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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आतंकवाद के आने का दिन और समय निश्चित हुआ। आज आधी रात को आपत्ति की आँधी ले आयेगा वह, किन्तु स्वर्ण कलश के सामने एक समस्या आ खड़ी हुई। उसी के दल में से एक असंतुष्ट दल का निर्माण हुआ जिसने इस कार्य को अन्याय, असभ्यता कहकर नकारा है, अपने सहयोग की स्वीकृति प्रदान नहीं की। उस दल की संचालिका स्फटिक झारी ने कहा कि न्याय के वेदी पर अन्याय का ताण्डव नृत्य मत करो, धीरे-धीरे झारी का पक्ष मजबूत होता चला गया और पूर्व में जिन के मन में कुम्भ के प्रति द्वेष और पक्षपात का भाव था, ऐसे लगभग सभी बर्तन, चाँदी के कलश-कलशियाँ, चमचियाँ, ताँबे के बर्तन, कटोरे- कटोरियाँ आदि बर्तनों ने स्वर्ण कलश के पक्ष को ठुकरा कर झारी को अपना समर्थन दिया है। इन परिस्थितियों को देख पुनः समझाने का भाव ले झारी स्वर्ण-कलश से कहती है- "जो माँ-सत्ता की ओर बढ़ रहा है समता की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है उसकी दृष्टि में सोने की गिट्टी और मिट्टी एक है और है ऐसा ही तत्त्व !" (पृ. 420 ) जो माँ सत्ता यानि शाश्वत सत्य की खोज में बढ़ रहा है, समता का जिसने आश्रय लिया और अपने भीतर समता का विकास कर रहा है, ऐसे साधक की दृष्टि में सोने का टुकड़ा और पत्थर दोनों समान ही हैं, यही तत्त्व दृष्टि है कि दोनों पुद्गल की पर्याय हैं निज से भिन्न हैं। अतः अवसर का लाभ लो, मान को कम कर हठाग्रह को छोड़, जो वर्धमान होकर मान से रहित हैं उनके चरणों को नमस्कार करो, तुम भी इस अपार पाप-सागर से पार हो जाओगे। मन्दोदरी द्वारा सीता को छोड़ देने की बात समझाने पर भी रावण को कुछ समझ ना आया उसी प्रकार झारी की बातों का स्वर्ण कलश पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। अपितु उबलते तेल के कड़ाव में जल की चार-पाँच बूंदें गिरी सी अनियन्त्रित दशा, क्षोभ का दर्शन ही हुआ, स्वर्ण-कलश के मुख पर। फिर उत्तेजित हुआ स्वर्ण- कलश कहने लगा-एक को भी नहीं छोडूंगा, तुम्हारे ऊपर दया करना अब सम्भव नहीं, प्रलयकाल का ही दर्शन तुम्हें करना होगा| 55. पलायित हुआ परिवार फिर निर्धारित समय से पूर्व ही दुर्घटना घटने की सम्भावना देख झारी ने माटी के कुम्भ को संकेत दिया-अड़ोस पड़ोस की जनता भी इस दुर्घटना का शिकार न हो बस इस आशय से। कुम्भ ने भी सेठ से कहा कि-तुरन्त परिवार सहित यहाँ से दूर निकलना चाहिए देरी करने से अनर्थ हो सकता है और भवन के पिछले पथ से पूरा परिवार निकल गया किसी को पता भी नहीं चला, यहाँ तक की झारी को भी नहीं क्योंकि बताने जैसी परिस्थिति भी तो नहीं थी। और फिर- "विश्वस्त भले ही हुआ हो सद्यः परिचित के कानों तक गहरी-बात पूरी-बात अभी नहीं पहुँचनी चाहिए।" (पृ. 422) भले ही उस पर विश्वास है फिर भी तुरन्त परिचित हुए से रहस्य की गंभीर बातें, पूरी बातें नहीं बताना चाहिए यह ही उचित है।सेठ के हाथ में कुम्भ है पीछे-पीछे पूरा का पूरा पापभीरू परिवार चल रहा है, बीच-बीच में पीछे-पीछे मुड़कर देखते हैं सब।तथा नगर के द्वार आदि को पार कर घने जंगल में पहुँच जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे, हरे-भरे वृक्ष खड़े हैं, जिनकी छाया रूपी दरी धरती पर बिछी है। अतिथि को बुलाती-सी विश्राम करने को कह रही है सो पूरा परिवार अभयता महसूस करता जीव-जन्तु रहित प्रासुक भूमि पर कुछ समय के लिए बैठ जाता है। परिवार का पसीने से लथपथ शरीर, खेद से आहत मन शीतल हवा का स्पर्श पा शान्ति का वेदन करता है। युगों-युगों की वंश परम्परा से बंशीधर के अधरों का प्यार भरा अमृत मिला जिन्हें, अमंगल को दूर कर मंगल करने वाले, तोरण द्वारों का अनुकरण करते, मांसल बाहों के समान भरे हुए पुष्ट, पास में ही खड़े हुए बांस के वृक्षों की पंक्तियों ने कुम्भ के चरणों में नमन किया और आँसुओं के बहाने परमात्मा के समान अत्यधिक निर्मल वंश-मुक्ता की वर्षा की। इसी बीच सिंह से भयभीत अभय स्थान की खोज करता हुआ हाथियों के झुण्ड को अपनी ओर आता देख सेठ परिवार ने प्रेम भरी आँखों से उन्हें बुलाया, कहा डरो मत आओ इधर आओ भाई। फिर क्या परिवार की चरण - शरण में आ गज दलों ने माँ की गोद में शिशु-सम निशंक हो अपूर्व शान्ति का अनुभव किया। इस अवसर पर हाथियों ने भी विनीत भाव से कुम्भ के सम्मुख मुक्ता राशि को चढ़ाया। सो इसी कारण यह मुक्ता गजमुक्ता के नाम से विख्यात है। धरती पर पड़े वंशमुक्ता और गजमुक्ता एक-दूसरे से मिले दूर-दूर तक अपनी आभा फैलाने लगे, मुक्ताओं के बीच आत्मीयता का दर्शन हो रहा है और स्व-पर का भेद दूर-सा हुआ, बस चारों ओर रह गई है आभा...आभा......!
  2. अन्त-अन्त में बिना छने तेल के कारण भभकते दीपक के समान आवेश में आकर ईर्ष्या वश स्वर्ण कलश ने परिवार सहित सेठ को, पीठ पीछे वैद्य दल को और माटी के कुम्भ को भी बहुत कुछ कह सुनाया परन्तु सबने शान्त भाव से सब कुछ सुन लिया, माहौल पूर्ववत् ही शान्त बना रहा। वैसे भी क्षमा के आगे क्रोध ज्यादा देर तक टिक नहीं सकता। जिसे सर्प काटता है वह मर भी सकता है और नहीं भी, उसे जहर चढ़ भी सकता है और नहीं भी किन्तु काटने के बाद सर्प अवश्य मुर्च्छित हो जाता है। मूच्छित सर्प-सी दशा स्वर्ण कलश की हो रही है, उसी का प्रभाव छोटी-छोटी सोने-चाँदी की कलशियों पर भी पड़ रहा है। कुछ समय तक शान्त वातावरण, मौनी माहौल चलता रहा फिर सौम्य भावों से भरे कुम्भ ने स्वयं स्वर्ण कलशी से कहा कि-ओरी कलशी! तू कल जैसी सुन्दर, कमनीयता वाली, मधुर मुस्कान लिए नहीं दिख रही है। लगता है तेरी बुद्धि सही काम नहीं कर रही है, तू तेज रहित, छोटी सी मुख मुद्रा ले, यहाँ अकेली काया ले पड़ी है, भले तू कल की नकल-सी कर रही है पर आज कहाँ दिख रही है तू कल........सी रे कलशी ! कुम्भ द्वारा व्यंग्यात्मक शब्द सुन, अपने को हँसी का पात्र समझ मूल्यहीन, उपेक्षित मान भीतर ही भीतर जलता-घुटता हुआ स्वर्ण कलश बदले के भाव से भर गया। बदले के भाव से भरे स्वर्ण कलश ने परिवार सहित सेठ और कुम्भ को नष्ट करने हेतु षड्यन्त्र रचा आतंकवाद को आमंत्रित करने का दिन और समय भी निश्चित हुआ। यह बात भी जानना होगा कि-आतंकवाद का जन्म कैसे होता है यह निश्चय है कि- "मान को टीस पहुँचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है। अति-पोषण या अतिशोषण का भी यही परिणाम होता है, तब जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं, बदले की भाव..... प्रतिशोध!" ( पृ. 418) मान को धक्का लगते ही, अतिपोषण-प्रोत्साहन, सम्मान, धन आदि होने से तथा अतिशोषण, दुत्कार-तिरस्कार, धनहीनता (गरीबी) होने से ही आतंकवाद का उदय होता है तब जीवन का लक्ष्य शोध, कुछ नव निर्माण से बदलकर प्रतिशोध, दूसरों को कष्ट पहुँचाना, उपद्रव करना ही बन जाता है, जो कि महान् अज्ञानता और दूरदर्शिता के अभाव का प्रतीक है। जिसका परिणाम मात्र दूसरों के लिए ही नहीं किन्तु स्वयं के लिए भी गलत, घातक सिद्ध होता है। इधर स्वर्ण कलश ने अपने साथियों और सेवकों, अनुचरों से मिलकर इस विषय में गुप-चुप मन्त्रणा की, इस बात की खबर परिवार जनों को नहीं लग पाई सो ठीक ही है। "सभ्यों की नासिका वह भूखी रह सकती है,पर भूल कर स्वप्न में भी दुर्गन्ध की ओर जाती नहीं।" (पृ. 418) जो सज्जन व्यक्ति होते हैं, वे भले ही किसी का भला कर पावें अथवा नहीं किन्तु भूलकर भी कभी-किसी का बुरा नहीं सोचते भौंरा और मक्खी दोनों गंध का सेवन करना चाहते हैं किन्तु जिस प्रकार मक्खी मल, मूत्र, कफ और माँस आदि में फँसकर मर जाती है उस प्रकार सुगन्ध से भरे फूलों की गन्ध छोड़कर भौंरा कभी भी इन गन्दें पदार्थों पर नहीं बैठता।
  3. आतंकवाद के अवतार का कारण, गुपचुप स्वर्ण कलश की सहचरों के साथ मन्त्रणा, आतंकवादी हमले के लिए दिन, समय निश्चिता। इसी बीच पात्रों में ही असन्तुष्ट दल का निर्माण, जिसकी संचालिका है स्फटिक की झारी और उसके पक्ष में हुए अनेक चमचे, प्याले, प्यालियाँ। झारी का उद्बोधन स्वर्ण कलश के लिए-माँ सत्ता के चरणों में नमन करो, तर जाओगे। झारी की बात सुन और उत्तेजित हुआ स्वर्ण कलश जोरदार गर्जना करता है-एक को भी नहीं छोडूंगा। झारी ने माटी के कुम्भ को संकेत दिया सो कुम्भ के निर्देशानुसार कुम्भ को साथ ले सेठ परिवार प्रासाद के पिछले पथ से निकलता हुआ सघन वन में प्रविष्ट होता है। तरुवर की छाँव में आश्रय पा शान्ति का वेदन करता है, तभी वंश पंक्तियों द्वारा कुम्भ के पदों में वंश मुक्ता की वर्षा होती है। इसी बीच सिंह से सताया हुआ हाथियों का समूह परिवार की अभय छाँव में आता है और गजमुक्ता प्रदान करता है, धरती की गोद में गिरे वंश मुक्ता और गजमुक्ता एक दूसरे में मिलते हैं। आगे चलने के लिए परिवार उठता है, कुछ कदम आगे बढ़ने पर पीछे से आतंकवाद का आना, दल की काया-माया की व्याख्या, संपुष्ट देह का कारण और ध्येय। गजदल परिवार को घेर लेता है। भयंकर चिंघाड़ से धूल बन भू पर गिरती वामियों से निकलते अनगिनत सर्प, परिवार को निर्दोष देख प्रधान सर्प सब सर्पो से कहता है - आतंकवाद को काटना नहीं सिर्फ शह देना है, प्राणदण्ड की समीक्षा। भयभीत हुआ आतंकवाद वनी में जा छिपा, नाग-नागिन ने कही उरग शब्द की सार्थकता, पदवालों की समीक्षा और नागफणों से नागमुक्ता का अर्पण।
  4. सुनो ! सुनो ! कुछ और सुनो कलिकाल की महिमा, चाँदनी रात में चन्द्रकान्त मणि से झरा उज्ज्वल जल ले, मलयाचल का चन्दन घिसकर ललाट तल और नाभि पर किया गया लेप, दाह रोग के उपशमन हेतु वरदान माना गया है। यह सुना भी है और अनुभव भी है कि तुरन्त निकाले गये ताजे सुगन्धित घी में अनुपात से कपूर मिलाकर, उसे घुलाकर हल्की-हल्की अंगुलियों से मस्तक के मध्यभाग ब्रह्मरन्ध पर और मालिश की कला में कुशलों द्वारा रोगन आदि गुणकारी बादाम तेल का रीढ़ में मलना दाह के उपशमन में रामबाण (अचूक) उपचार माना गया है किन्तु विद्वानों द्वारा सम्मत इन उचित उपचारों को उपेक्षित कर माटी के कीचड़ का लेप करना बुद्धि की कमी ही मानी जायेगी। भोजन पान के विषय में भी ऐसा ही कुछ घटित हो रहा है। स्वादिष्ट बलवर्द्धक दूध का सेवन, ओज और तेज को देने वाले घी का भोजन, अकाल मरण को दूर करने वाला, भावों का सात्त्विक शान्त बनाने वाले दही से निर्मित अनेक पकवान और व्यञ्जनों की उपेक्षा की गई उसी का यह फल निकला कि सेठजी भी ज्वर रोग से घिर गए और सत्त्व-शक्ति से रहित ज्वार के दलिए के साथ, सार रहित नीरस छाछ का सेवन करना दरिद्रता को निमन्त्रण देना है, एक बात और कहना है कि - "धन का मितव्यय करो, अतिव्यय नहीं अपव्यय हो तो कभी नहीं, भूलकर स्वप्न में भी नहीं। और अव्यय तो.....सर्वोत्तम!" (पृ. 414) पुण्योदय से यदि धन सम्पदा मिली है तो उसको खर्च करते समय इतना ध्यान रखना चाहिए की सीमित मात्रा में खर्च हो अत्यधिक नहीं, व्यर्थ का खर्चा तो कभी भी नहीं, स्वप्न में भी नहीं और बिल्कुल भी खर्च न हो तो सबसे ज्यादा श्रेष्ठ ऐसी धारणा वस्तु तत्त्व को छूती नहीं अर्थात् वास्तविक ज्ञान का अभाव प्रदर्शित करती है। क्योंकि निश्चय दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक पदार्थ में उतना ही व्यय होता है, जितनी आय और उतनी ही आय होती है जितना व्यय| विशेष - जैसे संसार में स्थित असंख्यात त्रस जीवों में से 6 माह और 8 समय में 608 जीव मुक्त होते हैं तो उतने ही जीव निगोद पर्याय को छोड़कर त्रस पर्याय को धारण कर लेते हैं, अतः त्रस राशि हमेशा एक जैसी बनी रहती है, कम ज्यादा नहीं होती इसी प्रकार आय और व्यय की यह व्यवस्था ही शाश्वत सत्य है फिर ऐसी स्थिति में अतिव्यय और अपव्यय का प्रश्न ही शेष नहीं रहता। वस्तुतः देखा जावे तो हमारे पुरुषार्थ से वस्तु स्वरूप में कभी भी परिवर्तन आ ही नहीं सकता फिर भी राग-द्वेष से लिप्त हमारे मन में परिवर्तन का भाव आ सकता, आता है और यही तो संसार का मूल कारण है अहंभाव। इससे यही फलित हुआ कि- "सिद्धान्त अपना नहीं हो सकता सिद्धान्त को अपना सकते हम।" (पृ. 415) हमारे अपने विचार, अपना चिन्तन सो सिद्धान्त या आगम वाक्य नहीं हो सकता किन्तु हम चाहें तो जिनोपदिष्ट सिद्धान्त वचनों को स्वीकार कर अपना हित कर सकते हैं।
  5. माटी के उपचार द्वारा सेठजी को आरोग्य का लाभ मिलना, चिकित्सक दलों से माटी की प्रशंसा सुन एक बार और अपने सामने आत्म ग्लानि, मान हानि की बात पैदा हो गई यूँ कहता हुआ आत्मा की श्रद्धा से च्युत निष्कर्मा वनवासी के समान विवश हो उदासी में डूब जाता है, स्वर्ण कलश। इन उच्चकुलीन कर्णो को अब कुलहीनों की प्रशंसा सुननी है वह भी धन के लोभी सज्जनों के मुख से, अब झूठी प्रशंसा सुनी नहीं जाती लगता है कानों में कील ठोक लूँ। सत्य धुंधला-धुंधला-सा होता जा रहा है, पतितों को पावन समझ, सम्मान के साथ ऊँचे सिंहासन पर बिठाया जा रहा है और पाप को खण्डित नष्ट करने वालों को पाखण्डी छली कहा जा रहा है। ना ही कभी सोचा था और ना ही विश्वास था कि एक बार और मानवता के पतन की दुर्गन्ध इस नासा को मुर्च्छित करेगी, पीड़ा देगी मन को। इतना कहने के बाद भी स्वर्ण-कलश का गुस्सा शान्त नहीं हुआ और चिन्ता से घिरी गम्भीर मुद्रा लिए हुए वह कुछ और कहता है "इसे कलिकाल का प्रभाव ही कहना होगा किंवा अन्धकार-मय भविष्य की आभा, जो मौलिक वस्तुओं के उपभोग से विमुख हो रहा है संसार! और लौकिक वस्तुओं के उपभोग में प्रमुख हो रहा है, धिक्कार।" (पृ. 411) इसे कलियुग का ही असर कहा जा सकता है अथवा आने वाले अंधकारमय काल का संकेत कि यह संसार मूल्यवान वस्तुओं के उपभोग से दूर रह रहा है और साधारण वस्तुओं के उपभोग को ही स्वीकार कर रहा है। चमचमाती मणियों की मालाएँ, सुन्दर मोतियों की लड़ियाँ, हीरों के हार, तोते की चोंच को भी लजाने वाले मुंगे, मयूर कण्ठ की नीलिमा सम नीले नीलम, केसरिया पुखराज, पारदर्शी स्फटिक, अग्नि के समान लाल होते हुए भी शान्त किरणों के समूह माणिक इन सबके उपयोग से यह संसार दूर हो रहा है। जबकि इनमें केवल शीतलता ही नहीं मिलती अपितु मधुमेह, खाँसी, श्वांस, क्षय रोग आदि-आदि राज रोग भी दूर होते हैं तथा इनको धारण करने से प्रायः प्रतिकूल ग्रहों का प्रभाव भी नहीं पड़ता, किन्तु आज इन्हें छोड़ काँच-कचरे का ही सम्मान हो रहा है, उसे ही स्वीकारा जा रहा है। सोने के घट, कलश, चाँदी के लोटे, प्याले, तांबे के कुम्भ, कढ़ाई, बड़ी परात - भगोनिया आदि-आदि मौलिक बर्तनों को बेचकर जघन्य सदोष स्टील (लोहे) के बर्तनों को धनी और बुद्धिमान भी खरीद रहे हैं। सर्वत्र इस्पात का ही स्वागत देखा जा रहा है, जेल में अपराधी के हाथ-पैरों में लोहे की बेड़ियाँ हैं तो नव युवक-युवतियों के हाथ में भी लोहे के कड़े मिलते हैं। समझ नहीं आता क्या यही विज्ञान है यही विकास है! लगता है सोना सो गया यानि समाप्त हो गया अब लोहे से ही लोहा लेना होगा अर्थात् काम चलाना पड़ेगा।
  6. एक बार पुनः आई स्वर्ण कलश के समक्ष आत्म ग्लानि की बात। चिन्ता से घिरा स्वर्ण कलश इसे कलिकाल का प्रभाव ही कहता है जो, यह लोक बहुमूल्य वस्तुओं को छोड़, काँच कचरे का सम्मान कर रहा है। अब लोहे से लोहा लो। मलयाचल चन्दन, सुगन्धित घी, रोगन तेल की मालिश करने की जगह माटी का लेप करना बुद्धि की अल्पता ही है। भोजन में भी दरिद्रता को निमंत्रण देना ही रोग का मूल कारण है। आय-व्यय की समीचीन व्यवस्था तथा मूच्छित सर्प समान बना स्वर्ण कलश। कलशियों पर पड़ी कुम्भ की छाया देख कुम्भ ने कहा-रे कलशी तुम अब कहाँ रही कल सी ? भीतर से उबलते स्वर्ण कलश ने किया आतंकवाद को आमन्त्रित।
  7. आँखें खोलकर सेठ शुद्ध तत्त्व, परमात्मा की स्तुति करता है, पश्चात् परिवार के साथ चर्चा हुई, वैद्यों का परिचय मिला, वेदना का अनुभव बताया गया किन्तु निरन्तर जलन के कारण अभी भी आँखें पूरी तरह नहीं खुल पा रही हैं, प्रकाश को देखने की क्षमता अभी उनमें नहीं आई है। रत्नों की कोमल किरणें तक अग्नि की चिनगारी-सी लग रही हैं। अनखुली आँखों को देख कुम्भ ने पुनः कहा-चिन्ता की कोई बात नहीं मात्र हृदय स्थल को छोड़कर शरीर के किसी भी अवयव पर माटी का प्रयोग किया जा सकता है। अधपका रुधिर से भरा घाव हो, भीतरी या बाहरी चोट हो, असहनीय कर्ण पीड़ा हो, बुखार से सिर फट रहा हो, नासा की नासूर ठंड से बह रही हो अथवा उष्णता से फूट गई हो और आधा सिरदर्द देता हो या पूरा सभी अवस्थाओं में मिट्टी का प्रयोग लाभदायी होगा। यहाँ तक की हाथ-पैर की टूटी हड्डी भी माटी के योग से शीघ्र ही जुड़ जाती है और फिर कुछ ही दिनों में कार्य पूर्ववत् प्रारम्भ हो सकता है। गुणों में अतुलनीय माटी की तुलना किससे करें और कहाँ तक माटी की महिमा का वर्णन करें। कुम्भ का इतना कहना ही पर्याप्त था कि-माटी की दो-दो तोले (10 ग्राम) की दो-दो गोलियाँ बना, उन्हें पूड़ियों-सा आकार दे सेठजी की दोनों आँखों पर रखी गईं और कुछ ही पलों में वैद्यों को सफलता के लक्षण दिखे। सो घड़ी-घड़ी (24 मिनट) का अन्तराल देकर नाभि के निचले भाग पर भी योग्य विधि के अनुसार दिन व रात में छह-सात बार, छह-सात बार यह प्रयोग चलता रहा। माटी के उपचार की सफलता को देख वैद्यों ने भोजन-पान के विषय में भी कुम्भ के अनुरूप अपना अभिप्राय बताया। माटी के पात्र में तपा-तपाकर, दूध को पूरा शीतल बना पेय के रूप में रोगी को देना है। और भी सुनों उसी माटी के पात्र में अनुपात से जामन डाल, दूध को जमाकर दही बना, फिर मथानी से अच्छी तरह मथकर पूरा नवनीत निकाल शेष बचे निर्विकार तक्र (छाँछ) का सेवन कराना है। तथा मोती जैसी उजली, मधुर-पाचक-सात्त्विक कर्नाटकी ज्वार का हल्का-सा पतला रवेदार दलिया भी तक्र के साथ देना है किन्तु दिन में संध्या-काल टालकर, क्योंकि सन्धिकाल में सूर्य तत्त्व का अवसान देखा जाता है और सुषुम्ना यानि उभय तत्त्व (चन्द्र-सूर्य) का उदय होता है जो ध्यान-साधना का उपयुक्त समय माना गया है कहा भी है- "योग के काल में भोग का होना रोग का कारण है, और भोग के काल में रोग का होना शोक का कारण है।" (पृ. 407) ध्यान आदि के काल में पञ्चेन्द्रियों के विषयों का भोग, सोना-खाना आदि रोग उत्पत्ति का कारण होता है तथा भोग के काल (युवावस्था) में रोग का होना ही दुख का कारण बनता है फिर यह शोक की परम्परा का अन्त दीर्घ काल व्यतीत होने पर ही संभव होगा। माटी के सफल प्रयोग से कुछ ही दिनों में सेठ जी पूर्णतः स्वस्थ हो गए। जैसे तरह-तरह के छन्दों में मात्रा आदि के बन्धन के कारण कवि के अपने निर्मल भावों की स्वच्छन्दता, स्वतन्त्रता मिट जाती है, उसी प्रकार उपरिल कथित माटी के उपचार से दाह रोग की स्वच्छन्दता भी दूर हुई अपने आप। औषधि की उपयोगिता उसके कम-ज्यादा मूल्य से नहीं अपितु रोग के शमन से होती है ऐसा ही शास्त्र भी कहते हैं फिर भी धनवानों और बुद्धिमानों की आस्था इससे विपरीत होती है अर्थात् बहुमूल्य औषधि ही रोग निवारक होतीहै, अल्प मूल्य वाली नहीं किन्तु सेठ जी इसके अपवाद हैं। चिकित्सक दल को सेवा के अनुरूप पुरुस्कृत किया गया और अहिंसक पद्धति जीवित रहे दीर्घकाल तक इसी सत् उद्देश्य से हर्ष से भीगी आँखों के साथ, विनय-अनुनय से झुके हुए सेठ ने स्वयं अपने हाथों से शाश्वत नौ अंक वाली राशि (90 या 900 या 9000 अथवा 108, 1008,10008) भेंट की और दल की प्रसन्नता पर अपने को कृत-कृत्य माना। जाते-जाते चिकित्सक दल ने मुड़कर सेठ जी से कहा- यह सब उपकार तो माटी के कुम्भ का है हम तो निमित्त मात्र उपचारक रहे सही धन्यवाद-पुरुस्कार का अधिकारी तो कुम्भ ही है और धन्यवाद देते, कुम्भ का आभार मानते हुए प्रस्थान करते हैं सभी।
  8. परा-वाक्की परम्परा अर्थात् वचनों की उत्पत्ति कैसे होती है ? अपरिचित रही श्रवणा, पूर्व में कभी नहीं सुनी क्योंकि वह लौकिक शास्त्रों के अनुसार योगियों के ही ज्ञान का विषय बनती है सो बताई जाती है। वायु के द्वारा संचालित मूल (योग के अनुसार मनुष्य के शरीर के भीतर का वह स्थान जो गुदा और लिंग के बीच में स्थित है) से उत्पन्न, ऊर्ध्वमुखी हो ऊपर नाभि की ओर यात्रा करती है फिर वहीं नाभि के चारों ओर घूमती हुई पश्यन्ती का रूप धरती है। चंचलता से युक्त, तरंग क्रम वाली ध्वनि अक्षर से रहित होती है सो संयम से दूर रहकर मात्र विपश्यना की चर्चा करने वालों के द्वारा पकड़ में नहीं आती। फिर वही पश्यन्ती घूमती-घूमती हृदय की ओर आ हृदय कमल को हिलाती है और उसकी खुली हुई प्रत्येक पंखुड़ी को सहलाती है छूती है माँ के समान। हृदय मध्य में स्थित होने से मध्यमा कहलाती है, वह बालकवत् जो पालक नहीं है अपितु निर्विकार है, वही माँ का स्वभाव जान पाता है, उसी प्रकार यह मध्यमा बालकवत् निर्विकार योगी को ही पकड़ में आती है फिर वहीं मध्यमा अन्तर जगत् से बाहरी जगत् की ओर यात्रा करती हुई तालु, कण्ठ, जिह्वा आदि के योग से पुरुष के अभिप्रायानुसार अच्छे-बुरे वचनों में परिवर्तित हो सर्व साधारण के कर्ण इन्द्रिय का विषय बनती अर्थात् सुनने में आती है ‘वैखरी' कहलाती है। पुण्य और पाप के भेद से प्रायः पुरुष का अभिप्राय दो प्रकार का मिलता है। पुण्य अर्थात् धर्म ही जिनका लक्ष्य है ऐसे सत्पुरुषों का वचन व्यापार दूसरों के हित के लिए ही होता है जबकि पतित-पापी पुरुषों के वचन व्यापार का लक्ष्य दूसरों का अहित करना अथवा पीड़ा देना ही होता है। रसना इन्द्रिय के वशीभूत हुए स्वादु व्यक्ति और राग-रंग को छोड़ आत्म साधना में लगे साधुओं के मुख से निकली वाणी दोनों का नामकरण एक वैखरी ही क्यों? ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पात्र के अनुसार अर्थ-भेद ही नहीं शब्द-भेद भी है, सो आगे स्पष्ट है - "सज्जन-मुख से निकली वाणी ‘वै' यानी निश्चय से ‘खरी' यानी सच्ची है, सुख-सम्पदा की सम्पादिका।" ( पृ. 403 ) बादलों से छूटकर गिरने वाली जल की धारा जैसे इक्षु, गन्ने का आश्रय पाकर मीठी मिश्री के रूप में परिवर्तित हो जाती है, उसी प्रकार सज्जनों के मुख का आश्रय पा निकलने वाली वाणी, वैखरी वास्तव में सच्ची सत्य है और सच्चे सुख, सच्ची सम्पदा को देने वाली है और - "दुर्जन-मुख से निकली वाणी ‘वै' यानी निश्चय से ‘खली' यानी धूर्ता पापिनी है, सारहीना विपदा-प्रदायिनी,|" (पृ. 404) वही जल की धारा जिस प्रकार नीम की जड़ में जाकर कटुता में परिवर्तित हो जाती है उसी प्रकार दुर्जन मुख का आश्रय पा, निकलने वाली वाणी निश्चय से छल स्वभाव वाली, पाप से भरी होती है। उसमें कुछ भी सार नहीं रहता वह संकटों, दुखों को देने वाली होती है लगता है, यहाँ पर अज्ञान अथवा प्रमाद से ‘ली' के स्थान पर ‘री' का प्रयोग हो गया है सही शब्द तो वैखली ही है। इस पर भी यदि वैखरी ही पाठ स्वीकृत किया जाता हो-तो इसका भिन्न पद्धति से भी अर्थ लिया जा सकता है। ‘ख’ का अर्थ होता है शून्य अथवा अभाव इसीलिए ‘ख’ को छोड़कर शेष बचे दो अक्षरों को मिलाने पर ‘वैरी' शब्द बनता है अर्थात् दुर्जनों का वाणी स्व और पर के लिए वैरी यानि शत्रु का ही कार्य करती है अतः उसे वै-खली या वैरी मानना ही उचित है।
  9. परिवार के मुख से कला सम्बन्धी व्याख्या सुनकर चिकित्सक दल भी सावधान हुआ। जिसे देखकर परिवार भी प्रासंगिक वार्ता में पर्याप्त परिवर्तन लाकर कुछ कहना चाहता है कि - बीच में ही सब वार्ता को सुनने वाला कुम्भ बोल पड़ा-जहाँ तक पथ्य की बात है सो सभी चिकित्सा ग्रन्थों का एक ही मत है, वह यह कि यदि- "पथ्य का सही पालन हो....तो औषध की आवश्यकता ही नहीं, और यदि पथ्य का पालन नहीं हो... तो भी औषध की आवश्यकता नहीं।" (पृ. 397) यदि प्रकृति के अनुकूल आहार लिया जावे, गमनागमन किया जावे तो औषध की आवश्यकता ही नहीं है और यदि प्रकृति के प्रतिकूल आहार-विहार किया जावे तो भी औषध की आवश्यकता नहीं क्योंकि जो प्रकृति के विरुद्ध चलेगा वह कितनी भी औषध ले ले उसे निरोगता का लाभ नहीं हो सकता। फिर भी यदि औषध की बात सुनना चाहते हो तो सुनो-तात्कालिक शारीरिक ही नहीं, अनादिकालीन चेतनगत रोग (अज्ञान रूपी) जो जन्म, वृद्धावस्था और मरण रूप है वह भी नष्ट हो जाता है क्षण मात्र में । श, स और ष ये तीन बीजाक्षर हैं, आरोग्य का विशाल वृक्ष इनसे ही फलता-फूलता है। इनके उच्चारण के समय पूरी शक्ति लगाकर श्वांस को भीतर ग्रहण करना है और नासिका से ओंकार ध्वनि के रूप में बाहर निकालना है। शकार त्रय स्वयं ही अपना परिचय दे रहे हैं। श-कषाय का शमन करने वाला, शंकर यानि शाश्वत सुख-शान्ति का प्रतीक है, शाश्वत शान्ति को देने वाला है। स-समता को निरन्तर झराता है, जो कि संसार दुख से विपरीत, सहज सुख का साधन है, पूर्णता यानि केवलज्ञान को देने वाला आत्मा का सच्चा साथी और ष का खेल विचित्र ही है, संसार के कारणभूत पाप और पुण्य के पेट को फाड़ता है। पुण्य-पाप रूप संसार भ्रमण को दूर कर कर्मातीत-सिद्धावस्था दिलाता है यह हुआ भीतरी आयाम अब बाहरी भी सुनो.... भूत, भविष्य, भाव, प्रभाव, भवना (होना), सम्भावना, भावनी, भूधर, भूचर, भूख, भूमिका, भव, वैभव और स्वयम्भू इन सबकी उत्पत्ति ‘भू' शब्द से ही होती है। ‘भू' इन सबकी माँ है, तीन काल में, तीनों लोक में जहाँ कहीं भी देखो भू की ही महिमा व्याप्त है कोशकारों ने भू को ‘सत्ता' भी कहा है और सत्ता ‘भू' का पना, भाव माटी है और तभी तो यह सूक्ति कही जा रही है- "माटी, पानी और हवा। सौ रोगों की एक दवा !"(पृ. 399) सौ रोगों को दूर करने का एक ही अचूक उपाय है कि मिट्टी, पानी और हवा का समुचित उपयोग किया जावे, अतः सेठ जी की निरोगता हेतु मिट्टी का उपचार किया जावे, यह उपचार स्वाधीन है और मितव्ययी भी इसका कोई विपरीत प्रभाव भी तन-मन पर नहीं पड़ता। कुम्भ की बात को सबने स्वीकृति दी, सो छनी हुई कुंकुम समान मृदु माटी में मात्रानुकूल ठंडा जल मिला-मिलाकर रौंद-रौंद कर लौंदा बनाया गया फिर एक टोप बनाकर मूर्च्छा के प्रतिकार हेतु सेठ जी के सिर पर चढ़ाया गया। टोप चढ़ाते ही जैसे लोहे का तप्त पिंड जल को सोखता है, उसी भाँति टोप भी मस्तक में व्याप्त उष्णता को पीने लगा। ज्यों-ज्यों उष्णता कम होती गई त्यों-त्यों सेठ जी की मूर्च्छा भी टूटती गई, जागृति आई, होंठ हिलने लगे सो ओंकार का उच्चारण स्पष्ट होने लगा। वैसे तो त्रिभुवनजेता, त्रिभुवन-पालक ओंकार का स्मरण भीतर ही भीतर चल ही रहा था, जो सुदीर्घकालीन साधना का फल है। 1. पथ्य - जो स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हो।
  10. चिकित्सकों के मुख से प्रकृति और पुरुष का सही-सही परिचय मिला और समीचीन ज्ञान मिला और यह रहस्य भी खुला कि - "प्रकृति का प्रेम पाये बिना पुरुष का पुरुषार्थ फलता नहीं।" (पृ. 395) पुरुष का पुरुषार्थ तभी सफल हो, लक्ष्य को प्राप्त कर पाता है जबकि प्रकृति (पुण्य कर्म) का प्रेम अर्थात् सहयोग उसे मिलता है। पुरुष के जीवन में प्रकृति का मूल्य सुन परिवार ने सविनय निवेदन किया वैद्यों से - सेठ जी शीघ्र ही आरोग्य-स्वस्थ हो, ऐसा उपचार करें। आपके निर्देशानुसार ही पथ्य का शत-प्रतिशत पालन किया जावेगा आप जैसा कहें, जो कहें सो सब स्वीकार है, रोग का प्रतिकार हो बस ! राशि की चिन्ता न करें, मान-सम्मान के साथ वह तो प्रदान की ही जावेगी, वह तो पुरुष की सेवा में तत्पर ही है दासी के समान, पड़ने वाली प्रतिकृति (छाया) की मनोहारी शोभा-सी और वैसे भी- "चिकित्सकों की दृष्टि वह राशि की ओर कभी मुड़ती ही नहीं, मुड़नी भी नहीं चाहिए, मर्यादा में जीती-सुशीला कुलीन-कन्या की मति-सी|" (पृ. 395) वैद्यों-उपचारकों की दृष्टि मान-मर्यादा में जीने वाली, सुन्दर चारित्र वाली कुलवन्ती नारी, कन्या की बुद्धि के समान ही धन की ओर जानी ही नहीं चाहिए। फिर भी कलियुग का अपना प्रभाव है कि - सेवा का संकल्प लेने वाले वैद्यों (डाक्टरों) की दृष्टि सही चिकित्सा की ओर न जाकर, धन प्राप्त करने की ओर जा रही है। जीवन में लिया गया संकल्प, सही लक्ष्य की ओर बढ़ भी जाए तो मन में दृढ़ता नहीं रह पाती, यह आज सुन भी रहे हैं और आँखों से देखा भी तो जा रहा है। समस्त कलाओं, शिक्षा का लक्ष्य बस एक ही बना है मात्र धन कमाना, पैसा इकट्ठा करना ऐसी आजीविका से जीभिका (जीभ साफ करने की पट्टी) जैसी गन्ध आती है किन्तु सबकी नाक इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि उन्हें दुर्गन्ध, दुर्गन्ध-सी नहीं लगती। खेद की बात है कि इस विषय में आँखें भी जानती देखती हुई कुछ कहती नहीं, किस शब्द का क्या अर्थ है, यह कुछ प्रयोजन नहीं रखता अब। क्योंकि कला शब्द स्वयं ही कह रहा है कि- " ‘क' यानी आत्मा-सुख है ‘ला' यानी लाना-देता है कोई भी कला हो कला मात्र से जीवन में सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है न अर्थ में सुख है न अर्थ से सुख है!" (पृ. 396) जो आत्मा अर्थात् जीव को सुख दे, जीवन को सुख, शान्ति और सम्पन्नता से पूर्ण कर देती है कला कहलाती है। वह कोई भी कला (गायन, वाद्य, नृत्य, चित्र, लेखन, नाट्य, इन्द्रजाल, शिल्प, काव्य, रचना इत्यादि) हो सकती है। वास्तव में न तो धन में सुख है और न ही धन से सुख है, कारण की धन तो सुख में निमित्त मात्र बन सकता है, वह भी जब भीतरी परिणति, साता वेदनीय आदि पुण्य प्रकृति का उदय हो, मन स्वस्थ हो तब।
  11. यह बात सही है कि पुरुष भोक्ता, भोगने वाला होता है तो प्रकृति भोग्या, भोगने योग्य। भोक्ता पुरुष जो श्रमी (श्रम करने वाला) है, आश्रय, सहारे की इच्छा रखता है, ऐसे भोक्ता को प्रकृति सहयोग प्रदान करती है जैसे-भोक्ता यदि रस का स्वाद लेना चाहता है तो लार के बहाने रसना उस रस को और सरस बना देती है। भोक्ता यदि देखना चाहता है तो प्रमाद से रहित पलकें (प्रकृति रूपी) अपने कर्तव्य में लीन हो, आँखों की बाधाओं को दूर कर सहलाती (झपकती) हुई दृष्टा पुरुष को दृश्य अवलोकन में सहयोग प्रदान करती है। यदि पुरुष योग-साधना में लीन होना चाहता है तो भी प्रकृति साधना की चरम सीमा तक उसका साथ देती है, स्वाश्रित रहकर सबका हित चाहती हुई। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि पुरुष में जो कुछ भी क्रियायें-प्रतिक्रियायें, हलन-चलन, स्पन्दन आदि होता है, उसका व्यक्तिकरण, पुरुष के जीवन का अस्तित्त्व प्रकृति (पुद्गल) पर ही आधारित है। प्रकृति का अर्थ नारी भी है, जैसे नाड़ी के बिना अर्थात् रुकने पर पुरुष का जीवन ही समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार प्रकृति के बिना संसारी पुरुष नहीं रह सकता। यह भी जानना होगा कि प्रकृति में वासना का वास नहीं है यानि प्रकृति कभी विकार से युक्त नहीं होती अपितु सुरभि यानि परहित की सुगंध ही उसमें पलती है। अनेक प्रकार के विकार ( भीतरी कर्मोदय एवं बाहरी वासना उत्पत्ति के बाह्यकारण ) की अवस्था में जब पुरुष विषय-वासनाओं का दास बना, उसे पूर्ण करना चाहता है तब प्रकृति की छाँव में आँख बंद कर बैठ जाता है, थके हुए राहगीर की भाँति और यह आवश्यक भी होता है पुरुष के लिए। जो स्व यानि अपने आप में स्थित है ऐसे स्वस्थ्य पुरुष के लिए नहीं किन्तु जिसे पर पदार्थ को ग्रहण करने की चाह सता रही है, ऐसे प्यासे पुरुष को इमली ही नहीं इमली के नाम से ही मुख में पानी आ जाता है यह तो स्वभाविक है किन्तु यह आश्चर्य है कि भोक्ता के मुख में जाकर भी इमली के मुख में पानी नहीं आता, ऐसी दशा में प्रकृति भी पुरुष में लीन-सी लगती है। जो युगों-युगों से विषय-वासना के वशीभूत होता आया है, ऐसे पुरुष का यही तो पागलपन, मूर्खपना है। प्रकृति का युगों-युगों से दूसरों के आधीन हुए बिना, अपने स्वभाव को जानते हुए, पुरुष को भी स्व-वश होने के लिए प्रेरित करना ही प्रकृति का पावनपन है। संसार के उस पार मुक्ति को देने वाला पुरुष खिलाड़ी है, जो प्रकृति को खिलौना बनाता है किन्तु स्वयं को खिलौना बनाने वाला विशेष पुरुष ही परमात्मा बनता है। किन्तु यह कोई साधारण कार्य नहीं है, मोही प्राणी पुरुष और प्रकृति के खेल को संसार मानता है सो अज्ञान ही है।
  12. रात्रि व्यतीत हुई और दिन का मन्दगति से आगमन हो रहा है| ठीक ही है, इंतजार की घड़ियाँ बहुत लम्बी हुआ करती हैं और वह भी दुख की बेला हो तब कहना ही क्या? वैसे सुख का सागरोपम काल भी शीघ्रता से कैसे व्यतीत हो जाता है, पता भी नहीं चल पाता। प्रभात काल होते ही एक से एक अनुभवी चिकित्सक विद्या विशारद, विश्वविख्यात वैद्य भी सेठजी की चिकित्सा हेतु आए। जिनमें ऐसे भी मेधावी हैं, जो रोगी के मुख-दर्शन मात्र से रोग का सही निदान कर लेते हैं, कुछ तो रोगी की जिह्वा का रंग-रूप देखकर ही, कुछ नाड़ी की फड़कन देख और नाखून तथा आँखों की लालिमा की तरतमता से रोग की पहचान कर लेते हैं। एक वैद्य ऐसा भी आया जिसने पूर्व पुण्य के फल से और वर्तमान की दीर्घकालीन साधना के बल पर अति दुर्लभ स्वर-बोध (स्वर-विज्ञान) में सफलता हासिल की है और वह मन्त्र-तन्त्र का ज्ञाता एवं शुभाशुभ निमित्तों के माध्यम से भविष्य को बताने वाले निमित्त शास्त्र अर्थात् अरिष्ट शास्त्र का भी श्रेष्ठ जानकार है। सभी ने अपने-अपनी विधियों से सेठ का निरीक्षण किया। शरीर निद्रा से घिरा, रुक-रुक कर मूर्छित-सी दशा को प्राप्त हो रहा था। पर वचन की चेष्टा नहीं के बराबर थी। क्रमशः सबने अपने-अपने निर्णय दिये और सबका एक मत बना की दाह का रोग है। पीड़ा की अनुभूति हो रही है, इसका कारण किसी एक वस्तु की निरन्तर चाह बनी हुई है। चिकित्सकों ने कहा-इन्हें केवल चेतन-चेतन की रट, उसी की चिन्ता, चिन्तन-मनन ज्यादा नहीं करना चाहिए। थोड़ी-बहुत शरीर की भी चिन्ता करनी चाहिए, तन के अनुरूप खान-पान देना चाहिए और मन के अनुरूप विश्राम भी। मात्र इन्द्रिय दमन की प्रक्रिया से कोई भी कार्य सफल नहीं होने वाला है और वैद्यों ने एक सूक्ति कह सुनाई- "प्रकृति से विपरीत चलना साधना की रीत नहीं है। बिना प्रीति, विरति का पलना साधना की जीत नहीं, "भीति बिना प्रीति नहीं है" इस सूक्ति में एक कड़ी और जुड़ जाय, तो बहुत अच्छा होगा, कि "प्रीति बिना रीति नहीं और रीति बिना गीत नहीं" अपनी जीत का- साधित शाश्वत सत्य का।" (पृ. 391) प्रकृति यानि शरीर के स्वभाव से बिल्कुल विपरीत चलना, साधना की सही-सही पद्धति नहीं है। बिना आत्म-तत्त्व की प्रीति जगे, सम्यग्दर्शन बिना वैराग्य का धारण करना, तप-साधना करना भी पारमार्थिक-संघर्ष की जीत का कारण नहीं है। संसार के दुखों से, चतुर्गति भ्रमण से भयभीत हुए बिना निज आत्म तत्त्व से, मोक्षमार्ग से प्रीति भी नहीं हो सकती। इस सूक्ति में एक कड़ी और जुड़ जाय तो अति उत्तम होगा कि-समीचीन आस्था, रुचि बिना ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के बिना-सही रीति बिना सम्यक् चारित्र रूपी गीत का गाना अर्थात् धारण करना सम्भव नहीं हो पाता फिर ऐसी दशा में चेतन की जीत, शुद्धात्म तत्त्व की उपलब्धि द्वारा सिद्धत्व का सही आनन्द नहीं आ सकता
  13. देखो मैंने सर्वप्रथम नमस्कार के साथ, सेठ की पाद-पूजन की, फिर कानों पर जा गुनगुना कर उनका गुणगान किया फिर भी मेरी यह दुर्दशा हुई। अपने मित्र मच्छर से सेठ की निन्दा सुन, खून की बूंद का प्यासा, सेठ की परिक्रमा लगाता खटमल कहता है कि-हे मित्र, सही समय पर सही दिशा बोध दिया तुमने, इन लोभियों से हमें कुछ मिलेगा ऐसे भ्रम की रात्रि मिटा दी तुमने।ठीक ही है मानव के सिवा अन्य प्राणी समूह अपने जीवन में परिग्रह का संग्रह करते भी कब हैं। इस बात को मैं भी मानता हूँ कि जीवन में आवश्यक कुछ पदार्थ होते हैं| घर, पत्नी, घी, घट इत्यादि उनका ग्रहण होता ही है इसीलिए सन्तों ने- "पाणिग्रहण संस्कार को धार्मिक संस्कृति का संरक्षक एवं उन्नायक माना है। परन्तु खेद है कि लोभी पापी मानव पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।" (पृ. 386) कन्या के कर-ग्रहण संस्कार को, धार्मिक संस्कृति को सुरक्षित रखने वाला एवं उसे ऊपर उठाने वाला माना है। परन्तु दुख की बात है कि लोभ रूपी पाप से ग्रसित मानव पाणिग्रहण के यथार्थ स्वरूप को न जानते हुए दहेज की चाह में कन्या के प्राणों को ही ग्रहण कर रहे हैं। अर्थात् दहेज के कारण कन्या को प्रताड़ित करना, आग में जलाना इत्यादि दुर्घटनाएँ हो रही हैं। ये सेठ लोग सेवकों को वेतन तो कम देते हैं, काम ज्यादा लेते हैं और अपने को आदि ब्रह्मा ऋषभदेव की सन्तान, महामानव बताते हैं। देने के नाम पर इनके हाथों में लकवा- सा लग जाता है, फिर भी यदि कभी जबरदस्ती एकाध बूँद देनी पड़ जाये तो पाने वाला भी उसे पचा न पाता, तभी तो हमारा रुधिर इतना लाल होकर भी दुर्गन्ध युक्त बना है। और बिना रूठे ही मत्कुण कुछ मिलेगा, इस आशा को त्याग कर, परिक्रमा के कार्य को छोड़ सेठ से कहता है कि- बातों ही बातों का लोभ मत दिया करो, छल, कपट और मायाचार को त्याग कर, स्वाश्रित जीवन जिया करो। बड़प्पन को जन्म देने वाली नम्र वृत्ति को अंगीकार करो, जीवन को अच्छा और उदार बनाओ। बिना अपेक्षा के सदा ही पर के दुख दूर किया करो। अन्त में अपने विचार और रखता है मत्कुण वह, कि-मैं कण अर्थात् छोटा-सा, हल्का-सा हूँ, मन यानि बहुत भारी नहीं। मैं धन-वैभव भी नहीं हूँ अतः किसी के मरण का कारण युद्ध भी नहीं हूँ, मैं किसी का ऋणी भी नहीं हूँ और न ही बली- बलवान। न किसी के बल पर जी रहा हूँ न जीना चाहता हूँ, मैं बस हूँ और ऐसा ही रहना चाहता हूँ, मेरे पास कोई मन्त्र, यन्त्र, षड्यन्त्र नहीं हैं, मैं छली भी नहीं हूँ और किसी के छिद्र (दोष) भी नहीं देखता हूँ, छिद्र में रहता अवश्य हूँ। इतना कहता हुआ खटमल छोटे से छिद्र में प्रवेश कर जाता है। मत्कुण के मुख से निकली माध्यस्थ बात सुनकर सेठ का मन प्रसन्न हुआ और प्रशिक्षित भी। 1. काकतालीय - न्याय - कौओं का डाल पर बैठना और उसी समय डाल का टूट जाना।
  14. इस प्रकार कुम्भ और अन्य पात्रों के बीच वाद-विवाद-संवाद की बात गौण हुई। क्रम-क्रम से सभी पात्रों ने प्रायः माटी के पात्र (कुम्भ) को उपहास का पात्र बना मूल्यहीन समझा। प्रायः बहुमत का यही परिणाम होता है कि पात्र भी अपात्र की श्रेणी में आ जाता है फिर अपात्र की पूजा में पाप नहीं लगता। दुर्जन और व्यसनी व्यक्ति के समान भाँति-भाँति के सभी व्यञ्जनों ने भी श्रमण की समता को एक नाटक के रूप में देखा और खुलकर सेठ और श्रमण की अविनय की। इधर परिवार का भोजन पूर्ण हुआ। आज यथार्थ में भोजन का प्रयोजन ज्ञात हुआ। स्वाद से दूर रह साधु बन, साध्य-प्रभु की पूजा में डूबने से बहुत दूर खड़ी मुक्ति रूपी अंगना भी, कमल की ओर सूर्य किरणों के समान साधक की ओर दौड़ती-सी लगती है। कुछ और दिनों तक बिजली की चमक-सी वाद-विवाद की स्थिति बनती रही, पर अब वाद-विवाद की बाहरी स्थिति पूर्णतः समाप्त हो गई। भीतरी बात दूसरी है वह तो प्रायः तन-धारकों में भट्ट की ऊष्मा - सी बनी ही रहती है। एक पक्ष का संकल्प था सो पूर्ण हुआ सानन्द और कृष्ण पक्ष का आगमन हुआ। सारा परिवार गहरी निद्रा में सोया हुआ है पर सेठ जी को नींद नहीं आ रही, बार-बार करवटें ले रहा है वह। एड़ी से लेकर चोटी तक सेठ जी का पूरा शरीर गरम तवे के समान तप रहा है। जलांश लगभग सूख चुका है तभी आँखों से आँसू भी नहीं निकल रहे हैं और अन्दर की पीड़ा अन्दर ही रुकी घुट रही है। धीमी-धीमी हवा से पहले अग्नि सुलगती है फिर और तेज हो जाती है, उसी प्रकार पलकों की बार-बार टिमकार से आँखों की जलन भी बढ़ती जा रही है। यद्यपि सेठजी के शयन कक्ष में खिड़कियों से शीतल वायु प्रवेश कर रही है किन्तु सेठ जी के मुख से निकलने वाली गरम-गरम श्वाँसों की लपटों से पूरा माहौल ही धगधगाहट में बदल गया है। इसी समय लाल-लाल बने सेठ के माथे पर एक मच्छर बैठने का प्रयास कर रहा है किन्तु बैठ नहीं पा रहा है कारण, माथे तक पहुँचते ही उसकी प्यास दुगुणी हो उठी। अंग तप गया, कण्ठ सूख गया, पंख शिथिल हुए और रक्त-पान की इच्छा कहीं उड़-सी गई और गुनगुनाहट के बहाने मच्छर कुछ कहता हुआ उड़ जाता है- "अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है, उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं, काकतालीय-न्याय से कुछ मिल भी जाय वह मिलन लवण-मिश्रित होता है पल में प्यास दुगुणी हो उठती है।" (पृ. 385) प्रायः धनवान कंजूस ही हुआ करते हैं जोड़-जोड़ कर धन रखना ही उनका धर्म, स्वभाव हुआ करता है। इनके सम्पर्क से हमें कुछ धन मिल जाए, ऐसी आशा कभी नहीं रखना चाहिए। काकतालीय-न्याय से कुछ मिल भी जाए तो वह भी खारे नमक से मिले हुए जल के समान प्यास को बढ़ाने वाला ही होता है। अर्थात् कंजूस का धन पचाना भी कठिन हो जाता है।
  15. सभी पात्रों द्वारा माटी के पात्र का उपहास, श्रमण और सेठ की अविनय, परिवार का भोजन पूर्ण हुआ। वाद-विवाद की बाहरी स्थिति शान्त हो गई भीतरी बात अलग है। एक पक्ष व्यतीत हुआ और सेठ का तन बुखार से तप गया। तपे कपाल पर बैठने को एक मच्छर मचलता है किन्तु बैठ नहीं पाता, गुनगुनाहट के बहाने कुछ कहता है- जिसे सुन खटमल भी सही समय पर सही दिशा समझ, पाणी ग्रहण को प्राण-ग्रहण का रूप देता मानव की बात कहता हुआ अपना मन्तव्य रख, छोटे से छिद्र में प्रवेश होता मत्कुण वह। एक से बढ़कर एक अनुभवी वैद्यों का आना हुआ, सेठ जी का निरीक्षण, दाह रोग की घोषणा करते हुए साधना की सही रीत की बात, पुरुष के जीवन में प्रकृति की उपयोगिता, पुरुष का पागलपन और प्रकृति का पावनपन। परिवार द्वारा वैद्यों से आरोग्य प्राप्ति का निवेदन, कला की सही व्याख्या, माटी के कुम्भ द्वारा पथ्य पालन और औषध की बात। भीतरी आयाम शकार त्रय बीजाक्षर का प्रयोग, बाहर से माटी का उपचार। सेठजी के सिर पर माटी का टोप, भीतर चल रहा ओंकार का उच्चारण, परावाक् शब्दों की निर्माण यात्रा, बैखरी का अर्थ, मूच्छ दूर होने पर सेठजी की परिवार से वार्ता, वैद्यों को वेदना का अनुभव बताया किन्तु आँखें पूर्ण रूप से नहीं खुल पा रही, अतः कुम्भ के कथनानुसार माटी की पूड़ियों का प्रयोग, सफल उपचार होने पर भोजन-पान के विषय में भी वैद्यों ने दिया अभिमत। वैद्यों की विदाई जाते-जाते कुम्भ के सहकार की बात वैद्यों द्वारा।
  16. झारी को पाप की पुतली संज्ञा मिलते ही उसमें भरा अनार का रस और अधिक लाल हो उठा सो ठीक ही है, सच्चा सेवक क्या अपने स्वामी का अपमान देख तिलमिलाता नहीं, बैचेन नहीं होता? होता ही है। आधार के हिलने से उसमें रखा पदार्थ, आधेय भी हिलता ही है और उत्तेजित हुआ अनार का रस कहता है- सेठ में शालीनता की मात्रा, श्रमण की श्रमणता, समता की बात किसमें कितनी है सब हमें ज्ञात है, पानी की गहराई किनारों को छूकर, तट-स्पर्श से भी जानी जा सकती है। और इधर सीसम के श्यामल आसन पर रखी चाँदी की चमकती तश्तरी में पड़ा-पड़ा केशरिया हलवा और हलवे में एक चम्मच जो कि शीर्षासन के बहाने अपनी निरुपयोगिता सिद्ध होने पर लज्जित हुआ मुख छुपा रहा था। अनार का समर्थन करता हुआ कहता है कि-श्रमण की सही समीक्षा की तुमने और सन्त से उपेक्षित होने के कारण घी की अधिकता के बहाने डबडबाती आँखों से रोता-सा लगा। इधर घी की सुगंध को भी श्रमण की नासा ने नहीं स्वीकारा तो वह भागती-भागती घृत के पास वापस आई और कहती है-संत की शरण बिना आधार की है, उसके भीतर तो डरावना-सा वातावरण दिखता है। सन्त की नासिका सुख को नष्ट करने वाली है, मुझे यहीं रहने दो वहाँ मत भेजो। इधर केशर ने भी सिर हिलाते हुए आश्चर्य प्रकट किया कि अशरण को शरण देना तो दूर मुस्कान की दृष्टि तक नहीं मिली। श्रमण हुए वर्षों हो गये, काले बाल सब सफेद हो गये, पर अभी भी श्रामण्य (साधुपना) का अभाव ही लगता है। बुद्धि होते हुए भी अपने कर्तव्य को भूल चुका है वह, सर-दार का जीवन अब असरदार यानि प्रभावशाली नहीं रहा। उसके तन-मन और चेतन में सरलता नहीं दिखती कहीं भी। समय बीत चुका है, अतीत के अनन्तकाल में खो चुका है। इस बात को मैं भी मानता हूँ कि सदा-सदा से - "ज्ञान ज्ञान में ही रहता, ज्ञेय ज्ञेय में ही, तथापि ज्ञान का जानना ही नहीं ज्ञेयाकार होना भी स्वभाव है|" (पृ. 381) अर्थात् ज्ञान कभी ज्ञेय रूप में अथवा ज्ञेय कभी ज्ञान रूप में परिवर्तित नहीं होता दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न है, फिर भी ज्ञान के द्वारा पदार्थ का जानना ही नहीं किन्तु ज्ञान में ज्ञेय का आकार झलक आना भी ज्ञान का स्वभाव है अतः हमारी ओर देखने में सन्त को क्या हानि थी? लगता है नामधारी सन्त को ज्ञान के ज्ञेयों से भय लगता है, ऐसी स्थिति में वह स्वभाव, समता से दूर हुआ देवत्व को नहीं किन्तु संघर्ष, संग्राम को प्राप्त हुआ, मरणपने को ही प्राप्त होता लगता है। और सुनो पुनः उच्च स्वर में केशर कहता है- जीवन को मात्र गुजारना ही नहीं किन्तु कुछ नया करना ही नयापन है और नाव के समान उस पार उतारने वाला नैयापन है।
  17. झारी की प्रतिक्रिया देख कुम्भ कहता है-यदि मेरे साथ बोलना भी पाप है तो मत बोलो, यदि देखने में ताप होता है तो मत देखो। परन्तु तुमने पाप के विषय में जो निर्णय लिया है, वह गलत है बस! यही बताना चाहता हूँ, कम से कम सुन तो लो फिर तौलो और कुम्भ अपनी बात सुनाता है- " ‘स्व' को स्व के रूप में ‘पर' को पर के रूप में जानना ही सही ज्ञान है और ‘स्व' में रमण करना सही ज्ञान का 'फल'।" (पृ. 375) मैं, मैं ही हूँ जानना-देखना मेरा स्वभाव है, इस प्रकार स्वयं को स्वयं के रूप में जानना तथा मुझसे भिन्न शरीर आदि जड़ स्वभावी, सर्वथा पृथक् एवं अन्य है। इस प्रकार पर को 'पर' के रूप में जानना ही सही-सही ज्ञान है, और निज आत्म तत्त्व में लीन होना ही सम्यग्ज्ञान का उचित परिणाम है। विषयों को चाहने वाला, भोगों का दास, तन-मन-इन्द्रियों का गुलाम ही पर पदार्थों का स्वामी बनना चाहता है, यही पाप है, सब पापों का बाप। अरे झारी ! जरा तू अपनी वृत्ति और प्रवृत्ति की ओर भी देख कैसी है वह-वासना से भरी, पल-पल में हाव-भाव रंग बदलने वाली अप्सरा-सी तेरी पारदर्शिता, दूध भरने पर धवला-सफेद, घी भरने पर पीली, इक्षु-रस भरने पर हरी हो पलट जाती है इतना ही नहीं पास में पड़े काले, पीले, हरे या लाल गुलाब के भी गुण धर्मों को आत्मसात कर लेती है तू। यह तेरी असीम भोगाभिलाषा ही तो है, हाय! जात-पात को तो तूने लात ही मार दी, लाज-लिहाज वाली कोई वस्तु तेरे पास नहीं रही। इसे तू समता नहीं कह सकती न ही अपनी असीम क्षमता, कारण कि - "दूसरों से प्रभावित होना और दूसरों को प्रभावित करना, इन दोनों के ऊपर समता की छाया तक नहीं पड़ती।" (पृ. 377) पर निमित्त से झट से प्रभावित होना और दूसरों को प्रभावित करना, इन दोनों दशाओं में समता का अभाव ही माना जायेगा। भले ही तू स्फटिक मणी की बनी उजली-सरली-सी दिखती है पर तेरे रग-रग में राग भरा है, मायाचारी छुपी है, तेरी इस प्रवृत्ति को बगुले ने भी सीख ली है। अरी झारी तू इस रहस्य को कब तक छुपा सकेगी जहाँ तक मेरी प्रकृति की बात है सो जैसी है सबके सामने प्रकट है। घट के ऊपर कोई आवरण नहीं है, आच्छादन के नाम पर मात्र इस पर आकाश भर तना है। इसी से मेरी रक्षा है, यदि पाप पास हो तो छुपाऊँ, छुपाने का साधन जुटाऊँ। मैं किसी की स्वतन्त्रता छीनता नहीं, किसी रंग-रोगन का मुझ पर प्रभाव पड़ता नहीं, सदा एक-सी ही दशा है मेरी। इसी का नाम समता है, इसी समता की सिद्धि के लिए ऋषि-मुनि माटी की शरण लेते हैं यानि भू-शयन मूलगुण अंगीकार करते हैं। इसीलिए समता की सहेली मुक्ति इन्हीं पृथ्वी में विचरण करने वाले ऋषियों को ही वरती है। समझी पाप की पुतली झारी, तू माटी को पागल समझ बैठी इतना कहकर कुम्भ चुप हो जाता है।
  18. एक आँख वाली इस लेखनी ने मेरी प्रशंसा के बहाने स्वर्ण कलश का अपमान किया। इस निन्द्य कार्य में मुझे निमित्त बनाया गया, इसीलिए इसमें मेरा भी अपराध सिद्ध होता है। यूँ स्वयं को धिक्कारता हुआ माटी के कुम्भ ने दीर्घ स्वांस ली और फिर प्रभु से प्रार्थना प्रारम्भ करता है-हम जैसे पुण्यहीन भव्य जीवों को भव-भव में पराभव यानि अपमान का ही अनुभव हुआ है। परा भव यानि श्रेष्ठ भव, मोक्ष का लाभ कब होगा? निकट भविष्य में संभव है या नहीं, शीघ्र ज्ञात हो भगवन्! जब तक प्रभुता प्राप्त नहीं होती, तब तक एक की प्रशंसा-एक की निन्दा, एक को उठाना तो एक को गिराना, एक धनी-एक निर्धन, एक गुणवान-एक निर्गुण, एक सुन्दर-एक बन्दर यह सब विषमता देख बड़ी पीड़ा होती है प्रभु इसे, यह सब देखा नहीं जाता, इसी कारण आँखों को बंद रखना पड़ता है। यदि सबमें साम्यता समानता हो सके तो बड़ी कृपा होगी स्वामिन् ! कुम्भ की प्रार्थना सुन स्फटिक की झारी और चिढ़ने लगी और चिढ़ती हुई कुम्भ से कहती है कि- अरे पापी! "पाप-भरी प्रार्थना से प्रभु प्रसन्न नहीं होते, पावन की प्रसन्नता वह पाप के त्याग पर आधारित है।" (पृ. 373) मन में पाप धारण कर भगवान् से कितनी भी प्रार्थना करो, वे प्रसन्न होने वाले नहीं हैं, पावन प्रभु तो पापों के त्याग और व्रतों के अंगीकार करने से ही प्रसन्न होते हैं। मैंने अग्नि परीक्षा दी है, ऐसा बार-बार कहकर जो तुम अपने आप को निष्पाप सिद्ध करना चाहते हो, सो यह पाप ही नहीं महापाप है। तुममें इतना पाप भरा है कि युगों-युगों तक जलाने से जल नहीं सकता, धुलाने से धुल नहीं सकता। प्रलयकाल में जल की ही नहीं अग्नि की भी वर्षा मिट्टी (धरा) पर कई बार हुई किन्तु तुम्हारी कालिमा में कोई अन्तर नहीं आया। श्रावण मास में काले-काले बादलों से घिरी अमावश्या की रात्रि के समान काली बबूल की लकड़ी भी तो अग्नि परीक्षा देती है और बार-बार नहीं एक बार में ही अपने जीवन को पाप रहित कर चाँदी जैसे उज्वल छवि वाली राख बनती है। इस बात को सुन कुम्भ बीच में ही बोल पड़ा-अग्नि परीक्षा के बाद भी सब कोयलों में बबूल के कोयले काले भी तो होते हैं, बताओ क्यों? इस प्रश्न को सुन उत्तर देती है, झारी-अरे मति मन्द सुन, इतना भी नहीं जानता कि कोयला बनने में कारण अग्नि का पर्याप्त ताप न होना होता है अथवा लकड़ी में रहा शेष जलांश होता है, अन्यथा वह राख में ढलती/परिवर्तित होती है। इसमें लकड़ी का थोड़ा-सा भी दोष नहीं है, जा-जा कहीं भी, तेरे साथ अधिक बोलना भी दोषों का सम्मान करना है और कुम्भ की ओर से झारी अपना मुख मोड़ लेती है।
  19. जल का साहस इससे आगे कुछ कहने का नहीं होता देख, लेखनी स्वयं कुछ कहने को उद्यमशील होती है कि-गुणियों का गुणगान करना तो दूर निर्दोषों को सदोष बताकर अपने दोषों को छुपाना चाहते हो तुम । सन्त पर आक्रोश व्यक्त करना, समता का उपहास करना, सेठ का अपमान करना आदि ये सब तुम्हारे अक्षम्य अपराध हैं, फिर भी उन्हें गौण कर तुम्हारे सम्मुख माटी की महिमा ही नहीं किन्तु तुम्हारा भी कितना मूल्य, मूल्यांकन है दो उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत करती हूँ - दीपक और मशाल सामान्य रूप से दोनों प्रकाश के साधन हैं पर दोनों के स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं। बाँस के एक छोर पर कुछ चिन्दियाँ बाँधी जाती हैं, नीचे पकड़ने हेतु स्थान होता है, यही है मशाल। मशाल के मुख पर माटी मली जाती है कारण की वह असंयत होता है इसीलिए। मशाल से प्रकाश तो कम मिलता है किन्तु राक्षस की लाल-लाल जिह्वा-सी अग्नि की लपटें उठती हैं उससे। और वह अपव्ययी भी है क्योंकि उसके मुख पर बार-बार तेल डालना पड़ता है वह भी मीठा मूल्यवान। कभी-कभी मनोरंजन के समय हाथ में मशाल ले चलने वाला पुरुष मुख में मिट्टी का तेल भर, मशाल के मुख पर फेंकता है। क्षण भर में सारा तेल जलकर शून्य में विलीन हो जाता है, थोड़ी-सी असावधानी होने पर हा-हा कार मच सकता है, हानि ही हानि । फेंक मारने वाले का जीवन भी बुझ सकता है, किन्तु मशाल नहीं। साधना के समय मशाल को देखकर कोई ध्यान-धारणा नहीं कर सकता, इसमें कारण मशाल की चंचलता ही है, ध्येय (लक्ष्य) चंचल होगा तो ध्याता का मन भी चंचल होगा ही और भी बहुत सारे दुर्गुण हैं इस मशाल में, कितनी मिशाल अर्थात् उदाहरण हूँ तुम्हें । अब दूसरे उदाहरण की बात सुनो-दीपक संयमशील होता है बढ़ाने से बढ़ता है और घटाने से घटता है। कम मूल्य वाले मिट्टी के तेल से पूरा भरा दीपक (डिब्बी) भी थोड़ा-थोड़ा कर जलता है, आदर्श गृहस्थ के समान सीमित व्यय करने वाला संयमित और निरीह होता है वह। छोटा-सा बालक भी अपने हाथों में दीपक ले चल सकता है प्रेम से किन्तु मशाल को देखते ही भयभीत होता है। मशाल की अपेक्षा दीपक अधिक प्रकाश देता है। दीपक की संगति पा उच्श्रृंखल, प्रलय स्वभावी मिट्टी का तेल भी ऊर्ध्वगामी बनता है अन्धकार से डरा हुआ एकाकी-पथिक भी दीपक को देखते ही भय रहित हो जाता है। सुनते हैं भूतों के हाथ में मशाल होती है, जिसे देखते ही निर्भय की आँखें भी बन्द हो जाती हैं। जबकि दीपक की लाल लौं स्व-पर प्रकाशिनी ज्योति है जो चंचलता से रहित हो, साधक के उपयोग को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाने में कारण बनती है अर्थात् स्पन्दन-हीन दीपक की लौं को अपलक देखने से - "साधक का उपयोग वह नियोग रूप से, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ता-बढ़ता, शनैः शनैः व्यग्रता से रहित हो एकाग्र होता है कुछ ही पलों में। फिर, फिर क्या? समग्रता से साक्षात्कार !" (पृ. 370) नियम रूप से साधक का उपयोग धीरे-धीरे सूक्ष्मता की ओर बढ़ता हुआ कुछ ही क्षणों में पूर्णतः निश्चलता को प्राप्त हो जाता है। फलस्वरूप साधक पूर्ण आत्मस्वरूप का अनुभव करता हुआ पूर्ण दिव्यज्ञान, केवलज्ञान का स्वामी बन जाता है। दीपक की और भी कई विशेषताएँ हैं, कहाँ तक कहूँ ओर-छोर भी तो हो उसका। अस्तु, हे स्वर्ण! तुम मशाल के समान मलिन अभिप्राय, इच्छा रखने वाले हो तो मिट्टी का कुम्भ दीपक के समान पथ प्रदर्शक, अंधकार नाशी, साहसी और हंस के समान क्षीर-नीर विवेक वाला, उज्ज्वल है।
  20. स्वर्ण कलश की उबाल भरी बातें सुन, मन को कलुषित किए बिना ही माटी के कुम्भ में भरे पायस यानि जल ने (जिसने पात्र -दान में सहयोगी बनने से यश प्राप्त किया था) शान्त भाव से स्वर्ण कलश से कहा कि-तुम में पायस जैसी पवित्रता नहीं है, तुम्हारा पैर पूरा का पूरा पाप रूपी कीचड़ में लिप्त है। पुण्य (धर्म) का तो परिचय भी नहीं है तुम्हें, इसलिए पावन की भक्ति, प्रशंसा तुम्हें अच्छी नहीं लगती। पावन को पाखण्ड (झूठा,गंदा) कहते हो । लगता है तुम्हारी पापिन आँखों ने पीलिया रोग को पी लिया है इसीलिए तुम्हारी काया भी पीली हो गई है। पर की प्रशंसा तुम्हें काँटे-सी चुभती है, लगता है इसीलिए कुम्भ के स्वागत-सत्कार से आग-बबूला हो गए हो। फिर ठीक भी है जिसने स्वयं मठा पिया है वो भले ही दूसरों को मीठे दूध का भोजन करावे, किन्तु जब कभी उसे डकार आयेगी तो खट्टी ही आयेगी। और सुनो तुम स्वर्ण हो जल्दी से उबलते हो, माटी स्वर्ण नहीं है किन्तु स्वर्ण को उगलती अवश्य है (माटी से ही स्वर्ण निकलता है) और तुम उसी के उगाल हो। आज तक न सुना, न देखा और न ही पढ़ने में आया कि स्वर्ण में बोया गया बीज अंकुरित होकर पौधा बन फूला-फला लहलहाया हो। हे स्वर्ण कलश- "दुखी-दरिद्र जीवन को देखकर जो द्रवीभूत होता है वही द्रव्य अनमोल माना है दया से दरिद्र द्रव्य किस काम का?" (पृ. 365) जो दया से भींगता है, वहीं द्रव्य अनमोल माना जाता है दया से रहित द्रव्य किस काम का। माटी स्वयं दया से भीगती है और औरों को भिगोती भी है तभी तो माटी में बोया गया बीज समुचित हवा-पानी पा, पोषक तत्वों से भरा, हजार गुणित हो फलता है। थोड़े से समय के लिए भी माटी के स्वभाव में अन्तर आना यानि संसार ही समाप्त, प्रलयकाल का आना सिद्ध होगा। एक बात और है, हे स्वर्ण कलश- यदि वास्तव में तुम सवर्ण (अच्छी कुल परम्परा वाले) होते तो सूर्य का दुर्लभ दर्शन प्रतिदिन क्यों न होता तुम्हें । हो सकता उल्लू के समान तुम्हें प्रकाश से भय लगता हो, इसीलिए तो तुम धरती में बहुत गहरे गाड़े जाते हो अथवा लोहे की तिजोरियों में बंद कर रखे जाते हो, लगता है नरकों में ही तुम्हें आनन्द आता है। तुम्हारी संगति करने वाला भी दुर्गति को प्राप्त होता है यह बात गलत नहीं कही जा सकती। तुम्हें देखने मात्र से बन्धन की अनुभूति होती है, तुम स्वयं बंधते हो और औरों को बाँधते भी हो । परतन्त्र जीवन के मूल आधार हो तुम, पूँजीवाद के अभेद्य, दुर्गम आवास और सदा अशान्ति को देने वाले हो। अतः हे स्वर्ण कलश! एक बार तो मेरी बात मान लो और माँ माटी के उपकारों को समझो उसके उपकार का बदला चुकाने का मन बनाओ, माँ माटी को अमाप (जिसे कोई नाप न सके) मान-सम्मान दो और मात्र माँ ही माँ नाम लो अब!
  21. यह सब प्रभाव समता के धनी श्रमण का है जो हम पर पड़ा, अन्त में इतना कहकर सेठ भोजन प्रारम्भ करता है कि पुनः कलश की ओर से व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग प्रारम्भ होता है। जिसे आप समता के धनी कह रहे हैं, हमें तो नहीं लगता, कोष में रहने वाले ‘श्रमण' शब्दधारी श्रमण तो बहुत बार मिले हैं किन्तु होश के वास्तविक श्रमण कोई विरले ही होते हैं। और ऐसी कैसी समता जिसमें इतनी भी क्षमता नहीं है कि वक्त पर भयभीत को अभयदान दे सके, आश्रय से रहित को आश्रय दे सके। संसार से भयभीत हुए बिना श्रमण भेष धारण कर अभय का हाथ उठा आशीष देने की अपेक्षा अन्यायमार्गी रावण जैसे-शत्रुओं पर राम जैसे श्रमशील बन हाथ उठाना ही कलियुग में सतयुग ला सकता है धरती पर स्वर्ग का अवतार किया जा सकता है। श्रम करे सो ‘श्रमण', कुछ काम-धाम न करने वाले ऐसे श्रमण के लाल-लाल गाल को तो पागल से पागल शृगाल भी खाने की बात तो दूर, छूना भी नहीं चाहेगा। इतना सुनाने के बाद भी स्वर्ण-कलश का उबाल शान्त नहीं हुआ और खिचड़ी की भाँति खदबद-खदबद उबलता ही रहा। सन्त के नाम पर पुनः आक्रोश व्यक्त करता हुआ कहता है-कौन कहता है कि आगत सन्त में समता थी, हमें तो दश-प्रतिशत भी समता दिखी नहीं उसमें, पक्षपात की मूर्ति है वह, जिसकी दृष्टि में अभी भी ऊँच-नीच का भेद-भाव है। स्वर्ण और माटी का पात्र एक रूप नहीं है वह समता का धनी कैसे हो सकता है? और फिर "एक के प्रति राग करना ही दूसरों के प्रति द्वेष सिद्ध करता है, जो रागी है और द्वेषी भी सन्त हो नहीं सकता वह ।"(पृ. 363) किसी एक से राग करना ही स्वयमेव दूसरों के प्रति मन में द्वेष भावों को व्यक्त करता है। जो रागी भी है और द्वेषी भी, सन्त हो नहीं सकता और ऐसे नामधारी ‘सन्त' की उपासना से संसार का अन्त हो नहीं सकता। ऐसे सन्त को श्रमण कहने से सही सन्त का उपहास और होगा। ये वचन कटु हैं पर हैं सत्य, इसीलिए निष्पक्ष होकर सत्य का स्वागत हो। फिर सेठ को हँसी की दृष्टि से देखता हुआ कलश कहता है- गृहस्थ अवस्था में नामधारी सन्त यह, अकाल में पला हुआ, अभाव के भूत से घिरा, बहुमूल्य वस्तुओं का भोक्ता कैसे हो सकता है? तभी तो भिखारियों के समान स्वर्णादि पात्रों की उपेक्षा कर माटी के पात्र का स्वागत किया है सेठ ने।
  22. कलश के उबाल को शान्ति के साथ सेठ जी ने सुना, फिर बदले में स्वर्ण कलश की कुशलता की कामना करते हुए, शान्ति के लिए कुछ बिन्दु प्रदान करते हैं-आँखें ऊपर होती हैं चरण नीचे, सत्पुरुषों के चरणों का सम्पर्क पाते ही धूल भी पूज्य बन जाती है। वे चरण जो अपने लक्ष्य तक पहुँचाते हैं, ऐसे चरणों की पूजा आँखें करती हैं। सही आँखें वे ही मानी जाती हैं, जो चरणों का सही-सही मूल्य आँकती हैं। चरणों की उपेक्षा करने वाली स्वच्छन्द आँखें दुख ही पाती हैं। स्वयं ‘चरण' शब्द ही हितकारी, हित चाहने वाली आँखों को आदेश और उपदेश दे रहा है कि चरण को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी, कभी भी चर न! चर न! इतना ही नहीं विलोम रूप से भी ऐसा ही भाव निकलता है यानि च..र..ण न..र..च..। चरणों को छोड़कर अन्यत्र कहीं कभी भी न..रच! न...रच ! न...रच ! हे भगवन् ! मैं समझना चाहता हूँ कि इन आँखों की रचना ऐसे कौन से परमाणुओं से हुई है - "जब आँखें आती हैं ..... तो दुःख देती हैं, जब आँखें जाती हैं..... तो दुःख देती हैं। कहाँ तक और कब तक कहूँ, जब आँखें लगती हैं.....तो दुःख देती हैं। आँखों में सुख है कहाँ?" (पृ. 360) जब आँखें आती हैं (Eye Flue आता है) तो कष्ट देती हैं, जब आँखें चली जाती अर्थात् फूट जाती हैं तब दुःख देती हैं तथा जब नजर लग जाती है तो भी दुख देती हैं, इन आँखों में कहीं भी तो सुख नजर नहीं आता। ये आँखें दुख की खान है और सुख को नष्ट करने वाली हैं। इसलिए सन्त पुरुष इन आँखों पर विश्वास नहीं करते/रखते और सदा नीचे आँखें कर चरणों को देख विनम्र हो चलते हैं। पूज्य बनने हेतु अज्ञानता वश ऊपर वालों का आश्रय लेना श्रेष्ठ है, ऐसा विचार कर कुछ धूल-कण आँखों में पहुँच जाते हैं। परिणाम यह निकला, पूज्य बनना तो दूर रहा उनका स्वतन्त्र घूमना भी नष्ट हुआ। आँखों के बन्धन में बंधे, भीतर ही भीतर संघर्ष करते अपने अस्तित्त्व को ही खो देते हैं और घृणास्पद दुर्गन्ध गीड़ ( आँखों का मल) का रूप धारण कर बाहर निकलते हैं, वे धूल के कण । फिर भी खेद की बात है कि आँखें ऊपर होती हैं और चरण नीचे।
  23. इस घटना से अपने आपको अपमानित-सा महसूस करता हुआ शीतल जल से भरा पीतल का कलश भीतर ही भीतर उबलने लगा। स्वर्ण के द्वार पर श्याम वर्ण (माटी) का स्वागत देख स्वर्ण-कलश क्रोधित हो आपे से बाहर हुआ। आक्रोश के साथ कुछ कहता है वह कि-एक दिन भी पूर्ण नहीं हुआ और आगत माटी के कलश का इतना स्वागत ! माटी को सिर-माथे पर लगाना और मुकुट को पैरों में पटकना, यह सब सभ्यता पूर्ण व्यवहार-सा नहीं लगता। अपनों के प्रति लोक-व्यवहार का भी यहाँ अभाव-सा लग रहा है और इस बात को मैं भी मानता हैं कि- "अपनाना- अपनत्व प्रदान करना और अपने से भी प्रथम समझना पर को यह सभ्यता है, प्राणी-मात्र का धर्म।" (पृ. 357) निम्न से निम्न व्यक्ति को भी स्वीकार कर अपनापन देना और अपने से पहले उसके हित के बारे में सोचना यह प्राणिमात्र का कर्तव्य है, सभ्यता है। परन्तु यह कार्य उचित क्रम से, उचित तरीके से किया जावे तो ठीक लगता है इससे उसका हित भी संभव है। इस विषय को और स्पष्ट करूं तो उच्चकुलीन, उच्च ही रहता है नीचकुलीन नीच ही रहता है, ऐसी भी मेरी धारणा नहीं है। नीच कुल वालों को भी उच्चकुलीन बनाया जा सकता है। योग्य और अयोग्य सम्पर्क से सबमें परिवर्तन हो सकता है, किन्तु इतना भी ध्यान रखना होगा, मात्र शारीरिक विकास (स्वास्थ्य, भोजन, पानी), आर्थिक तथा शैक्षणिक (पुस्तक, शिष्यवृत्ति) सहयोग मात्र से नीच कुल वाला उच्च नहीं बन सकता। उच्च बनाने का कार्य सात्त्विक संस्कार, मद्य-माँस आदि व्यसनों के त्याग से ही संभव है। यदि मठे में जीरे आदि का छौंक दिया जाए तो वह स्वादिष्ट के साथ-साथ पाचक भी बनता है, दूध में मिश्री मिला दी जाए तो दूध स्वादिष्ट के साथ-साथ बलवर्द्धक भी बन जाता है। इसके विपरीत मठे में मिश्री मिलाना कथंचित् थोड़ी मात्रा में लाभकारी भले हो जाए किन्तु दूध में जीरे आदि का छौंक लगाना तो बुद्धि का विकार ही माना जायेगा। यूँ कहकर धीरे-धीरे कलश शान्त हो जाता है।
  24. सानन्द आहारदान सम्पन्न हुआ सो कुम्भ के साथ ही पूरा परिवार अत्यधिक हर्ष में डूबा हुआ है। सब एक साथ भोजन को बैठे हुए हैं किन्तु सेठ जी के गौर वर्ण वाले मुख पर उदासी देख कर कुम्भ ने कहा - "सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करने वाला भले ही तुरन्त सन्त-संयत बने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है, किन्तु वह सन्तोषी अवश्य बनता है सही दिशा का प्रसाद ही सही दशा का प्रासाद है ।" (पृ. 352) साधु संगति की यही सफलता है कि संगति करने वाला साधु बने अथवा न बने नियामक नहीं, किन्तु उनके मन में संतोष अवश्य पैदा हो जाता है वह संतोषी बन शान्ति, तृप्ति का अनुभव करने लगता है और सही दिशा के रूप में यह जो संतोष रूपी प्रसाद मिला है, यही जीवन को सही दशा यानि सिद्ध दशा रूपी भवन में बदलने का कारण बनता है। जो स्वस्थ होना चाहता है, चिकित्सकों से सही निदान समझ औषध का सेवन करने वाला, विषय-भोगी नहीं हो सकता, क्योंकि रोग का कारण भोग ही तो है। औषध रोग का शोधन करती है किन्तु निरोगता का सही कारण तो सही निदान यानि रोग की सही-सही पहचान है। यदि सही रोग पकड़ में न आवे तो कितनी भी औषध दी जाए स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सकता। और आगे कुम्भ ने क्या कहा? सो सुनो-जैसे वृद्धावस्था में आभूषणों की बात तो दूर, हल्का-फुल्का मलमल भी भारी लगने लगता है, उसी प्रकार वैराग्य की दशा में वनवासी हो या गृहस्थ दोनों को स्वागत-सम्मान-आभार प्रदर्शन भी भार जैसा लगने लगता है। सन्तों से सुनी कुछ पंक्तियाँ भी प्रासंगिक लगती हैं- आकाश का प्यार कभी पृथ्वी से नहीं हो सकता, काम-वासना का प्यार बुढ़ापे से नहीं हो सकता। सज्जन कभी सुरापान नहीं करता, विधवा को श्रृंगार अच्छा नहीं लगता और संसार से विपरीत चाल विरलों की होती है सो वैरागी को राग-रंग अच्छा नहीं लग सकता। वैराग्य से भरे सेठ को, ये पंक्तियाँ सुन साक्षात् साधुता का रस आने लगा। दुख रूपी क्षार से भरे इस खारे संसार में सारभूत सुख मिलेगा इसकी भी आशा नहीं रही। सारभूत मोक्ष सुख का स्रोत क्या है, यह सब अब ज्ञात हो चुका है। अहो भाग्य! धन्य! ऐसा लगता है। कुम्भ का जीवन भी संत के समान बन चुका है और कुम्भ का पूर्ण समर्पण भी संत के प्रति आभार व्यक्त करता-सा प्रतीत होता है। इस पर यह लेखनी भी कुछ पंक्तियाँ देती है - "गम से यदि भीति हो तो................सुनो! श्रम से प्रीति करो और अहं से यदि प्रीति हो तो .............सुनो ! चरम से भीति धरो शम धरो सम वरो!" (पृ. 355) यदि दुखों से भयभीत हों तो सुनो-मेहनत से प्रेम करो अर्थात् आत्मोपलब्धि हेतु पुरुषार्थ करो। यदि निज को उपलब्ध करने की चाह, श्रद्धा मन में पैदा हुई हो तो सुनो - शरीर के स्वभाव को जान वैराग्य धारण करो, शरीर से डरो । कषायों को दबाओ, शमन करो और जीवन में समता परिणाम धारण करो। सिद्ध मन्त्र की सामर्थ्य से शरीर में फैला हुआ विष जैसे दूर हो जाता है, उसी प्रकार लेखनी की बात सुन सेठ की आकुलता दूर हुई। और सेठ ने कहा कि इस पक्ष में प्रभु-पूजन को छोड़कर शेष कार्यों में माटी के ही पात्रों का उपयोग होगा। इतना कहकर सेठ रजत आसन से उतरकर लकड़ी के आसन पर बैठ गया सो परिवार ने भी कहा-हमारी भी यही भावना है। परिवार की इस तरह से परिवर्तित परिणति देख स्वर्ण की थालियाँ, कलशियाँ, चाँदी के लोटे-प्याले, कटोरे, थालियाँ, स्फटिक मणी की झारियाँ और चमचम चमकने वाली चमचियाँ यह सब क्या हो रहा है? यूँ सोचते हुए सभी आश्चर्यचकित हो गये।
  25. सेठ का परिवार अपार हर्ष में डूबा, सेठ को उदासीन देख कुम्भ सन्त समागम की सार्थकता, वैराग्य दशा की बात बताता है। लेखनी द्वारा सामायिक पंक्तियाँ दी गईं, जिसे सुन सेठ की आकुल-व्याकुलता मिटी और पाक्षिक संकल्प प्रभु पूजन को छोड़ माटी के बर्तनों का उपयोग परिवार का भी समर्थन । परिवार की परिणति देख बहुमूल्य बर्तन चमत्कृत हुए। तमतमाते स्वर्ण कलश के मुख से ज्वालामुखी सी वचनावली फूटती है-सेठ ने सब कुछ शान्ति के साथ सुना कलश की कुशलता की कामना शान्ति के लिए कुछ बिन्दु प्रस्तुत करता है, आँख और चरण की शरण में धूलकणों की बात। हम पर श्रमण का प्रभाव सुन स्वर्ण कलश द्वारा श्रमण पर भी आक्रोश । कुम्भ में भरे पायस ने स्वर्ण-कलश माटी का उगाल कह, माटी का स्वभाव धर्म समझाया, उसके प्रति कृतज्ञ बनने की अमाप मान देने की बात कही। पायस के थकते साहस को देख लेखनी करने लगी, दीपक और मशाल का उदाहरण दे माटी और स्वर्ण कलश की तुलना। लेखनी द्वारा स्वर्ण कलश को मशाल की उपमा दिये जाने पर कुम्भ ने स्वयं को धिक्कारते हुए प्रभु से प्रार्थना की, सब में साम्य हो। कुम्भ की प्रार्थना से चिढ़ती झारी ने कुम्भ को पापी कहा, सो कुम्भ ने पर पदार्थ को ग्रहण करना ही पाप बताया। पारदर्शी झारी को वासना से भरी अप्सरा की संज्ञा प्रदान की, फिर अपना परिचय देते हुए सदा एक सी दशा वाली समता समान बताया। पाप की पुतली सम्बोधन सुन लाल हो उठा-अनार का रस, उसका समर्थन करता हुआ हलवा, केसर ने भी सर हिला श्रमण में श्रामण्य का अभाव बताया।
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