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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. खेद है कि तारागण भी चन्द्रमा का साथ देती हैं। समुद्र चन्द्रमा को देख प्रसन्नता से उमड़ने लगता है तो सूर्य को देख क्रोध से उबलने लगता है कारण- "अर्थ की आँखें परमार्थ को देख नहीं सकती अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. 192 ) जिनकी आँखों में सदा धन ही धन दिखता है, उन्हें कभी परमार्थ यानी परम प्रयोजन धर्म-आत्म तत्त्व का दर्शन नहीं हो सकता। धन की इच्छा ने बड़े-बड़े धनिकों, बुद्धिमानों को भी लज्जा हीन बना दिया है। धनवान भी लज्जाहीन हो फणिन हस्त के समान लकड़ी बीनने का काम कर सकते हैं तो सत्यघोष भी व्यापारी के रत्नों को चुरा सकता है। वीतरागी भगवान् के पास जाकर भी धन की माँग इसी का परिणाम है। बहुमूल्य मोतियों का खजाना सागर में मिलता है कारण कि जल की बूंद ही मोती का रूप धारण करती हैं, किन्तु इस कार्य में भी धरती का प्रमुख सहयोग है, सीप धरती का ही अंश है। धरती ने स्वयं सीप को प्रशिक्षित कर समुद्र में भेजा है, यह कहकर कि जल की जड़ता/अज्ञानता को दूरकर उसे मुक्ताफल (मोती) बनाना है। पाप पंक में गिरे हुए को ऊपर उठाना ही धैर्य को धारण करने वाली धृति-धारिणी धरती माँ का लक्ष्य है, यही दया-धर्म, चेतन का कार्य है। फिर भी जल की विपरीत प्रवृत्ति मिटती नहीं, छल-कपट उसका स्वभाव है। खुले मुख वाली ऊर्ध्वमुखी सूक्तियों पर जैसे ही जल की एक दो बूंद गिरती है, तत्काल उनके मुख को बंद कर सागर अपने भीतर डुबो लेता है कोई ले ना ले इस डर से। और इतनी गहराई में छुपा लेता है कि यदि कोई गोताखोर सम्पदा धरा (धरती) पर लाने हेतु नीचे पहुँचता है तो उसका खाली हाथ लौटना भी मुश्किल से हो पाता है। वहीं उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। धन सम्पदा की रक्षा हेतु भयंकर नाग, अजगर, मगरमच्छ आदि सम्पदा के आस-पास निरन्तर, दिन-रात घूमते रहते हैं वहाँ। कोई अपरिचित-सा दिखे तो तुरन्त ही उसको साबुत निगल लेते हैं, यदि वह पकड़ में न आए तो पूरे वातावरण में विष फैला देते हैं, जिससे वह मर जाता है। लगता है इसी कारण समुद्र में विष यानी जहर का विशाल भण्डार मिलता है।
  2. समुद्र ने कई बार सूर्य को घूस (रिश्वत) देने का प्रयास किया, पर सूर्य अपने न्याय मार्ग से विचलित नहीं हुआ। (लगता है इसी निरीह वृत्ति, सत्य निष्ठा के कारण ही सूर्य लौकिकता में नारायण यानी भगवत् पद को प्राप्त हो पूजा जाता है) किन्तु चन्द्रमा लक्ष्य से विचलित हुआ और उसने जल तत्त्व यानी समुद्र का पक्ष लिया। समुद्र से भरपूर घूस लेने के कारण ही थोड़ी-सी, चन्द सम्पदा का स्वामी चन्द्रमा ‘सुधाकर' बन गया है। धरती की सारी सुधा एकत्र कर वह चन्द्रमा को दे देता है और इधर समुद्र स्वयं खारा ही रहता है, लगता है उसके भाग्य में खारापन, क्षार ही है। इधर रिश्वत लेने के कारण चन्द्रमा को लज्जा आ रही है। वह सोच रहा है कि-उच्च स्थान पर रहने वाले मैंने, अपने पद के अनुकूल कार्य नहीं किया, मेरे लिए यह उचित नहीं था। इसलिए उसका माथा कलंकित हुआ लगता है, अतः वह शंका सहित अपना मुख छुपाते-छुपाते रात में ही उदित होता है दिन में नहीं और वह चन्द्रमा धरती से बहुत दूर (८८० योजन) रहता है जबकि सूर्य धरती के पास (८०० योजन) ही घूमता रहता है।
  3. इस निन्दनीय कार्य को करते हुए समुद्र ने अपनी अज्ञानता बुद्धिहीनता का दुनिया को परिचय दिया है और जलधी' यानी ‘जड़धी' अपने नाम को सार्थक किया है। अपने साथ इतना बुरा व्यवहार होने के बाद भी धरती ने बदला नहीं लेने का संकल्प लिया है। इसलिए धरती का नाम ‘सर्वसहा'(सब-कुछ सहन करने वाला) भी पड़ा है सर्वस्वाहा (सबको नष्ट करने वाला) नहीं, सन्तों का शान्त पथ भी सदा यही कहता है- "सर्व-सहा होना ही सर्वस्व को पाना है जीवन में सन्तों का पथ यही गाता है।" (पृ. 190) सब कुछ कष्टों को सहने की आदत वाला व्यक्ति ही जीवन में सब सुख-सम्पत्ति को प्राप्त करता है। सहनशीलता महान् व्यक्तियों का एक विशिष्ट गुण माना जाता है। इसके अभाव में जीवन कभी भी श्रेष्ठ/महान् नहीं बन सकता है। माँ धरती सब अन्याय को समता से सहन कर रही है किन्तु न्याय पथ पर चलने वाले सूर्य से यह अन्याय देखा नहीं गया। उसने किसी से इसकी चर्चा भी नहीं की, किन्तु वह निरन्तर यह प्रयास करता रहा कि अन्याय का पक्ष नष्ट हो और न्याय पक्ष की जीत हो। इसलिए उसने अपनी तेज किरणों द्वारा समुद्र के जल को सुखा दिया और उसके भीतर छुपे अपार धन-वैभव को देवों और इन्द्रों को दिखा दिया। इस पर भी जल का स्वभाव तो देखो, जला हुआ जल बादल में बदला और पुनः बरस जाता है बार-बार अपने दोष और चोरी के धन को छुपाता रहता है वह।
  4. अकाल में ही आकाश में उमड़ते बादल समूह की बहुलता देख शिल्पी विचार करता है कि जब कभी धरती में प्रलय हुआ उसका कारण जल ही बना है। धरती को शीतलता प्रदान करने का लोभ दे, जल ने इसे लूटा ही है; धरती का धन-वैभव बहा-बहाकर समुद्र की ओर ले गया तभी तो समुद्र का एक नाम ‘रत्नाकर' भी पड़ा और इसी कारण धरती ज्यों की त्यों धनहीन ही रह गई। न ही धनवान हुई और न ही इसका नाम वसुंधरा बचा किन्तु इतना तो जानना ही होगा - "पर सम्पदा की ओर दृष्टि का जाना अज्ञान को बताता है, और पर सम्पदा हरण कर संग्रह करना मोह-मूच्छ का अतिरेक है। यह अति निम्न कोटि का कर्म है स्व-पर को सताना है, नीच-नरकों में जा जीवन बिताना है।" (पृ. 189) अपनी वस्तु को छोड़, दूसरों की धन-दौलत की ओर देखना अज्ञान का परिणाम है, इससे अपना सुख चैन समाप्त होता है। जितना अपने पास है उतने में ही संतोष रखना परम सुख को पाना है। फिर दूसरों की सम्पत्ति को छीनकर अपने पास जोड़-जोड़ कर रखना/इकट्ठा करना, मोह यानी गृद्धता, मूच्र्छा की अधिकता को प्रकट करता है। यह कार्य बहुत निम्न स्तर का और निन्दनीय है कारण, धन को बारहवाँ प्राण माना है। किसी का धन छुड़ाया जाता है तो उसे प्राण निकलने जैसा कष्ट होता है और फिर धन छुड़ाने वाले को भी घोर पाप का बन्ध होता है अतः इस कार्य से स्व और पर दोनों ही दुखी होते हैं। जिसका फल घोर नरकों में जाकर कष्ट सहन करते हुए जीवन बिताना है।
  5. आकाश में छाए हुए सघन बादलों को देख धरती के दिल की धड़कन बढ़ गई, मन भयभीत हुआ। होंठ काँपने लगे, धैर्य कहीं खो सा गया, आकुलता दिखने लगी उसमें। इस समय भोगी की हो या योगी की, किसी की भी बुद्धि काम नहीं कर रही है। लगता है इस जोरदार बारिश से धरती की उपजाऊ शक्ति बह-बह कर नष्ट हो जाएगी। प्रायः यही सुना भी जाता है कि धरती के ऊपर आकाश में विचरण करने वाले विद्याधरों और देवों से भूमिगोचरियों को सम्मान कम ही मिलता है अथवा धनवानों-बलवानों से कमजोरों-पतितों को उपहार कम ही मिलता है, मिलता भी है तो आक्रमण, अपमान भरपूर और फिर- "असंयमी संयमी को क्या देगा ? विरागी रागी से क्या लेगा ?" (पृ. 269) ऊपर रहने वाला जिसका जीवन आमूलचूल' असंयम में ही डूबा हो, वह नीचे रहकर आत्म-साधना करने वाले, सर्वस्व त्यागी व्रतियों को क्या देगा? इन्द्रियों को अच्छी लगने वाली बहुमूल्य वस्तुएँ, वस्त्र, सोना-चाँदी, धन-सम्पत्ति आदि कुछ भी तो नहीं, क्योंकि यह सब तो छोड़कर ही वह व्रती बना है। जिसने देह-मात्र के प्रति भी राग-बुद्धि छोड़ दी है, ऐसा वीतरागी संयमी जीव, राग-द्वेष में लिप्त सरागी, संसारी प्राणी से ले भी तो क्या ले? अर्थात् कुछ भी नहीं। विशेष- वीतरागी की मुद्रा दिगम्बरत्व धारण करने के बाद भी यदि संयमी द्वारा असंयमी, रागी से कुछ चाहना की जावे, याचना का भाव मन में आवे तो समझना होगा सही वीतरागता से वह अभी बहुत दूर है। आचार्यों ने याचना करने वालों को अणु से भी हल्का निम्न बताया है तथा अयाचक वृत्ति रखने वाले महापुरुष को सुमेरु-पर्वत से भी भारी, महान्-श्रेष्ठ कहा है। मात्र कानों से सुना ही नहीं कई बार देखा गया है कि पञ्चेन्द्रिय के विषय-भोग, पाँच पापों के त्याग रूप नियम-संयम के सामने सामान्य असंयमी ही नहीं, किन्तु यमराज' के समान दुनिया को वश में करने वाले अथवा जीतने वाले रावण सरीखे बलशाली पुरुष भी हार माने जाते हैं। नाना विद्याओं के स्वामी विद्याधर, तीन लोक में तहलका मचाने की शक्ति रखने वाले देवों के नायक इन्द्र, असुरेन्द्र, प्रतीन्द्र आदि भी हाथ जोड़कर संयम की दासता स्वीकार करते हैं किन्तु संयम के स्वामी नहीं बन पाते।
  6. अकाल में बादलों की बहुलता देख धरती का दिल भी दहल उठा, ऊपर वालों से नीचे वालों को क्या मिला ? असंयमी संयमी को क्या दे सकता है ? जलधि की अज्ञानता, जड़ बुद्धि का परिचय। धरती की सहनशीलता, चन्द्रमा द्वारा घूस ले सागर का पक्ष धरना, भानु की पृथ्वी के प्रति निष्ठा, सीप का निर्माण, धरती का हाथ, जल का छल स्वभाव, सागर में विष का भण्डार क्यों ? धरती की उदारता, वंशमुक्ता, गजमुक्ता, सूकरमुक्ता, नागमुक्ता आदि का निर्माण, लेखनी द्वारा धन गृद्धि को धिक्कारना।
  7. भीषण गर्मी के विषय में चिन्तन चल रहा था, वसन्त की यथार्थता का । जीवन की नश्वरता का बोध हुआ किन्तु उधर आकाश में यह क्या सघन बहुत मात्रा में बादल उमड़ने लगे। शिल्पी विचार करता है - अभी वर्षा ऋतु का मौसम काल नहीं है फिर भी अतिथि के समान बादल आ गए, किन्तु अति ठीक नहीं क्योंकि नीति है - "आय नहीं होती, नहीं सही व्यय से भी कोई चिन्ता नहीं परन्तु अपव्यय महा भयंकर है।” (पृ. 187) धन की आमदनी ना हो ना सही, खर्च की भी इतनी चिन्ता नहीं किन्तु अति खर्चा, अपरिमित व्यय तो अत्यन्त हानिकारक, भयंकर है। भविष्य अच्छा नहीं लगता, लगता है कुम्भ का भाग्य उज्ज्वल नहीं है। बादल-दलों का विकराल रूप देखकर ऐसा लग रहा है मानो वे एक ही ग्रास में पूरे विश्व को बिना चबाये ही निगलने वाले हों अर्थात् धरा पर जोरदार, मूसलादार वर्षा होने की पूरी संभावना बन चुकी है।
  8. उपरोक्त सब चर्चा का सार यह निकला कि दुनिया के सभी द्रव्य’ (छहों) एक दूसरे को सहारा देते हुए अनादिकाल से दूध में शक्कर की तरह घुल-मिलकर रह रहे हैं। फिर भी वे अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। फिर कौन किसको ग्रहण करे, कौन किसको हरे ? अपना स्वामी, अपने परिणामों का कर्ता प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, फिर कौन, किसको पाले-पोषे, पर का कर्ता बने । फिर भी खेद की बात है - "ग्रहण - संग्रहण का भाव होता है सो..... भवानुगामी पाप है।" (पृ. 185) दूसरों को स्वीकारना, लेना, पर पदार्थों को जोड़-जोड़कर रखने का जो परिणाम सदा चलता ही रहता है सो भव-भव में साथ चलने वाले पाप का ही कारण बनता है। अब ज्यादा कुछ नहीं कहना, आज तक यह रहस्य था, खुल ना पाया सो कहा जा रहा है, अपनी-अपनी परिणति से ही सबमें सुधार संभव है, अपने स्वरूप का। अब तो हम सब जागे और अपने स्वरूप स्व-पन को देखने जानने का प्रयास करें। वसन्त के चले जाने के बाद उसकी देह का दाह-संस्कार कर दिया गया फिर भी आज वन उपवनों पर, धरती के कण-कण पर अभी उसका प्रभाव दिख रहा है। प्राणियों के रग-रग में, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पर वसंत का गहरा प्रभाव जम चुका है। प्राकृत वैराग्य का प्रसंग पूर्णतः समाप्त हो चुका है, फिर भी कुछ वैराग्य के संस्कार रह न जाए इसलिए दाह संस्कार के पश्चात् पूरे परिवार जन एवं स्थान को स्नान करना एवं धोना अनिवार्य-सा लग रहा है। विशेष : सांसारिक जीवन में किसी परिजन की मृत्यु हो जाने के बाद परिवार जन, संगी-साथी श्मशान पहुँचकर उसकी देह को वस्त्राभूषण से पृथक् कर, कफन भी निकालकर, देह का दाह संस्कार करते हैं तो तात्कालिक श्मशान वैराग्य उत्पन्न होता है। घर लौट आने के बाद भी सूनापन लगता है किन्तु ऐसा लगता है कि वह वैराग्य का वातावरण ज्यादा देर तक तन-मन में न टिक सके इसलिए पूरे परिवार जन तुरन्त स्नान करते हैं एवं पूरे परिसर को पानी डालकर साफ कर दिया जाता है। दो-तीन बाद सभी के मन ज्यों के त्यों राग-रंग में, धन- पैसा कमाने में, मोह जाल में फँस जाते हैं, अनादिकालीन मोह का यह प्रभाव लगता है।
  9. संसार की विचित्रता का वर्णन करती हुई अस्थियाँ कहती हैं - कभी भयंकर काला राहु, सूर्य को पूरा का पूरा निगलता हुआ सूर्यग्रहण दिखा तो कभी आग उगलता हुआ सूर्य दिखा। जिसकी तपन में पेड़-पौधे पर्वत पाषाण पूरा का पूरा संसार पिघलता-गलता नजर आ रहा है। आग कभी हवा हुई, हवा जल बनी, जल कभी भूमि के रूप में परिवर्तित हुआ, भूमि में मिला जल कीचड़ बना। कभी अमृत को झराने वाली पूर्णिमा की रात दिखी, हँसता हुआ चन्द्रमा दिखा, कभी भौंरे के समान अमावश्या की रात दिखी। कभी हँसी-खुशी तो कभी गम। कभी सुगन्ध कभी दुर्गन्ध, कभी मित्रता तो कभी शत्रुता, कभी आँखें तो कभी अन्धता, कभी स्वतंत्रता तो कभी पराधीनता। कभी मधुर भी मधुरता से दूर दिखा, सुन्दर भी सुन्दरता से व्याकुल, भाई भी भाई बन्धुओं से रहित दिखा। भावुकता बढ़ती चली। बालक पालक बना, पालक चालक बना, कभी दमन कभी शमन और कभी सुख-चमन । कभी वह भी नहीं, कभी कुछ परिणमन हुआ । इतना सब कहने के बाद भी अस्थियाँ थकी नहीं, रुकी नहीं और भी कुछ कहती हैं आगे कि-संसार के इन सब परिणमन को देख यह धारणा नहीं बना लेना कि ये कुछ है ही नहीं, यह सब कल्पना मात्र हैं। अभाव में से इनका जन्म नहीं होता, हाँ इतना जरुर है, ये रात्रि स्वप्न के समान क्षणभंगुर अवश्य हैं, अपना स्वभाव/स्व-पन इनमें नहीं है। वस्तु का नष्ट होना, नये रूप में जन्म लेना फिर भी उनका अस्तित्त्व सदा बने रहना यह सब कैसे होता है? शाश्वत सत्ता का दर्शन कब होगा, कब शाश्वत सत्य निजात्मा की आनन्दानुभूति मिलेगी? मिलने मिटने वाली प्रतिक्षण परिवर्तनीय दशा पकड़ में क्यों नहीं आती इन आँखों से? इन सब प्रश्नों का उत्तर अस्थियों की मुस्कान में हैं, जो कह रही हैं- "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' सन्तों से यह सूत्र मिला है इनमें अनन्त की अस्तिमा सिमट-सी गई है। यह वह दर्पण है जिसमें भूत, भावित और सम्भावित सब कुछ झिलमिला रहा है, तैर..... रहा है दिखता है आस्था की आँखों से देखने से!" (पृ. 184) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्तं सत्' अर्थात् जो है उसका यह लक्षण है कि प्रति समय उसमें नई पर्याय जन्म लेती है, पुरानी नष्ट हो जाती है तथा नई और पुरानी पर्यायों में वस्तु का अस्तित्त्व बताने वाली ध्रौव्यता को लिए द्रव्य सदा बना रहता है। वह कभी भी नष्ट नहीं होता। जैसे मिट्टी का लौंदा घट बना, घट पर्याय की उत्पत्ति-उत्पाद, लौंदा पर्याय का विनाश-व्यय और मिट्टी का दोनों अवस्था में बने रहना सो ध्रौव्य है। यह सूत्र अनन्त में शान्त, शाश्वतता में क्षणभंगुरता का भी दर्शन कराता है। यह वह दर्पण है जिसमें वस्तु की अतीत, वर्तमान और भविष्यकालीन तीनों पर्यायें स्पष्ट झलकती हैं, दिखाई पड़ती हैं, किन्तु इन चर्म चक्षुओं से नहीं, आस्था की आँखों से अर्थात् जिनवाणी पर श्रद्धान होने से। व्यवहारिक भाषा में कहा जाता है-आना, जाना, लगा हुआ है। इसका अर्थ भी यही है कि सत् का स्वरूप उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से सहित होता है यही सत्य है और यही तत्त्व ज्ञान है।
  10. गन्ध रहित फूल के समान, निरावरण, अचेत (मृत, जड़) वसन्त ऋतु का पौद्गलिक शरीर पड़ा है। उसका मुख थोड़ा-सा खुला है, मुख से बाहर निकली जीभ थोड़ी-सी उल्टी पलटी कुछ कहती-सी लग रही है कि भौतिक जीवन में रस यानी सही सुख नहीं है। रसना शब्द स्वयं भी पलट कर कुछ कहता है कि -र......स.....ना, ना.....स.....र। लगता है, वसन्त के पास सर यानी दिमाग नहीं था, हित-अहित को जानने की बुद्धि भी नहीं रही तभी तो वसन्त के समान आकर्षण किन्तु नश्वर जीवन का सन्तों पर कोई असर, प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् क्षणभंगुर जीवन पर सन्त लुभाते नहीं, आकर्षित नहीं होते। दाह संस्कार का वक्त आ गया और जब वसन्त के शरीर पर से कफन भी उतार लिया गया तब चारों ओर वैराग्य का वातावरण छा गया। शव में आग लगा दी गई, उन आग की लपटों के उठते ही शव दिखना भी बंद हो गया। सब अतीत की बातें, यादें रह गई बस। वसन्त के दाह संस्कार के बाद भी कुछ हड्डियाँ शेष बची रहीं, वे संसार की अज्ञान दशा पर हँसते-हँसते कुछ कहती हैं - "जिसने मरण को पाया है उसे जनन को पाना है और जिसने जनन को पाया है उसे मरण को पाना है।" (पृ. 181) जिसने मृत्यु (मरण) को ग्रहण किया है, उसे पुनर्जन्म भी लेना पड़ता ही है जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी अनिवार्य है। यह एक अकाट्य नियम है। कितनी बार धरती में गहरे-गहरे गड्ढे खोदकर हमें दफनाया गया, किन्तु अब ऐसा पुरुषार्थ करो कि ना हड्डियाँ शेष बचें और ना ही हमें दफनाना पड़े। (अरिहन्त दशा को प्राप्त करो) क्योंकि हमें दफन (जमीन में गड़ा देना) करना ही पुनः आगामी संसार के लिए बीज-वपन का कारण बनता जा रहा है।
  11. हरी भरी लताएँ सूख गई हैं, पके फलों में मधुरता कम हो गई, कहाँ गई पता नहीं? मन्द सुगन्ध हवा का बहाव कहाँ चला गया, पेड़ों का फलों के समूह से भरकर झूलना, फूलों की मुस्कान, पत्तों के टकराने की आवाज, भौंरों का गुंजन कहाँ खो गया। पल भर के लिए भी शीतलता की अनुभूति नहीं हो पा रही है, सब कहाँ चली गई; लगता है यह सब तपन का ही प्रतिफल है। प्रकृति का आकर्षण, चेतना की जागृति, फूलों की महक, चिड़ियों का चहचहाना अब नहीं रहा। तन को सुख देने वाली किरणों वाला सूर्य कहाँ चला गया? हँसी- खुशी की बात, चेतना, उत्साह कुछ भी शेष नहीं रहा, इसका कारण भी तपन है। इन सब परिस्थितियों को देखकर यही अनुमान लगाया जा सकता है कि संसार का सब वैभव नाशवान है। भोग' सामग्री यहीं पड़ी है, किन्तु भोक्ता चला गया। दुनिया के सारे संयोग, साथी यहीं पड़े हैं योगी जिससे संयोग था, वह चला गया है। भोक्ता के बिना भोग्य पदार्थों का क्या मूल्य, विचारना होगा कौन किस के लिए- "धन जीवन के लिए या जीवन धन के लिए? मूल्य किसका तन का क्या वेतन का, जड़ का क्या चेतन का ?" (पृ. 180) जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए गृहस्थ जीवन में धन आवश्यक है किन्तु क्या सारा जीवन धन संग्रह के लिए ही व्यतीत करना उचित है? मूल्य किसका शरीर का या जीविका चलाने हेतु प्राप्त धन का, जड़ पदार्थों की रक्षा का या चेतन आत्मा की सुरक्षा का? ऐसा लग रहा है कि वसन्त ऋतु के तन पर से आभरण-आभूषण सभी उतार लिए गए हैं। जिस वस्त्र की आड़ में वासना छुप जाती है, उस वस्त्र को भी उतार लिया गया है किन्तु वास्तव में- "वासना का वास, वह न तन में है, न वसन में वरन्। माया से प्रभावित मन में है।" (पृ.180) विषय भोगों की इच्छा का निवास, न ही शरीर में है और न ही वस्त्रों में अपितु अज्ञान से प्रभावित मन में है, वह वहाँ ही पैदा होती और वहीं रहती है।
  12. वसन्त ऋतु व्यतीत हो चुकी है, ग्रीष्म काल की बात चल रही है। परिवर्तित प्रकृति को देख शिल्पी का सन्त मन अधीर हुआ धरती माँ से पूछता है कि-ओ वसन्ती माँ! आज तक जो वसन्त ऋतु का वैभव दिख रहा था वह कहाँ चला गया? इस पर कुछ शब्द सुनने को मिलते हैं सन्त को कि वसन्त ऋतु समाप्त हो चुकी है, अनन्त आकाश में यह नश्वरता विलीन हो चुकी, अब शेष बचे उसके शरीर का दाह-संस्कार करना है। ग्रीष्मकाल-उष्णता को आमंत्रित किया था सो वह आ चुकी है। सूर्य का प्रचण्ड रूप, चिलचिलाती भयंकर धूप है, सभी ओर से धगधग करती लू लपट चल रही है। बस! तपन ही तपन, आग ही आग बरस रही है। दशों दिशाओं की दशा बदल चुकी है, पृथ्वी का विशाल हृदय, विस्तृत पेट गहरे दरारदार बने हैं अर्थात् धरती फट चुकी है। जिनमें गरम-गरम हवाएँ प्रवेश पा रही हैं मानो रसातल यानी धरती की गहराई में पहुँच उबलते लावा को अपना परिचय दे रही हैं। स्वच्छ नीले जल से भरी, जो कभी अन्त को प्राप्त होने वाली नहीं थी, वे नदियाँ भी सूखती-सूखती पूर्णतः जल से रहित हो गई है। यानी न...दी दी....न नदी दीन हो दरिद्रता, उदासता का अनुभव कर रही है। एवं ना....ली ली.... ना नाली भी धरती में लीन हुई जा रही है, छिप रही है लज्जा के कारण। और दिनकर की क्या कहें- "अविलम्ब उदयाचल पर चढ़ कर भी विलम्ब से अस्ताचल को छू पाता है दिनकर को अपनी यात्रा पूर्ण करने में अधिक समय लग रहा है लग रहा है, रवि की गति में शैथिल्य आया है, अन्यथा इन दिनों, दिन बड़े क्यों?" (पृ. 178) सूर्य शीघ्रता से उदित होकर भी बहुत देर बाद अस्त हो पा रहा है, लगता है इस भीषण तपन के कारण सूर्य को भी अपनी यात्रा करने में अधिक समय लग रहा है, इसी से उसकी गति में शिथिलता, थकावट आई है और दिन बड़े हो गये है |
  13. कुम्भ की विकास यात्रा को आगे बढ़ाते हुए चित्रकारी करने के पश्चात् कुम्भ में शेष बचे जलीय अंश (नमी) का पूर्णतः अभाव करने, सुखाने हेतु कुम्भकार सूर्य किरणों से तप्त खुली धरती पर कुम्भ को रख देता है क्योंकि - "बिना तप के जलत्व का अज्ञान का, विलय हो नहीं सकता और बिना तप के जलत्व का-वर्षा का, उदय हो नहीं सकता।" (पृ. 176) तपस्या को धारण किये बिना, कर्मों को जलाए बिना अज्ञान का नाश नहीं हो सकता है और जब तक धरती तपती नहीं तब तक जोरदार पानी का बरसना होता नहीं। इसलिए तप को अंगीकार करना आवश्यक है, तपस्या से अशुभ कर्म झरते हैं तथा भेदविज्ञान से उत्पन्न आनंद की भी प्राप्ति होती है। अनादिकाल से आज तक तप के अभाव में ही यह जीव अनेक संकल्प-विकल्पों की आग में झुलसता आ रहा है। भव-भव में सुख की खोज करता रहा किन्तु असफलता ही मिली, आकुलता ही फली। किस प्रकार से अपनी बात कहें, कैसे सहें और कैसे रहें? समझ नहीं आता। इस जीवन में आज तक इसे सफलता अर्थात् सुख मिलने की बात तो मिली पर मृगतृष्णा की भाँति । सच्चा सुख अभी तक न मिला और शिल्पी का मन नाश रहित, अन्त से दूर, शाश्वत सुख पाने के लिए मचल रहा है अर्थात् हठ कर रहा है बार-बार उछल-कूद कर रहा है।
  14. कुम्भ के जलीय अंश को सुखाने हेतु तपी जमीन पर कुम्भ रखा जाता है। तप की आवश्यकता पर प्रकाश । बसन्त ऋतु का अन्त हो चुका है, चारों ओर बरस रही, चल रही, पल रही है केवल तपन ही तपन । धरा की दशा, धगधग लपट, दरारदार धरती, दीन बनी नदी, हरिता हरी। बसन्त का भौतिक तन पड़ा है, उसका दाह संस्कार किया गया। बची हुई अस्थियाँ विश्व की मूढ़ता पर हँसती हुई कहती है- अब तो मत करो, हमें दफन और देखें अपने पन को। रग-रग में रमा वसन्त, वैराग्य का क्षणिक संस्कार, अन्त में स्नान करना अनिवार्य क्यों ? और अकाल में ही आकाश में बादल दलों की बहुलता का दर्शन, चिन्ता में डूबता शिल्पी।
  15. चार अक्षरों की एक कविता और लिखी है कुम्भ पर, वह है “मैं दो गला' इससे पहला भाव यह निकलता है कि मैं दो गले वाला अर्थात् द्विभाषी हूँ। भीतर से कुछ बोलता हूँ यानी मन में कुछ सोचता हूँ, कुछ भाव रखता हूँ और बाहर से कुछ अन्य ही बोलता हूँ। बाहर से भले ही मीठा-मीठा बोलता हूँ किन्तु भीतर तो दूध में जहर घोलने के ही परिणाम रहते हैं। बगुला समान मेरी प्रवृत्ति चलती है जैसे बाहर से देखने पर बगुला ऐसा ध्यान लगा कर बैठा हो मानो किन्तु भीतर मछली पकड़ने का भाव रहता है। अब इसका दूसरा भाव प्रकट होता है-मैं दोगला अर्थात् मैं छली-कपटी, ठगी और मायाचारी हूँ किन्तु मान के कारण, अज्ञान के कारण सदा अपनी बुराई, दोषों को छुपाता आ रहा हूँ। सबके सामने अपने को दूध का धुला, साफ-सुथरा, सीधा-सादा, पवित्र मन वाला ही प्रस्तुत करता आया हूँ। इसी कारण से आज तक मेरी आत्मा पवित्र नहीं हो पाई, अतः यदि तुम सब अपना हित चाहते हों तो इस कटु सत्य को स्वीकार करो कि मैं पापी दुरात्मा, मायावी, लोभी हूँ । देखो पाँच पापों के पूर्ण त्यागी, महाव्रती श्रमण भी दिन में तीन बार अपने आपको पापी, लोभी आदि कहते हुए अपनी निन्दा, आलोचना करते हैं। फिर तुम भी सोचो अपना हित किसमें है। और इस कविता में तीसरा भाव यह है कि विभावों एवं विकारों की जड़ - मैं यानी अहंकार, गर्व, घमंड, अभिमान को गला दो, नष्ट कर दो। “मैं'' यानी अहं को दो-गला-समाप्त कर दो मैं... दो-गला.... मैं...दोगला! मैं दो...गला!!! (पृ. १७५- १७६) देखो मैं-मैं आवाज करता हुआ बकरा अपना गला कटा देता है जबकि मैना पंछी आकाश में तू-तू आवाज करती हुई स्वतंत्र आकाश में विचरती हुई आनंद लेती है। इसलिए अहंकार, मैं-पन को नष्ट कर दो।
  16. “मर हम मरहम बनें'' यह चार शब्दों की कविता भी कुम्भ पर लिखी है, इसका उद्देश्य यही हो सकता है कि हे भगवन्! हमारा जीवन पत्थर के समान कितना कठोर रहा, कितने लोगों ने हमसे पीड़ा पाई। दूसरों का उपकार भी हम ना कर सके, आज मन में उपकार करने का भाव/विचार बस आया है। हम भी दूसरों को सुखी बनाने में निमित्त बनें, यह भाव भी अच्छे भविष्य का संकेत है, किन्तु इस पतित/पापी जीवन में यह संभव नहीं, अतः यही प्रार्थना है प्रभो से- मुझ पापी की, कि- "इस जीवन में नहीं सही अगली पर्याय में.....तो मर, हम ‘मरहम' बनें...!" ( पृ.१७५ ) इस पर्याय को छोड़कर यानी मरकर जब हम दूसरी पर्याय ( भव) में जन्म लें तो अगला जीवन हमें ऐसा मिले कि हम भी मरहम-जैसे दूसरों के दुख दूर करने में, परोपकार करने में सहयोगी बन सकें।
  17. कुम्भ पर लिखी गई है पंक्तियाँ “कर पर कर दो'' इसका भाव यह है कि हमारे उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रभु की यह आज्ञा है कि- "कहाँ बैठे हो तुम श्वास खोते सही-सही उद्यम करो।" (पृ. 174) संसार के गोरख धंधे में फँसकर क्यों अपना बहुमूल्य जीवन नष्ट कर रहे हों। सही-सही पुरुषार्थ करो, भगवान् के समान हाथ पर हाथ रख निज स्वरूप की उपलब्धि हेतु साधना करो, पाप कर्म से बच जाओगे अन्यथा सांसारिक बन्धनों / संयोगों में उलझते हुए, मोह से अन्धे हुए, नरकादि दुर्गतियों में पहुँचकर दुख ही पाओगे। दूसरा अर्थ यह भी है कि गृहस्थ हों तो श्रमणों के हाथों पर, अपने हाथ कर दो अर्थात् अतिथि संविभाग व्रत का पालन करो। आहारदान देकर गृहस्थ जीवन सफल करो |
  18. कुम्भ के मुख पर 'ही' और 'भी' ये दो अक्षर भी लिखे हैं, जो बीजाक्षर के समान सारभूत रहस्य को लिए हैं और अपनी-अपनी धारणाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। "‘ही' एकान्तवाद का समर्थक है ‘भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक है। हम ही सब कुछ हैं यूँ कहता है 'ही' सदा, तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो! और 'भी' का कहना है कि हम भी हैं तुम भी हो सब कुछ !" (पृ. 172) वस्तु में अनेक धर्म/स्वभाव होते हैं, उन्हें स्वीकार करने वाला अनेकान्त का प्रतीक भी है। अनेक धर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को कहने की पद्धति स्याद्वाद है। जैसे एक व्यक्ति माँ की अपेक्षा से पुत्र है, तो अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता एवं पत्नी की अपेक्षा से पति भी, किन्तु वस्तु के एक धर्म को ही स्वीकारने वाला एकान्त मत का प्रतीक ‘ही है। ‘भी सबको सदा सम्मान देता है तो ‘ही' सबको नकारता हुआ स्वयं को ही श्रेष्ठ मानता है। ‘ही' वस्तु के बाहरी रूप को ही पकड़ता है जबकि 'भी' वस्तु के भीतरी भाग, सही स्वरूप को स्पर्श करता है।'ही' विध्वंसकारी पश्चिमी सभ्यता है तो 'भी' भाग्य निर्माता भारतीय संस्कृति । राम पूज्य हुए हैं और रहेंगे इसका कारण भी यही है क्योंकि राम के भीतर भी रहता था वे ‘भी' के उपासक थे तो रावण के भीतर ही था। यद्यपि ' भी कहने से भीड़ बढ़ती-सी दिखती है अवश्य, किन्तु लोकतन्त्र की सफलता इसी में है; हम भी हैं तुम भी हो सब कुछ। सदाचार और सद्विचार ‘भी' से उत्पन्न होते हैं। स्वच्छन्दता और अहंकारिता मिटती है और स्वतन्त्रता का सपना साकार होता है 'भी' के कारण ही। 'ही' में यह शक्ति नहीं है। इसलिए प्रभु से यही प्रार्थना है कि-संसार के सभी प्राणी 'ही' से दूर हों ‘भी से मुलाकात करें, अभी करें या कभी करें, किन्तु इन्हें अनेकान्त स्याद्वाद रूप जिनशासन की उपलब्धि हो, यही भावना है।
  19. वहीं कुम्भ पर कछुवा और खरगोश का चित्र भी है, जो साधक को साधना की विधि सिखा रहे हैं। खरगोश तेज चाल वाला होकर भी बहुत पीछे रह गया, जबकि कछुवा धीमी चाल वाला होकर भी लक्ष्य की ओर पहले पहुँच गया, कारण खरगोश ने बीच में निद्रा ली प्रमाद किया जबकि कछुवा निरन्तर चलता रहा। सार यह निकला कि - "प्रमाद पथिक का परम शत्रु है।" प्रमाद ही राहगीर का सबसे बड़ा शत्रु है। क्योंकि प्रमाद ही कर्मबन्ध का मुख्य कारण है। प्रमाद का अर्थ अयत्नाचार अथवा असावधानी भी है। अयत्नाचार पूर्वक क्रिया / कार्य करते हुए जीव मरे अथवा न मरे साधक को नियम से पाप का बंध होता है, जबकि प्रमाद रहित होकर प्रवृति करते समय यदि जीव मर भी जाए तो साधक हिंसक नहीं कहा जाता, ना ही उसे पाप बंध होता है। प्रमाद के १५ भेद कहे हैं - स्त्रीकथा, चोरकथा, भोजनकथा और राजकथा ये चार विकथा, क्रोध, मान, माया, लोभरूप चार कषाएँ, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण रूप पाँच इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति, निद्रा और स्नेह। इन सबके वशीभूत होकर प्रवृत्ति करना प्रमाद है । अतः साधक को सदा प्रमाद से बचना चाहिए। कहा भी है-"जो सो गया, सो खो गया।'' सदा जागृत रहते हुए अपना कर्त्तव्य जप-तप, स्वाध्याय और आत्म ध्यान आदि करना चाहिए।
  20. कुम्भ पर शेर और श्वान यानी कुत्ते का भी चित्रण किया गया है, जो बिना बोले ही संदेश दे रहा है, दोनों की जीवन-लीला विपरीत है। शेर पीछे से, बिना दहाड़े किसी पर प्रहार नहीं करता और ना ही बिना मतलब दहाड़ता है, यानी सदा छल-कपट से दूर रहता है, जबकि कुत्ता पीछे से ही चुपचाप काटता है, बिना मतलब दिन-रात भौंकता है। जीवन चलाने हेतु आवश्यक सामग्री के लिए दीन-हीन नहीं बनता शेर, जबकि कुत्ता एक टुकड़े के लिए मालिक के पीछे पूँछ हिलाता घूमता रहता है। शेर के गले में कभी पट्टा नहीं बंधता, भले ही किसी कारणवश वह पिंजड़े में बंद हो, फिर भी पूँछ ऊपर उठाकर स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के साथ घूमता रहता है। किन्तु कुत्ता स्वतन्त्रता का महत्त्व नहीं जानता, पराधीनता उसे बुरी नहीं लगती, उसके गले में पड़ी लोहे की चैन अथवा कपड़े का पट्टा भी उसे आभूषण जैसा लगता है। और विशेष बात यह है- "श्वान को पत्थर मारने से पत्थर को ही पकड़कर काटता है मारक को नहीं! परन्तु सिंह विवेक से काम लेता है सही कारण की ओर.... ही.... सदा दृष्टि जाती है सिंह की, मारक' पर मार करता है वह।" ( पृ. १७० ) श्वान को यदि कोई पत्थर मारे तो वह पत्थर को ही पकड़ कर काटता है मारक को नहीं पकड़ता, परन्तु सिंह मारक यानी सही कारण को पकड़ता है साधन को नहीं, यह विवेक उसे रहता है। सही सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी किसी भी कार्य की सम्पन्नता में निमित्त को ही नहीं पकड़ता, ना ही उस पर टूट पड़ता है अपितु मूल कारण पर विचार करता है, उस मूल कारण को नष्ट करने अथवा संभालने का प्रयास करता है। जैसे सीताजी को गर्भवती दशा में जब राजमहल से निकाला गया तब उन्होंने राम को दोष नहीं दिया। उन्होंने सोचा कि मैंने ही पूर्व में कुछ ऐसा कार्य किया होगा, जिसके कर्म-फल स्वरूप मुझे यह भोगना पड़ रहा है। राम तो मुझे प्राणों से भी ज्यादा चाहते थे, रावण से युद्ध कर मुझे लेकर आए फिर ऐसा क्यों करते? तभी तो अग्नि परीक्षा में सफल होने के बाद भी उन्होंने राजमहल के सुख नहीं भोगे अपितु दुःखों का मूल कारण अशुभ कर्मों के क्षय करने हेतु आर्यिका व्रतों को धारण कर घोर तप किया। श्वान संस्कृति की निंदा का एक प्रमुख कारण यह भी है कि वह अपनी जाति वालों को देखकर पैरों से जमीन खोदता हुआ भौंकता है। जबकि शेर अपनी जाति में सबसे मिलकर रहता है राजा की प्रवृत्ति ऐसी ही होती है होनी भी चाहिए। कोई-कोई कुत्ते पागल भी होते हैं और वे जिसे काटते हैं वह भी कुछ दिनों में कुत्ते के समान भौंकने लग जाता है और मर जाता है, किन्तु शेर कभी पागल हुआ हो सुनने में नहीं आया । श्वान जाति का एक और अति निंदनीय कार्य है; वह यह कि भूख लगने पर यदि योग्य खाद्य सामग्री न मिले तो वह मल ही खाने लगता है और जब वह भी न मिले तो अपने से उत्पन्न हुई सन्तान को ही खा जाता है किन्तु शेर ऐसा निंदनीय कार्य कभी भी नहीं करता।
  21. कुम्भ के कण्ठ पर ६३' संख्या लिखी है। जो ६३ शलाका पुरुषों की याद दिलाती है।६ (छह) को ३ (तीन) देख रहा है और ३ (तीन) को ६ (छह) यह सज्जनता की पहचान है, एक दूसरे के सुख-दुःख में सहयोगी बनना। दूसरों को दुःखी देखकर प्रसन्न होना, सुखी देखकर ईष्र्या से जलना, यह दुर्जनता की पहचान के चिह्न हैं। जब हम आदर्श पुरुषों को भूल जाते हैं, तब ६३ का विपरीत ३६ के आंकड़े का आना होता है। तीन और छह इन दोनों की दिशा एक दूसरे के विपरीत है, एक दूसरे को पीठ दिखाकर बैठे हैं सज्जनता से दूर हो - "विचारों की विकृति ही आचारों की प्रकृति को उलटी करवट दिलाती है। कलह-संघर्ष छिड़ जाता है परस्पर।" ( पृ.१६८ ) दोनों का स्वभाव और विचारधारा विपरीत है। जब एक-दूसरे के प्रति विचारों में सदोषता आ जाती है, भावों में विकार पैदा हो जाता है तो नियम से आचरण की प्रकृति भी विपरीत होने लगती है; जिसका परिणाम आपस में मन- मुटाव, लड़ाई-झगड़े और मारपीट होने लगती है। फिर ३६ के आगे ३ की संख्या और जुड़ जाने से ३६३ (तीन सौ त्रेसठ) विभिन्न मतों, विचारधाराओं का जन्म होता है, जो आपस में एक-दूसरे के शत्रु बने हैं, इसका दर्शन धरती पर आज सहज हो सकता है।
  22. उसके बाद शिल्पी ने कुम्भ पर जीवन के वास्तविक रहस्यों को प्रकट करने वाली, शिक्षाप्रद कुछ संख्याओं का अंकन, कुछ चित्रों का चित्रण और कविताओं की रचना की। कुम्भ के कर्ण स्थान पर ९९ और ९ की संख्या लिखी गई जो कि कानों में पहने कुण्डल सी सुशोभित हो रही है और अपना परिचय दे रही है। ९९ की संख्या दुःखी संसार का प्रतीक है, जिससे मोह का विस्तार होता है, ९ की संख्या क्षीरसार यानी घी के समान है जो शाश्वत पद सिद्ध दशा का प्रतीक है, जिससे मुक्ति का द्वार खुलता है। यह भी देखो ९९ में किसी भी संख्या का गुणा करो जैसे - ९९x२ = १९८, १+९+८=१८, १+८=९ । इसी प्रकार गुणित क्रम से बढ़ाते जाने पर गुणनफल बढ़ता दिखता है किन्तु लब्ध संख्या ९ ही बचती है फलित यह हुआ कि ९९ संख्या कष्टदायी, छलकपट वाली और नष्ट होने के स्वभाव वाली, जड़ को ही प्रकाशित करती है। कहा भी है ''संसार ९९ का चक्कर है'' कहावत ठीक-ठीक घटित होती है। दूसरी तरफ ९ की संख्या में किसी भी संख्या का गुणा करो ९४२ = १८, १+८ = ९ गुणनक्रम ९ तक ले जाओ, लब्ध संख्या सदा ९ ही मिलेगी। फलित यह हुआ ९ की संख्या वह आश्रय है जिसमें जीवन सुरक्षित रहता है, यह अविनश्वर स्वभाव वाली, अजर अमर अविनाशी आत्म तत्त्व का कथन करने वाली है। इसलिए- "भविक मुमुक्षुओं की दृष्टि में ९९ हेय हो और ध्येय हो ९ नव-जीवन का स्रोत !" (प्र. १६७) भव्य जीव जो सदा मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, उनकी दृष्टि में ९९ सदा ही छोड़ने योग्य होना चाहिए एवं जीवन का लक्ष्य ९, आत्म तत्त्व होना चाहिए जो कि नवीन सिद्ध दशा प्राप्त करने का मूल साधन है।
  23. विनम्र माटी पिण्ड (माटी का लौंदा) पर्याय को छोड़ कुम्भ का रूप धारण करती है, धैर्य के साथ धरती से ऊपर उठ रही है। वैसे सामान्य रूप से सभी की जीवन यात्रा अपनी-अपनी गति से चलती ही रहती है। जीवन में विशेष विकास, उत्थान तभी होता है, जब मान से रहित विनम्र बुद्धि व्यक्ति का साथ देती है और पतन, विनाश तभी शुरू हो जाता है जब मान से सहित राग-बुद्धि साथ देती है। उत्थान-पतन का यही प्रारंभिक मंगलाचरण है। घी से भरे घड़े के समान बड़ी सावधानी से शिल्पी ने चाक पर से कुम्भ को उतारा और जमीन पर रख दिया तथा यूँ ही सूखने के लिए छोड़ दिया सो दो- तीन दिन में कुम्भ का गीलापन दूर हुआ, ढीलापन सिकुड़-सा गया। शिल्पी ने बड़े ही प्रसन्न मन से कुम्भ को हाथ में उठा लिया, फिर एक हाथ में सोट ( एक लकड़ी का छोटा- सा टुकड़ा जिससे कुम्भ पर चोट की जाती है ) ले दूसरे हाथ का सहारा दे, कुम्भ की खोट’ पर प्रहार करता है वह। "हाथ की ओट की ओर देखने से दया का दर्शन होता है, मात्र चोट की ओर देखने से निर्दयता उफनती-सी लगती है परन्तु, चोट खोट पर है ना !" ( पृ. 165) हाथ के सहारे की ओर देखने से दया का तथा मात्र चोट की ओर देखने से निर्दयता प्रकट होती-सी लगती है, पर प्रहार दोषों पर है, जो कि आवश्यक है। शिल्पी की आँखें अपलक हो सावधानी रख रही हैं इसलिए तो शिल्पी ने कुम्भ को घोंट-घोंटकर सुन्दर रूप प्रदान किया है ना कि उसका जीवन ही नष्ट किया है।
  24. कर्तापन से रहित सहज भावों से सर्वप्रथम शिल्पी माटी को कुम्भ का आकार प्रदान करने हेतु संकल्पित होता है। उसके उपयोग में कुम्भ को कैसा आकार देना है, विचार उत्पन्न होता है। ज्ञान में ज्ञेय' रूप घट का आकार उभरता है, ध्यान में ध्येय रूप घट अवतरित होता है। प्रासंगिक कार्य प्रारम्भ हुआ मन के पीछे शरीर होता ही है। कुम्भकार ने दोनों हाथों को कुम्भ का आकार दिया और लौंदे पर दोनों हाथों को रखता है। शिल्पी-करों के प्रथम स्पर्श से ही माटी में एक अपूर्व आनन्द, अपनेपन की शुरूआत होती है और कुम्भकार के हाथों की अंगुलियों के सहारे माटी को नया आकार / रूप मिलता है। अनन्तकाल से रहस्य में छुपी नई पर्याय तरंग क्रम से क्रमशः उद्घाटित हो रही है और सुन्दर घट का निर्माण होता है ठीक ही है- "रहस्य के घूँघट का उद्घाटन पुरुषार्थ के हाथ में है रहस्य को सूंघने की कड़ी प्यास उसे ही लगती है जो भोक्ता संवेदनशील होता है, यह काल का कार्य नहीं है।" (पृ. 163) अनन्त शक्तियाँ जो आत्मा में छुपी हुई हैं, उनका प्रकटीकरण करना किसी काल पर नहीं अपितु अपने पुरुषार्थ पर आधारित है। पाप त्याग एवं सम्यक् चारित्र ग्रहण रूप पुरुषार्थ वही कर सकता है, जिसके भीतर आत्म तत्त्व को उपलब्ध करने की तीव्र इच्छा जागृत हुई हो, ऐसा वह संवेदनशील चेतन आत्मा। जिसके पास हाथ ही ना हो, वह दूसरों का क्या भला कर सकेगा, करा सकेगा। जिसके पास पैर नहीं हैं, वह दो कदम भी न स्वयं चलता, न औरों को चला सकता है। काल (वह द्रव्य जो वस्तु के परिणमन में सहायक है) भी ऐसा ही है, सबसे उदासीन, लेन-देन से दूर, निष्क्रिय । वह एक ही स्थान पर रहता है, इसलिए काल को आत्मतत्त्व की उपलब्धि में कारण कैसे माना जा सकता है? हाँ इतना अवश्य है कि प्रत्येक कार्य में काल की उपस्थिति अनिवार्य है क्योंकि आपस में यह निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। काल उदासीन निमित्त है तो रहस्य का उद्घाटन, परमात्मपने की प्राप्ति नैमित्तिक कार्य।
  25. तुम्हें जो चक्कर आ रहा है ना, उसका कारण यह कुलाल चक्र (कुम्हार का चाक) नहीं है, अपितु-तुम्हारी दृष्टि का ही दोष है क्योंकि - परिधि की ओर देखने से चेतन का पतन होता है और परम-केन्द्र की ओर देखने से चेतन का जतन होता है। (पृ. 162) परिधि यानी पर्याय अथवा बाहरी दुनिया की ओर जब हम देखते हैं तो उपयोग बाहर की ओर जाता हुआ भटक जाता है सारा जीवन यूँ ही पर में गुजर जाता है, चेतन की हार हो जाती है, किन्तु परम केन्द्र यानी भीतर, अन्तरात्मा की ओर देखने पर आत्मा में लीनता आती है, जीवन सुखी बनता है चेतन की सुरक्षा होती है एवं आत्मा परमात्म पद को प्राप्त कर जाती है। अतः तुम भी आँख बंद कर भीतर की ओर देखो चक्कर नहीं आयेगा और सुनो यह एक साधारण सी बात है कि - "चक्कर पथ ही, आखिर गगन चूमता अगम्य पर्वत शिखर तक पथिक को पहुँचाता है बाधा-बिन बेशक !" (पृ. 162) घुमावदार पथ ही आकाश को छूने वाले पर्वतों के शिखर पर पथिक को बिना बाधा के, बिना किसी शंका के पहुँचा सकता है सीधा-सीधा पथ नहीं।
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