ना चाहते हुए भी किसी कारण वश कुम्भकार को तीन-चार दिन के लिए उपाश्रम छोड़कर बाहर जाना पड़ा किन्तु शरीर ही बाहर गया, मन तो बार- बार उपाश्रम ही लौट आता था। मन की बात क्या कहें -
"तन को अंग कहा है
मन को अंगहीन अंतरंग
अनंग का योनि-स्थान है वह
सब संगों का उत्पादक है
सब रंगों का उत्पातक....!" (पृ. 198)
शरीर अंग है देखने-पकड़ने में आता है किन्तु मन अंग से रहित है, तन के भीतर रहता है। यह मन ही काम-वासनाओं का उत्पत्ति स्थान है। सब पदार्थों के प्रति मूच्छ-भाव इसी का परिणाम है। अनेक संकल्प-विकल्पों को पैदा कर चेतन आत्मा को अशान्त बनाने वाला यही मन है। शरीर को वश में करना तो सरल है पर मन को वश में करना असम्भव तो नहीं किन्तु एक कठिन कार्य, कडुवा पेय है अवश्य।
उपाश्रम में खुले आकाश के नीचे बाहर भूमि पर सूखने रखे कुम्भ और कुम्भकार की अनुपस्थिति ज्ञात होते ही समुद्र सोचता है -यह एक अच्छा अवसर है धरती के स्वाभिमान को नष्ट करने के लिए। अतः पूर्व प्रशिक्षित बादलों को अपनी कुटनीति समझाकर उपाश्रम की ओर भेजता है।
सागर का संकेत प्राप्त कर सविनय उठी गजगामिनी (हथिनी के समान) चाल वाली, चंचल, दुबली-पतली कमर वाली स्त्री के समान तीन बदलियाँ आकाश की गलियों में निकल पड़ी। पहली बदली दही के समान सफेद रंग वाली साड़ी पहनी साधना में लीन साध्वी-सी लग रही है। दूसरी बदली कामदेव के विपरीत बुद्धि वाली किन्तु पति के विचारों के अनुकूल चलने वाली, पलाश के रंग की साड़ी पहनी कमलिनी की प्रभा को पराजित करती-सी प्रतीत होती है। तीसरी सबसे आखिरी वाली बदली ने असली सुवर्ण के रंग की साड़ी पहनी है।