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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. पंच-कल्याणक की प्रत्येक क्रिया का विश्लेषण करना तो विद्वानों और गणधर परमेष्ठी के लिए भी शक्य नहीं पर फिर भी 'क्या छोड़ना है और क्या ग्रहण करना है'- यह ज्ञान यदि हमें इन पाँच दिनों के अन्दर हो जाता है तो यह हमारा सौभाग्य होगा। धर्म की अधिकांश बातें सूक्ष्म हैं और परोक्ष हैं। हमारे इन्द्रिय-ज्ञान-गम्य नहीं हैं। फिर भी पूर्वाचार्यों ने उन सभी बातों को कहने और लिपिबद्ध करके हमें समझाने का प्रयास किया है। उसे साहित्य के माध्यम से हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही इन शुभ-क्रियाओं को देखकर अपने जीवन को सँभालने का प्रयास करना चाहिए। कल जहाँ संध्या के समय हम सामायिक करने वाले थे वहाँ कुछ लोग आये और कहने लगे- महाराज! कल जन्म-कल्याणक महोत्सव है। आप भी जुलूस के साथ पाण्डुक शिला तक चलें और कार्यक्रम में सम्मिलित होवें तो अच्छा रहेगा। हम सभी को बड़ा आनन्द आयेगा। तो हमने कहा- भैया! हमारा कार्य तो दीक्षा कल्याणक के दिन से ही शुरू होगा। अभी तो आपका कार्य है, आप जाओ और मैं नहीं आया। यद्यपि मेरे पास समय था, मैं आ सकता था, लेकिन नहीं आने के पीछे कुछ रहस्य भी था, जिसके माध्यम से कुछ बातें आपको समझनी हैं। यह मैं भी जानता हूँ कि जन्म-कल्याणक में सौधर्म इन्द्र आता है। अपने हाथों से बालक आदिनाथ को उठाने का सौभाग्य पाता है और जीवन को कृतकृत्य मानता है। इन्द्राणी-शची भी इस सौभाग्य को पाकर आनन्द-विभोर हो जाती है और अपने सांसारिक जीवन को मात्र एक भव तक सीमित कर देती है। इस अवसर को प्राप्त करके वह नियम से एक भव के पश्चात् मुक्ति को पा लेती है। इतना सौभाग्यशाली दिन है यह। फिर भी हमारे नहीं आने के पीछे रहस्य यह था। बंधुओ! हमारा धर्म वीतराग-धर्म है। जन्म से कोई भी भगवान् नहीं होता। जिनकी धारणा हो कि भगवान जन्म लेते हैं तो वह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर तो गृहस्थाश्रम में ही मुक्ति माननी होगी और राग के बाद केवलज्ञान मानना होगा जो कि संभव नहीं है। जन्म-कल्याणक और जन्माभिषेक तो राग-दशा में होते हैं। इसमें आप सम्मिलित हों यह तो आपका कर्तव्य है। क्योंकि सरागी श्रावक के लिए तो इसी में धर्म है। श्रावक की धार्मिक क्रियाओं में पूजा-प्रक्षाल-अभिषेक आदि शामिल है। अशुभ राग से छूटने तथा वीतरागता को प्राप्त करने के लिए शुभ राग का आलम्बन आवश्यक है। आपको शुभ राग के कार्यों में जितना आनन्द आता है उतना ही हमें वीतरागता में आता है। हमारी दशा अर्थात् साधु की स्थिति आपसे भिन्न है। जैसा अभी-अभी पंडितजी ने भी कहा था (पं. कैलाशचन्दजी सिद्धान्ताचार्य)। इसलिए हमारा उस अवसर पर आना सम्भव नहीं हुआ। आपने जन्म-कल्याणक का आनन्द लिया जो आपके लिये उचित ही है लेकिन सही पूछो तो असली आनन्द का दिन कल आने वाला है। जब कुमार आदिनाथ का दीक्षा-कल्याणक होगा। वे सारे परिग्रह को छोड़कर निग्रन्थ-दिगम्बर होकर तपस्या के लिये निकलेंगे। आपके चेहरे फीके पड़ सकते हैं क्योंकि कल से छोड़ने-त्यागने की बात आयेगी। पर बंधुओ! ध्यान रखना, आनंद तो त्याग में ही है। आप कह सकते हैं कि महाराज! कल तो छोड़ना ही है इसलिए क्यों ना हम आज ही आदिनाथ को भगवान् मान लें ? पूज्य मान लें ? तो यह ध्यान रखना कि होनहार भगवान् और साक्षात् भगवान में बहुत अन्तर है। पूज्यता तो भगवान् बनने पर ही आती हैं। पंच-परमेष्ठी ही वीतराग-धर्म में पूज्य माने गये हैं। क्योंकि वे वीतरागी हो गए हैं। जन्म कल्याणक के समय क्षायिक सम्यकदर्ष्टि सौधर्म इन्द्र और करोड़ों की संख्या में देव लोग आते हैं। पांडुक-शिला पर बालक-तीर्थकर को ले जाकर जन्म-कल्याणक मनाते हैं। अभिषेक, पूजन और नृत्य-गानादि करते हैं। रत्नों की वृष्टि होती है। जिसने आज जन्म लिया, यह जन्म लेने वाली आत्मा भी सम्यकदर्ष्टि है। उसके पास मति, श्रुत और अवधिज्ञान भी है। हमारे यहाँ जिनेन्द्र भगवान् के शासन में पूज्यता मात्र सम्यकदर्शन से नहीं आती, पूज्यता तो वीतरागता से आती है। सम्यकदर्शन के साथ जन्म हो सकता है परन्तु वीतरागता जन्म से नहीं आ सकती। इसलिए जन्म से कोई भगवान् नहीं होता। जब आपका बच्चा बोलना शुरू करता है तब तोतला बोलता है। इधरउधर की कई बातें भी करता है। आपको अच्छी भले ही लगती हों लेकिन वे प्रामाणिक नहीं मानी जाती क्योंकि वह अभी बच्चा है। मनुष्यायु का उदय होने पर भी बच्चे को कोई मनुष्य नहीं कहता। यह कोई नहीं कहता कि मनुष्य जन्मा है, सभी यही कहते हैं कि बच्चा जन्मा है। इसी प्रकार जो आज जन्मे हैं वे अभी भगवान् नहीं हैं, अभी तो वे बालक आदिनाथ ही कहलायेंगे। बच्चे ही माने जायेंगे। दूसरी बात यह भी है कि 'आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी' ने उन मुनियों को भी प्रमत्त कहा है, नासमझ कहा है जो स्वात्मानुभूति से च्युत होकर शुभ-क्रियाओं में लगे हुए हैं। तब ऐसी दशा में अभी जिस आत्मा ने जन्म लिया है, जो वस्त्र-आभूषण पहने हुए हैं उसे वीतरागी मानकर, भगवान् मानकर कोई मुनि कैसे पूज सकता है? मैं अभी उसका सम्मान करूं, स्वागत करूं यह नहीं हो सकता। अभी वह आत्मा तीर्थकर नहीं बनी। जिस दिन वह आत्मा राग के ऊपर रोक लगायेगी अर्थात् संयम को ग्रहण करेगी। उस दिन मैं बार-बार उसे नमोऽस्तु करूंगा और अपने-आपको सौभाग्यशाली समझेंगा क्योंकि वह महान् भव्य आत्मा निग्रन्थ दीक्षा-धारण करते ही अनेक ऋद्धियों को प्राप्त करेगी, मन:पर्यय ज्ञानी होगी, वर्धमान-चारित्र को प्राप्त करेगी और तप के माध्यम से संसार के आवागमन से मुक्त होगी, सिद्धालय में विराजेगी। आपके मन में यह भाव आ सकता है कि महाराज! जब अभी उस आत्मा के पास पूज्यता नहीं है तो हम जन्म कल्याणक क्यों मनायें? ऐसा नहीं सोचना चाहिए। भइया! यह तो सारा का सारा नियोग है और इंद्र आकर स्वयं इस सारे कार्यक्रम को यथाविधि सम्पन्न करता है। जिसे देखकर हमें ज्ञात होता है कि एक जीवात्मा ने विगत जीवन में कैसा अद्भुत पुरुषार्थ किया, जिसका फल स्वर्गादिक में भोगकर पुन: यहाँ मनुष्य जन्म लेकर सांसारिक सम्पदा और वैभव को भोग रही है। इतना ही नहीं इसके उपरांत मुनिव्रत धारण करके मुक्तिश्री को प्राप्त करेगी। ऐसी भव्य तद्भव मोक्षमार्गी आत्मा की जन्म-जयंती मनाना श्रावक का सौभाग्य है, पर इसका यह आशय नहीं है कि सामान्य व्यक्ति की जन्म-जयंती मनाई जाये। आज तो यहाँ जो भी मनुष्य उत्पन्न होगा चाहे मनुष्य गति से आये, तिर्यऊचगति या नरकगति से आये अथवा चाहे देवगति से आये, वह सम्यकदर्शन लेकर नहीं आ सकेगा। ऐसी दशा में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के साथ जन्मजयंती मनाना उचित नहीं है। बंधुओ! समझो! यह कौन सी पर्याय है? कब और कैसे हमें मिली है? इसके माध्यम से कोई भी धार्मिक क्रिया बिना विवेक के नहीं करना चाहिए। जो भी धार्मिक क्रियाएँ करो उनको विवेक पूर्वक करो ताकि आवागमन मिट सके। कर्म के बंधन, कर्म की बेड़ियाँ/श्रृंखलाएँ ढीली हो सकें और हमारा भविष्य उज्ज्वल बन सके। कर्म के बंधन तोड़ना इतना आसान भी नहीं है कि कोई बिना पुरुषार्थ किये ही कर ले। बिना रत्नत्रय को प्राप्त किये यह कार्य आसान नहीं हो सकता । जिसे एक बार रुचि जागृत हो जाये और जो रत्नत्रय की साधना करें उसे ही यह कार्य सहज है, आसान है। जन्म से लेकर जब तक आठ वर्ष नहीं बीत जाते तब तक यहाँ सभी मिथ्यादर्शन के साथ ही रहते हैं। यह पंचमकाल है और उसमें भी हुण्डावसर्पिणी काल है। आठ वर्ष के उपरांत भी सम्यकदर्शन हो ही जाये ऐसा नियम भी नहीं है। दूसरी बात यह है कि सम्यकदर्शन हुआ भी या नहीं हुआ- यह ऐसे मालूम नहीं पड़ सकता क्योंकि जो अस्सी साल के वृद्ध हो गये और अभी रत्नत्रय उपलब्ध नहीं हुआ, जीवन में त्याग नहीं आया तो सम्यकदर्शन का क्या भरोसा ? रत्नत्रय की उपलब्धि ही वास्तविक उपलब्धि है। आप लोग धन के अभाव में दरिद्रता मानते हैं पर वास्तविक दरिद्रता तो वीतरागता के अभाव में होती है। रागद्वेष और विषय कषाय ही दरिद्रता के कारण हैं। गर्भ और जन्म-कल्याणक में देवों के द्वारा होने वाले रत्नों की वर्षा से आपके घर की दरिद्रता भले ही मिट जाती ही लेकिन मोक्षमार्ग में दरिद्रता तभी मिटेगी जब हम त्याग की ओर बढ़ेंगे, वीतरागी होंगे। आज एक भव्य आत्मा देवगति से शेष पुण्य का फल भोगने के लिये यहाँ आयी है। वह अपने जीवन काल के अन्तराल में केवल भोग में ही रची-पची रहे ऐसी बात नहीं है। वह तो सारे भोग-वैभव को छोड़कर दीक्षा ग्रहण करेगी। जो आज भोग-सम्पदा और देव-सम्पदा का अनुभव करने वाले हैं, वे होनहार भगवान आदिनाथ कल इस सारी माया-ममता को छोडेंगे। क्यों छोडेंगे ? इसलिए छोडेंगे कि आवागमन का कारण माया-ममता ही है। 'आतम के अहित विषय कषाय' यही भगवान जिनेन्द्र की देशना है। हम लोगों के लिए उपदेश है। ये रागद्वेष और विषय-कषाय ही आत्मा को बंधन में डालने वाले हैं। एक मात्र विरागता ही मुक्ति को प्रदान करने वाली है। समयसार में कुन्दकुन्द भगवान ने कहा भी है रक्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि जीवो विराग संपणणो। ऐसो जिणोवदेसो, तम्हा कम्मेसुमारज्ज। समयसार राग से जीव बंधता है और वैराग्य से मुक्त होता है, यही बंध तत्व का कथन संक्षेप में जिनेन्द्र देव ने कहा है, इसलिए राग नहीं करना चाहिए। आप यह जो भी कार्यक्रम कर रहे हैं वह अपना कर्तव्य मानकर करें क्योंकि यही बालक आदिनाथ आगे जाकर तीर्थकर बनेगा और हमें वीतरागता का सदुपदेश देगा। वह स्वयं भी परिपूर्ण होगा और हमें भी सही रास्ता दिखायेगा। आगम में उल्लेख है कि दो चारण ऋद्धिधारी मुनि महाराज आकाश मार्ग से गमन कर रहे थे, तब नीचे खेलते हुए भावी तीर्थकर बालक को देखकर उनकी धर्म-शंकाएँ दूर हो गयीं थीं, उन्हें समाधान मिल गया था। पर एक बात और थी कि उन मुनिराजों ने उस भावी तीर्थकर बालक को नमोऽस्तु नहीं किया। सोचिये शंकाओं का निवारण हो गया, वह बालक तीर्थकर होने वाला है। मुनि स्वयं भी मन:पर्ययज्ञान के द्वारा जान रहे होंगे परन्तु वे मुनिराज राग का समर्थन नहीं करते। वे सरागी बालक को नमस्कार नहीं करते। एक बात और ध्यान रखना कि वीतरागी और अरागी में बहुत अन्तर है। अरागी उसे कहते हैं जिसमें रागद्वेष रूप संवेदन की शक्ति ही नहीं रहती। जिसमें जानने-देखने रूप शक्ति भी नहीं रहती अर्थात् जड़ वस्तु अरागी है। सरागी वह है जो विषय-कषाय से युक्त है। राग-द्वेष कर रहा है। और वीतरागी उसे कहते हैं जिसमें राग पहले था लेकिन अब उसने छोड़ दिया है। 'विगत: राग: यस्य यस्मात्वा इति विराग:।' होनहार भगवान् अभी वीतरागी बनने के लिये उम्मीदवार है और जब वीतरागी बनेंगे तभी वे तीन लोक में सभी के द्वारा पूज्यता/आदर के पात्र होंगे। तभी हम भी नमोऽस्तु करेंगे। यही वीतराग धर्म की महिमा है। इसे समझना चाहिए और आचार्यों ने जो अपने जीवन भर की अनुभूतियों को शास्त्रों में लिखा है उसके अनुरूप ही धार्मिक क्रियाएँ विवेक पूर्वक करनी चाहिए। सच्चे-देव-गुरु शास्त्र की उपासना के माध्यम से हमें अपनी श्रमण-संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। उसमें चार-चांद लगाना तो बड़े भाग्यशाली जीवों का ही कार्य है लेकिन जितना मिला है उतना ही सुरक्षित रखने का प्रयास हमें करना ही चाहिए। भइया! अभी करीब साढ़े अठारह हजार वर्ष पंचमकाल के शेष हैं। काल की अपेक्षा श्रावक धर्म और मुनि धर्म में शिथिलता तो आयेगी लेकिन शिथिलता आना बात अलग है और अपनी तरफ से शिथिलता लाना अलग बात है। आत्मानुभूति की कलियाँ धीरे-धीरे मुरझाती जायेंगी लेकिन समाप्त नहीं होंगी। जब फसल पकने को होती है, दस बारह दिन शेष रह जाते हैं तो किसान एक बार पुन: पानी देता है। यद्यपि पानी का प्रभाव अब फसल के लिये विशेष लाभप्रद नहीं होता परन्तु फिर भी साधक तो होता ही है। इसी प्रकार हमें भी समय-समय पर धार्मिक कार्य करते रहना चाहिए और समय-समय पर आने वाली कुरीतियों-कुप्रणालियों से बचते रहना चाहिए। आज इस जन्म कल्याणक के दिन हमें विचार करना चाहिए कि जन्म, शरीर का हुआ है। आत्मा तो अजर-अमर है, वह जन्मता-मरता नहीं है। मात्र आवागमन हो रहा है। इस आवागमन से मुक्त होना ही सच्चा पुरुषार्थ है। यही कल्याणकारी है। शरीर का कल्याण नहीं करना है, हमें आत्मा का कल्याण करना है। शरीर की पूजा नहीं करनी, शरीर में बैठी हुई रत्नत्रय गुण से युक्त आत्मा की ही पूजा करनी है। उसी की जयन्ती मनानी है। अमूर्त आत्मा की प्राप्ति में शरीर तो साधन मात्र है। इसका अभिमान नहीं करना चाहिए। एक बार की बात है। इन्द्र की सभा चल रही थी। इन्द्र स्वयं पृथ्वी के चक्रवर्ती के रूप की प्रशंसा कर रहे थे। कह रहे थे कि हम देवों के पास कुछ रूप है ही नहीं। असली रूप का अवलोकन करना हो तो पृथ्वी पर जाकर देखो। कुछ देवों के मन में परीक्षा करने की बात आ गयी। वे नीचे उतरे और जहाँ अखाड़े में चक्रवर्ती धूल-धूसरित होकर कसरत कर रहा था, वहाँ पहुँचे। देव उस छवि को देखकर अवाक् रह गये। सोचने लगे वास्तव में रूप तो सही है। देवों के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर चक्रवर्ती को अभिमान आ गया। चक्रवर्ती कहने लगा, अभी क्या रूप देखते हो। अभी स्नान करके आभूषण पहन कर जब राज-दरबार में आऊँगा तब देखना। देव राज-दरबार में पहुँचे। राजा आये। राज-सिंहासन पर बैठ गये। पर देवों ने देखा कि अब वह रूप नहीं रहा। अब वह छवि नहीं रही। वे अपने अवधिज्ञान से जान गये कि रूप, लावण्य में कमी आ गयी है और वे बाहर से ही वापिस लौटकर जाने लगे। राजा ने उन्हें बुलाया और पूछा कि क्या बात है? क्या मैं अब सुन्दर नहीं लगता? तब देवों ने कहा- राजन् आपको देखना ही है तो एक थाल मंगा लो और उसमें थूककर देखो। थाल मंगाया गया। राजा ने थूका तो उसमें कितने ही बिलबिलाते रोग के कीड़े देखने में आये। इस शरीर में ऐसे ही घिनावने पदार्थ भरे हुए हैं। यह बात राजा की समझ में आ गयी। वे सामान्य राजा नहीं थे। चक्रवर्ती सनतकुमार थे। कामदेव थे। सोचने लगे-शरीर का स्वभाव ही जब ऐसा है तो इसका अभिमान करना व्यर्थ है। भेद-विज्ञान हो गया। वैराग्य आ गया। वे दीक्षित हो गये। 'जगत्काय-स्वभावी वा संवेग-वैराग्यार्थम्'- संसार और शरीर के स्वभाव को जानकर जो संवेग और वैराग्य धारण करते हैं, वे धन्य हैं। शरीर को पढ़ने वाला, शरीर के स्वभाव को जानने वाला अपढ़ भी भेदविज्ञान को प्राप्त कर लेता है और अपने कल्याण के मार्ग पर चल पड़ता है। लेकिन आज तो समयसार को दस बार पढ़ने वालों को भी संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य नहीं आ रहा। छह खंड पर राज करने वाले, अनेक सांसारिक कार्यों में लिप्त रहने वाले सनतचक्रवर्ती ने क्षणभर में सब त्याग कर दिया। सभी ने समझाया कि राजन्! आपके पास सुख सम्पदा है, भोग सामग्री है। देवों के समान सुन्दर शरीर आपने पाया है। इसका भोग करने के बाद योग धारण करना। अभी से क्यों योग अपनाने चले हो? परन्तु सनतकुमार रत्नत्रय धारण कर लेते हैं और कुछ समय के उपरांत उनके शरीर में कुष्ठ रोग हो जाता है लेकिन भेदविज्ञान के बल से शरीर के प्रति वैराग्य होने के कारण वे अपने रत्नत्रय में अडिग बने रहते हैं। कल ऐसे ही रत्नत्रय की बात आने वाली है। कल के दीक्षा-कल्याणक की आज से ही भूमिका बता रहा हूँ ताकि कल तक शायद आप लोगों में से कोई भव्यात्मा दीक्षा के लिये तैयार हो जाये। शरीर के प्रति वैराग्य और जगत् के प्रति संवेग-ये दो बातें ही आत्म-कल्याण के लिए आवश्यक हैं। चार प्रकार के उपदेश होते हैं। जिसमें संवेगनीय और निर्वेगनीय- ये दो उपदेश ही जीव के कल्याण में मुख्य रूप में सहायक बनते हैं। आक्षेपणी और विक्षेपणी धर्मकथा/धर्मोपदेश न आदि में काम आते हैं और न ही अंत में सल्लेखना के समय काम आते हैं। वे तो मध्य के काल में उपयोग लगाने के लिये ही उपयोगी हैं। इसलिए संवेग और वैराग्य की बातें ही साधक को मुख्य रूप से ध्यान में रखना चाहिए। उन्हीं का बार-बार चिंतन-मनन करना चाहिए। कुछ समय के उपरांत फिर इन्द्र की सभा में चर्चा आई और इन्द्र ने कहा कि हम तो यहाँ मात्र शास्त्र-चर्चा में ही रह गये और वहाँ पृथ्वी पर साक्षात् चारित्र को धारण करने वाले सनतकुमार चक्रवर्ती धन्य हैं। महान् तपस्वी को देखना चाहो तो इस समय मात्र सनतचक्रवर्ती के अलावा कोई दूसरा नहीं है। उन दो देवों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह चक्रवर्ती क्या तप करेगा उसे तो अपने रूप का अभिमान हो गया था। फिर भी उन्होंने सोचा कि चलो चलते हैं। चलकर देखेंगे। दोनों भेष बदलकर पहुँचे। बोले -महाराज! आपको क्या हो गया? आपकी कंचन जैसी काया थी। सारी कुष्ठ-रोग से गल गयी है। आप चाहो तो हम इसे पहले जैसी कर सकते हैं। आप बहुत पीड़ा महसूस कर रहे होंगे। हम आपको इस रोग से मुक्त करा सकते हैं। अब सनतचक्रवर्ती तो राजा से महाराज हो गये। मुनिराज हो गये थे। बोले-भइया! इससे भी भयानक एक रोग और है मुझे। हो सके तो उसका इलाज कर दी। दोनों देव बोले- आप हमें बतायें। हम ठीक कर देंगे। ऐसा कोई रोग नहीं जिसकी औषधि जिसका इलाज हमारे पास न हो। मुनिराज कहने लगे-भइया! मुझे तो जन्म जरा-मृत्यु का रोग है, आवागमन की पीड़ा है। कोई ऐसी औषधि बताओ जिससे मेरा संसार में आना-जाना रुक जाये। वे देव स्वयं उसी से पीड़ित थे। तब महाराज बोले-भइया! शरीर के रोग का इलाज कोई इलाज नहीं है। ये शरीर में आया हुआ रोग तो कर्म-निर्जरा में सहायक है। संवर पूर्वक की गई निर्जरा से ही आना-जाना रुकता है। मुक्ति मिलती है। आत्मा स्वस्थ हो जाती है। देव ऐसा सुनकर गद्गद् हो उठे और कहने लगे कि आप वास्तव में चारित्र के धनी हैं। आपको मुक्ति मिलेगी इसमें कोई सन्देह नहीं है। तो बन्धुओं! यह काया कंचन जैसी भले ही हो जाये लेकिन यह तो पौद्गलिक रचना है। जैसे-जैसे आयु कर्म क्षीण होता जाता है यह भी बिखरती जाती है। पूरण और गलन ही इसका स्वभाव है। आचार्यों ने कहा है जब तक आयु कर्म है, प्रति समय मृत्यु हो रही है। जन्म लिया है तो मृत्यु अवश्य ही होनी है। ये चक्र अनादिकालीन है। इस अनादिकालीन आवागमन से मुक्त होने के लिये जन्म लेने वाली आत्मायें विरली ही होती हैं। हमें भी अपनी चैतन्य-शक्ति को पहचान कर इस जड़ पुद्गल शरीर को साधन बनाकर आवागमन से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। खूब विचार कर लीजिये कि हम किस ओर जा रहे हैं। अभी रात शेष है। कल दीक्षा-कल्याणक है। शरीर से आत्मा को पृथक् मानने के उपरांत उस शरीर से मोह छोड़ने की बात आने वाली है। उसी मार्ग पर सभी को बढ़ना चाहिए। जिससे इस संसार का अंत हो सके। रे मूढ़ ! तू जनमता मरता अकेला, कोई न साथ चलता गुरु भी न चेला। हैस्वार्थपूर्णय निश्चयएकमेल.जतेसधी वड्केजब अंत बेला॥१॥
  2. समता/समाधि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार समाधि का अर्थ मन, वचन एवं काय से ऊपर उठना होता है। समाधि का अर्थ है समतामय जीवन । मान को छोड़ना अनिवार्य होता है तभी समाधि प्राप्त होती है। जानते हुए भी प्रतिकार का भाव न आना ही समता है, कायरता का नाम समता नहीं है। मोक्षमार्ग में सबसे अच्छी औषधि समता ही है। जीवन में सुरक्षा कवच का नाम समता है। समता के अभाव में जीवन भारमय/दु:खमय प्रतीत होता है। सुहावने, असुहावने दोनों प्रकार के शब्दों को सुनकर समता रखना नाम सामायिक कहलाती है और हमेशा समता रखना काल सामायिक है। साधक निर्विकल्प समाधि के द्वारा अंतर्मुहुर्त में काय, विषयों एवं कर्म इन तीनों को घातता है। षट्-रसों से परहेज रखना लेकिन आत्मा का रस, समता रस खूब लो रात दिन इसमें कोई परहेज नहीं। कम परिश्रम में ज्यादा लाभ समता से ही होता है। समता जहाँ पर आ गयी वहीं धर्म-ध्यान है। सल्लेखना में कर्म की उदीरणा नहीं हो सकती क्योंकि यह बुद्धिपूर्वक होती है। समता के साथ मरण करने पर मनुष्यायु का भी बंध हो सकता है, लेकिन अभी इस पंचमकाल में मनुष्य से मनुष्य होगा तो मिथ्यात्व के साथ होगा। जन्म-मरण, सुख-दु:ख, निंदा-प्रशंसा, योग-वियोग एवं वन-भवन में समता रखने वाला ही सच्चा साधु माना जाता है। समता साधु की सबसे बड़ी पूँजी है। समता स्वभाव है, मूलगुण है, इसलिए साधुओं को हमेशा समतामय बने रहना चाहिए। समता भाव रखो! यह एक ऐसी औषधि है जो स्वयं एवं दूसरों को भी प्रभावित करती है। किसी चीज का प्रतिकार मत करो, इसे ही उपेक्षा संयम कहते हैं। यह सब अच्छा-बुरा मेरे कर्मों के उदय से हो रहा है। ऐसा सोचता हुआ जो समता रखता है वह वीर कहलाता है, इसमें बहुत आमदनी होती है। कर्मोदय को हटाया नहीं जा सकता, उसको समता से सहन करके निर्जरित किया जा सकता है।
  3. श्रावक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार डॉ. जे. को. वी. जर्मनी ने कहा है कि भारत से ही जैनधर्म और बौद्धधर्म चल रहे हैं पर जैनधर्म की परम्परा अभी भी चल रही है जबकि बौद्धों के अनुयायी इतने नहीं हैं। क्योंकि बौद्धधर्म में मात्र साधु धर्म है श्रावक धर्म नहीं। जबकि जैनियों में साधु धर्म भी है और श्रावक धर्म भी और साधु से श्रावक धर्म वाले ज्यादा हैं। इसलिए दो पहियों (श्रावक, साधु) से जिनशासन रूपी रथ आगे बढ़ता जा रहा है। दोनों पहियों को साथ-साथ चलना होता है यदि एक भी रुक गया तो दोनों को रुकना होगा। श्रावक धर्म में कमी आने से श्रमण, साधु धर्म में भी कमी आ जावेगी। श्रावक आज अपना कर्तव्य भूलता जा रहा है। श्रावक और साधु में तालमेल बिना धर्म नहीं चल सकता। श्रावक को कमजोर नहीं समझना चाहिए, वह एक का नहीं बहुतों का निर्वाह करता है। श्रावक समाज के साथ भी चलता है धर्म संस्कार भी पालता है एवं हमेशा-हमेशा मुनि बनने के भाव बनाये रखता है। श्रावक को यदि जीवन में सात्विकता रखनी है, दया का पालन करना है तो उसे पशुपालन करना चाहिए। जीवित धन नहीं रखोगे तो महान् हानि होगी। श्रावक का जीवन रागमय होता है लेकिन वह वीतराग का अनुरागी भी अवश्य होता है। वीतरागता की ओर बढ़ने का भाव हमेशा बनाये रखता है। श्रावक को भी दया का पालन करना चाहिए। जब तक दया धर्म है तभी तक सब कुछ है। त्रैकालिक सावधानी रखने की वृत्ति श्रावक में होना चाहिए। श्रावकों को पानी विधिवत् छानना, जिवाणी डालना जिनवाणी का सार है। श्रावकों में से ही ये अकलंक, जिनसेन जैसे रत्न आये थे। घुंटी में ही ये संस्कार पिलाये जाते हैं प्राण जावे पर प्रण न जावे ऐसे संस्कार डाले जाते हैं। गृहस्थ/श्रावक को हर क्षण कर्म बंध इसलिए होता रहता है क्योंकि उसका इन्द्रिय और मन का संयम नहीं रहता। संकल्प में अभाव के तत्सम्बन्धी बंध होता ही रहता है।
  4. शास्त्र विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार शास्त्र विषयक राग साधु को सुबह की लालिमा के समान है। शास्त्र-स्वाध्याय से कषायों का उपशम होना चाहिए, कषाय संक्लेश नहीं होना चाहिए। बाजार के भाव के बारे में अखबार पढ़ते हो तो आत्मा के भाव के बारे में जानने के लिए शास्त्र स्वाध्याय करना चाहिए। वीतराग सर्वज्ञ के वचन प्रमाण हैं, ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवाद सें रागद्वेष उत्पन्न होते हैं और रागद्वेष से संसार की वृद्धि होती है। जैसे सूर्य के प्रकाश व प्रताप में कभी कमी नहीं आती, चाहे जब उसको ग्रहण कर सकते हो। वैसे ही जिन शास्त्रों को कभी भी पढ़ो, इनसे हमेशा ज्ञान व वैराग्य ही प्राप्त होता है। जिनके वैराग्य की ओर कदम बढ़े हैं और जो बढ़ाना चाहते हैं, उन्हें जिन शास्त्र मील के पत्थर सिद्ध होते हैं। अध्यात्म ग्रन्थ में पहले शुद्ध को ही नमस्कार किया जाता है, लेकिन जिनके प्रसाद से, कृपा दृष्टि से यह मोक्षमार्ग मिला है, उनको भी नमस्कार किया गया है। जिनेन्द्र भगवान के वचनों को औषधि कहा है, जो इसका सेवन करता है उसके भय, रोग नष्ट हो जाते हैं। जो कर्ममल मिथ्यात्व, रागादि आत्मा में आ गये हैं, संचित हो गये हैं, उन्हें निष्कासित करने के लिए जिनेन्द्र भगवान की वाणी ‘त्रिफला रूप' औषधि है। जिससे मन में एकाग्रता आती हो ऐसा साहित्य पढ़ना चाहिए, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि वह एकाग्रता कर्म निर्जरा में साधक बननी चाहिए। शास्त्र स्वाध्याय करते समय कुतर्क नहीं करना चाहिए, कुतर्क करना शास्त्र का अनादर है। सूत्र और व्याख्या में जितना अंतर है उतना ही मंत्र और ग्रन्थ में अंतर है। जहाँ मंत्र का आलम्बन लेना अनिवार्य है, वहाँ लेना ही चाहिए। आगम का आश्रय लेने वाले में राग-द्वेष, मोह कम होते चले जाते हैं, और आत्मा का आश्रय लेने वाले को राग-द्वेष मोह होते ही नहीं हैं। अर्थ-शास्त्र के साथ-साथ थोड़ा त्याग-शास्त्र पढ़ना भी आवश्यक है वरन् अर्थ (धन) अनर्थ का कारण बन जावेगा।
  5. शरीर विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार शरीरमय आत्मा नहीं है, बल्कि शरीर में आत्मा है जैसे पाषाणमय सोना नहीं है, बल्कि पाषाण में सोना है। यह शरीर काम रूपी सर्प का घर है और यह शरीर संयम का साधन भी है। शरीर सुख की आकांक्षा रखोगे तो काम का प्रकोप बढ़ेगा। शरीर में सुख को विष मिश्रित अन्न समझकर छोड़ देना चाहिए। शरीर सुख एवं शरीर का संस्कार मोक्षमार्ग में बाधक है। यह प्राणी शरीर को पुष्ट बनाना चाहता है पर ज्ञान को पुष्ट बनाना नहीं चाहता। मैं शरीर वाला हूँ ही नहीं ऐसा श्रद्धान बना लो ऐसा श्रद्धावान जीव आत्मस्थ हो जाता है। वह चलते हुये भी नहीं चलता, देखते हुये भी नहीं देखता, कर्म बंध से मुक्त रहता है। शरीर से हमेशा विकल्प ही होते हैं। पित्त की अधिकता से स्वप्न में अग्नि दिखती है, वात की अधिकता से हवा में उड़ना दिखता है और कफ की अधिकता से पानी दिखता है। अनर्थ का मूल कारण यह शरीर ही है। जो इस शरीर को नियंत्रण में रखकर इससे धर्म साधन करता है, वह अशरीरी बन सकता है। कुछ भी पदार्थ डालो इस शरीर में फिर भी नाली की भाँति गंदा हो जाता है। यह शरीर धन आदि आपत्तियों का घर है साढ़े साती का ग्रह उसी को लग सकता है जिसके पास परिग्रह हो । शरीर को आचार्यों ने हीनस्थान कहा है, क्योंकि इससे हीन कार्य किए हैं, इसलिए यह अब छूटता नहीं है। उसमें रहने वाले सब पिंजरे के पंछी के समान हैं। हमने इस शरीर को अपना हेतु समझा है, तभी तो उससे बड़ा अनुबंध है। सल्लेखना के बाद भी वह प्राप्त हो जाता है। बच्चे की भाँति शरीर को सुला दो, फिर भीतर आत्मा से काम लो। शरीर पर ज्यादा दया करना अविवेक है। शरीर से व्यवस्थित काम लेते रहना एक महान् कला है।
  6. शरण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार चार शरण दर्पण के समान है, वे सभी आत्माभिमुख हैं, उन्हें याद कर हम भी अपनी आत्मा की शरण ले लेते हैं। दर्पण को देखने का अर्थ स्वयं को देखना है, इसलिए आत्मस्थ को देखने से आत्मा की याद आ जाती है। जो आत्मा की गहराई में उतर जाते हैं, वे आत्मज्ञ हो जाते हैं और वही हमारे लिए शरणभूत हो जाते हैं। संसार में अंतिम शरण आत्मा ही है।
  7. व्यसन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अपना हित किसमें निहित है यह ज्ञान व्यसनी को नहीं होता। किसी पदार्थ का अतिरेक से सेवन करना व्यसन में आता है। जिसके बिना रहा न जावे, उसे व्यसन कहते हैं। किसी-किसी को सदव्यसन भी होते हैं। जैसे-विद्या का, कविता पाठ करने का आदि। बुरी आदतें ही व्यसन का रूप ले लेती हैं। बुरी लत व्यसनी को लात मारकर नरक (पतन) के गड्डे में गिरा देती है। धन कमाने का व्यसन हमें धर्म से दूर कर देता है। कोई भी दुर्व्यसन हो वह दु:खदायी ही सिद्ध होता है। व्यसनी के पास कभी विद्या टिक नहीं सकती, व्यसनी पर कोई विश्वास नहीं करता।
  8. सुगमपथ वीतराग मार्गी आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणो में नमोस्तु-नमोस्तु- नमोस्तु....हे हितचिंतक गुरुवर! जन्म- जन्मांतरों से प्राणी मित्र विद्याधर स्वयं किसी जीव की हिंसा नहीं करते और ना ही परिवार जनों को करने देते थे। इस संबंध में विद्याधर के अग्रज भ्राता(महावीर प्रसाद जी)ने बताया- विद्याधर घर वालों को मच्छर भगाने के लिए धुआं नहीं करने देता था, और खटमल मारने की दवाई भी नहीं छिड़कने देता था- "कि इससे जीव हिंसा होगी, पाप लगेगा, वो भी तो जीना चाहते हैं।" तब उसको हम लोग कहते- वो अपने को काटेंगे, तो कहता- "अपन मरेंगे नहीं।” इसी तरह मुझको फसल पर पंप से पाउडर छिड़कने के लिए मना करता था।कहता- "पाप लगता है, ऐसी खेती ही क्यों करो। केवल गन्ना की खेती करना चाहिए।" पिताजी उसकी भावनाओं को देखते हुए खेत पर नहीं भेजते थे या कम भेजते थे। उससे खेती का कोई कार्य नहीं कराते थे। "जब भी खेत पर विद्याधर जाता था तो मात्र बैठा रहता था। साथ में धर्म की पुस्तक ले जा कर पढ़ता रहता था। "एक बार हमने उसको खेत पर भेजा तो वहां पर जाकर बैठ गया और कुछ देर बाद वापस आ गया। मैंने शाम को पूछा- "खेत पर गए थे क्या देखा ? तो बोला- मजदूर काम कर रहे थे। " हमने पूछा कितने लोग थे ? तो बोला- "12 थे। "हमने पूछा-कितनी महिलाएं, कितने पुरुष थे ? तो बोला- "मुझे नहीं मालूम। " हमने कहा-उनको अलग अलग मजदूरी देना पड़ती है । तो "विद्याधर बोला- काम तो सभी बराबर करते हैं ना, तो मजदूरी भी सबको बराबर देनी चाहिए। "तब मुझे गुस्सा आया उस पर, तो नाराज होकर मौन से बाहर निकल गया। जवाब नहीं देता था, कभी किसी को उल्टा। इस तरह करुण हृदयी विद्याधर आज अहिंसा महाव्रत का पालन कर, प्राणी मात्र के सच्चे मित्र बन गए हैं। अहिंसा महाव्रतियों के चरणों में नमोस्तु करता हुआ....... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  9. वैराग्य-वीतरागता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सभी से मैत्रीभाव रखो और वैराग्य को अलंकार बनाओ। धन, दौलत, पद, सत्ता आदि की भूख समाप्त होने पर ही वैराग्य आता है। वैरागी अपने नाम से धन कभी रखता ही नहीं। लक्ष्मी, धन व वैभव पाप रूप हैं एवं तृष्णा को बढ़ाने वाले हैं, इसलिए त्यागी इसे छूता ही नहीं। वैराग्य होने के बाद सम्पदा का त्याग कर दिया, इसमें क्या आश्चर्य! जहर का ज्ञान होते ही वह उल्टी कर देता है, जिसको घृणा आ जाती है, वह उसे दुबारा ग्रहण नहीं कर सकता। व्यक्ति के जीवन में वैराग्य आते ही संसार का कोई भी पदार्थ उसे अपनी ओर आकृष्ट नहीं करा सकता । समता माँ, वैरागी बेटे के पास ही रहती है रागी के पास नहीं। वैरागी लोग शरीर को ऐसा संभालते हैं, जैसे ड्रायवर गाड़ी को, तभी मोक्षमार्ग की यात्रा समीचीन होती है। जीवन में वीतरागता जितनी रखोगे उतना पाओगे यह महावीर का मार्ग है। पारे में भस्म के रूप में आत्मा की दशा है,'वीतरागता” का पुट मिलते ही वह स्वरूप में आ जायेगा। रागी को आकृष्ट करने का एक मात्र उपाय है वीतराग होना। हमारी प्रत्येक चेष्टाओं में राग का पुट रहता है, इसलिए वीतरागी का दर्शन करते रहना चाहिए। तपस्या में मुख्य तो वीतरागता है, निष्कषाय भाव है, अत: उसी की ओर बढ़ना चाहिए। वीतरागता के लिए परिग्रह अभिशाप है। साधक को हमेशा विवेक की आँख खोले रखना चाहिए, क्योंकि ‘आगम चक्खु साहू' कहा है। इसलिए साधक को अपवादों से हमेशा बचना चाहिए। वैराग्य के लिए किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती। जिस प्रकार अग्नि की छोटी-सी कणिका अटवी को भस्म करने में सक्षम होती है, उसी प्रकार एक क्षण का वैराग्य भी सारे कर्मों को नष्ट कर देता है। वैराग्य कक्ष में किसी से सम्बन्ध नहीं होता वह प्रकृतिस्थ हो जाता है। यह संसार में मेरा तेरा मात्र दिमाग की उपज थी, जिससे ये तरंगे उठ रहीं थीं। ऐसा विचार आने लगता है। स्वस्थ आत्मा में ये कोई तरंगें नहीं हुआ करती, भीतर से कोई उपाधि भी नहीं होती। करंट से आप लकड़ी के द्वारा छूट सकते हो और यदि लोहा जोड़ दोगे तो आप भी उससे चिपक जाओगे। इसी प्रकार हजार व्यक्ति रागी हैं और एक वीतरागी है तो सभी को संसार से छुड़ा सकता है। यदि वही रागी हो गया तो वह भी चिपक सकता है। वीतरागता की रक्षा पैसे से नहीं बल्कि पैसे के त्याग से की जा सकती है। वीतरागता की रक्षा राग के माध्यम से करना एक बहुत बड़ी भूल मानी जाती है। जब वीतराग धर्म का विलय हो जावेगा तब कृषि, असि, मसि आदि षट्कर्म का भी विलय हो जावेगा। वीतरागता की रक्षा यदि हम राग की वस्तुओं से करते हैं तो वह रक्षा सम्भव नहीं क्योंकि राग की वस्तुओं से तो राग का ही वर्द्धन होगा। संसार की वस्तुओं में यदि सुख होता तो तीर्थकरों ने इस संसार का त्याग क्यों किया होता। वीतराग मार्ग की पहचान परिग्रह से नहीं बल्कि वीतरागता या अपरिग्रह से होती है। संसारी प्राणी की दशा चक्की में पड़े दाने की भाँति है, जो रागद्वेष रूपी चक्की में पडेगा वह पिसेगा ही। मोक्षमार्ग में कोई शर्त नहीं होती बड़ा सीधा मार्ग है। बस एक ही शर्त है और वह यह है कि पीछे मुड़कर नहीं देख सकते। एक बार वैराग्य हो गया तो बंधन छूट जावेगा और बंधन नहीं रहा तो फिर मुक्ति हो जावेगी। मृत्यु के बारे में सोचते हैं तो जल्दी वैराग्य हो जाता है। जंगल में मंगल इसलिए हो जाता है क्योंकि वहाँ राग से ऊपर उठे साधु वीतराग प्रभु रहते हैं। मोह का पवन नहीं होने से भगवान् के मान सरोवर में तरंगें नहीं उठतीं। वीतरागता के दर्शन में जो अनुभूति होती है एवं जो आनंद आता है, वह अन्य किसी वस्तु में नहीं आता। वैरागियों के सानिध्य से ही यह दिव्य नेत्र खुल जाता है। वैराग्य की मूर्ति को देखकर चोर भी वैरागी बन गया, उपदेश से नहीं। राग से वीतरागता की ओर जाने का जो उपक्रम है, वह अद्भुत है। यह चमत्कार नहीं बल्कि चित्चमत्कार है। यह मन, वचन एवं काय की नहीं, चेतन की बात है। वीतरागता के दृश्य को देखकर माया बाजार समाप्त हो जाता है, चेतना का बाजार खुल जाता है। यह शक्ति का उद्घघाटन वैराग्य होने पर हो जाता है। जो हमारी अनादिकाल से चली आ रही भूख है, वह वीतरागता से ही शांत होगी। रागद्वेष, विषय कषाय आदि अंदर की गंदगी को बाहर निकाल दो फिर अंदर से वीतरागता की सुगंधी फूटने लगेगी। वैराग्य मात्र आत्मतत्व की पहचान हो जाने पर अकेला ही चलता है। वैराग्य के सामने यह संसार एक मायाजाल-सा प्रतीत होने लगता है। वैराग्य ऐसा घर है जिसमें किसी भी व्यवस्था की आवश्यकता नहीं पड़ती। वीतरागी सामने रहेंगे तो जागृति बनी रहेगी। मुझे आश्चर्य है रोज दर्पण देखने के बाद भी आपको संसार क्षणभंगुर नहीं लगता। यह शरीर गलन पूरन की क्रिया सहित है। इस रहस्य को संसारी प्राणी समझता नहीं। इसलिये वैराग्य की ओर नहीं बढ़ पाता।
  10. वैय्यावृत्ति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार दीक्षाभिमुख को दीक्षा के लिए प्रेरित करना भी वैय्यावृत्ति मानी जाती है। वैय्यावृति अंतरंग तप में आती है, इसलिए वैय्यावृत्ति करने वाला तपस्या में लगा हुआ है, ऐसा समझना चाहिए। अलग-अलग भावों के माध्यम से दिये गये दान और की गई वैय्यावृत्ति का फल तारतम्य को लेकर हुआ करता है। शरीर में कौन रहना चाहता है, लेकिन इससे उपकार होता है। इसके माध्यम से संवर, निर्जरा चलती रहती है, इसलिए वैरागी इसमें रहता है। संसार, शरीर और भोगों का आकर्षण कम हो जाना, इनसे वैराग्य आ जाना एक बड़ी अदभुत घटना है। वैराग्य आते ही संसार असार लगने लगता है, राग में, असार में (छिलका में) भी सार (तेल) निकाल लेता है। धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन (मोक्षमार्ग) में जो हर्ष होता है और पापों से भय होता है, उसे संवेग कहते हैं और संसार, देह तथा भोगों में विरक्तभाव रूप वैराग्य है। बारह भावनाओं का चिन्तन करने से वैराग्य की उत्पत्ति होती है। सम्यक दर्शन जितना प्रौढ़ होगा उतना ही अधिक वैराग्य बढ़ेगा। वैराग्य रूपी अंकुश से इन्द्रिय रूपी हाथियों को वश में कर लेना चाहिए। संसार, शरीर और भोग के त्याग रूप वैराग्य तीन प्रकार का होता है। वैराग्य में भय नहीं, अभय होता है। जिन्हें गुणों के प्रति आदर होता है, वही वैय्यावृत्ति कर सकता है। जिस समय जो आवश्यक हो, संयमी के लिए उसकी पूर्ति करना वैय्यावृत्ति है। वैय्यावृत्ति में प्रदर्शन नहीं होता बल्कि समर्पण होता है। वात्सल्य अंग को सुरक्षित रखना चाहते हो तो वैय्यावृत्ति को कभी भूलना नहीं चाहिए। जो वैय्यावृत्ति नहीं करता उसके व्रत टूंठ वृक्ष से पक्षियों की भाँति उड़ जाते हैं। आवश्यक और सीमा के अनुरूप ही वैय्यावृत्ति होनी चाहिए। जो वैय्यावृत्ति नहीं करता तो समझना वह संघ को तोड़ने का काम कर रहा है। लोक संग्रह वैय्यावृत्ति के माध्यम से ही होता है। दान और वैय्यावृत्ति को आचार्यों ने अतिथि-संविभागव्रत के रूप में स्वीकारा है। मानसिक वैय्यावृत्ति करना बहुत कठिन है। जो गुणों के प्रति अनुराग नहीं रख सकता वह कभी भी वैय्यावृत्ति नहीं कर सकता। गुरुओं के गुणों के प्रति आदर भाव रखते हुये जो वैय्यावृत्ति करता है वह आगे चलकर उन्हीं गुणों को प्राप्त करता है। वैय्यावृत्ति करने वाला नियम से विनयशील होता है, इसलिए वैय्यावृत्ति करने वाले के दो तप सहज ही हो जाते हैं। अपनी शक्ति के अनुसार तपस्वियों की वैय्यावृत्ति करने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। कुछ न करने का नाम ही निश्चय है, इसलिए निश्चय सरल है। व्यवहार में कुछ करना होता है, इसलिए व्यवहार धर्म कठिन है। जहाँ सत्य होता है वहाँ विसंवाद होता है और विसंवाद से राग-द्वेष होता है, जिससे संसार बढ़ता है। कर्म बंधन शुभाशुभ क्रियाओं के आस्रव से होता है और आस्रव क्रोधादि कषायों से होता है, क्रोधादि प्रमादों से उत्पन्न होते हैं और प्रमाद मिथ्यात्व से पुष्ट होता है। अपने आप में स्वाश्रित होना एक बड़ी तपस्या है। यदि कार्यक्रम में प्रत्येक व्यक्ति व्यवस्थित हो जावे तो व्यवस्थापकों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, कभी-कभी व्यवस्थापकों से ज्यादा अव्यवस्था हो जाती है। जो संसार से डरता नहीं, जो पापों से भयभीत नहीं है, वह वीर नहीं कहला सकता। जो विकसित हो रहे हैं, उन्हें सहयोग देने वाला बंधु माना जाता है, इसलिए कमल को विकसित करने में सहयोग करने वाले सूर्य को कमल बंधु कहा जाता है। घर में बंधुजन ही चारुदत्त जैसों को दारुदत्त बनाते हैं (शराब पीने में प्रवृत्त करते हैं) मोह जाल में फंसाते हैं। जिनसे हमारे दोष फलें-फूलें, वे बंधु कैसे ? बाह्य वस्तु का विकल्प छूटे बिना अध्यात्म का रस नहीं आ सकता, इसलिए कहा है-शम ही जिनका धन है, वे साधु हैं। सत्य वही है जो बोलता नहीं, अपनी बात सिद्ध करने छटपटाता नहीं है।
  11. जिन्होंने इस विश्व का समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया ऐसे सर्वज्ञ वीतराग और हितोपदेशी भगवान ने हमारे आत्म कल्याण के लिए एक सूत्र दिया है वह है अस्तेय या अचौर्य व्रत। ‘स्तेय' कहते हैं अन्य पदार्थों के ऊपर अधिकार जमाने की आकांक्षा अथवा 'पर" पदार्थों पर आधिपत्य रखने का वैचारिक प्रयास जो कभी संभव नहीं है फिर भी उसे संभव बनाने का मिथ्या-भाव। चोरी का सीधा सा अर्थ है 'पर' का ग्रहण करना। इस बात को हमें स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि ‘स्व” के अलावा 'पर' के ऊपर हमारा अधिकार नहीं हो सकता। ‘स्व” क्या है 'पर' क्या है जब तक यह ध्यान नहीं होगा और 'पर' को हम जब तक 'स्व' बनाने का प्रयास करते रहेंगे तब तक इस संसार से निस्तार संभव नहीं है। हम 'स्व' को पहचान नहीं पा रहे हैं। विस्मृति प्रत्येक संसारी जीव को 'स्व' की ही हुई है। ‘पर' की विस्मृति आज तक नहीं हुई। 'पर' को हमने कभी ‘पर' नहीं माना, ‘पर' को ‘पर' समझना अत्यन्त आवश्यक है। ‘पर' को ‘स्व' मान लेना या 'पर' जानते हुए भी उसे अपना लेने का भाव ही चोरी है। आप अपने को साहूकार मानते हैं तो सच्चा साहूकार तो वही है जो ऐसे भाव नहीं लाता जो पर की चीजों पर दृष्टिपात भी नहीं करता, अपना आधिपत्य जमाने का रंचमात्र भी प्रयास नहीं करता। आत्मा के पास ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग है। जानने देखने की शक्ति है, भगवान् तीन लोक को स्पष्ट जानते-देखते हैं। लेकिन हमारे जानने-देखने और उनके जानने-देखने में बहुत अंतर है। हमारी दृष्टि में मात्र देखना नहीं है, हमारी दृष्टि में पदार्थ को लेने के भाव हैं, प्राप्ति के भाव हैं और उनकी दृष्टि में मात्र दर्शन है। एक दार्शनिक ने जगत् के बारे में लिखा है कि दूसरा जो भी है वही दुख है वही नरक है। भगवान् महावीर स्वामी ने पहले कह दिया था कि दूसरा नरक नहीं है बल्कि दूसरे को पकड़ने की जो भाव दशा है वह हमारे लिए दुख और नरक का कारण बनती है। पकड़ना चोरी, ग्रहण का भाव करना चोरी है। किसी का होना या किसी को जानना चोरी नहीं है। जब तक हमारी दृष्टि लेने के भाव से भरी हुई है वह निर्मल दृष्टि नहीं है। लौकिक क्षेत्र में चोरी करना एक बहुत बड़ा पाप माना गया है और चोरी करने वाला सज्जन या नागरिक नहीं कहलाता, उसे सभी चोर कहते हैं। इस राजकीय कानून से डरकर आप राजकीय सत्ता के अनुरूप चल देते हैं किन्तु चोरी से बचते नहीं हैं, कोई न कोई पगडंडी निकाल लेते हैं। तब भले ही कानून आपको दंडित नहीं कर पाता किन्तु सैद्धांतिक रूप से आप दण्डित हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अभिनंदननाथ भगवान् की स्तुति करते हुए लिखा है कि हे भगवान्! यह संसारी प्राणी राजा के भय से, माता-पिता या अपने से बड़ों के भय से, बलवानों के भय से अन्याय, अत्याचार और पाप तो नहीं करता किन्तु करने का भाव भी नहीं छोड़ता। ऊपर से भले ही बच जाता है पर अंदर से भावों में नहीं बच पाता। राजकीय सत्ता का अधिकार मात्र अपराध के ऊपर है और वह अपराधी को दंडित भी करती है लेकिन अपराधी के भावों के ऊपर उसका भी अधिकार नहीं चलता। भावों पर अधिकार चलाने वाला तो स्वयं हमारा कर्म है। कर्म की शक्ति आणविक शक्ति से भी अधिक है। वह कर्म आपके चारों ओर है गुप्तचरों की तरह, जहाँ कहीं भी आपका स्खलन देखने में आया, वहीं आपको बंधन में डाल देता है। राजकीय सत्ता तो मात्र हाथ पैर में बेडी डालती है, तालों में बंद कर सकती है किन्तु कर्म आपकी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। आप बचकर नहीं जा सकते। यह भाव-दंड निरंतर मिलता रहता है। आप वर्तमान में मात्र सांसारिक जेल में न जाना पड़े, उससे बचने का उपाय करते हैं किन्तु वास्तविक रूप में जब तक भावों द्वारा बुरे कार्य से नहीं बचेंगे तब तक साहूकार नहीं कहलाएँगे। भावों के द्वारा चौर्य कार्य से बचें तभी साहूकार कहलायेंगे और साहूकारी का मजा भी आपको तभी मिल पाएगा। आप अभी मात्र बाहर से बच रहे हैं। राज्य सत्ता भी बचने के लिए बाध्य कर रही है लेकिन आप कहीं न कहीं से पगडंडी निकालकर भावों के द्वारा चोरी कर रहे हैं। महाराज! बिना चोरी के तो आज कार्य चल ही नहीं सकता, कई लोगों से ऐसा सुना मैंने, सुनकर दंग रह गया मैं। आपने इस चौर्य कर्म को इतना फैला लिया कि इसके बिना अब काम ही नहीं चलता एक प्रकार से यह राजमार्ग ही बन गया। ऊपर से आप कह रहे हैं कि चोरी करना पाप है और अंदर क्या भावों में घटाटोप छाया है यह तो आप ही जानते हैं। यह ठीक नहीं है। एक समय की बात है। एक ब्राह्मण प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करता था। एक दिन उसकी पत्नी भी उसके साथ गई। ब्राह्मण स्नान करने के बाद सूर्य के सामने खडे होकर रोज की भांति जल समर्पण करने लगा। मुख से उच्चारण करने लगा कि 'जय हर हर महादेव, जय हर हर महादेव और मन में जो है सो है ही'। पास ही स्नान करते हुए एक मित्र ने पूछा कि भैया आज क्या बात है ? यह जय हर हर महादेव के साथ आप क्या कह रहे हैं ? वह ब्राह्मण हँसने लगा, बोला, कुछ खास नहीं भइया। मैं प्रतिदिन जय हर हर गंगे, हर हर गंगे कहता था पर आज मेरी पत्नी भी साथ में आयी है और उसका नाम गंगा है इसलिए आज कैसे कहूँ ? इसलिए कहता हूँ कि जय हर हर महादेव मन में जो है सो है ही। आप भी यही कह रहे हैं ऊपर से कह रहे हैं कि हम चोरी नहीं करेंगे पर भीतर करे बिना नहीं रहेंगे क्योंकि मन में जो है सो है ही। मात्र बाहर से छोड़ना, छोड़ना नहीं है अंदर से छूटना चाहिए। हम दूसरे पदार्थ का ग्रहण नहीं कर सकते इसलिए उसका विमोचन भी नहीं कर सकतेयह कहने में आता है किन्तु वस्तु व्यवस्था इतनी आसान नहीं है, वस्तुत: हम किसी पर पदार्थ का ग्रहण नहीं कर सकते किन्तु वैभाविक दशा में भावों के माध्यम से ग्रहण किया जाता है। जिस समय ग्रहण का भाव आता है उसी समय कर्म का बंधन हो जाता है। इस बंधन को समझना चाहिए। राज्य-सत्ता आपके शरीर और वाणी पर नियंत्रण रखती है लेकिन कर्म की सत्ता आपके भावों का भी ध्यान रखती है। जो इन दोनों के बीच अपने को साहूकार बनाने में लगा है वह जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग का प्रभावक है और अपनी आत्मा का भी उत्थान कर रहा है। बाह्य और अभ्यंतर ये दोनों कार्य अनिवार्य हैं। बाहर से तो जेल से बचना ही है पर अंदर से भी जब तक नहीं बचेंगे तब तक हमारी निधि क्या है? यह आप लोगों को विदित नहीं हो पायेगा। कर्म सिद्धांत को जानकर अपना आचरण करना चाहिए। कारागृह मात्र बाहर नहीं है, जहाँ कहीं मलिन भाव है वहीं पर कारागृह है। और कारागृह में रहने वाला तो अपराधी है। हम जब यहाँ आये तो एक व्यक्ति ने कहा कि महाराज! आप जयपुर आये हैं तो एक प्रवचन यहाँ कारागृह में भी दें तो अच्छा रहेगा। मैं सोच में पड़ गया कि क्या यह कारागृह नहीं है? संसार भी तो कारागृह है, यह देह भी तो कारागृह है। जो इसे कारागृह नहीं समझता वह भूल में है। आप मात्र बाहर राज्य के द्वारा निर्मित जेल को जेल मानते हैं किन्तु वास्तव में आत्मा के विपरीत परिणमन ही जेल है। जब तक यह बात समझ में नहीं आयेगी तब तक आत्मा लुटती जायेगी हम अपराधी बने रहेंगे, दरिद्र और दीन होकर भटकते रहेंगे। आप आत्मा को इस कारागृह से निवृत्त करने का प्रयास करें। ‘छूटे भव-भव जेल' भव-भव में जो परिभ्रमण करना पड़ रहा है वह जेल है। चारों गतियाँ क्या जेल नहीं हैं? दूसरे को जो, बाहरी जेल में कैद है उसे कैदी कहने से पहले सोचना चाहिए कि मैं स्वयं कैदी हूँ। यह देह रूपी कैद ही हमारे कैदी और अपराधी होने की प्रतीक है। अनादिकाल से हम अपराध करते आ रहे हैं, आज तक इस संसार रूपी विस्तृत जेल से छूटने का भाव नहीं किया। प्रत्येक समय गल्ती करते जा रहे हैं। यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि 'हम अपराधी हैं' या नहीं। जब तक कहीं कोई एक अपराधी रहता है तब तक वह अनुभव करता है कि हाँ मैं अपराधी हूँ, मैंने अपराध किया है, मैं अपराध का यह दंड भोग रहा हूँ। लेकिन जब अपराधियों की संख्या बढ़ जाती है तो उनमें भी मजा आना प्रारम्भ हो जाता है। भूल जाते हैं कि मैं अपराधी हूँ। भाई! शरीर को कारागृह समझो। बहुमत हो जाने से सत्य को मत भूलो। सत्य की पहचान बहुमत के माध्यम से नहीं होती, सत्य की पहचान भावों के ऊपर आधारित है। इसलिए सत्य को पाने के लिए अहर्निश अपने परिणामों को सुधारने का प्रयास करना चाहिए। बाहरी स्थिति में साहूकार होना, अपनी स्थिति सुधारना ठीक है किन्तु इतना सा ही हम लोगों का धर्म नहीं है। इस बाहरी साहूकारी से हम लोग एक भव में कुछ इन्द्रिय सुख भले पा लेंगे, यश ख्याति मिल जायेगी किन्तु जो विकारी परिणति है उसे हटाये बिना हम अनंत आनंद की अनुभूति नहीं कर सकेंगे। यह भव-भ्रमण मिटने पर ही आनंद की अनुभूति होना प्रारम्भ होगी। अध्यात्म में 'पर' वस्तु के ग्रहण का भाव ही चोरी माना गया है। ग्रहण का संकल्प पूर्ण हो या न हो, उसके विचार साकार हों या न हों पर मैं ग्रहण करूं इस प्रकार का भाव ही चोरी है। प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व भिन्न है उस अस्तित्व पर हमारा अधिकार संभव नहीं है यह समझना प्रत्येक संसारी प्राणी के लिए अनिवार्य है। भावों में प्रत्येक स्वतंत्र है। लौकिक जेल में रहने वाला भी भाव के माध्यम से निरंतर चोरी कर सकता है। पराई वस्तु पर दृष्टि भले ही जाये पर उसे ग्रहण करने का भाव न हो तो अचौर्य वहाँ पर है। भगवान् की स्तुति करते हुए लिखा है कि सकल जेय ज्ञायक तदपि निजानंद रसलीन। सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि रज रहसविहीन॥ भगवान् ने विश्व को जाना, विश्व के समस्त ज्ञेय रूप पदार्थों को जाना किन्तु आनंद की अनुभूति विश्व में नहीं की, निज में की। आप दूसरे पदार्थों में लीन हैं और समझ रहे हैं कि बहुत सुखी हो गये हैं। हमारा ज्ञान भी सकल न होकर ‘शकल' को जानने वाला है। ‘शकल' का अर्थ है टुकड़ा अर्थात् थोड़ा सा शकल अर्थात् ऊपर का आकार इतना ही हम जानते हैं। यह अपूर्ण ज्ञान भी हमारे लिये भले ही बाहर से संतुष्टि दे लेकिन भीतर संतुष्ट नहीं कर पाता। हमारा ज्ञान और आनंद ऐसा है कि ‘शकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रसलीन'। यही कारण है कि हमारी आत्मा लुटती जा रही है। सत्य जीवन से खोता जा रहा है। सत् का कभी विनाश नहीं होता लेकिन सत् का विभाव रूप परिणमन होना ही सत् का खोना है। जो सत्य का अनुपालन करेगा वह स्तेय-कर्म को नहीं अपनायेगा। जो अपने सत् को पा लेगा वह परायी सत्ता पर अधिकार का भाव क्यों करेगा ? एक-उदाहरण सुना था, यद्यपि वृतांत लौकिक है किन्तु उस लौकिकता के माध्यम से भी पारलौकिक सिद्धांत की ओर दृष्टि जा सकती है। एक व्यक्ति रोगी था। मस्तिष्क का कोई रोग था। बहुत दिन से पीड़ा थी। इलाज के लिए उसने बहुत सा पैसा चोरी, झूठ आदि करके, अन्याय करके एकत्रित किया और अस्पताल में भर्ती हो गया। मस्तिष्क का Operation हुआ। शल्य चिकित्सा अच्छी हुई। मित्रों ने पूछा कि क्यों भाई ठीक हो ? उसने कहा कि पहले से बहुत अच्छा हूँ, बहुत आराम है। अचानक डॉक्टर ने कहा, क्षमा करिये हमने Operation तो ठीक कर दिया पर मस्तिष्क तो बाहर ही रह गया। हालांकि ऐसा संभव नहीं है पर व्यंग जैसा है। तब रोगी कहता है कि कोई बात नहीं उसके बिना भी काम चल जायेगा। क्योंकि मैं सरकारी नौकरी करता हूँ। यह सुनकर-पढ़कर मुझे लगा कि देखो किस तरह हम अपने कर्तव्य से च्युत हो रहे हैं। डॉक्टर और मरीज दोनों सरकारी सेवा में हैं लेकिन कोई अपना कार्य सुचारू रूप से नहीं करता। यह काम चोरी है। इस तरह करने वाला कभी सत्य और अस्तेय दोनों को नहीं पा सकता। ऐसी स्थिति में साहूकार नहीं हुआ जा सकता। आज तो लोग चोरी करते हुए भी स्वयं को साहूकार मान रहे हैं, ज्ञायक और शुद्ध चैतन्यपिण्ड मान रहे हैं जिसमें ‘पर' का किसी प्रकार से भी सद्भाव नहीं है। अंधाधुंध चोरी चल रही है और कह रहे हैं जो कुछ होता है कर्म की देन है, आत्मा बिल्कुल अबद्ध, असंपृक्त और अस्पृष्ट है। आत्मा अपने में है, 'पर' में है, प्रत्येक का द्रव्य भिन्न, स्वभाव भिन्न है। इस प्रकार एकांत से मानना, निर्णय ले लेना क्या ठीक है? क्या यह सच्चाई है? यह तो एक प्रकार की कायरता है। एक प्रकार से पुरुषार्थ विमुख होना है। मानव होकर भी हमारा जीवन 'पर' में चल रहा है। इस प्रकार का जीवन तो तिर्यञ्च भी व्यतीत करते रहते हैं। मात्र जीवन को चलाना नहीं है जीवन अपने आप अनाहत चल रहा है। जीवन को उन्नति की ओर बढ़ाने में ही मानव जीवन की सफलता है। यह सत्य और अचौर्य उन्नति की खुराक है। जीवन तो असत्य से भी चल सकता है, चोरी के साथ भी चल सकता है किन्तु वह जीवन नहीं भटकन है। यदि उन्नति चाहिए, विकास चाहिए, उत्थान चाहिए तो अपनी आत्मा को अपराध से मुक्त करने का प्रयास करना होगा। चाहे कल करो या आज-विकारों से रहित वीतरागता की अनुभूति के बिना सर्वज्ञत्व की प्राप्ति संभव नहीं है। अनादिकाल की पीड़ा तभी मिटेगी। जब हम पाप भाव से मुक्त होकर आत्म-स्वभाव की ओर बढ़ेंगे। पीड़ा सिर्फ इतनी नहीं है कि भूख लग आई या धन नहीं है, मकान दुकान नहीं है। वस्तुत:, पीड़ा यह है कि हमारा ज्ञान अधूरा है और हम समझ रहे हैं कि हम पूर्ण हैं। प्रत्येक व्यक्ति समझता है कि मैं साहूकार हूँ। ठीक है। क्या चोरी के त्याग का संकल्प लिया है? यदि त्याग का संकल्प नहीं है तो ‘पर' के ग्रहण का भाव अवश्य होगा। ‘पर' के ग्रहण का भाव छोड़े बिना कोई साहूकार नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को चोर मान रहा है और स्वयं को साहूकार सिद्ध करता है। यह तो चोर के द्वारा चोर को डांटने जैसा हुआ। अपनी चोरी की गल्ती को पहचान करके उसे छोड़ने का प्रयास करना चाहिए। जिस जीव के चोरी के भाव रहते हैं उसी जीव को चोर कहा जाता है। जिस क्षण छोड़ने के भाव हैं उस क्षण वह साहूकार है। आप चोर से नहीं बल्कि चौर्य भाव से बचिये। पापी से नहीं पाप से घृणा करिये। अनादिकाल से चोरी का कार्य जिसने किया है तो भी यदि आँख खुल गई, अब यदि दृष्टि मिल गयी, ज्ञात हो गया कि अभी तक अनर्थ किया है अब उसे छोड़ता हूँ, अब चोरी से निवृत्ति लेता हूँ तो वह अब चोर नहीं है। आप संसारी कब तक कहलायेंगे? जब तक संसार के कार्य करते रहेंगे। जब उनको छोड़ देंगे, वीतराग बनकर विचरण करेंगे तो मुक्त कहलायेंगे। इसलिए यदि चोर की चोरी छुडानी है तो उसे चोर मत कहो बल्कि उसे समझाओ कि तुम्हारा यह कार्य ठीक नहीं है। तुम्हारा कर्तव्य है कि चोरी से मुक्त होओ। यदि हम उसे डाटेंगे तो सुधारने की संभावना कम है। प्रत्येक समय भावों का परिणमन हो रहा है। संभव है उस समय भय वश वह चोरी के भाव छोड़ दे, बाद में पुन: बड़ा चोर बन जाये। उसे इस तरह कुछ कहा जाये कि वह स्वयं ही चौर्य भाव को बुरा मानकर छोड़ दे। भगवान् महावीर ने हमें यही कहा कि प्रत्येक व्यक्ति में प्रभुत्व छिपा है। जैसा मैं निर्मल हूँ वैसे ही आप भी उज्वल बन सकते हैं, राग का आवरण हटाना होगा। जैसे स्फटिक मणि धूल में गिर जाये और पुन: उसे उठाकर धूल साफ कर दें तो चमकती हुई नजर आयेगी। ऐसी ही हमारी आत्मा है। धूल में पड़ी है, उसे उठाकर चमकाना है। एक बात और ध्यान रखना कि दूसरे को चोर कहने का तब तक हमारा अधिकार नहीं है जब तक हम साहूकार न हो जायें। इस तरह लगेगा कि सारी लौकिक व्यवस्था ही बिगड जायेगी। मैं बाह्य व्यवस्था फेल करने के लिए नहीं कह रहा हूँ बल्कि अपने आप को चोरी से मुक्त करके पूर्ण साहूकार बनने के लिए कह रहा हूँ। मात्र बाहर से नहीं, अंदर आत्मा में साहूकार बनो। जब यह रहस्य एक राजा को विदित हुआ तो वह राजा अपनी सारी सम्पदा व परिवार को छोड़कर जंगल को चले गये। किसी से कुछ नहीं बोले और घने जंगल में जाकर आत्मलीन हो गये। जो ग्रहण का भाव था मन में, वह भी सब राजकीय सत्ता को छोड़ते ही छूट गया। वे सभी से असंपृक्त हो गये। बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिन परिवार के लोगों को उनके दर्शन के भाव जाग्रत हुए और दर्शन करने चल पड़े। संकल्प कर लिया था इसलिए रास्ता कठिन होने पर भी पहुँच गये। चलते-चलते मिल गये मुनि महाराज। देखते ही उल्लास हुआ। बीते दिन की स्मृति हो आयी। पत्नी सोचती है कि देखो वे ही राजा, वही पतिदेव, वही तो हैं 'सब कुछ छोड़ दिया, कोई बात नहीं' जीवित तो हैं। माँ सोचती है मेरा लड़का है अच्छा कार्य कर रहा है। सभी प्रणिपात करते हैं चरणों में। मुनि महाराज सभी को समान दृष्टि से आशीष देते हैं। सभी को इच्छा थी कि कुछ बोलेंगे। पर वे नहीं बोले। सभी ने सोचा कोई बात नहीं मौन होगा। सभी नमोऽस्तु कहकर वापिस चलने को हुए पर आगे रास्ता विकट था इसलिए माँ ने कहा कि महाराज! आप तो मोक्षमार्ग के नेता हैं, मोक्षमार्ग बताने वाले हैं। लेकिन अभी मात्र इस जंगल से सुरक्षित लौटने का मार्ग बता दें। मुनिराज निर्विकल्प रहे और मौन नहीं तोड़ा। मौन मुद्रा देखकर माँ ने सोचा कोई बात नहीं, यही मार्ग ठीक दीखता है और सामने के मार्ग पर चले गये। कुछ दूर बढ़ने के उपरांत एक चुंगी चौकी थी, जो अब डाकुओं के रहने का स्थान बन गया था। राजघराने को देखकर डाकुओं ने रोक लिया और कहा कि जो कुछ भी तुम्हारे पास है वह रखते जाओ। वह माँ, पत्नी, लड़का सभी दंग रह गये, घबरा गये। माँ बोली- अरे! यह तो अन्याय हो गया। अब कहीं भी धर्म नहीं टिकेगा। अब कहीं भी शरण नहीं है। हमने तो सोचा था, हमारा लडका तीन लोक का नाथ बनने जा रहा है वह मार्ग प्रशस्त करेगा, आदर्श मार्ग प्रस्तुत करेगा, दयाभाव दिखायेगा और वही इतना निर्दयी है कि यह भी नहीं कहा कि इस रास्ते से मत जाओ, आगे डाकुओं का दल है। ओहो! काहे का धर्म, काहे का कर्म। धिक्कार है ऐसे पुत्र को। जिसने अपनी माँ के ऊपर थोड़ी भी करुणा बुद्धि नहीं रखी, वह क्या तीन लोक के ऊपर करुणा कर सकेगा। ठीक ही कहा है कि संसार में कोई किसी का नहीं है। डाकुओं का सरदार सारी बात सुनता रहा और अपने साथियों से कहा कि इन लोगों को मत छेड़ो। फिर उस माँ से पूछा कि माँ तू क्या कह रही है ? यह अभिशाप किसे दे रही है। माँ कहती है कि मैं आपके लिए नहीं कह रही हूँ। मैं तो उसके लिए कह रही हूँ जिसे मैंने जन्म दिया, जो यहाँ से कुछ दूरी पर बैठा है वह नग्न साधु। वही था मेरा लड़का। घर छोड़कर आ गया। जब तक घर पर था प्रजा की रक्षा करता था, यहाँ पर आ गया तो माँ को भी भूल गया। थोड़ा भी उपकार नहीं किया। रास्ता तक नहीं बताया कि कौन-सा ठीक है। सरदार सारी बात समझ गया। उसने कहा ‘माँ! हम सभी डाकू अभी इसी रास्ते से आये थे, रास्ते में नग्न साधु मिला था, उसे पत्थर मारकर नंगा कहकर चले आये थे, उस समय भी उसके मुख से वचन नहीं निकले थे। शांत बैठा था। सचमुच वह बड़ा श्रेष्ठ साधु है। हमने गाली दी थी और आप उसकी माँ थी, आपने प्रणिपात किया था चरणों में। उसने हमारे लिए अभिशाप नहीं दिया और आपके लिए वरदान नहीं दिया'। इतना कहकर उस डाकुओं के सरदार ने पहले माँ के चरण छू लिये और बोला कि 'धन्य हो माँ! जो आपकी कोख से इस प्रकार का पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ जिसकी दृष्टि में संसार में सभी के प्रति समान भाव हैं, ऐसे व्यक्ति का मैं अवश्य दुबारा दर्शन करूंगा। जिस व्यक्ति की दृष्टि में समानता आ जाती है वह व्यक्ति सामने वाले वैषम्य भाव को भी श्रद्धा के रूप में परिणत कर देता है। वे सभी डाकू लोग मुनिराज के पास चले गये और नतमस्तक होकर कहा कि हमें भी अपना शिष्य बना लीजिये और समर्पित हो गये। डाकू भी जब रहस्य को समझ लेते हैं तो डाकूपन को छोड़ देते हैं। माँ सोचती है ‘यदि मुनिराज उस समय मुझे रास्ता दिखाते तो ये डाकुओं का दल दिगंबरी दीक्षा नहीं ले पाता। उनका वह मौन, उनकी वह समता दया-शून्य नहीं थी। वह तो समता मुद्रा थी जिसमें प्राणी मात्र के लिए अभय था। 'पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि' अवाक विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं मोक्षमार्ग- वह नग्न दिगंबर मुद्रा ऐसी है जो मौन रहकर भी सारे विश्व को मोक्षमार्ग का उपदेश देती है, सही मार्ग दिखाती है। चोर और साहूकार सभी के प्रति समता भाव जाग्रत होना चाहिए। क्योंकि चोर और साहूकार यह तो लौकिक दृष्टि से हैं। अंदर सभी के वही आत्मा है, वही चेतन है, वही सत्ता है जिसमें भगवान् बनने की क्षमता है। ऊपर का आवरण हट जाये तो अंदर तो वही है। राख में छिपी अग्नि है। राख हटते ही वही उजाला, वही उष्णता है जो विकारों को जला देती है। इस घटना में समझने योग्य है उन मुनिराज की समता, उस माँ की ममता और उन डाकुओं की क्षमता जो जीवन भर के लिए डाकूपने का त्याग कर साधुता के प्रति समर्पित हो गये। डाकू मात्र जंगल में ही नहीं हैं, डाकू यहाँ भी हो सकते हैं। जिसके भीतर दूसरे को लूटने, दूसरे की सामग्री हड़पने या 'पर' को ग्रहण करने का भाव है उसे क्या कहा जायेगा? आप स्वयं समझदार हैं। बंधुओ! समता भाव आये बिना हम महावीर भगवान् को पहचान नहीं पायेंगे। राग की दृष्टि, व्यसन की दृष्टि कभी वीतरागता को ग्रहण नहीं कर सकती। उसे वीतरागता में भी राग दिखाई पड़ेगा लेकिन जिस व्यक्ति की दृष्टि वीतराग बन गयी उसकी दृष्टि में राग भी वीतरागता में ढल जाता है। संसारी जीव यद्यपि पतित है लेकिन पावन बनने की क्षमता रखता है। स्वयं पावन बनकर दूसरों को भी पावन बनने का मार्ग दिखा सकता है। हमारी दृष्टि में समता आ जाये, हमारी परिणति उज्वल हो और इतनी सुंदर हो कि जगत् को भी सुंदर बना सकें। सही दिग्दर्शन करके प्राणी मात्र के लिए आदर्श बना दें। इसके लिए पुरुषार्थ अपेक्षित है, त्याग अपेक्षित है, इसके लिए सहिष्णुता, समता, संयम और तप आवश्यक हैं, अस्तेय महाव्रत समता का उपदेश देता है। चोर को चोर न कहकर उसे साहूकार बनना सिखाता है। यही इसकी उपयोगिता है। इसे अपने जीवन में अंगीकार करके आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
  12. विषय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार यह संसारी प्राणी जितने अच्छे भाव से, प्रमुदित भाव से, विषयों को देखता है, वैसे ही प्रभु को क्यों नहीं देखता? इसका कारण अनन्तकाल का आकर्षण है। स्वप्न में विषयों को तो देखता है लेकिन प्रभु को नहीं देखता, यह सब रुचि पर आधारित है। विषयों के विष से घुला हुआ भोजन क्यों कर रहे हो ? यह प्राणलेवा कलेवा (नास्ता) है। जीना चाहते हो लेकिन विषय रूपी विष पीकर, यह तो पागलपन है, ऐसा तो पागल भी नहीं करता। लेकिन सभी यह कर रहे हैं, इसलिए भव-भव में मृत्यु हो रही है। मनुष्य जीवन के गौरव को, स्वाभिमान को इस प्राणी ने विषयों के कारण मिट्टी में मिला दिया। इस संसार में जो राग का विषय है, वही कुछ समय बाद द्वेष का विषय बन जाता है। जैसे शाम को हवा अच्छी लगती है लेकिन अर्धरात्रि में वही कंपकंपी पैदा कर देती है। एक बात ध्यान रखो विषयों की पूर्ति से कभी भी शांति नहीं मिल सकती। विषयों की ओर जाने वाले व्यक्ति का भविष्य अंधकारमय ही होता है। विषय कषाय में आपादकण्ठ डूबे गृहस्थ को निश्चय धर्म हो ही नहीं सकता। यह संसार पंचेन्द्रिय विषयों से भरा-पूरा जंगल है, इसमें चार हाथ देखकर चलो, इधर-उधर प्रलोभनों की ओर देखा तो भटक जाओगे। यह संसारी प्राणी विष से तो डरता है, लेकिन विष से भी विषैले विषयों से नहीं डरता। वह बाह्य रूप पर मुग्ध हो जाता है, उसे नरक का कूप नहीं दिखता। बिल्ली की भाँति विषय भोग रूपी नवनीत की आस में यह दुनिया अटकी रहती है। दूसरों को देखकर तुम विषयों की ओर क्यों जाते हो ? जरा सोचो थोड़े से समय व सुख के लिए विषयों की इच्छा करना बड़ा अनर्थकारी है। बुखार से पीड़ित व्यक्ति को जैसे घी, तेल, मिर्च, खटाई आदि निषेध है, नुकसानदायक है, वैसे ही व्रती के लिए विषयाभिलाषा अनर्थकारी है। विषय-कषाय मोक्षमार्ग में कुपथ्य है। मोक्षमार्ग में दूसरे के लिए कुछ किया जा सकता, यह एक महान् भूल है। हाँ! भाव अच्छे रख सकते हो दूसरे के प्रति भी ताकि हमारा मन विषयों, कषायों की ओर न जा सके।
  13. विश्वास विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जो विश्वास समय पर सक्रिय हो वही सही विश्वास है। जिसे नरकों के दुखों पर विश्वास नहीं होता वही व्यसन और पाप करता है। मोक्षमार्ग में सबसे पहले विश्वास रखने की बात हुआ करती है। विश्वास की नींव पर ही उन्नति का विशाल महल खड़ा होता है। निराकुल सुख में जिसकी आस्था नहीं है, उसे कभी भी मुक्ति नहीं मिल सकती।
  14. विभाव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार विभाव को हटाना ही स्वभाव को पाना है, विभाव को हटाये बिना स्वभाव का परिचय नहीं हो सकता। विज्ञान स्वभाव को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह विभाव को छोड़ना नहीं चाहता । विकार निकल जाने से सही वस्तु का सही-सही स्वाद आने लगता है। आत्मा के भावों को बाहर लाते समय जीव विभाव रूप परिणमन कर जाता है, इसलिए प्रायश्चित का भागीदार होता है। विभाव भाव ही मद पैदा करते हैं। विभाव ज्ञान हमेशा खतरा पैदा करता है। स्वभाव का श्रद्धान न होने पर विभाव को छोड़ने की बात ही नहीं होती, राग को छोड़ने से पहले राग मेरे अंदर विद्यमान है, ऐसा श्रद्धान करना अनिवार्य है। हमारा स्वभाव वर्तमान में शक्ति के रूप में विद्यमान है, अभिव्यक्ति के रूप में नहीं।
  15. विनय/विवेक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार बाल्यावस्था एक ऐसी अवस्था है, जिसमें हिताहित का विवेक नहीं रहता। युवावस्था उस वन के समान है, जिसमें यदि भटक गये तो रास्ता ही नहीं मिल पाता। श्रावक को भी हंस जैसा श्रोता होना चाहिए, क्षीर, नीर विवेक वाला। त्याग करते समय जल्दबाजी नहीं करो। बल्कि विवेक के साथ ही किसी वस्तु का त्याग करे। भले ही थोड़ा-सा त्याग करो लेकिन विवेक, आस्था दृढ़ता के साथ करिये उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है एवं फल भी अच्छा मिलता है। ड्रायवर गाड़ी अच्छी चलाता हो, लेकिन शराब पीता हो तो उससे खतरा ही समझो। वैसे ही तपस्या बहुत अच्छी हो लेकिन विवेकपूर्वक नहीं हो तो उससे खतरा ही समझो। विवेकशील को थोड़ा-सा भी अभिमान नहीं करना चाहिए, अतिविश्वास कभी भी लाभप्रद नहीं होता। राग कभी भी धर्म नहीं हो सकता, दया भी विवेक के साथ होती है। विनय, विवेक के साथ होती है, इसलिए विनय में भय नहीं होता। विनय में हाथ जुड़े होते हैं और भय में हाथ कांपते हैं। विनय सम्यक दर्शन के साथ रहती है और भय कषाय के साथ रहता है। नय नय है, विनय पुरौधा है मोक्षमार्ग में। विवेक वही है, जिससे दोषों का निराकरण हो। विनय से पाप का घात होता है और सभी प्रकार की कलाएँ प्राप्त हो जाती हैं। प्रायश्चित लेने वाले के पास विनय गुण आ जाता है। सम्यक दर्शन का निर्दोष पालन करना ही सम्यक दर्शन की विनय है। विनय के माध्यम से श्रुतसागर बन जाते हैं और संसार सागर को पार कर जाते हैं। छ: आवश्यकों का पालन करना भी तप की विनय है। गुणाधिक के प्रति यथायोग्य विनय करना हमारी प्रसन्नता को व्यक्त करना है। विनय से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। विवेक के द्वारा दूर और पास के पदार्थों को हम निकट से जान सकते हैं। जीवन में आनंद चाहते हो तो ज्ञान के साथ विवेक का उपयोग कीजिए। इतना ही जानना विवेक है कि दूध में पानी है या पानी में दूध। लोभ से विवेक कुण्ठित हो जाता है। हम जड़ की रक्षा कर रहे हैं या जड़ से हमारी रक्षा हो रही है, इसका निर्णय करना ही विवेक माना जाता है। कौवे (शरीर, जड़) की चाकरी के लिए हंस (आत्मा) को रखा यह अविवेक नहीं तो क्या है ? जो अपने आपको नहीं जान सकता वह सबसे बड़ा जड़ (मूर्ख) माना जाता है। किसी को अपनाने की आवश्यकता नहीं बल्कि जो अपनाया है उसको छोड़ने की आवश्यकता है, बस यही आत्म-पुरुषार्थ कहलाता है। पानी कहीं गया नहीं, उसे खोजने की आवश्यकता नहीं बल्कि खोदने की आवश्यकता है। जो आत्मा पर मोह, कषाय की पर्तें पड़ी हैं, उसे अलग करके चेतन को पाना ही सबसे बड़ा विवेक है। शरीर यदि आज तक शरारत करता रहा तो अपने विवेक की कमी मानी जाती है। हमारे सुख का स्रोत मात्र विवेक है आप जब चाहो तब इस स्रोत को खोल सकते हो। प्रत्येक मानव का लक्ष्य धन कमाना नहीं, बल्कि आत्म धर्म पाना होना चाहिए। विवेक एक ऐसी सम्पदा या प्रकाश है, जिससे हम हमेशा के लिए प्रकाशित हो सकते हैं, मालामाल हो सकते हैं। संसार में संतुष्टि यदि मिल सकती है तो विवेक से ही मिल सकती है। विवेक की उपासना को ही, मैं जीवन की साधना समझता हूँ। विवेक ही जीवन का सार है। आज विज्ञान की आवश्यकता नहीं किन्तु विवेक की आवश्यकता है। विवेक का अर्थ होता है कौन-सा कार्य अहितकारी है, कौन-सा हितकारी है, पूर्वापर विचार करने का नाम विवेक है। विवेकवान् व्यक्ति बाधक को छोड़कर साधक को अपनाने की बात सोचता है। यदि विकास चाहते हो तो सही दिशा में विकास करो, जिस दिशा में विकास की आवश्यकता है, इसी का नाम विवेक है। कार्य निष्पन्न करने के लिए उद्यम के साथ-साथ विवेक की भी आवश्यकता होती है। विवेक का अर्थ ज्ञान नहीं, बल्कि विवेक का अर्थ विशेष सावधानी है। दाता के पास विवेक गुण आ जाता है तो सातों गुण आ जाते हैं। विवेक के अभाव में खेत की सुरक्षा में लगायी गयी बाड़ी ही खेत को खा जाती है। हमारा विवेक समाप्त होने पर ऐसा अनर्थ घट जाता है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। विवेक का अर्थ विभाजन है, कौन? कब ? कहाँ? कैसे ? सावधानी रखना, बोलने में, चलने में, व्यवहार में आदि आदि। जो हमारा नहीं है, उसे हम अपने काबू में रखना चाहते हैं, यह हमारा अपना अविवेक ही है। प्रत्येक कार्य में विवेक दृष्टि रखते हैं तो उसमें संतुष्टि अवश्य मिलती है और उससे अपना हित अवश्य होता है।
  16. आज तक जितने लोगों ने अपनी आत्मा को पवित्र-पावन बनाया है वे सभी सिद्ध भगवान् महान् अपरिग्रह महाव्रत का आधार लेकर आगे बढ़े हैं। उन्होंने मन-वचन-काय से इस महाव्रत की सेवा की है। अपरिग्रह-यह शब्द विधायक नहीं है, निषेधात्मक शब्द है। उपलब्धि दो प्रकार से हुआ करती है और प्ररूपणा भी दो प्रकार से हुआ करती है- एक निषेधमुखी और दूसरी विधिमुखी। परिग्रह के अभाव का नाम अपरिग्रह है। परिग्रह को अधर्म माना गया है। इसलिए अपरिग्रह स्वत: ही धर्म की कोटि में आता है। इस अपरिग्रह धर्म का परिचय, इसकी अनुभूति, इसकी उपलब्धि आज तक पूर्णत: हमने की ही नहीं। क्योंकि जब तक बाधक तत्व विद्यमान हैं साध्य की प्राप्ति संभव नहीं है। जैसे धर्म और अधर्म एक साथ नहीं रह सकते। अंधकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते। इसी प्रकार परिग्रह के रहते हुए जीवन में अपरिग्रह की अनुभूति नहीं हो सकती। परिग्रह को महावीर भगवान् ने पाँच पापों का मूल कारण माना है। संसार के सारे पाप इसी परिग्रह से उत्पन्न होते हैं। हमारा आत्मतत्व स्वतंत्र होते हुए भी, एकमात्र इसी परिग्रह की डोर से बंधा हुआ है। परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति इस ओर इशारा भी करती है जो विचारणीय है। परि आसमन्तात् ग्रहणाति आत्मानं इति परिग्रह: जो आत्मा को सब ओर से घेर लेता है, जकड़ देता है वह परिग्रह है। आत्मा जिससे बंध जाता है उसका नाम परिग्रह है। मात्र बाह्य वस्तुओं के ग्रहण का नाम परिग्रह नहीं है। मूर्छा ही परिग्रह है। बाह्य पदार्थों के प्रति जो अटेचमेन्ट है, लगाव है, उसके प्रति रागानुभूति है, उसमें जो एकत्व की स्थापना का भाव है वह परिग्रह है। जहाँ आप रह रहे हैं वहीं पर अहन्त परमेष्ठी भी हैं, साधु परमेष्ठी भी हैं। वहीं पर पुनीत आत्माएँ रह रही हैं। किन्तु वही स्थान आपके लिए दुख का स्थान बन जाता है और वही उन आत्माओं के लिए जरा भी प्रभावित नहीं करता, सुख-दुख का कारण नहीं। वास्तव में, पदार्थ दुख-सुख का कारण नहीं है। अपितु उसके प्रति जो मूर्छा-भाव है, जो ममत्व है वही दुख का कारण है। इसी का नाम परिग्रह है। विशालकाय हाथी को कोई बाँध नहीं सकता। वह स्वयं बंध जाता है, उसकी मूर्छा उसे स्वयं बंधन में डाल देती है। इसी प्रकार तीन लोक को जानने की अनन्त-शक्ति और अनन्तआलोक जिस आत्मा के पास विद्यमान है वह आत्मा भी मूर्छित है, सुप्त है जिससे उसकी वह शक्ति कुंठित हो रही है। आप चार पापों के प्रति अत्यन्त सावधान हैं। आप हिंसा से परहेज करते हैं, झूठ से बचते हैं, 'चोरी नहीं करूंगा' ऐसा संकल्प ले सकते हैं और लौकिक ब्रह्मचर्य के प्रति भी आपकी स्वीकृति है किन्तु परिग्रह को आप विशेष रूप से सुरक्षित रखे हुए हैं। वह पाप मालूम ही नहीं पड़ता। आज हिंसा करने वाले का कोई आदर नहीं करता, झूठ बोलने वाले, चोरी करने वाले का अनादर ही होता है, लेकिन परिग्रही का आज भी आदर हो रहा है। जितना परिग्रह बढ़ता है वह उतना ही बड़ा आदमी माना जा रहा है, जो कि धर्म के लिए सत्य नहीं है। धर्म कहता है कि परिग्रह का समर्थन सारे पापों का समर्थन है। आप धर्म चाहते हैं किन्तु परिग्रह को छोड़ना नहीं चाहते। इससे यही प्रतीत होता है कि आप अभी धर्म को नहीं चाहते। धर्म तो अपरिग्रह में है। मूर्छा रूपी अग्नि के माध्यम से आपकी आत्मा तप्त है, पीड़ित है और इसी के माध्यम से कर्म के बंधन में जकड़ा हुआ है। आत्मा की शक्ति इसी के कारण समाप्त प्राय: हो गयी है। वह अनंत शक्ति पूर्णत: कभी समाप्त तो नहीं होती लेकिन मूर्छा के कारण सुप्त हो जाती है। जैसे आकाश में बादल छा जाते हैं तो सूर्य ढक जाता है। प्रकाश तो होता है, दिन उग आता है लेकिन सूरज दिखायी नहीं पड़ता। इसी प्रकार मूर्छा के बादलों में ढका आत्मा दिखायी नहीं देता। आत्मदर्शन के लिए स्वयं को परिग्रह से मुक्त करना अनिवार्य है। दिखता है बाहर से कि आप परिग्रह से नहीं चिपके किन्तु अंदर से कितने चिपके है यह आप स्वयं समझते हैं। लगभग पंद्रह-सोलह वर्ष पुरानी घटना है। मैं एक आम वृक्ष के नीचे बैठा था। वृक्ष में आम लगे हुए थे। बच्चे आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंक रहे थे। मैं भी उस समय बच्चों के साथ हो गया। गृहस्थ अवस्था की बात है, एक-एक करके कई पत्थर फेंक दिये किन्तु आम नहीं गिरे, आम की एक कोर टूटकर गिर गई। यह शायद आम की ओर से सूचना थी कि मैं इस प्रकार टूटने वाला नहीं हूँ। फिर जिसने भी पत्थर फेंका, एक कोर ही आ गयी पर पूरा आम कोई भी नहीं टूटा। पर्याप्त था मेरे लिए यह बोध जो उस आम की ओर से प्राप्त हुआ। बाहरी पदार्थों के प्रति अंतरंग में जितनी गहरी मूर्छा होगी, हमारी पकड़ भी उतनी ही मजबूत होगी। पदार्थों को छोड़ना उतना ही मुश्किल होगा। पदार्थ कदाचित् हटा भी लिये जायें तो भी हमारा मन वहीं जाकर चिपक जायेगा। तो पहली बात यही है कि भीतरी पकड़ ढीली पड़नी चाहिए। थोडी देर जब मैं उसी वृक्ष के नीचे रुका तो उसी समय थोड़ा-सा हवा का झोंका आया और एक पका हुआ आम आकर नीचे चरणों में गिर गया। उसकी सुगंधि फैलने लगी, हरा नहीं था वह पीला था, कड़ा नहीं था मुलायम था, चूसकर देखा तो वह मीठा भी था। आनंद की अनुभूति हुई। मैं सोचने लगा कि इस आम को गिरने के लिए हवा का झोंका भी पर्याप्त था क्योंकि यह वृक्ष से जो संबंध था उसे छोड़ने के लिये तैयार हो गया। आपने कभी अनुभव किया कि उस आम ने वृक्ष से सब बंधन तोड़ दिये। ऊपर से दिखता था कि सम्बन्ध जुड़ा हुआ है किन्तु जरा सा इशारा पाकर वह वृक्ष से पृथक् हो जाता है। तो दूसरी बात यह मिली कि जो जितना भीतर से असम्पृक्त होगा वह बाहर से जुड़ा होकर भी इशारा पाते ही मुक्त हो जायेगा। इस तरह जब कोई मुक्त होता है तो उसकी सुगध, उसकी मिटास आनन्ददायक होती है। यह तो समय पर एकाध आम पकने की घटना हुई। लेकिन पकने की योग्यता आते ही पूर्णत: पकने से पूर्व यदि कोई होशियार माली उन्हें सावधानी से तोड़ लेता है तो भी उसे पाल में आसानी से पकाया जा सकता है। आप समझ गये सारी बात, पर भइया डरो मत, मैं जबर्दस्ती आपको पकाने की बात नहीं कहूँगा। आपका डण्ठल अभी मजबूत है। इतना अवश्य है कि अपरिग्रह की बात समझ में आ जाये तो संभव है। कुछ समय में पक सकते हैं। अर्थात् पदार्थों के प्रति मूर्छा कम होने के उपरांत यदि उन्हें छोड़ दिया जाए तो भी छूटना संभव है। समय से पहले भी यह घटना घट सकती है। अविपाक निर्जरा के माध्यम से साधक इसी प्रकार समय से पूर्व कर्मों को झड़ा देता है, और परिग्रह से मुक्त होकर मोक्षमार्गी होकर आत्म-कल्याण कर लेता है। आप लोगों ने अपनी निजी सत्ता के महत्व को भुला दिया है। इसी कारण निधि होते हुए भी लुट गयी है। आप आनंद की अनुभूति चाहते हैं लेकिन वह कहीं बाहर से मिलने वाली नहीं है। वह आनंद, वह बहार अपने अंदर है। बसंत की बहार बाहर नहीं है वह अंदर ही है। लेकिन जो अंधा हो उसे चारों ओर बहार होते हुए भी दिखायी नहीं देती। उपयोग में जो एक प्रकार का अंधापन छाया है, मूर्छा छायी है वह मूर्छा टूट जाये तो वहीं पर बसंत बहार है। आत्मा का आनंद वहीं पर है। एक किवदंती है। एक बार भगवान् ने भक्त की भक्ति से प्रभावित होकर उससे पूछा कि तू क्या चाहता है? भक्त ने उत्तर दिया कि मैं और कुछ अपने लिए नहीं चाहता। बस यही चाहता हूँ कि दुखियों का दुख दूर हो जाये। भगवान् ने कहा 'तथास्तु। ऐसा करो जो सबसे अधिक दुखी है उसे यहाँ लेकर आना होगा।” भक्त ने स्वीकार कर लिया। भक्त बहुत खुश था कि इतने दिनों की भक्ति के उपरांत यह वरदान मिल गया। बहुत अच्छा हुआ, अब मैं एक-एक करके सारी दुनियाँ को सुखी कर दूँगा। भक्त, दुखी की तलाश करता है। एक-एक व्यक्ति से पूछता जाता है। सब यही कहते हैं कि और तो सब ठीक है बस एक कमी है। कोई पुत्र की कमी बताता, तो कोई धन की, कोई मकान या दुकान की कमी बता देता है पर पूर्ण कमी है ऐसा किसी ने नहीं बताया। चलते-चलते उसने देखा कि एक कुत्ता नाली में पड़ा तड़प रहा है, वह मरणोन्मुख है। उसने जाकर पूछा कि क्यों, क्या हो गया है? कुत्ता कहता है कि मैं बहुत दुखी हूँ। भगवान का भजन करना चाहता हूँ। भक्त ने सोचा यह सचमुच बहुत दुखी है। इसे ले चलना चाहिए। उसने कुत्ते से कहा कि तुम दुख से मुक्ति चाहते हो तो चलो, तुम स्वर्ग चलो वहाँ पर सुख ही सुख है। मैं तुम्हें वहाँ ले चलता हूँ। कुत्ते ने कहा बहुत अच्छा। पर यह तो बताओ कि वहाँ क्या-क्या मिलेगा? सभी सुख सुविधाओं के बारे में पूछने के उपरांत कुत्ते ने आश्वस्त होकर कहा कि ठीक है चलते हैं किन्तु एक बात और पूछनी है कि स्वर्ग में ऐसी नाली मिलेगी या नहीं। भक्त हँसने लगा और कहा कि ऐसी नाली स्वर्ग में नहीं है। तब फौरन कुत्ता बोला कि नाली नहीं है तो फिर क्या फायदा! मुझे यहीं रहने दो, यहाँ ठंडी-ठंडी लहर आती है। अब विचार करिये। कैसी यह मूर्छा है? पाप-प्रणाली अर्थात् पाप रूपी नाली को कोई छोड़ना नहीं चाहता। सबके मुख से यही वाणी सुनने को मिलती है कि यहाँ से छुटकारा मिल जाये पर मांग यही है कि हम यहीं पर बने रहें। सभी सुख चाहते हैं लेकिन परिग्रह छोड़ना नहीं चाहते। आचार्यों ने विद्वानों ने सभी ने कहा है कि 'घर कारागृह, वनिता बेड़ी, परिजन हैं रखवारे' घर कारागृह है, गृहिणी बेड़ी है, बंधन है और जो परिवार जन हैं वे रखवाले हैं। आप कहीं जायें तो वे पूछ लेते हैं कि कहाँ जा रहे हैं आप ? कब तक लौटेंगे ? इस प्रकार का यह मोह जाल है, उसमें आत्मा जकड़ती चली जाती है और जाल में फंसकर जीवन समाप्त होता जाता है। मूर्छा का उदाहरण रेशम का कीड़ा है। जो अपने मुख से लार उगलता रहता है और उस लार के माध्यम से वह अपने शरीर को स्वयं आवेष्टित करता चला जाता है। वह लार रेशम की तरह काम आती है जिसके लिए रेशम के कीड़े को जिन्दगी से हाथ धोना पड़ता है। यह उसकी ही गलती है, उसका ही दोष है। वह चाहे तो उससे बाहर आ सकता है लेकिन लार इकट्ठी करने का मोह नहीं छूटता, और जीवन नष्ट हो जाता है। संसारी आत्मा भी प्रत्येक समय रागद्वेष मोह, मद, मत्सर के माध्यम से स्वयं के परिणामों को विकृत बनाता रहता है जिसके फलस्वरूप अनंत कर्म वर्गणाएँ आकर चिपकती चली जाती हैं और यह बंधन की परम्परा अक्षुण्ण चलती रहती है। आत्मा को न कोई दूसरा सुखी बना सकता है, न कोई दूसरा इसको दुखी बना सकता है। यह स्वयं ही अपने परिणामों के द्वारा सुखी बन सकता है और स्वयं ही दुखी बना हुआ है। यह अजर है, अमर है, इसे मिटाने वाला कोई नहीं है। यह चाहे तो रागद्वेष, मोह को मिटाकर अपने संसार को मिटा सकता है और अपने शाश्वत स्वभाव में स्थित होकर आनंद पा सकता है। यह संभाव्य है। उन्नति की गुंजाइश है। किन्तु उन्नति चाहना बहुत कठिन है। आप प्रत्येक पदार्थ को चाह रहे हैं किन्तु निजी पदार्थ की चाह आज तक उद्धृत नहीं हुई। मोह की मूर्छा बहुत प्रबल है। पर ध्यान रहे मोह जड़ पदार्थ है और आप चेतन हैं, मोह आपको प्रभावित नहीं करता किन्तु आप स्वयं मोह से प्रभावित होते हैं। आत्मा की अनंत शक्ति को जागृत करके आप चाहें तो अतीत में बंधे हुए मोह कर्म को क्षणभर में हटा सकते हैं। आप सोचते हैं कि कर्म तो बहुत दिन के हैं और इनको समाप्त करना बहुत कठिन है, तो ऐसा नहीं है। एक प्रकाश की किरण अनंतकाल से संचित अंधकार को मिटाने के लिए पर्याप्त है। 'मोह' बलवान नहीं है यह आपकी कमजोरी है, "मन के हारे हार है मन के जीते जीत।" आप कमजोर पड़ जाते हैं तो कर्म बलवान मालूम पड़ने लगते हैं। आपके मकान की दीवार से हवा टकराती हुई जा रही है किन्तु कोई असर नहीं होता। यदि उस दीवार पर आप थोड़ी सी चिकनाहट लगा लें तो वहाँ हवा के साथ आयी हुई धूलि चिपकना प्रारम्भ हो जायेगी। यह ऐसा क्यों हुआ ? तो चिकनाहट के कारण हुआ। इसी प्रकार हमारे परिणामों की विकृति के कारण नित्य नये कर्म आते रहते हैं और परम्परा चलती रहती है। हम यदि अपने भावों की संभाल करें तो इस संतति को तोड़ सकते हैं। तेली के बैल को कोल्हू से बाँध दिया जाता है, आँखें बंद कर दी जाती हैं। बैल सोचता रहता है कि सुबह से लेकर शाम हो गयी मेरा सफर चल रहा है, शाम को कोई अच्छा स्थान मिल ही जायेगा, बहुत चल चुका हूँ पर शाम को जब पट्टी हटती है तब ज्ञात होता है कि मैं तो वहीं पर हूँ, जहाँ सुबह था। इसी प्रकार हमारी दशा है। यदि सावधान नहीं होंगे तो मोह की परम्परा कोल्हू के बैल की तरह निरंतर चलती रहेगी और हम संसार में वहीं के वहीं घूमते रह जायेंगे। अगर गौर से देखें तो अर्जित कर्म बहुत सीमित हैं और संकल्प अनन्त हैं। तेरे-मेरे का संकल्प यदि टूट जाये तो कर्म हमारा बिगाड़ नहीं कर सकते। तूने किया विगत में कुछ पुण्य पाप, जो आ रहा उदय में स्वयमेव आप। होगा न बंध तबलों जबलों न राग, चिंता नहीं उदय से बन वीतराग। अज्ञान दशा में मोह के वशीभूत होकर जो कर्म किया है उसका उदय चल रहा है किन्तु उदय मात्र अपने लिए बंध कारक नहीं है अपितु उदय से प्रभावित होना हर्ष विषाद करना हमारे लिए बंधकारक है। उस उदय से प्रभावित होना हमारी कमजोरी है। यदि हम उदय से प्रभावित न हों तो उदय आकर जा रहा है। मोह का कार्य भोगभूमि की जुड़वा संतान जैसा है। जब तक मोह सत्ता में है तब तक उसका कोई प्रभाव उपयोग पर नहीं है। किन्तु जब उदय में आता है उस समय रागी-द्वेषी संसारी प्राणी उससे प्रभावित हो जाता है। इसलिए वह अपनी संतान छोड़कर चला जाता है। भोगभूमि काल में पल्योपम आयु तक स्त्री-पुरुष जोड़े भोग में लगे रहते हैं किन्तु संतान की प्राप्ति नहीं होती। अंत में मरण से पूर्व में नियम से जुड़वा संतान छोड़ कर चले जाते हैं। यह क्रम चलता रहता है। जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश इतना ही संक्षेप में है कि राग करने वाला बंधन में पड़ता है और द्वेष करने वाला भी बंधन को प्राप्त होता है किन्तु वीतरागी को कोई बाँध नहीं सकता। सुख-दुख मात्र मोहनीय कर्म की परिणति है। मोह के कारण ही हम स्वयं को सुखी दुखी मान लेते हैं। मैं सुखी दुखी मैं रंक राव। मेरे गृह धन गोधन प्रभाव। मेरे सुप्त तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण। यह अज्ञानता ही संसार का कारण है। जीव रंक राव आदि रूप नहीं है फिर भी इस रूप स्वयं को मानता चला जा रहा है। ‘पर' में सुख मानना ही परिग्रह को अपनाना है और ‘स्व' में सुख मानना ही परिग्रह से मुक्त होना है। अरब देश से एक बार कुछ श्रीमान यहाँ भ्रमण हेतु आये। ऐसा कहीं किसी से सुना था। वे यहाँ किसी रेस्ट हाउस में ठहर गये। वहाँ उनका सब प्रकार का प्रबंध था। गर्मी का मौसम था इसलिए दिन में तीन बार भी स्नान की व्यवस्था थी। अरब देशों में पानी की बड़ी कमी रहती है। यहाँ इतना पानी देखकर एक व्यक्ति को उनमें से बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने टोंटी को थोड़ा घुमाया तो तेजी से पानी आता देखकर सोचने लगा कि अरे! यह तो बहुत अच्छा है। टोंटी से पानी आता है। उसने नौकर को बुलाकर पूछा कि ऐसी टोंटी और मिल जायेंगी। नौकर ने कहा कि हाँ मिल जायेंगी। पर आप क्या करेंगे ? व्यक्ति बोला पानी के काम आयेगी। नौकर समझ गया कि यह व्यक्ति धोखे में है। उसने कहा कि टोंटी मंहगी मिलेगी, हमारे पास और भी हैं पर प्रत्येक का सौ रुपया लगेगा। उस व्यक्ति ने दस बीस टोंटी खरीद कर रख लीं। रात में जब सब साथी सो गये तो उसने चुपके से एक टोंटी निकाली और उसे घुमाया पर उसमें से पानी नहीं निकला। सोचने लगा कि बात क्या हो गयी। दूसरी टोंटी को परखा फिर वही बात। एक-एक करके सारी टोंटियाँ परख लीं पर पानी किसी में से नहीं आया। एक व्यक्ति पास में लेटा-लेटा सब देख रहा था। उसने कहा कि यह क्या पागलपन कर रहे हो ? वह व्यक्ति बोला कि मेरे साथ धोखा हो गया। टोंटी में से पानी आता देखकर मैंने सोचा कि अपने यहाँ पानी की कमी है, टोंटी खरीद लें तो वहाँ पर पानी ही पानी हो जायेगा। तब उस व्यक्ति को समझाया उसके साथी ने कि भइया! टोंटी में पानी थोड़े ही है पानी तो टंकी में था। उसी में से उसमें आ रहा था। पानी इसमें नहीं है इसमें से होकर आता है। इसी प्रकार सुख इस शरीर में नहीं है, बाहरी किसी सामग्री में नहीं है। आप टोंटी वाले की अज्ञानता पर हंस रहे हैं। आपने भी तो टोंटियाँ खरीद रखी हैं इस आशा से कि उनसे सुख मिलेगा। प्रत्येक व्यक्ति ने कुछ न कुछ खरीद रखा है और उसके माध्यम से सुख चाहता है। शान्ति चाहता है। मकान एक टोंटी, फ्रिज एक टोंटी। आप लोगों ने टोंटियाँ खरीदने में ही जीवन व्यतीत कर दिया। इनमें से सुख थोड़े ही आने वाला है यदि आता तो आ जाता आज तक। आप दूसरे के जीवन की ओर मत देखो। हमारा अपना जीवन कितना मोहग्रस्त है यह देखो। सुख अपने भीतर है। सुख इन बाह्य वस्तुओं (टोंटियों) में नहीं है। सुख का सरोवर अंदर लहरा रहा है उसमें कूद जाओ तो सारा जीवन शांत और सुखमय हो जाये। अंत में मैं आपको यही कहना चाहूँगा कि यह स्वर्णिम अवसर है मानव के लिए, उन्नति की ओर जाने के लिए, आप सब बाह्य उपलब्धियों को छोड़कर एक बार मात्र अपनी निज सत्ता का अनुभव करें इसी से सुख और शन्ति की उपलब्धि हो सकती है। दुनियाँ में अन्य कोई भी वस्तु सुख-शान्ति देने वाली नहीं है। सुख-शान्ति का एकमात्र स्थान परिग्रह से रहित आत्मा है।
  17. विवाह विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार विवाह संसार की वृद्धि में मूल कारण है। विवाह संतान की उत्पति के लिए, कुल परम्परा चलाने के उद्देश्य के लिए होना चाहिए, वासना की पूर्ति के लिए नहीं, वरन् संसार की परम्परा कभी समाप्त नहीं होगी | एक बच्चे (चारुदत्त) को विवाहित करने के चक्कर में शौच कूप तक भेज दिया, यह है, मोही बंधुओं की दशा।
  18. व्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पाँच पापों का त्याग किए बिना व्रती नहीं बन सकते। विरति दो प्रकार की होती है, सकल विरति और देशव्रती। देशव्रती श्रावक का धर्म है और सकलव्रती होना मुनि धर्म है। एक व्यक्ति व्रती बन जाता है तो सारा परिवार प्रासुक/सात्विक हो जाता है। इससे जीवन में, परिवार में व्रत पलने लगता है, फिर आत्मा की बात रुचने लगती है। जिनके यहाँ सात्विक जीवन बना रहता है, उनके परिवार में व्रती आते रहते हैं। व्रत पालना विश्वास के साथ होता है, उसी विश्वास का नाम सम्यग्दर्शन है। विश्वास की कमी होने से व्रतों में कमी आ जाती है। हमारा जीवन संयत और संतुलित रहे तभी लक्ष्य प्राप्त होगा। व्रत ऐसा पक्का होना चाहिए जैसे कपड़े पर लगा पक्का रंग,जो कपड़ा फटने के बाद भी रहता है, उड़ता नहीं। व्रतियों को हमेशा अशुचि भावना का चिंतन करना चाहिए। व्रत पालन करने के लिए दृढ़ श्रद्धान की आवश्यकता होती है। सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन सुरक्षित हो तभी विरति सार्थक है। व्रती हमेशा माया, मिथ्या और निदान रूप तीनों शल्यों से रहित होता है। सम्यक दर्शन के अभाव में पाँच पापों का त्याग सम्यकचारित्र नहीं कहलाता। श्रावक के १२ व्रत होते हैं, जब उन्हें अंगीकार करता है, तभी वह व्रती माना जाता है। एक पाप के त्याग करने से व्रती संज्ञा को प्राप्त नहीं हो सकता। व्रत के बिना समितियों का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि व्रत की रक्षा के लिए समिति होती है। व्रत होने के बाद भी मैं व्रती हूँ, इस प्रकार का विकल्प नहीं रहता, इसका नाम निश्चय व्रत है, जो कि शुभाशुभ रागादि विकल्प से रहित होता है। व्रतों में दृढ़ रहना, सदाचार का पालन करना और तत्वों का चिन्तन करना धर्म-ध्यान का लक्षण है। प्रायश्चित के बिना व्रतों का कोई महत्व नहीं होता।
  19. वंदना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार द्रव्य वंदना के साथ मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति जुड़ी रहती है, भाव वंदना में कोई क्रिया नहीं होती। भाव वंदना शुद्धभाव के साथ शांत बैठकर की जाती है। सामायिक के समय शुद्ध स्तवन, वंदना का अवसर मिलता है।
  20. वह ज्ञान जयवंत रहे जिस ज्ञान में तीन लोक और तीन लोक में विद्यमान विगत, अनागतवर्तमान पर्यायों सहित समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित हो रहे हैं। जिस प्रकार दर्पण के सामने जो भी पदार्थ आ जाता है, वह उसमें प्रतिबिंबित होता है, उसी प्रकार केवलज्ञान में तीन लोक का प्रतिबिंब अनायास आ जाता है। संसारी जीव के पास भी ज्ञान है किन्तु उसमें सकल चराचर पदार्थ प्रतिबिंबित नहीं होते। ज्ञान होते हुए भी इतना भारी अंतर होने का एक ही कारण है कि संसारी जीव का ज्ञान आवरित है। कषाय की कालिमा से आविष्ट है। जैसे दर्पण है लेकिन उस पर कालिमा हो तो प्रतिबिंबित होने की सामथ्र्य होते हुए भी पदार्थ प्रतिबिंबित नहीं हो सकते। इसी प्रकार संसारी प्राणी का ज्ञान अपना सही कार्य नहीं कर पाता। कई बार ऐसा होता है कि आप किसी व्यक्ति से कोई गूढ़ बात समझने जाते हैं और वह क्रोधित हो जाता है तो आप दोबारा नहीं पूछते। यदि कोई दूसरा उस समय पूछने जा रहा हो तो उसे भी आप रोक देते हैं और कहने मैं आ जाता है कि वह व्यक्ति आपे में नहीं है। कषाय से आवेष्टित जो ज्ञान-विज्ञान है, वह हमें सही-सही कुछ नहीं बता सकेगा। कोई व्यक्ति बहुत दातार है, उदार है किन्तु जिस समय वह किसी उलझन में फँसा हुआ हो उस समय उसके पास कोई भी दीन हीन जायेगा तो खाली हाथ लौटना पड़ेगा। कुछ पाना उस समय संभव नहीं है। ऐसे समय में यदि याचक उस दातार के संदर्भ में कहे कि कैसा दातार है, काहे का दातार है। तब अन्य लोग उसे समझाते हैं कि दाता तो वह है, पर आप उचित समय नहीं पहुँचे। आप उस समय पहुँचे जब वह उलझन में था। वह अपने में नहीं था। रणांगण में कोई दानवीर राजा दान नहीं कर सकता। सही समय पर और सही क्षेत्र पर जाओ तभी दान मिलता है अन्यथा नहीं। अर्थ यह हुआ कि जब कोई अपने स्वभाव से च्युत रहता है उस समय उसका ज्ञान अपने लिए भी हानिकारक हो जाता है। उस समय जीव का ‘उपयोग' लक्षण होते हुए भी सही-सही कार्य नहीं करता। दुख का मूल कारण यही है। जीव उपयोगवान होकर भी, अमूर्त स्वभाव वाला होकर भी वर्तमान में उस स्थिति में नहीं है। कर्म जब बंधता है उस समय आत्मा किस रूप में रहती है? कई लोगों का ऐसा सोचना है कि कर्म, कर्म से बंधता है, आत्मा तो अमूर्त है। इसलिए आत्मा से तो कर्म बंधता नहीं है। अमूर्त का मूर्त से बंधन भी कैसे संभव है? इससे ज्ञात होता है कि अभी लोगों को आत्मा अमूर्त है या मूर्त, उस बारे में सही-सही ज्ञान नहीं है। कई लोग तो ऐसी धारणा बना चुके हैं कि हम तो अमूर्त हैं और कर्म, कर्म के साथ बंधन को प्राप्त हो रहा है। उदाहरण भी दिया जाता है जैसे गाय के गले में रस्सी। गाय, अपने आप में पृथक् है और रस्सी, रस्सी में बँधी है। किन्तु यह उदाहरण सही-सही कर्मबन्ध को प्रस्तुत नहीं करता क्योंकि कर्म और आत्मा के बीच ऐसा सम्बन्ध नहीं है। आचार्यों ने इसके समाधान में यह कहा है कि आत्मा वर्तमान में अमूर्त नहीं है। जीव जब तक संसार दशा में रहेगा, तब तक वह मूर्त रहेगा। मूर्तता की अनेक श्रेणियाँ हैं। आत्मा बहुत सूक्ष्म है, कर्म भी सूक्ष्म हैं क्योंकि देखने में नहीं आते। पर दोनों के बीच ऐसी रासायनिक प्रक्रिया हुई है कि कर्म मूर्त होकर भी आत्मा के साथ बंधे हैं। आत्मा के साथ जो कर्म का बंधन है वह क्षेत्रावगाह है। बंधे हुए जो कर्म हैं उनकी सत्ता अंदर है, उनके साथ कर्म का बंध नहीं होता और उदय में आये हुए कर्म के साथ भी बंध नहीं हुआ करता। बंध की प्रक्रिया आत्मा के उपयोग के साथ आत्मा के प्रदेशों के साथ जुड़ी हुई है क्योंकि उदय में आया हुआ कर्म फल देकर चला जाता है और सत्ता में जो कर्म हैं उनके साथ स्थिति, अनुभाग आदि सभी पृथक् रूप से पूर्व में बंधे हैं, उनके साथ बंध नहीं होता। इतना अवश्य है कि सभी नये-पुराने कर्म अपना आत्मा से अलग अस्तित्व रखते हुए भी एक क्षेत्र में रह सकते हैं, रहते भी हैं। इस तरह आत्मा की मूर्तता अलग प्रकार की है। मूर्त होने के कारण ही कर्मों का बंध निरंतर प्रत्येक समय हो रहा है। आत्मा, पुद्गल के समान रूप, रस, गंध, स्पर्श गुण वाला नहीं है, फिर भी मूर्त है। अनादिकाल से वैभाविक परिणमन की अपेक्षा मूर्त है। इसके लिए एक उदाहरण है। शुद्ध पारा होता है, उसे आप हाथ से या चिमटी आदि किसी चीज से पकड़ नहीं सकते। उस पारे की यदि भस्म बना दी जाये तो वह सहज ही पकड़ में आने लगता है। अब वह पारा, पारा होते हुए भी एक तरह से पारा नहीं रहा, वह भस्म हो गया। पारा अपना स्वभाव छोड़कर विकृत या विभाव रूप में परिणत हो गया। यह भस्म यदि खटाई का संयोग पा जाये तो पुन: पारे में परिणत हो जाती है। पारे की भस्म दवा के रूप में रोग के इलाज में काम आती है। लेकिन शुद्ध पारे का एक कण भी मृत्यु का कारण बन सकता है। यहाँ शुद्ध पारे को जो कि पकड़ में नहीं आता, हम कथंचित् अमूर्त मान सकते हैं और पारे की भस्म जो कि पकड़ में आ जाती है उसे मूर्त मान सकते हैं। आत्मा की यही स्थिति है। आत्मा शुद्ध पारे के समान शुद्ध दशा को जब प्राप्त कर लेती है तब पकड़ में नहीं आती, उस समय वह अपने अमूर्त स्वभाव में स्थित है। लेकिन जब आत्मा पारे की भस्म के समान अशुद्ध दशा में रहती है, विकृत या वैभाविक दशा में रहती है तब वह मूर्त ही मानी जाती है। पकड़ में आ जाती है। इसलिए जो आत्मा को सर्वथा अमूर्त मानकर ऐसी धारणा बना लेते हैं कि कर्म, कर्म से बंधता है, उनकी यह धारणा गलत साबित होती है, आगम के विरुद्ध भी है। आगम में करणानुयोग में लिखा है कि आत्मा से कर्म बंधता है। ‘आत्म-कर्मणो: अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बंध:।' बंध की प्रक्रिया आत्मा और कर्म के बीच ही हुई है। दोनों के प्रदेश एकमेक हुए हैं। यह ठीक है कि आत्मा कर्म के साथ बंधकर भी अपने गुणधर्म को नहीं छोड़ती। आत्मा के साथ कर्मबन्ध होना वैभाविक आत्मदशा है, जिससे वह कर्म के माध्यम से पकड़ में आती रहती है। यदि कर्म के साथ कर्म का बंध होता, तो कर्म का फल आत्मा को नहीं मिलता। ध्यान रहे कर्म भोक्ता नहीं है, भोक्ता आत्मा है क्योंकि वह चेतन है। भोगने की क्रिया संवेदन पूर्वक ही हुआ करती है। कर्म फल का जो संवेदन आत्मा करती है वह अमूर्त नहीं अपितु मूर्त होता है। संवेदन से तात्पर्य फल की अनुभूति से है। संवेदन का अर्थ मात्र जानना-देखना नहीं है। मात्र जानने-देखने रूप चेतना तो सिद्ध परमेष्ठी के होती है। यहाँ उसका सवाल नहीं है किन्तु फल की अनुभूति रूप संवेदना मूर्त अवस्था में ही होना संभव है। यही आत्मा का विपरीत परिणमन है। आत्मा का स्वभाव-परिणमन शुद्ध पारे के समान है और विभाव-परिणमन पारे की भस्म के समान है जो कि पकड़ में आ जाती है। वर्तमान में आत्मा अमूर्त नहीं है मूर्त है किन्तु अमूर्त बन सकता है। अमूर्त बनने की प्रक्रिया बहुत आसान है। जैसे पारे की भस्म की खटाई का योग मिल जाने से वह पुन: पारा बन जाती है उसी प्रकार आप लोगों को भी वीतराग रूप खटाई का योग मिल जाये तो आप भी मूर्त से अमूर्त बन सकते हैं। जो अपने अमूर्त स्वभाव को प्राप्त करना चाहता है उसे वीतरागता का संयोग करना होगा। कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध बड़ा अद्भुत है। जिस समय यह संसारी प्राणी-एक गति से दूसरी गति में जाता है उस समय विग्रह गति में कार्मण-काययोग रहता है। उस समय आत्मा का कुछ जोर नहीं चलता, कर्म ही आत्मा को इस गति से उस गति में ले जाता है। यदि कर्म का मात्र कर्म से ही संयोग होता तो आत्मा को न ले जाकर कर्म को ही कर्म के साथ जाना चाहिए था। नरक कौन जाना चाहता है भैया। जाना तो कोई नहीं चाहता किन्तु नरकायु का बंध होने के उपरान्त जाना पड़ता है। कर्म के पास यह शक्ति है। यदि कर्म, कर्म के साथ बंधता और आत्मा से बिल्कुल पृथक् रहता तो आत्मा को चारों गतियाँ में नहीं ले जा सकता। जब रस्सी को खींचते हैं तो गाय साथ में चली आती है। यदि रस्सी मात्र रस्सी से बँधी होती तो गाय पृथक् रही आती और खींचने पर केवल रस्सी खीच पाती। लेकिन गाय नहीं भी जाना चाहे तो भी रस्सी से बँधी होने के कारण खिची चली जाती है। रस्सी से रस्सी की गांठ लगी है किन्तु गाय खिची चली जाती है। यह बंध की प्रक्रिया अनोखी प्रक्रिया है। संसारी प्राणी बंध को नहीं चाहता लेकिन बंधन के साधन अपनाता चला जाता है, यही उसका सबसे बड़ा अपराध है। वीतरागता उसे इस अपराध से मुक्त कर सकती है। हम यदि रागद्वेष छोड़कर वीतराग अवस्था को प्राप्त कर लें तो हम अमूर्त बन जायेंगे, अपने आपे में आ जायेंगे। अभी हमारा ज्ञान पूजनीय नहीं बल्कि वह मूर्त है। आचार्यों ने उस कैवल्य ज्योति को जयवंत कहा जिसमें तीन लोक के सारे पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं। ऐसा वह केवल ज्ञान किसी के आधीन नहीं है। अनंत उज्ज्वलता उसमें विद्यमान है। हमें उस ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। बंध की प्रक्रिया को समझकर उससे मुक्त होने का उपाय करना चाहिए। बंध की प्रक्रिया रागद्वेष के माध्यम से चल रही है। वीतराग के माध्यम से ही इसका विमोचन होगा। लेकिन यह भी ध्यान रखना कि दूसरे का वीतराग भाव हमारे काम नहीं आयेगा। हमें उसे निमित्त बनाकर स्वयं वीतरागी बनना होगा। हम वीतराग भगवान् के चरणों में पड़ जायें और कहें कि हे भगवान्! थोड़ी कृपा कर दो, आपके पास रसायन है हमें थोड़ा दे दो, तो ऐसा संभव नहीं है। पारसमणि के स्पर्श से लोहा, सोने में बदल जाता है। पारसमणि लोहे को सोना तो बना सकती है किन्तु पारसमणि नहीं बना सकती। लोहे के पास सोना बनने की योग्यता है और उसे पारसमणि का योग मिल जाये तो वह सोना बन जाता है। यदि योग्यता न हो तो स्पर्श का असर भी नहीं होगा। एक व्यक्ति अपने गुरु से प्राप्त पारसमणि को लोहे से स्पर्श कराता है किन्तु लोहा स्वर्ण नहीं बनता। वह वापिस आकर गुरु को उलाहना देता है कि आपने झूठ कहा था। यह पारसमणि नहीं है। लोहा, स्वर्ण नहीं बना। गुरु ने कहा, झूठ नहीं है बेटा, बता कौन सा लोहा स्पर्श कराया तूने। शिष्य वह लोहा ले आया। गुरु ने वह लोहा देखा और कहा- बात ऐसी है कि यह पारसमणि तो सही है किन्तु लोहा सही नहीं है। शुद्ध लोहा ही सोना बन सकता है। अशुद्ध, जंग खाया हुआ लोहा, या मिट्टी आदि की पर्त चढ़ा हुआ लोहा स्वर्ण नहीं बन सकता। पहले लोहे को शुद्ध बनाओ। भगवान् शुद्ध हैं, हम अशुद्ध हैं। शुद्धत्व के योग्य भूमिका में ढले बिना उनका स्पर्श हमें शुद्ध नहीं बना सकेगा। यह ध्यान रहे कि हम जहाँ कहीं भी रहते हैं, वह शुद्ध तत्व अर्थात् केवली भगवान् हमारे पास प्रतिदिन तीन बार आया करते हैं। कर्म सिद्धांत के अनुसार छह सौ आठ जीव छह महीने आठ समय में मुक्ति को प्राप्त करते हैं। तो एक महीने में लगभग सौ जीव मोक्ष पा जाते हैं और एक दिन में लगभग कम से कम तीन जीव जाते होंगे और मुक्त होने से पहले केवली समुद्घघात हो तो उस समय लोक में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं रहता जिसमें केवली भगवान् स्पर्श न करते हों। केवलज्ञानी का स्पर्शन तीन लोक में फैल जाता है। उस तीन लोक में तो सभी आ जाते हैं। हम सभी को भगवान् एक ही दिन में तीन बार छू लेते हैं फिर भी हम अशुद्ध के अशुद्ध ही रहे आते हैं। किसी बार छह महीने का अंतराल पड़ जाता है तब उसकी पूर्ति शेष आठ समय में हो जाती है। परोक्ष रूप में यह सारी घटना होती रहती है लेकिन कर्म बंध में फँसा हुआ जो व्यक्ति है उसको इसका भान नहीं हो पाता। भगवान् को पाना चाहो तो कहीं भागो मत, अपने पास ही रहो। लौकिक दृष्टि से प्रचलित सूक्ति है कि 'भगवान् भी भक्त के वश में हैं।' उपयोग बदल जाये अर्थात दृष्टि में वीतरागता आ जाये तो भगवान् को पाना आसान है। जैसे दीपक जल रहा है जिस समय वह वायु में प्रवाहित नहीं होता उस समय उसकी लौ बिल्कुल सीधी व सही होती है किन्तु जिस समय वह किसी कारणवश भभकने लगता है उस समय वह लौ, आपे में नहीं रहती। प्रकाश की मात्रा तब कम हो जाती है। दीपक का स्वभाव प्रकाश तो रहता है किन्तु उसमें विकार आ जाता है। उसी प्रकार संसारावस्था में जीव में ज्ञानदर्शनात्मक उपयोग तो रहता है लेकिन सही काम नहीं करता। भभकने वाला दीपक प्रकाश कम देता है। हमारे अंदर भी अपने क्षयोपशम के माध्यम से जो वीर्य प्राप्त होता है वह कषाय करने से भभकते दीपक के समान हो जाता है। हम जब कषाय तीव्र करते हैं तो हमारी शक्ति का अपव्यय होता है। हमारी शक्ति हमारे ही द्वारा समाप्त हो जाती है, उसका सदुपयोग नहीं हो पाता और यह अनर्थ, जीवन में प्रति समय हो रहा है। जो जीवन में प्रकाश हमें मिलना चाहिए था, जो कार्य होना चाहिए था वह नहीं हो पाता और जीवन यूँ ही समाप्त हो जाता है। बंध की प्रक्रिया के उपरान्त हुई अपनी स्थिति को हमने बुद्धि पूर्वक अपना लिया है और उसी में आनंद का अनुभव मान रहे हैं। विचार तो करो, केवली भगवान् का स्पर्श होने के उपरान्त भी हमें भान नहीं हो पा रहा। यहाँ कोई व्यक्ति शंका कर सकता है कि जब आज भी केवली का स्पर्श हमें प्राप्त है तो आज भी तीर्थकर प्रकृति का अर्जन हमें होना चाहिए। क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होनी चाहिए। तो ध्यान रखना कि किसी गुण को प्राप्त करना चाहते हो तो गुण प्राप्ति के लिए गुणवान के निकट जाना पड़ता है। वे हमारे पास आ जायें, तो आ सकते हैं। लेकिन जब तक हम नहीं जायेंगे वह गुण प्राप्त भी नहीं होगा। जब हम क्षायिक सम्यग्दर्शन या तीर्थकर प्रकृति का अर्जन करते हैं तब उसके लिए केवली या श्रुतकेवली के चरणों में चले जाना आवश्यक होता है। मेहमान को आप निमंत्रण दें तभी वह आता है, वैसे नहीं आता। आपको स्वयं जाना होगा उसके पास, उसके चरणों में बैठकर भावों को उज्वल करना पडेगा। जब भावों को पुरुषार्थ के माध्यम से उज्ज्वल करेंगे तब यह प्रक्रिया घट सकती है अन्यथा नहीं। आपके भावों को उज्ज्वल करने के लिए वे तीन लोक के नाथ आपके पास नहीं आते, वे तो समुद्घघात की प्रक्रिया के माध्यम से अपने शेष कर्मों की स्थिति को समान बनाते हैं। इस कार्य को करने के उपरान्त वे तीसरे व चौथे शुक्ल ध्यान को अपना लेते हैं और मुक्ति पा लेते हैं। आप भी मुक्ति के भाजन हैं, इसमें कोई संदेह नहीं लेकिन उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास निरन्तर करना होगा। यदि बंध की प्रक्रिया का सही-सही अध्ययन आप कर लें तो ज्ञात होगा कि तेरहवें गुणस्थान में केवली भगवान् भी अभी कर्मबन्ध की अपेक्षा मूर्त हैं। अमूर्तत्व का अनुभव शुद्ध पर्याय के साथ होना संभव है। भगवान् भी ही अहन्त अवस्था में स्वयं को मूर्त समझकर अमूर्त होने की प्रक्रिया अपनाते हैं और तीसरे व चौथे शुक्लध्यान के माध्यम से योग-निरोध करके सिद्धत्व को प्राप्त कर लेते हैं। ध्यान की आवश्यकता अमूर्त हो जाने के उपरान्त नहीं होती, अमूर्त होने के लिए अवश्य होती है। सिद्ध भगवान् ध्यान नहीं करते, कृतकृत्य हो चुके हैं। अत: संसारी दशा में यह मत समझो कि हम अमूर्त हैं। अभी हम मूर्त हैं लेकिन अमूर्त होने की शक्ति हममें विद्यमान है। जो व्यक्ति स्वयं को बंधन में मानता है वही बंधन से मुक्ति की प्रक्रिया अपनाता है। जिस समय रागद्वेष हम कर लेते हैं उसी समय आत्मा कर्म के बंधन में जकड़ जाता है। एक आत्मा के प्रदेशों पर अनन्तानन्त पुद्गल वर्गणाएँ कर्म के रूप में आकर एक समय में चिपक रही हैं। इसके उपरान्त भी यदि कोई कहे कि हम मुक्त हैं, अमूर्त हैं तो यह आग्रह ठीक नहीं है। अनादिकाल से जो रागद्वेष की प्रक्रिया चल रही है जब तक वह नहीं रुकेगी तब तक कोई बंध से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये बंध की प्रक्रिया को रोकने का उपाय करना ही श्रेयस्कर है। उपाय सीधा सा है कि कर्म के उदय में हम शान्त रहें। मैंने किया विगत में कुछ पुण्य-पाप, जो आ रहा उदय में स्वयमेव आप। होगा न बंध तब लौ जबलों न राग, चिन्ता नहीं उदय से बन वीतराग। यदि हम वीतरागता को अपना लें तो कर्मबन्ध की प्रक्रिया रुकने लगेगी। संवर और निर्जरा को प्राप्त करके मुक्ति के भाजन बन सकेंगे। अपने वर्तमान मूर्तपने को जानकर अमूर्त होने का उपाय अपनाना ही आत्म-कल्याण के लिए अनिवार्य है। एक बार शुद्ध पारे के समान हमारी आत्मा शुद्ध बन जाये, अमूर्त हो जाये तो अनन्त काल के लिए हम अमूर्तत्व का अनुभव कर सकते हैं। यही हमारा प्राप्तव्य है।
  21. बुद्धिमान् विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार बुद्धिमान् वही है, जिसकी बुद्धि समय पर काम कर जाती है। सम्यक दृष्टि होकर भी बुद्धि सही काम तब नहीं करती जब उसका विनाश होना होता है। जो बुद्धिपूर्वक पाप क्रियाएँ नहीं करते, वे बुद्धिमान् कहलाते हैं। यदि ज्ञान होने पर भी संसारभूत पाप क्रियाएँ जिसकी रुकती नहीं हैं, वह ज्ञानी नहीं माना जाता। गुरु की कृपा से तो बुद्ध भी बुद्धिमान बन जाते हैं। क्रोध के उदय में भी जो क्रोध नहीं करता, वही बुद्धिमान् माना जाता है। बुद्धि के माध्यम से दुनिया को उठाना कठिन है, लेकिन उससे भी ज्यादा कठिनतम् कार्य है, अपने भावों को उठाना/सम्हालना।
  22. बंध विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार स्निग्ध और रुक्षत्व के माध्यम से ही बंध होता है। राग-द्वेष से रहित होने पर ही आत्मा कर्म बंध से बच सकता है। आत्मा के पास राग रूपी चिकनाहट एवं द्वेष रूपी रूखापन है जिसके माध्यम से कमों का बंध हो रहा है। आत्मा अपने परिणामों से, पर पदार्थों के निमित्त से कर्मों का बंध भी कर सकता है, उन्हीं पदार्थों से कर्म की निर्जरा भी कर सकता है। आत्मा के पास ऐसी क्षमता विद्यमान है कि अंतर्मुहुर्त में कर्मों को नष्ट कर सकती हैं और अनंतकाल तक उन्हें मौजूद भी रख सकती है। कर्मों से डरने की आवश्यकता नहीं है, उन्हें समझकर निर्जरित करने की आवश्यकता है। आगे कर्म न बांधों जो कर्म बाँधा है उसे साफ करो। केवली भगवान् के पास अनंत शक्ति है लेकिन आयु कर्म अपनी स्थिति तक उन्हें संसार में बाँधे/रोके रहता है। दो में आपस में बंध होता है, दोनों का भान उसमें नहीं होता बंध के बाद तीसरा ही होता है इसी का नाम बंध है। जैसे हल्दी चूना का मिश्रण न हल्दी का रंग न चूने का रंग बल्कि तीसरा ही रंग पैदा हो जाता है। राग-द्वेष रूप परिणाम ही भाव बंध है। कर्मबंध से छूटना चाहते हो तो रागद्वेष को कम करते जाना चाहिए। अंधकार, दृष्टि को प्रतिबंधित कर देता है। दूसरे का आधार लेना बंध का कारण है। अशुभोपयोग में न आ जावे इसलिए शुभोपयोग का आधार लिया जाता है, शुभोपयोग में भी कर्म निर्जरा के साथ-साथ पुण्य कर्म का बंध भी होता है। जो चेतन भाव है वही कर्माश्रव को रोकने में कारण है, उसी को निश्चयनय से भाव संवर कहा है और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण है, वह द्रव्य संवर कहलाता है। भाव संवर व द्रव्य संवर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को लिए हुए है। जिस चेतन भाव से कर्म बंधता है वह तो भाव बंध है और कर्म व आत्मा के प्रदेशों का एकाकार होने रूप द्रव्यबंध है। आत्मा मोह से प्रभावित उपयोग के द्वारा कर्मबंध को प्राप्त होती है। कर्मों का बंध एवं निर्जरा अपने भावों पर आधारित है।
  23. भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी हुए हैं और उनके शिष्य आचार्य कुन्दकुन्द हुए हैं, जिन्होंने संक्षेप में जीवन के उद्धार की सामग्री हम लोगों को दी है। हम लोगों का जीवन इतना छोटा सा है कि हम अपने विचारों के अनुरूप सारे कार्य नहीं कर सकते। जीवन छोटा होने के साथ ही साथ क्षणभंगुर भी है। यह बुलबुले के समान है। जब तक है, समझो है, इसके फूटने में देर नहीं लगती। ऐसी स्थिति में हम आत्मा का कल्याण करना चाहें तो कोई सीधा रास्ता ढूँढ़ना परमावश्यक है। इसी बात को लेकर संसार के विश्लेषण के बारे में तो आचार्य कुन्दकुन्द का विशेष साहित्य नहीं मिलता किन्तु जो कुछ मिला है वह अत्यन्त संक्षिप्त है जिससे शीघ्रातिशीघ्र अपने प्रयोजन की प्राप्त किया जा सकता है। समझाना बहुत समय लेता है पर प्रयोजनभूत तत्व को समझने में ज्यादा समय नहीं लगता। संसार में क्या-क्या है? इसके बारे में यदि हम अध्ययन प्रारंभ करें तो यह छोटा सा जीवन यूँ ही समाप्त हो जायेगा। अथाह संसार समुद्र का पार नहीं है। उसमें से प्रयोजनभूत तत्व को अपना लें, उसी के माध्यम से सब काम हो जायेगा। प्रयोजनभूत तो आत्मतत्व है। अत्यन्त संघर्षमय इस जीवन में जहाँ अनादिकालीन संस्कार हमें झकझोर देते हैं और अपने आत्मतत्व से च्युत कराने में सहायक बन जाते हैं, इस स्थिति में भी अपने को मजबूती के साथ-साथ पथ पर आरूढ़ होने के लिए आचार्यों ने मार्ग खोला है। जो संसार से ऊपर उठना चाहता है उसके लिए संवेग और निर्वेग-ये दो भाव अपेक्षित हैं। वैसे उपदेश चार प्रकार का होता है। पहला संवेग को प्राप्त कराने वाला, दूसरा निर्वेग को प्राप्त कराने वाला, तीसरा और चौथा आक्षेपणी और विक्षेपणी के रूप में पात्रों की योग्यता को देखकर दिया जाता है। सर्वप्रथम मोक्षमार्ग पर आरूढ़ कराने के लिए संवेग और निर्वेग का ही उपदेश देना चाहिए, ऐसा आचार्यों का हमारे लिए उपदेश है। ठीक भी है, डॉक्टर के पास कोई स्वस्थ व्यक्ति चिकित्सा के लिए नहीं जाता। रोगी ही जाता है, तो डॉक्टर को बहुत संभालकर उसकी चिकित्सा करनी पड़ती है। सर्वप्रथम वह डॉक्टर, रोगी को और कुछ नहीं बताता कि क्या कैसा है। वह केवल यही कहता है कि यदि नियम से दवाई लोगे तो तुम्हारा रोग जल्दी ठीक हो जायेगा। वह और कुछ नहीं बताता, मात्र दवाई लेना सिखाता है। उस दवाई का क्या लक्षण है? क्या गुणधर्म है? इसमें कितना क्या मिला है? इसे कैसे तैयार किया गया है? किस फैक्टरी में तैयार किया गया है। यह सब उस रोगी को बताने की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार संसारी प्राणी के सामने सर्वप्रथम विश्व का लेखा-जोखा या विभिन्न मतमतान्तरों का वर्णन आवश्यक नहीं है। प्रयोजनभूत तत्व तो यह है कि किसे प्राप्त करना है और किसे छोड़ना है, यह ज्ञात हो जाये। ऐसा न हो कि हेय का ग्रहण हो जाये और उपादेय का विमोचन हो जाये। संवेग और निर्वेग के उपदेश द्वारा उसे उपादेय को ग्रहण करना और हेय को छोड़ना पहले सिखाना आवश्यक है। आत्म-ज्ञान के लिए बाधक तत्वों का हम थोड़ा विचार करें तो ज्ञात होगा कि ‘मोह' ही ज्ञान के लिए बाधक साबित होता है। ‘कषाय-भाव' ही ज्ञान के लिए बाधक सिद्ध होता है। मोह के कारण ज्ञान मिथ्या बना हुआ है। इस बाधक तत्व से ज्ञान को पृथक् करने का प्रयास करना ही एक मात्र पुरुषार्थ है जो कि संवेग और निर्वेग के बल पर ही संभव है। बाधक कारण को हटाये बिना कार्य की सिद्धि नहीं होती। कई बार, कई लोग प्रश्न करते हैं कि ध्यान के बारे में समझाइए। हम ध्यान लगाना चाहते हैं। हमारा ध्यान लगता ही नहीं, हम बहुत कोशिश करते हैं। हमारा उनसे कहना यह है कि कोई भी शिक्षा दी जाती है तो पहले शिक्षा पाने वाले शिक्षार्थी की आदतों को समझना आवश्यक है। कोई आदत ऐसी हो जो उसके लक्ष्य के विपरीत हो और वह उसके साथ ही लक्ष्य प्राप्ति चाहता हो तो कैसे संभव है? जैसे टैंक में पानी भरा जाता है और वह गंदा हो जाता है। साफ पानी डालने पर भी वह गंदा कैसे हो गया? कारण यही है कि टैंक की सफाई करना आवश्यक है। इसी प्रकार परिणामों में ध्यान के योग्य पर्याप्त निर्मलता आवश्यक है। घाव के ऊपर मात्र मरहम पट्टी लगाने से कुछ नहीं होता, घाव साफ करना भी आवश्यक है। आपका ध्यान कहीं न कहीं तो लगा ही रहता है। हम कभी आत्म-ध्यान से विचलित हो सकते हैं किन्तु आप लोग अपने संसार के ध्यान से कभी विचलित नहीं होते। आपको सांसारिक ध्यान का खूब अभ्यास है। आप लोगों का जीवन ऐसा ध्यान लगाने में इतना अभ्यस्त हो गया है कि आप यहाँ सुन रहे हैं किन्तु फिर भी आपका ध्यान वहाँ है जहाँ आपने लगाया हुआ है। शरीर यहाँ बैठा है पर संभव है कि मन कहीं और लगा हो। आपको ध्यान लगाना सिखाने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान को Divert करने के लिए प्रयास की जरूरत है। आप चाहें तो यह कर सकते हैं। जबर्दस्ती कराया नहीं जा सकता। माँ जबर्दस्ती बच्चे को दूध पिलाती है, बुलाती है, नहीं आता तो पकड़ कर लाती है। इसके उपरांत भी वह बच्चा दूध पीने की मंजूरी नहीं देता तो दोनों हाथ पकड़कर गोद में ले लेती है और चम्मच से दूध पिलाना प्रारम्भ कर देती है। मुँह में दूध डाल देती है पर दूध को अंदर ले जाने का काम बच्चे का है दूध कदाचित् अंदर भी चला जाये और बालक की इच्छा न हो तो वह वमन कर देता है। इसी तरह ध्यान जबर्दस्ती सिखाने की चीज नहीं है। यह तो इच्छा से स्वयं सीखने की चीज है। आपने जो बहुत दिन से ध्यान सीख रखा है उसे छोड़ना, उसे मोड़ना परमावश्यक है। यदि Divert करना नहीं सीखा तो परमार्थ को पाना संभव नहीं है। बहुत लगाते हैं आप ध्यान, उधर सांसारिक कामों के लिए। अस्सी साल के वृद्ध को भी यदि दुकान जाना हो तो कमर का दर्द ठीक हो जायेगा और यदि अध्यात्म के लिए ध्यान करने की बात आती है तो कमर-दर्द बढ़ जाता है। मंदिर आना है तो कह देते हैं कि अब तो ढलती उम्र है बैठा नहीं जाता, सुना नहीं जाता। दुकान पर टेलीफोन की आवाज सुन लेते हैं और तत्संबंधी निर्णय ले लेते हैं। यह क्या बात है ? यह ध्यान की बात है कि सूक्ष्म स्वर भी सुनने में आ जाते हैं क्योंकि उसके पीछे रुचि है। आध्यात्मिक क्षेत्र में रुचि नहीं होने से ध्यान से बचने के लिए कोई बहाना ढूंढ लेते हैं। अंदर यदि ग्रहण का भाव नहीं है रुचि नहीं है, तो प्रयास व्यर्थ हो जाता है। बच्चा जैसे मुख से दूध पीकर मुख से ही वमन कर देता है, आप भी एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं। आत्मा की बात नहीं रुचती। हजारों बातों का आपको ध्यान है पर सीधी-सीधी एक बात जो आत्मकल्याण की है वह आपके ध्यान में नहीं रहती। ऐसे-ऐसे व्यक्ति भी हैं जो हस्ताक्षर नहीं कर पाते, अंगूठा लगाते हैं और करोड़पति हैं। अनेक फैक्ट्रियों के मालिक हैं और अनेक विद्वान् पढ़े-लिखे लोग उनके आधीन काम करते हैं। सेठजी को प्रणाम करते हैं। एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं फिर भी इतना काम चल सकता है। ऐसा ही अध्यात्म के क्षेत्र में यदि अपनी आत्मा के प्रति रुचि है और संवेग और निर्वेग है तो कल्याण सहज संभव है। अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। आत्मा की ओर ध्यान कठिन नहीं है, संसार से ध्यान 'Divert' करना बहुत कठिन है। जैसे एक नदी का प्रवाह बरसों से चलता है उसका रास्ता बन चुका है, उस ओर वह अनायास बहता रहता है किन्तु उसको बिल्कुल विरुद्ध दिशा में मोड़ना हर व्यक्ति के द्वारा संभव नहीं है। जो बाँध बनाकर नहरों के द्वारा रास्ता मोड़ देते हैं वे जानते हैं कि यह कितना कठिन काम है। अनेक परीक्षण करने पड़ते हैं। सामग्री की मजबूती का ध्यान रखना पड़ता है। इसी तरह अनादि काल से आपका जो प्रवाह विषयों की ओर बह रहा है, आपका ज्ञान विषय-सामग्री को पकड़ने के लिए उत्सुक है, उसकी गति इतनी तीव्र है कि उसे मोड़ना तो मुश्किल है ही, उसके वेग में कमी लाना भी मुश्किल है। पंचेन्द्रिय के विषय जो यत्र-तत्र फैले हुए हैं, अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों कालों की अपेक्षा जो इन्द्रिय मन का विषय बनते हैं उनसे बचना कैसे संभव है? तो आचार्यों ने उद्यम करने की प्रक्रियाएँ बतायी हैं। उसके माध्यम से हमें आगे बढ़ना चाहिए। उद्यम किस प्रकार किया जाए, इसके लिए भी आचार्यों ने अपनी अनुभूति के माध्यम से लिखा है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने ध्यान को परमावश्यक बताया है, ध्यान के बिना उद्धार संभव नहीं है। धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान ये दोनों ध्यान मोक्ष के हेतु हैं। आर्तध्यान-रौद्रध्यान संसार के हेतु हैं। आप धर्म ध्यान का स्रोत खोलना चाहते हैं, उस ओर मुड़ना चाहते हैं तो पहले आर्तध्यानरौद्रध्यान को छोड़ना होगा। उसमें कमी लाना होगा। उसके लिए निरंतर प्रयत्न करना होगा। जैसे किसी एक व्यक्ति को वैद्य ने कहा कि तुम घी का प्रयोग करो, पुष्टि आयेगी। उस व्यक्ति ने आधा किलो घी खा लिया और बैठ गया। घी पचा नहीं, खराबी आ गयी। वैद्य को बुलाया गया। उसने बताया कि सिर्फ घी खाने से पुष्टि नहीं आती, घी को पचाने के लिए मेहनत करनी होगी, व्यायाम करना होगा, अभ्यास करना होगा। इसी प्रकार ध्यान लगाओ, ऐसा कहने पर ध्यान लगाने बैठ जाने से काम नहीं चलेगा। मन, वचन, काय को बार-बार विषय कषायों में जाने से रोकना पडेगा, उस ओर से मोड़ने का अभ्यास करना होगा। विषयों की ओर ध्यान न जाये, इस बात का ध्यान रखना होगा। तभी धर्मध्यान में प्रगाढ़ता आयेगी, तभी वह धर्मध्यान आगे जाकर शुक्लध्यान में परिवर्तित हो सकेगा। एक बात और समझने की है। रावण ने सीता के अपहरण के पश्चात् राम से युद्ध के समय भगवान् शान्तिनाथ के मंदिर में जाकर ध्यान लगाया, मंत्र जपे पर राम की मृत्यु की कामना के साथ। शब्द, आस्था, मुद्रा आदि सब ठीक थी किन्तु राम की मृत्यु की कामना सहित वह ध्यान, सच्चा ध्यान नहीं माना जायेगा। रावण ने सोलह दिन तक ध्यान किया बहुरूपिणी विद्या की प्राप्ति के लिए। पद्मपुराण में उल्लेख है कि रावण विद्या सिद्ध करने में बहुत पारंगत था। वह विद्या सिद्ध करने बैठ जाता था तो कोई उसके ध्यान में विध्न नहीं डाल पाता था और वह विद्या सिद्ध करके ही उठता था। क्या वह ध्यान माना जायेगा ? बहुरूपिणी विद्या के लिए किया गया वह ध्यान आत्मानुभूति के लिए नहीं किया गया इसलिए उपयोगी नहीं है। आत्मानुभूति के लिए किया गया ध्यान तो अंतर्मुहूर्त में भी मुक्ति दिला देता है। हम लोगों को अपने स्वरूप को देखने की रुचि हो जाए, हम अंतर्मुखी होते चले जायें तो बाहर कुछ भी होता रहे, पता ही नहीं चलेगा।Telephone पर अनेक आवाजों के बीच अपने काम की आवाज आप सुन लेते हैं, बाकी छोड़ देते हैं। नगाडे के बीच बाँसुरी की आवाज चलती है तो जो संगीत प्रेमी हैं या संगीतकार हैं वह उसे पहचान लेते हैं। इसी प्रकार ध्यान की बात है। यदि एक घंटे तक ध्यान की बात आप ध्यान से सुन लें और अपनी रुचि जागृत कर लें तो ऐसा नहीं हो सकता कि धर्मध्यान न लगे। हम रुचि जागृत कर सकते हैं। ध्यान भी कर सकते हैं। माँ, बच्चे को गोद में बिठाकर दूध पिलाती है और चुटकी बजाती जाती है। बीच में यदि चुटकी बजाना बंद कर देती है तो बच्चा दूध पीना बंद कर देता है। यदि माँ के ललाट पर थोड़ी सलवटें पड़ जाती है तो वह हैरान निगाहों से देखने लगता है कि मामला क्या है? वह सब ध्यान से देखता है। वह समझ जाता है कि माँडॉट लगा रही है या प्यार कर रही है। अर्थ क्या हुआ कि ध्यान तो सभी के पास है लेकिन धर्म-ध्यान नहीं है। मुक्ति के लिए ध्यान की, जितनी एकाग्रता की आवश्यकता है उतनी ही तीव्रता सप्तम नरक में जाने के लिए भी आवश्यक है। एक छोर सप्तम नरक तक तो हम कई बार पहुँच गये होंगे किन्तु दूसरे छोर मोक्ष की ओर कभी नहीं पहुँच पाये। अभी तो ऐसा कह सकते हैं कि पंचमकाल है, उत्तम संहनन नहीं है, ठीक है। लेकिन जब चतुर्थ काल आता है उस समय तो जा सकते थे। नहीं गये अर्थात् पुरुषार्थ की कमी रही। चतुर्थ काल की अपेक्षा भरतक्षेत्र और ऐरावत के मात्र दस क्षेत्र हैं लेकिन जो एक सौ साठ विदेह क्षेत्र हैं वहाँ तो सदैव चतुर्थ काल रहता है। कुल मिलाकर एक सौ सत्तर क्षेत्र हैं जहाँ एक साथ तीर्थकर हो सकते हैं। काल भेद मात्र दस क्षेत्रों में है, शेष एक सौ साठ क्षेत्रों में भेद नहीं होता। वहाँ से मोक्ष का सीधा रास्ता है, साथ ही सप्तम नरक भी जाया जा सकता है। जिसकी रुचि जिस तरह की होती है वहीं चला जाता है। आठ साल का बच्चा भी धर्मध्यान व शुक्लध्यान के माध्यम से मुक्ति का द्वार खोल सकता है और अस्सी साल का वृद्ध भी आर्त-रौद्र ध्यान के द्वारा सप्तम पृथ्वी का द्वार खोल लेता है। मन, वचन, काय को रोककर रुचिपूर्वक किसी पदार्थ में लीन हो जाना ही ध्यान है। पंचेन्द्रिय के विषयों में लीन होना आर्त और रौद्रध्यान है और आत्म-तत्व को उन्नत बनाने के लिए अहर्निश प्रयास करना, सब कुछ भूलकर उसी आत्म-तत्व में लीन रहना धर्मध्यान है। आप चाहें तो अभी यह संभाव्य हैं। यहीं पर बैठे-बैठे विषयों की ओर पीठ कर लें, मन को लें तो Divert धर्मध्यान हो सकता है। जयपुर आपके लिए भी है और जयपुर में मैं भी हूँ। मेरे ज्ञान ने भी जयपुर को विषय बनाया है और आपके ज्ञान ने भी बनाया है। दोनों अभी यहीं जयपुर में हैं। पर आपका संकल्प जयपुर में हमेशा रहने का है, मेरा कोई संकल्प ऐसा नहीं है। आपका संकल्प है इसलिए जयपुर छोड़कर कहीं जाने पर भी जयपुर भीतर रहा आता है। यह आपको ज्ञात है कि एक न एक दिन जयपुर छूटेगा। जब जयपुर छूटना निश्चित है तो उससे स्वयं को जोड़कर बैठे रहना, जानबूझकर इसको पकड़ने का प्रयास करना यही रागभाव है। जब जयपुर छूटेगा- यह ज्ञान का विषय बना, तो फिर उसे अपना मानकर इससे चिपकना ठीक नहीं है, यही ज्ञान का प्रयोजन है। जयपुर में जहाँ आप रह रहे हैं उसे आप मान रहे हैं कि हमारा है। लेकिन जयपुर हमारा, तुम्हारा किसी का नहीं है, वह जो कुछ है, वह है। उसका अस्तित्व पृथक् है, हमारा पृथक् है। अस्तित्व को जानना अपेक्षित है, प्रयोजनभूत है किन्तु अस्तित्व को जानकर ‘यह मेरा'ये तेरा' ऐसा मानना बाधक है प्रयोजनभूत नहीं है। ‘पर' क्या है ‘स्व' क्या चीज है यह जानना परमावश्यक है। 'स्व' को स्व-रूप में जानकर, ‘पर' को पर-रूप में जानकर, 'पर' का ग्रहण नहीं करना यही प्रयोजनभूत तत्व का ज्ञान है। उपादेय की प्राप्ति और हेय का विमोचन हो गया तो मोक्षमार्ग प्रारंभ हो गया। यदि 'स्व' का ग्रहण और 'पर' का विमोचन नहीं होता, उसके प्रति जो राग है वह नहीं हटता तो कार्य सिद्धि भी नहीं होगी। ज्ञानी भी वहीं रह रहा है। अज्ञानी भी वहीं रह रहा है। ज्ञानी के लिए भी वही पदार्थ है और अज्ञानी के लिए भी वही पदार्थ है। दोनों के बीच वही पदार्थ होते हुए भी ज्ञानी के लिए वैराग्य का कारण बन जाते हैं और अज्ञानी उन्हें लेकर रागद्वेष में पड़ जाता है। जिसको आप अपना मान रहे ही अभी उसी में चौबीस घंटे ध्यान लगा रहता है। जो वास्तव में अपना है उस ओर ध्यान है ही नहीं। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ में आद्योपान्त ध्यान के विषय में ध्यान के पात्र, ध्यान के फल, ध्यान में बाधक और साधक तत्वों का प्ररूपण किया है। उसमें एक श्लोक के माध्यम से सद्ध्यान की परिभाषा, अर्थात् मोक्ष में हेतुभूत ध्यान की परिभाषा दी है। सद्ध्यानी वह माना जाता है जो वीतरागी हो। संवेग और निर्वेग भाव जिसमें भरपूर हो। लम्बा-चौड़ा ज्ञान हो तो ठीक है, नहीं हो तो भी अच्छा है क्योंकि ज्ञान भी उस समय ध्यान में समाप्त हो जायेगा। ध्यान के समय उसका उपयोग नहीं है, ध्यान से बाहर आते ही ज्ञान की कीमत है। जो वीतरागी हैं वे दुनियाँ में जितने भी पदार्थ हैं उसमें से कोई पदार्थ ले लें और उसका चिंतन करें, बाधा नहीं है। बाधा तो रागद्वेष की है। रागी द्वेषी बन जायें तो ध्यान बिगड़ जाता है। रागी होकर यदि वीतरागी मुद्रा देखेंगे तो वहाँ भी राग का ही अनुभव होगा। वहाँ भी उस मूर्ति की कीमत आँकने लगेंगे। धातु की है या पाषाण की है। सफेद है, काली है। भाई! सफेद काला तो पाषाण है। भगवान तो वीतरागी हैं। वीतद्वेषी हैं। शरीरातीत हैं। चैतन्य पिण्ड हैं। उपयोगवान हैं। जो वीतराग भाव से देखेगा वह पत्थर में भी वीतरागता देखेगा। राग में भी वीतरागता का अनुभव वीतरागी करता है और रागी वीतरागता में भी राग का अनुभव करता है। इसलिए रागी का ध्यान अशुभ है और वीतरागी का ध्यान शुभ है। अनादिकाल से उपयोग की धारा अशुभ की ओर बह रही है। उसे Divert करना है। उसे अपनी आत्मा की ओर मोड़ना है। उपयोग, उपयोग में लीन हो जाये, यही प्रयोजनभूत है। आप लोगों की रुचि सद्ध्यान में अभी नहीं है लेकिन आप चाहें तो रुचि उत्पन्न कर सकते हैं और सद्ध्यान के माध्यम से परमपद प्राप्त कर सकते हैं। मुक्ति का सोपान ध्यान है।
  24. रोग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार रोगादि में होने पर साधक को कभी दु:ख का अनुभव नहीं करना चाहिए, बाह्य दु:ख के प्रति अचेतन हो जाना चाहिए। रोग हो गया तो निरामय प्रभु का ध्यान करो तभी निरोगी बन सकते हो। रोग है तो उसे समाप्त करने के लिए औषधि से मत डरो, क्योंकि रोग औषधि लेने से ही दूर होगा, भले ही औषधि कड़वी ही क्यों न हो ? औषधि रोग के लिए होती है, स्वभाव के लिए कोई औषधि नहीं होती है।
  25. रास्ता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जैसे विद्यार्थी स्वयं अपना विषय चुनता है, वैसे ही हमें संसार एवं मोक्ष का रास्ता स्वयं ही चुनना चाहिए। जो रास्ते पर हमेशा-हमेशा चलते रहते हैं, उन्हीं से रास्ता पूछना चाहिए। इस संसार में सही रास्ता मिलना बहुत दुर्लभ है, जिनके प्रसाद से यह रास्ता मिला है तो उनके गुणों की स्तुति करना नहीं चूकना चाहिए। वे मीलों चलकर मंजिल पर पहुँच गये बिना कुछ कहे और तुम हो कि एक कदम भी नहीं चले और रफ्तार की बात करते हो। सही रास्ते पर भटकना अलग है और गलत रास्ता चलना अलग है, गलत रास्ते पर भटकन के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा।
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