कुम्भ की व्यंग्यात्मक भाषा को सुन राजा का माथा भी एक साथ तीन भावों से भर गया। प्रथम लज्जा में डूब गया, दूसरा क्रोध कम-ज्यादा होने लगा और घटना की सत्यता पर चिन्ता मिश्रित चिन्तन चलने लगा।
राजा की मुख मुद्रा को देख शिल्पी ने राजा के मन की स्थिति को जाना और कुम्भ की ओर तिरछी नजर करते हुए विचारता है-आत्मबोध में कारण, किन्तु हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाले, मर्मभेदी आगामी समय में मधुरता देने वाले किन्तु आज कटुक, कुम्भ के वचनों को विराम मिले। और राजा के प्रति अपने अच्छे विचार व्यक्त हों, इसी उद्देश्य से कुल परम्परा से चली आई कुलीनता, अच्छे आचरण, विचारधारा का परिचय मिलता है, कुम्भ को कुम्भकार से, छोटे होकर भी अपने से बड़ों को उपदेश देना महा अज्ञान का ही फल है दुख का कारण। परन्तु बड़ों से अच्छे गुण ग्रहण कर, मोक्षमार्ग में चलेंगे हम, ऐसा वचन देना महा वरदान है सुख का अमृत पेय। और-
"गुरु होकर लघु जनों को
स्वप्न में भी वचन देना,
यानी
उनका अनुकरण करना
सुख की राह को मिटाना है।" ( पृ. २१९)
बड़े होकर छोटों को स्वप्न में भी वचन देना, उनका अनुकरण करना सुख को छोड़, दुख के मार्ग में जाना है। हाँ, इतना जरूर है कि यदि कोई विनय, अनुनय सहित आत्महित की बात पूछता हो तो बिना स्वार्थ के, एकान्त पक्षीय हठाग्रह से दूर, हितकारी, सीमित और मीठे-मीठे वचनों से प्रवचन देना दुख को दूर करता है।