प्रभाकर के मुख से स्त्री समाज के सद्गुण एवं गौरवशाली इतिहास को सुन, बदलियों ने अन्तःकरण से उपदेश को स्वीकार किया। विपरीत भाव, बदले का भाव, वाद-विवाद की बात सब कुछ भुलाकर बाहरी रंग के अनुरूप ही, भीतर से भी बदली तीनों बदलियाँ। अपनी उज्वल परम्परा को सुन, अपने पति समुद्र का पक्ष उन्हें गलत प्रतीत हुआ। जगत्पति सूर्य का पक्ष सही लगा और अपराधिक भाव के प्रति उनका मन ग्लानि से भर गया। सो वे तुरन्त दिवाकर से कहने लगीं-गलती के लिए क्षमा चाहते हैं हम, हमें सेवा का अवसर प्रदान करें। आपने जो नारी की गौरव-गाथा सुनाई, वैसा ही हमारा जीवन आदर्श बने, अज्ञान की धूल दूर हो मन से हमारे, यही चाहते हैं हम बस!
अपरिचित आहार और अपरिचित आधार का ही परिणाम अज्ञानमय दुखी जीवन रहा, आनन्द की प्राप्ति का मूल कारण हमें ज्ञात हो स्वामिन् । कार्य- अकार्य का विवेक जागा है जिनमें समता के नेत्र खुले हैं, तन-मन मृदु और प्रसन्न बना है, दान-कर्म से युक्त दया धर्म में चतुर, मधुर भाषणी वीणा-सी बनी, राग- रंग को त्यागने वाली, वैराग्य भावों से युक्त, सरल-सुंदर हँसी-सी बनी, सहनशीलता की मूर्ति, हिंसा से दूर रहने वाली, सती- सन्तों के प्रति विनयशील, पूज्य भावों को रखने वाली, पक्षपात से दूर न्याय पक्ष को ग्रहण करने सच्ची मित्र बनी वो बदलियाँ। भावी भोगों की इच्छा को मन से निकालती-सी, शुक्ल, पद्म और पीत लेश्या को धरती, पाप को पुण्य में पलटाने हेतु, पश्चाताप के भावों से भरी, अश्रुपूरित' नेत्रों वाली वे बदलियाँ सूर्य नारायण को पुनः तीन परिक्रमा देती हैं।