स्व-पर की चेतना के विकास हेतु प्रभु से प्रार्थना करता है शिल्पी -
"जीवन का मुण्डन न हो
सुख-शान्ति का मण्डन हो,
इन की मूच्र्छा दूर हो
बाहरी भी, भीतरी भी
इन में ऊर्जा का पूर हो।" (पृ. 214)
हे भगवन् ! यह जीवन विषय-कषायों के वशीभूत हो यूं ही नष्ट न हो जाए बल्कि सुख शान्ति से विभूषित हो और इन सबकी बाहरी शरीर सम्बन्धी बेहोशी तथा भीतरी पर पदार्थों के ग्रहण की इच्छा रूपी मूच्र्छा शीघ्र ही दूर हो। आत्म तत्त्व की प्राप्ति हेतु उत्साह से इनका जीवन भरा हो, इनमें शान्ति का संचार हो।
फिर कुछ पलों के लिए आँख बन्द कर, शान्त भावों से प्रभु की वन्दना में डूब जाता है शिल्पी-फिर ओमकार के उच्च उच्चारण के साथ ही मौन खोलता हुआ हाथ की अंजुलि में पानी भरकर मन ही मन मंत्र जपता हुआ, मन में मंगल- कुशलता का अभिप्राय ले मन्त्रित जल को मूर्छित मंत्रीमण्डल के मुख पर डालता है। फिर क्या कहना? क्षण भर में सबकी मूच्र्छा दूर हुई, सूर्य किरणों के स्पर्श से खिलती कमलिनी के समान सबके नेत्र खुलने लगे। मूच्र्छा दूर होते ही मण्डली मोतियों से दूर भाग गई, राजा ने भी अपना स्थान परिवर्तित किया। कहीं पुनरावृति न हो जाए इसी भय से।
उत्सुकता नहीं रही जिस कण्ठ में, दुःख से भरा रुका हुआ स्वर है जिसका, दबी-दबी कंपती वाणी से, आँखों में आँस लिए, दोनों कर जोडे विनम्र हुआ शिल्पी कहता है राजा से-अपराध क्षमा हो स्वामिन् ! मेरी अनुपस्थिति के कारण आप लोगों को कष्ट हुआ। आप तो हमारे स्वामी हैं दया के सागर, हम प्रजा आपकी दया के पात्र हैं, आप पालक हैं, हम बालक हैं। यह सब वैभव, मुक्ता राशि आपकी ही है हमें बस आपका सानिध्य ही पर्याप्त है। आप निर्भय रहें अब पुनरावृत्ति नहीं होगी। यूँ कहते हुए बिना किसी भय के कुम्भकार ने स्वयं ही अपने हाथों से मोतियों की राशि बोरियों में भर दी। यह दृश्य देख मंत्री समेत राजा के मुख से निकली ध्वनि सत्य धर्म की जय हो ! सत्य धर्म की जय हो!!