सागर के मन में धरती के प्रति बढ़ती ईर्ष्या, बैर भाव, गुरुजनों के प्रति अहंकार युक्त दृष्टि, सबको वश में रखने की प्रबल आकांक्षा, दुनिया को भक्षण करने की प्रवृत्ति देख, प्रभाकर से सहा नहीं गया यह सब। और उसने अपनी जाति वाले, अपने द्वारा शासित, सागर की गहराई में रहने वाले अग्नि तत्त्व को जागृत किया। परिणाम स्वरूप समुद्र में बड़वानल' पैदा हुआ, भयंकर रूप ले खौल उठा और वह सागर से कहता है-अरे खारे सागर! क्या तुझे पता नहीं मैं एक क्षण में तेरे सारे जल को पी तुझे सुखा सकता हूँ, तू अपनी विपरीत चाल को छोड़, धरती का सम्मान कर। सो बड़वानल ने उचित समय पर ठीक ही किया क्योंकि -
"आवश्यक अवसर पर
सज्जन - साधु पुरुषों को भी,
आवेश-आवेगों का आश्रय लेकर ही
कार्य करना पड़ता है।
अन्यथा,
सज्जनता दूषित होती है
दुर्जनता पूजित होती है
जो शिष्टों की दृष्टि में इष्ट कब रही ......?" (पृ. 225)
सात्त्विक आचरण को धारण करने वाले सच्चे सरल पुरुषों को, हमेशा शांत रहते हुए क्षमा भाव धारण करना ही चाहिए ऐसी एकान्त धारणा बनाना ठीक नहीं, क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें भी उद्वेग एवं क्रोध का सहारा लेकर ही कार्य करना पड़ता है तभी धर्म और धर्मात्मा की रक्षा हो पाती है।
यदि आवश्यक समय पर भी सज्जन पुरुष शान्त ही बने रहे तो सज्जनता पर भी दोषारोपण हो सकता है। और दुष्टों की दुर्जनता भी निर्दोषता को प्राप्त हो पूज्यता को प्राप्त हो सकती है, जो कि आत्मानुशासन में रहने वाले, शिष्टाचार का पालन करने वाले महापुरुषों के लिए कभी भी प्रिय अथवा वांछित नहीं हो सकती।
विशेष- विष्णुकुमार मुनि ने विक्रिया ऋद्धि से शरीर बड़ा कर तीन पग धरती नापते हुए 700 मुनियों की रक्षा की। बालि मुनिराज ने पैर का अंगूठा दबाकर रावण को सबक सिखा कर, 72 स्वर्णमयी जिनालयों की सुरक्षा एवं असंख्यात जीवों को प्राण दान दिया। तो श्री अकलंक स्वामी ने छह माह तक बौद्धों से वाद- विवाद किया, समन्तभद्र स्वामी ने पिण्डी में से चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा प्रकटाकर जिनशासन की प्रभावना की।