Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. प्रात:कालीन प्रभु प्रार्थना को पूर्ण कर कुम्भकार ने बाहर आ प्रांगण में देखा चारों ओर प्रभातकालीन सुनहरी धूप फैलने जा रही है। प्रत्यूष काल में ही उसका मन उतावला हो गया, आज अवा को खोलकर देखना है। कुम्भ ने अग्नि परीक्षा दी और अग्नि ने कुम्भ की परीक्षा ली, शत-प्रतिशत सफलता का विश्वास है फिर भी विपरीत स्वप्न दिखने से मन को धीरज कहाँ? अपनी ओर बढ़ते शिल्पी के कदमों को देख कुम्भ की ओर से अवा बोलता है कि-हे शिल्पी महोदय ! प्रायः स्वप्न निष्फल ही होते हैं उनका कुछ भी फल नहीं होता। इन पर अधिक विश्वास करना हानि-कारक है। ‘स्व' यानि अपना ‘प' यानि पालन संरक्षण ‘न' यानी नहीं अर्थ यह हुआ- "जो निजी-भाव का रक्षण नहीं कर सकता वह औरों को क्या सहयोग देगा? अतीत से जुड़ा मीत से मुड़ा बहु उलझनों में उलझा मन ही स्वप्न माना जाता है।" (पृ. 295) जो अपनी ही सुरक्षा, अपने भावों का रक्षण नहीं कर सकता वह स्वप्न दूसरों की क्या रक्षा करेगा, क्या सहयोग देगा? भूतकालीन संकल्प -विकल्पों में डूबा, अपनी प्रिय वस्तु से बिछुड़ा, अनेक प्रकार की उलझनों में उलझा मन ही स्वप्न का रूप धारण करता है। स्वप्न दशा में जागृति छूटती है आत्म साक्षात्कार (सम्यग्दर्शन में कारण) भी नहीं हो पाता और सिद्धमन्त्र भी अकार्यकारी हो जाते है। यूँ अवा की बात सुन शिल्पी अवा के निकट पहुँचता है, न कोई चीख, न कोई भीख, न कोई यातना (पीड़ा), ना कोई याचना (माँग), न प्यास से पीड़ित प्राण, न शोक, न रोग, न रोता हुआ मुख। वह तकलीफ भरा दृश्य कुछ भी तो नहीं, जो स्वप्न में इन आँखों ने देखा, कानों ने सुना और हाथों ने छुआ था। स्वप्न का फल पूर्णतः गलत निकला, स्वप्न का घातक फल टला।
  2. उपरोक्त प्रसंग को देख अवा के भीतर बहने वाली हवा से ध्वनि निकलती है कि काल का प्रवाह, नदी प्रवाह की तरह सदा बहता रहता है और बहता-बहता कह रहा है कि - "जीव या अजीव का यह जीवन पल-पल इसी प्रवाह में बह रहा बहता जा रहा है, यहाँ पर कोई भी स्थिर-ध्रुव-चिर न रहा, न रहेगा, न था बहाव बहना ही ध्रुव रह रहा है, सत्ता का यही, बस रहस रहा, जो विहँस रहा है।" (पृ. 290) जीव हो या पुद्गल सभी का जीवन प्रतिक्षण इसी काल के प्रवाह में बह रहा है, बहता ही जा रहा है, यहाँ कोई भी स्थिर, बहुत काल तक ठहरने वाला नहीं है, न पहले था और न ही आगे रहेगा। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र आदि सभी आयु पूर्ण कर मरण को प्राप्त होते ही हैं। बड़े-बड़े महल, भवन, वन-उपवन भोगोपभोग सामग्री सब कुछ तो नश्वर, बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है। यह परिवर्तन होता आ रहा है, होता रहेगा यही ध्रुव सत्य है। सत्ता का यही रहस्य है जो यहाँ प्रकट हो रहा है। यह क्या? अचानक पीड़ा का काल, कुछ माँगने की आवाज, कहाँ से आ रही है, किसकी है, किस कारण से, क्या खोजने निकली है? पुरुष की है या स्त्री की । पुरुष की तो नहीं लगती क्योंकि अनुपात से पतली लग रही है कानों को। इसकी स्पष्टता प्रकट होती है - सो कुम्भ के मुख से निकली लग रही है - कि ओ धरती माँ, तू सदा अपनी सन्तान के प्रति दया धारण करती है, मुझ शिशु की दुःख भरी आवाज तुम्हारे कानों तक नहीं आ रही है क्या? मंजिल मिलना तो दूर मार्ग में जल भी नहीं मिल रहा है, फल-फूल की क्या अपेक्षा रखें। यहाँ तो छाया की भी गरीबी दिख रही है। हे माँ! मुझे मृत्यु के मुख में न ढकेलो, भविष्य में प्रकाश मिलेगा ऐसी आशा देकर जीवन में अन्धेरा न फैलाओ। अब यह उष्णता सही नहीं जा रही है, सहनशीलता की धीरे-धीरे कमी आती जा रही है। इस जीवन को जलाओ मत, अब तो ठंडा जल पिलाकर जीवन दान दो इसे माँ। याचना सुनकर भी जब धरती माँ की ओर से कोई आश्वासन और आशीष के वचन नहीं मिले तो कुम्भ ने कुम्भकार को स्मरण में ला कहा - क्या रक्षा के सभी स्थान / आश्रय कहीं दूर चले गए हैं ? कुम्भ के कर्ता और पालक होकर भी आप इसे भूल गए। बिना जल ग्रहण किए अब मेरे प्राण किसी का भी सम्मान नहीं कर पाएंगे यानी शरीर से बाहर निकल जाएंगे, किसी का सहारा नहीं बनेंगे। उज्वल भविष्य की कोई इच्छा नहीं रही, ये प्राण अब अग्नि परीक्षा नहीं दे सकते, छोटा-सा नियम-संकल्प भी सुमेरु पर्वत जैसा बड़ा और कठिन लगने लगा है। मेरी श्रद्धा भी अस्त-व्यस्त-सी होती डगमगा रही है। अपनी प्यास बुझाए बिना दूसरों की प्यास बुझाना, एक कल्पना-सा और जल्पना-सा अर्थात् मात्र वचनों की अभिव्यक्ति-सी लग रही है और कुम्भ की दशा लगभग रोने जैसी होने लगी कि-उदारहृदयी' कुम्भकार कुछ गंभीर हो, कुम्भ के हृदय की पीड़ा दूर करने हेतु, कुम्भ में धीरज धारण करने की क्षमता प्रकट हो, उसकी भूख-प्यास मिटाने हेतु कुछ भोजन-पानी लेकर अवा की ओर पहुँचता है कि कुम्भकार जो गहरी नींद में सोया हुआ था उसकी नींद टूटती है और उसकी स्वप्न दशा छूट जाती है। जब चाहे, मन चाहे स्वप्न कहाँ दिखते हैं तभी स्वप्न की दशा पर प्रथम तो शिल्पी को हँसी आई, फिर उसकी आँखें गंभीरता से भर गईं। जिन आँखों में पुराना बीता हुआ जीवन ही नहीं किन्तु भावी जीवन भी स्वप्न-सा लगने लगा और कुम्भ का भविष्य क्या होगा अच्छा या बुरा? यह शंका कुम्भकार के मन को भारी कर गई।
  3. बहती हवा द्वारा सत्ता का रहस्य, शिल्पी निद्रा में लीन-स्वप्न में कुम्भ की याचना, यातना और शीतल जल की माँग । जागने पर स्पप्निल दशा को याद कर शिल्पी की हँसी, अवा के निकट पहुँचने पर कोई आवाज नहीं स्वप्न अक्षरशः असत्य निकला। अवा की छाती पर से रेतिल राख अलग कर कुम्भ को देखा भविष्य भले ही पावन हो, पर पावन का अतीत, इतिहास अपावन ही। अवा से बाहर आया कुम्भ, कुम्भ के मुख पर तैरती प्रसन्नता, भीतरी संवेदन, धरती की गोद से छाती पर कुम्भ और कुम्भ के मन में अतिथि संविभाग के शुभ भावों की उमड़न ।
  4. ध्यान की बात सुनकर कुम्भ सोचता है - बड़े-बड़े विद्वानों, दार्शनिकों, तत्त्व ज्ञानियों से भी ऐसी अनुभूतिपरक पंक्तियाँ प्रायः सुनने को नहीं मिलीं, जो आज अग्नि से सुनी। दर्शन की गहराई और अध्यात्म की गंभीरता समझने हेतु वह अग्नि से निवेदन करता है क्या दर्शन और अध्यात्म, सिक्के की तरह एक ही जीवन के दो पहलू हैं? क्या इनमें पूज्य और पूजक भाव है? यदि है तो कौन पुजता है और कौन पूजता है? कार्य-कारण भाव है तो कौन कार्य, कौन कारण है? इनमें बोलता कौन है, मौन कौन रहता है? ध्यान का आनंद किससे आता है उसका अनुभव कौन करता है? मुक्ति और संतुष्टि किससे मिलती है? इन दोनों की मीमांसा (विचार पूर्वक तत्त्व, निर्णय) सुनने मिले इस युग को बस। कुम्भ की प्रार्थना पर अग्नि देशना देना प्रारम्भ करती है-सो सुनिएगा- दर्शन और अध्यात्म न ही एक सिक्के के दो पहलू के समान हैं, न ही उनमें पूज्य-पूजक भाव है और न ही कार्य-कारण भाव, दोनों पृथक्-पृथक् अपनी सत्ता लिए हैं। दर्शन का जन्म मस्तिष्क से होता है जबकि अध्यात्म का जन्म आत्म कल्याण की भावना रखने वाले हृदय से जैसे-लहर के बिना सरोवर रह सकता है, रहता है उसी प्रकार दर्शन के बिना भी अध्यात्म रह सकता है किन्तु सरोवर के बिना लहर नहीं होती उसी प्रकार बिना अध्यात्म ज्ञान के दर्शन भी संभव नहीं हैं। अध्यात्म स्वतंत्र नेत्र के समान है तो दर्शन पराधीन उपनयन (चश्में) के समान है। दर्शन में शुद्ध तत्त्व की बात नहीं किन्तु सत्य और असत्य के आसपास ही दर्शन घूमता रहता है जबकि अध्यात्म सदा सत्य, चैतन्य रूप प्रकाशित रहता है। निर्विकल्प स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है तो अनेक संकल्प-विकल्पों में लीन दर्शन होता है। आत्म तत्त्व को छोड़ बाहरी पर पदार्थों की ओर अभिमुख, बहुश्रुत- ज्ञानवान ही दर्शन का सेवन कर सकता है, करता है। जबकि अंतरात्मा में लीन, बाहरी सम्बन्ध से जिसकी दृष्टि हट गयी है ऐसे चैतन्य के प्रकाश, सिद्धत्व की अनुभूति अध्यात्म में होती है। "दर्शन का आयुध शब्द है-विचार, अध्यात्म निरायुध होता है सर्वथा स्तब्ध-निर्विचार! एक ज्ञान है, ज्ञेय भी एक ध्यान है, ध्येय भी।"( पृ. 289) दर्शन का शस्त्र विचार, सोचना-समझना है तो अध्यात्म शस्त्र रहित, विचार शून्य, निश्चल होता है। दर्शन ज्ञान है तो ज्ञेय (जानने योग्य) भी। अध्यात्म ध्यान है तो ध्याने योग्य भी। दर्शन उस तैरने वाले व्यक्ति के समान है जो सदा बाहर की ओर ही देखता है। अध्यात्म उस डुबकी लेने वाले व्यक्ति के समान है जिसका बाहरी सम्बन्ध छूट जाता है और वह सरोवर के भीतरी भाग का ही अनुभव करता है। अग्नि के मुख से अध्यात्म और दर्शन की व्याख्या सुन कुम्भ कह पड़ा- अहा! हा!! वाह ! वाह !! कितनी गहरी व्याख्या है यह साधुवाद' अग्नि को। फिर क्या अग्नि साधुवाद को स्वीकार कर और तीव्रता से धधकने लगी। बाहर भले ही प्रात:कालीन शीतल-मधुर हवा बह रही है पर उसका अवा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। उसकी उष्णता बढ़ती ही जा रही है दिन हो या रात, प्रताप हो या प्रभात, भीतर कुछ भी अंतर नहीं रहा, अध्यात्म में लीन योगी की तरह। रुक- रुक कर दिशा बदलते काल का, मौसम का परिवर्तन रुक ही गया। अवा के भीतर सदा एक जैसा ही मौसम (वातावरण) बना हुआ है अखण्डकाल की तरह।
  5. प्रभु की प्रार्थना, प्रार्थना में लीनता, ध्यान रूपी अग्नि तथा ज्ञान मार्ग की बात कुम्भ के मुख से सुन अग्नि कहती है बीच में ही, मुझे भवों-भवों की स्मृति है, बहुतों से मिली हूँ, साधु संतों की संगति की है मैंने, फिर यह अनुभव हुआ है कि ध्यान के केन्द्र खोलने मात्र से ध्यान में केन्द्रित/लीन होना संभव नहीं है। ध्यान की बातें करना और ध्यान से बात करना अर्थात् ध्यान धारण करना इन दोनों में बड़ा अंतर है। लो ध्यान के सम्बन्ध में ही आधुनिक चित्रण प्रस्तुत है - "इस युग के दो मानव अपने आपको खोना चाहते हैं - एक भोग-राग को मद्य-पान को चुनता है; और एक योग-त्याग को आत्म-ध्यान को धुनता है। कुछ ही क्षणों में दोनों होते विकल्पों से मुक्त। फिर क्या कहना ! एक शव के समान निरा पड़ा है, और एक शिव के समान खरा उतरा है।" (पृ. 286) इस युग के दो मानव एक भोगी दूसरा योगी। दोनों कुछ समय के लिए अपने आपको खोना चाहते हैं, संसार के विकल्पों से मुक्त होना चाहते हैं। इसके लिए भोगी भोग वस्तु स्त्री आदि को तथा शराब आदि नशीली वस्तु को चुनता है, स्वीकार करता है और योगी भोग को त्याग कर आत्मध्यान में लीन होता है उसी ओर बार-बार पुरुषार्थ करता है कुछ ही समय में दोनों ही हो जाते हैं विकल्पों से मुक्त। कुछ समय पश्चात् परिणाम यह निकला, भोगी शव यानी मुर्दे के समान शक्तिहीन हुआ, चेतना शून्य पड़ा मिलता है तो योगी भगवान् के समान, शुद्धत्व को प्राप्त हो, परम आनंद की अनुभूति में लीन-जागृत मिलता है।
  6. अग्नि की बात सुनकर कुम्भ के बल को और साहस मिला, उत्साह में नयी जागृति आई और वह कह उठा - इच्छित फल जब तक न मिले तब तक पुरुषार्थ करते रहना ही पुरुषार्थ की चरम सीमा है। इस सूक्ति को मैं सदा स्मरण में रखता हूँ, इसलिए मार्ग में आराम नहीं करता मैं, और न करूंगा। प्रभु से सिर्फ इतनी ही प्रार्थना है कि मुझमें अपूर्व शक्ति का उद्भव हो - "भुक्ति की ही नहीं, मुक्ति की भी चाह नहीं है इस घट में वाह-वाह की परवाह नहीं है प्रशंसा के क्षण में। दाह के प्रवाह में अवगाह करूं परन्तु, आह की तरंग भी कभी नहीं उठे इस घट में........संकट में। इसके अंग-अंग में रग-रग में विश्व का तामस आ भर जाए कोई चिन्ता नहीं, किन्तु, विलोम-भाव से यानी ता......म.......स स...........म.......ता...!" ( पृ. 284) विषय भोगों की ही नहीं किन्तु मुक्ति की भी चाह नहीं है इस मन में और न ही औरों के द्वारा की गई प्रशंसा की। बस इतनी इच्छा है कि अग्नि के बहाव में डुबकी लगाऊँ तो भी इन संकट के क्षणों में मुख से आह न निकले अर्थात् पीड़ा की अभिव्यक्ति न हो। इस तन के अंग-अंग में रोम-रोम में विश्व का अंधकार समा जाए इसकी कोई चिन्ता/परवाह नहीं है, किन्तु विपरीत भाव से यानी तामस .......समता रूप में परिवर्तित हो जाए। हे भगवन् ! अब व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, ख्याति की चाह से पूरी तरह उदासी आ चुकी है, कर्तव्य मात्र करने का भाव मन में रहता है। अतः आपके मुख की मुस्कान-मात्र मेरे लिए पर्याप्त नहीं है, अब आपके मुख से कुछ वचन, प्रवचन सुनने मिलें, बस और कुछ चाह नहीं है। संसार के सभी बंधन, सभी सीमाओं से परे होना चाहता हूँ, रूप, रस, गंध, स्पर्श से परे शुद्ध आत्मा की प्राप्ति करना चाहता हूँ। समस्त परिग्रह से रहित कषाय रूपी जंग से दूर शुद्ध-लोहे के समान बस ध्यान रूपी अग्नि में पचना अर्थात् लीन होना चाहता हूँ।
  7. धूम्र से मूर्छित-सी हुई कुम्भ की नासा ने भी घुटन न होने से रसना का ही समर्थन किया और अग्नि की शुद्ध गंध को सूंघने हेतु उतावली करती है वह। धूम्र के कारण कुम्भ की आँखें बंद हुईं थी, सो वे भी खुल गईं, जैसे अंधकार के हटते ही सूर्योदय होने पर कमल खिल उठते हैं। आँखें खुलते ही कुम्भ ने सब ओर देखा निधूम अग्नि को, दूसरा दृश्य कहीं नहीं दिखा बस चारों ओर अग्नि ही अग्नि । अनेक प्रकार की भिन्न-भिन्न लकड़ियाँ अब लकड़ियाँ नहीं रहीं अपितु अग्नि को पी लिया या इस तरह कहें कि अग्नि को जन्म देकर अग्नि में ही विलीन हो गईं वे। "प्रति वस्तु जिन भावों को जन्म देती है उन्हीं भावों से मिटती भी वह, वहीं समाहित होती है। यह भावों का मिलन-मिटन सहज स्वाश्रित है और अनादि-अनिधन........!" (पृ. 282) बीज पेड़ को जन्म देकर, मिट्टी घट रूप परिवर्तित होकर, बूंद सरिता सागर बन स्वयं मिट जाती है अथवा उसी भाव रूप परिणत हो जाती है। नये रूप को पाना, पुराने रूप को छोड़ना यह प्रक्रिया सहज ही निज परिणामों पर आधारित है। ऐसा अनादिकाल (जिसका कोई प्रारम्भ न हो ऐसा काल) से होता आ रहा है और आगे भी अनंतकाल ( जिसका कोई अन्त न हो ऐसा काल ) तक होता रहेगा। अग्नि को चखने, छूने, सँघने और देखने से प्राप्त अपनी उन्नति की अनुभूति, मन की प्रसन्नता व्यक्त करने हेतु उद्यमशील कुम्भ को देख संकोच करती हुई अग्नि कहती है कि-अभी मेरी गति में अधिकता नहीं आई है और जब तक मैं अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुँचती हूँ तब तक तुम्हारी परीक्षा पूर्ण नहीं हो सकेगी। मेरा जलाना शीतल ठंडे पेय की याद दिलाता है। मेरा जलाना कटु काजल का स्वाद दिलाता है अर्थात् मेरा सम्पर्क पाते ही कंठ सूखने लगता है मुख का स्वाद कड़वा हो जाता है और ठंडे पानी की याद आती है। किन्तु नियम है "प्रथम चरण में गम-श्रम ... निर्मम होता है, मेरा जलाना जन-जन को जल ...बाद पिलाता है एतदर्थ ........ क्षमा धरना......क्षमा करना धर्म है साधक का धर्म में रमा करना।" (पृ. 283) प्राथमिक दशा में किया हुआ पुरुषार्थ दुखी करता है, कठोर-कष्टदायी लगता है किन्तु मेरे द्वारा जलाये जाने के बाद ही तुम्हारा जीवन सबको शीतल जल पिलाने में कारण बनेगा। इसलिए मुझमें अति आवे इससे पहले ही मैं तुमसे क्षमा माँगती हूँ, तुम क्षमा धारण करना और मुझे क्षमा करना। क्योंकि साधक का परम धर्म है क्षमा धारण करना और क्षमा रूपी धर्म में लीन रहना।
  8. इस धूम्र भक्षण का कारण यह भी है कि -कुम्भ जानना चाहता था कि मुझमें अग्नि को पचाने की क्षमता है की नहीं। धूम्र भक्षण करते हुए भी कुम्भ की जिह्वा ने अरुचि का अनुभव नहीं किया, अतः धूम्र का वमन (उल्टी) भी नहीं हुआ क्योंकि - "वमन का कारण और कुछ नहीं, आन्तरिक अरुचि मात्र। इससे यही ज्ञात होता है कि विषयों और कषायों का वमन नहीं होना ही उनके प्रति मन में अभिरुचि का होना है।" (पृ. 280) वमन/त्याग का मूल कारण मन में अरुचि, ग्लानि है। पञ्चेन्द्रिय के विषयों का त्याग नहीं होना, कषायों का कम नहीं होना यह बात बताता है कि मन में अभी विषय-कषायों के प्रति राग, श्रद्धा बनी हुई है। विषय-कषायों का सही स्वरूप ज्ञात होते ही, उनमें अरुचि पैदा होनी चाहिए और अरुचि होते ही उनका त्याग भी होना ही चाहिए। अन्यथा वस्तु स्वरूप का ज्ञान, यथार्थ ज्ञान नहीं माना जा सकता है। धीरे-धीरे धूम्र उठना बंद हो गया। अवा में धूम्र रहित अग्नि दिखाई पड़ने लगी, अग्नि की उष्णता उत्कृष्टता को प्राप्त हुई। अग्नि के स्पर्श होने से कुम्भ का शरीर जलता हुआ काला पड़ गया जबकि उसकी आत्मा निर्मल हो सहज शान्ति का अनुभव करने लगी। अग्नि का स्पर्श होते ही कुम्भ की स्पर्शन इन्द्रिय ने कुम्भ से पूछा यह कौन-सा स्पर्श है - सो कुम्भ ने जवाब दिया यह वह शुद्ध स्पर्श है, जिसका अनुभव बिना जले, बिना तपे संभव नहीं। इस संदर्भ में कुम्भ की जिह्वा ने भी यह घोषणा कर दी कि - जिन बुद्धिमानों की यह धारणा है कि अग्नि में रस गुण नहीं है सो गलत है। क्योंकि मैंने इसका अनुभव/स्वाद लिया है और अनुमान से भी यह सिद्ध है कि जब धूम्र का स्वाद आ सकता है तो अग्नि का स्वाद जिह्वा को क्यों नहीं आएगा। किन्तु इसका स्वाद उसी को आएगा जो जीने की इच्छा से ही नहीं, किन्तु मृत्यु के भय से भी ऊपर उठा हो। क्योंकि - "रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ व्यक्ति कभी भी किसी भी वस्तु के सही स्वाद से परिचित नहीं हो सकता, भात में दूध मिलाने पर निरा-निरा दूध - भात का नहीं, मिश्रित स्वाद ही आता है, फिर, मिश्री मिलाने पर......तो तीनों का ही सही स्वाद लुट जाता है!" (पृ. 281) जो जिह्वा इन्द्रिय का लोलुपी है, वह किसी भी वस्तु का सही स्वाद नहीं जान पाता है, क्योंकि वह एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाकर ही खाता है फिर किसी एक वस्तु का सही स्वाद कैसे आवे? जैसे भात में दूध मिला देने पर दूध और भात का अलग-अलग स्वाद नहीं आता अपितु मिला-जुला ही स्वाद आता है फिर शक्कर और मिला दी जावे तो तीनों का असली स्वाद ही समाप्त हो जाता है ।
  9. मैं कहाँ कह रहा हूँ कि मुझे जलाओ किन्तु मेरे भीतर जो दोषों का समूह है उसे जलाओ, क्योंकि दोष जले बिना मैं निर्दोष नहीं हो सकता हूँ, मेरे दोषों को जलाना ही मुझे जीवनदान देना है। स्व-पर दोषों को जलाना ही परम धर्म माना है सन्तों ने, क्योंकि दोष अजीव/पौद्गलिक हैं, कर्मों के निमित्त से उत्पन्न होने वाले हैं, वस्तु का स्वभाव नहीं, कथंचित् बाहर से ही आते हैं। गुण जीव का स्वभाव है, अतः गुणों का स्वागत होना चाहिए। तुम्हारे इस जलाने रूप कार्य से तुम्हें परमार्थ मिलेगा तो मुझे अर्थ यानि जीवन । तुम्हारी कृपा से मुझमें जल धारण करने की शक्ति प्रकट होगी, इसलिए तुम्हारी स्वीकृति और सहयोग अत्यन्त आवश्यक है। कुम्भ की बात अग्नि को समझ में आई और इधर शिल्पी का मुख खिल गया, निराशा आशा, विश्वास में परिवर्तित हुई और अग्नि भी प्रमाद छोड़ निष्प्रमादी बनी अपने कर्तव्य में जुटी। देखते ही देखते सुरसुराती सुलगती हुई अग्नि विकराल रूप धारण कर सारी लकड़ियों को उदरस्थ करती हुई अवा को घेर लेती है। अवा अषाढ़ माह में उमड़ते, डराते हुए-से काले-काले घने बादलों की भाँति धुंए को उगलने लगा। अवा के चारों ओर लगभग 30-40 गज का क्षेत्र प्रकाश से रहित हो गया, ऐसा लग रहा है मानो नरक की सप्तम महातम पृथ्वी का अंधकार ही ऊपर आ गया हो। धूम्र से घिरा अवा शिल्पी को नहीं दिखा तो वह सोचता है, जब बाहर ऐसी भयंकर दशा है तो भीतर क्या हो सकती है? अनुमान ही लगाया जा सकता है। तेज गति से धुआँ अवा में घूमने लगा, भीतर-बाहर बस धुआँ ही धुआँ दिख रहा है। कुम्भकार का माथा भी घूमने लगा है, फिर कुम्भ की बात क्या कहें? कुम्भ के मुँह में, पेट में, कान-नाक के छेदों में धूम ही धूम घुट रहा है, आँखों से आँसू नहीं किन्तु असु अर्थात् प्राण ही बाहर निकलने को हैं। लेकिन बाहर से भीतर जाने वाला धुआँ प्राणों को बाहर नहीं निकलने दे रहा है, धुएँ की तेज गन्ध से नासिका की नाड़ी भी मंद पड़ गई। फिर भी कुम्भ ने पूरी शक्ति लगाकर धूम्र को पेट में भरा मानो कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम ही किया हो, जो कि योग का मूल और ध्यान की सिद्धि में श्रेष्ठ साधन माना जाता है।
  10. यहाँ बाधक कारण कोई और ही है और वह है स्वयं अग्नि। मैं तो जलना चाहती हूँ पर अग्नि ही मुझे जलाना नहीं चाहती, इसका कारण तो वह स्वयं जाने। लकड़ी की बात सुन, शिल्पी सोच-विचार में डूब जाता है कि प्रासंगिक कार्य को पूर्ण करने हेतु अग्नि से कैसे, क्या कहूँ? क्या वह मेरे मन की बात समझ सकेगी, क्या मेरी बात को पूर्ण करने के लिए, इच्छा रूपी प्यास बुझाने के लिए अग्नि जल के समान शीतल, मधुर बन सकेगी? यदि मेरी बातें सुनकर और क्रोधित हो उठी तो, यूँ शंका मन में रखता हुआ शिल्पी पुनः एक बार और अग्नि जलाता है-लो जलती हुई अग्नि कहने लगी-इस बात को मैं भी मानती हूँ कि अग्नि परीक्षा के बिना किसी को भी आज तक मुक्ति का लाभ नहीं मिला और न ही भविष्य में मिलेगा। जब यह नियम है तो अग्नि की अग्नि परीक्षा नहीं होगी क्या? मेरी परीक्षा कौन लेगा? मैं स्वयं अपने आपको पूर्णतः सफल परीक्षक कह नहीं सकती और फिर झूठा निर्णय लेकर ही अपने आपको प्रामाणिक मानना मुझे ठीक नहीं लगता क्योंकि - "अपनी आँखों की लाली अपने को नहीं दिखती है।" (पृ. 276) अर्थात् अपने दोष स्वयं को देखने में नहीं आते और जो दूसरों के लिए परीक्षक बना हो वह स्वयं के लिए भी बन सके, कोई नियम नहीं है। अपने जीवन में सदा अच्छा उद्देश्य बनाए रखना एवं सात्त्विक आचरणमय जीवन बनाना ही, सही कसौटी समझती हूँ मैं। फिर कुम्भ को जलाना तो दूर रहा किन्तु जलाने का भाव भी मन में लाना, पाप समझती हूँ शिल्पी जी। तभी अग्नि और शिल्पी के बीच चल रही वार्ता को सुन रहा कुम्भ, अवा के भीतर से ही विनयपूर्वक अग्नि से कहता है - "शिष्टों पर अनुग्रह करना सहज-प्राप्त शक्ति का सदुपयोग करना है, धर्म है। और, दुष्टों का निग्रह नहीं करना शक्ति का दुरुपयोग करना है, अधर्म!" (पृ. 276) सत् पुरुषों पर उपकार करना, पुण्योदय से प्राप्त बल का सदुपयोग करना ही धर्म है सुख का साधन तथा दुर्जनों की दुर्जनता, बुराईयों को दूर नहीं करना भी प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग करना, अधर्म है।
  11. लड़खड़ाती लकड़ी की जिह्वा, रुकती-रुकती पुनः कुछ कहती है - निर्बलों को सताने, कष्ट देने से बलवानों का बल सफल नहीं होता, अपितु जो बलहीन हैं उन्हें सहारा दे ऊपर उठाने में ही बल की सदुपयोगिता है। लकड़ी की बात सुनकर मीठे-सरल शब्दों में शिल्पी कहता है - "नीचे से निर्बल को ऊपर उठाते समय उसके हाथ में पीड़ा हो सकती है, उसमें उठाने वाले का दोष नहीं, उठने की शक्ति नहीं होना ही दोष है।" (पृ. 272) ऊपर उठने की भावना रखने वाले के हाथों में कमजोरी होने पर, उठाते समय यदि उसे कोई कष्ट हो तो उसमें उठाने वाले का कोई दोष नहीं, क्योंकि उठाने वाला तो अपना कर्त्तव्य ही कर रहा है। और वर्तमान प्रसंग में भी यही बात है कुम्भ के जीवन को ऊपर उठाना, उन्नत बनाना है और इस कार्य में तुम्हें ही सहयोगी बनना होगा और कोई बन भी नहीं सकता। शिल्पी की बात सुन कुछ सकुचाती हुई, मन में स्वीकृति प्रदान करती हुई पुरुष के समक्ष स्त्री के समान, थोड़ी सी गर्दन हिलाती हुई लकड़ी कहती है- आपकी बात कुछ समझ में आई कुछ नहीं भी, किन्तु आपकी उदारता देख बात टालने की हिम्मत नहीं होती और लकड़ी की ओर से प्रासंगिक कार्य हेतु अनुमति मिलती है। अवा के मुख पर दबा-दबाकर रबादार (दानेदार) राख और माटी इस तरह बिछाई गई की बाहरी हवा ही नहीं, हवा की आवाज भी भीतर ना जा सके। अवा के उत्तर दिशा की ओर नीचे के भाग में एक छोटा-सा द्वार है, जिस द्वार पर पहुँचकर कुम्भकार सिद्ध प्रभु को स्मरण कर नौ बार णमोकारमंत्र का उच्चारण करता है और एक छोटी सी लकड़ी से अवा में अग्नि लगाता है, किन्तु जलती अग्नि कुछ ही पलों में बुझ जाती है। अग्नि फिर से पुनः जलाई जाती है किन्तु वह भी जल्दी से बुझ जाती है। इस जलने-बुझने की क्रिया को, कई बार होती देख कुम्भकार पुनः लकड़ी से कहता है-लगता है इस शुभ कार्य में सहयोग की पूरी स्वीकृति अभी नहीं मिली अन्यथा बार-बार आग बुझ क्यों रही है? इस पर लकड़ी कहती है-नहीं-नहीं यह बाधा मेरी ओर से नहीं है- "स्वीकार तो ............स्वीकार.......... समर्पण तो............समर्पण......... बाहर...सो भीतर, भीतर... सो बाहर ।" (पृ. 274) मैंने तो मन, वचन, काय से आपकी बात स्वीकार की है, आपके कर्तव्य के प्रति समर्पण किया है। बाहर और भीतर एक रूप ही व्यवहार और एक ही परिणति, उपयोग की धारा यहाँ चल रही है।
  12. कुम्भ को अग्नि में पकाना है, पकाने हेतु प्राँगण में अवा’ है। कुम्भकार ने नीचे से लेकर ऊपर तक, अच्छी तरह से अवा को देखा और शीघ्रता से बिना देर किए, निर्धारित समय-सीमा के अन्दर कुम्भ को अवा के भीतर पहुँचाने हेतु, उसे झाड़-पोंछ कर साफ-सुथरा, जीवजन्तु रहित बनाता है वह। अवा के निचले भाग में बबूल की लकड़ियाँ एक के ऊपर एक रखी गईं, जिन्हें लाल-पीली नीम की पतली-पतली लकड़ियों का सहारा दिया गया। बीच-बीच में देवदारु जल्दी से आग पकड़ने वाली चन्दन-सी लकड़ियाँ भी बिछाई गईं। इमली की चिकनी लकड़ियाँ जो धीरे-धीरे जलने वाली हैं, अवा के किनारे चारों ओर खड़ी की गई हैं और अवा के बीचों-बीच कुम्भ समूह को अच्छी तरह से एक के ऊपर एक, आजू-बाजू में जमाया गया है सावधानी पूर्वक। अवा में सजाई गई सभी लकड़ियाँ अन्तर मन से दुखी हैं और उन सबकी तरफ से बबूल की लकड़ी, रुन्धे हुए गले से अपनी अन्तिम वेदना कुम्भकार को दिखाती हुई, शोकाकुल मुद्रा सहित कुछ कहने की हिम्मत करती है - "जन्म से ही हमारी प्रकृति कड़ी है हम लकड़ी जो रहीं लगभग धरती को जा छू रही हैं हमारी पाप की पालड़ी भारी हो पड़ी है।" (पृ. 271) धरती की कोख से उत्पन्न होते से ही हमारा शरीर, सख्त कठोर रहा है, अभी भी हमारा जीवन पाप से भरता जा रहा है। हम ऊपर उठने के बजाय नीचे धरती, जमीन को ही छूती जा रही हैं। पुण्य और इस पतित-पापी जीवन के बीच में क्षेत्र की ही नहीं अपितु काल की भी दूरी बढ़ती जा रही है अर्थात् दूर-दूर तक आत्मकल्याण होने, धर्ममय जीवन बनने की बात समझ नहीं आ रही है। स्वभाव से ही हम कड़ी हैं और कभी-कभी अपराधियों को पीटने के लिए हमें और कड़ी बनाया जाता है। खेद की बात तो यह है कि प्रायः अपराधी बच जाते हैं और निरपराधी ही पिटते हैं जिन्हें पीटते-पीटते हम टूट भी जाती हैं। ऐसी व्यवस्था को, सत्ता को हम सही प्रजातन्त्र-प्रजा की हितकारी कैसे कहें? यह तो साफ-साफ धन की शक्ति का दुरुपयोग अथवा अपनी मनमानी करना ही है। और किये गये अनर्थ का फल कालान्तर' में हमें भी मिलेगा ही, किन्तु अब जो हमें साधन बनाकर कुम्भ को जलाने की योजना बनी है, उससे इस जीवन में हत्या की एक और कड़ी जुड़ी जा रही है। पाप रूप विष से भरे हुए इस जीवन में कण्ठ तक पीड़ा भर आई है। विष हो या अमृत कुछ भी अब भीतर नहीं जा सकता कारण की भीतर स्थान ही नहीं है और विष से भरे जीवन में कुछ समय तक अमृत का प्रभाव पड़ना भी संभव नहीं है और यह भी सत्य है कि - "आशातीत विलम्ब के कारण अन्याय न्याय-सा नहीं न्याय अन्याय-सा लगता ही है।" (पृ. 272) निर्दोषता के निर्णय हेतु अदालत की शरण ली जाए और ठीक समय पर निर्णय हो जावे, उचित बात समझ आ जावे तो ठीक है। अन्यथा उम्मीद से अधिक देरी होने पर सही निर्णय-न्याय भी अन्याय-सा लगने ही लगता है और इस कलिकाल' में हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है।
  13. अपक्व कुम्भ को पकाने हेतु कुम्भकार अवा को साफ-सुथरा करता है। नीम, इमली आदि की लकड़ियों के बीच कुम्भ समूह को व्यवस्थित करता है। बबूल की लकड़ी कुम्भकार को अपनी अन्तर्वेदना कह, कुम्भ को जलाने के लिए मानसिक अस्वीकारता जताती है। किन्तु शिल्पी के समझाने पर स्वीकारता प्रकट करती है। शिल्पी णमोकार मन्त्रोच्चारण के साथ ही अग्नि जलाता है किन्तु वह झट से बुझ जाती, अनेक बार यही होने पर शिल्पी को ज्ञात हुआ लकड़ी से कि अग्नि भी जलाना नहीं चाहती। कुम्भकार को किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ देख कुम्भ स्वयं निवेदन करता है अग्नि से-कि मुझे नहीं मेरे दोषों को जलाना है। कुम्भ की बात सुन सुर सुराती सुलगती अग्न्।ि अवा के बाहर काला अंधकार छा जाता है, भीतर धूम ही धूम । वमन का कारण अन्तरङ्ग अरुचि, निर्धूम अग्नि का दर्शन, अग्नि में रस गुण, गंध गुण का अनुभव, अग्नि को जन्म दे अग्नि में लीन हुई लकड़ियाँ, अग्नि की अति पर कुम्भ की भावना-विश्व भर का तामस, समता में बदले अग्नि कहती है कि ध्यान की बात और ध्यान से बात करने में अन्तर है। कुम्भ अध्यात्म की अगाधता और दर्शन की अबाधता पाने निवेदन करता है सो अग्नि द्वारा इन दोनों की मीमांसा-अध्यात्म स्वाधीन नयन है तो दर्शन पराधीन उपनयन इत्यादि।
  14. सत् शिव सुन्दर 3 - वैराग्य-प्रेरणा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/sat-shiv-sundar-veragya-prerna/
×
×
  • Create New...