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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. भक्ति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आत्मतत्व की भावना नहीं हो रही हो तो परमात्मा की भक्ति करते हुए भी आत्मा को पाया जा सकता है। जो दूसरों को व्यवधान उपस्थित नहीं करता, वही विवेक से भक्ति, पूजन करता है। भक्ति में भाव प्रत्यय ही महत्वपूर्ण है, शब्दज्ञान नहीं। उपास्य के पास स्वरूप का भान, आत्म श्रद्धान प्राप्त होता है, लेकिन वह अंतर्दृष्टि रखने वालों को ही प्राप्त होता है। प्रभु के चरणों में जो विशुद्धि प्राप्त होती है, वह अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं हो सकती। प्रभु की भक्ति से, उनके पादमूल में मोहनीयकर्म का क्षय हो जाता है, क्षायिक सम्यक्दर्शन प्राप्त हो जाता है। देव, शास्त्र व गुरु के समागम से अनन्तानुबन्धी कषाय नष्ट हो जाती है। जैसे पुलिस को देखकर शराबी का नशा उतर जाता है, वैसे ही इन्द्रभूति क्या पूछने जा रहा है? यह भी भूलता जा रहा है। मानस्तम्भ देखते ही उसका मान स्तंभित हो गया/डाउन हो गया। अब चिकित्सा के योग्य हो गया। दीक्षा की प्रार्थना करने लगा और दीक्षित होकर महावीर भगवान का प्रथम शिष्य बन गया। भगवान का पक्ष आते ही सब पक्ष/विपक्ष समाप्त हो जाते हैं। भगवान का पक्ष संसार से पार लगा देता है और पक्षपात संसार का विस्तार करता है। जिनदर्शन के प्रति हमेशा विशुद्धि बनी रहनी चाहिए। श्रद्धा और विवेक के साथ जो भक्ति की जाती है, उसी का सही फल प्राप्त होता है। जिसके हृदय में आराध्य को स्थान होता है, उसका हृदय पवित्र होता है। जो भक्ति के माध्यम से साधु परमेष्ठी को स्वीकारता है, बदले में स्व-पर कल्याण की भावना भाता है, वही सही भक्त माना जाता है। भक्ति के बीच में भुक्ति की चाह आकर खड़ी हो जाती है तो भक्ति का सही फल प्राप्त नहीं होता। सही ज्ञान होते ही भक्त मात्र भगवान बनने का रास्ता माँगता है। भगवान की भक्ति में, बिना कामना के भाव लगाने से, शुद्ध कंचन बन जाते हैं। यही भक्ति का सार है। आप भगवान की भक्ति से कुछ संसार की वस्तुएँ माँगना चाहते हो, पर ध्यान रखना भगवान की भक्ति में फल का कोई अंत नहीं होता। भगवान के दर्शन से बाहरी सब गौण हो जाना चाहिए अंतरंग में उतरना चाहिए। पूजन, भक्ति प्रशस्त मन से करो और उसके फल में हेय बुद्धि रखो। ध्यान रखना धार्मिक अनुष्ठान कभी भी हेय बुद्धि से नहीं किये जाते क्योंकि इनके माध्यम से ही मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। भक्ति के माध्यम से भक्त भगवान तक पहुँच जाता है। जो व्यक्ति विषय कषायों में फँसा है, धन के कारण अंधा बना हुआ है, उसके अंदर भक्तिभाव व अध्यात्म के भाव भूलकर भी उभर नहीं सकते। आज मन लगाने का सबसे सरल तरीका है भगवान की भक्ति करना। भगवान की पूजा, कामना पूर्ति करती है एवं वासना को नष्ट करती है। भगवान बनने की एक युक्ति है। भगवान के गुणों के प्रति अनुराग रखो, भक्ति करो। भगवान को देखते रहने से भी स्तुति होती है, भक्ति होती है। वह भावविभोर हो जाता है, भगवान के सामने कुछ बोल ही नहीं पाता। पूजन में भावों को गौण नहीं करना चाहिए। मन, वचन एवं काय को समर्पित करके पूजन करिये, हेय बुद्धि से नहीं। प्रसन्न बदन, प्रसन्न चित्त होकर, भावविभोर होकर भगवान की भक्ति करना चाहिए। वैभव प्राप्त होना ही भक्ति का प्रयोजन नहीं है, बल्कि भव बंधन रूपी कर्मों का क्षय होना मुख्य प्रयोजन है। भगवान भक्ति और भक्त का तालमेल गायन, वाद्य एवं नृत्य जैसा ही है। भगवान की भक्ति में यह क्षमता है कि वह जहर को भी अमृत बना सकती है। जीवन विषाक्त होने से पूर्व भक्ति की ओर बढ़ जाना चाहिए। जिनकी आत्मा कषायातीत हो गयी है उनकी भक्ति किया करो उन्हीं के माध्यम से ही हमें विकास करना है। भक्त बनने के बाद किसी भी बात का भय नहीं रहता। देवता स्वयं आकर आपकी व्यवस्था करेंगे। भगवान का जीवन हमें वरदान सिद्ध तब होगा जब हम उनके जीवन के अनुसार ढलने की शुरुआत कर देंगे वही तीर्थ है, मुहुर्त है। भगवान भक्त के वश में होते हैं, ये बात ठीक है पर मुनिराज किसी के वश में नहीं होते। यह भगवान की आज्ञा मुनिराज को है। यदि हम सच्चे देव, शास्त्र व गुरु से सम्बन्ध नहीं रखते तो हमारी पार्टी फैल हो जावेगी। प्रभु किसी से प्रभावित नहीं होते हमें भी उन जैसा बनना है तो अन्य किसी से प्रभावित नहीं होना चाहिए एवं उनके (प्रभु के) गुणों, लक्षणों की ओर दृष्टि रखना चाहिए। सांसारिक सुख की अभिलाषा के साथ यदि भगवान की आराधना करते हो तो आराधना का फल उद्देश्य के अनुरूप ही मिलता है। रावण की आराधना मात्र स्वार्थ को लिए हुए थी, यदि कर्म क्षय के लिए करता तो उसे केवलज्ञान हो जाता। भोजन, भोग्य सामग्री तन्दुल, नैवेद्य आदि पूजन में ले जाते हैं तो वह मंगल द्रव्य बन जाती है, केवल दृष्टि का अंतर है। उपास्य के प्रति भावना जुड़ना महत्वपूर्ण है। जिस धन को लेकर कलह पैदा होती है, वह यदि प्रभु की उपासना में लगा दी जावे तो उसी से कर्म निर्जरा हो जाती है। विवेक जागृत होने से भव-भवान्तर के कर्म नष्ट हो जाते हैं। भाव और निर्मल बनाओ, चंदन जितना घिसोगे उतनी सुगंधी आवेगी। फिर केवलज्ञान जो छिपा है वह आस्था की दृष्टि से नजर आने लगेगा। हम सच्चे देव, शास्त्र व गुरु के उपासक बने रहें, क्योंकि आगे हमें भी वही देवत्व प्राप्त करना है। हे प्रभु! हमारी आस्था महान् आत्माओं के प्रति बनी रहे और हम उनके पथ चिन्हों पर चल सकें, भक्ति का फल यही माँगता हूँ। भक्ति करने से बाह्य रूप एवं अंतर का स्वरूप सुंदर स्वच्छ प्राप्त होता है। सुन्दर शरीर तीर्थंकर का ही होता है वह प्राप्त हो। वासना को समाप्त करना चाहते हो तो भगवान के चरणों में जाओ उनकी उपासना करो। आचार्य समन्तभद्र महाराज कहते हैं कि हे भगवन्! मैं आपको इसलिए नमस्कार करता हूँ कि आपमें दोष (मोह) आवरण (ज्ञानावरण आदि) का अभाव हो गया है, समवशरण विभूति आदि को देखकर नहीं। प्रभु की भक्ति, उपासना करने वाले को सांसारिक कमियाँ, कमियाँ-सी नहीं लगती। वह तो मात्र इतना ही भाव बनाये रखता है कि भगवान से तादात्म्य बना रहे। सुख और आनंद किसी बाह्य पदार्थ में नहीं है, वह तो परमार्थ में है और परमार्थ के प्रतीक वीतरागी प्रभु हैं। भक्ति अंधी ही होती है क्योंकि, वह आँख बंद होने पर हृदय से प्रकट होती है, वह अंदर की अाँख खोलकर देखती रहती है। भीतर की आँखों से भी मोक्षमार्ग में कार्य होता है। श्रद्धा के साथ भक्ति करते हैं तो चमत्कार होने लगते हैं। यह दुनिया को चमत्कार लगते हैं पर तत्वज्ञानी इसे वस्तु स्वरूप समझता है। प्रभु की भक्ति एक दर्पण का काम करती है, उसमें देखने से हमें अपना कर्तव्य ज्ञात हो जाता है। आपने भगवान को देखा है पर भगवान जिस ओर देखते हैं उस ओर नहीं देखा। भगवान की हमेशा नासा दृष्टि रहती है और आपकी आशा पर दृष्टि रहती है। निष्कषाय के सिंहासन पर बैठा देवता पूज्य होता है, मैं उन्हें बार-बार नमस्कार करता हूँ।
  2. आस्रव और बंध का परिचय अनादिकाल से मोह के फलस्वरूप अनन्तों बार प्राप्त हो चुका है। संसार के निर्माता आस्त्रव और बंध हैं। मोक्ष के निर्माता संवर और निर्जरा हैं। आज इसी संवर तत्व को समझना है। संवर का अर्थ बहुत सीधा सादा है। जैसे कोई एक संकीर्ण रास्ता है और बहुत भारी भीड़ घुस रही हो तो वहाँ क्या किया जाता है? आप परिचित हैं-आहार के समय चौके के द्वार पर आकर जैसे खड़े हो जाते दो स्वयंसेवक और सारी की सारी भीड़ को भीतर आने से रोक देते हैं। कभी-कभी बाहर की भीड़ घुस रही है और अंदर वाले उसका निषेध कर रहे हैं, ऐसा भी होता है। यही संवर है। 'आस्त्रव निरोध: संवर:।' आने के मार्ग को रोकना यह संवर कहलाता है। इसके लिए शक्ति आवश्यक है। बिना शक्ति के काम नहीं हो सकता। नदी का प्रवाह बहता जाता है दोनों तटों के माध्यम से किन्तु उस प्रवाह को जिस स्थान पर रोका जाता है वहाँ बड़े-बड़े वैज्ञानिक, इंजीनियर अपना माथा लगा देते हैं अर्थात् दिन रात चिन्तन करते हैं कि यदि यहाँ बाँध, बाँध दिया जाये तो पानी टिकेगा, रुकेगा या नहीं। पानी के वेग को बह बाँध झेल सकेगा या नहीं। बहुत विचार विमर्श होते हैं, अनेक प्रकार की स्कीम बनती है उसके उपरान्त बाँध का निर्माण होता है, पानी को रोका जाता है। इस तरह पानी का संनिरोध किये जाने से बड़ी जिम्मेदारी हो जाती है। पानी बहता रहता है तो वहाँ कोई-बोर्ड लिखा हुआ नहीं रहता कि 'डेंजर" (खतरा), लेकिन जहाँ बाँध बंध जाता है वहाँ अवश्य लिखा रहता है कि खतरा है, सावधानी बरतें। पानी ज्यादा हो जाये तो उसे निकाल देते हैं क्योंकि बाढ़ आने पर उतनी जनहानि नहीं होती जितनी की बाँध टूट जाये तब होती है। इसी तरह मोक्षमार्ग में भी है। अनादिकालीन रागद्वेष और मोह के माध्यम से जो कमों का आस्रव रूपी प्रवाह अविरल रूप से आ रहा है और जिसको हम अपने पुरुषार्थ के बल पर उपयोग रूपी बाँध के द्वारा बांध देते हैं तो वह कर्मों के आने का द्वार रुक जाता है, संवर हो जाता है। इसमें बड़ी शक्ति लगती है। ध्यान रखो, यहाँ न मन काम करता है, न वचन और न ही काय-बल काम करता है, यहाँ तो उपयोग काम करता है जो आत्मा का अनन्य गुण है। कहना चाहिए कि आत्मशक्ति ही उस कर्म-प्रवाह को रोक सकती है। कर्म-प्रवाह का एक बल अपने आप में है और अनादिकाल से उसी का बल ज्यादा बना हुआ है इसलिए कमजोर उपयोग वाला बाँध यहाँ उसी प्रकार ढह जाता है जिस प्रकार सीमेंट की जगह मिट्टी आदि का उपयोग करके जो बाँध, बाँध दिया जाता है और जो एक ही बार तेज बारिश में बह जाता है। यह तो मात्र पानी की बाढ़ होती है, कर्मों की बाढ़ भी ऐसी ही आती है। आचार्य उमास्वामी ने कर्मों के आने के द्वार बताये हैं एक सौ आठ, अर्थात् एक सौ आठ प्रकार से ही वह आस्रव होता है। मन से, वचन से, काय से, कृत से, कारित से, अनुमोदना से, फिर समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ से। इसके उपरान्त क्रोध, मान, माया, लोभ इन सबको परस्पर गुणित किया जाए तो संख्या एक सौ आठ आती है। इसीलिए माला (जाप) में भी एक सौ आठ के निरोध की प्रतीक हैं। आत्म-प्रदेशों पर आने वाले कर्म प्रवाह को रोकने का जो उपक्रम है वह आत्मा को अवनति से उन्नति की ओर ले जाता है। संसार-मार्ग से मोक्षमार्ग की ओर ले जाता है और यह पतित से पावन बनने का उपक्रम संवर तत्व द्वारा चलता है। इसी कारण निर्जरा तत्व से संवर तत्व अपने आप में महत्वपूर्ण है। निर्जरा, संवर के बाद ही ठीक है। यह क्रम अच्छा है क्योंकि संवर हुए बिना जो निर्जरा है उस निर्जरा से कोई काम नहीं निकलता। संवर का अर्थ है एक प्रकार से लड़ना। दुनियाँ के साथ आप लोग अनेक प्रकार के शस्त्र-अस्त्र का प्रयोग लड़ने के लिए करते हैं लेकिन जो कर्म आत्मा में निरन्तर आ रहे हैं उन्हें रोकने के लिए उनसे लडने के उपक्रम करना आवश्यक है। इसके लिए हमारे आचार्य उमास्वामी महाराज ने मोक्षशास्त्र ग्रन्थ के नौवें अध्याय के प्रारम्भ में ही कह दिया है 'आस्रव निरोध: संवर:।' निरोध करना ‘रुध' धातु से बना है जिसका अर्थ रुकना है। ऐसे कौन से परिणाम हैं जिनके माध्यम से कमाँ के आने के द्वार को बंद किया जा सकता है, रोका जा सकता है। इसके लिए भी आचार्य महाराज ने आगे अलग सूत्र में बात कही है कि "स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परीषहजय चारित्रैः ॥''' जो व्यक्ति मोक्षमार्ग पर चलता है, चलना चाहता है उसके लिए सर्वप्रथम संवर तत्व अपेक्षित है और संवर तत्व को निष्पन्न करने के लिए जो भी समर्थ हैं वे हैं- गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र। ये माला है। इन्हीं मणियों के माध्यम से संवर होगा। सर्वप्रथम आती है गुप्ति।। ‘‘संसार कारणात् आत्मनः गोपनं गुप्तिः ।" संसार के कारणों से आत्मा की जो सुरक्षा कर देती है उसका नाम है गुप्ति। गुप् गोपने संरक्षणे वा। गुप् धातु जो है वह संरक्षण के अर्थ में आती है। गुप्ति एक ऐसा संबल है जो संरक्षण करता है। जब गुप्ति के माध्यम से कर्मों का आना रुक जाता है तभी आगे काम ठीक-ठीक बनता है। कमाँ का आना बना रहे और हम अपने गुणों का विकास करना चाहें तो वह संभव नहीं है। गुप्ति, संवर का सबसे उत्तम साधन है। गुप्ति की प्राप्ति समिति के माध्यम से होती है इसलिए उसके साथ समिति को रखा। और समिति को समीचीन बनाना चाहो तो दशलक्षण धर्म के बिना नहीं बन सकती, तो उसके बाद धर्म को रखा। और दशलक्षण धर्म को यदि हम सही-सही पालन करना चाहें, उत्तमता प्राप्त करना चाहें तो बारह भावनाओं का चिन्तन करेंगे तभी उत्तमता आयेगी। बारह भावनाओं का चिन्तन कहाँ करें ? एयरकंडीशंड मकान में बैठकर, या जहाँ पंखा चल रहा हो, कूलर चल रहा हो, हीटर लगे हों, रेडियो भी चल रहा हो, वहाँ हो सकता है क्या ? ऐसा नहीं है, बारह भावनाओं का चिन्तन करना चाहो तो उसके योग्य बाईस परीषह अपनाने होंगे। बिना बाईस परीषह सहे बारह भावनाओं का चिन्तन उसी प्रकार है जैसे कोई तकिया लगा कर के बैठा है और ऊपर छत्र लटक रहा है और वह कह रहा है कि राजा राणा छत्रपति-और छत्र हिल जाये तो चौंककर देखने लगता है कि कौन चोर आ गया छत्र चुराने के लिए। यह तो एक प्रकार से बारह भावनाओं का अविनय हो गया। एक नाटक जैसा हो गया। एक पाठ हो गया। ऐसा तो तोता भी रट लेता है। बारह भावनाएँ जो संवर की कारण मानी गयी हैं उनको कैसे पढ़ना चाहिए, कैसे चिन्तन करना चाहिए ? तो यह बाईस परीषह सहन करते हुए करना चाहिए और बाईस परीषह, बिना चारित्र के सहन करना संवर की कोटि में नहीं आयेगा। चारित्र के बिना आप बाईस क्या, बाईस सौ परीषह भी सह लेंगे लेकिन वे परीषह नहीं कहलायेंगे। चारित्र धारण करने के उपरान्त ही परीषह, परीषह कहलाते हैं। सही-सही रूप में तो चारित्र के माध्यम से ही इन्हें प्राप्त किया जा सकता है। कहा भी है 'एतेषाम् गुप्तयादीनां संवर क्रियाया: साधकतमत्वात् करण निर्देश:'- संवर के लिए इसके अलावा और कोई साधकतम कारण नहीं है संसार में। कोई कह सकता है कि सभी का नाम तो आ गया यहाँ, परन्तु सम्यग्दर्शन का नाम ही नहीं आया। तो भइया गुप्ति समिति आदि जो संवर के लिए साधकतम हैं ये सभी सम्यग्दर्शन के उपरान्त ही संभव है। कहीं-कहीं ऐसा भी सुनने में आता है कि संयम तो आस्रव बंध का कारण है, तो ऐसा नहीं है। एक गुप्ति को छोड़कर सूत्र में बताये गये संवर के सभी कारण प्रवृत्ति कारक हैं। दशलक्षण धर्म भी प्रवृत्ति रूप है, उसे भी आस्रव की कोटि में रख देंगे तो जीवन सारा अधर्म में निकल जायेगा। इनके साथ आस्रव होते हुए भी प्रधानतया ये सभी संवर के ही कारण हैं। इसलिए ऐसा नहीं समझना चाहिए कि महाव्रत से, चारित्र से एक मात्र बंध ही होता है। आस्त्रव तो जब तक योग रहेगा, तब तक चलता रहेगा। तप है, चारित्र है, यद्यपि इनके साथ आस्रव भी होता रहता है लेकिन ये मुख्य रूप से आस्रव के कारण नहीं हैं बल्कि संवर के कारण हैं। एक कारण अनेक कार्य कर सकता है। 'तपसा निर्जरा च'- एक तप के माध्यम से मात्र निर्जरा नहीं होती, संवर भी होता है। 'च' शब्द का अर्थ यहाँ संवर लिया है। उदाहरण भी दिया है कि ‘यथा अग्निरेकोपि विक्लेदन भस्माघगरादि प्रयोजन उपलभ्यते' जिस प्रकार अग्नि एक होने पर भी अनेक प्रकार के कार्य करने में सक्षम है उसी प्रकार यह भी है कि वह अग्नि, धान्य को यदि आप पकाना चाहें तो पका देगी, ईधन को जला भी देगी और साथ ही साथ प्रकाश भी प्रदान करती है, यदि सर्दी लग रही हो तो उष्णता के द्वारा सर्दी भी दूर कर देती है जिसको सेंकना कहते हैं। इस प्रकार अनेक कार्य हो सकते हैं। इसी प्रकार तप भी, संयम भी, चारित्र भी ऐसे ही हैं कि एक साथ सब कुछ कर सकते हैं। अभ्युदय का लाभ भी मिलता है और मोक्ष का लाभ अर्थात् संवर और निर्जरा का लाभ भी मिलता हैं। अत: जो मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना चाहते हैं उन्हें उत्साह के साथ और रुचिपूर्वक इन्हें अपनाना चाहिए। आप लोगों के सामने हार लाकर रख दिया जाये और भले ही वह फूलों का हार क्यों न हो, आप झट से गले में डालने को तैयार हो जाते हैं। तो मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि उमास्वामी महाराज ने इस चारित्र रूपी हार को बनाकर रख रखा है। इस हार को पहनने के लिए कौन-कौन तैयार है। मैं तो इस हार को पहने ही हूँ पर सोच रहा हूँ कि आपका भी जीवन सज जाये इस हार के माध्यम से। आप तो मात्र अभी शरीर के श्रृंगार में लगे हैं। संवर तत्व आत्मा का श्रृंगार करने के लिए हमें पाठ सिखाता है। शरीर का श्रृंगार तो आस्रव और बंध का उपक्रम है बंधुओ! उसमें क्यों रच पच रहे हो ? आप स्वयं सोची, विचार करो, जड़ तत्व के माध्यम से जड़ की शोभा में जड़ बनकर लगे हुए हैं। जड़ के अलग-अलग अर्थ हैं। जड़ तत्व के माध्यम से अर्थात् जितने भी ये आभरण-आभूषण वगैरह हैं, सभी जड़ हैं, पुद्गल हैं। इनके माध्यम से जड़ की शोभा अर्थात् शरीर की शोभा कर रहे हैं और जड़ की शोभा में लगने वाला जड़ है अर्थात् अज्ञानी है। इसी अज्ञान दशा में तो अनन्तकाल खोया है। आप कर्म के उदय की ओर मत देखो। कर्म का उदय है, मैं क्या करूं ? कैसे संयम पालन करूं ? कैसे गुप्ति और समिति पालन करूं ? तो बंधुओ! यह तो एकमात्र हमारे उपयोग की कमी है, पुरुषार्थ की कमी है। सम्यग्दृष्टि की आत्मा अनन्त शक्तिमान है। भले ही शारीरिक शक्ति नहीं तो भी भावों के माध्यम से बहुत कुछ संभव है। कर्म के उदय से ही सब कुछ हो रहा है, ऐसा एकान्त नहीं है। इसमें हमारी कमजोरी भी है। हम अपने संवर रूपी पुरुषार्थ में लग जायें तो कर्म उदय में आकर भी यूँ ही चले जायेंगे। जिस समय आत्म द्रव्य (पुरुष) आत्म द्रव्य की ओर दृष्टिपात करता है। उस समय उदयागत कर्म किसी भी प्रकार से अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। मंद कषाय के माध्यम से यही तो लाभ होता है कि जिस समय वह अपने में लीन हो जाता है तो कषाय इतनी कमजोर हो जाती है कि अपना प्रभाव नहीं डाल सकती है। अनुभाग बंध और स्थिति बंध इसी कषाय पर आधारित होते हैं। एक मिथ्यादृष्टि अभव्य भी अपनी विशुद्धि के बल पर आस्रव कार्य को कमजोर कर सकता है। वह सत्तर कोड़ा-कोडी सागर की उत्कृष्ट स्थिति को अन्तः कोड़ा-कोडी सागर कर सकता है। चार लब्धियाँ जब प्राप्त होती हैं तो प्रायोग्य लब्धि के माध्यम से वह मिथ्यादृष्टि अभव्य भी अपने सत्तर कोड़ा-कोडी सागर स्थिति का जो दर्शनमोहनीय कर्म था, उसे अपनी विशुद्धि के बल पर अपने पुरुषार्थ से अंतः कोड़ा-कोडी सागर कर देता है। यदि एक अभव्य जिनवाणी के श्रवण से और अपनी आत्म विशुद्धि के माध्यम से कषाय को इतना कमजोर बनाकर यह कार्य कर सकता है तो मैं सोचता हूँकि जो भव्य है और निकट भव्य हैं, आप जैसे आसन्न भव्य हैं वे तो ऐसे सहज ही फ्रैंक करके उड़ा सकते हैं उन कर्मों को। लेकिन कमजोरी कहाँ पर हो रही है, यह समझ में नहीं आ रहा है। एक बार दृष्टिपात करो, अपनी आत्मा की ओर, उस अनन्त शक्ति की ओर। और अन्तर्मुहूर्त के अंदर सारे के सारे कर्म अंत: कोड़ा-कोडी सागर स्थिति वाले हो जायेंगे। दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबन्धी यूँ ही चले जायेंगे। कहना चाहिए कि उस आत्मपुरुषार्थ के बल पर जो अनन्तकालीन समुद्र है पाप का, वह एक सेकेंड के अंदर आज भी सुखा सकते हैं और शेष रह सकता है एक चुल्लू भर पानी। इतना पुरुषार्थ एकमात्र सम्यग्दर्शन के माध्यम से हो जाता है। कहाँ अटके हो ? कहाँ फैंसे हो ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। आत्मिक बल के साथ कूद पड़ना चाहिए कर्मों का नाश करने के लिए। जब एक बार जंगल गये हम, तो गाय और गाय के बछड़े वहाँ चर रहे हैं यह तो देखा साथ में यह भी देखा कि गाय तो कूदती नहीं है लेकिन बछड़े का हिसाब किताब कुछ अलग ही है। इतनी तेजी से दौड़ता है वह बछड़ा और करीब दस बार दौड़-दौड़कर पुन: वापिस आ जाता है उस माँ के पास। फिर बाद में ऐसा चुपचाप बैठ जाता है जैसे पसीना आ गया हो, फिर थोड़ी देर में और शक्ति आ जाती है तो पुन: कूदने लग जाता है। इसी प्रकार आत्मा की बात सुनते ही ऐसी चेतना दौड़नी चाहिए कि बस! रुके नहीं! यह एकमात्र आत्म शक्ति की स्मृति या चिन्तन का फल है। कर्मों के उदय के ऊपर ही आधारित होकर नहीं बैठना चाहिए। संवर और निर्जरा ये दोनों तत्व आत्मपुरुषार्थ के लिए हैं। जो भी कर्म उदय में आ रहे हैं उनका प्रभाव उपयोग के ऊपर नहीं पड़े, इस प्रकार का आत्म पुरुषार्थ करना ही तो संवर है। अगर इन्हीं का अभाव हो गया तो फिर आप क्या करेंगे। एक बार की बात है कि एक राजा ने सेनापति को कहा कि चले जाओ। कूद पड़ो रणांगण में और जो शत्रु आया है, भगाओ उसको। और विजयी बनकर आओ। वह सेनापति कहता है कि एक घंटे बाद जाऊँगा। तब राजा ने कहा कि अरे! एक घंटे के बाद तो वह स्वयं ही चला जायेगा, पर तब जीत उसकी होगी। तेरा काम तो इसलिए है कि जब रणांगण में प्रतिपक्षी आकर कूद जाये उस समय अपनी शक्ति दिखाना चाहिए। इसी तरह जब मोहनीय कर्म उदय में आये तभी तो आत्म-पुरुषार्थ आवश्यक है। संवर का अर्थ यही है कि दूसरे को भगाकर वहाँ अपना विजयी झंडा लगा देना, उन कर्मों पर विजय प्राप्त कर लेना। एक विशेष बात और कहता हूँकि आज के जो कोई भी त्यागी हैं, तपस्वी हैं, मोक्षमार्गी हैं और सम्यग्दृष्टि हैं उन्हें कर्मों के अलावा लड़ना पड़ता है वर्तमान पंचमकाल से। इसे कलिकाल भी कहा जाता है। कलि का अर्थ संस्कृत में झगड़ा है। काल के साथ भी जूझना पड़ता है। ध्यान रखना, जिस प्रकार दीपक, रातभर अंधकार से जूझता रहता है इसी प्रकार पंचमकाल के अंतिम समय तक सम्यग्दृष्टि से लेकर भावलिंगी सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि महाराज भी संवर तत्व के माध्यम से लड़ते रहेंगे। श्रावक, श्राविका, मुनि, आर्यिका यह चतुर्विध संघ पंचमकाल के अंत तक रहेगा। वर्तमान में कम से कम तीन चार सौ मुनि आर्यिका आदि तो होने ही चाहिए, जो संवर तत्व को अपनाये हुए हैं। जो आत्मा के परिणाम हैं, आत्मा की परिधियाँ हैं और कमों को रोकने वाली एक चैतन्य धारा हैं उसको कहते हैं संवर। वह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र द्वारा उद्भूत होती है आत्मा में। उसको प्राप्त कैसे करें, यह विचार करना चाहिए और जल्दी-जल्दी इस पथ पर आना चाहिए ताकि श्रमण परम्परा अक्षुण्ण बनी रहे। विचार करें कि आत्मा के पास जब बंधने की शक्ति है तो उस बंधन को हटाने, तोड़ने की भी शक्ति है। किसी व्यक्ति को आपने निमंत्रण दिया है तो उसे बाहर भी निकाला जा सकता है। मैंने निमंत्रण दे ही दिया है और अब आ ही गया है तो वापिस जाओ, ऐसा कैसे कहूँ, यदि ऐसा सोचेंगे तो छुटकारा मिलने वाला नहीं है। एक व्यक्ति बहुत ही सदाचारी था, दयालु था। उसे देखकर एक दूसरा व्यक्ति उसके यहाँ चला जाता है और कहता है कि बहुत परेशान हूँ, बहुत प्यास लगी है और भूखा भी हूँ। थोड़ी प्यास बुझ जाये तो अच्छा रहे। वह दयालु व्यक्ति उसे घर ले आता है और कहता है-ठंडा पानी पी ली भइया, चिंता क्यों करते हो। और वह व्यक्ति पानी पी लेता है और कहता है कि थोड़ी भूख शान्त हो जाये तो अच्छा रहे। वह दयालु व्यक्ति उसके सामने थोड़े काजू, किशमिश रख देता है और कहता है रसोई अभी तैयार हो रही है तब तक यह खाओ, बाद में भोजन कर लेना और वह व्यक्ति खा लेता है। इसके उपरान्त पलंग बिछी है तो लेट जाता है और नींद लग जाती है। सुबह हो जाती है और वह व्यक्ति जाने का नाम नहीं लेता। तब दयालु व्यक्ति इशारा कर देता है कि भइया जी, मैं अब अपने काम से बाहर जा रहा हूँ, आप भी.। इतने पर भी जब वह नहीं जाता तो बाद में स्पष्ट कह देता है कि आप जाते हैं या नहीं। इतना सुनते ही वह चला जाता है। आशय यही है कि कर्मों को आपने बुलाया है यह गल्ती हो गयी है आपसे, लेकिन अब जब इतना ज्ञान हो गया है जिसको बुलाकर हमने गल्ती खाई है उसको निकाल भी सकते हैं तो निकालने का पुरुषार्थ करना चाहिए। आने वाले कर्मों को रोकने की शक्ति है संवर में। संयमतप-त्याग आदि अपनाते ही यह संवर की शक्ति जाग्रत हो जाती है और आने वाले कर्म रुक जाते हैं। मात्र कर्म का उदय मानकर हाथ पर हाथ रखे मत बैठो। कर्म का उदय, बंध के लिए कारण नहीं है। कर्म का उदय आस्त्रव के लिए कारण नहीं है किन्तु कर्म के उदय के साथ हमारा सो जाना ही आस्त्रव और बंध के लिए कारण हो। मैंने किया विगत में कुछ पुण्य-पाप, जो आ रहा उदय में स्वयमेव आप। होगा न बंध, तबलों, जबलों न राग, चिन्ता नहीं उदय से बन वीतराग। उदय को देखते बैठे रह जायेंगे तो निस्तार नहीं होने वाला। गल्ती तो यह कर ली है कि विगत जीवन में हमने रागद्वेष और मोह के वशीभूत होकर कर्मों का आस्रव किया है। कर्मों को बाँधा भी है, उनका उदय तो आयेगा ही इसमें कोई संदेह नहीं है। वह उदय में आयेगा और द्रव्य क्षेत्र, काल, भव और भाव को लेकर फल भी देगा। परन्तु ध्यान रखो कि आगे के लिए भी वह अपनी संतति (नये कर्म) छोड़कर चला जाए, वह नियम नहीं है। नये कर्मों के लिए चाहिए रागद्वेष और योग की प्रणाली। मानली आस्त्रव होगा क्योंकि योग है, तो भी कोई बात नहीं, यदि कषाय नहीं है तो वह कर्म चिपकेंगे नहीं, यूँ ही चले जायेंगे। जैसे वर्षा हो रही है और आप अपने मकान को सुरक्षित रखना चाहते हो तो कहीं कोई ट्रेजरी में या लॉकर में ले जाकर तो उसको रखोगे नहीं, वर्षा में भी वह रहेगा, उसकी सुरक्षा तो यही है कि वर्षा का पानी उसमें टिके नहीं। वर्षा होती रहे परन्तु एक बूंद पड़ी, निकल गयी तब मकान को कुछ नहीं किया। इसी प्रकार योग की प्रणाली के माध्यम से कर्म आ रहे हो तो कोई बात नहीं, हम जितना-जितना कषाय को कमजोर बनाते जायेंगे, क्षीण करते जायेंगे उतना-उतना संसार कम होता चला जायेगा। कमाँ की स्थिति और अनुभाग घटता जायेगा। 'यूँ आया और यूँ ही चला गया जैसे वर्षा प्रवाह बस बहता चला गया।' अतः जो कर्म बाँधे हैं वह उदय में आयेंगे लेकिन नवीन कर्म जो बंधेगे वे कर्मायत नहीं हैं, वे आत्मायत हैं अर्थात् आत्मा के ऊपर आधारित हैं। यदि आत्मा जाग्रत है तो किसी भी प्रकार के कमाँदय से अपने को धक्का नहीं लगेगा। यहाँ साम्परायिक आस्त्रव और बंध को रोकने की बात है इसलिए पाप का बंध तब तक नहीं होगा जब तक राग नहीं होगा द्वेष नहीं होगा और रागद्वेष हमारे उपयोग की कमजोरी है। हमारा उपयोग जितना चंचल होता चला जाता है, उतना ही ज्ञेयभूत पदार्थों को भी हम हेय या उपादेय के रूप में इष्ट या अनिष्ट मानकर रागद्वेष करते चले जाते हैं। इसलिए यदि हम आत्मपुरुषार्थ के माध्यम से संयम के साथ, संवर के साथ उस उपयोग को जोड़ दें तो वह बंध के लिए कारण नहीं बनेगा। आचार्यों ने इसीलिए कहा है कि संयम के माध्यम से संवर होता है, मात्र आस्त्रव नहीं। आस्रव यदि होता भी है तो शुभास्रव हेाता है जो अशुभास्त्रव के समान बाधक नहीं है। अशुभ को मिटा देने पर आपको अपने आप मालूम पड़ जायेगा कि शुभ एक औषधि का काम कर रहा है जो स्वास्थ्यवर्धक है। यदि महाव्रत रूप चारित्र को आस्रव का कारण मान लेंगे तो चौदहवें गुणस्थान में भी आस्रव मानना पडेगा, वहाँ महाव्रत का त्याग तो किया नहीं है, अयोग केवली होकर वे ध्यान में बैठे हैं और ध्यान महाव्रत के बिना नहीं होता। इसका अर्थ है कि आस्त्रव, महाव्रत के माध्यम से नहीं होता, आस्रव का प्रमुख कारण योग है और कषाय भाव है। महाव्रत तो संवर का कारण है, संवर को करने वाला यदि कोई साधकतम कारण है तो वह है गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र- यह बात उमास्वामी ने स्वयं लिखकर समाधान दे दिया है। संवर के सभी साधकतम कारण बिना महाव्रत के नहीं पलते। बारह भावनाओं का चिन्तन भी महाव्रत धारण करने के उपरान्त ही कार्यकारी होता है क्योंकि वास्तविक बारह भावनाओं के चिंतन से संवर और निर्जरा दोनों होती हैं। आत्मा की विशुद्धि जितनी-जितनी बढ़ेगी उतनाउतना संवर तत्व भी बढ़ता-बढ़ता चला जायेगा और उसके माध्यम से एक दिन यह संसारी प्राणी कर्मों की सारी की सारी निर्जरा करके मुक्ति भी पा सकता है। कर्मोदय से भयभीत न हों बल्कि हम थोड़ा मन को, अपने उपयोग को, कर्म से, कर्म के फल से और सारे आसपास के वातावरण से मोड़ लें और आज तक जिसको नहीं देखा, जिसको नहीं जाना उस ओर अपने उपयोग को लगा लें तो कर्मोदय का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। जब हम बाहर झांकते हैं उसी समय बाहर की बाधाएँ सताती हैं, और यह झांकना भी स्वाश्रित है, जब झांकने की इच्छा होती है तब झांकते हैं, कर्म के उदय में नहीं झांकते। यदि कर्म के उदय में झांकते हैं तो फिर झांकते ही रहें। जब फाल्गुन मास आता है उस समय रंग खेलने का समय आता है-होली। होली का अर्थ यही है कि उस समय सारे लोग इकट्ठे होकर रंग खेला करते हैं और आनंद का लाभ लेते हैं। कोई-कोई लोग रंग से बचने के लिए बाहर नहीं निकलते पर मन में यह विकल्प जरूर पैदा हो जाता है कि बाहर क्या हो रहा है यह तो देख लें और जैसे ही बाहर झरोखे से झांकते हैं उसी समय रंग लग जाता है। इसमें कर्म का उदय नहीं है यह तो मनचलापन है कि बाहर क्या हो रहा है, देख तो लं। थोड़े से बाहर गये और सारे के सारे भीग करके आ जाते हैं रंग में। इसी प्रकार उदय जो है बाहर है और संवर तत्व को प्राप्त करने वाली आत्मा अंदर ही अंदर चली जाती है वहाँ तक उस रंग का प्रभाव नहीं पड़ता। बाहर आये कि प्रभाव पड़ा। तो संवर एक कला है। यह आत्मा आस्त्रव और बंध के उपरान्त जब वह कर्म उदय में आता है तो उदय को सहन नहीं कर पाता और उदय से डरकर संवर तत्व को भूल जाता है जिसके फलस्वरूप नया बंध होने लगता है। नये बंध को रोकने का उपाय यही है कि उदय के प्रभाव से बचा जाये। सपेरे होते हैं न, सपेरे, सांप को पकड़ने वाले। वे सांप को क्या ऐसे ही पकड़ लेते हैं जाकर फूलमाला जैसे। नहीं, यूँ ही नहीं पकड़ते। पकड़ने से पहले सांप को बुलाते हैं। जहाँ कहीं भी वह होता है वहाँ से उनकी ओर आ जाता है। तब वे बीन बजाते हैं। बीन की आवाज सुनकर वह सांप उनके सामने आकर बैठ जाता है। जो बांसुरी बजाता है उसको नहीं काटता। उस बीन के साथ-साथ स्वर-से-स्वर समाहित करके वह झूमने लगता है और काटना भूल जाता है। इतनी लीनता आ जाती है संगीत से कि अपने काटने के स्वभाव को भूल जाता है और उसी समय सपेरा उसको पकड़ लेता है और विषदंश निकाल देता है। मैं सोचता हूँ ऐसे ही जब कर्म का उदय आये तो वीतरागता रूपी बीन बजाना प्रारंभ कर दें। उदय तब कुछ नहीं कर पायेगा, वह आकर भी अपना प्रभाव नहीं डाल पायेगा। वीतरागता में इतनी शक्ति है। राग-द्वेष के माध्यम से आत्मा दुखी हो जाता है और वीतरागता के माध्यम से सुखी हो सकता है। अब आप स्वयं ही सोचें कि आपको सुख चाहिए या दुख। आप झट कह देंगे कि बांटना चाहो तो सुख ही चाहिए मुझे। भइया सुख को बांटा नहीं जा सकता, उसे प्राप्त करने की प्यास जगायी जा सकती है। जैसे आप लोग जब कोई चीज बना लेते हैं खाने की-खीर, हलुआ आदि तो बांटते नहीं है बल्कि जल्दी-जल्दी खाना चाहते हैं। अगर कोई आकर कह देता है कि यह क्या, हमें भी थोड़ा सा दो। तब आप कह देते हैं कि वाह भइया! पसीना-पसीना हो रहा हूँ सुबह से, तब बना है। तुम बिना परिश्रम के पाना चाहते हो। थोड़ा परिश्रम करो तब मिलेगा। यह खाने की चीज की बात हुई जो कथंचित् बांटी भी जा सकती है लेकिन संवर तत्व जिसे प्राप्त होता है स्वयं के परिश्रम से होता है और उसे बांटा नहीं जा सकता। हाँ इतना अवश्य है कि यदि मुझे संवर तत्व का आनंद लेते देखकर आपको रस आ जाये तो आप पूछ सकते हैं कि इसको कैसे पाया, तो प्राप्त करने का उपाय बता सकता हूँ, लेकिन दूँगा नहीं क्योंकि दिया नहीं जा सकता। संवर तत्व की मिठास को आज तक आपने नहीं पाया। सोचता हूँ कि इतनी मिठास को छोड़कर आप कहाँ नीम जैसे कड़वे भौतिक पदार्थों में रस ले रहे हैं। संसारी प्राणी की दशा ऊँट के समान है। ऊँट उस दिन बहुत आनंद मनाता है जब कोई नीम का वृक्ष मिल जाता है। पंचेन्द्रिय के विषयों में रस लेना या रस मानना, यही एकमात्र संसार का कारण है। आत्मा के रस को पहचानना चाहिए और उसे प्राप्त करने के लिए संवर-तत्व को अपनाना चाहिए। जब कोई आशीर्वाद दे देता है तो शक्ति आ जाती है। इसी प्रकार संवर भी एक प्रकार से आशीर्वाद का प्रतीक है। जिसके माध्यम से शक्ति आ जाती है और सारे बाधक तत्व रुक जाते हैं। एक अमोघ शस्त्र है। आस्त्रव और बंध को रोकने के लिए यह संवर-तत्व। हम इस संवर तत्व रूपी कवच को पहनकर मोक्षमार्गी बन सकते हैं और मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। यह संवर अनन्य कारण है मोक्ष का और इस संवर के लिए गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र आवश्यक हैं। यह सभी संवर के लिए साधकतम कारण हैं। इन सभी की प्राप्ति त्याग के द्वारा ही होगी। बिना त्याग के यह चारित्र रूपी हार को पहनना सम्भव नहीं है। इस चारित्र रूपी हार को पहनकर ही मनुष्य अलंकृत हो सकता है। सफलीभूत हो सकता है। इसके बिना जीवन पतित रहेगा, कलंकित रहेगा। हमें अपने जीवन को कलंकित नहीं करना बल्कि इन चारित्र रूपी आभूषणों से अलंकृत करना है। यही हमारा कर्तव्य है। इसी में जीवन की सार्थकता है।
  3. संसारी प्राणी की दशा अनादिकाल से दयनीय हुई है। यद्यपि यह संसारी प्राणी सुख का इच्छुक है और दुख से डरता भी है किन्तु सुख को प्राप्त नहीं कर पा रहा है और दुख का विछोह भी नहीं कर पा रहा है। इसमें एक कारण है। चूँकि सुख अनादिकाल से प्राप्त नहीं है, अतः अनादिकाल से दुख का अनुभव करने का स्वभाव सा बन गया है, वास्तव में यह विभाव है, लेकिन एकदम स्वभाव के समान हो गया है इसलिए निरन्तर दुख के ही कर्म आते जा रहे हैं। आचार्य कहते हैं कि यह प्राणी प्रत्येक समय उसी दुख की सामग्री को ही अपनाता जा रहा है और सतत् दुख का अनुभव कर रहा है। जिस प्रकार आप लोग दुकानदारी में बैलेन्स को मजबूत में लगे हुए हैं। यूँ कहना चाहिए प्रत्येक संसारी प्राणी एक उद्योगपति है और जैसे उद्योगपति कभी भी अपने को फेल नहीं होने देता, बैलेन्स मजबूत बनाये रखता है इसी प्रकार कर्मबन्ध के क्षेत्र में वह अपने कार्य को करने में सजग है और सुचारू रूप से कार्य को संभाल रहा है और सुख की प्राप्ति और बंध की व्युच्छिति चाहते हुए भी, स्वतंत्र होते हुए भी बंधन का कार्य करता जा रहा है। उसी बंध-तत्व के बारे में आज आपको कुछ सुनाना है, बताना है। बंध से डरना, यह भव्य का कार्य है। भव्य कहते हैं होनहार को। जैसे आपके परिवार में कई बच्चे होते हैं लेकिन होनहार एकाध को ही आप कहते हैं। इसी तरह मोक्षमार्ग को अपनाने वाले होनहार कुछ प्राणी अलग होते हैं जो बंध से डरते हैं। बंध से डरना इतना ही पर्याप्त नहीं है, बंध के कारणों से डरना यह भी परम आवश्यक है मुक्ति की प्राप्ति के लिए। दस-पंद्रह वर्ष पूर्व की बात है, एक पेड़ के नीचे बैठा था मैं, और देख रहा था उस आक के फूल को जो बहुत हल्का होता है और देखने में बहुत सुहावना होता है। रंग भी सफेद होता है उनका। एक बार यदि कोई बच्चा देख ले उसे, तो वह भी उस फूल के समान उड़कर उसको पकड़ने का प्रयास करता है। मैं देख रहा था, वह फूल बिना हवा के झोंके के भी उड़ता रहता है और ज्यादा हवा आ जाये तो संभाल नहीं पाता अपने आपको और नीचे आकर कोई गीली चीज मिल गयी कि बस वहीं चिपक जाता है। इसको कहते हैं संयोग। ज्यों ही वह चिपक गया, उसका स्वभाव जो उड़ने का था वह समाप्त-प्राय: हो गया। थोड़े ही समय में कब वह पंखुड़ियाँ टूट गयीं-कुछ पता नहीं। अब उसका अस्तित्व भी समझ पाना मुश्किल हो गया। एक बार आद्रता के साथ संयोग का यह परिणाम निकलता है तो बार-बार यह जीव रागद्वेष रूपी आद्रता का संयोग करता ही रहे तो क्या परिणाम होगा? आप ही सोची क्या आप उधर्वगमन कर सकोगे, जो कि आत्मा का स्वभाव है। जिस प्रकार वह आक का फूल आद्रता के संयोग में आ गया और अपने उड़ने के स्वभाव को खो बैठा, उसी प्रकार यह आत्मा प्रत्येक समय, रागद्वेष की संगत में अपने उध्र्वगमन स्वभाव को भूल गया है और संयोग की सामग्री हर समय खरीदता ही जा रहा है। आगे के लिए बीजारोपण करता जा रहा है। जिस प्रकार कृषक फसल काटता है और सर्वप्रथम उसको खाने से पहले बीज की व्यवस्था कर लेता है उसी प्रकार आप भी एक कुशल कृषक के समान, कर्मों का फल भोगते भी जा रहे हैं और आगे बोने के लिए बीज (नये कर्म) की व्यवस्था भी कर रहे हैं। प्रत्येक समय नये कर्मो के साथ संयोग हो रहा है और संयोग का अर्थ है - बंध। 'समीचीन रूपेण योग: इति संयोग:' या ऐसा कहो कि ‘समीचीन रूपेण आस्रवणाय इति संयोग:।” जहाँ संयोग होगा वहाँ आस्त्रव तो हो ही रहा है। और आस्त्रव का अर्थ है - योग। संयोग के उपरान्त यदि वहाँ आद्रता है, चिकनाहट है, रागद्वेष हैं तो बंध हो जाता है। ‘‘अन्योन्य प्रदेशानुप्रवेशात्मको बधः । कयोः। कर्मात्मनोः।।'' कर्म प्रदेशों का आत्मप्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना ही बंध है। कर्म और आत्मा का ऐसा संयोग होने के उपरांत गठबंधन हो जाता है और वे एक दूसरे को स्थान दे देते हैं। दोनों के बीच बंधन हो जाता है, एकमेकता हो जाती है, यही बंध है। दो के बिना बंध नहीं होता, यह ध्यान रखना। एक हाथ से ताली जिस प्रकार नहीं बज सकती उसी प्रकार बंध तत्व भी एक के बीच में नहीं हो सकता। सांसारिक जो विषय सामग्री है वह और उसका जो भोक्ता है आत्मा, ये दोनों संयोग होते ही बंध जाते हैं। अब यह देखता है कि यह कैसा बंध हो जात है? कैसा सम्बन्ध हो जाता है ? एक उदाहरण के माध्यम से समझ लें आप। स्कूल में एक बच्चा और बच्ची पढ़ते हैं, बाल्यावस्था की बात है, निर्विकार भाव से पढ़ रहे हैं और भाई-बहन के समान रह रहे हैं। फिर जब पढ़ते-पढ़ते बड़े हो जाते हैं तो अपने-अपने बच्चों के ऊपर माँ पिता का ध्यान जाता है और विचार उत्पन्न होते हैं कि अब वे बड़े हो गये, इनकी शादी कर देनी चाहिए। अब देख लो- वह लड़की की माँ कह देती है अपने पति से। उसके साथ ही साथ लड़के की माँ है, वह कहती है, लड़का बड़ा हो गया, बहू नहीं लाओगे क्या ? दोनों बच्चे अभी तो बचपन में खेलते थे, कूदते थे, साथ-साथ उठते-बैठते थे तो माँ-पिता ने सोचा प्रेम-भाव भी परस्पर है। दोनों श्रेष्ठ भी हैं इन्हीं का सम्बन्ध जोड़ दिया जाये तो बहुत अच्छा है और दोनों का सम्बन्ध/विवाह लग्न हो जाता है। लग्न का अर्थ एक दूसरे से मिल जाना, संलग्न हो जाना। 'समीचीन रूपेण लग्न: संलग्न' दोनों समीचीन रूप से एक विचार में एक आचार में बंध गये। बंध गये का अर्थ कोई रस्सी आदि से बाँध दिया है ऐसा नहीं है। सम्बन्ध हो गया, पाणिग्रहण हो गया, लेकिन दूरी दिखती है। दूरी होते हुए भी सम्बन्ध हो गया। पहले जो साथ-साथ खेलते कूदते थे, पढ़ते थे अब घूंघट आ गया उस बच्ची के। यह घूंघट ही उस सम्बन्ध का प्रतीक हो गया। दोनों अलग-अलग हैं। प्रत्येक कार्य अलग-अलग करते हुए भी जुड़ गये हैं और जीवन में परिवर्तन आ गया है। यह वैवाहिक सम्बन्ध भी अपने आप में एक थ्योरी (सिद्धान्त) रखता है। जीव के आचार-विचार एकमेक हो जाते हैं अगर आचार एक नहीं रहेगा, विचार एक से नहीं रहेंगे तो विघटन आ जायेगा, वह सम्बन्ध विघटित हो जायेगा। इससे यह फलित हुआ कि सम्बन्ध दो के बिना नहीं चलता और दोनों में एकमेकता भी होनी चाहिए।' अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेश' का अर्थ भी यह है कि एक दूसरे में घुल मिल जाना। जैसे नट और बोल्ट है कि एक को खींची तो दूसरा भी साथ में खिंचकर चला आता है। यह है बंध की प्रक्रिया। जिस व्यक्ति का विवाह सम्बन्ध संस्कार के साथ हुआ होता है वह जीवत्व के प्रति वास्तविक वात्सल्य का प्रतीक है। जिनको संन्यास आश्रम में प्रविष्ट होने की अभी सामथ्र्य नहीं है वे कुछ दिन गृहस्थ आश्रम में रहकर देख लें लेकिन उसके उपरान्त उसको भी पार करके निकल जायें तभी सार्थकता होगी। उन सांसारिक वैवाहिक बंधनों के समान ही धार्मिक क्षेत्र में बंध-तत्व है। 'इसका कोई न कर्ता हर्ता अमिट अनादि है, जीव अरु पुद्गल नाचै। यामें कर्म उपाधि है।' इस संसार को बनाने वाला या नष्ट करने वाला कोई नहीं है। यह तो अनादिकाल से है और अनन्त काल तक रहेगा। जीव अपने परिणामों से पुद्गल कर्म के संयोग से इस लोक में भ्रमण करता रहता है। यह कर्मबन्ध ऐसा है कि अब एक निश्चित काल के लिए न तो पुद्गल पृथक् हो सकता है और न ही आत्मा पृथक् हो सकती है। दोनों के बीच एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हो जाता है कि दोनों छूट नहीं सकते किसी अलौकिक रसायन के बिना। आप पूछ सकते हैं कि महाराज! यदि आत्मा मूर्त कर्म के साथ सम्बन्ध करता है तो क्या वह भी मूर्त है। क्योंकि अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध तो हो नहीं सकता। हाँ भइया, वर्तमान में संसारी जीव की आत्मा मूर्त है लेकिन वह पुद्गल के समान मूर्त नहीं है स्पर्श, रस, गंध और रूप वाला वह तो चैतन्य है। जड़ तत्व की संगत में आने से मूर्त बन गया है। मूर्त हुए बिना मूर्त के साथ सम्बन्ध होगा ही नहीं। लौकिक दृष्टि से भी जैनाचार्यों ने कहा है कि देवों के साथ मनुष्यों का व्यावहारिक काम सम्बन्ध नहीं हो सकता क्योंकि देव वैक्रियिक शरीर वाले हैं और मनुष्य का शरीर औदारिक है। इस मूर्त का मूर्त से सम्बन्ध समझाने के लिए कुछ लोग आकर कह देते हैं कि आत्मा तो अलग ही रह जाता है और कर्म, कर्म के साथ बंध जाता है किन्तु ऐसा नहीं है। विचार करें कि ‘‘कर्मः कर्मणोः अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बंधः' अथवा 'आत्माननोः अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बंध:।" ऐसा तो जैनाचार्यों ने लिखा नहीं है। इसलिए यह प्रश्न तो ज्यों का त्यों बना रहता है कि अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध कैसे होता है? इसी का समाधान देते हुए आचार्यों ने कहा है कि संसारी जीव के प्रति ऐसा एकान्त नहीं कि वह अमूर्त ही है। 'मूतोंपिस्यात् संसारापेक्षा' अर्थात् संसारी जीव कथचित् मूर्त होता है। संसार में इसका स्वभाव बिगड़ गया है। इसलिए यह मूर्त कर्म के साथ अनादिकाल से मूर्तपने का अनुभव कर रहा है किन्तु वह चैतन्यमूर्ति है। यदि अपनी आत्मा को वर्तमान में कथंचित् मूर्त मानेंगे तभी अमूर्त बनने का प्रयास भी होगा, अन्यथा नहीं होगा। साथ ही साथ वर्तमान में आत्मा मूर्त है लेकिन इसमें अमूर्तपना आ सकता है, इस प्रकार का जब विश्वास करेंगे आप, तभी बंध के यथार्थ श्रद्धानी कहलायेंगे, अन्यथा नहीं। आत्मा में जो मूर्तपना आया है वह पुनः वापिस अमूर्त में ढल सकता है क्योंकि वह संयोगजन्य है, स्वभावजन्य नहीं। इस प्रकार एक अलग ही क्वालिटी का मूर्तपना इस जीव में आया है। इसे उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। आप लोगों को यह विदित होगा कि बाजार में कई प्रकार की भस्में आती हैं, लोह भस्म है, स्वर्ण भस्म है, मोती भस्म है। ऐसी ही एक पारद भस्म (पारे की भस्म) आती है। पारे को जलाया जाता है बहुत घंटों तक। तब वह पारा भस्म के रूप में परिवर्तित हो जाता है और औषधि इत्यादि के रूप में काम आता है। यदि पारा खा लोगे तो वह नुकसान कर जायेगा, शरीर में नहीं टिकेगा, शरीर सारा का सारा विकृत हो जायेगा। पारे को सामान्यतया कोई पकड़ भी नहीं सकता क्योंकि वह शुद्ध तत्व है। विशुद्ध-तत्व हाथ से पकड़ में नहीं आता जैसे सिद्ध परमेष्ठी को आप पकड़ नहीं सकते। अहन्त परमेष्ठी संसार दशा में स्थित होने से अभी पकड़ में आते हैं क्योंकि मूर्त हैं। इसका अर्थ यह हो गया कि वह पारा अपनी शुद्ध दशा में मूर्त होकर भी अभी पकड़ में नहीं आ रहा है किन्तु घंटों जलते रहने के बाद वह जब भस्म के रूप परिणत हो जाता है तो पकड़ में आने लगता है और वैद्य लोग उसे औषधि के रूप में प्रयोग में लाते हैं। लेकिन एक बात और ध्यान में रखना कि इस पारे की भस्म की यह विशेषता है कि इसे खा लेने के उपरान्त यदि खटाई का प्रयोग हो गया पुन: वह अपनी सहज दशा में आ जायेगा और शरीर को विकृत कर देगा। ठीक इसी प्रकार यह आत्मा रागद्वेष रूपी अग्नि के माध्यम से यद्यपि पारे की भस्म के समान हो गया है, पकड़ में आने लगा है तथापि यदि चाहे तो वह अपनी शुद्ध अवस्था में भी पहुँच सकता है। वर्तमान में यदि हम आत्मा को मूर्त नहीं मानेंगे तो बंध-तत्व की अवस्था नहीं हो सकेगी और 'बंधापेक्ष: मोक्ष: "- बंध की अपेक्षा से मुक्ति है तो मोक्ष-तत्व भी सिद्ध नहीं हो पायेगा और मोक्ष तत्व के अभाव में संसार भी नहीं रहेगा, अन्य द्रव्य भी नहीं रहेंगे जो कि संभव नहीं है। अत: वर्तमान में अपने आत्मा को मूर्त मानना होगा और उसे अमूर्त बनाने के लिए नि:शंक होकर मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना होगा। कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि 'अबद्ध: अस्पृष्ट: आत्मा', यह आत्मा अबद्ध है, अस्पृष्ट है लेकिन संसार दशा में विवक्षा भेद से कथचित् बद्ध भी है और स्पृष्ट भी है। जो जीव भावना भाता है वह उस भावना के माध्यम से अबद्ध/शुद्ध बन सकता है यदि हम बद्ध ही नहीं हैऐसा एकान्त से मान लेंगे तो फिर भावनाओं की क्या आवश्यकता है? इसीलिए आचार्यों ने कहा कि अबद्ध बनने के लिए, ‘मैं अबद्ध हूँ'- ऐसी भावना यदि जीव भायेगा तो वह अबद्ध बनने की ओर अग्रसर होगा, अन्यथा नहीं। एक सूत्र आता है मोक्षशास्त्र में "विग्रहगतौ कर्मयोग:" एक गति से जीव दूसरी गति तक शरीर रचना के लिए जाता है तो विग्रह गति होती है और उस समय मात्र कर्म की ही सत्ता चलती है। वहाँ मात्र कार्मण काययोग रहता है। अब यदि कोई ऐसा मानें कि कर्म तो मात्र कर्म से बंधे हैं, आत्मा तो अलग ही रहता है तो इस स्थिति में कर्म, कर्म को ही खींचते चले जाना चाहिए और आत्मा को वहीं पर रह जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता। उस आत्मा को भी कर्म के साथ नरक आदि गतियों में जाना पड़ता है और अधिकतम् तीन समय तक अनाहारक भी रहना पड़ता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि कर्म के साथ आत्मा का गठबंधन हुआ है, एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है। अब उस आत्मा को अमूर्त कैसे बनाया जाये, वह प्रश्न उठेगा ही। तो कोई बात नहीं, हमारे पास आ जाओ इधर। वीतरागता के पास आ जाओ। वीतरागता रूपी खटाई का संयोग प्राप्त होते ही यह आत्मरूपी पारद भस्म अपने आप ही सहज दशा में आ जायेगी। कर्म वर्गणाएँ पृथक् हो जायेंगी। चार प्रकार के बंध होते हैं अर्थात् जो आगत कर्म है इनमें चार प्रकार के भेद पड़ते हैं। आत्मा के योग के माध्यम से प्रकृति और प्रदेश बंध होता है तथा कषाय के माध्यम से स्थिति और अनुभाग बंध होता है। कितने कर्म आ रहे हैं कार्मण वर्गणाओं के रूप में परिणत होकर, इसको कहते हैं प्रदेश बंध और कौन-सा कर्म क्या काम करेगा अर्थात् उसका नेचर (स्वभाव) ही प्रकृति बंध है। इसके उपरान्त कषाय के द्वारा काल मर्यादा और फलदान शक्ति को लेकर क्रमश: स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं। सर्वप्रथम आती है अनन्तानुबन्धी कषाय। जैसे किसी मेहमान को निमंत्रण दे दें आप, और जब वह आ जाये तो कह देते हैं कि यहीं रहो भइया, तुम्हें यहाँ से कोई निकालने वाला नहीं है। आराम से रहो और खाओ पिओ बस। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय जब तीव्र होती है तो मिथ्यात्व को सत्तर कोडा कोडी सागर तक के लिए आत्मा के साथ एक प्रकार का ऐशी आराम सा मिल जाता है। इतनी अधिक स्थिति वाला कर्म-बंध होता है इस कषाय के द्वारा। वह सत्तर कोड़ा कोडी सागर तक के लिए मिथ्यात्व को निमंत्रण देने वाला, अनन्तानुबन्धी कषाय वाला मुख्य रूप से मनुष्य गति का जीव है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये अत्यधिक मनुष्य ही कर सकता है। और वह भी भोगभूमि का मनुष्य नहीं बल्कि कर्मभूमि का मनुष्य। इस तरह जो स्थिति और अनुभाग बंध है, इनके द्वारा कर्म एक निश्चित समय के लिए बंध जाते हैं और उसके उपरान्त अपना फल देते हैं। जो भी बंध हो रहा है वह जीव की एक ऐसी गलती है जिसके माध्यम से कर्म आकर चिपक जाते हैं। यदि कर्म बांधना नहीं है बल्कि मुक्त होना है तो उसके लिए एक ही रास्ता है, एक ही साधन है कि हम वीतरागता रूपी खटाई का प्रयोग करें, अनुपान करें और आत्मा जो मूर्त बना है उसे अमूर्त बना लें। प्रसंगवश वह विषय यहाँ पर ले रहा हूँ कि अनन्तानुबन्धी से बचने के लिए क्या करें? इससे बचने के उत्तम उपाय यही है कि आप जिस किसी भी क्षेत्र में कार्य करते हैं वहाँ अपनी नीति और न्याय को न भूलें। भले ही वह वैश्य हो, क्षत्रिय हो, ब्राह्मण हो या नौकर चाकर, सेठसाहूकार जो भी हों, अपनी-अपनी नीति न्याय को न भूलें। आचार्यों ने जो चारित्र का पथ प्रशस्त किया है उस पर श्रद्धा सहित चलते रहने का तात्पर्य यही है कि हम कम से कम पापों से, कषायों से अपने को बचा सकें। जो मोक्षमार्ग पर आना चाहते हैं, कर्म बंध से बचना चाहते हैं उनके लिए न्याय-नीति पूर्वक स्वयं को संभालने की बड़ी आवश्यकता है। सदाचार पालन करने की बड़ी आवश्यकता है। कर्म सिद्धान्त पर जिसका विश्वास है वह व्यक्ति येन केन प्रकारेण कोई भी कार्य नहीं करेगा। वह कार्य करने से पूर्व विचार अवश्य करेगा। मेरे इस कार्य को करने से अन्य किसी को कोई आघात तो नहीं पहुँच रहा है- ऐसा पूर्वापर वह अवश्य सोचेगा। कुल परम्परा से जो चारित्र आया है उसको हम पालन करते रहते हैं और इसे कहते हैं चारित्र-आर्य। लेकिन हम इस तरह चारित्र-आर्य होकर भी, भगवान महावीर के सच्चे उपासक होकर भी क्या इतने नियामक नहीं बन सकते हैं कि अपना प्रत्येक कार्य नीति और न्याय के आधार पर ही करेंगे। मात्र प्रवचन सुन करके, तीर्थयात्रा करके या दान पूजा इत्यादि करके क्या आप महावीर भगवान् को खुश करना चाहते हैं? इतने मात्र से आप कुछ नहीं कर सकेंगे भइया। ‘एक व्यक्ति ने आकर कहा कि महाराज! मैंने त्याग कर दिया है आलू, तो मैंने भी कहा भइया! बिल्कुल आप ही दयालु, फिर भी चोरी करना है चालू, बकरी के सामने बन बैठे हो भालू।” हमारे आचार्यों की त्याग के प्रति बहुत सूक्ष्म दृष्टि रही है। किस प्रकार का त्याग करना और कैसे करना, यह जानना अनिवार्य है। आलू का त्याग करने मात्र से कुछ नहीं होने वाला। सर्वप्रथम जो भी व्यक्ति महावीर भगवान् के बताये हुए मार्ग पर आरूढ़ होना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले जीवों की रक्षा करनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति आत्मा के उत्थान की ओर अग्रसर हो सकता है इसलिए सर्वप्रथम तो प्रत्येक प्राणी के प्रति दया भाव होना चाहिए। संकल्पी हिंसा का त्याग पहले आवश्यक है और उसमें भी मनुष्य की हिंसा से बचना- ऐसा कहा गया है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के पास यह क्षमता है कि वह मुनि बन सकता है और इस मुनि अवस्था में, उस पवित्र आत्मा के माध्यम से, उसके दर्शन मात्र से असंख्यात जीवों के अनन्तकालीन पाप कट सकते हैं। इतनी क्षमता है उस मुनिमुद्रा में, वीतराग मुद्रा में। वह मुनिमुद्रा बाह्य में ही नहीं, अन्तरंग में बैठे अमूर्त आत्म तत्व के बारे में भी बिना बोले ही अपनी वीतरागता के माध्यम से तिर्यचों तक को उपदेश देती है। इसलिये आज यह संकल्प कर लेना चाहिए कि अपने जीवन में मात्र अपनी विषयवासनाओं की पूर्ति के लिए किसी संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य का घात नहीं करेंगे, उस पर अपने बल का प्रयोग नहीं करेंगे। अभयदान की ऐसी क्षमता सभी के पास होनी चाहिए। जो अपने क्षणिक सुखों की तिलांजलि देकर अन्याय छोड़ने और दूसरे के जीवन को बचाने के लिए तैयार है वही सच्चा महावीर भगवान् का उपासक है। वही दान, सच्चा दान कहलाता है जो नीति-न्याय से कमाने के उपरान्त कुछ बच जाने पर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि दूसरे का गला दबाकर, उससे हड़पकर दान कर देना। गत वर्ष की बात है कुण्डलपुर जी में लोग बोलियाँ बोल रहे थे। एक ने पचास रुपये कहा तो दूसरे ने पचपन रुपये कह दिया। पचास रुपये बोलने वाला अब कह देता है कि पचपन रुपये वाले को बोली है, वही देगा। यह क्या है? भगवान् के सामने बैठकर ऐसा कह देते हैं आप और अपने को दानी घोषित करना चाहते हैं। यह मात्र लोभ कषाय के वशीभूत होकर चोरी, जारी, अनाचार, अत्याचार करके कमाये हुए पैसे को यहीं मंदिर में आकर मान-कषाय को पुष्ट करने के लिए दान दे देना, यह दान नहीं है। अन्याय करने के उपरान्त यह नहीं सोचना चाहिए कि भगवान् कहाँ देख रहे हैं। भगवान् को सर्वव्यापी और विश्व लोचन कहा है। वह केवलज्ञान ऐसा है जो सभी को एक साथ देख लेता है। इसलिए जो व्यापारी हैं वे संकल्प करें कि उनकी दुकान पर जो भी व्यक्ति आता है उसे नीति-न्याय पूर्वक हम सामग्री देंगे, वस्तु देंगे। इसी प्रकार जो और दूसरे कार्य करते हैं वे भी अपना कार्य न्यायपूर्वक करें। "मरहम पट्टी बाँधकर, कर व्रण का उपचार, यदि ऐसा न कर सके, डंडा तो मत मार।" कम से कम किसी के घावों के ऊपर मरहम पट्टी नहीं लगाना चाहते या लगाने की शक्ति नहीं है तो उसे डंडा तो मत मारो। कम से कम आँख खोलकर तो चलो, किसी के ऊपर पैर रखकर उसका घात तो मत करो, वह भी तो हमारे समान जीव ही है। जो व्यक्ति प्रत्येक जीव-तत्व के प्रति वात्सल्य नहीं रखता, वह भगवान् के प्रति वात्सल्य रखता होगा- यह संभव ही नहीं है। जो जीव हैं उनके ऊपर वही वात्सल्य, वही प्रेम, वही अनुकम्पा होनी चाहिए जो भगवान् के प्रति आपकी होती है, यही जीव-तत्व का सच्चा श्रद्धान है। एक आस्तिक्य गुण कहा गया है जो सम्यग्दृष्टि के पास होता है। आस्तिक्य गुण का अर्थ यह नहीं है कि मात्र अपने अस्तित्व को ही स्वीकार करना। दुनिया में जितने पदार्थ हैं उसको यथावत उसी रूप में स्वीकार करना यह आस्तिक्य गुण है। जो दूसरों के भी जीवत्व को देखता है उसे ही आचार्यों ने आस्तिक्य कहा है अन्यथा वह नास्तिक है। जो दूसरे में जीवत्व देखेगा वह कभी भी विषयों का लोलुपी बनकर उनके घात का भाव नहीं लायेगा। गृहस्थाश्रम में कम से कम यदि किसी को कुछ दे नहीं सकते तो उससे हड़पने का भाव भी नहीं लाना चाहिए। भाई! राम बनो, रावण मत बनो। राम के पास भी पत्नी थी और रावण के पास तो राम से भी ज्यादा थीं क्योंकि वह प्रतिनारायण था। लेकिन भूमिगोचरी राम की पत्नी सीता पर उसने दृष्टिपात किया और उसका हरण भी किया। इतना ही नहीं, राम-लक्ष्मण दोनों को मारने का संकल्प भी किया, क्योंकि जब तक राम रहेंगे, सीता रावण की नहीं हो सकेगी। सीता यथापि राम के लिए भोग्य थीं और रावण की दृष्टि में भी भोग्य थीं लेकिन रावण की दूषित दृष्टि में सीता मात्र भोग्या थीं और कुछ नहीं, जीवत्व की ओर रावण का ध्यान नहीं था। जीवत्व की ओर ध्यान तो राम ने दिया। राम के लिए सीता मात्र पत्नी या भोग्य नहीं थी वरन् अपने मार्ग पर चलते हुए राम ने उन्हें सहगामी भी माना। इसलिए उनकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी राम ने अपने ऊपर माना। राम ने स्पष्ट कह दिया कि मैं रावण से सीता को वापिस लाऊँगा, भले ही लड़ना पड़े। यह संकल्पी हिंसा नहीं थी, मात्र विरोधी हिंसा थी। उन्होंने कहा कि मैं रावण का विरोध करूंगा अन्यथा जैसे सीता चली गयीं, वैसे ही राज्य की अन्य रानियाँ चली जायेंगी, सभी के प्राण संकट में पड़ जायेंगे। वे सीता को वापिस लाये और अग्नि-परीक्षा भी हुई। उसके उपरान्त सीता जी ने कह दिया कि मैं अब आर्यिका माता बनूँगी और यह श्रीराम की विशेषता थी कि जिस समय सीता दीक्षा ले लेती हैं, आर्यिका बन जाती हैं उसी समय राम कहते हैं कि वंदामी माताजी! धन्य है आपका जीवन। मैं भी शीघ्र ही आ रहा हूँ आपके पथ पर। राम ने सीता जी को दीक्षा लेते ही वंदामी किया और मातेश्वरी कहा। यह है सम्यग्दृष्टि राम की दृष्टि और मिथ्यादृष्टि रावण की दृष्टि देखो कि मरते वक्त तक वह यही कहता रहा कि राम मैं तुम्हें मारूंगा और सीता को लूगा। यही कारण है कि राम की पूजा होती है, रावण की नहीं। अत: न्याय - नीति के अनुसार अपना व्यवहार रखना चाहिए। आज कौन-सा ऐसा व्यक्ति है जो सरकारी क्षेत्र में नौकरी करता हो और सरकार को यह विश्वास दिलाता है कि मैं कभी रिश्वत नहीं लूँगा। कोई भी सरकार रहे, वह कभी भी आपको भूखा नहीं मारना चाहती। आपकी संतान नाबालिग रह जाये तो भी आपके मरने के बाद उसका प्रबंध कर देती है। हमें भी सरकार के प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए और नियम के विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिए। कई लोग आकर कहते हैं कि हम नौकरी करते हैं। बहुत बंधकर के रहना पड़ता है, छुट्टी नहीं मिलती, धर्म ध्यान नहीं कर पाते और अक्सर देखने में यही आता है कि जब कोई सांसारिक वैवाहिक कार्य आ जाता है तो डॉक्टर से मेडिकल सर्टीफिकेट लेकर लगा देते हैं और छुट्टी ले लेते हैं। यह तो दुगना अन्याय है। एक डॉक्टर जिसने एम.बी.बी.एस.किया और वह निरोगी व्यक्ति को रोगी कहकर सर्टीफिकेट देता है और उसके माध्यम से रिश्वत खाता है, साथ ही वह व्यक्ति भी जो सरकार को धोखा देकर अन्याय करता है तब संयोगवश ऐसे व्यक्ति को रोग न होते हुए भी रोग आ जाते हैं। यह साइकोलॉजीकल इफेक्ट होता है और उसका सारा का सारा पैसा दवा इत्यादि में ही समाप्त हो जाता है। मन में भय बना रहता है कि कहीं झूठ मालूम न पड़ जाये और नौकरी न चली जाये। भइया! सत्य को बेचना नहीं चाहिए थोड़े से पैसों के लिए। सत्य तो सत्य है, आत्मा का एक गुण है और आत्मा के संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक चले जाते हैं। सत्य को छोड़कर मात्र इन्द्रिय सुखों के लिए असत्य का आश्रय नहीं लेना चाहिए। अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि धर्म का पालन करना चाहिए जिनके माध्यम से आत्म-बल जागृत होता है। यह कषायों को समाप्त करने की बात है। यह सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए भूमिका की बात है। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय के घात होने पर ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति संभव है, अन्यथा नहीं। सम्यग्दर्शन को मात्र चर्चा का विषय नहीं मानना चाहिए, कुछ अर्चा भी करनी चाहिए और अर्चा वही है कि हम दर्शन-आर्य बन जायें और सच्चे देवगुरु-शास्त्र के प्रति सच्चा श्रद्धान रखें और आगे बढ़कर उस अनन्तानुबन्धी कषाय को अपने मार्ग से हटा दें मिथ्यात्व को भगा दें, तभी सार्थकता होगी इस जीवन की। अंत में आपसे इतना ही कहना चाहूँगा कि आत्मा वर्तमान संसारी दशा में अमूर्त नहीं है, वीतरागता के माध्यम से यह अमूर्त बन सकती है। कर्म का सम्बन्ध आत्मा से अनादिकालीन है और मात्र कर्म, कर्म से नहीं बंधा है बल्कि कर्म और आत्मा का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हुआ है। उसका विघटन या तो सविपाक निर्जरा के माध्यम से हो सकता है अथवा अविपाक निर्जरा के माध्यम से, किन्तु सविपाक निर्जरा के द्वारा जो विघटन होगा उसमें आगे के लिए संतति अर्थात् नये कर्म की प्राप्ति होगी, जैसे भोगभूमि का जोड़ा। भोगभूमि के जोड़े ऐसे हैं कि जीवन के अन्तिम समय तक भोग भोगते रहते हैं किन्तु संतान नहीं होती लेकिन जब आयु समाप्त होने लगती है तो संतान छोड़कर ही जाते हैं। ऐसे ही सविपाक निर्जरा से एक कर्मबन्ध तो समाप्त हो जाता है परन्तु आगे के लिए नया कर्मबन्ध भी होता रहता हैं। इसलिए कर्मबन्ध की परम्परा को समाप्त करने के लिए अविपाक निर्जरा का आलंबन लेना चाहिए। 'तपसा निर्जरा च'- तप के द्वारा संवर भी होता है और तप के द्वारा अविपाक निर्जरा भी होती है। श्रावक को अपनी भूमिका के अनुसार न्यायनीति पूर्वक चलना चाहिए। सम्यग्दर्शन की भूमिका भी वही है कि हम कषायों को कम करें और सत्य का अनुसरण करने का प्रयास करें। बंध-तत्व को समझने और मुक्त होने का यही उपाय है।
  4. सात तत्वों में विद्यमान जीव-अजीव के उपरान्त अब आता है आस्रव। ‘स्त्रव' धातु बहने के अर्थ में है स्रवति अर्थात् बहना, सरकना, स्थान से स्थानान्तर होना और इस 'स्रव' धातु के आरंभ में 'आ' उपसर्ग लगा दिया जाए तो आस्त्रव शब्द की उत्पत्ति हो जाती है। जैसे गच्छति का अर्थ होता है जाना और आगच्छति का अर्थ है आना। नयति का अर्थ है ले जाना और आनयति अर्थात् ले आना। इस प्रकार इस 'आ' उपसर्ग के अनुरूप धातु का अर्थ विपरीत भी हो जाता है जैसे दान और आदान। देना बहुत कम पसन्द करते हैं आप लोग, आदान यानि लेने के लिए जल्दी तैयार हो जाते हैं। यहाँ आस्त्रव का अर्थ है सब ओर से आना। आस्रव के दो भेद आचार्य करते हैं-एक भावास्त्रव और दूसरा द्रव्यास्त्रव। द्रव्यास्त्रव का अर्थ है बाहरी चीजों का आना और भावास्त्रव का अर्थ है अन्दर ही अन्दर आना। यह बहुत रहस्य की बात है कि आत्मा है ही और फिर आत्मा में क्या आना है? आचार्य उमास्वामी ने मोक्षशास्त्र के छठे अध्याय के प्रारंभ में ही सूत्र लिखा है कायवाङ्मनः कर्मयोगः॥ १॥ स आस्त्रवः॥ २ ॥ शुभ पुण्यस्याशुभः पापस्य॥ ३ ॥ उन्होंने बड़ा विचार किया होगा, बहुत चिन्तन किया होगा कि यह आस्रव क्यों होता है तभी ऐसे सूत्र लिखे गये होंगे। सामान्यतया यही धारणा होती है कि कर्म के उदय से आस्रव होता है किन्तु गहरे चिन्तन के उपरान्त यह फलित हुआ कि आस्रव मात्र कर्म की देन नहीं है, यह आस्रव आत्मा की ही अनन्य शक्ति 'योग' की देन है। कर्मों के ऊपर ही सब लादने से हम कमाँ की क्षमता को ठीक-ठीक समझ नहीं सकेंगे। कर्म जबरदस्ती आत्मा में शुभाशुभ भाव पैदा कर सके, यह संभव नहीं है। यदि कर सकते हैं तो आत्मा की स्वतंत्र सत्ता ही लुट जायेगी, तब पराई सत्ता अर्थात् कर्मों का कोई कभी अभाव नहीं कर पायेगा और कमाँ का आस्त्रव निरन्तर होता रहेगा। यह सामान्य कर्मों की बात कह रहा हूँ, विशेष कर्मों की बात नहीं। तो आस्रव योग की देन है और मन-वचन-काय की चेष्टा का नाम योग है। आप ध्यान से सुनेंगे तो आपको बहुत कुछ चिन्तन का विषय मिल जायेगा और आत्मा की उपादान शक्ति की जाग्रति आप इस दौरान करना चाहें तो कर सकते हैं। 'योग'-यह कर्म की देन नहीं है। कर्म की वजह से नहीं हो रहा है योग। 'योग' आत्मा की ही एक वैभाविक परिणति का नाम है। यद्यपि इस प्रकार का उल्लेख ग्रन्थों में ढूँढ़ने के लिए जायें तो बहुत मुश्किल से मिलेगा। जो चिंतन-मंथन करेंगे उन्हें अवश्य मिलेगा। खूब मंथन करो, आत्मा की शक्ति के बारे में खूब चिन्तन करो। अद्वितीय आत्म-शक्ति है वह, चाहे वैभाविक हो या स्वाभाविक हो। अपने यहाँ आठ कर्म हैं मूल रूप से। ज्ञानावरण का स्वभाव या प्रकृति ज्ञान को ढकना है। दर्शनावरण कर्म की प्रकृति दर्शन को ढकना है। वेदनीय की प्रकृति आकुलता पैदा करना है और मोहनीय की प्रकृति गहल भाव/मूछ पैदा करना है। इसके उपरान्त नाम कर्म का काम अनेक प्रकार के रूप पैदा करना, आकार-प्रकार देना है और गोत्र कर्म का काम ऊँच और नीच बना देना है। आयु कर्म का काम एक शरीर या भव विशेष में रोके रखना है। और अन्तराय कर्म वीर्य अर्थात् शक्ति को ढकने वाला है। यह सब उन कर्मों का स्वभाव हो गया। अब योग को किस कर्म की देन माना जाये। आठ कमाँ के जो उत्तर भेद हैं उनमें भी 'योग' को देने वाला कर्म नहीं है। ऐसी स्थिति में विचारणीय है कि योग क्या चीज है जो कर्मों को खींचने वाला है।'आसमन्तात् आदतो इति आस्त्रव:।' ऐसी कौन सी शक्ति है जो चारों ओर से आत्मा के प्रदेशों के साथ कर्म वर्गणाओं को लाकर रख देती है। तो वह शक्ति कोई और नहीं बल्कि 'योग' है वह योग किसी कर्म की देन नहीं है। वह न तो क्षायिक भाव में आता है न क्षायोपशमिक भाव में आता है। और न ही औदयिक भाव में आता है किन्तु योग को आचार्यों ने पारिणामिक भाव में रखा है। आपके मन में जिज्ञासा होगी कि अब तक हमने पारिणामिक भाव तो तीन ही सुने थे, यह चौथा कहाँ से आ गया। क्या आपका कोई अलग ग्रन्थ है महाराज! तो भाई मेरा कोई अलग ग्रन्थ नहीं है। किन्तु निग्रन्थ आचार्यों का उपासक मैं निग्रन्थ अवश्य हूँ। निग्रन्थों की उपासना से इस चीज की उपलब्धि संभव है। आप धवला जी ग्रन्थ देखें तो मालूम पड़ जायेगा कि योग पारिणामिक भाव में स्वीकृत है। यह आत्मा का ही एक मनचलापन या वैभाविक स्थिति है। जो कर्मो को खींचता है, फिर चाहे कर्म शुभ हों या अशुभ हों। अशुभयोग जब तक रहता है तब तक अशुभ प्रकृतियों का आस्रव होता है और शुभ योग होने पर शुभ प्रकृतियों का आस्रव होता है। लेकिन योग जब तक रहेगा तब तक आस्रव करायेगा ही। योग कर्म की देन नहीं है, यह अद्भुत बात सामने आयी। इससे आत्मा की स्वतंत्र सत्ता का भान होता है कि जब आत्मा ही आस्त्रव कराता है जो आत्मा उस आस्त्रव को रोक भी सकता है। अब यदि कोई व्यक्ति आस्त्रव को रोकना चाहे और यह कहकर बैठ जाये कि कमाँ का उदय है क्या करूं? तो उसे अभी करणानुयोग का ज्ञान नहीं है यही कहना होगा। धवलाकार वीरसेन स्वामी ने कहा है कि यह योग पारिणामिक भाव है पर ध्यान रखना, आत्मा का पारिणामिक भाव होते हुए भी आत्मा के साथ इसका वैकालिक सम्बन्ध नहीं है। कई पारिणामिक भाव ऐसे हैं जिनका सम्बन्ध आत्मा के साथ वैकालिक नहीं होता। जैसे अग्नि है और अग्नि में धुआँ है। धुआँ अलग किसी चीज से निकलता हो ऐसी बात नहीं है। धुआँ अग्नि से निकलता है और वह अग्नि अशुद्ध अग्नि कहलाती है। यदि अग्नि एक बार शुद्ध बन जावे तो फिर धुआँ नहीं निकलता। निधूम अग्नि का प्रकरण न्याय ग्रन्थों में पाया जाता है। न्याय ग्रन्थों में ऐसी व्याप्ति मानी गयी है कि "यत्र-यत्र धूम: तत्र-तत्र वह्नि अस्ति एव" जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँवहाँनियम से अग्नि है। लेकिन जहाँ-जहाँ अग्नि है वहाँ धुआँ हो यह नियम नहीं है, क्योंकि निधूम अग्नि धुआँ रहित होती है। जिस प्रकार निधूम अग्नि स्वाभाविक अग्नि है और सधूम अग्नि वैभाविक अग्नि है इसी प्रकार आत्मा के अंदर कुछ ऐसे परिणाम हैं जो वैभाविक हैं और कर्म की अपेक्षा भी नहीं रखते और कुछ ऐसे भी हैं जो स्वाभाविक हैं, वे भी कर्म की अपेक्षा नहीं रखते। योग आत्मा की वैभाविक परिणति है, जिसके माध्यम से आत्मा के एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-रेणु आकर चिपक रहे हैं। अब इसके उपरान्त हम आगे बढ़ते हैं, चिन्तन करते हैं कि जब योग है तो इससे मात्र कर्म आने चाहिए, शुभ और अशुभ का भेद नहीं होना चाहिए। आचार्य उमास्वामी ने तो शुभ और अशुभ दोनों का व्याख्यान किया है, ऐसा क्यों? तो आचार्य कहते हैं कि अशुभ का आस्रव कषाय के साथ होता है, जिसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं। 'साम्पराय: कषाय: तेन साकम् आस्त्रवति यत् कर्म तत्साम्परायिक कर्म इति कथ्यते'– जो योग कषाय के साथ सम्बन्ध को प्राप्त हो चुका है अर्थात् कषाय के साथ जो योग है उसके माध्यम से अशुभ का आस्रव होता है। कषाय से रहित योग के साथ मात्र शुभ का आस्रव होता है। साता वेदनीय का एक मात्र आस्रव होता है। इसका अर्थ हो गया कि कषाय के साथ जब तक योग रहेगा तब तक वह अशुभ कर्मों को अवश्य लायेगा, आप उसे रोक नहीं सकते। यहाँ आप लोगों की दृष्टि मात्र कर्म की ओर न ले जाकर परिणामों की ओर इसलिए ले जा रहा हूँ क्योंकि कर्मों के बारे में बहुत कुछ व्याख्यान हो चुके हैं। सम्यग्दर्शन फिर भी प्राप्त नहीं हो पा रहा है। बड़े-बड़े विद्वान् आकर पूछते हैं कि महाराज! सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त किया जाए? अब उनके लिए यह तो कहना मुश्किल हो गया कि समयसारजी पढ़ो। क्योंकि समयसार तो सभी ने रट रक्खा है। समयसार पढ़ते हुए भी सम्यग्दर्शन के लिए कह रहे हैं तो इसके लिए कोई रास्ता तो मुझे बताना ही होगा। हम तो निग्रन्थ परिषद से सम्बन्ध रखते हैं और आप सग्रन्थ परिषद के सदस्य हैं, इसलिए आपके सामने बोलते-बोलते सकुचा रहा हूँ। सग्रन्थ के साथ निग्रन्थ की क्या वार्ता! कैसी वार्ता! तो आगम को सामने रखकर सारी बात कह रहा हूँ। कषाय के साथ जो योग है उसी का आचार्यों ने एक दूसरा नाम रखा है-लेश्या। कषाय से अनुरंजित जो योग की प्रवृत्ति है, वह है लेश्या। वह लेश्या अर्थात् योग की प्रवृत्ति जब तक कषाय के साथ है तब तक वह अशुभ कर्मों का आस्रव कराने में कारण बन जाती है। कोई भी कर्म किसी भी आस्रव के लिए कारण नहीं है किन्तु कषाय जो कि आत्मा की ही परिणति है जो कि उपयोग की उथल-पुथल है वही आस्रव का कारण है। उपयोग की व्यग्रता-कषाय और योग की व्यग्रतालेश्या। आस्त्रव संसार का मार्ग कहलाता है क्योंकि जब तक आस्त्रव होगा तब तक कर्म रहेंगे और कर्म रहेंगे तो उनका फल मिलेगा, यह परतंत्रता है। इसी परतंत्रता से शरीर मिलता है, शरीर मिलेगा तो इन्द्रियाँ मिलेंगी, इन्द्रियाँ मिलेंगी तो विषयों का ग्रहण होगा जिससे कषाय जाग्रत होगी। इसी प्रकार यह श्रृंखला चलती है। आशय यह हुआ कि कषाय के साथ जो योग की प्रवृत्ति है वही अशुभ कर्मों के आस्रव के लिए कारण है। आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय में आस्रव-द्वारों के बारे में जो बंध के कारण हैं, उनका उल्लेख किया है - 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव:।' यहाँ योग को अन्त में लिया है और सर्वप्रथम रखा है मिथ्यात्व। मिथ्यात्व को बंध का कारण माना है पर यह समझने की बात है। मिथ्यात्व न कषाय में आता है, न योग में आता है। जबकि योग और कषाय के माध्यम से आस्त्रव-मार्ग और बंध-मार्ग चलता है। अपने को कषाय और योगों को संभालने की आवश्यकता है। आस्त्रव को यदि रोकना चाहते हो, आस्त्रव से यदि बचना चाहते हो, तो मिथ्यात्व की ओर मत देखो, वह अपने आप चला जायेगा। वह कुछ नहीं कर रहा है, अकिंचित्कर है। आस्रव और बंध के मार्ग में, ध्यान रखना। कुछ भी काम नहीं कर रहा, यह सुनकर आप चौंक न जायें इसलिए मुझे कहना पड़ा कि आस्रव और बंध के मार्ग में कुछ भी नहीं कर रहा है। हमें आस्रव और बंध को हटाना है मिथ्यात्व अपने आप हट जायेगा। हाथ जोड़कर चला जायेगा। उसको भेजने का ढंग अलग है। उसे सुनो, जानो और पहचानो। उसको हटाना है तो पहले उसको जानो कि वह करता क्या है? आस्रव और बंध के मार्ग में कुछ भी नहीं करता। यदि आस्रव और बंध के मार्ग में मिथ्यात्व प्रकृति को अकिंचित्कर कह दिया जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह चिन्तन करने पर मालूम पड़ेगा। श्रद्धान बनाओगे तो ही आगे बढ़ पाओगे। एक-एक चीज मौलिक है। सुनें, श्रवण करें और यदि आगम के विरुद्ध लगे तो बतायें, बड़ी खुशी की बात होगी, मैं जानने के लिए तैयार हूँ पर एक चिन्तन आपके सामने रख रहा हूँ। मिथ्यात्व कुछ नहीं करता यह मैं नहीं कह रहा हूँ परन्तु आस्रव और बंध के क्षेत्र में कुछ नहीं करता, यह कह रहा हूँ। यह शब्द देख लो आप, यदि भूल भी जावेंगे तो यह टेपरिकार्डर पास में है ही आपका। यह प्रतिनिधित्व करेगा, यह शब्दों को पकड़ रहा है। मिथ्यात्व को बंध का हेतु माना है और मिथ्यात्व प्रकृति के माध्यम से सोलह प्रकृतियों का आस्रव होता है। सोलह प्रकृतियों का आस्रव मिथ्यात्व के साथ ही होगा ऐसा आगम का उल्लेख है। तो मिथ्यात्व के साथ ही होगा, इसलिए मिथ्यात्व ने ही किया, सोलह प्रकृतियों का आस्रव ऐसा आप कह सकते हैं। लेकिन ध्यान रखो आस्त्रव का माध्यम योग है। योग मिथ्यात्व से अलग चीज है। मिथ्यात्व के साथ ही योग रहता है, यह नियम भी नहीं है क्योंकि यदि मिथ्यात्व के साथ योग रहेगा तो चतुर्थ आदि गुणस्थानों में जहाँ मिथ्यात्व नहीं है वहाँ योग का अभाव मानना पड़ेगा, जबकि योग तो तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक बना रहता है। इसलिये योग के साथ मिथ्यात्व की अन्वय व्याप्ति नहीं है। अत: मिथ्यात्व के आस्त्रव के लिए भी मिथ्यात्व का उदय मात्र कारण नहीं है। मिथ्यात्व का उदय भी मिथ्यात्व का आस्त्रव नहीं करा सकता। आस्त्रव कराने वाली शक्ति तो अलग है जो आत्मा की वैभाविक परिणति है, उपयोग का एक विपरीत परिणमन है। वह कषाय है। मिथ्यात्व सम्बन्धी जो सोलह प्रकृतियों का आस्रव होता है उनका आस्रव कराने वाला कौन है ? तो यही कहा जायेगा कि जो अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ योग का परिणमन हो रहा है वह मिथ्यात्व सम्बन्धी सोलह प्रकृतियों का आस्रव करा रहा है। इसके साथ-साथ, अनन्तानुबन्धी की जो पच्चीस प्रकृतियाँ हैं उनका भी वह आस्रव करायेगा। अनन्तानुबन्धी का जिस समय अभाव होगा और यदि मिथ्यात्व का उदय भी रहा आता है तो वहाँ पर न अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी पच्चीस प्रकृतियों का आस्रव होता है और न ही मिथ्यात्व सम्बन्धी सोलह प्रकृतियों का ही आस्रव होता है क्योंकि कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति ही आस्रव का कारण है, जिसका अभाव है। मिथ्यात्व की गिनती न ही योग की कोटि में आई है और न ही कषाय की कोटि में मिथ्यात्व को रखा गया है। मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय सम्बन्धी है और कषाय चारित्र-मोहनीय सम्बन्धी है। यही अन्तर है। और योग को पारिणामिक भाव माना गया है। इस तरह मिथ्यात्व की गिनती योग में भी नहीं है। बंधुओ! मिथ्यात्व से डरो मत, डरने से वह भागेगा नहीं। तरीका यही है कि आपत्तिकाल लगा दी। आपत्तिकाल चौथा काल है इसका सम्बन्ध न भूत से है, न भविष्य से और न ही वर्तमान से है। यह काल अद्भुत काल है चतुर्थ काल की तरह। जैसे चतुर्थकाल कर्मों को हटाने के लिए, मुक्ति प्राप्त कराने के लिए कारण बनता है ऐसा ही यह काल है। मिथ्यात्व के लिए आपत्तिकाल यही है अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ रहने वाली जो लेश्या है, उसे हटा देना। लेश्या में बदलाहट तीव्रता और मंदता के रूप में होती है। जिस समय हम कषाय को मंद बना लेते हैं उस समय लेश्या शुभ होती है और शुभ लेश्या होते ही अशुभास्त्रव को धक्का लगना प्रारंभ हो जाता है। शुभ लेश्या आत्मा की ही एक अनन्य परिणति है। आत्मा के पुरुषार्थ का एक फल है। उसे शुभ और अशुभ रूप हम अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर सकते हैं। चूँकि सोलह प्रकृतियों का आस्रव जो प्रथम गुणस्थान तक ही होता है वह अनन्तानुबन्धी के साथ होता है किन्तु वहाँ मिथ्यात्व का उदय भी रहना आवश्यक है, रहता ही है इसलिए सूत्र में मिथ्यात्व को पहले रक्खा है। साथ ही अनन्तानुबन्धी को भी जोड़ दिया है। आप सूत्र को पढ़ें और चिन्तन करें तो अपने आप ही ध्वनि निकलेगी। वहाँ मिथ्यात्व के उपरान्त दूसरा अविरति का नम्बर है। अविरति का अर्थ है असंयम। असंयम तीन तरह का होता है- ऐसा राजवार्तिक में आया है। "असंयमस्य त्रिधा अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानोत्वात" | अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान के उदय में जो असंयम होता है वह असंयम अलग-अलग प्रकार का है। अनंतानुबंधी जन्य असंयम अलग है और अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानजन्य असंयम अलग है। तो मिथ्यात्व प्रकृति के जाने के साथ मिथ्यात्व तो जायेगा ही, साथ ही साथ अनन्तानुबन्धी उससे पहले जायेगी। इसलिए मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी ये आस्रव के द्वार चले गये दोनों मिलकर के। इसके उपरान्त अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान जन्य अविरति जब दोनों चले जायेंगे तो अविरति समाप्त हो जायेगी। इसके उपरान्त प्रमाद को स्थान मिला है, वह संज्वलन कषाय के तीव्रोदय से सम्बन्ध रखता है। इसके बाद कषाय का स्थान है जो मात्र संज्वलन की मंदता की अपेक्षा है और अंत में योग को स्थान दिया जो आत्मा का अशुद्ध पारिणामिक भाव है। उस योग का अभाव, जब तक 'योग' (ध्यान) धारण नहीं करेंगे तब तक नहीं होगा। इस तरह यह बंध के हेतु गुणस्थान क्रम से रखे गये। मिथ्यात्व सहित जो सोलह प्रकृतियाँ का आस्रव और अनन्तानुबन्धी जन्य पच्चीस प्रकृतियों का आस्रव होता है, ऐसा इकतालीस प्रकृतियों का आस्रव यह कषाय की देन है। कषाय के साथ जो योग है उसकी भी देन है। इस कषाय को हटायेंगे तो मिथ्यात्व सम्बन्धी सोलह और अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी पच्चीस प्रकृतियाँ सारी की सारी चली जायेंगी। इसलिए सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय की भूमिका में यह जीव जब करणलब्धि के सम्मुख हो जाता है और करणलब्धि में भी जिस समय अनिवृत्तिकरण का काल आता है, उस समय मिथ्यात्व सम्बन्धी सोलह प्रकृतियों के बंध का निषेध किया है। इससे ध्वनि निकलती है कि मिथ्यात्व का उदय सोलह प्रकृति का आस्त्रव कराने में समर्थ नहीं है। अत: आस्त्रव और बंध के क्षेत्र में वह अकिंचित्कर है, यह सिद्ध हो जाता है। मिथ्यात्व क्या काम करता है, यह पूछो तो ध्यान रखो, उसका भी बड़ा अद्भुत कार्य है। मिथ्यात्व जब तक उदय में रहेगा तब तक उस जीव का ज्ञान भी अज्ञान ही कहलायेगा। वह जीव जब अनिवृत्तिकरण के बाद अन्तरकरण कर लेता है और दर्शन मोहनीय के तीन टुकड़े करके मिथ्यात्व का उपशम या क्षयोपशम करके औपशमिक या क्षायोपशमक सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है या जब क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय मिथ्यात्व का क्षय करता है, उस प्रसंग में भी अनन्तानुबन्धी का क्षय या उपशम पहले बताया है। सम्यग्दर्शन के साथ अनन्तानुबन्धी का उदय नियम रूप से नहीं रहता लेकिन दर्शनमोहनीय की प्रकृति का उदय रह सकता है। दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व-प्रकृति के उदय में भी सम्यग्दर्शन रह सकता है लेकिन चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी एक कषाय का भी उदय हो तो ध्यान रखना सम्यग्दर्शन वहाँ नहीं रहेगा। सम्यग्दर्शन के खिलाफ जितनी अनन्तानुबन्धी कषाय है उतनी दर्शनमोहनीय भी नहीं। ऐसा सिद्ध हो जाता है। इसलिए आस्त्रव और बंध के क्षेत्र में जो मिथ्यात्व को हौआ (भय) बना रखा है और जिससे डरा रहे हैं वह हौआ नहीं है, वह आस्त्रव और बंध के क्षेत्र में अकिंचित्कर है। जो कुछ भी आस्त्रव के कारण हैं, वह है-'आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाये।' यदि मिथ्यात्व को हटाना चाहते हैं आप लोग और विषय-कषायों में आपकी प्रवृत्ति होती जायेगी तो कभी भी मिथ्यात्व को आप हटा नहीं सकेंगे। मिथ्यात्व को बुलाने वाला बड़ा बाबा अनन्तानुबन्धी कषाय है। एक दृष्टि से कहना चाहिए, मिथ्यात्व पुत्र रूप में है और अनन्तानुबन्धी कषाय पिता की तरह है या कहो पिता का भी पिता है। क्योंकि मिथ्यात्व का आस्त्रव कराना, उसे निमंत्रण देना, उसे जगह देना, यह जो भी कार्य है सभी अनन्तानुबन्धी कषाय के सद्भाव में होते हैं। जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहेगा तब तक मिथ्यात्व Invited (आमंत्रित) रहेगा। मिथ्यात्व का द्वार अनन्तानुबन्धी है। 'अनन्तं मिथ्यात्वं यदनुबंधनाति स अनन्तानुबन्धी' मिथ्यात्वरूपी अनन्त को बाँधने वाला यदि कोई है तो वह है अनन्तानुबन्धी। जो व्यक्ति मिथ्यात्व को कषाय की कोटि में रखकर मिथ्यात्व को हटाने का चिन्तन करता है वह मानो आवागमन के लिए सामने का दरवाजा तो बंद कर रहा है किन्तु पीछे का दरवाजा खुला रख रहा है। अनन्तानुबन्धी अनुरंजित योग, यह मिथ्यात्व के लिए कारण है। इसलिए अनन्तानुबन्धी का उदय समाप्त होते ही तत्वचिन्तन की धारा और मिथ्यात्व के ऊपर घन पटकने अर्थात् उसे हटाने की शक्ति आत्मा में जागृत होती है। जिस समय दर्शनमोहनीय के तीन खण्ड करते हैं, उस समय खण्ड करने की जो शक्ति उद्भूत होती है वह अनन्तानुबन्धी के उदय के अभाव में होती है। अनन्तानुबन्धी का उदय जब तक चलता है तब तक शक्ति होते हुए भी जीव, मिथ्यात्व को चूर-चूर नहीं कर पाता। जैसे ही अनन्तानुबन्धी समाप्त होता है, मिथ्यात्व कह देता है कि तो मैं भी जा रहा हूँ। मिथ्यात्व इतना कमजोर है। मिथ्यात्व के उदय में भी तत्व चिन्तन की धारा चलती रहती है। इकतालीस प्रकृतियों का आस्रव रुक जाता है, यह बात संवर तत्व का प्रसंग आने पर बता दूँगा। यह सब आत्म-पुरुषार्थ की बात है, उपयोग को केन्द्रीभूत करने की बात है। योग को शुभ के ढांचे में ढालने की प्रक्रिया है। यह पुरुषार्थ आत्मायत है, कर्मायत नहीं है। इसीलिए धवला में कह दिया कि अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल हम अपने पुरुषार्थ के बल पर कर सकते हैं। कथचित् अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल को देखकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की योग्यता बतायी गई है आचार्य वीरसेन स्वामी द्वारा। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा स्वतंत्र है, पर भूला है, भटका है, उसे सुलझाने और सही मार्ग पर लाने की आवश्यकता है। आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा इकतालीस प्रकृतियों का जो आश्रयदाता है, अनन्तानुबन्धी वह ज्यों ही चला जाता है त्यों ही सम्यग्दर्शन आ जाता है। क्योंकि 'बाधक कारणाभावन्, साधक कारण-सदभावात्'- ऐसा न्याय है कि बाधक कारण के अभाव हो जाने पर या साधक कारण के सद्भाव में साध्य की सिद्धि होती है। इसलिए सम्यग्दर्शन, अनन्तानुबन्धी कषाय के जाते ही आयेगा, अवश्य आयेगा। पुन: कहना चाहूँगा कि अनन्तानुबन्धी सर्वप्रथम जाती है। कषाय में अगर कोई बड़ा बाबा है तो वह है अनन्तानुबन्धी। मिथ्यात्व, आस्त्रव और बंध के क्षेत्र से अकिंचित्कर है, इसे नोट कर लेना। जब इस तरह आस्त्रव-तत्व का वास्तविक ज्ञान होता है तब हम आस्त्रव से बच भी सकते हैं। कहा गया है कि "बिन जाने तै दोष गुनन को कैसे तजिये गहिये।" गुण का ज्ञान और दोष का ज्ञान जब तक नहीं होता, तब तक तो किसी भी प्रकार से हम दोषों से बच नहीं सकते। मोक्षमार्ग में हमारे लिए गुण जो है, वह संवर है और दोष जो है वह है, आस्रव। मिथ्यात्व के उपरान्त जो आस्त्रव का कारण है वह है अविरति। वह अविरति अप्रत्याख्यान सम्बन्धी और प्रत्याख्यान सम्बन्धी शेष है। इसको मिटाने का भी वही उपाय है, पुरुषार्थ है, जो आत्मा को आत्मा की ओर केन्द्रित करके विषय-कषायों से बचाने रूप है। इसके उपरान्त आता है प्रमाद यानि संज्वलन कषाय का तीव्रोदय । आत्मा जब अपने आप के प्रति अनुत्सुक हो जाता है तो प्रमाद कहलाता है। अब आती है कषाय। इसका आशय संज्वलन की मंदता से है। कषाय तीव्र तब कहलाती है जब एक दृष्टि से हम लोग कषाय के उदय में अपनी जाग्रति खो देते हैं। ‘कषायोदयात् तीव्र परिणाम: चारित्रमोहस्य'- इसमें व्याख्यायित किया गया है कि तीव्र परिणाम ही कषाय नहीं, कषाय का तो उदय है, तीव्र परिणाम हम कर लेते हैं क्योंकि यदि चारित्रमोह आत्मा में कषाय के परिणाम पैदा करता रहे तो आत्मा के लिए, पुरुषार्थ करने हेतु जगह ही नहीं है। तो आत्मा इतना परतंत्र नहीं है, वह स्वतंत्र है। निमित-नैमितिक सम्बन्ध की अपेक्षा यह कथन है। प्रमाद के उपरान्त कषाय आती है तो वह संज्वलन के मंदोदय सम्बन्धी है उसको भी पुरुषार्थ से हटा देते हैं, समाप्त कर सकते हैं। अब आती है योग की बात, उसे समझे। पुण्य और पाप की बात बार-बार हम करते हैं तो ध्यान रखना यहाँ तक पहुँचने पर पाप का आस्रव तो रुक जाता है क्योंकि 'शुभ पुण्यस्याशुभः पापस्य।' यह पाप का आस्रव रुका क्यों? अपने आप रुक गया क्या? नहीं। जो योग अशुभ हो रहा था उसको शुभ बनाया हमने, तो किसके माध्यम से बनाया। अपने आप तो हुआ नहीं। संयम के माध्यम से पाप के आस्त्रव को रोका जाता है। संयम बिना पाप को रोका ही नहीं जा सकता इसलिए संयम आस्त्रव कराने वाला है, ऐसा एकान्त नहीं है। बाह्य संयम के साथ यदि आत्मा की परिणति संयममयी नहीं है तो उस समय वह शुभ का आस्त्रव कराता है लेकिन संयम के माध्यम से केवल शुभ का आस्त्रव होता है, ऐसा भी नहीं है, निर्जरा भी होती है। कषाय के चले जाने के बाद जो योग शेष रहा उसमें ईयपिथ आस्रव या केवल पुण्य का आस्त्रव होता है। कोई नहीं भी चाहो तो भी होता है। जबरदस्ती जैसे कोई लॉटरी का रुपया लाकर सामने रख दें तो हम क्या ऐसा कहेंगे कि नहीं चाहिए। तब कहा जाय कि आपके बिना तो कोई इसका पात्र ही नहीं है, आपको लेना ही होगा। ऐसा नहीं है कि रखना चाहो तो रख लो अन्यथा नहीं। यह ऐसा पुण्य का आस्रव है कि रखना ही पड़ेगा। केवल योग मात्र रहने पर तो पुण्य का आस्रव होगा, अवश्य होगा। उसको कोई रोक नहीं सकेगा। अब जब तक योग रहेगा तेरहवें गुणस्थान के अंतिम समय तक तो वह पुण्य का आस्रव करायेगा। यह योग किसी कर्म की देन नहीं है। यह पहले ही कहा जा चुका है। क्योंकि चारों घातिया कर्म निकल गये फिर भी सयोग-केवली है, योग ज्यों का त्यों बना हुआ है और शुभ का आस्रव निरन्तर हो रहा है। अब योग से होने वाले आस्त्रव को रोकना है। केवली भगवान जानते हैं कि जब तक आस्रव द्वार रुकता नहीं तब तक मुझे मुक्ति नहीं, तो उन्हें भी संवर करना होगा। कर्म का संवर नहीं करते वहाँ। वह तो योग का निरोध कर देते हैं। उस योग का निरोध कर देते हैं जो आत्मा का अशुद्ध पारिणामिक भाव है। उसी से कर्म का आस्रव होता है। कषाय के साथ यदि योग है तो अशुभ का आस्त्रव होता है और कषाय रहित योग रहता है तो केवल शुभ कर्म का आस्त्रव होगा। इसलिए यदि आप पुण्य से बचना चाहते हो तो संयम से मत बचो बल्कि योग से बचो। योग से बचने का अर्थात् योग निरोध करने का उपाय है तृतीय शुक्ल ध्यान। तृतीय शुक्ल ध्यान के बिना योग-निरोध को प्राप्त नहीं होता और जब तक उसका निग्रह नहीं होगा तब तक शुभ का आस्रव होगा। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि पुण्य से मत डरो किन्तु उसके फल में समता भाव रखो। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि पुनाति आत्मानं इति पुण्यम्। आत्मा को पवित्र कराने वाली सामग्री या रसायन यदि विश्व में कोई है तो वह आत्मा के पास जो शुभ योग है वह है और वही पुण्य है। उस पुण्य के माध्यम से ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है लेकिन केवल पुण्य ही होना चाहिए यह भी ध्यान रखना। केवलज्ञान जिस प्रकार है उसी तरह केवल पुण्य, जिस समय आत्मा को प्राप्त होगा उस समय अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त आप केवलज्ञानी बन जाओगे। यथाख्यात चारित्र जिस समय जीवन में आ जाता है त्यों ही पुण्य का ही मात्र आस्रव होता है और पुण्य मात्र का आस्त्रव हो तो अन्तर्मुहूर्त के लिए पर्याप्त है आत्मा को केवलज्ञान प्राप्त कराने में। यह प्रसंग दसवें गुणस्थान तक नहीं आ सकता केवल पुण्य का आस्रव दसवें गुणस्थान तक नहीं होता दसवें गुणस्थान के बाद होता है अब इसके उपरान्त मात्र पुण्य जो है वही उस आत्मा को पाप से बचा सकता है किन्तु पुण्य को हटाने वाला कौन? पुण्य के फल को हटाने वाला तो संयम है। संयम पुण्य को नहीं हटा सकता। आचार्यों ने पंचेन्द्रिय के विषय को विष्टा कहा है पुण्य को नहीं कहा। यदि पुण्य को विष्टा कह दें तो केवली भगवान् भी उससे लिप्त हो जायेंगे और यह तो आगम का अवर्णवाद है, अवज्ञा है। हाँ, पुण्य की जो इच्छा करता है वह इच्छा है विष्टा। पुण्य विष्टा नहीं है। सबसे ज्यादा पुण्य का आस्रव होता है तो यथाख्यात चारित्र के उपरान्त, जो केवली भगवान् हैं उनको होता है किन्तु निरीह वृत्ति होने के कारण वे उसमें रचते पचते नहीं हैं, रमते नहीं हैं। दुनिया का कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो इतना पुण्य प्राप्त कर ले। तृतीय शुक्लध्यान का प्रयोग करके तब वे केवली भगवान शुभ का आस्रव रोक देते हैं। आत्मा से जिस समय योग का निग्रह होता है तो पुण्य का आस्रव भी बंद हो जाता है। और ज्यों ही आस्रव होना रुक जाता है, चौदहवें गुणस्थान में छलांग लगाते हैं, वहाँ भी रुकते नहीं हैं सिद्धत्व प्राप्त कर लेते हैं। योग-निरोध के उपरान्त संसार की स्थिति मात्र अ, इ, उ, ऋ, लू इन पंच लघु स्वर अक्षरों के उच्चारण प्रमाण काल शेष रह जाती है और वह मुक्ति के भाजन हो जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान में चार अघातिया कर्म शेष हैं और उनमें साता वेदनीय भी है, असाता वेदनीय भी है, ऐसा आचार्य कहते हैं। इससे यह फलित हुआ कि वे चारों कर्म उदय को प्राप्त होते हुए भी काम नहीं कर रहे क्योंकि काम करने वाला जो योग था वह चला गया। अब इन चारों कर्मों की निर्जरा के लिए चौथा शुक्लध्यान वे अपना लेते हैं। इस तरह योग जो है वह अन्त में जाता है और केवल पुण्य का ही आस्रव कराता है। इससे यह फलित होता है कि पहले पाप के आस्त्रव से बचना चाहिए क्योंकि पहले साम्परायिक आस्त्रव ही रुकेगा, उसके पश्चात् ईर्यापथ आस्त्रव जो मात्र पुण्य का आस्त्रव है वह रुकेगा। तो पहले का काम पहले करना चाहिए, बाद का काम बाद में। सौंफ इत्यादि आप पहले खा लो, बाद में रोटी खाओ तो आपको पागल ही कहेंगे लोग। इसलिए भइया! पहले पाप से तो निवृत्त हो और पाप से निवृत्त होने के लिए, पाप के आस्रव को रोकने वाला है संयम, उसे अंगीकार करो। तदुपरान्त पुण्य के आस्रव को रोकने वाला, योग का निग्रह करने वाला तीसरा और चौथा शुक्लध्यान आयेगा। यही संक्षेप में समझना चाहिए। आस्रव-द्वार पाँच हैं किन्तु पाँच में भी मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबन्धी को रख रक्खा है। अविरति, अनन्तानुबन्धी के अभाव में भी रहती है इसलिए अविरति से अनन्तानुबन्धी का सम्बन्ध यहाँ विवक्षित नहीं है यद्यपि अनन्तानुबन्धी के साथ ही अविरति रह सकती है, रहती भी है। पर मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबन्धी पहले जाती है फिर बाद में मिथ्यात्व जाता है इसलिए जो पहले जाता है उसे पहले भेजना चाहिए और बाद में जाने वाले की फिकर करने की आवश्यकता नहीं है। विषयों में जो बार-बार झंपापात लेता है, अनन्तानुबन्धी का स्थूल प्रतीक है। स्थूल है सूक्ष्म नहीं। ‘बह्वारम्भ परिग्रहत्वं नारकस्यायुष:।' यह नरकायु का आस्रव भी अनन्तानुबन्धी के माध्यम से ही बन सकता है। क्योंकि नरक गति का बंध अनन्तानुबन्धी के साथ ही होता है। इतना ही नहीं, 'परात्मनिंदा प्रशंसेसदसद्गुणोच्छद्नोद्भावनेच नीचैर्गांत्रस्य' नीच गोत्र का बंध भी अनन्तानुबन्धी के साथ होता है। यहाँ मेरा आशय यह है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए आया है उसे यह जानना भी आवश्यक है कि पर की निंदा और अपनी आत्म प्रशंसा अर्थात् पर के गुणों को ढकना और अपनी आत्मा में नहीं होते हुए गुणों को भी प्रकट करना इत्यादि, जो कार्य हैं ये नीच गोत्र का कारण हैं। नीच गोत्र का आस्त्रव कहाँ तक होता है ? तो जिसने सिद्धान्त ग्रन्थ देखे हैं गोम्मटसार आदि, उन ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है कि नीच गोत्र का द्वितीय गुणस्थान तक ही आस्रव होता है। इसका अर्थ है अनन्तानुबन्धी के माध्यम से ही इसका आस्रव होता है। आजकल यह प्राय: यत्र तत्र देखने सुनने को मिल रहा है। आज उपदेश का प्रयोग भी इतना ही कर लेते हैं कि दूसरे को सुनाकर और उसके माध्यम से किसी दूसरे को नीचा दिखाने का उपक्रम रच लेते हैं। शास्त्र का प्रयोग/उपयोग अपने लिए है, मात्र दूसरे को समझाने के लिए नहीं है। दूसरा यदि अपने साथ समझ जाता है तो बात अलग है किन्तु उसे बुला-बुलाकर आप उपदेश दोगे तो आगम में कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा कि यह जिनवाणी का एक दृष्टि से अनादर होगा। क्योंकि वह रुचिपूर्वक सुनेगा नहीं अथवा सुनेगा भी तो उसका वह कुप्रयोग कर लेगा और तब सुनाने वाला भी दोष का पात्र बन जायेगा। बंधुओ! पर की निन्दा करना सम्यग्दर्शन की भूमिका में बन नहीं सकता क्योंकि नीच गोत्र का बंध जो होता है वह अनन्तानुबन्धी के भावों के माध्यम से होता है जो मिथ्यात्व को बाँधने वाली कषाय है। इसलिए यदि मिथ्यात्व को हटाना चाहते हो तो मंद से मंदतर और मंदतर से मंदतम इस कषाय को बना दी। जब विषय कषायों से बच जाओगे तब चिन्तन की धारा प्रवाहित होगी और तत्व चिन्तन की धारा से हम सम्यग्दर्शन रूपी सरोवर में अवगाहित हो सकते हैं। अपने आप को समर्पित कर सकते हैं। शुद्ध बन सकते हैं, बुद्ध बन सकते हैं। लेकिन इस भूमिका के बिना कुछ भी नहीं बन सकते। जहाँ हैं वहीं पर रह जायेंगे, बातों-बातों तक, चर्चा तक ही बात रह जायेगी। यह सारी की सारी घटनाएँ अन्तर्घटनाएँ हैं, ये बाहरी चीजें नहीं हैं। मोक्षमार्ग एक अमूर्त मार्ग है। जिसके ऊपर कोई चिह्न या पद, या कोई निशान, कोई बोर्ड नहीं है। कोई किसी प्रकार के माइलस्टोन नहीं लगे हैं। यह तो एकमात्र श्रद्धा का विषय है और उसी श्रद्धा से अपने आप को कुछ बना सकते हैं। आप उस श्रद्धा को जागृत कर सकते हैं। भाई! विषय-कषायों से आँख मींची और उन आँखों का प्रयोग अपने आत्म-तत्व को जानने के लिए करो तो अपने लिए बहुत जल्दी सही रास्ता प्रशस्त हो सकता है, अन्तर्मुहूर्त में सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया जा सकता है और अन्तर्मुहूर्त में ही मुक्ति के भाजक भी हम बन सकते हैं। इस प्रकार आत्मा की एक प्रतिभा है, गरिमा है, महिमा है। उसे पहचानने की आवश्यकता है। क्यों व्यर्थ अनन्त संसार में भटकने का आप उपक्रम कर रहे हो। आप जब भी देखेंगे इस संसार में अनन्त संसार में मिथ्यादृष्टियों की संख्या अधिक रहेगी, सम्यग्दृष्टियों की संख्या सीमित ही रहेगी। इसलिए अपने आप के सम्यग्दर्शन को सुरक्षित रखना चाहते हो तो मिथ्यादर्शन के इस बाजार में से बचना चाहिए। जल्दी-जल्दी घर की तरफ से मन को मोड़कर अर्थात् आस्रव से मुँह मोड़कर अपने आप की ओर आना ही मोक्षमार्ग है वही श्रेयस्कर है। बाह्य जितना भी है वह सब भवपद्धति है। संसार का मार्ग है। संसार का मार्ग मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र है। उनके माध्यम से निरन्तर आस्रव ही होता है। अत: संसार मार्ग को छोड़कर संवर मार्ग पर आना चाहिए। जो आस्रव को नहीं जानेगा, आस्त्रव के कारणों को नहीं जानेगा, कौन से भावों से आस्त्रव होता है इसको नहीं जानेगा, वह रोकने का उपक्रम भी नहीं कर पायेगा और निंदा का पात्र बना रहेगा। थक जायेगा उस उपक्रम से किन्तु कोई सिद्धि मिलने वाली नहीं है। आस्रव और बंध के क्षेत्र में मिथ्यात्व अकिंचित्कर है और मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी के बाद जाने वाला है इसलिए मिथ्यात्व का आस्त्रव कराने वाली अनन्तानुबन्धी कषाय है और उस अनन्तानुबन्धी कषाय को निकालने का उपक्रम यही है कि हमारी जो अशुभ लेश्या है उसको शुभ बना लें, शुभतम बना लें। शुभतम जब लेश्या बनेगी तो अनन्तानुबन्धी को धक्का लगेगा। अनन्तानुबन्धी चली जायेगी तो उसके माध्यम से होने वाले सारे के सारे आस्रव रुक जायेंगे। मिथ्यात्व भी अपने आप हाथ जोड़कर चला जायेगा। मिथ्यात्व को हटाने का यह सही रास्ता है। आगमानुकूल है। अन्य जो भी मार्ग है आप स्वयं देखेंगे वे आगम से विपरीत होंगे। मिथ्यात्व को हटाने के लिए यदि अनन्तानुबन्धी कषाय को हटाये बिना सर्वप्रथम उसे ही (मिथ्यात्व को) हटाने का आग्रह करेंगे तो भी हटा नहीं सकेंगे। अत: कषायों को मंद करना, उसे हटाना, यही सही मार्ग है, आगम के अनुकूल मार्ग है।
  5. भाव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पाप का बंध भावों पर आधारित है, मात्र सुख का अनुभव करने से पाप का बंध नहीं होता। सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में सबसे ज्यादा सुख का अनुभव होता है इसलिए सबसे ज्यादा उन्हें पाप का बंध होना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं है, क्योंकि उनमें पाप के भाव ज्यादा नहीं होते। जिसे भावभासन होता है, उसे कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं। हमारे ही घट में, भावों में दोनों रहते हैं, राम और रावण, जो चाहो प्राप्त कर लो। सत्युग कलयुग हमारे भावों की ही देन है। भाव मन भागता है और द्रव्य मन वहीं स्थिर रहता है। जैसे बल्ब वहीं रहता है, उसका प्रकाश इधर-उधर फैलता है। संवेग, निर्वेग भाव के साथ जो दीक्षित होते हैं, वह बिना (शाब्दिक) ज्ञान के भी बहुत आगे बढ़ जाते हैं। दीर्घ संहनन की अपेक्षा हीन संहनन के साथ भी असंख्यातगुणी कर्म की निर्जरा होती है, इसलिए हमें हमेशा अपने भावों को उज्ज्वल बनाये रखना चाहिए। भावलिंग का प्रदर्शन नहीं होता, भावलिंग का तो दर्शन होता है। भावों के द्वारा मोह की पर्त को अनपढ़ भी जल्दी हटा लेता है, अंजनचोर की भाँति "आणमताणम कछु न जाणम सेठ वचन परमाण" | भावों की पहचान करना धर्म क्षेत्र में बहुत अनिवार्य है। आँखों से आँसू भावों से ही आते हैं, किराये से नहीं। भाव कर्म से, राग-द्वेष से बचो, तभी संवर सहित निर्जरा होगी। भाव से नग्न होना महत्वपूर्ण है, यह किसी को दिखाया नहीं जा सकता। भाव कर्म के माध्यम से नोकर्म में अंतर आ जाता है। क्रियाये जड़ की नहीं आत्मा की हैं, यह व्यक्तशरीर से होती है, लेकिन उनके कर्ता हमारे भाव ही हैं। भावों को मोड़ने का सबसे अच्छा तरीका है मोह को मरोड़ (छोड़) दो। द्रव्य के लिए शायद किसी से पूछना पड़े लेकिन भावों के लिए किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं है। भावों में द्रव्य की मुख्यता नहीं होती, द्रव्य से जब काम लेते हैं तब उपयोगी होता है लेकिन भाव तो हमेशा उपयोगी है। तिर्यांचो में द्रव्य प्रणाली नहीं चलती वहाँ तो भावों से ही कार्य होता है। जैनधर्म भाव-प्रधान है, द्रव्य को नकारता तो नहीं है पर गौण अवश्य कर देता है। भाव बढ़ते हैं तो द्रव्य बढ़ता जाता है, बाजार में भाव बढ़ने पर थोड़ा-सा भी माल हो तो मालामाल हो जाते हैं। द्रव्य अंक है और भाव उसके पीछे लगने वाला शून्य है | भावों के परिवर्तन से द्रव्य के रूप, लावण्य व वैभव में परिवर्तन आ जाता है। भाव सुधारने का प्रयास करो द्रव्य तो अपने आप नाचता हुआ आ जावेगा। अर्हंत-भक्ति में मेंढ़क का नाम आ गया आपका नाम नहीं आया। यह भावों की ही महिमा है। भावों में उन्नति नहीं होती है तो इन द्रव्यों का कोई मूल्य नहीं है। मानसिक मंत्र महत्वपूर्ण माना जाता है। मानसिक मंत्र में मन, वचन एवं काय तीनों में स्तब्धता आ जाती है जिसके माध्यम से अंतर्मुहुर्त में कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। सांसारिक सुख के साथ मोक्ष सुख का दाता भी वही है। मनोयोग से सुनने पर सम्यक दर्शन की भूमिका बनती जाती है। भावों के संकल्प से ही (आप रक्षासूत्र से) शोर/सूतक से बच जाते हैं। विमान से भी वेगवान भाव(कर्म) हैं। वातावरण की शुद्धता/अशुद्धता भावों पर ही आधारित है। आपको पूजन का प्रशिक्षण मेंढ़क के भावों से लेना चाहिए। संगीत का आनंद भाषा से नहीं भावों से आता है। जो भाव परक साधना में जागृति नहीं रखता वह कभी उन्नति नहीं कर सकता। जो अभी नहीं कर पा रहे हैं लेकिन भावना भा रहे हैं तो वह कार्य परभव में अच्छे से कर लेता है। अपनी प्रभावना नहीं प्रभावना धर्म की हो ऐसी अपनी भावना हो। संकल्प और भावनाओं से कार्य बहुत जल्दी हो जाता है। भावना (उद्देश्य) के अनुसार ही हमारे जीवन का निर्माण होता है। जीवन में भावों के माध्यम से ही सब कुछ पाया जा सकता है। उद्देश्य के प्रति हमारे भाव जागृत रहें, हमें वीतराग-विज्ञान पाना है। भाव के अभाव में जो घटना घटती है वह धर्म, अधर्म का रूप नहीं ले सकती। सुख-दु:ख के कारण संसार में और कोई नहीं मात्र हमारे ही परिणाम हैं। अभिशाप के भाव हमेशा पतन में कारण होते हैं। किसी भी काल में सुधारो अपने परिणामों को स्वयं अपने को ही सुधारना है। पशु द्रव्य को नहीं भाव को ही पकड़ता है। कभी भी पशु में द्रव्य, भाव लिंग का भेद नहीं किया गया। भावों की पकड़ के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती। सम्प्रेषण के माध्यम से दूसरे के दु:ख को दूर करने के लिए भाव रूपी तरंगों को भेजा जा सकता है। इसके लिए मात्र आत्मीयता चाहिए। गुणीजनों को देखकर प्रमोद भाव प्रकट करें, इसमें गुणी का आदर हो जाता है। पारिणामिक भाव त्रैकालिक होते हैं, इसलिए परम शुद्ध पारिणामिक भाव को ध्येय बनाना चाहिए। जिससे आत्मा में परिणाम का लाभ होता है, उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। स्वप्न, भावना का मॉडल है। बारह भावनाएँ वैराग्य उत्पन्न कराने में माँ के समान काम करतीं हैं। परिणामों में ही सब कुछ है परिणाम ही परिवर्तित होते रहते हैं। इसलिए हमें हमेशा अच्छे परिणाम बनाये रखना चाहिए।
  6. सात तत्वों में जीव तत्व को प्रथम स्थान मिला है। प्रथम स्थान क्यों मिला, इसकी व्याख्या करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि प्रत्येक तत्व का भोक्ता जीव ही है। भोक्ता का अर्थ यहाँ संवेदन करना है। मुक्ति जब भी मिलेगी वह जीव तत्व को ही मिलेगी क्योंकि वही मुक्ति का संवेदन कर सकता है। अजीव तत्व को मुक्ति मिलने, ना मिलने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि वह संवेदन-रहित है। हम जीव होते हुए भी मुक्त नहीं है, यह बात विचारणीय है। आचार्य अमृतचंद्रजी ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए कहते हैं कि वह परम ज्योति जयवंत रहे जिस ज्योति में संसार के समस्त पदार्थ अपनी भूत, भावी एवं वर्तमान समस्त पर्यायों सहित स्पष्ट झलक रहे हैं। यहाँ गुणों की आराधना की गयी है। वास्तव में, जब हम गुणों की आराधना करते हैं तो गुणी की आराधना अपने आप हो जाती है। आराधना जीवत्व गुण के ऊपर अवलंबित है। हम सभी जीव हैं फिर भी हमारी आराधना नहीं हो रही है बल्कि आराधना के स्थान पर विराधना हो रही है। कारण स्पष्ट है कि हमारे पास जीवत्व होते हुए भी जिस जीवत्व की आवश्यकता है उसका अभाव है। जिस गुण के द्वारा आराधना होती है वह गुण हमारे पास नहीं है। आप पूछ सकते हैं कि गुणों का अभाव हो जायेगा तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा महाराज! तो भइया, गुणों का अभाव तो नहीं होगा, यह तो सभी जानते हैं। लेकिन गुणों का विलोम हो जाना भी एक प्रकार से अभाव हो जाना है। जीव के गुणों की विशेषता है कि वे अभाव को तो प्राप्त नहीं होते किन्तु विलोम हो जाते हैं। हमारे पास जीवत्व गुण है लेकिन ध्यान रखिये यह जीवत्व विलोम स्थिति में है, उसका परिणमन विलोम रूप में हो रहा है। आचार्य कहते हैं 'स्वभावात् अन्यथा भवनं विभावः' अर्थात् स्वभाव से विपरीत परिणमन होने का अर्थ ही है विभाव। रात और दिन का जिस प्रकार विरोधाभास है उसी प्रकार स्वभाव और विभाव के साथ भी हो रहा है। रात है तो दिन नहीं और दिन है तो रात नहीं। उसी प्रकार स्वभाव रूप परिणमन है तो विभाव नहीं और विभाव रूप परिणमन है तो स्वभाव नहीं। वर्तमान में हमारे स्वभाव का अभाव और विभाव रूप परिणमन होने के कारण विराधना हो रही है। अत: अपने को उस जीवत्व को प्राप्त करना है जिस जीवत्व के साथ स्वाभाविक जीवन है। वह जीवत्व किसे प्राप्त हो सकता है? वह जीवत्व कैसे प्राप्त हो सकता है? क्या हमें प्राप्त हो सकता है? तो आचार्य कहते हैं कि अवश्य प्राप्त हो सकता है। जिन कारणों से विभाव रूप परिणमन हुआ है, हमने किया है यदि उसके विपरीत कारण मिल जाएँ तो जीव स्वभाव रूप परिणमन भी कर सकता है। यह ध्यान रक्खी कि विभाव रूप परिणमन किसी अन्य शक्ति ने या अन्य व्यक्ति ने जबरदस्ती कराया हो, ऐसा नहीं है। जीव स्वयं ही अपने परिणामों के द्वारा विभाव रूप परिणमित होता है और इसके लिए बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि निमित्त अवश्य बनते हैं। आशय यह हुआ कि वर्तमान में हमारा जीव तत्व बिगड़ा हुआ जीव तत्व है। आप यह कह सकते हैं कि कुछ समझ में नहीं आता महाराज! कुछ लोग तो कहते हैं कि जीव तो जैसा-का-तैसा बना रहता है और उसमें जो परिणमन होता है वह ऊपर-ऊपर हो जाता है। इसलिए जीव तो शुद्ध है क्योंकि द्रव्य है और उसकी पर्याय जो है वह बिगड़ी हुई है। भइया, ध्यान रखो कि जीव तत्व ज्यों का त्यों बना रहे शुद्ध और उसकी पर्याय अशुद्ध हो, ऐसा हो नहीं सकता। यदि ऐसा हो जाए तो वे पर्यायें उस विशुद्ध तत्व से बिल्कुल पृथक् हो जायेंगी जो कि संभव ही नहीं है ‘गुणपर्ययवद् द्रव्यं' ऐसा कहा गया है अर्थात् गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। यदि पर्याय अशुद्ध है तो द्रव्य भी अनिवार्य रूप से अशुद्ध है। लेकिन यह भी ध्यान रखना कि वर्तमान में जो पर्याय अशुद्ध है वह पर्याय तो शुद्ध नहीं बन पायेगी किन्तु वर्तमान में जो अशुद्ध द्रव्य है वह द्रव्य शुद्ध बन सकता है। उसके पास शुद्धत्व की शक्ति है। इसी अपेक्षा से आचार्यों ने कहा है कि विभाव रूप परिणमन करते हुए भी जीव द्रव्य कथंचित् शुद्ध है। आप कह सकते हैं कि द्रव्य शुद्ध ही है और पर्याय अशुद्ध है, ऐसा मान लेने में अपने को क्या हानि? तो भइया पहली बात कि द्रव्य का परिणमन जब भी होता है वह समूचे द्रव्य का होता है। कुछ प्रदेश शुद्ध रहे और कुछ प्रदेश अशुद्ध रहे आवें, ऐसा नहीं है। अशुद्ध परिणमन का प्रभाव पूरे द्रव्य के ऊपर पड़ता है। आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने प्रवचनसार में स्पष्ट लिखा है कि 'परिणमदि जेण दव्वं तक्काल तम्मप्यक्ति पण्णतं' अर्थात् द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है उस समय उसी रूप होता है। दूसरी बात, यदि वर्तमान में हमारा द्रव्य भीतर से शुद्ध ही है तो समझो मुक्त ही है और मुक्त है तो मुक्ति का अनुभव, केवलज्ञान का अनुभव भी होना चाहिए लेकिन अभी तो अपने पास एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि सारा का सारा द्रव्य ही बिगड़ा हुआ है, 'स्वभावात् अन्यथा भवनं विभाव:' स्वभाव से विलोम स्थिति हो चुकी है। यह मैं पहले बता चुका हूँ। जिस समय स्वभाव पर्याय की अभिव्यक्ति होगी उस समय विभाव पर्याय की वहाँ पर अभिव्यक्ति नहीं रहेगी, तब जिज्ञासा होती है कि जीव को शुद्ध जीवत्व की प्राप्ति कैसे हो ? आचार्यों ने इसके लिए मोक्षमार्ग के अन्तर्गत तत्वों का उल्लेख किया। इन तत्वों को जो व्यक्ति अपने जीवन में सम्यक् प्रकार से शान्ति के साथ जान लेता है और अपने भीतर होने वाली वैभाविक प्रक्रिया के बारे में निकटता से अध्ययन करता है वह व्यक्ति स्वभाव को प्राप्त करने का जिज्ञासु कहलाता है। एक याचक व्यक्ति एक सेठ के पास गया। वह सेठ उस व्यक्ति के पिता का दोस्त था। उसकी दयनीय स्थिति देखकर सेठ को उस पर करुणा हो आती है। वह कहता है कि बेटे! तुम्हारे पिताजी की मेरे साथ घनिष्ठ मित्रता थी। हम दोनों दोस्त थे। किन्तु अलग-अलग व्यवसाय के कारण क्षेत्रान्तरित हो गये। मैं तुम्हें पहचान गया हूँ। तुम्हारे पिताजी मरने से पहले मुझे बता गये थे कि मेरा लड़का जब बड़ा हो जाए तो घर में जो धन पैसा दबा रक्खा है उसे बता देना। अब तुम बड़े हो गये हो, तुम्हें धन की आवश्यकता का भान हो रहा है उसे पाने की जिज्ञासा भी तुम्हारे भीतर उत्पन्न हो गयी है अत: मैं बता देता हूँ। अब तुम्हें याचना करने की, दीन-हीन होने की आवश्यकता नहीं है, जाओ और अपनी संपत्ति निकाल लो। उस व्यक्ति को अपनी संपत्ति का जैसे ही ज्ञान हो गया उसने याचना करना बंद कर दिया और घर पहुँचकर उसे प्राप्त भी कर लिया। इसी तरह हम इस समय वर्तमान में भले ही विभाव रूप परिणमन कर रहे हैं परन्तु उसका अर्थ यह नहीं है कि अनन्तकाल तक हम ऐसे ही याचक बने रहें। हम भी सेठ साहूकार बन सकते हैं अर्थात् अपनी आत्म-सम्पदा को अपने स्वभाव को प्राप्त कर सकते हैं। आत्मा की शक्ति अनन्त है किन्तु उस शक्ति का उद्धाटन आवश्यक है। उस अनंत शक्ति का उद्घघाटन हम तभी कर सकेंगे जब कि वर्तमान में मेरी यह विभाव रूप स्थिति हो गयी है- ऐसा विश्वास कर लेंगे। अपने आप को जो व्यक्ति बंधा हुआ अनुभव नहीं करेगा वह मुक्ति की जिज्ञासा कैसे करेगा ? मुक्ति के ऊपर विश्वास उसी को हो सकता है, जो बहुत जकड़न का अनुभव करता है। 'बंध सापेक्षेव मुक्ति:।' बंध की अपेक्षा ही मुक्ति है। बंध का अभाव ही मोक्ष है। एक द्रव्य में प्रत्येक गुण की जो पर्यायें हैं वे पर्यायें गुणों के साथ क्षणिक तादात्म्य सम्बन्ध रखती है और जो सम्बन्ध द्रव्य के साथ गुण का है वही सम्बन्ध पर्याय का भी द्रव्य के साथ है। प्रदेश भेद नहीं है। संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा कथचित् भेद संभव है। इसलिए वर्तमान में इस जीव का समूचा विलोम परिणमन हो चुका है। मात्र एकान्त रूप से पर्याय ही अशुद्ध है द्रव्य तो एक शुद्ध पिण्ड रूप सिद्ध परमेष्ठी के समान है, ऐसा यदि हम मान लेंगे तो आगम से बाधा आ जायेगी। यदि कोई व्यक्ति कहता है कि जीव जो बिल्कुल शुद्ध है, मात्र उसकी पर्याय और वह भी जो क्षणिक है, वह अशुद्ध है, द्रव्य जो वैकालिक शुद्ध पिण्ड है तब कोई दूसरा व्यक्ति आकर यदि सामने लगे पेड़ को साष्टांग नमस्कार करता है और 'हे! शुद्धात्मने नम:' -ऐसा कहता है तो फिर ऑब्जेक्शन नहीं होना चाहिए। पर आप ऑब्जेक्शन किये बिना नहीं रहेंगे। आप कहेंगे कि यह तो बिल्कुल गृहीत मिथ्यात्व है। क्योंकि वह सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की वन्दना नहीं कर रहा है। जो सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की वंदना करता है सम्यग्दृष्टि होता है। इस तरह अनेक बाधाएँ उपस्थित हो जायेंगी। एकेन्द्रिय को तो आगम के अनुसार मिथ्यादृष्टि माना है और मिथ्यादृष्टि को सम्यग्दृष्टि नमस्कार नहीं कर सकता। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि जी कह रहे हैं कि वह ज्योति जयवन्त रहे, वह ज्योति पूजनीय है जो शुद्ध है। ज्योति पर्याय है। ज्योति शुद्ध है, पर्याय शुद्ध है तो पर्याय के साथ द्रव्य भी वहाँ पर शुद्ध है, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन पर्याय अशुद्ध हो और द्रव्य शुद्ध रहा आवे यह भी संभव नहीं है। इस बात को गौण नहीं करना चाहिए। गहराई से समझना चाहिए। दूसरी बात यह कहता हूँकि वन्द्य-वन्दक भाव जितने भी चलते हैं वे शुद्ध द्रव्य के साथ नहीं चलते लेकिन अशुद्धत्व से शुद्धत्व को प्राप्त करने के लिए जो चल पड़े हैं उनको देखकर उनके प्रति यह नमस्कार, वंदना-पूजा-अर्चा और स्तवनादि हुआ करते हैं। सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध जीवत्व को प्राप्त कर चुके हैं इसलिए अमूर्त हैं लेकिन अमूर्त की भी पूजा हम मूर्ति के माध्यम से करते हैं। अमूर्त की पहचान मूर्त के माध्यम से होती है। अहन्त परमेष्ठी मूर्त हैं और अभी पूरी तरह शुद्ध जीव नहीं हैं। हम उनकी आराधना करेंगे या नहीं। एकाध व्यक्ति नहीं करे तो नहीं भी करे लेकिन पंच परमेष्ठी में जो आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु हैं वे कुन्दकुन्द जैसे आचार्य भी अरहंत परमेष्ठी को मुख्यता देते हैं और उनको नमस्कार करते हैं, उनकी वन्दना करते हैं, और परोक्ष में यहीं पर बैठे-बैठे विदेह क्षेत्र में स्थित सीमंधर स्वामी आदि को भी नमस्कार करते हैं और परोक्ष में उन्हें आशीर्वाद भी प्राप्त हो जाता है। इसका आशय यह हुआ कि वन्द्य-वन्दक भाव शुद्ध द्रव्य के साथ न होकर शुद्ध की ओर चलने वालों के प्रति होता है। अरहंत परमेष्ठी क्यों अशुद्ध हैं अभी? इसलिए कि अभी वे कृतकृत्य नहीं हुए हैं। अभी चार कर्म शेष हैं। जो शुद्ध होता है वह कृतकृत्य होता है। जो कृतकृत्य होता है वह आराधक नहीं होता है, वह अपने आपमें स्वयं आराध्य होता है। सिद्ध परमेष्ठी आराध्य हैं, आराधक नहीं। अहन्त परमेष्ठी अभी आराधक भी है और आराध्य भी है। इतना अवश्य है कि वे हमारे जैसे आराधक नहीं है। उनका वह जीवत्व का परिणमन अब शुद्धत्व के निकट पहुँच चुका है। अभी वे वास्तविक जीवत्व की प्राप्ति नहीं कर पाये हैं। कुन्दकुन्द आचार्य महाराज ने एक स्थान पर जीव का स्वरूप बताया है और एक स्थान पर जीव का लक्षण बताया है। स्वरूप और लक्षण में बहुत अन्तर है। अरसमरूवमगंध, अव्वत्तं चेदणागुणमसई। जाणअलिंगग्गहण जीवमणिद्विठ्ठसंठाणां॥ यह जीव का स्वरूप है। 'उपयोगी लक्षणां' यह जीव का लक्षण है। इस प्रकार जीव का लक्षण और जीव के स्वरूप में बहुत अन्तर है। जीव का स्वरूप तो अमूर्त है लेकिन जीव का लक्षण अमूर्त नहीं हो सकता। जीव का लक्षण यदि अमूर्त हो जाएगा तो अमूर्त तो अन्य द्रव्य भी हैं, धर्मास्तिकाय अमूर्त है, अधर्मास्तिकाय भी है, आकाश और काल भी है। अरस, अरूप, अगंध आदि यह जीव का लक्षण नहीं है, यह तो जीव का स्वरूप है। आचार्य कहते हैं स्वभाव को प्राप्त करना है वह प्राप्तव्य है। लक्षण तो प्राप्त ही है। जिस स्वभाव को प्राप्त करना है, जिसका भान हमें कराया गया है वह स्वभाव मात्र सिद्धालय में प्राप्त होगा। वह अभी अहन्त परमेष्ठी को भी प्राप्त नहीं है। अहन्त परमेष्ठी के पास उनको प्राप्त करने की क्षमता है, शक्ति है, लेकिन उस शक्ति के उद्घाटन के लिए प्रयास परम आवश्यक है। जिसे वे कर रहे हैं दिन रात। अहन्त परमेष्ठी को स्नातक कहा गया है और स्नातक का अर्थ है स्नात् अर्थात् स्नान किया हुआ। यहाँ पर स्नान से तात्पर्य है कि जो आठ कर्म लगे थे, उन आठ कर्मों में से चार कर्मों का मल धो दिया गया, अत: स्नातक बन गये हैं। लौकिक शिक्षण में पहले स्नातक (बेचलर) होता है, फिर स्नातकोत्तर होता है उसके उपरान्त अध्यापक (लेक्चरार) कहलाता है। स्नातक और स्नातकोत्तर दोनों ही विद्यार्थी हैं। इसी प्रकार तेरहवें गुणस्थान में अहन्त भगवान स्नातक हैं। चौदहवें गुणस्थान में स्नातकोत्तर होंगे, उसके उपरान्त लेक्चरार अर्थात् सिद्धत्व को प्राप्त करेंगे। अभी वे विद्यार्थी हैं। 'विद्या एव प्रयोजनम् यस्यस विद्यार्थी' अथवा 'विद्याम् अर्थयते इच्छत इति विद्यार्थी' अर्थात् जो विद्या को चाहता है वह विद्यार्थी है। अर्थात् कुछ पाना चाहता है अभी पाना शेष है। अहन्त भगवान को अभी कुछ और प्राप्त करना है और वह है शुद्ध जीवत्व की प्राप्ति। अभी हमारी इन्द्रियों की पकड़ में आ रहे हैं अर्हन्त परमेष्ठी। वे चाहते हैं कि सभी की पकड़ से बाहर निकल जाएँ। इसके लिए वे अभी योग-निरोध करेंगे। अंतिम दो शुक्ल ध्यान के माध्यम से शेष कर्मो का क्षय करेंगे। अहन्त परमेष्ठी अभी दर्पण के समान उज्ज्वल हैं। अभी दर्पण में भी और उज्ज्वलता लानी है। वह उज्ज्वलता कैसी है? आप रोजाना दर्पण देखते हो लेकिन ध्यान रखना एक दिन भी दर्पण नहीं देखा। दर्पण में देखने की आँख अलग है। हमें दर्पण नहीं दिखता, दर्पण में अपना मुख दिखता है। अभी अर्हन्त परमेष्ठी दर्पण के समान शुद्ध हैं, काँच के समान नहीं। दर्पण और काँच में अन्तर है। दर्पण उसे कहते हैं जिसमें एक काँच के पृष्ठ भाग पर कुछ लालिमा लगाई जाती है जिसके माध्यम से प्रतिबिंब बनने लगता है। वह लालिमा हट जाये तो सब पारदर्शक, ट्रासपेरेंट हो जाता है उसका नाम काँच है। ऐसा समझे कि सिद्ध परमेष्ठी काँच के समान ट्रसपेरेंट हो चुके हैं और अहन्त परमेष्ठी जो हैं अभी चार कर्मों की ललाई लिए हुए हैं। चार कर्म निकल चुके हैं इसलिए दर्पण के समान उज्वल हो गये हैं लेकिन अब लालिमा भी चली जायेगी बिल्कुल स्वभावमय काँच की तरह सिद्ध परमेष्ठी हो जायेंगे। बुंदेलखंड में कार्य के लिए 'काज' शब्द प्रयोग में लाते हैं। जैसे मुक्ति के काज। अहन्त भगवान् के लिए आनंद प्राप्त करना ही एक मात्र कार्य है। वह कार्य सम्पन्न हो जाता है, काज हो गया अर्थात् कृतकृत्य हो गये। अहन्त परमेष्ठी को अभी कृतकृत्य होना है। इस तरह आचार्य महाराज ने लक्षण के अंतर्गत चेतना या उपयोग को रक्खा है और स्वरूप के अन्तर्गत जितनी भी शक्तियाँ हैं वे सब आ जाती हैं। यहाँ अरस, अरूप, अगध आदि ये सारे के सारे लक्षण नहीं हैं जीव के, क्योंकि ये संसारी जीव में हमें देखने को नहीं मिलते। देखना संभव भी नहीं है, जीव के लक्षण के माध्यम से ही जीव को पकड़ लेते हैं, स्वरूप के माध्यम से पकड़ में नहीं आयेगा जीव। अहन्त परमेष्ठी की हम पूजा करते हैं, वे हमारे लिए पूज्य हैं लेकिन अभी वे असिद्धत्व का अनुभव कर रहे हैं, आगे कृतकृत्य होकर अवश्यरूपेण आराध्य बनेंगे-सिद्धत्व को अर्थात् सिद्ध पर्याय को प्राप्त करेंगे। सभी को इसी प्रकार सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए प्रयास करना पड़ेगा। अपनी वैभाविक दशा को पहचानकर स्वभाव की ओर अग्रसर होना होगा। "सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:" यह कहकर आचार्य उमास्वामी महाराज के तत्वार्थ सूत्र/मोक्षशास्त्र का प्रारम्भ किया है और अंत में जाकर कह दिया कि सम्यकदर्शन-ज्ञान, चारित्र भी आत्मा के स्वभाव नहीं है किन्तु स्वभाव प्राप्ति में कारण हैं। इसलिए इनका अभाव अन्त में अनिवार्य है। जहाँ उन्होंने 'औपशमिकादि भव्यत्वानाम्च'-यह कहा है, वहीं उन्होंने सम्यकदर्शन ज्ञान और चारित्र रूप परिणत जो भव्यत्व भाव है उस भव्यत्व रूप पारिणामिक भाव का भी अभाव दिखाया है। सिद्धालय में मात्र जीवत्व भाव रह जाता है। वह जीवत्व ही हमारे लिए प्राप्तव्य है। उस प्राप्तव्य के लिए कारणभूत सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र है। द्रव्य जहाँ शुद्ध है वहाँ सारी-की-सारी द्रव्य की पर्यायें भी शुद्ध हैं, गुण भी शुद्ध है। जहाँ एक भी अशुद्ध है वहाँ सारा का सारा अशुद्ध है। कारण कार्य का विचार करें तो पर्याय किसी न किसी का कार्य होना चाहिए और इस पर्याय रूप कार्य का उपादान भी परमावश्यक है। वह उपादान कौन है? और वह शुद्ध है या अशुद्ध ? इसका विचार किया जाए तो मालूम पडेगा कि पर्याय जिस द्रव्य में से निकली है यह द्रव्य भी अशुद्ध है। आचार्यों ने जहाँ कहीं भी कहा कि द्रव्य शुद्ध है वहाँ शुद्ध रूप परिणमन करने की शक्ति है, इस अपेक्षा से कहा है। एक बार जब उस स्वाभाविक शक्ति का उद्घाटन हो जाएगा तो पुनः वैभाविक पर्याय शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं होगी। "पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथाघृतम्, तिलमध्ये यथा तैलः, देह-मध्ये तथा शिव:"। अर्थात् जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण है, तिल में तेल है और दूध में घी है उसी प्रकार इस देह में आत्मा है। हम दूध में से यूँ ही घी निकालना चाहें तो वह हाथ नहीं आयेगा। घी उसमें है फिर भी नहीं आता। तो उसमें घी है भी और नहीं भी है, दूध में से ही घी निकलता है इसलिए उसमें घी है भी लेकिन दिखायी नहीं देता, सुगंध नहीं आती इसलिए घी नहीं भी है। वैद्य लोग जब किसी को औषधि देते हैं तो कभी घी के साथ अनुपान बनाते हैं और कभी दूध के साथ बनाते हैं। दूध पर्याय भिन्न है और घी पर्याय भिन्न है, तथापि घी दूध के बिना नहीं है और दूध घी के बिना नहीं है। ऐसे ही देह के साथ में आत्मा है। दूध अभी घी नहीं है उसमें घी बनने की शक्ति है। यदि उसमें से घी निकालना चाहो तो उसके साथ जो सम्बन्ध हुआ, जो विभाव रूप परिणमन हुआ है उसे हटाना होगा। हटाने की बात तो क्षणभर में कही जा सकती है लेकिन दूध से घी निकालने के लिए चौबीस घंटे तो चाहिए ही। जो व्यक्ति घी को प्राप्त करना चाहता है वह व्यक्ति पहले दूध को तपाता है, तपाने के उपरान्त उसे जमाता है, फिर मथानी डालकर मंथन करता है। बार-बार झाँककर देख लेता है कि नवनीत आया या नहीं, नवनीत आते ही मंथन बंद कर देता है। इस तरह अभी दूध में से एक ऐसा तत्व निकला जो तैर रहा है। पर डूबा नहीं है। छाछ के भीतर ही भीतर तैर रहा है, पर थोड़ा सा ऊपर भी दिखायी पड़ जाता है। पहले तो ऐसा कोई पदार्थ दूध में नहीं दिखता था, यह कहाँ से आ गया? तो यह मंथन का परिणाम है, उस परिश्रम का परिणाम है। नवनीत का गोला जिस तरह तैर रहा है उसी प्रकार अहन्त परमेष्ठी भी तैर रहे हैं। अब डूबेंगे नहीं भवसागर में, लेकिन अभी लोक के अग्रभाग में भी नहीं पहुँचे हैं। सिद्ध परमेष्ठी बिल्कुल लोक के अग्रभाग पर हैं, वे सिद्ध हैं और शुद्ध हैं। अहन्त परमेष्ठी नवनीत की भांति न पूर्णत: शुद्ध हैं, न अशुद्ध ही हैं। ऐसी दशा में उनको क्या कहा जाये? अभी अलिंग ग्रहण स्वभाव प्रकट नहीं हुआ। अभी सिद्धत्व रूप जो पर्याय है वह प्रकट नहीं हुई, अभी जो केवल जीवत्व है, वह नहीं है। भव्यत्व का भी अभाव अभी आवश्यक है। जिस प्रकार नवनीत में जल तत्व है जो उसे छाछ में डुबाये हुए है इसी प्रकार अहन्त परमेष्ठी के पास भी कुछ वैभाविक परिणतियाँ शेष हैं जो उन्हें लोक के अग्रभाग में जाने से रोके हुए हैं। उन्हें भी हटाने का प्रयास वे कर रहे हैं। इस सबका आशय यह हुआ कि घी उस दूध में होते हुए भी व्यक्त रूप में नहीं मिलता, अव्यक्त रूप से दूध में रहता है। उसी को आचार्यों ने अपने शब्दों में ‘शक्ति और व्यक्ति' ये दो शब्द दिये हैं। आत्मा के पास सिद्ध बनने की शक्ति है, उसे व्यक्त करेंगे तो वह व्यक्त हो सकती है। स्वयं के परिश्रम के बिना दुनियाँ की कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है जो उस सिद्धत्व की शक्ति को व्यक्त करा दे। दही में से नवनीत निकालने के लिए जिस प्रकार मथानी आवश्यक साधन हो जाता है उसी प्रकार यह दिगम्बरत्व और सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप साधन सारे के सारे परम आवश्यक हैं। जिनके माध्यम से मार्ग मिलेगा और मंजिल भी अवश्य मिलेगी। जीव तत्व शुद्ध रूप में संसार दशा में प्राप्त नहीं हो सकता। शुद्ध जीव तत्व चाहिए तो वह सिद्धों में है। सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चरित्र इसकी प्राप्ति के कारण हैं। ये सुख के कारण हैं। मुक्ति के कारण हैं। स्वयं सुख रूप नहीं हैं इसलिए इन्हें मार्ग कहा गया है। मार्ग में कभी सुख नहीं मिलता, सच्चा सुख तो मंजिल में ही है, मोक्ष में है। सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र सुख के कारण हैं, इनके अभाव होने पर ही सिद्धत्व रूप कार्य होता है। ये सुख के कारण हैं और सिद्धत्व सुखरूप अवस्था है। बृहद् द्रव्य संग्रह की वचनिका में लिखा है कि सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र की परिणति रूप जो आत्मा की उपयोग की परिणति है वह भी स्वभाव नहीं है। क्योंकि शुद्धोपयोग यदि आत्मा का स्वभाव है तो सिद्धावस्था में भी रहना चाहिए। किन्तु शुद्धोपयोग तो ध्यानावस्था का नाम है। ध्यान तो ध्येय को प्राप्त कराने वाली वस्तु है, वह ध्येय नहीं है। सिद्धावस्था में तो मात्र चैतन्य स्वभाव रह जाता है। शुद्ध चेतना या ज्ञान-चेतना रह जाती है। चैतन्य मात्र खलु चिद् चिदेव। इस प्रकार बहुत कुछ जीव तत्व के बारे में कहा गया है। जीव तत्व के बारे में इतना अवश्य समझना चाहिए कि वर्तमान संसारी दशा में जीव अशुद्ध है, द्रव्य की अपेक्षा भी अशुद्ध है और पर्याय भी अशुद्ध है। इतना अवश्य है कि जीव में शुद्धत्व की शक्ति विद्यमान है। पर्याय जब शुद्ध होगी तब शुद्ध जीव तत्व की प्राप्ति नियम से होगी। और वह शुद्ध तत्व की अनुभूति फिर अनन्त काल तक रहेगी। उसमें कोई क्रिया संभव नहीं है, वह एक सहज प्रक्रिया होगी। इसे समझकर हमें सिद्ध पर्याय को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। रत्नत्रय को अंगीकार करके मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना चाहिए। यही जीव तत्व को समझने की सार्थकता है। जीव तत्व से विपरीत अजीव तत्व है। वह ज्ञान दर्शन से शून्य है। आगम में उसके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये पाँच भेद कहे गये हैं। इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार के द्वारा जीव में कोई विकृति नहीं आती परन्तु कर्म रूप परिणत पुद्गल द्रव्य की उदयावस्था का निमित्त पाकर जीव में रागादि विकार प्रकट होते हैं। यद्यपि इन रागादि विकारों का भी उपादान कारण आत्मा है तथापि मोहनीय कर्म की उदयावस्था के साथ अन्वय व्यतिरेक होने से वह इनका निमित्त कारण होता है। रागादि विकारी भावों का निमित्त पाकर कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल में कर्मरूप परिणति होती है। इसी के फलस्वरूप जीव की संसार वृद्धि होती रहती है। कर्म से शरीर रचना होती है, शरीर में इन्द्रियों का निर्माण होता है। इन्द्रियों से स्पशदि विषयों का ग्रहण होता है। इससे नवीन कर्मबन्ध होता है। इस तरह कर्म, नोकर्म और भावकर्म रूप अजीव का, जीव के साथ अनादि काल से सम्बन्ध चला आ रहा है। जब तक इसका लेशमात्र भी सम्बन्ध रहेगा तब तक मुक्तावस्था की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए इस अजीव तत्व को समझकर इसे पृथक् करने का सम्यक् प्रयत्न करना चाहिए।
  7. भव्य-अभव्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भव्य का अर्थ होनहार होना है, जो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्रचारित्र प्राप्त करने की योग्यता रखता है, वह भव्य है। युक्ति और आगम के आधार पर जो धर्म को धारण करता है, वह भव्य है। जैसे माँ गर्भस्थ शिशु का ख्याल रखती हुई भोजन का सेवन करती है, वैसे ही गुरु महाराज स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते हुए ‘भव्य' जीवों के लिए ग्रन्थ रचना करते हैं। अभव्य को भव्य नहीं बनाया जा सकता और भव्य को अभिशाप देकर भी अभव्य नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि स्वभाव की कभी भी कोई चिकित्सा नहीं हो सकती, विभाव की चिकित्सा तो हो सकती है। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भव मिल गया लेकिन भाव स्वाश्रित है, जो भाव करता है, वह भव्य है, ऐसा ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे। जो कर्मदहन की बात नहीं करता, भाव नहीं करता, वह अभव्य है। यह संसार भव्यों से भी खाली नहीं होगा, अभव्य के समान भव्यों से भी खाली नहीं होगा और अभव्यों से तो खाली होगा ही नहीं। जिसे विषय विष के समान लग रहे हों, जो संसार एवं पाप से डरता हो और जिसे गुरु के वचनों पर भरोसा हो, समझना वह भव्य जीव है। संयम में, धर्म में, उत्साह में अभाव के कारण ही यह जीव अभव्य के समान रह रहा है। सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि से विभूषित हो जावे तो उस भव्य को सुख दूर नहीं, सुख तो अंदर है। जब सम्यकदर्शनादि की संयोजना हो जाती है तो भव्यत्व का प्रदर्शन हो जाता है। वह भव्य भी कभी मुक्त नहीं होता जो रत्नत्रय की अभिव्यक्ति नहीं करता। भव्यत्व की सार्थकता रत्नत्रय की अभिव्यक्ति में है। अंध पाषाणवत् स्वर्ण तो रहता है पर पाषाण से निकल नहीं पाता, उपयोग में नहीं आता। जिस प्रकार चावल कभी अंकुरित नहीं होता कितना भी खाद पानी क्यों ना दिया जावे उसी प्रकार अभव्य कभी भी रत्नत्रय को प्राप्त नहीं कर सकता। मूँग और ठर्रा मूँग दोनों देखने में एक से लगते हैं पर ठर्रा मूँग समुद्र भर पानी और अग्नि दोनों से सीज नहीं सकता उसी प्रकार अभव्य भी कभी सीज नहीं सकता, यह उसका स्वभाव है। आत्मतत्व को यदि हम पुरुषार्थ से सिझा देते हैं तो ध्यान रखना दूध, घी बनने के बाद पुन: दूध नहीं बन सकता, यह त्रैकालिक सत्य है। सभी का कल्याण हो ऐसी अंदर से भावना भाने वाला भव्य ही होता है। किसी को अभव्य कह दो तो वह पूछ सकता है, मैं कभी मुक्त नहीं हो सकता अच्छा मैं कभी मुक्त नहीं हो सकूंगा। यदि बार-बार ऐसा भाव करता है तो समझना वह निश्चित भव्य है। हमें प्रमाद से उठना है ऐसा बार-बार भाव करने वाला भव्य है।
  8. भव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अनंत भव गँवा दिये, इस भव में मोक्षमार्ग की भूमिका बना लो यह भव सार्थक हो जायेगा और इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण के अक्षरों से अंकित हो जायेगा। संसार के भोग औपचारिक हैं, इन औपचारिक भोगों के पीछे ही संसार में प्राणी इतना कष्ट उठा रहा है। ज्ञानी यह समझकर इन भोगों को छोड़ देता है।
  9. भगवान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भगवान का नाम लेते रहने से वचन शुद्ध एवं सिद्ध हो जाते हैं। जिनेन्द्र भगवान की भक्ति, मोक्ष रूपी घर के ताले को खोलने के लिए कुंजी के समान है। भगवान की भक्ति विषय रूपी जंगल में भटकते हुए मन रूपी हाथी को बाँधने के लिए जंजीर के समान है। आज भले ही साक्षात् भगवान नहीं हैं फिर भी उनकी प्रतिमा को आदर्श मानकर हम भगवान के स्वरूप का अवलोकन कर सकते हैं। जो १८ दोषों से रहित होते हैं, वही निर्दोष व्यक्तित्व हमारे आराध्य देव हैं। भूतों के बीच रहकर भी जो एवं भूत का अनुभव करने वाले हैं, वे मुनिराज धन्य हैं, धन्य हैं, धन्य हैं। सभी संसारी जीवों को भूत ही लगे हैं। किसी को क्रोध का, किसी को मान का, किसी को माया का, किसी को लोभ का, इससे तन, मन व वचन आहत हो रहे हैं, यह भीतरी बाधा है, ऊपरी बाधा नहीं है। भगवान के चरणों में आने से हमारे जीवन की कुण्डली बदल जाती है। भक्त और भगवान में दूरी अवश्य होती है किन्तु दिशा एक ही हुआ करती है। भगवान की भक्ति जैसे आप आदर के साथ करते हैं, वैसे ही उनकी आज्ञा का पालन भी आदर पूर्वक करना चाहिए। भगवान की आज्ञा है कि संसार में जहाँ भी दुख, पीड़ा व अज्ञान है उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। इसमें सफलता मिलना विश्वास के माध्यम से ही संभव है। जब भक्ति, भक्त के अंदर प्रकट हो जाती है तो भगवान भी अंदर प्रवेश कर जाते हैं, प्रकट हो जाते हैं। भगवान ने कभी किसी को वशीभूत नहीं किया, उन्होंने स्वयं को वश में किया है, इसलिए सभी उनके वशीभूत हैं। आत्मा का स्वरूप मात्र देव, शास्त्र एवं गुरु से ही प्राप्त हो सकता है। भगवान का अवतार नहीं होता बल्कि भगवान तो बनते हैं। आज साक्षात् भगवान नहीं हैं लेकिन उनका पथ तो है। जो संस्कारवान एवं आस्थावान होता है, वही इस पथ पर चल सकता है। दुनियाँ में जब कहीं सहारा नहीं मिलता तब भगवान व गुरु का दरवाजा हमेशा खुला रहता है। जब प्रभु आस्था के विषय बन जाते हैं, तब जीवन में वैर-भाव गौण हो जाते हैं। जहाँ भगवान जन्म लेते हैं, उस भूमि का एक-एक कण पूज्य हो जाता है। आज भी भगवान मिलते हैं, महावीरजी में एक ग्वाले को मिले, लेकिन ध्यान रखना सात्विक जीवन जीने वालों को मिलते हैं। भगवान के ऊपर उपसर्ग करने वाले को भी सम्यक दर्शन प्राप्त हो गया, यह भगवान पार्श्वनाथ का भीतरी परिचय था। माता-पिता भी तीर्थंकर भगवान के प्रभाव से वैराग्य धारण कर लेते हैं, विषय वासनाओं को भूल जाते हैं। भगवान का कीर्तन करने से अपनी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जाती है। जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती है। जो अर्हंत भगवान को द्रव्य, गुण, पर्याय के भेद से जानता है, उसका मोह क्षय को प्राप्त होता है और सम्यक दर्शन की प्राप्ति होती है। भगवान की प्रतिमा का अभिषेक करके स्वर्ग के देवतागण भी भगवान को जैसे साक्षात् स्पर्श कर लिया हो, ऐसा आनंद प्राप्त करते हैं। ज्ञान में अभिमान हो सकता है लेकिन भक्ति में लघुता प्रकट होती है। क्योंकि विवेक पूर्वक की गयी भक्ति ही सच्ची भक्ति मानी जाती है।
  10. परिवर्तन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार परिणाम प्रत्यय (भावों) के माध्यम से बहुत कुछ परिवर्तन किया जा सकता है। भावों को हम पुरुषार्थपूर्वक परिवर्तित व संयत कर सकते हैं लेकिन कर्मों को बंधने के बाद परिवर्तित नहीं कर सकते। आवश्यकों में परिवर्तन करने से स्वाद (अनुभव) भिन्न-भिन्न आने लगता है। परिवर्तन का अर्थ है-व्रत, नियम को बढ़ाते जाना और कठोर साधना करते जाना। जो व्यक्ति प्रकृति को आत्मसात् करता है, वह व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ता।
  11. परिहार विशुद्धि संयम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जो जन्म से ३० वर्ष तक की अवस्था को सुख पूर्वक व्यतीत करके वर्ष पृथक्त्व (३ से ९ वर्ष) पर्यन्त तीर्थंकर भगवान् के पादमूल में प्रत्याख्यान को पढ़कर तीनों संध्याकालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोश गमन करते हैं ऐसे मुनिराज को परिहार विशुद्धि संयम होता है।
  12. प्रथमानुयोग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ें आगे बढ़ें, अभी नहीं तो अगले भव में तो मोक्षमार्ग की भूमिका बन ही जावेगी। अगले भव की इस जीवन में भूमिका बना सकते हैं। हमारे साहस को बढ़ाने वाली महापुरुषों की गौरव गाथा को पढ़ना चाहिए। उनका गुणानुवाद करने से हमारे अंदर शक्ति जागृत हो जाती है। आदर्श पुरुषों को याद करते ही हमारा जीवन लहलहा उठता है। दर्पण को जितनी बार देखो उतनी कमियाँ (अपने में) दिखेंगी। महापुरुषों के प्रत्येक कार्य में, श्वांस में, परोपकार के भाव रहते हैं। उन राम, महावीर ने वह आस्था जमायी थी तभी इन सभी जीवों को रास्ता मिला है। आपके चरण भी उनके चरणों के साथ आदर्शो पर चलें आपके चरण भी पवित्र हो जावेंगे। रागी, द्वेषी एवं मोही पर प्रथमानुयोग का ही सही प्रभाव पड़ता है। महापुरुषों के जीवन को पढ़कर संसारी प्राणी प्रशमभाव के साथ अपने जीवन को सम्हाल सकता है। चार कषायों को छोड़ने का ही आचार्यों ने प्रयास किया है एवं उपदेश ग्रन्थ लिखे हैं। उपन्यास नहीं ऐसे चारित्र पढ़ो, ताकि आचरण बदल जावे। इरादों को मूर्तरूप देने के लिए इतिहास देखना पड़ता है। पुराण-ग्रन्थ पढ़ने से दुर्भाव भी सद्भाव के रूप में बदल जाते हैं। यदि अहंकार को छोड़ना चाहते हो तो पुराण, ग्रन्थ पढ़ा करो। पुराण-ग्रन्थों से अदभुत चीजें मिलती हैं। जिससे प्रेरणा मिलती है उनको आत्मसात् करने से पता चलता है कि यह जीवन कितना महत्वपूर्ण है। पुराण-ग्रन्थों से विकृत मन को बोध प्राप्त हो जाता है। तत्व का परायण करने के लिए स्वाध्याय करना अनिवार्य है। सबसे बड़ा धन आत्म तत्व है स्वाध्याय के माध्यम से इसका ज्ञान होता है।
  13. प्रतिशोध विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार दुनियाँ में प्रतिशोध की भावना रहती है, मोक्षमार्ग में यदि प्रतिशोध लेना चाहो तो इस शरीर से लो। इस शरीर ने कई बार धोखा दिया है, अब तुम उसे धोखा देकर तप करते हुए मुक्ति को प्राप्त करो। प्रतिशोध में हमेशा हिंसा के भाव होते हैं।
  14. पुद्गल विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पुद्गल (शरीर) छोटा होने के कारण आत्मवैभव में कभी कमी नहीं आती। तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ में सुख-दु:ख, जन्म-मरण को पुद्गल में उपकार कहा गया है। इसलिए ज्ञानी को इनमें हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए। यह सब पुद्गल का संसार है, पुद्गल के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता। अजीव तत्व व्यापक है और पुद्गल व्याप्य है। अजीव, जीव में विपरीत स्वभाव वाला है एवं पुद्गल स्पर्श, रूप, रस, गंधात्मक है। पुद्गल को चिंतन का विषय बनाने से विकल्प होता है और जीव को चिंतन का विषय बनाने से विकल्प शांत होता है। ये पुद्गल शब्दादि पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यंजन पर्यायें हैं। पुद्गल द्रव्य अस्तिकाय वाला नहीं है परंतु मिल-मिल कर स्कंध बन जाता है। पुद्गल द्रव्य अनित्य है, क्योंकि इसमें परिवर्तन होता रहता है।
  15. दूध पानी को मिला सकता है विजातीय होने पर भी, पर हम तो सजातीय को भी नहीं मिला पाते। सोचो समय रहते एक डोरी में बंध जाओ और फिर देखो, कैसा अलौकिक आनंद आता है। प्रवचन वात्सल्य का अर्थ है-साधर्मियों के प्रति करुणाभाव। 'वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेह: प्रवचनवत्सलत्वम्' जैसे गाय बछड़े पर स्नेह करती है इसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना प्रवचन वात्सल्य है। वात्सल्य एक स्वाभाविक भाव है। साधर्मी को देखकर उल्लास की बाढ़ आना ही चाहिए। प्रवचन वात्सल्य का उतना ही अधिक महत्व है जितना प्रथम दर्शनविशुद्धि भावना का। साधर्मी में वात्सल्य रखने वाला अवश्य ही तीर्थकर प्रकृति का बंध करेगा। आचार्यों ने कहा है कि साथ वाले के प्रति औचित्यपूर्ण व्यवहार ही होना चाहिए। किन्तु आज देखने में आता है कि सजातीय भाइयों में प्रेम ओझल-सा हो गया है। हम अपने से ऊँचे को और नीचे वाले को स्थान दे सकते हैं किन्तु समान लोगों को सहन नहीं कर सकते। रूस और अमेरिका में आज संघर्ष क्यों है? केवल इसलिये कि वे समान जाति के हैं। आज विश्व में विप्लव का प्रमुख कारण जातियों की पारस्परिक लड़ाई ही है। हम हाथी के साथ-साथ चल सकते हैं, साथी के साथ नहीं। एक बार दुर्योधन को गंधर्वो ने बन्दी बना लिया। धृतराष्ट्र ने निवेदन किया धर्मराज से। धर्मराज ने कह दिया भीम से। भइया जाओ दुर्योधन को छुड़ा लाओ। दुर्योधन का नाम सुनकर भीमराज क्रोध से भर उठे बोले- उस पापी की मुक्ति की बात करते हो, जिसके कारण हमें वनवास की यातनायें सहनी पड़ीं। उस अन्यायी, नारकी को छुडाने की बात करते हो, जिसने भरी सभा में द्रौपदी को निर्वसन करने का दुस्साहस किया था। धर्मराज, अगर आप किसी और की मुक्ति की बात करते, तो अनुचित न होता किन्तु दुर्योधन को मुक्त कराने मैं नहीं जाऊँगा। धर्मराज के हृदय का करुणा भाव आँखों से बहते देखकर, अर्जुन ने उनके वात्सल्य भाव को समझा और गाण्डीव धनुष द्वारा गंधर्वो से युद्ध किया तथा दुर्योधन को छुड़ा लाये। यह है वात्सल्य की भावना। तब धर्मराज ने समझाया- हम परस्पर सौ कौरव और पाँच पाण्डव हैं, लड़-भिड़ सकते हैं किन्तु बाहर वालों के लिये हम सदा एक सौ पाँच भाई ही हैं। हमारे भीतर एकता की ऐसी भावना होनी चाहिए। भगवान महावीर की पूजा करने वालों में मतभेद हो जाये, विचारों में भिन्नता आ जाये किन्तु मन-भेद नहीं होना चाहिए। पानी की धारा जब प्रवाहित होती है तो निर्बाध ही चली जाती है किन्तु किसी घनीभूत पत्थर के मार्ग में आ जाने पर वह धारा दो भागों में विभक्त हो जायेगी। वात्सल्य-विहीन व्यक्ति भी पत्थर की तरह होते हैं। वे समाज को दो धाराओं में विभक्त कर देते हैं। जाति-विरोध वास्तव में बहुत बुरी चीज है। हम महावीर भगवान् को तो मानें, उनकी पूजा करें, भक्ति करें और अपने साधर्मी भाइयों से वैमनस्य रखें, तो समझो हमारी पूजा व्यर्थ है। समवसरण में भी हमारी यही दृष्टि रही, स्वर्गों में भी यही रही। साधर्मी के वैभव को हम देख नहीं पाते, ईष्र्या उत्पन्न हो जाती है। विधर्मी चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो हमें कोई चिन्ता नहीं होती। किन्तु सजातीय बंधु की जरा सी उन्नति भी हमारी ईष्र्या का कारण बन जाती है। उसे हम सहन नहीं कर पाते। यहीं से दुखों की जड़ प्रारम्भ होती है। ये वैमनस्य ही कारण हैं हमारी व्यथाओं का। भाई! समझो तो सही। विचार भेद तो केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व छद्मस्थ अवस्था में रहेगा ही किन्तु मन-भेद तो नहीं रखना चाहिए। केवलज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त विचारों की भिन्नता भी समाप्त हो जाती है। लय में लय का मिलना भी एक नय सिद्धान्त है। सभी जीवों को एकसूत्र में बाँधने के लिये जैनधर्म में संग्रहनय का उल्लेख किया है। सभी जीव शुद्धनय की अपेक्षा से शुद्ध हैं। हमें भी ऐसे ही एक सूत्र में बंधना चाहिए, तभी श्रेयस्कर है। ध्यान रखो, यदि हमारे अन्दर वैमनस्य की रेखा है तो वह उभरकर ऊपर में करुणा की लहरें पैदा करेगी। जैसे किसी तालाब में एक पत्थर फेंका जाये तो तरंगें एक तट से दूसरे तट तक फैल जाती है, उसी प्रकार यह वैमनस्य भी फैलता ही जाता है। धर्मराज के वात्सल्य को देखकर, सुनकर भीम बड़े लज्जित होकर नतमस्तक हो गये थे। हमें भी इससे शिक्षा लेनी चाहिए। आज हम वात्सल्यहीन होते जा रहे हैं। जो हमारी उन्नति में बाधक बन रहा है। साधर्मियों से हमारी लड़ाई और विधर्मियों से प्रेम हमारे पतन का कारण है। आज मनुष्य की चाल और श्वान की चाल एक जैसी हो गई है। एक लड़के ने एक कुत्ता पाल लिया। वह बालक उस कुत्ते से बड़ा प्यार करता क्योंकि कुत्ता की चाल आप जानते ही हैं, बहुत स्वामीभक्त होता है। वह बालक एक दिन माँ से बोला- माँ दुनियाँ में शेरसिंह, हाथीसिंह, अश्वसेन आदि नाम चलते हैं, किन्तु श्वानसेन किसी का नाम नहीं। ऐसा क्यों?' तब माँ बोली- बेटा! तू अभी जानता नहीं। अगर अभी सामने से कोई दूसरा कुत्ता आ जाये तो देखना तुम्हारा ये कुत्ता तुम्हारी गोद से उतरकर उससे लड़ने पहुँच जायेगा, यह जाति-द्रोही है, यही इसका सबसे बड़ा अवगुण है। इसलिये कोई माता-पिता अपने बेटे का नाम श्वानसिंह नहीं रखते। इसी तरह हमारी रक्षा साधर्मी के द्वारा ही होगी। विधर्मी कभी हमारी रक्षा के लिये नहीं आयेगा। एक बार 'आक' का दूध गाय और भैंस के दूध से बोला- भइया मुझे भी अपने साथ मिला लो। मेरा भी विस्तार हो जायेगा। ‘ना भइया, मैं तुम्हें थोड़ा सा अपने मैं मिला लें तो मेरा स्वभाव भी बदल जायेगा, मैं फट जाऊँगा और कोई मुझे भी नहीं पियेगा। तब कैसे मैं पालन कर पाऊँगा भूखे प्राणियों का-गौ का दुग्ध बोला। तब आक का दूध कहता है- भइया, पानी को मिला लेते हो, जो कि विजातीय है। पानी विजातीय होकर भी अलग स्वभाव का है, मिलनसार है पानी का तो यह हाल है- जैसा मिले संग, वैसा उसका रंग। विजातीय होकर भी अपने इसी स्वभाव के कारण सभी के साथ मिल सकता है किन्तु हम सजातीय होकर भी ऐसे वात्सल्य का स्वभाव जागृत नहीं कर पाते। भाई, एक डोरी में बँध जाओ और फिर देखो कैसा अलौकिक आनन्द आयेगा। भगवान महावीर ने इस वात्सल्य भाव को अपने जीवन में उतारा था। प्रकाश का स्वभाव भी देखो, बीसों बल्बों का प्रकाश भी एक साथ मिल जाता है। प्रकाश में कभी लड़ाई नहीं होती, हमारी छाया भले ही प्रकाश में भेद उत्पन्न कर दे। जैसे प्रकाश में प्रकाश मिल जाता है वैसे ही हमारी आँखों से निकली हुई चैतन्य धारा भी दूसरों की ओर से आने वाली चेतन धारा से मिल जानी चाहिए। जड़ के संपर्क में रहकर हम भी जड़ होते चले जा रहे हैं। जड़ का अर्थ अचेतन भी है और मूर्ख भी है। यह मूर्ख संज्ञा मनुष्यों की ही है। दुनियाँ के पदार्थ अपना स्वभाव नहीं छोड़ते किन्तु हम मनुष्य अपना स्वभाव भूल कर उसे छोड़ बैठे हैं। इसीलिए दुखी भी हैं। सन्त लोग एक-एक पंक्ति में सुख का मार्ग प्रदर्शित कर रहे हैं। उनकी एक-एक बात सारभूत है। किन्तु हम उसे छोड़कर निस्सार की ओर दौड़ रहे हैं। हमने उनकी पुकार सुनी ही नहीं। गुरुओं के हृदय में तो करुणा की धारा प्रवाहित होती रहती है, उससे हमें लाभ लेना चाहिए और जाति-द्रोह, वैमनस्य, श्वानचाल छोड़कर मैत्री और वात्सल्य-भाव को अपनाना चाहिए।
  16. पुरुषार्थ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार इस शरीर में आत्मा (जीव) को किसी ने बाहर से नहीं डाला। जैसे दूध और पानी का सम्बन्ध अनादि सत्य है, वैसे ही जीव और शरीर का है, इन्हें पुरुषार्थ पूर्वक ही जुदा-जुदा किया जा सकता है। आत्मा के पास ऐसी क्षमता है कि वह अंतर्मुहूर्त में पुरुषार्थ के द्वारा सभी कर्मों को नष्ट कर सकता है। कर्म के उदय में होने वाले औदयिक भावों को जानो, देखो, इसमें गाफिल न होना बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। मोक्षमार्ग में बहुत जागरुकता चाहिए तभी पुरुषार्थ मूलक कुछ हो सकता है, अन्यथा नहीं। तीव्र कर्म के उदय में पुरुषार्थ भी काम नहीं करता। धर्म, मोक्ष पुरुषार्थी के लिए अभिमान और दीनता को छोड़कर अपने कर्तव्य में लग जाना चाहिए। उपदेश में शब्दों के साथ-साथ सन्मार्ग पर लाने का पुरुषार्थ होता है। पुरुषार्थ में माध्यम से अतीत को भी बदला जा सकता है और भविष्य की खाई को भी थोड़ा पूरा जा सकता है। स्वाश्रित कार्य में पुरुषार्थ को मुख्यता देनी चाहिए। जब मृत्यु निश्चित है तो आत्म हितैषी को निश्चिंत हो जाना चाहिए और आत्म पुरुषार्थ में लग जाना चाहिए, जैसे-सुकुमाल मुनिराज ने तीन दिन में ही निश्चिंतता से आत्म कल्याण कर लिया। भविष्य की उज्ज्वलता के लिए वर्तमान में पुरुषार्थ आपेक्षित होता है। मृत्युंजयी बनना चाहते हो तो अभी से पुरुषार्थ करना प्रारम्भ कर दो। हे विवेकी जनो! आत्महित में लगी, जीवन की उन्नति के लिए पुरुषार्थ करो। दूसरे के द्वारा दिया गया धनादि द्रव्य काम में नहीं आता, अपने पुण्य पुरुषार्थ के माध्यम से ही जो कमाया है, वही काम में आता है। पुरुषार्थ उसी का नाम है जो वर्तमान के संघर्ष से जूझे। श्रावक भी मोक्षमार्ग में श्रद्धा रखता है लेकिन बहाव के अनुसार बहना भी एक प्रकार से तैरना ही है, डूबने से बचने का प्रयास करना एक महान् पुरुषार्थ है। हमारा पुरुषार्थ दूसरों को जानने से नहीं स्वतत्व को जानने से ही स्वस्थ होगा। बुद्धिपूर्वक कार्य करना पुरुषार्थ है और अबुद्धिपूर्वक होना दैव (भाग्य) है। पुरुषार्थ के माध्यम से जब क्रोध उपयोग में नहीं आता तो क्रोध उदय में आकर चला जाता है। पुरुषार्थ से उदीरणा की क्रमबद्धता छूटती जाती है। उद्देश्य सही होने पर पुरुषार्थ का फल अवश्य मिलता है। सागर का मंथन गोताखोर ही कर पाते हैं। सागर की गहराई से जो अपरिचित है वह रत्नों को नहीं पा सकेगा। छोटी-छोटी बातों में, कषायों में इस नर काया को मत गंवाओ, इससे मोक्ष-पुरुषार्थ का प्रयास करो। कषायों का हनन करते हुए पाप नष्ट करते हुए इस नर काया का उपयोग करना चाहिए। यात्रा का अंत हो सकता है लेकिन भटकन का अंत नहीं होता। यात्रा में चिन्ता नहीं होती बल्कि भटकन में चिन्ता होती है। अपना पुरुषार्थ अपने ही क्षेत्र में होता है। योग्यता एवं पुरुषार्थ मुक्ति के लिए अनिवार्य हैं। जितनी सीमा है उतना पुरुषार्थ तो करना ही चाहिए। पुरुषार्थ से एक साथ पूरा छोड़ा जा सकता है, त्यागने के लिए ज्यादा पुरुषार्थ नहीं करना पडता । कषायों को कम करने का प्रयास करना चाहिए, एक दूसरे की कषाय कम करने में भी निमित बनना चाहिए। कर्मफल भोगना अज्ञान स्वभाव है, पुरुषार्थ के द्वारा इससे बचा जा सकता है। अंतर्मुहुर्त के बाद क्रोध समाप्त होगा ही जरा धीरज रखो। वस्तु और व्यक्ति से परिचित होते हुए भी उसकी स्मृति की ओर अपने उपयोग को न ले जावे इतना पुरुषार्थ तो किया जा सकता है। कर्म के उदय को गौण करना पुरुषार्थ का फल है। ज्ञानावरणादि कर्म रूपी ढक्कन को खोलने का पुरुषार्थ ही सही पुरुषार्थ माना जाता है। बुद्धिपूर्वक जितना बन सके उतना तो प्रमाद से बचने का पुरुषार्थ करना ही चाहिए।
  17. परीक्षा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार ऐसे विद्यार्थी को हम पढ़ाना नहीं चाहते जो परीक्षा (सल्लेखना या उपसर्ग परीषह) से डरते हैं। साधु वही जो हमेशा सुखी रहे, क्योंकि त्यागी कभी मौत से नहीं डरता, वह तो उसका स्वागत करता है। कठिन परिस्थितियों से गुजरना बहुत बड़ी परीक्षा है, इसमें पास होने वाले को महान् फल मिलता है। परीक्षा के माध्यम से ही ज्ञात होता है कि हमारा पथ कितना सुगम, सरल एवं सीधा है। उस पथिक की क्या परीक्षा जिस पथ में शूल न हो। उस नाविक की क्या परीक्षा जिसकी धारा प्रतिकूल न हो। परीक्षा के बाद सफलता मिलती है तो परीक्षा देते समय हुई वेदना अपने आप गायब हो जाती है। ज्ञानी पुरुष वही है जो विपति के समय, परीक्षा के समय धैर्य से काम लेता है। यदि आपने अध्ययन किया है और प्रगति चाहते हो तो परीक्षा देना अनिवार्य है। परीक्षा के बिना हमारी आस्था और ज्ञान में निखार नहीं आ सकता। आज तो मात्र चुनाव में जीतना ही सफलता मान लेते हैं, यह एक सबसे बड़ी कमजोरी है। प्रलोभन के माध्यम से साधक की परीक्षा हो जाती है। स्वर्ण की परीक्षा तपाकर, तोड़कर, घिसकर की जाती है। चारों ओर से हमारी योग्यता क्या है इसका निर्णय लेना परीक्षा है। परीक्षा के बिना प्रामाणिकता नहीं मिलती। आत्मा की परीक्षा के लिए शरीर को तप की अग्नि में तपाना पड़ता है। इस शरीर का बिछुड़न ही एक मात्र मोक्षमार्ग में परीक्षा है। परीक्षा का नाम सुनते ही कई कमजोरियाँ सामने दिखने लगती हैं। संदेह को दूर करने के लिए परीक्षा जरूरी है। जहाँ देह है वहाँ संदेह नियम रूप से रहता है देह रहित में संदेह नहीं रहता। सत्य को सिद्धि की आवश्यकता नहीं होती। संदेह के निवारण के लिए प्रदर्शन अवश्य करना पड़ता है, यह व्यवहार है। विद्यालय जाये बिना विद्या नहीं आती, विद्या आयी है कि नहीं इसकी जानकारी के लिए परीक्षा होती है। परीक्षा के पूर्व जागृति रखना चाहिए, कमर कस लेना चाहिए। परीक्षा नहीं देना चाहते हो तो फार्म नहीं भरना चाहिए। अध्ययन के समय आपके साथ बस्ता, किताबें, गुरु सब होते हैं लेकिन परीक्षा के समय मात्र आपका दिमाग साथ होगा। (हम न किसी के कोई न हमारा)। परीक्षा से घबराओ मत, परीक्षा के बिना अगली कक्षा में प्रवेश नहीं मिलता। क्षमता का मूल्यांकन परीक्षा से ही होता है। अध्ययन कितना भी हो पर प्रश्न तो कठिन ही होते हैं। परीक्षा के समय अपने आप पर विश्वास होना चाहिए। आत्म-विश्वास का होना परीक्षा में बहुत अनिवार्य होता है। परीक्षा में अपने आप पर विश्वास होना चाहिए कि ४+४ = ८ ही होते हैं। अध्ययन किया है तो विश्वास अडिग होना चाहिए।
  18. वह मार्ग जिसके द्वारा आदमी शुद्ध बुद्ध बनें उस सत्य-मार्ग अर्थात् मोक्ष-मार्ग की प्रभावना ही मार्ग-प्रभावना या धर्म प्रभावना है। मृग्यते येन यत्र वा सः मार्ग: अर्थात् जिसके द्वारा खोज की जाये उसे मार्ग कहते हैं। जिस मार्ग द्वारा अनादि से भूली वस्तु का परिज्ञान हो जाये, जिस मार्ग से उस आत्म तत्व की प्राप्ति हो जाये, उस मार्ग की यहाँ चर्चा है। धन और नाम प्राप्त करने का जो मार्ग है उस मार्ग का यहाँ जिक्र नहीं है। मोक्ष मार्ग, सत्य मार्ग, अहिंसा मार्ग यानि वह मार्ग जिसके द्वारा यह आत्मा शुद्ध बने, उस मार्ग की प्रभावना ही मार्ग-प्रभावना कहलाती है। रविषेणाचार्य के पद्मपुराण को पढ़ते समय हमें रावण द्वारा निर्मित शान्तिमय मन्दिर के प्रसंग को देखने का अवसर मिला। दीवारें सोने की, दरवाजे वज्र के, फर्श सोने-चाँदी के, छत नीलम मणि की। ओह! इतना सुन्दर मन्दिर बनवाया रावण ने और स्वयं उसमें ध्यान मग्न होकर बैठ गया। सोलह दिन तक विद्या की सिद्धि के लिये बैठा रहा ध्यानमग्न। ऐसा ध्यान जिसमें मन्दोदरी की चीख पुकार को भी नहीं सुना रावण ने। किन्तु यह ध्यान, धर्म ध्यान नहीं था। बगुले के समान ध्यान था, केवल अपना स्वार्थ साधने के लिये। आप समझते होंगे रावण ने धर्म की प्रभावना की। नहीं, उसने मिथ्यात्व का पोषण करके धर्म की अप्रभावना की। स्वामी समन्तभद्र ने लिखा है- अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्। जिनशासनमाहात्म्य प्रकाशः स्यात्प्रभावना॥ व्याप्त अज्ञान अंधकार को यथाशक्ति दूर करना और जिन शासन की गरिमा को प्रकाशित करना ही वास्तविक प्रभावना है। जो स्वयं अज्ञान में डूबा हो उससे प्रभावना क्या होगी ? रावण अन्याय के मार्ग पर चला। नीति विशारद होकर भी वह अनीति को अपनाने वाला बना। उसके ललाट पर एक कलंक का टीका लगा हुआ है। ऐसा कोई भी व्यक्ति क्यों न हो, उसके द्वारा प्रभावना नहीं हो सकती। प्रभावना देखनी हो तो देखो उस जटायु पक्षी की। जिस संकल्प को उसने ग्रहण किया, उसका पालन शल्य रहित होकर जीवन के अंतिम क्षणों तक किया। सीताजी की ‘त्राहि माम्! त्राहि माम् - आवाज सुनकर वह चल पड़ा उस अबला की सहायता के लिये। वह जानता था कि उसकी रावण से लड़ाई हाथी और मक्खी की लड़ाई के समान है। रावण का एक घातक प्रहार ही उसकी जीवन लीला समाप्त कर देने के लिये पर्याप्त है किन्तु अनीति के प्रति वह लड़ने पहुँच गया और अपने व्रत का निर्दोष पालन करते हुए प्राण त्याग दिये। यही सच्ची प्रभावना है। रावण को उससे शिक्षा लेनी चाहिए थी और हमें भी सीख मिलनी चाहिए। आज कितना अन्तर है हममें और उस जटायु पक्षी में। हम एक-एक पैसे के लिये अपना जीवन और ईमान बेचने को तैयार हैं। अपने द्वारा लिये गये व्रतों के प्रति कहाँ हैं हमें समर्पण, आस्था और रुचि, जैसी जटायु पक्षी में थी। हम व्रत लेते हैं तो छूट जाते हैं या छोड़ देते हैं। कई लोग कहते हैं-महाराज! रात्रि भोजन का हमारा त्याग। किन्तु इतनी छूट रख दो जिस दिन रात्रि में भोजन का प्रसंग आ जाये उस दिन भोजन रात में कर लें। यह कोई व्रत है। यह तो छलावा है। ऐसे लोगों से तो हम यही कह देते हैं कि प्रसंग आने पर दिन का व्रत ले लो और बाकी समयों की चिन्ता मत करो। निर्दोष व्रत का पालन ही मार्ग-प्रभावना में कारण है। जटायु पक्षी किसी मन्दिर में नहीं गया किन्तु उसका मंदिर उसके हृदय में था। जिसमें श्री जी के रूप में उसके स्वयं की आत्मा थी। हमें भी उसी आत्मा की विषय-कषायों से रक्षा करनी चाहिए। इसे ही मार्ग-प्रभावना कहा जायेगा। हमने कई बार आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज से पूछा था- महाराज, मुझ से धर्म की प्रभावना कैसे बन सकेगी? तब उनका उत्तर था-आर्षमार्ग में दोष लगा देना अप्रभावना कहलाती है तुम ऐसे अप्रभावना से बचते रहना बस! प्रभावना हो जायेगी। मुनि मार्ग सफेद चादर के समान है उसमें जरा-सा दाग लगना अप्रभावना का कारण है। उनकी यह सीख बड़ी पैनी है। इसलिये प्रयास मेरा वही रहा कि दुनिया कुछ भी कहे या न कहे, मुझे अपने ग्रहण किये हुए व्रतों का परिपालन निर्दोष रूप से करना है। भगवान् महावीर के उपदेशों के अनुरूप अपना जीवन बनाओ। यही सबसे बड़ी प्रभावना है। मात्र नारेबाजी से प्रभावना होना संभव नहीं है। रावण को राक्षस कहा है, वह वास्तव में राक्षस नहीं था किन्तु आर्य होकर भी उसने अनार्य जैसे कार्य किये। अन्त तक मिथ्यामार्ग का सहारा लिया। कुमार्ग को ही सच्चा मार्ग मानता रहा। ‘मेरा है सो खरा है' और 'खरा है सो मेरा है'- इस वाक्य में मिथ्यात्वी और सम्यक्त्वी का पूर्ण विवेचन निहित है। वाक्य के प्रथम अंश के अनुरूप जिनका जीवन है वे कुमार्गी है और वाक्य के दूसरे हिस्से के अनुयायी सन्मार्गी हैं। हमारे अन्दर यह विवेक हमेशा जाग्रत रहना चाहिए कि मेरे द्वारा ऐसे कोई कार्य तो नहीं हो रहे जिनसे दूसरों को आघात पहुँचे। यही प्रभावना का प्रतीक है। कल हमें 'तीर्थकर' पत्र में एक समाचार देखने को मिला। लिखा था धर्मचक्र चल रहे हैं बड़ी प्रभावना हो रही है। सोची, क्या इतने से ही प्रभावना हो जायेगी। मात्र प्रतीक पर हमारी दृष्टि है। सजीव धर्मचक्र कोई नहीं चल रहा उसके साथ। सजीव धर्मचक्र की गरिमा की ओर हमारा ध्यान कभी गया ही नहीं। सजीव धर्मचक्र है वह आत्मा जो विषय और कषायों से ऊपर उठ गयी है। मात्र जड़ धन-पैसे से धर्म प्रभावना होने वाली नहीं। जनेऊ, तिलक और मात्र चोटी धारण करने से प्रभावना होने वाली नहीं है। प्रभावना तो वस्तुत: अंतरंग की बात है। परमार्थ की प्रभावना ही प्रभावना है। परमार्थ के लिये कोई धन का विमोचन करें, वह भी प्रभावना है। आचार्य कुन्दकुन्द का नाम बड़ा विख्यात है। हम सभी कहते हैं मंगल कुन्दकुन्दार्यों अर्थात् कुन्दकुन्दाचार्य मंगलमय हैं। किन्तु हम उनकी भी बात नहीं मानते। शास्त्रों की वे ही बातें हम स्वीकार कर लेते हैं जिनसे हमारा लौकिक स्वार्थ सिद्ध हो जाता है। परमार्थ की बात हमारे गले उतरती ही नहीं है। उनके ग्रन्थ-‘समयसार प्राभूत में" एक गाथा आयी है जिसका सार इस प्रकार है- विद्यारूपी रथ पर आरूढ़ होकर मन के वेग को रोकते हुए जो व्यक्ति चलता है, वह बिना कुछ कहे हुए जिनेन्द्र भगवान् की प्रभावना कर रहा है। विषय कषायों पर कंट्रोल करो। वीतरागता की ही प्रभावना है, रागद्वेष की प्रभावना नहीं है। भगवान् ने कभी नहीं कहा कि मेरी प्रभावना करो। उनकी प्रभावना तो स्वयं हो गयी है। लोकमत के पीछे मत दौड़ो, नहीं तो भेड़ों की तरह जीवन का अन्त हो जायेगा। मालूम है उदाहरण भेड़ों का। एक के बाद एक सैकड़ों भेड़ें चली जा रहीं थीं, एक गड़े में एक गिरी तो पीछे चलने वाली दूसरी गिरी, तीसरी भी गिरी और इस तरह सबका जीवन गिरकर समाप्त हो गया। उनके साथ एक बकरी भी थी किन्तु वह नहीं गिरी। क्यों? वह भेड़ों की सजातीय नहीं थी। उसी तरह झूठ हजारों हैं जो एक न एक दिन गिरेंगे। किन्तु सत्य केवल एक है अकेला है। उस सत्य की प्रभावना के लिये कमर कसकर तैयार हो जाओ। सत्य की प्रभावना तभी होगी जब तुम स्वयं अपने जीवन को सत्यमय बनाओगे, चाहे तुम अकेले ही क्यों न रह जाओ, चुनाव सत्य का जनता अपने आप कर लेगी।
  19. परीषह विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार नदी में ही नाव की शोभा है, ठीक वैसे ही परीषहों से ही साधु की शोभा है। स्वाभिमान रखने से याचना परीषह सहन हो जाता है। परीषहजय के बिना अनुप्रेक्षाओं का कोई महत्व नहीं होता। मोक्षमार्ग में दु:ख को सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती है। परीषहीं का सहन, मार्ग से स्खलन न हो और कर्म निर्जरा होती रहे इसलिए किया जाता है। उपसर्ग, परीषहों में जीने वाले को स्वाध्याय की क्या आवश्यकता उनकी हर क्षण कर्म की निर्जरा हो रही है। संसारी प्राणी आराम चाहता है लेकिन मोक्षमार्ग में सबसे पहले परीषह सहन करना पड़ते हैं,ये परीषह मोक्षमार्गी को संवर मार्ग में बनाये रखते हैं। अनुकूल-प्रतिकूल वातावरण में समता बनाये रखना ही तो दृढ़ श्रद्धान माना जाता है।
  20. मनुष्य-जीवन आवश्यक कार्य करने के लिए मिला है अनावश्यक कार्यों में खोने के लिये नहीं। जो पाँच इन्द्रियों और मन के वश में नहीं है वह 'अवश' है और 'अवशी' के द्वारा किया गया कार्य 'आवश्यक' कहलाता है। 'आवश्यकापरिहाणि'- दो शब्दों से मिलकर बना है-'आवश्यक' और "अपरिहाणि" अर्थात् आवश्यक कार्यों को निर्दोष रूप से सम्पन्न करना । आवश्यक कार्यों को समयोचित करने के लिये बुद्धिमत्ता आवश्यक है। एक अपढ़ बहू एक घर में आ गई। पड़ोस में किसी के यहाँ मौत हो गयी थी। सास ने उसे वहाँ भेजा। सांत्वना देने के लिए। बहू गई और सांत्वना शाब्दिक देकर आ गई। रोई नहीं। सास ने कहा/समझाया कि वहाँ रोना आवश्यक था बहू। अचानक दूसरे ही दिन पड़ोस के एक अन्य घर में पुत्र का जन्म हुआ। सास ने बहू को भेजा और वहाँ पहुँचते ही बहू ने रोना शुरू कर दिया। घर लौटी तो सास के पूछने पर उसने सब कुछ कह दिया। सास ने बहू को फिर समझाया क्या करती हो बहू, वहाँ तो तुझे प्रसन्न होकर गीत गाना चाहिए था, अब आगे ध्यान रखना। फिर एक दिन की बात है वह बहु ऐसे घर में गयी जहाँ आग लग गयी थी। वहाँ जाकर उसने गीत गाये और प्रसन्नता व्यक्त की। आप जान रहे हैं उस अनपढ़ बहू के ये काम समयोचित नहीं थे। इसीलिए आप सब हँस रहे हैं उसकी बात सुनकर। किन्तु यदि आप अपने ऊपर ध्यान दो तो पाओगे कि आप सबका जीवन भी कितना अव्यवस्थित हो रहा है। महर्षि जन आपके क्रिया-कलापों को देखकर हँसते हैं क्योंकि आप के सभी कार्य अस्त व्यस्त हैं। आपको नहीं मालूम-कब, कहाँ कौन-सा कार्य करना है। भगवान् वृषभनाथ को अन्तिम कुलकर माना गया है। उनके समय से ही भरत क्षेत्र में भोगभूमि का अन्त हुआ और कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने सारे समाज को तीन भागों में विभक्त कर छ: कार्यों में लगाया। यह आपको समझना है कि भोगभूमि नहीं है यहाँ। कर्मभूमि है। पुरुषार्थ आपको अनिवार्य रूप से करना है। भोग आपको मिलने वाले नहीं है। हमने ये सारी बातें रटी हुई हैं। समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदि सभी खोल-खोल कर हमने रट डाले हैं। किन्तु उनमें कही गयी शिक्षाओं के अनुरूप हमारे कार्य नहीं बन पाये। वृषभनाथ भगवान् ने युग के आरम्भ में लोगों को अन्न पैदा करना, अन्न खाना सिखाया और बाद में मोक्षमार्ग की साधना की भी प्ररूपणा की है। आप केवल खाना खाने तक सीमित रह गये। पर लौकिक शिक्षा को हृदयंगम किया ही नहीं। आप विवेक और बुद्धि के अभाव में आवश्यक कार्यों को तो करते नहीं, वासना के दास बने हुए हैं। 'आवश्यक' शब्द की निष्पत्ति की चर्चा करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है, जिसने इन्द्रियों के दासपने को अंगीकार कर लिया, वह वशी है। जो मन और पाँच इन्द्रियों के वश में नहीं है वह अवशी है। अवशी केवल आवश्यक कार्य ही करेगा, अनावश्यक कार्य नहीं करेगा। आवश्यक कार्य कौन-सा? करने योग्य कार्य ही आवश्यक कार्य है और मनुष्य जीवन आवश्यक कार्य करने के लिये मिला है। अनावश्यक कार्यों में खोने के लिये नहीं मिला। योगसाधन के लिये जीवन मिला है भोग साधन के लिए नहीं। ध्यान रखें, त्रस पर्याय सीमित है और इसी में आवश्यक कार्य किये जा सकते हैं। कुल दो हजार सागर का समय मिला है, इसके उपरान्त पुनः निगोद में लौट कर जाना ही पड़ेगा। इन दो हजार सागर में मनुष्य के केवल अड़तालीस भव मिलते हैं। मनुष्य के इन अड़तालीस भवों में भी सोलह बार स्त्री पर्याय के, चौबीस नपुंसक के भव और शेष आठ पुरुष पर्याय के हैं। इस प्रकार अगर देखा जाये तो पूरा विकास करने के लिये आठ ही भव मिले हैं। यदि ये भव यूँ ही चले गये तो पछताना पड़ेगा। ‘अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत'। डूबने के उपरान्त किसी को बचाया नहीं जा सकता । मणि को समुद्र में फेंक देने के उपरान्त उसे पाया नहीं जा सकता। गाड़ी छूटने के समय आप यात्री से कहें - "केन्टीन में चली, थोड़ा विश्राम कर लो।" तब क्या वह आपकी बात मानेगा ? कभी नहीं मानेगा। वह जानता है कि गाड़ी छूटने का मतलब परेशानी कई घण्टों की। ऐसा ही ये मनुष्य जीवन है। अकबर और बीरबल का एक उदाहरण मुझे याद आता है। एक व्यक्ति आया और उसने प्रश्न किया राज दरबार में- सताईस में से दस निकाल दिए जाएँ तो कितने बचेंगे ? किन्तु बीरबल का उत्तर बड़ा अजीब था। उसने कहा सताईस में से दस निकल जाने पर कुछ नहीं बचेगा। सभी भौचक्के रह गये। यह क्या उत्तर है ? कौन-सी स्कूल में पढ़ा है यह ? इतना भी ज्ञान नहीं। तब बीरबल ने समझाया- सताईस नक्षत्र होते हैं उनमें से दस नक्षत्र ऐसे हैं जिनमें वर्षा होती है यदि वे नक्षत्र निकाल दिये जायें तो वर्षा के अभाव में फसल नहीं होगी। अन्न का एक दाना भी घर में नहीं आ पायेगा। अकाल की स्थिति हो जायेगी और सभी भूखे मर जाएँगे। कुछ भी शेष नहीं रहेगा। इसी प्रकार त्रस पर्याय से मनुष्य-भव निकाल दो फिर कल्याण का अवसर कहीं नहीं मिलेगा। भोग-भूमि में भोग भोगने होंगे। उसके बिना निस्तार नहीं है। उत्तम भोगभूमि में तीन पल्य तक रहना होगा, मध्यम भोगभूमि में दो पल्य और जघन्य भोग-भूमि में एक पल्य की उम्र बिताना होगी। उत्तम भोगभूमि में तीन दिन के उपरान्त चौथे दिन एक भुक्ति अनिवार्य है। मध्यम और जघन्य भोगभूमि में क्रमश: दो दिन और एक दिन के उपरान्त एक भुक्ति करनी ही होगी। इसे कोई टाल नहीं सकता। भोग भोगने ही पड़ेंगे किन्तु कर्मभूमि में भोगों के पीछे दौड़ना ही व्यर्थ है। यहाँ तो पुरुषार्थ द्वारा, संयम द्वारा अपनी स्वतन्त्र सत्ता को पाया जा सकता है। यहाँ खाना खाओ तो जागृति के लिये, योग-साधना के लिए, सोने के लिए नहीं। यह शरीर योग साधना के लिए माध्यम है। इसके माध्यम से ही अलौकिक आनन्द में प्रवेश किया जा सकता है। सभी तीर्थकरों ने यही किया। उन्होंने मात्र सिखाया ही नहीं, करके भी दिखाया। हमें अवसर को पहचानना चाहिए वरना पछताना पड़ेगा, वैसे कई बार पछताये भी हैं परन्तु स्मरण नहीं। श्वान की टेढ़ी पूंछ के समान जो कि कभी सीधी नहीं हो पायी, हमारी भी मनोदशा है। उठो, जाग्रत हो, अनादि के कुसंस्कारों को तिरस्कृत करके निगोद की यात्रा से बचो, जहाँ 'एक श्वास में आठ दस बार, जन्मयो मरयो भरयो दुख भार' समय के साथ चलकर यह आवश्यक कार्य निर्दोष पूर्वक करना चाहिए।
  21. परिग्रह विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आरम्भ-परिग्रह का त्याग कर दो, शोर सूतक समाप्त, पहला सोपान यही है। मोक्षमार्ग प्रारम्भ नहीं हुआ तो संसार कितना है यह हम नहीं कह सकते। मन जितना भी हल्का होगा परिग्रह छोड़ने से ही होगा। भार छोड़कर आओगे तो यहाँ मन लगेगा वरन् धर्मध्यान में मन नहीं लगेगा। पैसा परिग्रह रखते हो तो रौद्रध्यान परिग्रहानंद से नहीं बच सकते। जड़ की सेवा हमारे यहाँ वर्जित है क्योंकि उससे बुद्धि गाफिल हो जाती है। ताला लगाना रौद्र-ध्यान का प्रतीक है, परिग्रहानंद नामक रौद्रध्यान है। शरीर का ममत्व भी परिग्रह है, यह भी अपना नहीं है, फिर कौन अपना होगा ? आत्मा परिग्रह वाला होता ही नहीं, यह भ्रम है। हम पर द्रव्य को फिर भी अपनाते हैं। परिग्रह ने आपको पकड़ रखा है कि आपने परिग्रह को। धन का लोभी अगले भव में वहीं कुंडलीमार बनकर बैठ जाता है। पर द्रव्य के वियोग में आपको पीड़ा होती है जबकि पर द्रव्य को नहीं क्योंकि परद्रव्य में ज्ञान नहीं होता। धन के बिना काम नहीं चलता लेकिन जिस धन से अपना जीवन अंधकार की ओर चला जाये वह धन किस काम का ? परिग्रह त्याग का पाठ समझ में आ गया तो लगे रहो और दूसरों को भी लगाते रहो। अर्जित धन अंजुली में पानी की तरह बह जाता है। यदि रह गया तो अगले भव में परिग्रही जीव सर्प बनकर उस परिग्रह की रक्षा करने आता है। यह पर्याय लोभ के कारण मिलती है। चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाये लेकिन जब चोर आ जावे तो सब ले जाये। अग्नि हाथ में रखोगे तो जलोगे ही वैसे ही परिग्रह हाथ में रखोगे तो चलोगे ही। अतिथि-संविभाग व्रत का अर्थ है, धन का कुछ हिस्सा देव, शास्त्र एवं गुरु की भक्ति में समर्पित करना। हमारी नाव इसलिए डूब रही है कि हमारी नाव में पानी भरता जा रहा है। पानी भीतर जा रहा है तो डॉट लगाओ। आत्मा को हल्का बनाने की प्रक्रिया परिग्रह त्याग है, पर वस्तु से दूर होना है। आत्मा का स्वभाव लकड़ी से भी ऊपर घी की तरह तैरना है। आत्मा कभी डूब नहीं सकती लेकिन परिग्रह लेप के कारण संसार में डूबी हुई है। हमने पर वस्तु को भावों से अपना लिया इसलिए सिद्ध नहीं हो सके। धन संचय से मूर्च्छा रूपी गंदगी पैदा होती है। वैभवमात्र विलासता का प्रतीक नहीं है बल्कि उसके प्रति गृद्धता का नाम विलासता है। आपत्तियों की जड़ परिग्रह है, परिग्रह वस्तुओं का नाम नहीं है बल्कि मूर्च्छा का नाम परिग्रह है। जब शरीर के प्रति भी मूर्च्छा का अभाव हो जाता है तब वह दिगम्बर मुद्रा को धारण करके मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हो जाता है। राग की बुनियाद बहिरंग पदार्थ है, वह जब तक सामने केन्द्र में नहीं रहता तब तक राग हो ही नहीं सकता। इसलिए राग छोड़ने के लिए बाहरी पदार्थ का विमोचन करना आवश्यक है। तन एवं मन से त्याग होना चाहिए और फिर स्वप्न में भी बाह्य पदार्थ याद नहीं आना चाहिए। यदि शरीर के प्रति ममत्व है तो आहार, भय, मैथुन व परिग्रह रूप संज्ञाओं में यह जीव आसक्त रहता है। दूसरे पदार्थ को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव करना ही मूर्च्छा (परिग्रह) है। यह सबसे बड़ी कमजोरी है, पर पदार्थ के ग्रहण से ही जीवन में ग्रहण लग जाता है। आग के हट जाने पर पानी का उबलना बंद हो जाता है, वैसे ही परिग्रह त्याग करने के बाद मन शान्त हो जाता है, पूर्व संस्कार होने से थोड़ा अशान्त भी रह सकता है। परिग्रह का त्याग किये बिना अपने आपको ज्ञानी मानना मात्र एक नाटक ही है। दस प्रकार के परिग्रह का त्याग किये बिना आत्मा की बात करना सन्निपात रोग जैसा है। अध्यवसाय वस्तु के बिना नहीं हो सकता, इसलिए सर्वप्रथम वस्तु (परिग्रह) का त्याग करो। जहाँ परिग्रह है, वहाँ शान्ति नहीं रह सकती। परिग्रह और शान्ति का बिल्ली और चूहे जैसा जात्य वैर है। जो परिग्रह पाप में रत है, वह हमेशा और हर जगह दु:खी ही रहेगा। बाह्य और अंतरंग दोनों परिग्रह को छोड़े बिना अहिंसा धर्म की महक नहीं आ सकती आत्मानुभूति तो दूर की बात है| परिग्रह का त्याग आत्मा का कायाकल्प कर देता है, जिससे नई स्फूर्ति आ जाती है, जैसे कल्प करने से पेट साफ हो जाता है, शरीर निरोग हो जाता है और जैसे मूसलाधार वर्षा से सारा दलदल समाप्त हो जाता है। चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में स्त्री भी एक रत्न में आती है इसलिए पति-पत्नि एक दूसरे के लिए परिग्रह है। जो सौभाग्यशाली होते हैं, वे इसे अपनाते ही नहीं हैं। वस्तु परिग्रह नहीं है, उसे पकड़ने के भाव का नाम, मूर्च्छा का नाम परिग्रह है। परिग्रह उतना ही रखो जिससे धर्मध्यान में बाधा न आवे। परिग्रह को जितना छोड़ोगे उतनी हिंसा कम होगी और दया आती जावेगी। धन परिग्रह को उचित (धर्म) स्थान पर लगाना ही, खर्च करना ही उसका सदुपयोग है।
  22. अज्ञात का ज्ञान और अनुभव प्राप्त करके जो विशिष्ट शब्द बोले जाते हैं जिनका संबंध हमारी आन्तरिक निधि से होता है वे शब्द प्रवचन कहलाते हैं। वचन और प्रवचन में बड़ा अन्तर है। जो साधारण शब्द हम बोलते हैं वे वचन हैं। प्रवचन वे विशेष शब्द हैं जिनका सम्बन्ध साँसारिक पदार्थों से न होकर उस अनमोल निधि से है जो हमारे अन्दर है। अज्ञात का अनुभव एवं ज्ञान प्राप्त करके जो विशेष शब्द खिरते हैं, बोले जाते हैं, वे शब्द प्रवचन कहलाते हैं। आत्मानुभूति के लिये किये गये विशेष प्रयास को प्रवचन कहते हैं। महावीर भगवान् ने अज्ञात और अदृष्ट का अनुभव प्राप्त किया। अत: जो भी वचन खिर गये वे सरस्वती बन गये। श्रुत की आराधना एक महान् कार्य है। श्रुत के दो भेद हैं- द्रव्य-श्रुत और भाव-श्रुत। शाब्दिक वचन द्रव्य-श्रुत हैं और अन्दर की पुकार भाव-श्रुत है। विद्वान् लोग इसी श्रुत का सहारा लेते हैं धन का सहारा नहीं लेते। वस्तुत:, विद्वान् वे ही हैं जो अनादिकालीन दुखों के विमोचन के लिये सरस्वती की आराधना करते हैं। लक्ष्मी की आराधना नहीं करते। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं न शीतलाश्चन्दन चन्द्ररश्मयो न गागमम्भो न च हारयष्टयः । यथा मुनेस्तेनघ-वाक्य-रश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम्॥ हे शीतल प्रभु! विद्वान् लोग शीतलता की प्राप्ति के लिये न चन्दन का सहारा लेते हैं न चन्द्र किरणों का, न गंगा के जल का और न हार का। वे आपके वचनों का सहारा लेते हैं क्योंकि उन्हीं से वास्तविक शीतलता मिलती है। द्रव्य-श्रुत एक चाबी की तरह है जिससे मोह-रूपी ताले को खोला जा सकता है किन्तु चाबी मिलने पर ताला खुल ही जाये ये बात जरूरी नहीं। उस चाबी का प्रयोग यदि हम किसी दूसरे ताले में करेंगे तो ताला कभी नहीं खुलेगा। आज तक हमने यही किया है। द्रव्यश्रुत के महत्व को नहीं समझा। द्रव्यश्रुत का महत्व तो तभी है जब आप इसके सहारे से अपनी अलौकिक आत्म-निधि को प्राप्त कर लें। शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार आत्मा का अनुभव कर लें। दूध में घी है किन्तु हाथ डालने मात्र से मिलने वाला नहीं। घी प्राप्ति के लिये मंथन करना पडेगा दूध का। आज तक हमने इस द्रव्यश्रुत का उपयोग आत्मा की प्राप्ति के लिये किया ही नहीं। इसीलिए विद्वान् भी लक्ष्मीवान की तरह आज तक दुखी है। सरस्वती को दीपक की उपमा दी गई है जो हमारे मार्ग को प्रशस्त करता है किन्तु जिसके हाथ में दीपक है यदि वह भी इधर-उधर देखता हुआ असावधानी से चले तो सर्प पर भी पैर पड़ सकता है, वह भटक भी सकता है। इन्द्रियाधीन होने के कारण कषायों के शमन से ही सुख की प्राप्ति होती है और कषायों के शमन से ही भावश्रुत प्रादुर्भाव होता है। वैसे द्रव्यश्रुत और भावश्रुत दोनों ही लाभदायक हैं किन्तु भावश्रुत तो अनिवार्य रूप से लाभदायक है। अविनाशी जीव-द्रव्य के ज्ञान के लिए शाब्दिक ज्ञान अनिवार्य नहीं है। एक साधु के पास एक शिष्य आया। बोला-"महाराज, मुझे दीक्षित कर ली, आपके सहारे से मेरा भी कल्याण हो जायेगा।" शिष्य बिल्कुल निरक्षर और कम बुद्धि वाला था। साधु महाराज ने कई मन्त्र सिखाये किन्तु उसे कोई मन्त्र याद ही नहीं होते थे। 'गुरु महाराज बड़े चिन्तित कि कैसे कल्याण हो इसका क्या करें ? इसे कुछ याद नहीं होता' आखिर उसे छह अक्षरों का एक मन्त्र महाराज ने सिखाया "मा रुष, मा तुष" अर्थात् रोष द्वेष मत करो, तोष राग मत करो। शिष्य उसे भी भूल गया और केवल उसे याद रहा तुषमास भिन्न अर्थात् छिलका अलग और दाल अलग। अचानक एक दिन उसने एक बुढ़िया माँ को दाल से छिलका अलग करते हुए देखा। बस, इसी से उसका कल्याण हो गया। ये शिष्य शिवभूति महाराज थे। जो आत्मा अलग और शरीर अलग ऐसे भेदविज्ञान को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त के लिए 'स्व' में लीन हो गये और उन्हें केवल-ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। वे मुक्त हो गये। हमें भी भेद-विज्ञान की कला में पारंगत होना चाहिए। भावश्रुत की उपलब्धि के लिये हमारा अथक प्रयास चलना चाहिए। अरे भइया! शरीर के साथ जीवन का जीना भी कोई जीवन है? शरीर तो जड़ है और आत्मा उजला हुआ चेतन है। जिस क्षण यह भेद-विज्ञान हो जायेगा, उस समय न भोगों की लालसा रहेगी, न ही अन्य इच्छाएँ रहेंगी। मोह विलीन हुआ कि समझो दुख विलीन हुआ। सूर्य के उदित होने पर क्या कभी अंधकार शेष रह सकता है ? किन्तु आज तो इस भेद विज्ञान का भी अर्थ गलत ही लगाया जा रहा है। शरीर अलग और आत्मा अलग है। इसलिये शरीर को खूब खिलाओ-पिलाओ, आत्मा का उससे कुछ बिगाड़ होना नहीं है। यह तो अर्थ का अनर्थ है भइया! हमारी दशा तो उस बुढ़िया की तरह हो गयी है जिसकी सुई घर में कहीं खो गयी थी। अँधेरे में वह उसे ढूँढ़ नहीं पा रही थी, तब किसी ने उजाले में ढूँढ़ने का परामर्श दिया और बुढ़िया बाहर जहाँ थोड़ा प्रकाश था वहाँ ढूँढ़ने लगी, पर वहाँ कैसे मिल सकती थी। हमारी भी अनमोल निधि हमारे पास है किन्तु हम उसे बाह्य पदार्थों में ढूँढ़ रहे हैं। अर्थ का अनर्थ लगा रहे हैं। यह कैसी बिडम्बना है। द्रव्यश्रुत आवश्यक है भावश्रुत के लिये। द्रव्यश्रुत ढाल की तरह है और भावश्रुत तलवार की तरह है किन्तु ढाल और तलवार को लेकर रणांगण में उतरने वाला होश में भी होना चाहिए। द्रव्यश्रुत द्वारा वह अपनी रक्षा करता रहे और भाव-श्रुत में लीन रहने का प्रयास करें। यही कल्याण का मार्ग है। एक सज्जन ने मुझसे प्रश्न किया महाराज इस पंचम काल में तो मुक्ति होती नहीं। आपकी क्या राय है ? मैंने कहा कथंचित् सही है यह बात। "महाराज, जो बात सही है, उसमें भी आप कथचित् लगा रहे हैं।" वे सज्जन बोले! हाँ भाई! कथचित् लगा रहे हैं इसलिये कि आज द्रव्य-मुक्ति भले न हो, पर भाव-मुक्ति तो तुरन्त हो सकती है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन, धन आदि इनका विमोचन करो, छुटकारा पा जाओ उन पदार्थों से जिनको आप पकड़े बैठे हैं अपने परिणामों में भावों में, बस! तुरन्त कल्याण है यही तो है भाव मुक्ति। यही तो है प्रवचन भक्ति!
  23. पाप-पुण्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पाप एक दलदल है, उस पाप के दलदल के कारण संसारी प्राणी अपने आप को आज तक ऊपर नहीं उठा पाया है। पाप पाताल की ओर ले जाते हैं। पाँचवें पाप (परिग्रह) को छोड़ने के लिए बोलियाँ लगायी जाती हैं। यह परिग्रह पाप सभी पापों का बाप है। अपव्यय सबसे बड़ा पाप है। आज हवा कुछ ऐसी चल पड़ी है कि पाप को नहीं पुण्य को मिटाने की बात करते हैं और पापमय होते जा रहे हैं। जिनके पास पाप नहीं है, वे पूजन योग्य हैं। भूलकर भी तत्त्ववेता पुण्य कर्म की निर्जरा के बारे में न सोचें, तभी वह सच्चा श्रद्धानी माना जावेगा । पाप कर्म की निर्जरा की जाती है। जैसे-जैसे पापकर्म की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है वैसे वैसे पुण्य का अनुभाग बढ़ता जाता है। पाप करोगे तो पापी कहलाओगे और पुण्य/धर्म करोगे तो पुण्यात्मा/धर्मात्मा कहलाओगे, क्योंकि स्वयं के कार्यों के माध्यम से टाइटल मिलते हैं किसी की कृपा से नहीं। प्रतिशत में जीने वालों को सुख कहाँ से मिलेगा। ९०% पाप जिसके जीवन में हो उसे सुख नहीं मिल सकता। १०% पुण्य की सुगंध ९०% पाप की दुर्गध के बीच नहीं आ सकती। दोषों से अनुराग और गुणों से द्वेष रखने से पाप बंध ही होता है और गुणों में अनुराग दोष में द्वेष रखते हैं तो पुण्य बंध होता है और इन दोनों में राग-द्वेष नहीं रखने से कर्म की निर्जरा होती है, मोक्ष होता है। जो वर्तमान में पाप नहीं करता वह यहाँ भी सुखी है और आगे जहाँ भी जावेगा वहाँ भी सुखी रहेगा, इसलिए सुख चाहते हो तो पापों का त्याग कर दो। इन्द्रियनिग्रह, संयम, तपश्चरण, जिनभक्ति, दयाभाव ये सभी दुर्लभ गुण महान् पुण्यात्मा जीव में ही होते हैं, जिनके संसार रूप समुद्र का किनारा निकट में आ चुका हो। सात्विक भाव, पुण्य स्वयं में साथ दूसरों को भी उन्नति की ओर ले जाने में सहायक होता है। मोक्षमार्ग में आलोचना, प्रायश्चित को स्वयं स्वीकारना होता है। पाप बाँधा है तो स्वयं को परिमार्जित करना चाहिए। संसारी प्राणी में जन्म-मरण, विकास-ह्रास का क्रम चलता रहता है, उसके पीछे उसके जन्मान्तर के अर्जित पाप-पुण्य का ही हाथ रहता है। तुम्हारा वध तुम्हारे ही अहितकारी पाप कर्म के द्वारा होता चला आ रहा है। जिससे आपको कष्ट होता हो, उसे क्या आप अपने पास रखना चाहोगे। उन पाँच पापों को छोड़ने के लिए जल्दी तत्पर हो जाओ। पाप छोड़ने की दिशा में साधारण लोगों की गति नहीं हो और यदि वह छोटा भी हो और पाप छोड़ने की दिशा में उत्साह के साथ लीन हो तो उसकी मजबूत आस्था, आत्मबल एवं पुरुषार्थ प्रशंसनीय है। जो पुण्यवान है और पुण्य के कार्यों में लगे हुए हैं, उनके यहाँ लक्ष्मी और सरस्वती दौड़ी चली आती है। पुण्यवानों की नौकरी में तो लोग लग जाते हैं लेकिन पुण्य के कार्यों में नहीं लगते। आत्महितैषी को नश्वर शरीर के लिए पाप करना बंद कर देना चाहिए। पति-पत्नि दोनों एक दूसरे के लिए अपना पुण्य समाप्त करते रहते हैं, लाभ-हानि के बारे में सोचा जाये तो पुरुष स्त्री के लिए और स्त्री पुरुष के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं। घर नहीं छोड़ सकते तो घर के प्रति जो मूर्च्छा है उसे तो छोड़ सकते हो। जीवन में निरीहता होना अनिवार्य है, वरन् प्रतिपल पाप का बंध हो रहा है। पुण्यानुबंधी पुण्य के माध्यम से ही चक्रवर्ती आदि पद मिलते हैं। आत्मा के परिणाम ही सब कुछ हैं उसी से पुण्य-पाप होते हैं। जब कर ही रहे हैं तो धार्मिक परिणाम ही क्यों न करें? हाँ, संक्लेश विशुद्धि घटती-बढ़ती रहती है, ये बात अलग है। यह परिणामों का ही खेल है, नारायण ने कोटिशिला उठा ली, हार्टफेल नहीं हुआ, किन्तु भाई का वियोग सुनकर हार्टफेल हो गया। जैसे सूर्य का प्रकाश कमल के विकास में सहायक है, उसी प्रकार पूर्व में किया हुआ पुण्य समय पर अवश्य ही काम आता है, आपत्तियों को भी सम्पति में बदलता जाता है। पुण्य क्षीण होने पर सारी शक्तियाँ छोड़कर चली जाती है। यह स्वार्थ की दुनियाँ है, यह जानते हुए भी यह जीव दूसरे के लिए स्वयं पाप कमाता है, यह अज्ञान ही तो है। पूर्व पुण्य का उदय नहीं है तो वर्तमान में कितना ही पुरुषार्थ करो तो कुछ भी पल्ले नहीं पडता। जिस पुण्य से धन मिलता है, उससे धर्म मिले यह कोई नियम नहीं। धर्म पाने के लिए दुर्लभ पुण्य चाहिए। पुण्य कर्म की निर्जरा के लिए कोई विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता। पाप कर्म की निर्जरा में लिए ही पुरुषार्थ करना पड़ता है। पुण्य के फल के प्रति हेय बुद्धि रखना, न कि पुण्य कर्म के प्रति क्योंकि पुण्य मोक्षमार्ग में बाधक नहीं है। जैसे वर्षा हो रही है तो ठण्डी लहर आवेगी उससे बच नहीं सकते, वैसे ही सम्यक दर्शन होते ही पुण्यकर्म का बंध होगा ही उससे बच नहीं सकते। सातवें गुणस्थान से साता का ही बंध होगा, भले वहाँ असाता कर्म का उदय हो। धर्म से, सुख से जो आत्मा की रक्षा करता है, उसे पाप कहते हैं। खेत में खरपतवार (घासफूस) बिना उगाये उग आती है, वैसे ही इस जीवन रूपी खेत में पाप रूप घास अपने आप पनपती रहती है। शुभ भाव किया तो पुण्यात्मा, अशुभ भाव किया तो पापात्मा हो गया एवं इन दोनों से ऊपर उठ गया तो परमात्मा बन गया।
  24. जैसे माँ अपने बच्चे को बड़े प्रेम से दूध पिलाती है वैसी ही मनोदशा होती है बहुश्रुतवान महाराज की। अपने पास आने वालों को वे बताते हैं संसार की प्रक्रिया से दूर रहने का ढंग और उनका प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि वे स्वयं उस प्रक्रिया की साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं। बहुश्रुत का तात्पर्य उपाध्याय परमेष्ठी से है। उपाध्याय ये तीन शब्दों से मिलकर बना है उप+ अधि+आय। ‘उप’ माने पास/निकट 'अधि' माने बहुत समीप अर्थात् सन्निकट और 'आय' माने आना अर्थात् जिनके जीवन का संबंध अपने शुद्ध गुण पर्याय से है जो अपने शुद्ध गुण पर्याय के साथ अपना जीवन चला रहे हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी हैं। उनकी पूजा, उपासना या अर्चना करना, यह कहलाती है बहुश्रुत-भक्ति। आचार्य और उपाध्याय में एक मौलिक अन्तर है। आचार्य महाराज उपाध्याय परमेष्ठी पर भी शासन करते हैं। उनका कार्य होता है आदेश देना। 'पर' का हित उनका कर्तव्य है। अत: वे कटु शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। प्रिय, कटु और मिश्रित इन तीनों प्रकार के वचनों का प्रयोग आचार्य परमेष्ठी करते हैं किन्तु उपाध्याय परमेष्ठी उनसे बिल्कुल भिन्न हैं। उपाध्याय महाराज तो बड़े मीठे शब्दों में वचनामृत पान कराते हैं अपने शिष्यों को। जैसे माँ अपने बच्चे को बड़े प्रेम से दूध पिलाती है वैसी ही मनोदशा होती है उपाध्याय महाराज की। अपने पास आने वालों को वे बताते हैं संसार की प्रक्रिया से दूर रहने का ढंग और उनका प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि वे स्वयं ही उस प्रक्रिया की साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं। उपाध्याय महाराज आत्मा की बात करते हैं। उनके पास न पंचेन्द्रिय विषयों की चर्चा है, न कषायों की, न आरंभ की और न परिग्रह की। विषय और कषायों में अनुरंजन, आरंभ व परिग्रह में आसक्ति तथा संचय की प्रवृत्ति का नाम ही संसार है। जहाँ विषय, कषाय, आरंभ व परिग्रह का सर्वथा अभाव है वहाँ मुक्ति है। उपाध्याय परमेष्ठी इसी मुक्ति की चर्चा करते हैं और उस उपदेश के अनुरूप आचरण भी करते हैं। इसी कारण उनका प्रभाव लोगों पर पडता है। प्रभाव केवल आचरण का ही पड सकता है, वचनों का नहीं। वचनों में शक्ति अद्भुत है। वचन को योग माना है किन्तु उन वचनों के अनुरूप कार्य भी होना चाहिए। एक बच्चा गुड खाता था। माँ बड़ी परेशान थी। एक साधु के पास पहुँची। ‘महाराज, इसका गुड़ खाना छुड़वा दीजिये, बहुत खाता है।' साधु ने कहा- आठ दिन बाद आना इस बच्चे को लेकर। साधु ने इस बीच पहले स्वयं त्याग किया गुड़ खाने का और आठ दिनों में पूरी तरह उन्होंने गुड का परित्याग कर दिया। नौवें दिन जब वह माँ आयी उस बच्चे को लेकर, तो साधु ने उस बच्चे से कहा बच्चे गुड़ नहीं खाना। बच्चे ने तुरन्त उस साधु की बात मान ली। बोला महाराज आपकी बात मान सकता हूँ, माँ की नहीं क्योंकि डाक्टर ने माँ को भी मना किया है गुड़ खाने को, किन्तु छिपकर खा लेती है। इधर माँ ने साधु को टोक दिया बाबाजी इतनी सी बात उसी दिन कह देते। मुझे आठ दिन प्रतीक्षा क्यों करवाई ? साधु का विनम्र उत्तर था माँ जी, जब तक गुड़ में मेरी लिप्सा थी तब तक मेरे उपदेश का क्या प्रभाव हो सकता था ? उपाध्याय परमेष्ठी एक अनूठे साधक हैं। उपदेश सुनने वाला पिघल जाता है उनके उपदेश को सुनकर। जो अनादि काल से जन्म, जरा और मरण के रोग से पीड़ित है वह रोगी दौड़ा चला आता है उपाध्याय परमेष्ठी के पास और उसे औषधि मिल जाती है अपने इस रोग की। रोगी को रोग मुक्त वही डाक्टर कर सकता है जो स्वयं उस रोग से पीड़ित न हो। एक डाक्टर के पास एक रोगी पहुँचा। उसे आँखों का इलाज कराना था। उसे एक पदार्थ 'दो' दिखाई पड़ते थे। किन्तु परीक्षण के समय ज्ञात हुआ कि स्वयं डाक्टर की आँख में ऐसा रोग था जिसे एक ही पदार्थ 'चार' पदार्थों-सा दिखाई पड़ता था। अब आप ही बतायें वह डाक्टर क्या इलाज करेगा। ऐसे स्थान से तो निराशा ही हाथ लगेगी। संसार मार्ग का समर्थक कभी भी मुक्ति मार्ग का सच्चा उपदेश दे नहीं सकता क्योंकि उसे उसमें रुचि ही नहीं है। उपाध्याय परमेष्ठी ही मुक्ति मार्ग का उपदेश दे सकते हैं क्योंकि वे स्वयं ही उस मार्ग के अडिग और अथक पथिक हैं। एक जैन सज्जन मेरे पास आये, उनका प्रश्न था- महाराज! आचार्य समन्तभद्र के एक श्लोक से हिंसा का उपदेश ध्वनित होता है। उन्होंने कौवे के मांस का उपदेश दिया है, अन्य मांस का नहीं। मैं दंग रह गया। मैंने उन्हें समझाया- 'भइया! ये हिंसा का उपदेश नहीं है। यहाँ तो उस आदमी को महत्व दिया गया है जिसने कुछ त्यागा है। यहाँ तो छोड़ने का उपदेश दिया गया है, ग्रहण का नहीं। भोगों का समर्थन नहीं किया गया है, त्याग का समर्थन किया है। पात्र देखकर ही उपाध्याय परमेष्ठी उपदेश दिया करते हैं। यदि पात्र-भेद किए बिना उपदेश दिया जाये तो वह सार्थक नहीं हो सकता। जो रात दिन खाता है उसे रात्रि में पहले अन्न का भोजन छुड़वाया जाता है वही उपयुक्त है। पर इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसे रात्रि में अन्य पदार्थों के ग्रहण का उपदेश दिया गया हो'। राजस्थान में एक प्रथा प्रचलित है जिसे कहते हैं ‘गढ़का तेरस'। अनन्त चतुर्दशी के पूर्व तेरस को खूब डटकर गरिष्ठ भोजन कर लेते हैं और ऊपर से कलाकन्द भी खा लेते हैं फिर चौदस के दूसरे दिन उपवास के बाद पारणा बड़े जोर-शोर से करते हैं। ऐसे व्रत पालने से कोई लाभ होने वाला नहीं है। हमारी इच्छाओं का मिटना ही व्रतों में कार्यकारी है। स्तुतिः स्तोतु साधोः कुशल-परिणामाय स तदा । भवेन् मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः॥ उपाध्याय परमेष्ठी उपस्थित हों अथवा न हों, उनके लिखे हुए शब्दों का भी प्रभाव पड़ता है। द्रोणाचार्य की प्रतिमा मात्र ने एकलव्य को धनुर्विद्या में निष्णात बना दिया। ऐसे होते हैं उपाध्याय परमेष्ठी। उनको हमारा शत् शत् नमोऽस्तु!
  25. प्रमोद विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार श्रावकों के लिए मोक्षमार्ग के प्रति एवं मोक्षमार्गी के प्रति "प्रमोदभाव" रखना चाहिए, क्योंकि यह भाव सम्यक्त्वाचरण चारित्र में बहुत बड़ा सहयोगी है।
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