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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. सो तुरन्त परिवार ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा-नहीं नहीं अरे विनय-शील, परहित सम्पादिके' रस्सी! तुम्हारी कृपा का ही परिणाम है, जो हम पार हो गए, आज हमें-किसकी क्या योग्यता है? किसका कार्य क्षेत्र कहाँ तक है सही-सही ज्ञात हुआ? "केवल उपादान कारण ही कार्य का जनक है- यह मान्यता दोष-पूर्ण लगी, निमित्त की कृपा भी अनिवार्य है हाँ ! हाँ ! उपादान-कारण ही कार्य में ढलता है यह अकाट्य नियम है|" (पृ. 481) मात्र निज की योग्यता, उपादान शक्ति से ही कार्य सम्पन्न होता है निमित्त का उसमें कोई हाथ नहीं, ऐसी एकान्त धारणा' दोष पूर्ण अनुभूत हुई। किसी भी कार्य की पूर्णता में निमित्त का भी होना अति आवश्यक है समझ में आया। यह भी अकाट्य नियम है कि कार्य रूप में परिणत निमित्त नहीं उपादान ही होता है, सही कहें तो उपादान का सही मित्र तो निमित्त ही है, जो अपने मित्र को निरन्तर लक्ष्य तक साथ देता है और फिर रस्सी की ओर आदर की आँखों से देखता हुआ परिवार छने जल से कुम्भ को भर आगे बढ़ता है कि वही पुराना स्थान, जहाँ कुम्भकार माटी लेने आया है। परिवार सहित कुम्भ ने कुम्भकार का अभिवादन किया, स्मृति ताजी हो आई जैसे हवा का स्पर्श पाकर सरवर में तरंगें उठने लगती हैं। 1. कृतज्ञता - उपकारी के प्रति उपकार चुकाने का भाव।
  2. अब मान से रहित कुम्भ सबसे आगे है पीछे नौ-नौ व्यक्तियों की दो पंक्तियाँ कुम्भ के पीछे जो परस्पर एक दूसरे के आश्रित हो चल रही हैं। एक माँ की दो सन्तान के समान शरीर से पृथक्-पृथक् किन्तु एक जान-सी और कुम्भ के मुख से निकली मंगल-कामना की पंक्तियाँ "यहाँ ..... सब का सदा जीवन बने, मंगलमय छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें.... अमंगल-भाव, "(पृ. 478) सबका जीवन सदा पुण्य से भरपूर और पाप से खाली रहे, सबके जीवन में सुख की छाँव रहे, सबका सब अमंगल दूर हो, सबकी जीवन लता सद्गुणों से हरी-भरी प्रसन्नचित हो, सबकी असीम इच्छाएँ दूर हों और इच्छा रहित, निर्विकल्प- शान्त जीवन बने बस। इधर सरिता-तट के किनारों में कुम्भ के स्वागत हेतु आकुलता-सी झलक रही है। उदित होते सूर्य की किरणें, चंचल लहरों में समाती हुई ऐसी लग रही है मानो मदवाली कोई नारी गुलाबी साड़ी पहने हुई स्नान करती-करती सकुचा रही है, पूरा वातावरण सत्य धर्ममय हो चुका है, सरिता का किनारा, तट निकट आ ही गया। उदित सूर्य की किरणों का, तट में उठते झाग की सफेदी में मिश्रण ऐसा लग रहा है, मानो सरिता तट अपने हाथों में गुलाब फूल की माला लिए स्वागत के लिए खड़े हों। प्रथम ही उत्साह से सादर तट का स्वागत स्वीकारते हुए कुम्भ ने तट का चुम्बन किया फिर प्रसन्नता के साथ सभी नदी से बाहर निकल आए, सभी की पगतलियों ने धरती की दुर्लभ धूल का स्पर्श किया। फिर कमर में बंधी एक- दूसरे की रस्सी खोल दी, इस पर रस्सी बोलती है-मुझे क्षमा करना तुम, मेरी वजह से आप लोगों की दुबली पतली कमर छिल-छुल गई।
  3. आतंकवाद परिवर्तित हुआ, सेठ परिवार और वे दोनों परस्पर आश्रित हो आगे बढ़ रहे हैं। कुम्भ के मुख से मंगल कामना निकलती है और इधर सरिता तट भी कुम्भ के स्वागत हेतु आतुर हो रहे हैं। तट के निकट पहुँचते ही कुम्भ ने तट का चुम्बन लिया और सब नदी से बाहर निकल आते हैं, कमर की रस्सी खोली गई, रस्सी ने सबसे क्षमा माँगी सो परिवार ने भी कृतज्ञता व्यक्त की, उपादान की योग्यता और निमित्त की कृपा का परिचय । परिवार कुम्भ को छने जल से भर आगे बढ़ता है कि वही पुराना स्थान, जहाँ कुम्भकार पुनः माटी लेने आया है। परिवार सहित कुम्भ ने कुम्भकार का अभिवादन किया। धरती प्रसन्न होती है माटी की इस विकासशील विकसित दशा देखकर, आदिम सर्ग, द्वितीय सर्ग, तृतीय सर्ग, अन्तिम सर्ग और वर्गातीत अपवर्ग की बात । धरती की भावना सुनकर कुम्भ सहित सबने कुम्भकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की सो नम्र भाव से कुम्भकार ने यह सब ऋषि सन्तों की कृपा बताकर, कुछ ही दूर बैठे साधु की ओर सबका ध्यान आकृष्ट कराया। सबने गुरु चरणों के निकट पहुँचकर प्रणाम किया, फिर पादाभिषेक कर गंधोदक उत्तमांग पर लगाया और हाथ जोड़कर गुरुकृपा की प्रतीक्षा में बैठ गए, कुछ पल बीते कि गुरुदेव ने आशीष का हाथ उठाया, जिसमें भाव भरा था शाश्वत सुख का लाभ हो। इस पर आतंकवाद ने कहा - स्वामिन् सांसारिक दुख और क्षणिक इन्द्रिय सुख तो अनुभूत हैं, किन्तु अक्षय सुख पर विश्वास नहीं हो रहा है। यदि आप दिखा सकें तो हम भी आप जैसी साधना कर सकें। हमारी भावना पूरी हो, ऐसा वचन दें आप। दल की धारणा सुन गुरुदेव ने बताई - गुरु को दिए वचन की बात, श्रमण साधना और अक्षय सुख के विषय में अन्तिम समाधान और महामौन में डूबते सन्त और माहौल को निहारती मूकमाटी।
  4. रही माँ की बात तो कभी-कभार किसी कारणवश माँ की आँखों में उत्तेजना, उद्वेग आ सकता है, आता है और आना भी चाहिए किन्तु माँ की वात्सल्यमयी, गौरवपूर्ण गोद में गुस्से का घुस आना, न सुना, न देखा-जिस गोद में शिशु सहज सुख का अनुभव करता है। और देखो माँ की उदारता-परोपकारिता कि अपने वक्षस्थल पर युगों-युगों से, दीर्घकाल से दूध से भरे दो कलश [स्तन] ले खड़ी है और भूख-प्यास से पीड़ित शिशुओं का पालन करती है। जो भयभीत हैं और सुख से रहित हैं जिनका जीवन, उन्हें चुपचाप पुचकारती हुई अपने हृदय से लगा लेती है और फिर जब एक बार माँ को माँ के रूप में स्वीकार ही कर लिया तो बार-बार परख-परीक्षा क्या? इसीलिए माँ की आँखों में दया है कि नहीं यह मत देखो और अपराधी नहीं किन्तु अपरा धी यानि विनम्र बुद्धि वाले बनो दूसरों को दुख देने वाले पराधी और पराश्रित रहने वाले पराधीन नहीं किन्तु स्वतन्त्र-स्वाधीन बनो? सेठ का इतना कहना पर्याप्त था कि दल का संकोच-संशय समाप्त हुआ और डूबती हुई नाव से बाहर कूद पड़ा दल माँ की गोद में निशंक होकर शिशु की भाँति । तुरन्त ममता की मूर्ति माँ के समान परिवार के प्रत्येक सदस्य ने भी दल के प्रत्येक सदस्य को आदर के साथ सहारा दिया और नौ प्राणियों को नया जीवन मिला। इधर नाव का पूरा डूबना हुआ इसी के साथ आतंकवाद का अन्त हुआ और हुआ अनन्तवाद, शाश्वत पद की उपब्धि हेतु सम्यक् पथ का मंगलाचरण, श्री गणेश।
  5. जैसे-तैसे आतंकवाद को यथार्थता समझ में आई किन्तु वह तुरंत कार्य रूप परिणत कैसे होती? क्योंकि अभी पर्याप्त काल भी अपेक्षित है, गले उतरी बात पचने के लिए। देखते ही देखते दृष्टिकोण बदल सकता है पर चाल-ढाल नहीं, कषाय के वेग को संयत होने में समय तो लगता ही है पर अब ज्यादा समय कहाँ रहा-कुछ ही समय में सब कुछ समाप्त होने को है। नाव करधनी तक डूब गई है। जहाँ पर लिखा था आतंकवाद की जय हो, समाजवाद का लय हो भेदभाव का अन्त हो, वेद-भाव जयवन्त हो।” डूबती नाव के दृश्य को देख, दल के आत्मविश्वास को एकाएक आघात पहुँचा मानो वज्रपात ही हुआ हो, देवता दल की बात सत्य निकली और पश्चाताप से घुटता हुआ व्याकुल, शोकाकुल हो, अवरुद्ध कण्ठ से आतंकवाद कहने लगा-कुम्भ और परिवार से कि तुम्हारे बिना कोई शरण और पार उतारने वाला तरणि (नाव) नहीं है। हे क्षमा के अवतार! हमें क्षमा करो बड़ी भूल हुई हमसे, अब पुनरावृत्ति नहीं होगी हम पर विश्वास करो। संकटों से घिरे हैं चाहो तो बचा लो, काँटों से छिदे हुए हैं, चाहो तो फूल बिछाओ। हम तो अपराधी हैं, हमेशा जघन्य बुद्धि ही रही, सही पदार्थों का ज्ञान हो ऐसी बुद्धि चाहते हैं, अब अधिक समय न बिताओ, किन्तु सच्चा मार्ग हमें बताओ। स्वभाव से शैतानी करने वाली सन्तान पर भी तो माँ की कृपा होती ही है और फिर अपनी सन्तान हो या दूसरों की कष्ट देना, सताना माँ की सत्ता को कब स्वीकार था हमें बताओ? इतना कहते-कहते दल का मुख बन्द हो गया। "पर्त से केन्द्र की ओर जब मति होने लगती है अनर्थ से अर्थ की ओर तब गति होने लगती है।" (पृ. 475) बुद्धि जब पर्याय से हटकर द्रव्य की ओर, असत्य से सत्य की ओर होने लगती है, तब अनिष्ट से इष्ट की ओर यात्रा होने लगती है, ऐसा सोचता हुआ सेठ कहता है कि - अधिक दीन-हीन मत बनो भाई जो फूल-फलों के समूह से लदा, हरा-भरा वृक्ष है, उससे थोड़ी-सी छाया माँगना क्या हँसी का कारण नहीं है? वह तो स्वयं पथिक की प्रतीक्षा में खड़ा ही है। षट्स मिश्रित भोजन बनाकर जिसने जिसे विनय-आग्रह कर आमंत्रित किया है, क्या वह उसे जल नहीं पिला सकता भला तुम ही बताओ?
  6. आतंकवाद की अदमनीय धमकी सुन सेठ को छोड़ सारे परिवार का दिल हिल गया, भय से भरा दृढ़ संकल्प टूटने-सा लगा। अकाल में ही जीवन का अवसान होता-सा देख और आगे जीने की इच्छा रखता हुआ आत्म - समर्पण के लिए बाध्य हुआ परिवार, कि नदी ने कहा-उतावली मत करो! क्या असत्य के समक्ष सत्य का आत्मसमर्पण होगा? क्या असत्य शासक बनेगा और सत्य शासित होगा अब? हे भगवान् ! कैसा काल आ गया कि जौहरियों के बाजार में काँच की चकाचौंध के कारण हीरों के हार को नीचा देखना पड़ रहा है अब सती भी व्यभिचारिणी की अनुचरी बन पीछे-पीछे चलेगी क्या? सत्य का भी विवेक समाप्त हो गया उसे अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा। भीड़ के अनुसार ही सत्यासत्य का निर्णय होगा। नहीं... नहीं.... कभी....नहीं। जल में, थल में और गगन में सब कुछ असहनीय हो गया है अब। जब तक घट में प्राण हैं, डटकर मुकाबला करना होगा, यह धारा अब अपने लक्ष्य से नहीं हटेगी, यूँ कहती-कहती कोपवती हो, बहती-बहती क्षोभवती हो नदी नाव को नाच नचाती है। पल में ही नाव पलटने वाली है, ऐसा देख आतंकवाद ने मन ही मन मन्त्र का स्मरण किया सो तुरन्त देवता दल का आना हुआ उन्होंने सविनय नमन कर, प्रार्थना की कि-किस कारण हमें याद किया गया स्वामिन् ! कारण ज्ञात हो। आदेश की प्रतीक्षा में कुछ पल व्यतीत हुए कि स्वयं देवों ने कहा नमन की मुद्रा में ही-विद्याबलों की अपनी सीमा होती है स्वामिन् ! उसी सीमा में हमें कार्य करना पड़ता है कहते हुए लज्जा का अनुभव हो रहा है कि प्रासंगिक कार्य करने में हम पूरी तरह असमर्थ हैं। अतः हम क्षमा चाहते हैं वैसे हे स्वामिन् ! यहाँ आते ही हमने अनुभव किया कि हम हिरण-शिशु के समान सिंह के सम्मुख खड़े हैं, फिर संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठता और तुमने भी अपने बल की उस बल के साथ तुलना तो की ही होगी, ऐसी दशा में परिवार की शरण में जाना ही पतवार को पाना है तथा अपार संसार का किनारा पाना है। अन्य सभी प्रकार के उपाय, अपने लिए ही घातक और हार के कारण सिद्ध होंगे, यह निश्चित है। उस पर भी यदि प्रतिकार करने का विचार हो तो सुनो- "सलिल की अपेक्षा अनल का बाँधना कठिन है और अनल की अपेक्षा अनिल को बाँधना और कठिन परन्तु, सनील को बाँधना तो ........ सम्भव ही नहीं है।" (पृ. 472) पानी की अपेक्षा आग को बाँधना कठिन है और आग की अपेक्षा हवा को बाँधना तो और अधिक कठिन है, किन्तु आकाश को तो बाँधना ही सम्भव नहीं है। कभी भी घी पर जल का शासन नहीं चल सकता क्योंकि घी सदा जल के ऊपर रहना जानता है देवों पर कभी जहर का प्रभाव नहीं पड़ता और न ही भौरों पर लेखनी का इसी प्रकार कई सूक्तियाँ, प्रेरणा देती पंक्तियाँ, कई उदाहरण, नई- पुरानी दृष्टियाँ और दुर्लभतम अनुभूतियाँ देवता दल ने आतंकवाद को सुनाईं।
  7. अरे संसार को नरक में पटकने वाले, पाप के माप दण्डों! ठहरो ठहरो मरो या हमारा समर्थन करो, किसी को उतारने वाले नहीं हो तुम, सुनते हों या नहीं अरे बहरो! सुनो ! सुनो !............. जरा सुनो ! "अब धन-संग्रह नहीं, जन-संग्रह करों! और लोभ के वशीभूत हो अंधाधुन्ध संकलित का समुचित वितरण करो अन्यथा धनहीनों में चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं|" (पृ. 468) लोभ के कारण तुमने दिन-रात एक करके धन संग्रह किया है, उसका सही-सही पात्र अनुसार दान करो। अब धन का संग्रह नहीं किन्तु लोगों के मन को अपना बनाने का पुरुषार्थ करो क्योंकि मात्र धन जोड़ने से, समुचित वितरण न करने से धन-हीनों के मन में उस धन को चुराने के भाव पैदा होते हैं इसीलिए चोर इतने दोषी नहीं जितने की चोरों को पैदा करने वाले। चोरी मत करो, चोरी मत करो यह कहना मात्र ऊपरी नाटक है तुम्हारा, तुम स्वयं चोर हो और चोरों को जन्म देने वाले भी- "सज्जन अपने दोषों को कभी छुपाते नहीं, छुपाने का भाव भी नहीं लाते मन में प्रत्युत उद्घाटित करते हैं उन्हें।" (पृ. 468) जो सज्जन पुरुष होते हैं, वे कभी भी अपने दोषों -अवगुणों को छुपाते नहीं, न ही छुपाने का भाव रखते हैं, बल्कि उन्हें सबके सामने प्रकट करते हैं, जिससे वे दूर हो जाएँ। देखो रावण ने सीता का हरण किया था तब सीता ने रावण को ही दोषी नहीं माना बल्कि यह कहा कि - यदि मैं इतनी रूपवती न होती तो रावण के मन में हरण के दूषित भाव ही उत्पन्न नहीं होते। मेरे ही शुभाशुभ भावों से जो कर्म बंधा उसी का यह परिणाम कि ऐसा रूप-लावण्य मिला और मेरा हरण हुआ ऐसी स्थिति में मात्र रावण को ही अपराधी मानना अपने भविष्य को दुखी बनाना है।
  8. फलस्वरूप आतंकवाद के तन की शक्ति कमजोर पड़ने के कारण वह कुम्भ सहित परिवार को ईर्ष्या भाव से देखने लगी, मन की शक्ति स्वयं पर क्रोधित हुई और वचन की शक्ति पराजित-सी चुप पड़ गई । किन्तु उसकी धोखा देने रूप वंचन शक्ति नष्ट नहीं हुई और पहले के समान ही पुनः परिवार को नष्ट करने हेतु एक बहुत बड़ा-सा मछली पकड़ने का जाल परिवार के ऊपर फेंकने को तैयार होता है आतंकवाद, कि धरती के उपासक पवन से यह देखा नहीं गया और वह प्रलयकारी चक्रवात का रूप धरता एक ही झटके में झट से दल के हाथों से जाल को सुदूर शून्य आकाश में फेंक देता है, सो ऐसा लगा रहा है मानो प्रकाशपुंज प्रभाकर, सूर्य को ही पकड़ने का प्रयास चल रहा है। झटका लगने से दल के पैर निराधार हुए और वे चक्कर खा कई गोलाटे लेते हुए सिर के बल नाव में ही गिर पड़े। उसके सामने अन्धेरा छा गया, नेत्र बन्द हो गये, हृदय का स्पन्दन/ धड़कना मन्द हो गया, रक्त-गति में अन्तर आने से मूच्छ आ गई । इतने पर भी उनकी पूँछे पूर्ववत् तनी हैं, बिना मूर्छित हुए। दल के मुख से झाग निकलने लगा, लग रहा है प्राण निकल से गए और नाव भी डाँवाडोल हो गई, अपनी ही परिक्रमा लगाती रही वह। नाव के और सभी के प्राण लगभग डूबने को हैं। घटित घटना को देख अपनी अति की समाप्ति के लिए कुम्भ ने संकेत दिया पवन को, सो श्रद्धेय स्वामी की सेवा, आदेश का पालन ही सुखमय जीवन का मूल कारण है सेवक लिए, ऐसा मान पवन संयत बना और नाव भी परिवार को तीन परिक्रमा दे पूर्व स्थिति पर आती है। दुर्घटना टलने से सम्पूर्ण माहौल ही प्रसन्न हुआ। इतना होने के बाद भी जिस प्रकार अनंगसरा की अंजुलि के जल सिंचन से लक्ष्मण की मूच्र्छा टूटी थी वैसी ही सरिता के शीतल जल कणों का स्पर्श पा आतंकवाद की मूच्र्छा दूर हुई। फिर क्या पूछो, लक्ष्मण की भाँति उबल उठा आतंक फिर से? और कहता है-
  9. और अब आतंकवाद को लगभग सफलता मिलती-सी लगी, भाग्य साथ देता-सा और नाव पर सवार हो वह परिवार के सम्मुख मार्ग रोककर खड़ा हुआ। और कहकहाहट के साथ कहता है- मेरा मान सम्मान हो, मन को लुभाने वाली भोग विलास की अच्छी-अच्छी वस्तुएँ मुझे मिलें, ऐसी अज्ञानता से भरी धारणा है तुम्हारी। फिर बताओ समाजवाद में कहाँ आस्था है तुम्हारी, सबसे आगे मैं रहूँ और समाज बाद में क्या यह ठीक है? अरे कम से कम शब्द के अर्थ की ओर भी तो देखो-समाज का अर्थ होता है समूह और समूह यानी सम-समीचीन, ऊह-विचार, सही तरीके से सोचना-विचारना है जो सदाचार की नींव है। कुल मिलाकर अर्थ यह हुआ कि- "प्रचार-प्रसार से दूर प्रशस्त आचार-विचार वालों का जीवन ही समाजवाद है।" (पृ. 461) समाजवाद - समाजवाद चिल्लाने से समाजवादी नहीं बनोगे तुम और अब उस पार पहुँचने का विकल्प त्याग दो। पाप-पाखण्ड का फल पाना है तुम्हें जीवन का मोह त्याग कर, नरक की ओर जाना है और परिवार के ऊपर अन्धाधुन्ध पत्थरों की वर्षा होने लगी। आतंकवाद द्वारा ऐसे असभ्य शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है कि - जिसे सुनते ही क्रोधाग्नि भभक उठे और मान तिलमिलाने लगे। पत्थरों की मार से घनी चोट लगने से सबके सिर घूम से गये हैं, खून की धारा बहने लगी है, जिस धारा से जल की धारा भी लाल-सी हो गई है, मानो एक विचार की ही दो सखियाँ आतंकवाद पर रुष्ट हुई हो। सेठ जी के सिवा पूरा परिवार परवश हो पीड़ा का अनुभव कर रहा है- "आचरण के सामने आते ही प्रायः चरण थम जाते हैं और आवरण के सामने आते ही प्रायः नयन नम जाते हैं,|" (पृ. 462) चारित्र की बात आते ही प्रायः अच्छे-अच्छे लोग चुप हो जाते हैं। थोड़ा-सा भी नियम-संयम लेने की हिम्मत नहीं करते। जैसे आवरण के सामने आते ही आँखें झुक जाती/बंद हो जाती हैं। जब तक वस्तु स्वरूप का सही ज्ञान नहीं होता तब तक मोह के कारण संसारी प्राणी कभी रस्सी को सर्प मानकर विषय भोगों को छोड़ देता है तो कभी सर्प को रस्सी मान विषय-भोगों में लीन हो जाता है। ऐसी स्थिति में भी धैर्य-साहस के साथ, आतंक से संघर्ष करता हुआ सेठ सबसे आगे हो, कुम्भ की सुरक्षा हेतु, उसे अपने पेट के नीचे ले नीचे मुख कर लेटा है और वन की घटना को याद रख, अपने ही दुष्कर्मों का फल मान समता से सहन कर रहा है। कुम्भ को फोड़ने का प्रयास विफल हुआ, कमर में बंधी रस्सी को काटने का प्रयास भी सफल नहीं हुआ। लगता है कुम्भ की कठिन तपस्या देख जलदेवता ने परिवार के चारों ओर रक्षामण्डल-भामण्डल की रचना की हो अथवा यह मत्स्यमुक्ता का चमत्कार भी हो सकता है। कुछ भी हो, अब आतंकवाद को अपनी हार निकट लगी साथ ही साथ उसके मन में कुम्भ का अच्छा उद्देश्य भी समझ आने लगा। 1. आतंकवादी - राज्य या विरोध भाव को दबाने के लिए हिंसा या भयोत्पादक उपायों का सहारा लेना/ सहारा लेने वाला व्यक्ति।
  10. राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत जी पूज्य गुरुदेव आचार्य विद्या सागर जी महाराज से डिंडोरी मध्य प्रदेश में आशीर्वाद प्राप्त करते हुए ।राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत जी पूज्य गुरुदेव आचार्य विद्या सागर जी महाराज से डिंडोरी मध्य प्रदेश में आशीर्वाद प्राप्त करते हुए ।
  11. परिवार प्रसन्न है और उधर आतंक की पुनरावृत्ति प्रारम्भ हुई वही पुराना रंग-ढंग, चाल-ढाल, नशा-दशा आदि-आदि और वह आतंकवाद नदी से प्रार्थना के स्वर में कुछ पूछता है-ओ माँ जलदेवता, पुण्यात्मा-धर्मात्मा का पालन-पोषण उचित है और कर्तव्य भी है तुम्हारा। परन्तु क्या पापियों को भी प्यार करती हों तुम? अपराधियों को भी पार लगाती हों? यदि नहीं तो जो कुम्भ का सहारा ले पृथ्वी की प्रशंसा करते हैं, उस पार उतरना चाहते हैं, उन्हें डुबो दे इन्हें पुण्य-पाप (धर्म-अधर्म) से कोई मतलब नहीं इनका प्यार धन-वैभव-विषय भोग से ही रहता है। फिर भी यदि तुम इन्हें सहयोग दोगी तो तुम्हारे निर्मल इतिहास की हँसी होगी और विश्वास का पतन होगा फिर औरों की क्या बात सबके जीवन पर प्रश्नचिह्न ही लगेगा। वैसे औरों को दुःख-ताप देने वाली स्वयं जलती और जो औरों को जलाती है ऐसी अग्नि को भी तुमने लकड़ी में कीलित किया है। फिर कभी -कभी उसे दावानल के रूप में लपलपाती, उत्पन्न होती देख अपने अजेय-बल से उसे लावा का रूप दे, पाताल तक पहुँचाया है और अभी भी उस पर तुम्हारा शासन चल रहा है। फिर पता नहीं आज तुम्हें क्या हो गया? कुछ बता दे माँ ! इस पर नदी कहती है, जैसे तलवार के अभाव में म्यान का क्या मूल्य, भोक्ता के अभाव में भोग सामग्री से क्या प्रयोजन? उसी प्रकार जिन्हें तुम डुबोने की बात कर रहे हो, उनके अभाव में यहाँ कुछ भी शेष नहीं बचेगा। जो कुछ आज धरती की शोभा दिख रही है वह इन जैसे सेवाभावी जनों से ही हैं, जड़ के अभाव में पेड़ की तथा मिट्टी के अभाव में फूल की क्या गति हो सकती है? तुम स्वयं विचार कर सकते हो, कहने की आवश्यकता नहीं। अब बल का दुरुपयोग नहीं होगा क्योंकि कुम्भ के प्रति समर्पण हो चुका है, शक्ति आराधना में परिवर्तित हो चुकी है, हृदय में परोपकार, दया का भाव जाग चुका है और बस! इतना ही कहती हुई नदी मौन धारण करती है। परिवर्तित नदी की विचारधारा और गम्भीरता से आतंकवाद उदास नहीं हुआ अपितु कुछ क्षण शान्त रह पुनः लक्ष्य की ओर रोष के साथ सक्रिय होता है। और सही नीति भी यही है कि युद्ध के मैदान में कूदने के बाद मित्रों को याद नहीं किया जाता अपितु शत्रु पक्ष पर प्रहार करने हेतु टूट पड़ना ही होता है। क्योंकि- "पराश्रय लेना दीनता का प्रतीक है वीर-रस को क्षति पहुँचती है इससे, इतना ही नहीं, मित्रों से मिली मदद यथार्थ में मदद होती है जो विजय के पथ में बाधक अन्धकार का कार्य करती है" (पृ. 460) दूसरों के सहारे की अपेक्षा रखना ही कमजोरी का प्रतीक है और इस कार्य से स्वयं के स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है। इतना ही नहीं वास्तव में मित्रों से मिली सहायता उनमें मद, घमण्ड को ही पैदा करा देती है और यह घमण्ड ही सफलता के मार्ग में बाधक, अन्धकार का रूप ले लेता है
  12. आतंकवाद की पुनरावृत्ति, जलदेवता से परिवार को डुबाने की माँग, नदी का जवाब-समर्पण हो चुका है। पुनः सरोष सक्रिय आतंकवाद नाव पर सवार हो, परिवार के सम्मुख खड़ा होता है। समाजवाद की मीसांसा,पत्थरों की वर्षा, परवश हुआ सेठ परिवार, कुम्भ को फोड़ने का प्रयास किन्तु चारों ओर रक्षामण्डल की रचना। आतंकवाद को लगने लगी पराजय, फिर बड़ा-सा जाल परिवार पर फेंकना चाहता है, जिसे पवन दूर आकाश में उछाल देता है। आतंकवाद उल्टा नाव में गिर पड़ता है और डाँवाडोल होती नाव। कुम्भ के संकेत से संयत हुआ पवन, दुर्घटना टली, माहौल प्रसन्न। पुनः उछलता आतंकवाद शुभाशुभ भावों की बात, परिवार को धमकी, सेठ को छोड़ समूचा परिवार आत्मसमर्पण के विषय में सोचने को बाध्य हुआ। तभी नदी ने कहा-उतावली मत करो और कोपवती हो नाव को नाच नचाती कि आतंकवाद ने मन्त्र का स्मरण कर देवता दल को आमंत्रित किया - देवों का आना, अपने बल की सीमा बताना और आतंकवाद को सलाह - परिवार की शरण में जाना ही पतवार को पाना है। इधर आतंकवाद की नाव का करधनी तक डूबना कि आतंकवाद क्षमायाचना कर, दीनहीन हो शरण की माँग करता है धरती से। सेठजी द्वारा माँ की उदारता शिशु के प्रति बताकर निशंक होने की बात। आतंकवाद दल नि:संकोच हो नाव छोड़ नदी में कूद पड़ता। परिवार के एक-एक सदस्य ने आतंकवाद के नौ सदस्यों को झेल लिया और आतंकवाद का अन्त हो अनन्तवाद का श्रीगणेश हुआ।
  13. जैसे मणियों में नील-मणि, कमलों में नील-कमल, सुखों में शील-सुख, गिरियों में मेरुगिरि, सागरों में क्षीर-सागर, मरणों में वीर-मरण, मुक्ताओं में मत्स्य- मुक्ता उत्तम माने जाते हैं। उसी प्रकार अनेक गुणों में कृतज्ञता गुण उत्तम माना गया है। इसी गुण से सुशोभित कुम्भ को देख एक महामत्स्य ने प्रसन्नचित हो एक मुक्ता-मणि प्रदान किया कुम्भ को? और यह तुच्छ सेवा स्वीकृत हो कहता हुआ वह जल में लीन हो गया। इस मुक्ता की यह बड़ी विशेषता है कि जिसके पास यह होती है, वह गहरे जल में भी बिना किसी बाधा के मार्ग पा जाता है और यहाँ भी यह घटित हुआ, आँवरदार धार को भी सहज ही परिवार सहित कुम्भ पार करता हुआ सेठजी से कहता है-‘बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख' और यह त्याग तपस्या का ही फल है। कुम्भ के आत्म-विश्वास और साहस पूर्ण जीवन से नदी को बड़ी प्रेरणा मिली उसकी व्यग्रता दूर हुई और उसके भीतर कुम्भ के प्रति समर्पण भाव जागा तथा वह नम्र हो विनीत भावों के साथ कुम्भ से कहने लगी-उद्दण्डता के लिए क्षमा चाहती हूँ। और वह निस्तरंग हो राग-रंग से मुक्त चिर-काल से दीक्षित, नीचे आँखें कर चलने वाली आर्यिका के समान चुपचाप गम्भीर हो बहने लगी। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण परिश्रमी विद्यार्थी के समान कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है, यात्री समूह को लग रहा है कि गन्तव्य ही अपनी ओर आ रहा है, लगभग आधी यात्रा हो चुकी है और परिवार भी प्रसन्नता से फूला नहीं समा रहा है।
  14. घटती इस घटना को देख कहीं परिवार का धैर्य कम न हो जाए उनका मन कहीं लक्ष्य से भटक न जाए, यूँ सोच कुम्भ ने नदी को ललकारा-यह परिवार तो किनारे पर ही है मझधार में नहीं क्योंकि "जिसने धरती की शरण ली है धरती पार उतारती है उसे यह धरती का नियम है........ व्रत! धरती शब्द का भी भाव विलोम रूप से यही निकलता है ध.......र ........ती ती......र .....ध "(पृ. 451) जिसने धरती का आश्रय लिया है, नियम से धरती उसे उस पार पहुँचाती ही है, किनारे पर धरती है और ध के स्थान पर थ करने से तीरथ बनता है सो शरणागत को भव से पार भी लगाती है। फिर भला तुम हमें कैसे डुबा सकोगी? अब हमें बहा न सकोगी तुम और किसी बहाने बहाव में हम भी न बहेंगे, जब आग की नदी को भी पार कर आये हैं हम और साधना से हारकर नहीं उसे स्वीकार कर, त्याग तपस्या अंगीकार कर आये हैं हम। क्या फिर भी तुम हमें डुबोने की क्षमता रखती हो, हमने पहले ही निर्णय किया सतह की ज्यादा सेवा प्रशंसा नहीं करना है और न ही लहरों के दर्शन मात्र से संतुष्ट होना है क्योंकि सतह पर तैरते-तैरते निश्चित ही हाथ भर आयेंगे और लहरों से ही संतुष्ट होने वाले प्रायः डूबते ही नजर आते हैं। भाव यह हुआ कि सांसारिक, इन्द्रिय सुख के लिए ज्यादा पुरुषार्थ नहीं करना, पुण्य से मिलने वाली विषय-भोग की सामग्री में संतुष्ट, लीन नहीं होना है, कारण ये भोग ही भविष्य में भयंकर दुख के कारण हैं। इन बाहरी क्षणभंगुर इन्द्रिय सुख को ही सच्चा सुख मानकर जीने वाले चतुर्गति रूप संसार में भटकते हुए दुःख ही पाते हैं। अरे नीचे की ओर बहने वाली निम्नगे! इस गागर यानि कुम्भ में सागर को भी धारण करने की क्षमता है, धरती के अंश जो रहे हम। कुम्भ की अर्थ- क्रिया अर्थात् कार्य जल को धारण करना ही तो है और....... सुनो...... "स्वयं धरणी शब्द ही विलोम-रूप से कह रहा है कि ध........र .......णी नी.......र......ध नीर को धारण करें .....सो.......धरणी नीर का पालन करे सो......धरणी!" ( पृ. 453) स्वयं धरणी शब्द पलट कर कह रहा है कि जो जल को धारण करे, उसका पालन करे सो धरणी है
  15. पानी में डूबने से सबके शरीर की स्वभाविक ऊष्मा कम होती जा रही है, रक्त का प्रवाह भी मन्द पड़ने लगा, हाथ-पैर क्रिया शून्य हो गये हैं, दाँत किटकिटाने लगे। नदी में कुछ और भीतर आना हुआ कि जल से ऊपर उछलती अनेक छोटी-बड़ी मछलियाँ आसपास खेल खेलने लगीं, परिवार की पिंडरियों से, विषधरों की पतली पूँछे लिपटने लगी। संकोच स्वभावी कछुवे भी परिवार की कोमल-मांसल जाँघों को छू-छूकर भागने लगे, सिंह के समान भयंकर जबड़ों में जिनकी टेढ़ी-मेढ़ी पैने दाँतों की पंक्तियाँ चमक रही हैं, जिनकी खून की प्यासी जिह्वा बार-बार बाहर निकल रही है और विष से युक्त, काँटों वाली पूँछे ऊपर उठी हैं, ऐसे माँस-भक्षी बड़े-बड़े मगरमच्छ भोजन की खोज में लीन परिवार के आस-पास सिर उठाते घूमने लगे। अन्य क्रूर जलीय जन्तु भी भूख के कारण क्रोधित से आस-पास घूमते दिख रहे हैं, फिर भी परिवार की शान्त मुद्रा देख वे सभी क्रोध करना, वार (प्रहार) करना भूल-से गये हैं। भोजन का प्रयोजन दूर हुआ, आमूल-चूल परिवर्तन आया उनके आचरण में, जैसे भगवान् को देखते ही भक्त के मन में भजन-पूजन करने का भाव पैदा होने लगता है। हेय-उपादेय का बोध, क्षीर-नीर विवेक जागृत हुआ, कर्तव्य की ओर मुड़ गये वे सभी, इस प्रकार जलचरों के जीवन में अनेक परिवर्तन देखा गया। जड़ यानि पुद्गल और जंगम यानि जीव ये दो तत्त्व हैं, दोनों की अपनी-अपनी विशेषतायें हैं-जीव को सही दिशा-बोध, सही निमित्त मिलते ही उसका विकास होने लगता है जबकि जड़ ज्यों का त्यों अज्ञानी, हठी, कूटस्थ बना रहता है, यहाँ ऐसा ही घटित हुआ। जलचर प्राणियों में परिवर्तन आया किन्तु जल में और अधिक उल्टी क्रान्ति आई जलचरों की परिवर्तित प्रकृति देख उफनती हुई नदी और अधिक जलती हुई कहती है कि मेरे आश्रित होकर भी, मुझसे प्रतिकूल प्रवृत्ति करते हो और निर्बल बालक के समान होकर भी माँ को भुला रहे हो निश्चित ही भविष्य में दुख पाओगे, पश्चात्ताप करना पड़ेगा तुम्हें। पृथ्वी पर चलने वाले भूचरों से मिल गये हो, उन्होंने तुम्हें छला इसीलिए तुमसे कुछ नहीं कहना उन्हें ही देखना है जो निश्छलों से छल करते हैं और जल-देवता से भी जला करते हैं और कुपित पित्त वाली बनी नदी क्रोधित हो परिवार के कोमल गालों पर अनगिन लहर रूपी हाथों से तमाचा मारना प्रारम्भ करती है। और वह कहती है-धरती के आराधक धूर्तो बचकर कहाँ जाओगे अब, जाओ पाताल में चले जाओ, अपना मुख मत दिखाओ ग्रहण-संग्रहण रूप संग्रहणी रोग से ग्रसित हो धरती के समान एक स्थान पर रह कर,पर को और परधन को अपने आधीन किया है तुमने और मैं क्षण भर कहीं रुकती नहीं, पर सम्पदायें मिलने पर उनको मैंने स्वप्न में भी ना... ली यानि नहीं लिया और स्वार्थ वश या ख्याति की चाह के कारण उस सम्पदा को ना ही किसी को दी। तभी तो सन्तों ने हमें सार्थक संज्ञा दी है.... नाली..... नदी! और हमसे विपरीत चाल चलने वाले सदा न...... दी ...... दी........... दीन ही हुआ करते हैं। हमारे इस बहाव स्वभाव से कुछ शिथिलाचारी साधुओं को भी दिशाबोध मिलता है ‘बहता पानी और रमता जोगी', इस सूक्ति से। इस आदर्श में तुम भी अपना मुख देख लो और अपने रूप-स्वरूप को पहचान लो। नदी की बातें सुन उत्तेचित हुए बिना सेठ कुछ कहता है-देवों ने तुम्हें जगह नहीं दी, इसीलिए तुम पर्वत की चोटी पर गिरी, सब हँसे तुम रोयी थी, उस समय सरला-तरला-सी लग रही थी, सो धरती माँ ने तुम्हें सहारा दिया वरना पाताल में चली जाती, फिर क्या दशा होती तुम्हारी जरा विचार करो। अरी कृतघ्ने' ! पाप सम्पादिके! और अधिक पाप मत कमाओ, संसार ऋणी है धरती माँ का तुम्हें भी ऋण चुकाना चाहिए, धरणी को हृदय में धारण कर अपनी करनी सुधारना चाहिए। सेठ की बात सुन नदी के नेत्र खुले नहीं अपितु लाल-लाल खूनी और हो गये और फिर नदी कहती है, अरे दुष्टों मेरे लिए पाताल की बात करते हो, अब तुम्हारा अन्त दूर नहीं और जोरदार भंवर वाली तरंगें उठने लगी, जिसे देख सभी प्राणी अपने जीवन की सुरक्षा की चाह करने लगे, देखते ही देखते एक हाथी जिस पर सिंह बैठा था, भंवर में फँसकर एक-दो बार भ्रमता हुआ भंवर के उदर में डूब जाता है, यहाँ किसी की भी ताकत काम नहीं कर रही है। 1. स्वच्छन्दता - मनचाहा आचरण। 2. लवणभास्कर चूर्ण - भोजन को पचाने के काम में आने वाली एक औषध।
  16. नहीं....नहीं......नहीं.......अभी लौटना नहीं है, क्योंकि आतंकवाद अभी गया नहीं है। अभी उससे संघर्ष करना है वह अभी अपने संकल्प के प्रति दृढ़ है और ध्रुव पर अडिग। मैंने भी यह संकल्प किया है कि इस धरती पर वह रहेगा या मैं, किसी एक का ही अस्तित्त्व रहेगा। अब ये आँखें आतंकवाद को देख नहीं सकतीं और ये कान आतंकवाद का नाम सुन नहीं सकते, क्योंकि यह आतंकवाद जब तक जीवित रहेगा धरती में सुख-शान्ति का वातावरण बन नहीं सकेगा। अतः अब देर न करो, शीघ्र ही नदी को पार करना ही है। क्या मेरे त्याग में कुछ कमी रह गई है क्या मुझे सफलता नहीं मिलेगी? भय आश्चर्य और संकोच मत करो, विश्वास रखो निश्चित ही हमारा संकल्प पूर्ण होगा। हमें विजय मिलेगी रस्सी का एक छोर मेरे गले में बाँध दो और कुछ-कुछ अन्तर छोड़कर परस्पर तुम सब अपनी कमर में कसकर रस्सी बाँध लो फिर ओंकार के उच्च उच्चारण के साथ नदी की धार में कूद जाओ। इतना सुनकर भी जब परिवार का संकोच दूर नहीं हुआ तब कुम्भ के मुख से निकली कुछ पंक्तियाँ–यहाँ बन्धन किसे अच्छा लगता है, मुझे भी स्वतन्त्रता प्रिय है, इसीलिए मैं किसी के बन्धन में बंधना नहीं चाहता और न ही किसी को बाँधना चाहता हूँ क्योंकि दूसरों को बाँधना भी तो स्वयं के लिए बन्धन है फिर भी… "स्वच्छन्दता से स्वयं बचना चाहता हूँ बचता हूँ यथा शक्य और बचना चाहे हो, न हो बचाना चाहता हूँ औरों को बचाता हूँ यथा-शक्य।" (पृ. 443) स्व और पर को स्वच्छन्दता से बचाने के लिए बन्धन आवश्यक है, इसीलिए बन्धन की बात कही वरना बन्धन रुचता किसे है? कुम्भ की ये पंक्तियाँ परिवार के लिए लवणभास्कर चूर्ण-सी असरदार सिद्ध हुईं और कुम्भ के संकेतानुसार सेठ सिंह की कमर के समान पतली-सी अपनी कमर में रस्सी बाँध नदी की तेज धार में कूद पड़ा। परिवार ने भी उसका अनुकरण किया अब कमर में बँधी रस्सी ही सबकी रक्षक, सबके प्राण हैं, क्योंकि धरती का सहारा पूर्णतः छूट चुका है। सबके पैर निराधार हो गए हैं और कुम्भ महायान का काम कर रहा है, परिवार का पूरा शरीर जल में डूब चुका सबके मुख और मस्तक ही ऊपर दिख रहे हैं और परिवार को अत्यधिक ठंड का अनुभव हो रहा है इस समय। 1. संवेग - पाप से डरना एवं धर्म से प्रीति करना। 2. निर्वेग - संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य।
  17. नाग-नागिनों द्वारा पूजित परिवार, संरक्षण में लगे गजदल को झाड़ियों में छुपा आतंकवाद निन्दा की नजरों से बार-बार, झाँक-झाँक कर देख रहा है। कल्पना से बाहर घटित इस घटना को देख वह पुनः और अधिक भयभीत हुआ, व्याकुलता, उत्तेजना और मानहानि से उत्पन्न हुई स्वच्छन्दता के ताप से। और फिर बलशाली के समक्ष निर्बल इसके सिवा कर भी क्या सकता है? काले-काले सघन बादलों की इच्छा के साथ ही, साधित मन्त्रों से मन्त्रित सात नींबू, जो कि काली डोर से बंधे हैं, शून्य आकाश में उछाल देता है वह। फिर तुरन्त ही फल सामने आ गया यह सब एकाग्रता का परिणाम है क्योंकि - "मन्त्र-प्रयोग करने वाला सदाशयी हो या दुराशयी इसमें कोई नियम नहीं है। नियन्त्रित - मना हो बस! यही नियम है, यही नियोग, और यही हुआ।" (पृ. 437) अच्छा-बुरा कैसा भी उद्देश्य हो यदि मन्त्र प्रयोगकर्ता स्थिरचित्त वाला हो तो मन्त्र नियम से कार्य करता है और यहाँ भी यही घटित हुआ। घने-घने बादलों की काली-काली घटाएँ आकाश में डोलने लगी, चारों ओर घना अंधकार छा गया, लगता है रव-रव नामक सप्तम नरक की रात्रि ही ऊपर आ गई है। प्रचण्ड पवन बहने लगा अर्थात् भयंकर तूफान प्रारम्भ हुआ जिससे पर्वत भी हिलने लगे, शिखर टूट कर गिरने लगे, वृक्षों में संघर्ष छिड़-गया, बड़े-बड़े वृक्ष जड़ सहित उखड़ गए और शीर्षासन करने लगे तथा बांस दण्डवत् हो धरती की छाती से चिपक गये। भयंकर मेघों की गर्जना सुन मयूर-समूह द्वारा नृत्य करना तो दूर उनके मुख से आवाज निकलना भी बंद हो गई और मान-मर्यादा से रहित स्त्री के समान, मेघों को क्रोधित करने वाली बिजली चमकने लगी। और मूसलाधार वर्षा होने लगी, जिसे देख जलप्रपात-सा अनुभव हो रहा है सारी धरती जल में ही डूबी जा रही है। उमड़ते बादल, चमकती बिजली और रह- रहकर ओला वृष्टि भी होती रही, शीत लहर चलने लगी फिर भला ऐसी स्थिति में निद्रा किसे आ सकती है ? क्योंकि पाप और पुण्य फलों के अनुभव के लिए, भोग और उपभोग के लिए केवल भोग-सामग्री की ही नहीं किन्तु अनुकूल काल और क्षेत्र की भी अपेक्षा होती है। ऐसी भीषण प्रलयकारी स्थिति में भी सद्गुणग्राही गजदल द्वारा परिवार का चारों ओर से रक्षण चलता रहा। परिवार के पुण्य योग से शीघ्र ही बादल छट गये, आकाश में पूर्व दिशा से लालिमा फूटने लगी हैं। बादलों का संकट दूर हुआ और परिवार जन नदी के किनारे जाकर खड़े हो गये किन्तु अब परिवार के सम्मुख एक और गम्भीर समस्या आ खड़ी हुई, वर्षा के कारण नदी में नया पानी आया है और नदी वह संवेग'-निर्वेग से दूर मदोन्मत्त प्रमदा-सी वेग-आवेग वाली बनी है। धीरे-धीरे परिवार की गहन गम्भीरता, भयता में ढलती जा रही है और परिवार का मन कह उठा चलो यहाँ से लौट चलें और लौटने का उद्यम हुआ कि कुम्भ कहने लगा।
  18. झाड़ियों में छुपा आतंकवाद निन्दा की दृष्टि से बाहर झांक रहा है, अपनी हार से उच्छृखल हुआ, मंत्रित नीबू आकाश में उछालता है तुरन्त घनी-घनी मेघों की घटाएँ, आँधी तूफान, बिजली की चमक और मूसलाधार वर्षा प्रारम्भ। इधर गजदल द्वारा परिवार का रक्षण, नदी तट पर पहुँचा परिवार नदी का उफान देख लौटने का मन बनाता है तभी कुम्भ लेता है आतंकवाद को नष्ट करने का दृढ़संकल्प। निर्भय हो कुम्भ में तथा अपनी-अपनी कमर में रस्सी बाँध नदी में कूदने का निर्देश, बन्धन नहीं स्वतन्त्रता की बात कुम्भ द्वारा। परिवार द्वारा निर्देश का अनुकरण, नदी में कूदा, डूबा परिवार ऊपर मुख मात्र दिख रहे हैं। जलीय जन्तुओं की वृत्ति में परिवर्तन, जल में उल्टी क्रांति, उफनती नदी परिवार के गालों पर तमाचा मारती, नाली-नदी संज्ञा की सार्थकता कहती है। नदी मुख से स्वयं की प्रशंसा सुन सेठ कहता है-धरणी को हृदय में धारण कर अपनी करनी सुधारो। सेठ की समालोचना सुन लोहित हो नदी, भंवरदार लहरों में डुबाने का प्रयास। परिवार का धैर्य घट ना जाए इसीलिए कुम्भ ने नदी को ललकारा, महामत्स्य ने मत्स्य मुक्ता प्रदान किया, जिसके परिणाम स्वरूप नदी का उफान शान्त हुआ, लगभग आधी यात्रा हो चुकी है प्रसन्नचित्त है कुम्भ।
  19. इस प्रकार सर्प समाज में से एक नाग-नागिन का युगल कहने लगा-हे श्रेष्ठ पुण्यशाली मानव, हमें सदा विषैले, हानिकारक, पर पीड़ादायक नाग, नागिन ही ना गिनों अर्थात् नहीं समझो। युगों-युगों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि हमारी वंश परम्परा ने आज तक किसी कारण वश किसी को भी पैरों से नहीं कुचला कारण कि पैरों से रहित जो रहे हम। इसी कारण सन्तों ने हमारा सार्थक नाम उर (छाती) से गमन करने वाले ‘उरग' रखा। हाँ ! यदि हम पर कोई पैर रखे, हमें छेड़े तो फिर हम भी उसे छोड़ते नहीं। जघन्य स्वार्थसिद्धि के लिए हमने कभी किसी को पद दलित नहीं किया। बल्कि जो पद-दलित हैं, उन्हें प्रेम से पुचकारा है, उनके घावों को सहलाया है। काँटों को भी कभी काटा नहीं उन्हें सदा प्रेम भरा आलिंगन ही दिया है क्योंकि वे शोषित हैं। देखो डाल-डाल में भरे रस को चूसा फूलों ने, यश भी पाया फूलों ने, फल यह निकला कि सूख-सूख कर शेष काँटे ही बचे। एक बात और कहनी है कि - "पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु पर को पद-दलित करते हैं, पाप-पाखण्ड करते हैं। प्रभु से प्रार्थना है कि अपद ही बने रहें हम! जितने भी पद हैं वह विपदाओं के आस्पद हैं,|" (पृ. 434) पैर वाले ही तुच्छ पदों की आकांक्षा ले दूसरों को अपने पैरों के नीचे दबाते हैं, हिंसादि पाप-प्रपञ्च करते हैं सभी पद संकट के ही कारण बनते हैं, अतः प्रभु से यही प्रार्थना है कि हम बिना पद वाले अपद ही बने रहें, पद की चाह भविष्य में भी हमारे मन में पैदा न हो यही भावना है। अपदों के मुख से पदों की, पद वालों की परिणति, रीति-नीति सुन कर परिवार कीलित-सा हुआ, चार पैर वाले हाथी भी परिस्पंदन से रहित यन्त्रवत् जड़ हुए, सबके पैर बर्फ के समान जम गए हों। परिवार सहित हाथियों के समूह को उदासी में डूबा देख सम्हलते हुए सर्पों ने कहा-क्षमा करें! क्षमा करें! क्षमा चाहते हैं हम, हमारा पूर्ण आशय प्रकट न हो सका, जितने भी पद वाले होते हैं, सभी ऐसे ही होते हैं ऐसा नहीं, कुछ पद ऐसे भी होते हैं, जिनकी पूजा के लिए जीवन तरसता है, हम भी तरस रहे थे बहुत काल से। सो आज खुशी की घड़ी आ ही गई और हर्ष के आँसूओं से भरी हुई आँखों से पूज्य पदों का अभिषेक-वन्दन हुआ फिर नाग-नागिनों ने फण-फैला मणियों का अर्पण किया धन्य! धन्यतम! माना सर्प समाज ने स्वयं को। सर्पो ने नमन किया, सबका अहंकार दूर हुआ बाहर भले ही मारपीट का वातावरण-सा दिख रहा है। भीतर सबका एक-दूसरे के प्रति स्नेह का भाव चल रहा है और यहाँ एक मौलिक किन्तु अलौकिक सुनने योग्य काव्य की रचना हुई सो इसको रचने वाला कौन है? कहाँ है वह, क्यों मौन है वह? नम्र बुद्धि वाला, मानवों में श्रेष्ठ, अरिहन्तादिकों के आचरण को धारण करने वाला।
  20. प्रभु के स्मरण में लीन परिवार निर्दोष पाया गया, गजदल क्रोधित पाया गया, जो परिवार के रक्षण में लगा हुआ है। और पारिशेष न्याय से बचा हुआ दल सदोष पाया गया जो सबके भक्षण में लगा है। फिर क्या पूछना, प्रधान सर्प ने कहा सबसे – इनकी उदण्डता दूर हो इस हेतु इन्हें शह (सबक) देना है किसी को भी काटना नहीं, मारना नहीं क्योंकि - हम भी मानते हैं कि- "दण्डों में अन्तिम दण्ड प्राणदण्ड होता है। प्राणदण्ड से औरों को तो शिक्षा मिलती है परन्तु जिसे दण्ड दिया जा रहा है उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त।" (पृ. 431) अन्तिम दण्ड प्राणदण्ड होते हुए भी जिसे दण्ड दिया जा रहा है, उसे देखकर दूसरों को भले ही कुछ सीख मिल जावे किन्तु उसके लिए तो सुधार के सारे रास्ते ही बन्द हो जाते हैं। दण्ड संहिता माने या ना माने किन्तु क्रूर अपराधी को भी क्रूरता से दण्डित करना न्याय-मार्ग से दूर जाना, एक प्रकार का अपराध ही है। चारों ओर जहाँ देखो वही अनगिन नाग-नागिन देख ऐसा लग रहा है मानो नागेन्द्र ही पाताल से परिवार सहित धरती पर आया हो, पतितों-दुखियों का सहयोग करने। यह पहली बार घटित घटना है कि आतंकवाद स्वयं भयभीत हो पीछे भागने लगा, कीचड़ में फँसे हाथियों के समान उसका बल निष्क्रिय हुआ, सागर की ओर बहती नदी के समान चुपचाप आतंकवाद सघन वन में जा छुपा। संहार की बात मत करो अपितु संघर्ष करते चलो, हार की बात मत करो उत्कर्ष करते चलो अर्थात् दूसरों को नीचा दिखाने, ठगने की मत सोचो किन्तु अपने जीवन को श्रेष्ठ-अच्छा बनाने का प्रयास करो और फिर टूटी हुई घायल डाल पर रसदार फल लगते नहीं, लग भी जाएँ तो पकते नहीं यदि काल पाकर पक भी जाएँ तो खाने वाले को उस रसदार फल का कुछ स्वाद नहीं आता कारण कि शुरू से ही विपरीत, विकृत परिस्थिति जो रही उसकी। 1. दयालीन - जिनका मन दया के कार्यों में लगा रहता है। 2. पारिशेष न्याय - शेष बचा हुआ ग्रहण करने वाली व्यवस्था।
  21. जब भ्रम दूर हुआ, श्रम टलते ही तन-मन की स्वस्थ्यता होते ही सेठ परिवार आगे चलने के लिए उठ खड़ा हुआ कि-पीछे से गरजती हुई जन दल के मुख से निकली कानों को बहरा करती, हिंसा ही जीविका है जिसकी, आक्रामक भाव को लिए भयंकर ध्वनि सुनाई पड़ी। अरे कायरो पापी! धर्म के नाम पर अधर्म करने वालों ठहरो, भाग कर कहाँ जाओगे अब, शरीर का मोह छोड़ो और मरने के लिए तैयार हो जाओ। परिवार ने मुड़कर देखा तो दिखा आतंकवाद का दल, हाथियों को भी हताहत अर्थात् मृत और घायल करने वाला, क्रोध से भरे जिनके होठों से खून टपक रहा है, शरीर गठीला और मन हठीला बना है जिनका काले-काले लम्बे बाल वाले, आँखें आग-सी उगल रही हैं, त्रिकोणी तिलक कुमकुम का, काली काया, उठी हुई मूँछो वाले, जिनकी बाहुओं में निम्बू फल बन्धे हैं, जिनके अंग-अंग से क्रूरता झलक रही है, ऐसा है आतंकवाद का दल। प्रायः सम्पुष्ट शरीर दया छोड़, हिंसक वृत्ति से ही बनता है तभी सन्तों ने कहा है कि - "अरे देहिन्! घुती-दीप्त-संपुष्ट देह जीवन का ध्येय नहीं है, देह-नेह करने से ही आज तक तुझे विदेह-पद उपलब्ध नहीं हुआ।" (पृ. 429) हे देहधारी मानव! जीवन का लक्ष्य सुन्दर, कांतिवान, हष्टपुष्ट शरीर का निर्माण करना नहीं होना चाहिए, क्योंकि देह के प्रति राग, मोह करने का ही यह परिणाम है कि आज तक तुझे देह से रहित, देहातीत सिद्धावस्था की प्राप्ति नहीं हुई है। दया से रहित दुष्टों द्वारा, दयालीन शिष्टों पर आक्रमण होता गजदलों ने भी देखा और सोचते हैं वे, आर्यों का प्रथम कर्तव्य परिवार की रक्षा करना है, सो गजदल परिवार को बीच में कर चारों ओर से खड़ा हो गया। हाथियों का समूह जोरदार चिंघाड़ करने लगा, सो इस गर्जना से पूरा आकाश मण्डल गूंज उठा, धरती का धैर्य हिल उठा, पर्वत भी घबरा गए, पंछी भयभीत हो दूसरों के घोंसलों में घुस गए, अजगरों की गाढ़ निद्रा टूट गई, लोगों को बुखार-सा चढ़ गया अर्थात् शरीर तप गया, हिरण-दल मार्ग से भटक सिंह के सम्मुख जा खड़ा हुआ, सर्पो की वामियाँ धूल बनकर धरती पर गिर पड़ी, जिससे क्रूर विषधर बाहर निकल आए और फण उठाकर बाधक तत्त्व को देख रहे हैं, तुरन्त ही विषधरों को विप्लव (उत्पात, उपद्रव, विपत्ति) का मूल कारण ज्ञात हुआ।
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