इस प्रकार धरती की श्रेष्ठता को पूजा के फूलों से सम्मानित करता हुआ, समुद्र की नीचता को डाँट के कठोर-काँटों से तिरस्कृत करता हुआ सूर्य फिर स्वाभिमान से भर गया और उसकी उष्णता और अधिक तेज हो गई। खून में लिप्त ऊपर उठी हुई, भय को पैदा करने वाली भृकुटियाँ मानो आग की बूंद टपकाती हुई कह रहीं हैं किसी को नहीं छोडूंगी और जंगल में लगी भयंकर आग-सी बनी धधक रही है। उसकी दोनों आँखों से मानो ज्वालामुखी ही फूट कर बाहर आ रहा है। जो अग्नि तत्त्व का मूल स्रोत है, सारे विश्व को प्रकाश और प्रताप देने वाला है इसके अभाव में सारे संसार के चेतन-अचेतन सभी की क्रिया-प्रतिक्रियाएँ समाप्त हो जावेगी। मात्र चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा जायेगा।
जो सदा दूसरों को निन्दा की ही नजरों से देखने में तल्लीन रहते हैं, ऐसे बादलों को जलाने की चेष्टा करने वाले सूर्य को देख, सागर ने राहू को याद किया और कहा - क्या सूरज तुमसे परिचित नहीं है? जो इतनी उद्दण्डता कर रहा है। सौरमण्डल की शालीनता को नष्ट करता हुआ, धरती की ही सेवा प्रशंसा कर रहा है, क्या हिरण भी शेर के सम्मुख पहुँच मनमानी करता है? क्या मेंढक भी सर्प के मुख पर जा खेल खेल सकता है? यदि नहीं तो फिर सूर्य का यह कार्य धरती की सेवा के बहाने आपका मजाक तो नहीं है? जितनी चाहो जितनी माँगों उतनी राशि सम्मान के साथ आपको भेंट की जावेगी, कारण-
"शिष्टों का उत्पादन-पालन हो
दुष्टों का उत्पातन-गालन हो,
सम्पदा की सफलता वह
सदुपयोगिता में है ना !" ( पृ. 235 )
यह जो धन सम्पदा हमने इकट्ठी कर रखी है, इसका सदुपयोग इसी में है कि सज्जनों की सुरक्षा हो और दुर्जनों की दुर्जनता नष्ट हो। सागर की बात सुनते ही राहु के मुख में पानी आ गया (लोभ जागृत) और उसने अपने गमन की दिशा बदल दी। फिर क्या ! इधर सागर ने भी विमानों में भर-भरकर चमचमाती असंख्य निधियाँ, हीरे, मोती, मूंगा, माणिक और पुखराजों की पट्टियाँ, राजाओं के मन को लुभाती नीलम के नग जड़ी चाँदी की छड़िया इत्यादि सौरमण्डल की ओर भेजी।
यह सब काम चुपचाप, दिन दहाड़े चलता रहा। राहु ने राशि स्वीकार किया सो सागर का पक्ष मजबूत हुआ। ज्यों ही उसके घर में बिना मेहनत किए रिश्वत का पैसा पहुँचा त्यों ही उसका सिर भी पाप समूह से भर गया और बुद्धि भ्रष्ट हो गई । लगता है इसलिए राहु इतना काला हो गया कि किसी को दिखाई नहीं देता और न ही कोई उसे छू सकता है।
अभी तक सागर अकेला था अब राहु भी उसके साथ हो गया, गुरबेल तो स्वभाव से ही कड़वी होती है और नीम-वृक्ष पर चढ़ जाए तो फिर उसकी कटुता का कहना ही क्या? कई गुनी अधिक बढ़ जाती है। भला-बुरा जो होगा सो भविष्य की गोद में ही देखा जाएगा किन्तु उन दोनों के मन की आकुलता कई गुनी बढ़ गई, चैन (शान्ति) कहीं खो गई। दिन हो या रात, प्रकाश हो या अंधकार आँखें बंद कर भी दोनों प्रलय की बात ही सोच रहे हैं, एक ही लक्ष्य पृथ्वी पर प्रलय मचे, अशांति फैले किसी तरह।