इसी प्रकार धरती की उज्वल कीर्ति, चन्द्रमा की किरणों को तिरस्कृत करती हुई दशों दिशाओं को पार कर अनन्त आकाश में फैलती ही जा रही है। धरती पर रहने वाले शूरवीरों, श्रीमानों, धीमानों, ऋषि, असि, मसि, पर्वत, सरिताओं इत्यादि अनेक प्रकार की आभाओं/प्रतिभाओं का धरती से सहज प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। इधर दूसरी ओर धरती के बढ़ते यश को देखकर सागर की कुटिल मनोवृत्ति कुढ़ती ही जा रही है। यह सब शत्रुता का ही परिणाम है इसमें कोई सन्देह नहीं। कुम्भ को मिटाने के लिए जिन बदलियों को भेजा था, उनके द्वारा बदला लेने की जगह उल्टा पर-पक्ष का समर्थन, मोतियों की वर्षा कर वापस लौटती देख सागर का क्रोध चरम सीमा को छूने लगा।
आँखें लाल हुईं, भोहें टेढ़ी हो गईं। सागर की गम्भीरता, कायरता, भयता में बदली। भविष्य धूमिल दिखता है यूँ सोचता हुआ वह कुछ मन के विचार व्यक्त करता है कि-अपनी हो या दूसरों की स्त्री, स्त्री जाति का स्वभाव ही है वह किसी एक पक्ष की होकर नहीं रहती अन्यथा जिस भूमि में जन्म लिया, ऐसी मातृभूमि और जिसने जन्म दिया ऐसी माँ और अपने सगे भाई-बहिन एवं परिवार-जन को छोड़कर अन्यत्र ससुराल चले जाना हँसी-खेल, सहज है क्या? और वह भी बिना संक्लेश, बिना आना-कानी किए। यह कार्य पुरुष समाज के लिए टेढ़ी खीर अर्थात् अत्यन्त कठिन ही नहीं असंभव ही है। इसलिए भूलकर भी -
"कुल-परम्परा संस्कृति का सूत्रधार
स्त्री को नहीं बनाना चाहिए।
और
गोपनीय कार्य के विषय में
विचार-विमर्श-भूमिका
नहीं बताना चाहिए......।" (पृ. 224)
कुल या वंश परम्परा, सभ्यता की सुरक्षा का भार स्त्री को नहीं सौंपना चाहिए, ना ही प्रधान बनाना चाहिए। और गुप्त कार्य के विषय में स्त्रियों से विचार-विमर्श करना, सलाह लेना, मूल रचना की बात इत्यादि नहीं कहना चाहिए।