स्त्री समाज की कई विशेषताएँ पुरुष के सामने आदर्श के रूप में प्रस्तुत हैं सो सुनो -
"प्रतिपल परतन्त्र हो कर भी
पाप की पालड़ी भारी नहीं पड़ती
..........पल-भर भी!
इनमें, पाप-भीरुता पलती रहती है
अन्यथा,
स्त्रियों का नाम भीरु' क्यों पड़ा ?" (पृ. २०२)
जीवन की हर घड़ियों में पराधीनता का अनुभव करते हुए भी सदा पाप से डरती रहती, पुण्य संचय करती रहती हैं स्त्रियाँ । इसलिए इनका नाम ‘भीरु' भी पड़ा। प्रायः पुरुषों के दवाब के कारण ही स्त्रियों को असंयम, अधर्म, अनीति के गलत मार्ग पर चलना पड़ता है, फिर भी सुपथ और कुपथ को अच्छी तरह से जानकर, सुपथ यानी धर्म-मार्ग पर ही चलती हैं स्त्रियाँ।
इनकी आँखें करुणा से भरी हुई, शत्रुता से दूर होती हैं, मित्रता का पाठ सहज सीखने को मिलता है इनसे । इनका कोई अरि यानी शत्रु नहीं होता इसलिए इनका एक सार्थक नाम ‘नारी' भी है ‘ना अरि' सो नारी । और ना ही ये काटने वाली आरी हैं-नारी।
"जो
मह यानी मंगलमय माहौल,
महोत्सव जीवन में लाती है
‘महिला' कहलाती वह !" (पृ. 202)
जो पुण्यदायी वातावरण निर्माण करती है, महिला कहलाती है। जो जीवन के प्रति उदासीन हुआ हो, सहारा चाहता हो, ऐसे पुरुष को जन्मभूमि/दया धर्म के प्रति श्रद्धा जगा, सही रास्ता बताती है महिला कहलाती है वह। जो परिग्रह से पीड़ित है जिसका संयम ग्रहण के प्रति उत्साह न हो ऐसे संग्रहणी रोग से ग्रसित पुरुष को मही पिलाती है महिला कहलाती है।