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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • गुरुवाणी 3 - आत्मलीनता ही ध्यान

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    भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी हुए हैं और उनके शिष्य आचार्य कुन्दकुन्द हुए हैं, जिन्होंने संक्षेप में जीवन के उद्धार की सामग्री हम लोगों को दी है। हम लोगों का जीवन इतना छोटा सा है कि हम अपने विचारों के अनुरूप सारे कार्य नहीं कर सकते। जीवन छोटा होने के साथ ही साथ क्षणभंगुर भी है। यह बुलबुले के समान है। जब तक है, समझो है, इसके फूटने में देर नहीं लगती। ऐसी स्थिति में हम आत्मा का कल्याण करना चाहें तो कोई सीधा रास्ता ढूँढ़ना परमावश्यक है। इसी बात को लेकर संसार के विश्लेषण के बारे में तो आचार्य कुन्दकुन्द का विशेष साहित्य नहीं मिलता किन्तु जो कुछ मिला है वह अत्यन्त संक्षिप्त है जिससे शीघ्रातिशीघ्र अपने प्रयोजन की प्राप्त किया जा सकता है।


    समझाना बहुत समय लेता है पर प्रयोजनभूत तत्व को समझने में ज्यादा समय नहीं लगता। संसार में क्या-क्या है? इसके बारे में यदि हम अध्ययन प्रारंभ करें तो यह छोटा सा जीवन यूँ ही समाप्त हो जायेगा। अथाह संसार समुद्र का पार नहीं है। उसमें से प्रयोजनभूत तत्व को अपना लें, उसी के माध्यम से सब काम हो जायेगा। प्रयोजनभूत तो आत्मतत्व है। अत्यन्त संघर्षमय इस जीवन में जहाँ अनादिकालीन संस्कार हमें झकझोर देते हैं और अपने आत्मतत्व से च्युत कराने में सहायक बन जाते हैं, इस स्थिति में भी अपने को मजबूती के साथ-साथ पथ पर आरूढ़ होने के लिए आचार्यों ने मार्ग खोला है।


    जो संसार से ऊपर उठना चाहता है उसके लिए संवेग और निर्वेग-ये दो भाव अपेक्षित हैं। वैसे उपदेश चार प्रकार का होता है। पहला संवेग को प्राप्त कराने वाला, दूसरा निर्वेग को प्राप्त कराने वाला, तीसरा और चौथा आक्षेपणी और विक्षेपणी के रूप में पात्रों की योग्यता को देखकर दिया जाता है। सर्वप्रथम मोक्षमार्ग पर आरूढ़ कराने के लिए संवेग और निर्वेग का ही उपदेश देना चाहिए, ऐसा आचार्यों का हमारे लिए उपदेश है।


    ठीक भी है, डॉक्टर के पास कोई स्वस्थ व्यक्ति चिकित्सा के लिए नहीं जाता। रोगी ही जाता है, तो डॉक्टर को बहुत संभालकर उसकी चिकित्सा करनी पड़ती है। सर्वप्रथम वह डॉक्टर, रोगी को और कुछ नहीं बताता कि क्या कैसा है। वह केवल यही कहता है कि यदि नियम से दवाई लोगे तो तुम्हारा रोग जल्दी ठीक हो जायेगा। वह और कुछ नहीं बताता, मात्र दवाई लेना सिखाता है। उस दवाई का क्या लक्षण है? क्या गुणधर्म है? इसमें कितना क्या मिला है? इसे कैसे तैयार किया गया है? किस फैक्टरी में तैयार किया गया है। यह सब उस रोगी को बताने की आवश्यकता नहीं है।


    इसी प्रकार संसारी प्राणी के सामने सर्वप्रथम विश्व का लेखा-जोखा या विभिन्न मतमतान्तरों का वर्णन आवश्यक नहीं है। प्रयोजनभूत तत्व तो यह है कि किसे प्राप्त करना है और किसे छोड़ना है, यह ज्ञात हो जाये। ऐसा न हो कि हेय का ग्रहण हो जाये और उपादेय का विमोचन हो जाये। संवेग और निर्वेग के उपदेश द्वारा उसे उपादेय को ग्रहण करना और हेय को छोड़ना पहले सिखाना आवश्यक है। आत्म-ज्ञान के लिए बाधक तत्वों का हम थोड़ा विचार करें तो ज्ञात होगा कि ‘मोह' ही ज्ञान के लिए बाधक साबित होता है। ‘कषाय-भाव' ही ज्ञान के लिए बाधक सिद्ध होता है। मोह के कारण ज्ञान मिथ्या बना हुआ है। इस बाधक तत्व से ज्ञान को पृथक् करने का प्रयास करना ही एक मात्र पुरुषार्थ है जो कि संवेग और निर्वेग के बल पर ही संभव है।

     

    बाधक कारण को हटाये बिना कार्य की सिद्धि नहीं होती। कई बार, कई लोग प्रश्न करते हैं कि ध्यान के बारे में समझाइए। हम ध्यान लगाना चाहते हैं। हमारा ध्यान लगता ही नहीं, हम बहुत कोशिश करते हैं। हमारा उनसे कहना यह है कि कोई भी शिक्षा दी जाती है तो पहले शिक्षा पाने वाले शिक्षार्थी की आदतों को समझना आवश्यक है। कोई आदत ऐसी हो जो उसके लक्ष्य के विपरीत हो और वह उसके साथ ही लक्ष्य प्राप्ति चाहता हो तो कैसे संभव है? जैसे टैंक में पानी भरा जाता है और वह गंदा हो जाता है। साफ पानी डालने पर भी वह गंदा कैसे हो गया? कारण यही है कि टैंक की सफाई करना आवश्यक है। इसी प्रकार परिणामों में ध्यान के योग्य पर्याप्त निर्मलता आवश्यक है। घाव के ऊपर मात्र मरहम पट्टी लगाने से कुछ नहीं होता, घाव साफ करना भी आवश्यक है।


    आपका ध्यान कहीं न कहीं तो लगा ही रहता है। हम कभी आत्म-ध्यान से विचलित हो सकते हैं किन्तु आप लोग अपने संसार के ध्यान से कभी विचलित नहीं होते। आपको सांसारिक ध्यान का खूब अभ्यास है। आप लोगों का जीवन ऐसा ध्यान लगाने में इतना अभ्यस्त हो गया है कि आप यहाँ सुन रहे हैं किन्तु फिर भी आपका ध्यान वहाँ है जहाँ आपने लगाया हुआ है। शरीर यहाँ बैठा है पर संभव है कि मन कहीं और लगा हो। आपको ध्यान लगाना सिखाने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान को Divert करने के लिए प्रयास की जरूरत है। आप चाहें तो यह कर सकते हैं। जबर्दस्ती कराया नहीं जा सकता।


    माँ जबर्दस्ती बच्चे को दूध पिलाती है, बुलाती है, नहीं आता तो पकड़ कर लाती है। इसके उपरांत भी वह बच्चा दूध पीने की मंजूरी नहीं देता तो दोनों हाथ पकड़कर गोद में ले लेती है और चम्मच से दूध पिलाना प्रारम्भ कर देती है। मुँह में दूध डाल देती है पर दूध को अंदर ले जाने का काम बच्चे का है दूध कदाचित् अंदर भी चला जाये और बालक की इच्छा न हो तो वह वमन कर देता है। इसी तरह ध्यान जबर्दस्ती सिखाने की चीज नहीं है। यह तो इच्छा से स्वयं सीखने की चीज है। आपने जो बहुत दिन से ध्यान सीख रखा है उसे छोड़ना, उसे मोड़ना परमावश्यक है। यदि Divert करना नहीं सीखा तो परमार्थ को पाना संभव नहीं है।


    बहुत लगाते हैं आप ध्यान, उधर सांसारिक कामों के लिए। अस्सी साल के वृद्ध को भी यदि दुकान जाना हो तो कमर का दर्द ठीक हो जायेगा और यदि अध्यात्म के लिए ध्यान करने की बात आती है तो कमर-दर्द बढ़ जाता है। मंदिर आना है तो कह देते हैं कि अब तो ढलती उम्र है बैठा नहीं जाता, सुना नहीं जाता। दुकान पर टेलीफोन की आवाज सुन लेते हैं और तत्संबंधी निर्णय ले लेते हैं। यह क्या बात है ? यह ध्यान की बात है कि सूक्ष्म स्वर भी सुनने में आ जाते हैं क्योंकि उसके पीछे रुचि है।


    आध्यात्मिक क्षेत्र में रुचि नहीं होने से ध्यान से बचने के लिए कोई बहाना ढूंढ लेते हैं। अंदर यदि ग्रहण का भाव नहीं है रुचि नहीं है, तो प्रयास व्यर्थ हो जाता है। बच्चा जैसे मुख से दूध पीकर मुख से ही वमन कर देता है, आप भी एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं। आत्मा की बात नहीं रुचती। हजारों बातों का आपको ध्यान है पर सीधी-सीधी एक बात जो आत्मकल्याण की है वह आपके ध्यान में नहीं रहती। ऐसे-ऐसे व्यक्ति भी हैं जो हस्ताक्षर नहीं कर पाते, अंगूठा लगाते हैं और करोड़पति हैं। अनेक फैक्ट्रियों के मालिक हैं और अनेक विद्वान् पढ़े-लिखे लोग उनके आधीन काम करते हैं। सेठजी को प्रणाम करते हैं। एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं फिर भी इतना काम चल सकता है। ऐसा ही अध्यात्म के क्षेत्र में यदि अपनी आत्मा के प्रति रुचि है और संवेग और निर्वेग है तो कल्याण सहज संभव है। अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।


    आत्मा की ओर ध्यान कठिन नहीं है, संसार से ध्यान 'Divert' करना बहुत कठिन है। जैसे एक नदी का प्रवाह बरसों से चलता है उसका रास्ता बन चुका है, उस ओर वह अनायास बहता रहता है किन्तु उसको बिल्कुल विरुद्ध दिशा में मोड़ना हर व्यक्ति के द्वारा संभव नहीं है। जो बाँध बनाकर नहरों के द्वारा रास्ता मोड़ देते हैं वे जानते हैं कि यह कितना कठिन काम है। अनेक परीक्षण करने पड़ते हैं। सामग्री की मजबूती का ध्यान रखना पड़ता है। इसी तरह अनादि काल से आपका जो प्रवाह विषयों की ओर बह रहा है, आपका ज्ञान विषय-सामग्री को पकड़ने के लिए उत्सुक है, उसकी गति इतनी तीव्र है कि उसे मोड़ना तो मुश्किल है ही, उसके वेग में कमी लाना भी मुश्किल है। पंचेन्द्रिय के विषय जो यत्र-तत्र फैले हुए हैं, अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों कालों की अपेक्षा जो इन्द्रिय मन का विषय बनते हैं उनसे बचना कैसे संभव है? तो आचार्यों ने उद्यम करने की प्रक्रियाएँ बतायी हैं। उसके माध्यम से हमें आगे बढ़ना चाहिए।


    उद्यम किस प्रकार किया जाए, इसके लिए भी आचार्यों ने अपनी अनुभूति के माध्यम से लिखा है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने ध्यान को परमावश्यक बताया है, ध्यान के बिना उद्धार संभव नहीं है। धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान ये दोनों ध्यान मोक्ष के हेतु हैं। आर्तध्यान-रौद्रध्यान संसार के हेतु हैं। आप धर्म ध्यान का स्रोत खोलना चाहते हैं, उस ओर मुड़ना चाहते हैं तो पहले आर्तध्यानरौद्रध्यान को छोड़ना होगा। उसमें कमी लाना होगा। उसके लिए निरंतर प्रयत्न करना होगा।


    जैसे किसी एक व्यक्ति को वैद्य ने कहा कि तुम घी का प्रयोग करो, पुष्टि आयेगी। उस व्यक्ति ने आधा किलो घी खा लिया और बैठ गया। घी पचा नहीं, खराबी आ गयी। वैद्य को बुलाया गया। उसने बताया कि सिर्फ घी खाने से पुष्टि नहीं आती, घी को पचाने के लिए मेहनत करनी होगी, व्यायाम करना होगा, अभ्यास करना होगा। इसी प्रकार ध्यान लगाओ, ऐसा कहने पर ध्यान लगाने बैठ जाने से काम नहीं चलेगा। मन, वचन, काय को बार-बार विषय कषायों में जाने से रोकना पडेगा, उस ओर से मोड़ने का अभ्यास करना होगा। विषयों की ओर ध्यान न जाये, इस बात का ध्यान रखना होगा। तभी धर्मध्यान में प्रगाढ़ता आयेगी, तभी वह धर्मध्यान आगे जाकर शुक्लध्यान में परिवर्तित हो सकेगा।


    एक बात और समझने की है। रावण ने सीता के अपहरण के पश्चात् राम से युद्ध के समय भगवान् शान्तिनाथ के मंदिर में जाकर ध्यान लगाया, मंत्र जपे पर राम की मृत्यु की कामना के साथ। शब्द, आस्था, मुद्रा आदि सब ठीक थी किन्तु राम की मृत्यु की कामना सहित वह ध्यान, सच्चा ध्यान नहीं माना जायेगा। रावण ने सोलह दिन तक ध्यान किया बहुरूपिणी विद्या की प्राप्ति के लिए। पद्मपुराण में उल्लेख है कि रावण विद्या सिद्ध करने में बहुत पारंगत था। वह विद्या सिद्ध करने बैठ जाता था तो कोई उसके ध्यान में विध्न नहीं डाल पाता था और वह विद्या सिद्ध करके ही उठता था। क्या वह ध्यान माना जायेगा ? बहुरूपिणी विद्या के लिए किया गया वह ध्यान आत्मानुभूति के लिए नहीं किया गया इसलिए उपयोगी नहीं है। आत्मानुभूति के लिए किया गया ध्यान तो अंतर्मुहूर्त में भी मुक्ति दिला देता है।


    हम लोगों को अपने स्वरूप को देखने की रुचि हो जाए, हम अंतर्मुखी होते चले जायें तो बाहर कुछ भी होता रहे, पता ही नहीं चलेगा।Telephone पर अनेक आवाजों के बीच अपने काम की आवाज आप सुन लेते हैं, बाकी छोड़ देते हैं। नगाडे के बीच बाँसुरी की आवाज चलती है तो जो संगीत प्रेमी हैं या संगीतकार हैं वह उसे पहचान लेते हैं। इसी प्रकार ध्यान की बात है। यदि एक घंटे तक ध्यान की बात आप ध्यान से सुन लें और अपनी रुचि जागृत कर लें तो ऐसा नहीं हो सकता कि धर्मध्यान न लगे। हम रुचि जागृत कर सकते हैं। ध्यान भी कर सकते हैं।


    माँ, बच्चे को गोद में बिठाकर दूध पिलाती है और चुटकी बजाती जाती है। बीच में यदि चुटकी बजाना बंद कर देती है तो बच्चा दूध पीना बंद कर देता है। यदि माँ के ललाट पर थोड़ी सलवटें पड़ जाती है तो वह हैरान निगाहों से देखने लगता है कि मामला क्या है? वह सब ध्यान से देखता है। वह समझ जाता है कि माँडॉट लगा रही है या प्यार कर रही है। अर्थ क्या हुआ कि ध्यान तो सभी के पास है लेकिन धर्म-ध्यान नहीं है। मुक्ति के लिए ध्यान की, जितनी एकाग्रता की आवश्यकता है उतनी ही तीव्रता सप्तम नरक में जाने के लिए भी आवश्यक है। एक छोर सप्तम नरक तक तो हम कई बार पहुँच गये होंगे किन्तु दूसरे छोर मोक्ष की ओर कभी नहीं पहुँच पाये। अभी तो ऐसा कह सकते हैं कि पंचमकाल है, उत्तम संहनन नहीं है, ठीक है। लेकिन जब चतुर्थ काल आता है उस समय तो जा सकते थे। नहीं गये अर्थात् पुरुषार्थ की कमी रही।


    चतुर्थ काल की अपेक्षा भरतक्षेत्र और ऐरावत के मात्र दस क्षेत्र हैं लेकिन जो एक सौ साठ विदेह क्षेत्र हैं वहाँ तो सदैव चतुर्थ काल रहता है। कुल मिलाकर एक सौ सत्तर क्षेत्र हैं जहाँ एक साथ तीर्थकर हो सकते हैं। काल भेद मात्र दस क्षेत्रों में है, शेष एक सौ साठ क्षेत्रों में भेद नहीं होता। वहाँ से मोक्ष का सीधा रास्ता है, साथ ही सप्तम नरक भी जाया जा सकता है। जिसकी रुचि जिस तरह की होती है वहीं चला जाता है। आठ साल का बच्चा भी धर्मध्यान व शुक्लध्यान के माध्यम से मुक्ति का द्वार खोल सकता है और अस्सी साल का वृद्ध भी आर्त-रौद्र ध्यान के द्वारा सप्तम पृथ्वी का द्वार खोल लेता है।


    मन, वचन, काय को रोककर रुचिपूर्वक किसी पदार्थ में लीन हो जाना ही ध्यान है। पंचेन्द्रिय के विषयों में लीन होना आर्त और रौद्रध्यान है और आत्म-तत्व को उन्नत बनाने के लिए अहर्निश प्रयास करना, सब कुछ भूलकर उसी आत्म-तत्व में लीन रहना धर्मध्यान है। आप चाहें तो अभी यह संभाव्य हैं। यहीं पर बैठे-बैठे विषयों की ओर पीठ कर लें, मन को लें तो Divert धर्मध्यान हो सकता है। जयपुर आपके लिए भी है और जयपुर में मैं भी हूँ। मेरे ज्ञान ने भी जयपुर को विषय बनाया है और आपके ज्ञान ने भी बनाया है। दोनों अभी यहीं जयपुर में हैं। पर आपका संकल्प जयपुर में हमेशा रहने का है, मेरा कोई संकल्प ऐसा नहीं है। आपका संकल्प है इसलिए जयपुर छोड़कर कहीं जाने पर भी जयपुर भीतर रहा आता है।


    यह आपको ज्ञात है कि एक न एक दिन जयपुर छूटेगा। जब जयपुर छूटना निश्चित है तो उससे स्वयं को जोड़कर बैठे रहना, जानबूझकर इसको पकड़ने का प्रयास करना यही रागभाव है। जब जयपुर छूटेगा- यह ज्ञान का विषय बना, तो फिर उसे अपना मानकर इससे चिपकना ठीक नहीं है, यही ज्ञान का प्रयोजन है। जयपुर में जहाँ आप रह रहे हैं उसे आप मान रहे हैं कि हमारा है। लेकिन जयपुर हमारा, तुम्हारा किसी का नहीं है, वह जो कुछ है, वह है। उसका अस्तित्व पृथक् है, हमारा पृथक् है। अस्तित्व को जानना अपेक्षित है, प्रयोजनभूत है किन्तु अस्तित्व को जानकर ‘यह मेरा'ये तेरा' ऐसा मानना बाधक है प्रयोजनभूत नहीं है।


    ‘पर' क्या है ‘स्व' क्या चीज है यह जानना परमावश्यक है। 'स्व' को स्व-रूप में जानकर, ‘पर' को पर-रूप में जानकर, 'पर' का ग्रहण नहीं करना यही प्रयोजनभूत तत्व का ज्ञान है। उपादेय की प्राप्ति और हेय का विमोचन हो गया तो मोक्षमार्ग प्रारंभ हो गया। यदि 'स्व' का ग्रहण और 'पर' का विमोचन नहीं होता, उसके प्रति जो राग है वह नहीं हटता तो कार्य सिद्धि भी नहीं होगी।


    ज्ञानी भी वहीं रह रहा है। अज्ञानी भी वहीं रह रहा है। ज्ञानी के लिए भी वही पदार्थ है और अज्ञानी के लिए भी वही पदार्थ है। दोनों के बीच वही पदार्थ होते हुए भी ज्ञानी के लिए वैराग्य का कारण बन जाते हैं और अज्ञानी उन्हें लेकर रागद्वेष में पड़ जाता है। जिसको आप अपना मान रहे ही अभी उसी में चौबीस घंटे ध्यान लगा रहता है। जो वास्तव में अपना है उस ओर ध्यान है ही नहीं। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ में आद्योपान्त ध्यान के विषय में ध्यान के पात्र, ध्यान के फल, ध्यान में बाधक और साधक तत्वों का प्ररूपण किया है। उसमें एक श्लोक के माध्यम से सद्ध्यान की परिभाषा, अर्थात् मोक्ष में हेतुभूत ध्यान की परिभाषा दी है। सद्ध्यानी वह माना जाता है जो वीतरागी हो। संवेग और निर्वेग भाव जिसमें भरपूर हो। लम्बा-चौड़ा ज्ञान हो तो ठीक है, नहीं हो तो भी अच्छा है क्योंकि ज्ञान भी उस समय ध्यान में समाप्त हो जायेगा। ध्यान के समय उसका उपयोग नहीं है, ध्यान से बाहर आते ही ज्ञान की कीमत है।


    जो वीतरागी हैं वे दुनियाँ में जितने भी पदार्थ हैं उसमें से कोई पदार्थ ले लें और उसका चिंतन करें, बाधा नहीं है। बाधा तो रागद्वेष की है। रागी द्वेषी बन जायें तो ध्यान बिगड़ जाता है। रागी होकर यदि वीतरागी मुद्रा देखेंगे तो वहाँ भी राग का ही अनुभव होगा। वहाँ भी उस मूर्ति की कीमत आँकने लगेंगे। धातु की है या पाषाण की है। सफेद है, काली है। भाई! सफेद काला तो पाषाण है। भगवान तो वीतरागी हैं। वीतद्वेषी हैं। शरीरातीत हैं। चैतन्य पिण्ड हैं। उपयोगवान हैं। जो वीतराग भाव से देखेगा वह पत्थर में भी वीतरागता देखेगा। राग में भी वीतरागता का अनुभव वीतरागी करता है और रागी वीतरागता में भी राग का अनुभव करता है। इसलिए रागी का ध्यान अशुभ है और वीतरागी का ध्यान शुभ है।


    अनादिकाल से उपयोग की धारा अशुभ की ओर बह रही है। उसे Divert करना है। उसे अपनी आत्मा की ओर मोड़ना है। उपयोग, उपयोग में लीन हो जाये, यही प्रयोजनभूत है। आप लोगों की रुचि सद्ध्यान में अभी नहीं है लेकिन आप चाहें तो रुचि उत्पन्न कर सकते हैं और सद्ध्यान के माध्यम से परमपद प्राप्त कर सकते हैं। मुक्ति का सोपान ध्यान है।


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    मन, वचन, काय को रोककर रुचिपूर्वक किसी पदार्थ में लीन हो जाना ही ध्यान है। पंचेन्द्रिय के विषयों में लीन होना आर्त और रौद्रध्यान है और आत्म-तत्व को उन्नत बनाने के लिए अहर्निश प्रयास करना, सब कुछ भूलकर उसी आत्म-तत्व में लीन रहना धर्मध्यान है। 

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