धरती पर सूखने रखा अपक्व (कच्चा) कुम्भ सब घटना देख रहा है, अतः वह चुप न रह सका और राजा से कहता है - बड़ी आपत्ति में पड़ते-पड़ते बच गए राजन् ! बड़े ही पुण्य का उदय समझिये। वरना आपका और सबका जीवन समाप्त हो आकाश में खो गया होता और फिर जलती अगरबत्ती को हाथ लगाना कौन-सी बुद्धिमानी थी, यदि अगरबत्ती अपनी सुगंध स्वयं ग्रहण करती तो अलग बात थी। वह अपनी सुगंध आपकी नासिका तक भेज ही रही थी अर्थात् शिल्पी मोती स्वयं रखता ही नहीं वह तो आपको ही भेट करता। दूसरी बात यह भी है -
"लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन
रावण हो या सीता हो
राम भी क्यों न हों
दण्डित करेगा ही !" (पृ. 217)
मर्यादा का उल्लंघन रावण और सीता ही नहीं, राम भी करेंगे तो उन्हें भी दण्ड भोगना ही पड़ेगा। अधिक धन की चाह रूपी आग में जो जल रहा है अर्थ ही प्राण और अर्थ ही रक्षक बना है, ऐसा मानकर जो धन से प्रभावित हो रहा है वह सही-सही अर्थ नीति को नहीं जानता है। इस कलिकाल में बढ़ती हुई विषयों की चाह से विश्व ने यही ग्रहण किया है कि व्यापार की आड़ में, किसी भी तरह न्याय-अन्याय से धन अर्जित करना ही लक्ष्य बन गया है। सारी लोकलाज को छोड़कर, तन का ही व्यापार होता जा रहा है आज कलिकाल का ही प्रभाव लगता है।