तभी तो कर्ण कटुक, अप्रिय वचन सुनकर भी मण्डली मोती लेने झुकती है किन्तु मोतियों को हाथ लगाते ही सबके शरीर पापड़ जैसे सिकने लगते हैं, लगा बिच्छु ने डंक मार दिया हो अंग-अंग में तड़फन होने लगी, सब धरती पर गिर पड़े, करवटें बदलने लगे। कुछ ही देर में सबके पूरे शरीर में विष फैल गया, शरीर नीले-नीले पड़ गये। मोही मन्त्री सहित सारी की सारी मण्डली मूर्छित हो गई।
यह सब देख राजा भी भयभीत हो चुपचाप खड़ा रहा उसे लगा, किसी ने उसे स्तम्भित कर दिया हो, हाथ, पैर, कान, मुख सब शून्य से हो गये। आँखों के सामने अंधेरा-सा छा गया। मन में प्रतिकार का भाव होते हुए भी राजा किंकर्तव्य विमूढ़-सा खड़ा है ऐसा माहौल क्यों बना, कुछ समझ नहीं आ रहा।
इस अवसर पर दुनिया भर का जमघट (मनुष्यों की भीड़-भाड़) इकट्ठा हो गया। इसी समय कुम्भकार का भी वापस आना हुआ। प्रांगण के बाहर एकत्रित भीड़ तथा राज मण्डली की दशा देख शिल्पी की आँखों में आश्चर्य, खेद और वैराग्य ये तीनों भाव एक साथ झलकने लगे।
पहली बार उपाश्रम के पास इतनी भीड़ आश्चर्य का कारण बनी, राजमण्डली की मूच्र्छा, राजा का कीलित होना खेद का कारण बना तथा स्त्री और धन के वशीभूत हुए कभी भी दुख से दूर नहीं हो पाते यह जो साक्षात् दिखा सो वैराग्य का कारण बना। जिससे कुम्भकार की आँखों में आँसू आ गए, स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला यह स्थान इस दुर्घटना का माध्यम बना।
इस मंगलमय स्थान में दंगल, अनर्थ क्यों हो रहा है प्रभो! यूँ विचारता है शिल्पी, लगता है पूर्व पुण्य के फलस्वरूप प्रांगण में मोतियों की वर्षा हुई और यह वर्षा ही इस उपसर्ग का कारण बनी।