जल के स्वभाव को अच्छी तरह जानते हुए भी धरती माँ ने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा, अपकार करने वाले के प्रति विघ्न करने का विचार भी उसके मन में नहीं आया। हमेशा सबके जीवन विकास की बात ही सोचती रहती है, कितने उदार हृदय वाली है, यह धरती माँ। इसलिए अपने वंश, अपनी संतान बांस को भी कह रखा है उसने -
"वंश की शोभा तभी है
जल को मुक्ता बनाते रहोगे
युग-युगों तक
संघर्ष के दिनों में भी
दीर्घ श्वास लेते हुए भी
हर्ष के क्षणों में भी।" (पृ. 195)
जिस उदार वंश में तुमने जन्म लिया है, उसकी शोभा तभी है जब कठिन से कठिन परिस्थितियों में कष्ट को सहते हुए अथवा हर्ष का माहौल हो तो प्रसन्न रहते हुए भी सदा जल को मोती बनाते रहोगे। माँ की आज्ञा को स्वीकार कर आकाश से गिरी जल की बूंदों को मोती बनाते रहे ऊँचे-ऊँचे बाँस वे। इसलिए तो नारायण श्रीकृष्ण ने मोती को गले में धारण किया और बाँसुरी को अपने होठों से लगा लाड़-प्यार दिया, बदले में बांसुरी से अपने को खोकर, दिन-रात के सपनों को भुलाकर मधुर मीठे स्वर संगीत सुने ।
इसी प्रकार धरती माँ की आज्ञा पालने में लीन हैं - नाग, सूकर, मत्स्य, हाथी (गज) और मेघ आदि। जिनके नाम से वंशमुक्ता, सीप मुक्ता, नागमुक्ता, सूकरमुक्ता, मत्स्यमुक्ता, गजमुक्ता और मेघमुक्ता प्रसिद्ध है। मेघमुक्ता बनने में भी धरती का ही हाथ है सो आगे स्पष्ट होगा ही।