वैराग्य-वीतरागता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- सभी से मैत्रीभाव रखो और वैराग्य को अलंकार बनाओ।
- धन, दौलत, पद, सत्ता आदि की भूख समाप्त होने पर ही वैराग्य आता है।
- वैरागी अपने नाम से धन कभी रखता ही नहीं।
- लक्ष्मी, धन व वैभव पाप रूप हैं एवं तृष्णा को बढ़ाने वाले हैं, इसलिए त्यागी इसे छूता ही नहीं।
- वैराग्य होने के बाद सम्पदा का त्याग कर दिया, इसमें क्या आश्चर्य! जहर का ज्ञान होते ही वह उल्टी कर देता है, जिसको घृणा आ जाती है, वह उसे दुबारा ग्रहण नहीं कर सकता।
- व्यक्ति के जीवन में वैराग्य आते ही संसार का कोई भी पदार्थ उसे अपनी ओर आकृष्ट नहीं करा सकता ।
- समता माँ, वैरागी बेटे के पास ही रहती है रागी के पास नहीं।
- वैरागी लोग शरीर को ऐसा संभालते हैं, जैसे ड्रायवर गाड़ी को, तभी मोक्षमार्ग की यात्रा समीचीन होती है।
- जीवन में वीतरागता जितनी रखोगे उतना पाओगे यह महावीर का मार्ग है।
- पारे में भस्म के रूप में आत्मा की दशा है,'वीतरागता” का पुट मिलते ही वह स्वरूप में आ जायेगा।
- रागी को आकृष्ट करने का एक मात्र उपाय है वीतराग होना।
- हमारी प्रत्येक चेष्टाओं में राग का पुट रहता है, इसलिए वीतरागी का दर्शन करते रहना चाहिए।
- तपस्या में मुख्य तो वीतरागता है, निष्कषाय भाव है, अत: उसी की ओर बढ़ना चाहिए।
- वीतरागता के लिए परिग्रह अभिशाप है। साधक को हमेशा विवेक की आँख खोले रखना चाहिए, क्योंकि ‘आगम चक्खु साहू' कहा है। इसलिए साधक को अपवादों से हमेशा बचना चाहिए।
- वैराग्य के लिए किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती।
- जिस प्रकार अग्नि की छोटी-सी कणिका अटवी को भस्म करने में सक्षम होती है, उसी प्रकार एक क्षण का वैराग्य भी सारे कर्मों को नष्ट कर देता है।
- वैराग्य कक्ष में किसी से सम्बन्ध नहीं होता वह प्रकृतिस्थ हो जाता है। यह संसार में मेरा तेरा मात्र दिमाग की उपज थी, जिससे ये तरंगे उठ रहीं थीं। ऐसा विचार आने लगता है।
- स्वस्थ आत्मा में ये कोई तरंगें नहीं हुआ करती, भीतर से कोई उपाधि भी नहीं होती।
- करंट से आप लकड़ी के द्वारा छूट सकते हो और यदि लोहा जोड़ दोगे तो आप भी उससे चिपक जाओगे। इसी प्रकार हजार व्यक्ति रागी हैं और एक वीतरागी है तो सभी को संसार से छुड़ा सकता है। यदि वही रागी हो गया तो वह भी चिपक सकता है।
- वीतरागता की रक्षा पैसे से नहीं बल्कि पैसे के त्याग से की जा सकती है।
- वीतरागता की रक्षा राग के माध्यम से करना एक बहुत बड़ी भूल मानी जाती है।
- जब वीतराग धर्म का विलय हो जावेगा तब कृषि, असि, मसि आदि षट्कर्म का भी विलय हो जावेगा।
- वीतरागता की रक्षा यदि हम राग की वस्तुओं से करते हैं तो वह रक्षा सम्भव नहीं क्योंकि राग की वस्तुओं से तो राग का ही वर्द्धन होगा।
- संसार की वस्तुओं में यदि सुख होता तो तीर्थकरों ने इस संसार का त्याग क्यों किया होता।
- वीतराग मार्ग की पहचान परिग्रह से नहीं बल्कि वीतरागता या अपरिग्रह से होती है।
- संसारी प्राणी की दशा चक्की में पड़े दाने की भाँति है, जो रागद्वेष रूपी चक्की में पडेगा वह पिसेगा ही।
- मोक्षमार्ग में कोई शर्त नहीं होती बड़ा सीधा मार्ग है। बस एक ही शर्त है और वह यह है कि पीछे मुड़कर नहीं देख सकते।
- एक बार वैराग्य हो गया तो बंधन छूट जावेगा और बंधन नहीं रहा तो फिर मुक्ति हो जावेगी।
- मृत्यु के बारे में सोचते हैं तो जल्दी वैराग्य हो जाता है।
- जंगल में मंगल इसलिए हो जाता है क्योंकि वहाँ राग से ऊपर उठे साधु वीतराग प्रभु रहते हैं। मोह का पवन नहीं होने से भगवान् के मान सरोवर में तरंगें नहीं उठतीं।
- वीतरागता के दर्शन में जो अनुभूति होती है एवं जो आनंद आता है, वह अन्य किसी वस्तु में नहीं आता।
- वैरागियों के सानिध्य से ही यह दिव्य नेत्र खुल जाता है।
- वैराग्य की मूर्ति को देखकर चोर भी वैरागी बन गया, उपदेश से नहीं।
- राग से वीतरागता की ओर जाने का जो उपक्रम है, वह अद्भुत है। यह चमत्कार नहीं बल्कि चित्चमत्कार है। यह मन, वचन एवं काय की नहीं, चेतन की बात है।
- वीतरागता के दृश्य को देखकर माया बाजार समाप्त हो जाता है, चेतना का बाजार खुल जाता है। यह शक्ति का उद्घघाटन वैराग्य होने पर हो जाता है।
- जो हमारी अनादिकाल से चली आ रही भूख है, वह वीतरागता से ही शांत होगी।
- रागद्वेष, विषय कषाय आदि अंदर की गंदगी को बाहर निकाल दो फिर अंदर से वीतरागता की सुगंधी फूटने लगेगी।
- वैराग्य मात्र आत्मतत्व की पहचान हो जाने पर अकेला ही चलता है।
- वैराग्य के सामने यह संसार एक मायाजाल-सा प्रतीत होने लगता है।
- वैराग्य ऐसा घर है जिसमें किसी भी व्यवस्था की आवश्यकता नहीं पड़ती।
- वीतरागी सामने रहेंगे तो जागृति बनी रहेगी।
- मुझे आश्चर्य है रोज दर्पण देखने के बाद भी आपको संसार क्षणभंगुर नहीं लगता। यह शरीर गलन पूरन की क्रिया सहित है। इस रहस्य को संसारी प्राणी समझता नहीं। इसलिये वैराग्य की ओर नहीं बढ़ पाता।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव