ समझ नहीं आ रहा। इस अवसर पर दुनिया भर का जमघट (मनुष्यों की भीड़-भाड़) इकट्ठा हो गया। इसी समय कुम्भकार का भी वापस आना हुआ। प्रांगण के बाहर एकत्रित भीड़ तथा राज मण्डली की दशा देख शिल्पी की आँखों में आश्चर्य, खेद और वैराग्य ये तीनों भाव एक साथ झलकने लगे। पहली बार उपाश्रम के पास इतनी भीड़ आश्चर्य का कारण बनी, राजमण्डली की मूच्र्छा, राजा का कीलित होना खेद का कारण बना तथा स्त्री और धन के वशीभूत हुए कभी भी दुख से दूर नहीं हो पाते यह जो साक्षात् दिखा सो वैराग्य का कारण बना। जिससे कुम्भकार की आँखों में आँसू आ गए, स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला यह स्थान इस दुर्घटना का माध्यम बना। इस मंगलमय स्थान में दंगल, अनर्थ क्यों हो रहा है प्रभो! यूँ विचारता है शिल्पी, लगता है पूर्व पुण्य के फलस्वरूप प्रांगण में मोतियों की वर्षा हुई और यह वर्षा ही इस उपसर्ग का कारण बनी।
  13. कुम्भकार के अभाव में उपाश्रम के प्रांगण में मोतियों की वर्षा देख आसपास का पूरा माहौल आश्चर्य में डूब गया। सबके मन में मोती प्राप्त करने का भाव जागा। इधर उड़ते-उड़ते खबर राजा के कानों तक पहुँची कि राजा अपनी मण्डली सहित कुम्भकार के प्रांगण में पहुँचता है। और सेवकों को आदेश देता है कि मोतियों को इकट्ठा कर शीघ्र ही बोरियों में भर लो । जैसे ही मण्डली मोतियों को उठाने नीचे झुकती है कि आकाश में जोरदार गर्जना होती है अनर्थ ! अनर्थ ! अनर्थ! पाप! पाप पाप! क्या कर रहें हैं आप - "परिश्रम करो पसीना बहाओ बाहुबल मिला है तुम्हें करो पुरुषार्थ सही पुरुष की पहचान करो सही |" (पृ. 211) जो वस्तु अपनी नहीं उसे लेने का प्रयास कर रहे हों। मेहनत करो, पसीना बहाओ, दो हाथ मिले हैं उनमें शक्ति मिली है तुम्हें, हे पुरुष ! पुरुषार्थ करो सही-सही और पहचान करो अपनी । मक्खन का गोला भले ही सीधे निगल लो किन्तु मेहनत किए बिना वह पच नहीं सकता, यदि पेट में रह गया तो जीवन खतरे में भी पड़ सकता है। "पर-कामिनी, वह जननी हो, पर-धन कंचन की गिट्टी भी मिट्टी हो सज्जन की दृष्टि में।" ( पृ. 212) सज्जनों की नजरों में दूसरों की स्त्री, अपनी माता के समान आदरणीय होती हैं तो दूसरों का धन-वैभव, सोने की डली भी मिट्टी के समान मूल्यहीन होती है। लगता है सारे संसार से शिष्टाचार कहीं दूर चला गया, दुराचार ही शेष रह गया।
  14. कुम्भकार की अनुपस्थिति प्रांगण में मोतियों की वर्षा, राजा का मण्डली सहित आना । मण्डली द्वारा मुक्ता को उठाने का प्रयास, मुक्ता को छूते ही बिच्छू के डंक लगने जैसी छटपटाती मूर्छित हुई मण्डली, कीलित हुआ राजा, आसपास जुड़ा जमाने का जमघट और शिल्पी का वापस लौटना, बाहर से प्रांगण का दृश्य देख विस्मय, विषाद, विरति की परिणति। भीतर प्रवेश कर मंत्रित जल से सबकी मूच्र्छा दूर करना, राजा से क्षमायाचना और मुक्ता राशि स्वीकारने का सविनय अनुरोध । इधर अपक्व कुम्भ द्वारा राजा पर व्यंग्य, राजा के मन में लज्जा, रोष और घटना की यथार्थता का चिन्तन । कुम्भकार द्वारा कुम्भ को कुलीनता का परिचय देना, जिसे सुन राजा की मति का उफान कम होना । मुक्ता ग्रहण की स्वीकृति, बोरियों में भरी मुक्ता राज प्रासाद की ओर।
  15. इधर नीचे से धरती भी आँखें खोलकर इस घटना को देख रही थी। बदलियों के भावों में निर्मलता आई, धरती के स्नेह का पात्र बनी। धरती के हाथ अनगिण कणों के रूप में ऊपर पहुँचते हैं और बदलियों के आँखों से निकलने वाले आँसुओं को प्रेम से सहलाते हैं, आँसू की बूंदें और धूल के कण आपस में एक दूसरे से गले मिले। जल को जड़ता से मुक्ति मिली और जल मोती बनकर मेघमुक्ता के रूप में परिवर्तित हुआ। यह सब कार्य किसके पुण्य से, किसकी सहायता से, किसकी भावना से, किसकी प्रेरणा से, किसके आश्रय में हुआ, यह सब शंका स्वयं ही नष्ट हो जाती है और माटी के कच्चे घड़ों पर कुम्भकार के प्रांगण में मेघमुक्ता की वर्षा होती है। पूजक मोती, पूज्य धरती के चरणों में नमन करते हैं।
  16. प्रभाकर के मुख से स्त्री समाज के सद्गुण एवं गौरवशाली इतिहास को सुन, बदलियों ने अन्तःकरण से उपदेश को स्वीकार किया। विपरीत भाव, बदले का भाव, वाद-विवाद की बात सब कुछ भुलाकर बाहरी रंग के अनुरूप ही, भीतर से भी बदली तीनों बदलियाँ। अपनी उज्वल परम्परा को सुन, अपने पति समुद्र का पक्ष उन्हें गलत प्रतीत हुआ। जगत्पति सूर्य का पक्ष सही लगा और अपराधिक भाव के प्रति उनका मन ग्लानि से भर गया। सो वे तुरन्त दिवाकर से कहने लगीं-गलती के लिए क्षमा चाहते हैं हम, हमें सेवा का अवसर प्रदान करें। आपने जो नारी की गौरव-गाथा सुनाई, वैसा ही हमारा जीवन आदर्श बने, अज्ञान की धूल दूर हो मन से हमारे, यही चाहते हैं हम बस! अपरिचित आहार और अपरिचित आधार का ही परिणाम अज्ञानमय दुखी जीवन रहा, आनन्द की प्राप्ति का मूल कारण हमें ज्ञात हो स्वामिन् । कार्य- अकार्य का विवेक जागा है जिनमें समता के नेत्र खुले हैं, तन-मन मृदु और प्रसन्न बना है, दान-कर्म से युक्त दया धर्म में चतुर, मधुर भाषणी वीणा-सी बनी, राग- रंग को त्यागने वाली, वैराग्य भावों से युक्त, सरल-सुंदर हँसी-सी बनी, सहनशीलता की मूर्ति, हिंसा से दूर रहने वाली, सती- सन्तों के प्रति विनयशील, पूज्य भावों को रखने वाली, पक्षपात से दूर न्याय पक्ष को ग्रहण करने सच्ची मित्र बनी वो बदलियाँ। भावी भोगों की इच्छा को मन से निकालती-सी, शुक्ल, पद्म और पीत लेश्या को धरती, पाप को पुण्य में पलटाने हेतु, पश्चाताप के भावों से भरी, अश्रुपूरित' नेत्रों वाली वे बदलियाँ सूर्य नारायण को पुनः तीन परिक्रमा देती हैं।
  17. आगे मातृ शब्द की सार्थकता को भी समझें - सन्त पुरुष प्रमातृ शब्द का अर्थ ज्ञाता बताते हैं, जानने की शक्ति वह मातृ तत्त्व के पास ही है, इसलिए सबको जन्म देने वाली, सबकी मूल आधार मात्र मातृतत्त्व ही है, अन्य कोई पिता या पुरुष नहीं। ज्ञाता के अभाव में ज्ञेय (जानने योग्य)-ज्ञायक (जानने वाला) सम्बन्ध ही समाप्त हो जाएगा। ऐसी स्थिति में वास्तविक सुख शान्ति किसे, क्यों और कैसे मिलेगी? इसीलिए इस जीवन में सदा माता का सम्मान होना चाहिए, उसका गुण-गान सदा होना चाहिए। धन्य है मातृ शक्ति। अनादिकाल से काम की आग में जलने वाले पुरुष समाज को स्त्री सुनाती/समझाती आ रही है। "स्वीकार करती हूँ ...... कि मैं अंगना हूँ परन्तु मात्र अंग ना हूँ ....... और भी कुछ हूँ मैं.....!" (पृ. 207) मैं इस बात को मानती हूँ कि मैं अंगना, तुम्हारे लिए भोग्या हूँ किन्तु मात्र अंग (शरीर) ही नहीं हूँ और भी कुछ हूँ मैं। शरीर के भीतर झाँकने का प्रयास करो। शरीर के सिवा और भी कुछ माँगने का प्रयास करो, जो मैं देना चाहती हूँ क्या तुम लेना चाहोगे? सो अनादिकाल से शाश्वत कर्मकलंक रहित, प्रकाशमान, भार रहित चेतना हूँ मैं, उसका आभार मानो, उसकी शरण लेने का पुरुषार्थ करो, जो सही-सुख का साधन है।
  18. गृहस्थ जीवन की शोभा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ से होती है। इन कर्तव्यों में प्रायः पुरुष ही पाप कर्म का बन्ध करता है, उसका वह पाप पुण्य के रूप में परिवर्तित हो इसके लिए स्त्रियाँ सदा प्रयत्नशील रहती हैं अर्थात् पुरुषार्थ करती रहती हैं। पुरुष की काम-वासना संयत बनी रहे तथा पुरुष धर्म मार्ग में लगा रहे अर्थात् निर्दोष काम पुरुषार्थ हो, इसलिए वह गर्भ भी धारण करती है। और- "संग्रह-वृत्ति और अपव्यय-रोग से पुरुष को बचाती है सदा, अर्जित-अर्थ का समुचित वितरण करके। दान-पूजा-सेवा आदिक सत्कर्मों को, गृहस्थ धर्मों को सहयोग दे, पुरुष से करा कर धर्म-परम्परा की रक्षा करती है।" (पृ. 204) अधिक धन इकट्ठा करने की प्रवृत्ति और फिजूल खर्च करने की आदत से पुरुष को बचाकर, अर्जित धन का यथायोग्य वितरण स्वयं करती है और पुरुष से करवाती है। गृहस्थों के योग्य दान-पूजा-सेवा आदि सत्-कार्यों को पुरुष से करवाकर उसमें सहयोग प्रदान कर धर्म परम्परा की रक्षा करती है, स्त्री कही जाती है। सार यह हुआ की जो धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों में पुरुष को कुशल-संयत बनाती है, वह स्त्री कहलाती है। स्त्रियों का एक नाम ‘सुता' भी है सो सुता शब्द स्वयं ही कह रहा है, जो सुख सुविधाओं का स्रोत है, सो सुता है। और सुनो स्त्रियाँ स्वयं अपना हित तो करती हैं किन्तु पतित से पतित पाप मार्ग में लगे पति का जीवन भी हित सहित बना देती है, सो दुहिता कहलाती है - "उभय-कुल मंगल-वर्धिनी उभय-लोक सुख सर्जिनी स्व-पर-हित सम्पादिका कहीं रह कर किसी तरह भी हित का दोहन करती रहती सो.....दुहिता' कहलाती है।" (पृ. 206) माता-पिता के कुल और सास-ससुर के कुल दोनों में पुण्य-धर्म को बढ़ाने वाली होने से तथा इहलोक और परलोक में भी सुख को उत्पन्न करने वाली, कहीं भी किसी भी परिस्थिति में रहकर अपना एवं दूसरों का हित करने में सदा लगी रहने से स्त्रियों का नाम “दुहिता' सार्थक है।
  19. जो अज्ञान अन्धकार को दूरकर, जीवन में अवगम यानी ज्ञान का प्रकाश लाती है, अबला कहलाती है अथवा जो पुरुष के मन को भूत यानी अतीत की चिन्ता, भविष्य की आशाओं से हटाकर अब यानी वर्तमान में लाती है, अबला कहलाती है। "बला यानी समस्या संकट है न बला......सो अबला समस्या-शून्य-समाधान !" (पृ. 203) जो संकट, समस्या नहीं है किन्तु दुनिया की अनेक समस्याओं का समाधान/हल है। जिसके अभाव में बलवान पुरुष भी निर्बल बन जाता है, समस्या समूह बन जाता है वह अबला कहलाती है। ‘कु’ यानी पृथ्वी, माँ यानी लक्ष्मी और ‘री' यानी देने वाली, भाव यह हुआ, जब तक इस पृथ्वी पर 'कुमारी' रहेगी तभी तक यह धरा धनसंपत्ति से सम्पन्न रहेगी इसलिए सन्तों ने लौकिक सभी मंगलों में कन्या को प्रथम मंगल माना है।
  20. स्त्री समाज की कई विशेषताएँ पुरुष के सामने आदर्श के रूप में प्रस्तुत हैं सो सुनो - "प्रतिपल परतन्त्र हो कर भी पाप की पालड़ी भारी नहीं पड़ती ..........पल-भर भी! इनमें, पाप-भीरुता पलती रहती है अन्यथा, स्त्रियों का नाम भीरु' क्यों पड़ा ?" (पृ. २०२) जीवन की हर घड़ियों में पराधीनता का अनुभव करते हुए भी सदा पाप से डरती रहती, पुण्य संचय करती रहती हैं स्त्रियाँ । इसलिए इनका नाम ‘भीरु' भी पड़ा। प्रायः पुरुषों के दवाब के कारण ही स्त्रियों को असंयम, अधर्म, अनीति के गलत मार्ग पर चलना पड़ता है, फिर भी सुपथ और कुपथ को अच्छी तरह से जानकर, सुपथ यानी धर्म-मार्ग पर ही चलती हैं स्त्रियाँ। इनकी आँखें करुणा से भरी हुई, शत्रुता से दूर होती हैं, मित्रता का पाठ सहज सीखने को मिलता है इनसे । इनका कोई अरि यानी शत्रु नहीं होता इसलिए इनका एक सार्थक नाम ‘नारी' भी है ‘ना अरि' सो नारी । और ना ही ये काटने वाली आरी हैं-नारी। "जो मह यानी मंगलमय माहौल, महोत्सव जीवन में लाती है ‘महिला' कहलाती वह !" (पृ. 202) जो पुण्यदायी वातावरण निर्माण करती है, महिला कहलाती है। जो जीवन के प्रति उदासीन हुआ हो, सहारा चाहता हो, ऐसे पुरुष को जन्मभूमि/दया धर्म के प्रति श्रद्धा जगा, सही रास्ता बताती है महिला कहलाती है वह। जो परिग्रह से पीड़ित है जिसका संयम ग्रहण के प्रति उत्साह न हो ऐसे संग्रहणी रोग से ग्रसित पुरुष को मही पिलाती है महिला कहलाती है।
  21. सर्वप्रथम बदलियों ने सूर्य की किरणों को प्रभावित करने का प्रयास किया। सूर्य को बीच में लेकर उसके चारों ओर घूमने लगी। कुछ ही समय में सूर्य की किरणें प्रभावित हुईं, परन्तु सूर्य का तेज कम नहीं हुआ न ही उसकी गति में कोई कमी आई। अपनी पत्नी किरण को प्रभावित देख सूर्य हल्की से उत्तेजना के साथ कुछ उपदेश देता है- अनादिकाल से आज तक कभी देखा व सुना नहीं गया कि स्त्री समाज ने पृथ्वी पर प्रलय मचाया, किन्तु आई हुई ये बदलियाँ क्या अपनी सत्-परम्परा को बिगाड़ना चाहती हैं ? "अपने हों या पराये, भूखे-प्यासे बच्चों को देख माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता बाहर आता ही है उमड़ कर, इसी अवसर की प्रतीक्षा रहती है - उस दूध को।" (पृ. 201) माँ की ममता का यह परिणाम है कि अपनी या दूसरों की, किसी की भी भूखी-प्यासी संतान को देखकर माँ के हृदय का दूध बाहर आकर, शिशु की भूख-प्यास को मिटाता ही है। क्या ऐसी दयालु हृदय वाली मातृ-शक्ति भी प्रलय की प्यासी बन चुकी है? क्या शरीर की रक्षा हेतु धर्म को ही नष्ट किया जा रहा है? क्या धन के विकास हेतु अपनी लाज ही खुले बाजार में बेची जा रही है? समझ नहीं आ रहा है, आज इन्हें क्या हुआ?
  22. ना चाहते हुए भी किसी कारण वश कुम्भकार को तीन-चार दिन के लिए उपाश्रम छोड़कर बाहर जाना पड़ा किन्तु शरीर ही बाहर गया, मन तो बार- बार उपाश्रम ही लौट आता था। मन की बात क्या कहें - "तन को अंग कहा है मन को अंगहीन अंतरंग अनंग का योनि-स्थान है वह सब संगों का उत्पादक है सब रंगों का उत्पातक....!" (पृ. 198) शरीर अंग है देखने-पकड़ने में आता है किन्तु मन अंग से रहित है, तन के भीतर रहता है। यह मन ही काम-वासनाओं का उत्पत्ति स्थान है। सब पदार्थों के प्रति मूच्छ-भाव इसी का परिणाम है। अनेक संकल्प-विकल्पों को पैदा कर चेतन आत्मा को अशान्त बनाने वाला यही मन है। शरीर को वश में करना तो सरल है पर मन को वश में करना असम्भव तो नहीं किन्तु एक कठिन कार्य, कडुवा पेय है अवश्य। उपाश्रम में खुले आकाश के नीचे बाहर भूमि पर सूखने रखे कुम्भ और कुम्भकार की अनुपस्थिति ज्ञात होते ही समुद्र सोचता है -यह एक अच्छा अवसर है धरती के स्वाभिमान को नष्ट करने के लिए। अतः पूर्व प्रशिक्षित बादलों को अपनी कुटनीति समझाकर उपाश्रम की ओर भेजता है। सागर का संकेत प्राप्त कर सविनय उठी गजगामिनी (हथिनी के समान) चाल वाली, चंचल, दुबली-पतली कमर वाली स्त्री के समान तीन बदलियाँ आकाश की गलियों में निकल पड़ी। पहली बदली दही के समान सफेद रंग वाली साड़ी पहनी साधना में लीन साध्वी-सी लग रही है। दूसरी बदली कामदेव के विपरीत बुद्धि वाली किन्तु पति के विचारों के अनुकूल चलने वाली, पलाश के रंग की साड़ी पहनी कमलिनी की प्रभा को पराजित करती-सी प्रतीत होती है। तीसरी सबसे आखिरी वाली बदली ने असली सुवर्ण के रंग की साड़ी पहनी है।
  23. कुम्भकार का प्रवास पर जाना, तन-मन का नियन्त्रण, सागर को प्राप्त हुआ माटी के उपहास और कुम्भ को नष्ट करने का स्वर्णावसर। तीन बदलियों को भेजना उनके बाहरी-भीतरी रूप-स्वरूप का कथन।प्रभाकर की प्रभा प्रभावित होते देख, प्रभाकर का सरोष प्रवचन, स्त्री समाज की संस्कृति, स्त्रियों के अन्य नाम-भीरु, नारी, महिला, अबला, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता इत्यादि की नवीन सार्थक व्याख्या। मातृत्व की उपयोगिता, अन्त में अंगना शब्द की बात- मैं मात्र अंग ना हूँ किन्तु भार रहित आभा का आभार मानो। प्रवचन सुन बदली तीनों बदलियाँ सो प्रभाकर से क्षमायाचना। पाप को पुण्य में बदलने कुम्भकार के प्रांगण में मेघ-मुक्ता की वर्षा कर वापस लौटना।
  24. इधर धरती की ख्याति बढ़ रही है तो दूसरी ओर चन्द्रमा की चाँदनी केमन में ईर्ष्या भी बढ़ती जा रही है। धरती के प्रति अनादर, तिरस्कार का भाव बढ़ा,और धरती को अपमानित कर दोषी सिद्ध करने हेतु चन्द्रमा के निर्देशन में जलतत्त्व तेजी से शतरंज की चाल चलने लगा अर्थात् कूटनीति के साथ जब- कभी थोड़ी- सी वर्षा करके, धरती की अखण्डता को नष्ट करने हेतु, जमीन पर दल-दल पैदा करने लगा। क्योंकि - "दल-बहुलता शान्ति की हननी है ना! जितने विचार, उतने प्रचार उतनी चाल-ढाल हाला घुली जल-ता क्लान्ति की जननी है ना!" ( पृ. 197) यह निश्चित है धरा पर जितने दल (समूह, पार्टियाँ) बनते जाएंगे, शान्ति उतनी ही दूर होती जाएगी। जितने दल उतने अलग-अलग विचार उठेंगे, वैसा ही उनका प्रचार-प्रसार होगा। फिर उतने ही प्रकार का व्यवहार, आचरण होता जाएगा। फलस्वरूप स्वार्थ के विष से घुली अज्ञानता दुख को ही जन्म देगी। इस संसार में थोड़ी सी स्वार्थसिद्धि के लिए, क्षणिक ख्याति, पूजा की चाह के कारण सब कुछ घट सकता है तभी तो चन्द्रमा के द्वारा भी अकाल में ही अतिवृष्टि का समर्थन हो रहा है। परमार्थ (वास्तविक सुख, मोक्ष) का विकास हो, ऐसी भावना को मन में धारण किए प्रभु की अर्चना, प्रभु से प्रार्थना सबके मन से पता नहीं कहाँ चली गई । इसी बीच अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को खोलकर देख रही लेखनी बोल पड़ी-पतन की ओर ले जाने वाली यानी अध:पातिनी, विश्व की सुख शान्ति को नष्ट करने वाली विश्वघातिनी, मानव की दुर्बुद्धि (बुरी भावना) के लिए धिक्कार हो और आपत्ति को पैदा करने वाली, दूसरों को पीड़ा देने वाली बड़ी चील के समान धन के प्रति आसक्ति के लिए भी धिक्कार हो, धिक्कार हो !
  25. जल के स्वभाव को अच्छी तरह जानते हुए भी धरती माँ ने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा, अपकार करने वाले के प्रति विघ्न करने का विचार भी उसके मन में नहीं आया। हमेशा सबके जीवन विकास की बात ही सोचती रहती है, कितने उदार हृदय वाली है, यह धरती माँ। इसलिए अपने वंश, अपनी संतान बांस को भी कह रखा है उसने - "वंश की शोभा तभी है जल को मुक्ता बनाते रहोगे युग-युगों तक संघर्ष के दिनों में भी दीर्घ श्वास लेते हुए भी हर्ष के क्षणों में भी।" (पृ. 195) जिस उदार वंश में तुमने जन्म लिया है, उसकी शोभा तभी है जब कठिन से कठिन परिस्थितियों में कष्ट को सहते हुए अथवा हर्ष का माहौल हो तो प्रसन्न रहते हुए भी सदा जल को मोती बनाते रहोगे। माँ की आज्ञा को स्वीकार कर आकाश से गिरी जल की बूंदों को मोती बनाते रहे ऊँचे-ऊँचे बाँस वे। इसलिए तो नारायण श्रीकृष्ण ने मोती को गले में धारण किया और बाँसुरी को अपने होठों से लगा लाड़-प्यार दिया, बदले में बांसुरी से अपने को खोकर, दिन-रात के सपनों को भुलाकर मधुर मीठे स्वर संगीत सुने । इसी प्रकार धरती माँ की आज्ञा पालने में लीन हैं - नाग, सूकर, मत्स्य, हाथी (गज) और मेघ आदि। जिनके नाम से वंशमुक्ता, सीप मुक्ता, नागमुक्ता, सूकरमुक्ता, मत्स्यमुक्ता, गजमुक्ता और मेघमुक्ता प्रसिद्ध है। मेघमुक्ता बनने में भी धरती का ही हाथ है सो आगे स्पष्ट होगा ही।
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