सत्कार्यों को करने में कभी आनंद नहीं लेते, विषय-भोगों में ही रस लेने वाले, कषाय को पैदा करने वाले इन बादलों का ‘जलधर' नाम सार्थक ही है। अज्ञान को धारण करने से इनकी बुद्धि अत्यन्त मन्द हुई है, मद में अन्धे बने हैं। यद्यपि इनका एक नाम ‘पयोधर' भी है फिर भी वर्षा ऋतु में ये विष ही बरसाते हैं। लगता है, तभी तो भौंरे के समान काले होते हैं अन्यथा वर्षा ऋतु के बाद हीरे के समान स्वच्छ रंग वाले क्यों होते? ये बात अलग है कि पृथ्वी/धरती का समागम पा विष भी अमृत बन जाता है। किसी कार्य की सफलता के लिए -
"उपाय की उपस्थिति ही
पर्याप्त नहीं है,
उपादेय की प्राप्ति के लिए
अपाय की अनुपस्थिति भी अनिवार्य है।
और वह
अनायास नहीं, प्रयास-साध्य है।" (पृ. 230)
लक्ष्य की/ग्रहण करने योग्य वस्तु की प्राप्ति के लिए मात्र सहयोगी. साधक कारणों की उपस्थिति ही मात्र पर्याप्त यानी सामर्थ्यवान नहीं है किन्तु अपाय यानी बाधक कारणों का अभाव होना भी अनिवार्य है। जैसे-दीप जलाने के लिए माचिस की काड़ी (तीली) के साथ-साथ तीव्र हवा का अभाव होना भी आवश्यक है। तेज हवा हो और कितनी बार भी जलाकर तीली लगाई जावे दीपक बुझ ही जावेगा। बाधक कारणों का अभाव सहज ही अपने आप नहीं होता उसके लिए पुरुषार्थ करना आवश्यक होता है।
सो इस व्यवस्था को याद रखते हुए बादल, सर्वप्रथम अपने बाधक तत्त्व प्रभाकर से जा भिड़ते हैं और गंभीर गर्जना करते हुए कहते हैं-तू धरती का पक्ष ले सागर से क्यों चिढ़ता है? अरे! तेज प्रभाकर तुम भले ही सब ग्रहों में प्रधान, देवता रूप गगनमणि कहलाते हो, पर हो बड़े उग्र स्वभाव वाले, तुम्हारा शरीर धारण करना व्यर्थ ही है क्योंकि तुम्हें दिन भर दीन-हीन हो दर-दर भटकना पड़ता है। क्षण भर भी विश्राम के लिए तुम्हें कोई स्थान नहीं मिलता। फिर तू क्या समझकर सागर के साथ संघर्ष करने हेतु साहस करता है। मेरी मान वक्त है दिमाग से काम ले और समुद्र का पक्ष स्वीकार कर, अपने आप पर, उपकार कर, जीवन में सुख-शान्ति और यश को जोड़ ले, अपनी उल्टी बुद्धि को सीधी करले वरना कुछ ही क्षणों में ग्रहण की व्यवस्था होगी। क्योंकि-
"अकीर्ति का कारण कदाग्रह है'
कदाग्रही को मिलता आया है।
चिर से कारागृह वह!" (पृ. 232)
कुत्सित (बुरा) आग्रह, हठाग्रह ही अपयश का कारण बनता है और हठाग्रही, एकान्त पक्षधारी को निश्चित ही अनादिकाल से शरीरादि बंधन रूप जेल मिलती आयी है।