कुम्भकार के अभाव में उपाश्रम के प्रांगण में मोतियों की वर्षा देख आसपास का पूरा माहौल आश्चर्य में डूब गया। सबके मन में मोती प्राप्त करने का भाव जागा। इधर उड़ते-उड़ते खबर राजा के कानों तक पहुँची कि राजा अपनी मण्डली सहित कुम्भकार के प्रांगण में पहुँचता है। और सेवकों को आदेश देता है कि मोतियों को इकट्ठा कर शीघ्र ही बोरियों में भर लो । जैसे ही मण्डली मोतियों को उठाने नीचे झुकती है कि आकाश में जोरदार गर्जना होती है अनर्थ ! अनर्थ ! अनर्थ! पाप! पाप पाप! क्या कर रहें हैं आप -
"परिश्रम करो
पसीना बहाओ
बाहुबल मिला है तुम्हें
करो पुरुषार्थ सही
पुरुष की पहचान करो सही |" (पृ. 211)
जो वस्तु अपनी नहीं उसे लेने का प्रयास कर रहे हों। मेहनत करो, पसीना बहाओ, दो हाथ मिले हैं उनमें शक्ति मिली है तुम्हें, हे पुरुष ! पुरुषार्थ करो सही-सही और पहचान करो अपनी । मक्खन का गोला भले ही सीधे निगल लो किन्तु मेहनत किए बिना वह पच नहीं सकता, यदि पेट में रह गया तो जीवन खतरे में भी पड़ सकता है।
"पर-कामिनी, वह जननी हो,
पर-धन कंचन की गिट्टी भी
मिट्टी हो सज्जन की दृष्टि में।" ( पृ. 212)
सज्जनों की नजरों में दूसरों की स्त्री, अपनी माता के समान आदरणीय होती हैं तो दूसरों का धन-वैभव, सोने की डली भी मिट्टी के समान मूल्यहीन होती है। लगता है सारे संसार से शिष्टाचार कहीं दूर चला गया, दुराचार ही शेष रह गया।