कुम्भकार की बात सुन थर्मामीटर में उतरते पारे के समान जल की कुछ बूंदें पड़ते ही शान्त होते दूध के समान, राजा की मति की उद्वेगता (उफान) भी कम हुई । राजा शान्त और स्वस्थ्य हुआ ऐसी स्थिति देख पुनः कुम्भकार ने निवेदन किया राजा से हे तलवार को धारण करने वाले कृपा-प्राण! इस निधि को स्वीकार कर मुझ पर कृपा करो, यह उपहार नहीं किन्तु आपका ही श्रृंगार है, जीत है इसका उपयोग करना हमारी पराजय है स्वामिन !
कुम्भकार की प्रार्थना को बोरियों में भरी उपरिल मुक्ता-राशि देख-सुन रही है और राजा के मन की गुदगुदी' को समझ रही है मन्द मुस्कान के बहाने मानो कह रही है कि हे राजन्! यह आपके पद के अनुकूल है स्वीकार करियेगा। कुम्भकार के निवेदन, मुक्ता और माहौल का समर्थन पा राजा स्वीकृति प्रदान करता है और सानन्द मोतियों की दुर्लभ राशि ले राजकोष को समृद्ध करता है।
परन्तु इतना सब होने पर भी मुक्ता अपने नाम के अनुसार ही ना राग करती-ना द्वेष, मद-ई-अहंकार इन सबसे परे है वह। आकाश से गिरी, बोरियों में भरी राजप्रासाद की ओर जा रही है वह। सब उसकी प्रशंसा कर रहे हैं पर वह उन्हें सुनती कहाँ, प्रसन्न मुखी महिलाओं के गले का हार बनती, तो कभी तारणहार तोरणद्वार बनती। इतना सब होने पर भी अहंभाव से मुक्त ही रहती है वह मुक्ता।