गृहस्थ जीवन की शोभा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ से होती है। इन कर्तव्यों में प्रायः पुरुष ही पाप कर्म का बन्ध करता है, उसका वह पाप पुण्य के रूप में परिवर्तित हो इसके लिए स्त्रियाँ सदा प्रयत्नशील रहती हैं अर्थात् पुरुषार्थ करती रहती हैं। पुरुष की काम-वासना संयत बनी रहे तथा पुरुष धर्म मार्ग में लगा रहे अर्थात् निर्दोष काम पुरुषार्थ हो, इसलिए वह गर्भ भी धारण करती है। और-
"संग्रह-वृत्ति और अपव्यय-रोग से
पुरुष को बचाती है सदा,
अर्जित-अर्थ का समुचित वितरण करके।
दान-पूजा-सेवा आदिक
सत्कर्मों को, गृहस्थ धर्मों को
सहयोग दे, पुरुष से करा कर
धर्म-परम्परा की रक्षा करती है।" (पृ. 204)
अधिक धन इकट्ठा करने की प्रवृत्ति और फिजूल खर्च करने की आदत से पुरुष को बचाकर, अर्जित धन का यथायोग्य वितरण स्वयं करती है और पुरुष से करवाती है। गृहस्थों के योग्य दान-पूजा-सेवा आदि सत्-कार्यों को पुरुष से करवाकर उसमें सहयोग प्रदान कर धर्म परम्परा की रक्षा करती है, स्त्री कही जाती है। सार यह हुआ की जो धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों में पुरुष को कुशल-संयत बनाती है, वह स्त्री कहलाती है।
स्त्रियों का एक नाम ‘सुता' भी है सो सुता शब्द स्वयं ही कह रहा है, जो सुख सुविधाओं का स्रोत है, सो सुता है। और सुनो स्त्रियाँ स्वयं अपना हित तो करती हैं किन्तु पतित से पतित पाप मार्ग में लगे पति का जीवन भी हित सहित बना देती है, सो दुहिता कहलाती है -
"उभय-कुल मंगल-वर्धिनी
उभय-लोक सुख सर्जिनी
स्व-पर-हित सम्पादिका
कहीं रह कर किसी तरह भी
हित का दोहन करती रहती
सो.....दुहिता' कहलाती है।" (पृ. 206)
माता-पिता के कुल और सास-ससुर के कुल दोनों में पुण्य-धर्म को बढ़ाने वाली होने से तथा इहलोक और परलोक में भी सुख को उत्पन्न करने वाली, कहीं भी किसी भी परिस्थिति में रहकर अपना एवं दूसरों का हित करने में सदा लगी रहने से स्त्रियों का नाम “दुहिता' सार्थक है।