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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. उपकार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गुरु दिशाबोध देकर शिष्य पर उपकार करते हैं, लेकिन शिष्य गुरु आज्ञा का पालन करके गुरु पर उपकार करते हैं। जो कम से कम अपनी गलती बता देता है, उसका बहुत महान् उपकार मानना चाहिए। जो बड़े हैं और यदि अपनी गलती बता देते हैं तो उन्हें अपना मित्र मानना चाहिए नहीं तो कैसे दोष निकलेंगे? अपने द्वारा किसी को तकलीफ न हो ये सबसे बड़ा उपकार है। उपकार की परिभाषा हमको सिखाना नहीं। जैसा हमारे बड़े कह गये हैं वैसा ही करना, वैसा ही चलना यह हमारा उन बड़ों के प्रति उपकार है। अपनी आत्मा, अपने लिए, अपने द्वारा, अपने का उपकार करती है यह निश्चय उपकार है। अध्यात्म और आचारपरक महान् ग्रन्थों को लिखकर आचार्यों ने हमारे ऊपर महान् उपकार किया है। कल्याण करने के लिए दिशा-बोध दिये गये हैं, बड़े-बड़े शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी अनुभूति के नाम पर हम कुछ नहीं कर पाये। भगवान ने हमें मार्ग बताया यह उनका उपकार है और भगवान ने जो मार्ग बताया उस मार्ग पर निर्दोष रीति से चलना भगवान् के ऊपर हमारा उपकार है। गुरु की आज्ञा का पालन करना गुरु के ऊपर उपकार है। परोपकार से बढ़कर भी यदि कोई चीज है तो वह है ‘स्व' के ऊपर उपकार करना। दु:खी व्यक्ति को सुखी बनाना ही उपकार है। चाहे वह ‘स्व' हो या पर। किसी के साथ रागद्वेष, मोह नहीं करना। केवल यदि करना है तो उपकार के भाव करना। वह भी मेहरबानी नहीं कर्तव्य समझ के करना। जिसके ऊपर उपकार किया जा रहा है उसको दीन-हीन बनाने के लिए उपकार नहीं करना और स्वयं भी अभिमान नहीं करना। उपकार करना कर्तव्य है कर लिया। नहीं करते तो अपने में रहो, इसमें कोई बाधा नहीं लेकिन रागद्वेष नहीं करो। भगवान का उपकार भी उसी को प्राप्त हो सकता है जो अपना उपकार करने में स्वयं तत्पर और तल्लीन है।
  2. अहिंसा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कर्णन्द्रिय भी एक प्राण है आप लोगों के जोर से या ज्यादा बोलने से मान लो किसी के कर्ण को आघात पहुँच गया तो आघात से कर्णन्द्रिय प्राण की हिंसा का दोष लगेगा कि नहीं? आप तो अहिंसा व्रत के धारी हैं फिर उसकी सुरक्षा कैसे होगी? अत: कम से कम और धीरे धीरे बोलने का प्रयास करना चाहिए। आपरेशन थियेटर में इशारों से बिना बोले काम किया जाता है। अहिंसा तभी पलती है जब हम सावधान रहें। विवेक के बिना दया नहीं पलती। अहिंसा पुस्तक में देखने से नहीं मिलती, क्रिया में होती है। प्रत्येक बात में अहिंसा को लगाने का प्रयास किया जाना चाहिए। कषाय से नहीं, नहीं तो उल्टी भाव हिंसा हो गई। अंतरंग में राग-द्वेष नहीं होना ही अहिंसा है और राग-द्वेष, विषय-कषाय करना ही हिंसा है। पाप से डरे बिना अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। जितनी आप चेतन की सेवा करके अहिंसा को सामने ला सकते हैं उतना आप धन की सेवा करके अहिंसक नहीं हो सकते हैं। इसलिए गोदाम नहीं गोधाम की बात करो। जितना पशु सन्तुष्ट रहेगा उतना सुभिक्ष होगा। सत्य का अर्थ है अहिंसा और असत्य का अर्थ है हिंसा। अहिंसा के अभाव में आत्मोपलब्धि असंभव है। बाहर आना ही हिंसा है और अंदर रहना अहिंसा है। आत्म विकल हो जाना, आत्मा में आकुलता हो जाना ही हिंसा है। जो व्यक्ति संतोषी है, उसे शासन भी तंग नहीं कर सकता है। नर से नारायण बनो, नारकीय मत बनो। महात्मागाँधी ने भी जैनधर्म से अहिंसा सीखी है। जन-जन में अहिंसा का बीजारोपण करेंगे तो भारत ही क्या सारा विश्व भी शांति की श्वास लेगा, अत: अहिंसा का महत्व समझो। अहिंसा खेती है, व्रत बाड़ी है जिससे उस खेती का रक्षा होती है। जब तक बीज नहीं बोया जाता तब तक बाड़ी नहीं लगाई जाती। अहिंसा का पालन मनुष्य ही समीचीन रूप से कर सकते हैं। देव भी उस अहिंसा धर्म को नमस्कार करते हैं। हिंसा का अभाव ही अहिंसा का अवतार है। संस्कृति को सुरक्षित रखना, अहिंसा को सुरक्षित रखना है। अहिंसा और अभय के भावों को प्रत्येक प्राणी समझ जाता है। यदि सबसे ज्यादा हिंसा कर सकता है तो अहिंसा का पालन भी अच्छे ढंग से कर सकता है। अहिंसा धर्म के माध्यम से ही देश का संरक्षण हो सकता है। गोला बारूद से नहीं यदि अहिंसा धर्म रहेगा तो हम स्वयं उत्रत होंगे और देश भी उत्रत होगा। भाव अहिंसा आत्मा के उत्थान के लिए सोपान एवं मंजिल है। और द्रव्य अहिंसा अड़ोसी पड़ोसी में सुख शांति का विस्तार करने वाली है। अहिंसा के माध्यम से ही स्व-पर कल्याण संभव है। अहिंसा धर्म अपनाते ही राग कम होता जाता है तथा जीवन में खुशबू आने लगती है। यदि हम अपना सर्वागीय चहुँमुखी विकास चाहते हैं तो हमको अहिंसा धर्म की वेदी पर अपना माथा टेक जीवन में उसको ट्रांसलेट (परिवर्तित) करना होगा। यदि हमारी राष्ट्रीय मुद्रा अहिंसा की प्रतीक है तो हमको भी अहिंसा का अनुपालन करना चाहिए। अन्यथा राष्ट्रीय मुद्रा का अपमान है। अहिंसा केवल श्रद्धा की बात नहीं यह व्यक्ति के आचरण के साथ होती है वह उसे महान् बना देती है। यदि अहिंसा के लिए हमारा जीवन मिट भी जाता है तो हमें अमर बनने में देर नहीं लगेगी। मुख सबके पास है जिह्वा सबके पास है, वाणी सबके पास है लेकिन सबकी वाणी में वजनदारी नहीं होती, हर लेखनी में जान नहीं होती। इस वजनदारी का स्रोत क्या है? यह सत्य, अहिंसा, दया से ओतप्रोत भावना ही परिणाम है, जो वाणी में वजनदारी आ जाती है। सत्य और अहिंसा का बहुत गहराई से सम्बन्ध है यदि एक हाथ में हमारे सत्य है तो दूसरे में अहिंसा होनी चाहिए। सत्य और अहिंसा दोनों मिल जाते हैं तो बड़े से बड़े राष्ट्रों की भी रक्षा की जा सकती है, उनका विकास किया जा सकता है। हिंसा की मात्रा जितनी कम होगी, चारों ओर उतनी हरियाली छाती चली जायेगी। हिंसा की मात्रा जितनी बढ़ती चली जाती है, तो बाहर भी उसकी लपटें आना प्रारम्भ हो जाती हैं। भारत की संस्कृति अहिंसा है। इस अहिंसा में सारी संस्कृतियाँ अपने आप समाहित हो जाती हैं। अहिंसा धर्म में जिसका चित्त लीन रहता है इस धरती पर वह मानव देवों से भी पूज्य है। हिंसा से दूर रहकर अहिंसा का पालन करते हुए तो व्यक्ति धर्म का श्रवण-चिंतन-मनन करता है, उन्हें प्राप्त करने का भाव रखता है, वह अवश्य ही अपने जीवन में आत्म-स्वभाव का अनुभव करने की योग्यता पा लेता है और जीवन को धर्ममय बना लेता है। अहिंसारूपी तेल के अभाव में दीपक से प्रकाश मिलना असंभव है, केवल दम घुटने वाला धूँआ ही मिलेगा। शरीर को जो बिगाड़ता है वह भी हिंसक है। शरीर का शोषण भी नहीं तो पोषण भी नहीं। उसे अपने अधिकार में रखो ताकि आत्मिक विकास के काम आ सके। अज्ञानरूपी अंधकार को निकालने के लिए जो प्रयास किया जाता है उसका नाम अहिंसा है।वस्तु तक पहुँचाने वाली व्यवस्थिती है। दया अहिंसा के माध्यम से अनंत परिस्थिति से बच सकते हैं। जैसे भगवान की विमान यात्रा निकालते हैं तो पालकी (विमान) भारी होने के कारण एक दूसरे के कंधों पर देते रहते हैं, वैसे ही आप लोग भी अहिंसा धर्म की रक्षा के लिए एक दूसरे का उपकार करते चलो।
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    चेतना के गहराव में -विशीष्ट काव्य संग्रह - आचार्य विद्यासागर जी Chetna Ke Gehrav Main - Poems by Acharya VidyaSagar Ji चेतना के गहराव का मतलब तप्त नहीं तृप्त, कलान्त नहीं शांत, कष्ट नहीं तुष्ट संपुष्ट हो, निरंतर अभय की अनुभूति के साथ निराबाध यत्र-तत्र-सर्वत्र स्वतंत्र एकाकी यात्रा |
  4. मनोविज्ञान सही-सही पूछा जाय तो, अध्यात्म तक पहुँचने के लिए, एक पृष्ठ भूमि का काम करता है लेकिन! ये ध्यान रखना, भौतिकवाद जहाँ विश्रान्त हो जाता है, जहाँ पर मनोविज्ञान का समापन होता है, वहाँ पर, अध्यात्मवाद नजर आने लगता है। जिसका ज्ञान पंचेन्द्रिय विषयों से आकर्षित है, वह व्यक्ति मन के माध्यम से विकास के स्थान पर अपनी आत्मा को विनाश की ओर ले जा रहा है। जिसको मनोविज्ञान प्राप्त हो गया वह नियम से कल्याण कर जाएगा इसमें कोई संदेह नहीं है। हमें वह ज्ञान प्राप्त करना है, जो हमारे जीवन में सुख-शांति ला सके। लोहशाला की बात है। लोहार प्रभात में उठकर अपने कार्यक्रमों से पूर्ण निवृत होकर अग्नि देवता को प्रज्वलित करता है। (केवल यहाँ पर भाव लेना यह पहले कह देता हूँ) और वह लोहार अग्नि-देवता को नमस्कार करता है, इसके उपरान्त उस अग्नि में जिस लोहे को तपाना था, वह उस लोहे को तपाना प्रारम्भ कर देता है, धोंकनी के माध्यम से धोंकता है। कुछ समय के उपरान्त उस लोह पिण्ड को वह बाहर निकालता है, उसे निहाई पर रखकर, ऊपर से घन का प्रहार करना प्रारंभ करता है। पसीना आना प्रारम्भ हुआ और श्वास लेने की गति तीव्र हुई। कोई बोले, तो वह सुनता नहीं है। किसी की तरफ वह देखता नहीं है। जहाँ पर मुड़न है वहाँ पर वह यह सीधा करने के लिए घन का प्रहार करता है। उन घनों के प्रहार करते समय एक आवाज उसके कानों में आती है, जैसे आकाशवाणी हो रही है, और वह वाणी प्रार्थना के रूप में लोहार के कानों में प्रवेश करती है। मेरे ऊपर दया कीजिए अन्यथा मैं जला दूँगी। जबकि मेरे ही सामने आकर सर्व-प्रथम मेरी वंदना/स्तुति की,और मेरे लिए अब पीट रहे हो, इतनी निर्दयता के साथ यह आपका व्यवहार मेरे प्रति ठीक नहीं है। मैं यदि कुपित हो जाऊँगी तो ध्यान रखना! लोहार को और लोहे के गोले को दोनों को जला दूँगी, राख-राख मिलेगी। इस वाणी को सुनकर लोहार कहता है कि तेरे पास अब वह हिम्मत नहीं है कि तू मुझे जला सके, क्योंकि! अब तुम लोहे के अधीन हो, और लोहा मेरे अधीन है। यदि तुम स्वतन्त्र रह जाती तो मैं बार-बार नमस्कार कर लेता, लेकिन! अब तू परतंत्र हो गई है। तूने ऐसे व्यक्ति की संगति पाई है, जिसको केवल पीट-पीट कर ही सीधा किया जा सकता है। वह पूजा से कभी भी सीधा होने वाला नहीं है। अग्नि ने वाणी को सुना तब वह अपनी गलती महसूस करती है। वह लोहार कहता है, ये ही तो बात है। मैं तुझे उस समय नमस्कार करूंगा जिस समय तू अपने रंग-रोगन के साथ विद्यमान रहेगी, तूने! लोहे की संगति की है इसलिए तेरी यह दशा हो रही है। लोहे को ही तूने जीवन बना लिया है। लोहार का कर्तव्य होता है उसको भी सही दिशा बता दी जाए। लोहा भी सुन रहा हैदेखो मेरे विकास के लिए कारण अग्नि बनी, और मेरे अन्दर जो खोट थी, उसको निकालने में कारण यह लोहार बना लेकिन अग्नि की क्या स्थिति हो गई! बड़ी अजीब स्थिति है - संत समागम प्रभुं भजन, तुलसी दुर्लभ दोड्य । सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होय। आज तक संसारी प्राणी ने इस दोहे के रहस्य को नहीं समझा। संतों की वाणी को हृदय से नहीं पकड़ा। उनका आशय क्या है ? आज तक समझने की कोशिश नहीं की। जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए इस पर कभी विचार नहीं किया, विचार करने के उपरान्त वहाँ तक पहुँचे नहीं। ऐसी संगतियों का समागम बीच में हुआ, जैसे अग्नि ने लोहे की संगति की,और उसकी पिटाई शुरू हो गई। उसी प्रकार की स्थिति संसारी प्राणी की हो रही है। देह रूपी लोहे की संगति में यह आया है, आने के उपरान्त इस संगति को बहुत अच्छा समझ कर उसे छोड़ना नहीं चाहता। और जब देह छूटने लग जाती है, तो उस समय देह को अक्षुण्ण रूप से रखने के लिए आविष्कारों की खोज करना प्रारम्भ करता है। उस समय संत की वाणी काम करती है और कहती है कि 'हमारा यह कार्य गलत हो रहा है तुम अरिहंत हो. सर्वज्ञ हो. पूज्य हो संसार में यदि कोई पूज्य है तो कौन-सी वस्तु पूज्य है"? भारतवासियों जागो! आँखें खोलो कौन-सी वस्तु पूज्य है? बोलो! मौन क्यों हो? (श्रोता समुदाय से पूछते हुए) महाराज! इसमें पूछने की क्या आवश्यकता है ? जहाँ कहीं भी आप चले जाओ जिसका आदर अधिक हो रहा हो वही तो पूज्य है ? किसका आदर हो रहा है ? वह कौन सी वस्तु है जो तुम्हें पूज्य है ? जिसकी सुरक्षा की जाती है, और जिसकी सुरक्षा के लिए जो खड़ा हो जाता है, उसकी पूजा! उस बीज की पूजा! हाँ-जिसके लिए जो नियुक्त किया जाता है नियुक्तवान व्यक्ति पूज्य नहीं है, किन्तु जिसके लिए नियुक्त किया जाता है, वह वस्तु पूज्य है। भारत में वह वस्तु पूज्य है, जिसके पास ज्ञान है, जिसके पास संवेदना शक्ति है। और हित की आकाँक्षा बनी रहती है, जिसने हित प्राप्त कर लिया, जिसके पास जानने-देखने की शक्ति है, वही पूज्य है। पूज्य बनने की योग्यता प्रत्येक आत्मा में विद्यमान है किन्तु ये ध्यान रखना वर्तमान में उसकी पिटाई हो रही है लोहे की संगति से लोहार के द्वारा। इस करुण दृश्य को देखकर इस अज्ञानता पर और इस मोह के प्रभाव पर संत लोग विचार करते हैं, करुणा करने से काम होगा या दण्ड देने से काम होगा, किस माध्यम से इस मूर्खताअज्ञानता को, इस दयनीय स्थिति को हम ठीक कर दें, सब विचार करते हैं। सन्त लोगों का काम और कुछ नहीं रहता। जीवन में जीते हुए वे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं, किन्तु जो लक्ष्यहीन जनता है, सुख की चाह रखती है, उस जनता के लिए भी कोई रास्ता?पथ-दिशाबोध देते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि हमारे पास जो प्रकाश है उस से सही रूप से लोगों का मार्ग प्रशस्त हो। इस प्रकार लोहार की वाणी को सुनकर अग्नि अपनी कमी पर विचार करती है। हाँ, वस्तुत: मुझे स्वतंत्र रहना था, और किसी भी प्रकार से मुझे स्वतंत्र जीवन-जीने की इच्छा रखनी चाहिए। लेकिन! मैंने उसका साथ दिया, तो मेरी पिटाई हो गई। अग्नि की पिटाई कब तक होती है? जब तक लोहे की संगति अग्नि करेगी तब तक पिटाई होगी। इसी प्रकार देह की संगति करने से आत्मा की पिटाई हो रही है, और जब तक आत्मा देह की संगति करेगी तब तक उसकी पिटाई होगी। आप कितना भी इलाज करिये! बचने की कोशिश करिये, और बहुत सारी सामग्री का निर्माण भी कर लीजिए तो भी संभव नहीं है। तो हमें यहाँ आकर ज्ञात हो जाता है कि मात्र ज्ञेय की कद्र नहीं है बल्कि! ज्ञान की कद्र है, दृश्य की नहीं दृष्टा की कद्र है, भोग की नहीं भोक्ता की कद्र है, वह पूजा करना सिखाता है। भारतीय संस्कृति का एक मात्र यही लक्ष्य है, कि स्व को पहिचानो-उसको देखने की चेष्टा करो यद्यपि वह इस स्थिति में देखने के लिए मिलने वाला नहीं है। जानने के लिए भी मिलेगा नहीं, वह वर्तमान में संवेदन के लिए मिलने वाला नहीं है। इसके उपरान्त भी सन्तों की अनुभूति के माध्यम से जो कुछ भी वाणी खिरी है, उससे यह ज्ञात होता है कि ऐसी भी कोई अद्वितीय शक्ति है, जिसके द्वारा यह सारा का सारा संचालन हो रहा है। प्रात:काल से लेकर शाम तक चौबीसों घण्टों तक सारा काम अक्षुण्ण रूप से चलता रहता है। किसी भी मशीन का वर्तमान में आविष्कार हुआ है, तो वह आठ घंटे तक ड्यूटी दे सकती है। फिर उसके उपरान्त उसे विश्राम की आवश्यकता होती है। मशीन तप जाती है, और उसको ठंडा बनाने के लिए बहुत सारे प्रयास किये जाते हैं। इसके उपरान्त भी यदि थोड़ी असावधानी हो जाती है, तो मशीन फेल हो जाती है, नष्ट हो जाती है, बर्बाद हो जाती है। किन्तु यह कौन-सी मशीन है, जिसका कार्य रात - दिन चल रहा है? और ऐसा चल रहा है कि ऊपर का ढाँचा खिसक करके जीर्ण-शीर्ण हो जाता है। किन्तु वह कौन सी अद्वितीय शक्ति है, जिसका कभी नाश नहीं हुआ और न होगा। जिसमें कभी जीणों द्वार करने की आवश्यकता नहीं है। भारतीय सभ्यता उसी शक्ति की उपासना सिखाती है। उसी की उपासना करना है, अन्य की नहीं। लेकिन! उपहास की बात तो ये है कि सारे लोग भारतीय संस्कृति को भूल कर किस ओर जा रहे हैं, पता भी नहीं है उन्हें । आज प्रत्येक पदार्थ के ऊपर कीमत-मूल्य लिखा हुआ है लेकिन! ज्ञान के ऊपर मूल्य आज तक नहीं लिखा गया। ज्ञान के द्वारा आविष्कृत किए ज्ञेय पदार्थ का मूल्य तो हम जानते हैं, और हम उसकी कद्र करते हैं। जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर वह पदार्थ निर्मूल्य हो जाता है। किन्तु इसके उपरान्त भी आज कूड़ा-कचरा (वेस्टेज सामग्री) का भी मूल्य होता चला जा रहा है। और मूल्य आँकने वाला ज्ञान भी वेस्ट होता चला जा रहा है। ज्ञान का मूल्य आज समाप्त हो गया है। पदार्थ की कीमत हो गई है। जीर्ण-शीर्ण पदार्थ की भी कीमत हो गई है। जंग खाया हुआ लोहा और टीन का टुकड़ा भी ऐसे एयर कन्डीशन में पहुँच रहा है, जो यह भिलाई स्टील प्लांट आपको बता रहा है। क्या है ये समझ में नहीं आ रहा? सब की कीमत हो गई आज! कोई भी नीचे रहने योग्य पदार्थ नहीं रहा। सारे के सारे पदार्थों को Decoration (सजावट) में रखा जा रहा है। लेकिन! रखने वालों की फजीहत हो रही हैं। उन्हें पसीना आ रहा है, वे भटक रहे हैं। आज निर्धन भी भटक रहा है, और धनवान भी भटक रहा है। सारा का सारा मानव समाज सही दिशा बोध नहीं मिलने से भटक रहा है, ज्ञान भटक रहा है। लेकिन ज्ञेय पदार्थ बढ़िया-बढ़िया शो-रूम में है, इसी को बोलते हैं भौतिकवाद-पाश्चात्य संस्कृति। विज्ञानवाद का चमत्कार है कि वह ज्ञान को न पूज करके ज्ञान के द्वारा जो बनाया हुआ पदार्थ है, उस पदार्थ को पूज रहा है। किसकी सोबत में आ गए आप? जड़ की सोबत में! और आते ही जा रहे हैं। आज कोई विदेश रिटर्न होकर आता है, तो क्या बताएँ वह भारतीय संस्कृति वहाँ पर जायेगी? देहली के ऐरोड्रम पर मालाओं के द्वारा उसका स्वागत होगा। फूलों से लद जाएगा, लेकिन वह वहाँ से क्या लेकर के आ रहा है ? ज्ञेय की उपासना, यह ज्ञान की कीमत नहीं है। इसे महान् दुर्भाग्य कहना होगा कि जैसे-जैसे विज्ञानवाद बढ़ रहा है वैसे-वैसे अध्यात्मवाद मिटता जा रहा है। और ज्ञेय की कीमत इतनी हो रही है कि वह आसमान तक पहुँच रहा है, और इसके बहकावे में, इसकी चपेट में सारी की सारी भारतीय संस्कृति आ रही है। जब तक वह भारत में पड़ा रहेगा, तब तक उसकी कीमत कम और यहाँ से विदेश चला जायेगा तो उसकी कीमत बढ़ जायेगी। क्योंकि ज्ञेयों को पैदा करता चला जा रहा है। साथ में ऐसे-ऐसे पदार्थों को जिनके द्वारा ज्ञान और अध्यात्मवाद समाप्त होता चला जाएगा। स्थिति बहुत विचित्र है, मैं बोल्यूँ और प्रशंसा करूं तो किसकी करूं? मैं बोल्यूँगा, भले ही भौतिकवाद के ऊपर लेकिन पूर्ण रूपेण उसकी क्या करूंगा बुराई! भले ही आप लोगों को बुरा लग जाए। मैं कभी भी उसको मूल्य की दृष्टि से नहीं देख सकता! जो जड़ है उसको मूल्य नहीं दिया जाएगा। जो ज्ञान विकास की ओर जा सकता है उस ज्ञान को मूल्य दिया जाएगा और उसकी हम पूजा करने हमेशा तत्पर रहेंगे। वही ज्ञान जिसके द्वारा आत्मा को शांति मिलती है वही ज्ञान जो विश्व को शांति प्रदान कर सकता है, वही ज्ञान परतन्त्रता से छुड़ा कर स्वतन्त्रता प्रदान करने वाला है। वही ज्ञान हमें मुक्ति तक ले जाएगा, उसी ज्ञान की पूजा हमें करनी है। वह अग्नि छटपटा रही है, कि लोहे की संगति मैंने क्यों की? छटपटाने का अर्थ यही है कि लोहार के द्वारा जो ज्ञात हुआ कि लोहा जो टेढ़ा हो गया, उसे सीधा करने के लिए अग्नि को बुलाया गया। उसी प्रकार आपके देह रूपी लोहे को सीधा करने के लिए, ध्यान रूपी अग्नि को बुलाना होगा, और तप-त्याग-तपस्या-संयम के घन से उसकी पिटाई करनी होगी तब उस आत्म तत्व की उपलब्धि होगी, अन्यथा तीन काल में संभव नहीं है। शरीर तो एक दिन अग्नि को समर्पित करना ही है, किन्तु शरीर के मिटते-मिटते, आत्मतत्व की उपलब्धि हो जाए, और अपने जीवन में निखार आ जाए, वहाँ कंचन पैदा हो जाए। काँच के पीछे दौड़ने वाला यह युग कंचन को भूल गया है। आज काँच के मंदिर बनते जा रहे हैं। आज काँच देखने में आ रहा है लेकिन हीरा देखने में नहीं आ रहा है जिसकी कीमत अनमोल है। एक इतना सा टुकड़ा (अँगुलियों को सिकोड़कर बताते हुए) और उसका मूल्य नहीं आंका जा सकता। वह खुद नहीं कह सकता कि मेरी कीमत इतनी है, उसकी चमक अपने आप कीमत का अंकन कर लेगी। वह अजर-अमर-अविनाशी आत्म तत्व हीरे के समान है। आज उसकी रक्षा में कौन तत्पर है? और कौन उसका मूल्यांकन कर रहा है ? वे बहुत कम हैं ऊँगलियों में गिनती आएगी! विरले ही लोग आत्म तत्व की ओर अग्रसर हैं। सन्तों की वाणी सुनने से सन्तों के समागम से हमें आत्म तत्व का मूल्य ज्ञात हो जाता है। बातों से कोई मतलब नहीं है, मतलब हमें बस यही है कि हमारी दिशा बदल जाये। हमारा ज्ञान जिस ओर भाग रहा है, उसे सही दिशा-बोध मिल जाए। ये भागना ठीक नहीं क्योंकि त्राहि-त्राहि मची हुई है कहीं भी किसी भी क्षण शान्ति नहीं है। इन भोग्य पदार्थों में यदि शांति होती तो हमें अवश्य मिलती, किन्तु है ही नहीं तो मिलेगी कैसे? वस्तुओं के संग्रह-संकलन करने से अशान्ति ही मिलती है। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने भी इस तथ्य को माना है, इस सत्य को माना है। क्योंकि उन्हें सत्य की ओर जाना था, लेकिन! असत्य की ओर पहुँच गए। असत्य क्या है ? जिसके द्वारा दुख होता है, सत्य वह है जिसके द्वारा सुख होता है। इस सत्य को पहिचानने और ढूँढ़ने की फिर कोई आवश्यकता नहीं। मुझे शांति मिल गयी। आकुलता मिट गई। इसी के लिए तो लोग उद्यम कर रहे हैं, रात-दिन । संगति करना है तो सज्जनों की करिये । जड़ की ओर मत जाइये, चेतन की ओर जाइये । भले ही मूर्ख की संगति करिये। क्योंकि कभी मूर्ख के मुख से भी दिशा-बोध परक शब्द निकल जाते हैं। मूर्ख की सौबत करने से क्या होता है ? पागल की सौबत करने से क्या होता है ? यदि आप लेना चाहें तो बहुत कुछ मिल सकता है, महाराज! ये तो आप गजब की बात कर रहे हो। पागल के पीछे-पीछे हम चले जायें। हाँ,. हाँ पागल के पीछे ही आप रहते हैं, कभी पागल आपके पीछे नहीं रहता हमेशा आगे ही रहता है। और क्या सीखना चाहते हो? बोलिए! चुप क्यों हैं? आप हँसेंगे उसे देख कर लेकिन! वह आपको देख कर नहीं हँसेगा। पागल वो है या आप हैं। वस्तुत: जो व्यक्ति किसी से मतलब नहीं रखता वही वास्तव में निमोंही माना जाता है। पागल के पास परिग्रह की बात तो दूर मोह भी नहीं रहता, सीख लेना चाहते हो तो बहुत कुछ ले सकते हो। आप पागल बन जाओ, ये नहीं कह रहा हूँ, मैं तो उसकी वृत्ति की बात कर रहा हूँ। वह कभी कपड़े अच्छे नहीं माँगता, एयरकंडीशनर की आवश्यकता भी नहीं हैं। मान-अपमान से कभी हर्ष-विषाद नहीं, अच्छा और बुरा उसके दिमाग से निकल गया है। इन सब क्रियाओं के माध्यम से लगता है कि आपसे अच्छा तो वह पागल है, आप जैसी आकुलता तो नहीं है उसको। सही समय नींद आती है उसको। चुपचाप बैठा रहता है, किसी से कुछ भी मतलब नहीं, भले ही दुनियाँ उसके विरोध में हो जाए, लेकिन वह दुनियाँ के विरोध में नहीं होगा। कहने का मतलब यही है कि संगति जड़ की नहीं चेतन की करो। यदि संगति जड़ की करोगे तो रात में नींद नहीं आएगी। आज बड़े-बड़े सेठ- साहूकारों की यही स्थिति हो रही है, घर में ज्यादा हो गए, क्या हो गए? क्या बढ़ गए? मेम्बर बढ़ गए, सदस्य बढ़ गए? मान लो सदस्य उतने ही हैं, लेकिन! घर ज्यादा बड़ा बना दिया, दरवाजे भी बहुत हैं। झरोखे भी खोल दिये गए हैं। अब देखें चोर कहाँ से आता है आप जान भी नहीं सकेगे माल बिखरा हुआ है। अब क्या करें? वह जड़ आपको धीरे-धीरे जड़ बना रहा है, वह जड़ आपकी नींद हराम कर रहा है। बिल्कुल! नींद नहीं ले सकते आप, जब तक वह आपके घर में रहेगा तब तक आप नींद लेना भी चाहो तो भी नहीं आएगी। उस पागल के पास कुछ भी नहीं है, वह खुर्राटे ले रहा है फुटपाथ पर और आप डल्लप के गद्दे पर भी करवटें बदल रहे हैं। यह जड़ आपको सोने भी नहीं दे रहा है, और आप उसके पीछे पड़े हैं। ऐसा क्यों हो रहा है ? यही तो आश्चर्य की बात है। आपके जीवन में बहुत सारी आकुलताएँ? वेदनाएँ बढ़ती चली जा रही हैं, यह मात्र फल है जड़ की उपासना का। जड़ की उपासना करना सबसे बड़ी मूर्खता है। भारत ही एक ऐसा राष्ट्र है जहाँ पर अध्यात्म की पूजा होती है। भारतीय संस्कृति बताती है कि अरे भैया! भौतिकवादी मत बनो, और धीरे-धीरे लोभ लालच कम करो। किन्तु! आज भारत में भी कम से कम में एक दिन तो छुप करके धन की पूजा होती है, वह कौन सा दिन है ?' धन तेरस'। वो दिन सबको याद है, महाराज उस दिन को तो हम ३६५ दिन में सबसे महत्वपूर्ण दिन मानते हैं और शाम को लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं। कितने ठाठ-बाट से आप जड़ की, धन की पूजा करते हैं। वह आपकी पूजा करे या न करे पर आप तो उसकी पूजा नियम से करते हैं, क्योंकि! लक्ष्मी जी गुस्सा न हो जाये, यदि नाराज हो गई, तो सारा का सारा काम चौपट हो जाएगा। इसलिए कम से कम पूजा तो कर लो । यह जड़ की पूजा, धन की पूजा, ही संसारी प्राणी को पतन के गर्त में ढकेल रही है। आत्मा की पूजा, गुणों की पूजा करना ही अध्यात्मवाद है। अपनी आत्मा को प्राप्त कर जो जीव परमात्मा बन गए हैं, उनकी पूजा करना आवश्यक है लेकिन संगति का असर हुए बिना रहता नहीं है। हम उत्सुक तो हो जाते हैं पर भूल जाते हैं, उसकी चपेट में आकर के, उसके द्वारा हम ऐसे प्रभावित हो जाते हैं कि लक्ष्य को भी भूल जाते हैं, परमात्मा बनने की शक्ति हमारे पास विद्यमान है लेकिन वह परमात्मा नहीं बन पा रही है, इसमें एकमात्र कारण है भूल का प्रभाव, संगति का प्रभाव। एक मेघ का टुकड़ा ऊपर डोल रहा है, शीत का सम्बन्ध यदि होता है, तो वह जम जाता है। और फिर जल बनकर बरसने लगता है। वह शुद्ध जल की धारा नीचे आकर धूल में मिल जाती है, तो कीचड़ का रूप ले लेती है, वह यदि समुद्र में गिर जाती है तो लवण का रूप ले लेती है, नीम की जड़ में चली जाती है, तो कड़वेपन का रूप धारण कर लेती है, इक्षु-दण्ड में पहुँच जाती है तो मिठास का रूप धारण कर लेती है, यदि वही धारा स्वाति नक्षत्र में समुद्र में पड़े सीप में चली जाती है, तो मोती बन जाती है और वही धारा सर्प के मुख में चली जाए तो विष बन जाती है। धारा एक है, लेकिन! संगति का प्रभाव पड़ जाता है। वह समुद्र में जाने पर मुक्ता का रूप लेती है। जल का विकास यहाँ तक हुआ कि वह मुता बन गया। इसी प्रकार आत्मा का भी हिसाब-किताब है, अभी तक आत्मा उस सीप में नहीं पहुँची। उस सीप की बड़ी आवश्यकता है उस सीप की गवेषणा आवश्यक है। अपना उपादान, आप साधे रहो, और यदि निमित मिल जाए तो उसमें ढालने का प्रयास करते जाओ, अन्यथा आपका उपादान कड़वी नीम में भी परिणत हो सकता है, कीचड़ के रूप में भी परिणत हो सकता है, जहर के रूप में भी परिणत हो सकता है, मिट्टी में भी मिल सकता है और सूर्य का ताप मिलने पर वह वाष्प में भी परिणत हो सकता है, उसकी कोई परिणति नियामक नहीं है, बनाने वाला चाहिए, योग-निमित्त बनाकर वह उसमें ढाल देता है, बड़ी सावधानी की आवश्यकता है। यदि आप अपने जीवन को मौलिक बनाना चाहते हो तो, कसरत की, मेहनत की, साधन की बड़ी आवश्यकता है। लोग साधना के माध्यम से सब कुछ कर सकते हैं लेकिन साधना में परिश्रम होता है, पसीना बहाना पड़ता है जबकि आप आराम चाहते हैं। ये बात ध्यान में रखना, आराम तो मिलेगा परन्तु बाद में मिलेगा, अभी आराम नहीं, साधना सामने है। जब वह साधना पूर्ण हो जाएगी, तब आराम अपने आप मिल जायेगा फिर अनंत काल के लिए विश्राम है। संसारी प्राणी देह को Rest मिलने पर उसी को आराम समझने लगता है। यह समझने की कमी है वस्तुत:! अभी तक आत्मा को Rest नहीं मिला, सुख-शांति नहीं मिली, एक भी श्वास आत्मा ने शांति से नहीं लिया। हमारी सभ्यता में विकृति आ गई है, हम सोच भी नहीं पा रहे हैं कि क्या करें? किन्तु! संत कहते हैं कि शरीर द्वारा काम लेते हुए अपनी शरीर के द्वारा आत्मा को पुष्ट बनाना ही हमारी सभ्यता है। शरीर को पुष्ट बनाओ लेकिन लक्ष्य हो आत्मिक पुष्टि का कितना अन्तर हो गया। नौकर की हम सेवा कर रहे हैं, वह हमारा नौकर है, उसका जीवन हमारे लिए है, हमारा जीवन उसके लिए नहीं है। जड़ का कोई जीवन नहीं है, वह जड़ है, हम चेतन हैं। आप उसको कुछ भी कर दो, बाहर रखो, या अन्दर इसे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, हाँ! चेतन के द्वारा, उसको सुरक्षित रखने का प्रयास चल रहा है। हमारे लिए यदि कोई पूज्य होगा, तो वह ज्ञान होगा, दर्शन होगा। और जो भोक्ता पुरुष आत्माराम है, उसकी प्राप्ति के लिए, हमें सन्तों के पास जाना है। एक बार जाने से काम नहीं होने वाला, दो बार जाने से कुछ काम नहीं होने वाला, रहस्य की बात जानने के लिए बहुत काल की आवश्यकता पड़ती है, साधना की आवश्यकता है। कई सज्जन जो कि भौतिक क्षेत्र में काम कर रहे है, वे बार-बार आकर मुझसे कहते हैं कि महाराज बताओ । क्या बतायें ? रहस्य की बात बताओ ताकि हम आत्मा को समझे क्योंकि अभी तक हमें बताया नहीं गया है। और जब विहार होने लगता है उसी समय हम पूछ रहे हैं। मैंने कहा कि देखो भैया! जब वह आँखों के द्वारा देखने में नहीं आती, स्यूंघने में नहीं आती तो आप उस रहस्य की बात को क्यों पूछ लेते हैं ? आप रहस्य की बात पूछना चाहते हो तो ध्यान में रखो मेरी बात को, मैंने उनसे कुछ प्रश्न पूछे। -आप कौन सी कक्षा में पढ़ते हो ? एम० ए० में महाराज जी, उसने कहा! -विषय कौन-सा है ? अर्थशास्त्र ! -एम० ए० के बाद क्या होता है ? जी उसके बाद Research ( शोध) किया जाता है। -Research का अर्थ क्या हैं ? जो कुछ उसमें छुपा है उसे हम उद्धाटित करते हैं। - देखो भैया ! बुरा मत मानना, तुम पागल हो। कैसे महाराज? आपने वस्तु के बोध के लिए सोलह साल लगा दिये, अब उस वस्तु के बोध के माध्यम से आप शोध में उतरोगे और शोध के लिए कम से कम तीन वर्ष लगेंगे ही। महाराज शोध की क्या कहें, वह तो बढ़ता ही जाता है। इसलिए तो मैं कह रहा हूँ कि आप पागल हो क्योंकि आपने वस्तु के बोध के लिए सोलह वर्ष लगा दिए फिर इसके उपरान्त शोध के लिए पूरा जीवन लगा दिया जाये तो भी सही-सही शोध नहीं हो सकता और आप १०-१५ मिनट में आत्मा की बात पूछ रहे हो। १०-१५ मिनट में तो वह बताई नहीं जा सकती। किसी भी चीज की अनुभूति के लिए बड़ा परिश्रम करना पड़ता है। तुम तो बातों-बातों में कहते हो, कि हमने जान लिया, मान लिया, हमें सब कुछ मालूम पड़ गया जबकि बात कुछ और ही है। मालूम ये पड़ गया कि हमारे जीवन में कुछ काम होने वाला नहीं है। वस्तुत: यदि उस ज्ञान की खोज करना चाहते हो तो सन्तों के समागम का लाभ उठाओ। आप कहीं भी चले जायें वहाँ आपको अध्ययन के लिए जीव मिलेंगे। चाहे छोटा कीड़ा हो या मकोड़ा हो, या कोई भी पशु, गाय हो, भैंस हो, बन्दर हो या पेड़-पौधे। इस प्रकार पृथ्वी सारे के सारे जीवविज्ञान से भरी पड़ी है। इसके द्वारा हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसी ढंग से कर सकते हैं। अपने आप अपना भी आभास होना प्रारम्भ हो जाएगा। जीव-तत्व क्या है ? ये देखने के लिए बहुत बार परिश्रम अपेक्षित है। आज के वैज्ञानिकों ने भी इस ओर थोड़ा परिश्रम किया है पहले तो वे इसको बिल्कुल जड़ समझते थे। लेकिन! अब वनस्पति, पेड़-पौधों को भी जीव मानने लगे हैं। जगदीशचन्द्र वसु ने इसे कलकत्ता यूनिवर्सिटी में सिद्ध किया कि इसमें भी जीव है, किन्तु जीव तो उसमें पहले से था ही। लेकिन! जो नहीं मानते थे उनको पुरुस्कृत कर दिया गया। इसके उपरान्त आगे और बढ़ता जा रहा है जीवविज्ञान इसमें भी जीव है। देखो! सारे के सारे विश्व में जीव भरे हुए हैं। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो जीवत्व से रहित हो, और पहले से जीवत्व के साथ सम्बन्ध न रखता हो। कोई भी पदार्थ देख लीजिए, चारों ओर यही मिट्टी है, तो इसमें भी जीव रह चुका है. रह गया है..... आगे भी रहेगा...... यह अटल नियम है। भले ही हमारी आँखें, हमारा ज्ञान उसे देख न सके। इस प्रकार का सम्बन्ध जल के साथ है। जो कोई भी पदार्थ देखने में आ जाते हैं, वे सब पहले जीवविज्ञान से संबंधित थे, हैं और आगे भी रहेंगे इस प्रकार जीवात्मा का अस्तित्व वैकालिक सिद्ध हो जाता है। माली ने बगीचा लगाया है। उसने बगीचे में भिन्न-भिन्न प्रकार के पौधे लगाए हैं। उनकी एक-एक डाल पर एक-एक फूल खिला हुआ है। कोई गुलाब का है, कोई रजनी गंध का, कोई चमेली का, कोई चंपक आदि का। सारा का सारा उपवन महक रहा है। चारों ओर सौरभ फैल रही है, पवन भी साथ-साथ बह रहा हैं, और सुगन्ध को दूर-दूर तक ले जा रहा है। भेंवर भी गुंजार कर रहे हैं। भिन्न-भिन्न दृश्य वहाँ पर देखने में आ रहे हैं। माली का काम है सिर्फ सिंचन करना, उनकी देख-रेख करना, उनको सुरक्षित रखना। ज्यों ही माली बगीचे में उन पौधों के पास पहुँच जाता है त्यों ही वे पौधे वे फूल हिल-हिल कर बच्चों के समान उछल कूद मचाने लगते हैं। वे सोचने लगते हैं कि हमें अब अच्छी खाद मिलेगी, प्यार मिलेगा, सब कुछ मिलेगा। अपना जीवन इसके हाथ में है, हमें चाहने वाला यह व्यक्ति मिला है। सब लोग यही चाहते हैं कि हमें सब लोग चाहें, भले ही वह व्यक्ति दूसरे को चाहता है या नहीं चाहता ये बात अलग है प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि हमें सब व्यक्ति चाहें। मतलब क्या है, हमारी कद्र करें हम दूसरे की करें अथवा नहीं करें ये अलग बात है, हमारी कद्र प्रत्येक प्राणी करे किन्तु यह कैसे बन सकता? माली उन पौधों की कद्र करता है, प्यार करता है, जीवन देता है, विकास की ओर ले जाता है। उन फूलों के पास वे भ्रमर उनके अन्दर की पराग का पान करने आते हैं, और फिर उड़ जाते हैं। सारे के सारे लोग देखने के लिए आ जाते हैं। लेकिन! यह भी ज्ञान होता है, कि जब उस माली के स्थान पर, आप लोगों में से कोई पहुँच जाता है, तो उस फूल को सन्देह हो जाता है। क्योंकि यह देह ही कुछ अलग Type (प्रकार) की दिखती है। पहले जो देह थी, संदेह पैदा करने वाली नहीं थी, वह प्यार का संदेश लेकर आया था, और यह संदेह लेकर आया है, क्यों? पता नहीं, प्यार करता या पार करता । कोई भी व्यक्ति फूल को उस पौधे पर देखना नहीं चाहता। वह अपने हाथ में चाहता है, वह अपनी नासिका के पास चाहता है। और कुछ महिलाएँ वगैरह तो अपने सिर में लगाना चाहती हैं। आप लोग अपने कोट में लगाना चाहते हैं। उसकी दशा तो ऐसी होती है, आप लोगों को देख करके कि ये आ गए हैं, अब हमारी स्वतंत्रता नियम से नष्ट होगी। हमारा जीवन नियम से समाप्त होगा। जीव विज्ञान कितना सूक्ष्म है, समग्र वायु-मण्डल में तरंगायित है, भावना वश फूल को हाथ नहीं लगाया केवल तोड़ने की भावना की है, और यह भावना की है कि यह पौधे के ऊपर न होकर हमारे पास आ जाए। वह फूल जान लेता है कि मेरे लिए हितकारी कौन है ? मुझे स्वतंत्रता दिलाने वाला कौन है ? मेरा शुभचिन्तक/हितैषी कौन है ? और मेरे आनंद को छीनने वाला कौन है ? उस फूल को भी ज्ञान है, पत्तों को भी ज्ञान है, सबको ज्ञान है। क्योंकि सबके पास ज्ञान है, हित का जानना और अहित से बचना यह प्रत्येक जीव का लक्ष्य है। यह बात अलग है कोई लक्ष्य तक पहुँच जाता है कोई नहीं पहुँच पाता। फूल पत्तों के पास पेड़ पौधों के पास पैर नहीं है जो आपकी चपेट से, आपकी पकड़ से भाग निकलें। इसलिए वे आपके हाथ में आ जाते हैं लेकिन आते-आते आपको अभिशाप देते हैं। आपके प्रति उनको कषाय होती है कि देखो प्यार की ओट में इन्होंने हमारे साथ धोखा किया। जब तक मैं खिला नहीं था तब तक तो यह मौन था, ज्यों ही मैं खिला और आनंद से झूमने लगा त्यों ही इसने मेरे आनंद को छीनकर अपने आपको संतुष्ट बनाने का उद्यम किया। ध्यान रखो! माली आता है, तो एक दशा हो जाती है, और कोई नागरिक आता है,? तो दूसरी दशा हो जाती है। यह दशा एक ही फूल में भिन्न-भिन्न प्रकार से क्यों हो रही है ? यहाँ तक तो ज्ञान हो गया, इतना ही नहीं और आगे तक ज्ञान हुआ। एक बार की बात है, बहुत दिन हो गए, मैंने एक चित्र देखा था, गीत के माध्यम से कमल को खिलाया गया था। संगीत के माध्यम से दीप को जलाया गया था। हाँ जीवन को शब्दों के माध्यम से आनंद विभोर भी कर सकते हैं। बहुतों के जीवन में अंतिम क्षण तक ऐसी तिलमिलाहट पैदा कर सकते हैं जो वह भव-भवान्तर में भूल नहीं सकता और उसका हृदय पल नहीं सकता, जल सकता है, एक-एक सेकेण्ड में जल सकता है। शब्दों में भी यह बल है, उसके माध्यम से पेड़ पौधों में, आनंद की लहर दौड़ सकती है। भले ही सुनें या न सुनें किन्तु! शब्द के माध्यम से आपकी भावना व्यक्त हो जाती है, भाव तरंगें उससे आकर टकरा जाती हैं। एक आनंद का हाथ उठाकर तथास्तु कहने से सामने वाला भयभीत व्यक्ति भी अभय का अनुभव कर सकता है। यदि तथास्तु नहीं कहा, तो वह सोचता है कि तथास्तु की जगह कोई अभिशाप तो नहीं है ? शंका की दृष्टि से देखने लग जाता है। फिर शब्द की भी कोई आवश्यकता नहीं किन्तु उसके प्रति आपका क्या भाव है? यह देखना है। हमारे भावों की तरंगें वायु-मण्डल में तरंगित हो करके हम जहाँ पहुँचाना चाहें, वहाँ पहुँचा सकते हैं। आज का यह युग एक-एक कदम बढ़ाता वहाँ तक पहुँच गया है। सर्वप्रथम शब्द का आविष्कार किया गया और फिर उनके माध्यम से, ग्रामोफोन का आविष्कार, फिर हम शब्दों को गीत बनाकर रिकार्ड प्लेयर के माध्यम से सुनने लगे। टेलीफोन आ गया, टेपरिकार्डर आ गया फिर इसके उपरान्त शब्द के साथ आत्मा का पुट भी कुछ और विशेष आवश्यक है, इसलिए आज का मानव सोचने लगा, और फिर शब्द के उपरान्त मनोरंजन के लिए टीवी आ गया। शब्द गौण हो गए और चित्र आ गए। उस समय मैं बहुत छोटा था, मैंने एक फिल्म देखी थी, उसमें बोलते नहीं थे, मूक चित्र था, एक्शन मात्र करते थे। उसके माध्यम से समझ में सब आता था क्या कहना चाहते हैं? सब कुछ समझ जाते थे। शब्द का निखार फोन के माध्यम से टेपरिकार्डर के माध्यम से बहुत आगे बढ़ता चला गया है लेकिन टेलीविजन के साथ मात्र हम सुन ही नहीं रहे हैं, बल्कि देख भी रहे हैं। ये आविष्कार टीवी- ही या वी०डी०ओ० सब पुराने पड़ रहे हैं और दूसरा ये आविष्कार प्रारम्भ हो चुका है, लेकिन वह बहुत मंहगा है, telepathy किसको बोलते हैं ? वह संप्रेषण कला है, शब्द का माध्यम ले करके आगे उठी हुई एक कला है। जिसमें तन भी शान्त हो जाता है, और मन भी शांत हो जाता है। और तन और मन, वचन के ऊपर उठकर केवल अकेला स्वतंत्र हो जाता है। तब हम उस मनोविज्ञान के माध्यम से उस संप्रेषण शक्ति के माध्यम से जिसके दुखों को दूर करना है तो हम कर सकते हैं। जिसमें सुख का आरोपण करना है कर सकते हैं। बन्धन से छुटकारा दे सकते हैं और बंधन में भी डाल सकते हैं वह अद्भुत शक्ति है। जैनाचार्यों ने हजारों वर्ष पूर्व इसका उल्लेख किया है, तब आज विज्ञान का सूत्रपात हुआ है। किन्तु! जो कुछ भी है वह पहले से ही ग्रन्थों में चित्रित किया गया है। जो सबसे ज्यादा सशक्त है, वह मन है और यदि वह मन सबसे ज्यादा सशक्त होगा, तो मात्र मानव का ही होगा। देवों का नहीं होगा, दानवों का भी नहीं होगा, पशुओं का भी नहीं होगा, लेकिन ध्यान रखना, सबसे खतरनाक भी मानव का ही मन होगा। न सूरत बुरी है, न सीरत बुरी है। बुरा तो वह जिसकी नीयत बुरी है..... तो नीयत किसको बोलते हैं। भैया? नीयत उसकी बोलते हैं जो मनोविज्ञान है। मन के माध्यम से हम सुखी बना सकते हैं, क्रोध की कोई आवश्यकता नहीं और उसके लिए वैर की भी कोई आवश्यकता नहीं है। दुनियाँ के किसी भी पदार्थ की, आविष्कार की कोई आवश्यकता नहीं है। wireless भी वही काम करता है-वायर के अभाव में। जो मनोविज्ञान की तरंगें हैं उन्हें हम जिस व्यक्ति के पास भेजना चाहते हैं वे Direct उसी व्यक्ति को Pinch करेंगी और आपके भावों को वहाँ पर व्यक्त करेंगी। कोई आवश्यकता नहीं है इसको वायर की। हमने उदाहरण के माध्यम से आपको समझाने का प्रयास किया है, यदि आ जाए तो ठीक है, नहीं तो हमने तो समझ ही लिया है। जब बहुत छोटा था तब देखा था। एक बच्चे को हिचकी आ रही थी, हिचकी आने के उपरान्त वह माँ के पास आकर कहता है कि मुझे हिचकी आ रही हैं? दर्द हो रहा है। अरे! कुछ बात -नहीं बेटा! वह तो अभी पानी से ठीक हो जाएगी। माँ हम तो इसलिए आए थे,कि कुछ मिठाई वगैरह मिल जाएगी और आप तो पानी की बात कर रही हो। अच्छा! तो ये बात है ठीक है पानी तो पी ले, फिर मिठाई मिल जाएगी। कैसे मिल जाएगी? लाओ ना! नहीं. नहीं वो लेने गए अभी आते ही होंगे, बाजार गए हैं तो जाते समय मैंने कहा था कि आते समय छोटे मुन्नू को याद कर लेना इसका अर्थ यही है कि मिठाई लेते आना, उन्होंने वहाँ पर मिठाई खरीदने के लिए याद किया है, और यहाँ तुम्हें हिचकी आने लगी, यह बात बिल्कुल Fact है, समझने की है। मनोविज्ञान इतना सूक्ष्म है कि हम किसी भी प्रकार से किसी भी वस्तुओं के द्वारा उसको बाँध नहीं सकते। प्रेम को, भावना को हम तौल नहीं सकते, वह अनमोल है, उसका मूल्य और उसकी शक्ति आज तक किसी ने नहीं की। और इसके द्वारा जो काम आज हो सकता है, उसे करने में वैज्ञानिकों को हजारों साल लगेंगे, तो भी यह संभव नहीं। और हजारों वर्षों के उपरान्त इतनी मात्रा में काम हो ऐसी कोई बात नहीं। इसके लिए एक Second में बहुत सारा काम हो सकता है। मनोविज्ञान सही-सही पूछा जाय तो अध्यात्म तक पहुँचने के लिए, एक पृष्ठ भूमि का काम करता है लेकिन ये ध्यान रखना, जहाँ भौतिकवाद का विश्रान्त हो जाता है। जहाँ पर मनोविज्ञान का समापन होता है, वहाँ पर अध्यात्मवाद नजर आने लगता है। क्योंकि यह Nearest वस्तु है जिसने भाव तरंग को पकड़ा है। जिसने भाव प्रणाली को समझ लिया है, वही दूसरे की भाव प्रणाली को समझ सकता है। यह तादात्म्य स्थापित किये बिना सम्भव नहीं है। एक व्यक्ति का तादात्म्य दूसरे व्यक्ति से तो है नहीं लेकिन! वही व्यक्ति हम हैं ऐसा महसूस करना प्रारम्भ कर दें, तो यह सम्भाव्य है। इसमें भक्तिवाद गर्भित हो जाता है। यहाँ पर ज्ञान, ज्ञान नहीं, यहाँ पर ज्ञान भक्तिवाद में समर्पित हो जाता है। इस ज्ञान के माध्यम से वह सामने वाले की वेदना को समझ लेता है। सम्वेदना को अनुभूत कर लेता है। वहाँ नजदीक जाना आवश्यक होता है, शब्द टकराते हैं। और कई मूर्त पदार्थ टकराते हैं, किन्तु मनोविज्ञान किसी से टकराता नहीं है। आज के वैज्ञानिकों ने फोटो लेने का प्रयास किया, एक्सरे लेने का प्रयास किया, इसकी पकड़ने की कोशिश की किन्तु! वह शक्ति किसी भी यन्त्र के द्वारा पकड़ने की चीज है ही नहीं। ये मात्र ज्ञान के द्वारा जानने की चीज है। इस मनोविज्ञान के माध्यम से हम बहुत कुछ काम कर सकते हैं, अंधकार भी ला सकते हैं। मन के माध्यम से क्या नहीं कर सकते। मानव सब कुछ कर सकता है लेकिन! मन बदमाश है, वह अच्छा ही अच्छा तीन काल में भी नहीं कर सकता। मनोविज्ञान का प्रशिक्षण उसी मन के लिए ही सम्भव है जिसने अपने आपको Control संयत कर लिया है। इन्द्रियों से ऊपर उठकर मानसिक सफलता प्राप्त कर ली है, तामस वृत्ति से ऊपर उठ चुका है। तब कहीं जा करके हम इसको पकड़ सकते हैं, इसकी पृष्ठ-भूमि है समता। जिसका ज्ञान पंचेन्द्रिय विषयों से आकर्षित है, वह व्यक्ति मन के माध्यम से विकास के स्थान पर,अपनी आत्मा को विनाश की ओर ले जा रहा है। मनोविज्ञान के लिए सन्तों का क्या कहना है ? सन्त शब्द ही अपने आप में कह रहा है। 'स' से प्रारम्भ कर दी। तामस में 'त' पहले आता है, समता में 'स' पहले आता है। ‘स’ पहले आ जाएगा तो 'त' का अन्त किया जाएगा। तामस को अन्त मिल गया। तामसता जिसमें अन्त को प्राप्त हो गई उसी का नाम है सन्त। संक्षेप से संत की व्याख्या यही है कि जो समता से भरा हुआ हो और आत्म कल्याण के साथ-साथ जिसको यह मनोविज्ञान प्राप्त हो गया वह कल्याण कर ही जाएगा, इसमें सन्देह नहीं है। इसलिए हमें वह ज्ञान प्राप्त करना है, जिसके द्वारा कुछ सुख-शान्ति के साथ बैठ जायें, अपने आप का जीवन जी सके। पाँच मिनट बैठने के लिए शक्ति तक नहीं है। लेट सकते हैं, स्थिति बिगड़ गई तो। मनोविज्ञान के माध्यम से हम इसे जानें और उसे ठीक करने की कोशिश करें। क्या कर सकते हैं ? इसका कितना बल हैं, कितना ओज हैं, कितनी शक्ति हैं ? उदाहरण एक उदाहरण नहीं हैं किन्तु एक सत्य घटना है। एक राजा और उसके साथी, वन में घूमने के लिए गए। राजा के मन में आता है कि किसी न किसी जानवर का शिकार करूं किन्तु! उस दिन चीता-सुअर-हिरण कुछ भी नहीं मिला। अन्त में एक हिरणों का समूह (झुण्ड) देखने को मिला, और राजा देखते ही घोड़े को उनके पीछे भगाने लगा। तीरकमान हाथों में उठा लिया। यह दृश्य उसका एक साथी जो शिकार करना नहीं चाहता था, उसने देखा। देखने के उपरान्त वह सोचता है कि देखो! इन भोले-भाले हिरणों के ऊपर, निरपराध पशुओं के ऊपर यह अत्याचार ठीक नहीं है। पशुओं के जो रक्षक हैं, जिनकी रक्षा करना राजा का धर्म है, वे ही आज इनके रक्त के प्यासे हैं, वे ही उनके भक्षक बन रहे हैं। यह देखा नहीं जाता, अब यह अत्याचार सहन नहीं होगा। यह सोचकर वह कहता है - हे अनाथ मृगो! ठहर जाओ, तुम्हारे इस समय भागने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। आज रक्षक ही तुम्हारा भक्षक बनकर पीछे लगा है तुम कहाँ जाकर अपने प्राण बचाओगे, रुक जाओ! ज्यों ही यह वाणी, यह करुण आवाज मृगों के कानों तक पहुँची त्यों ही वे कीलित से हो गये। राजा ने यह चमत्कार देखा तो तीर कमान चलाना भूल गया और आश्चर्य से उस साथी के मुख को देखने लगा और उसने सोचा कि यह क्या मामला है ? उसकी वाणी में क्या चमत्कार है, जादू है ? भागते हुए पशुओं का शिकार खेलना तो फिर भी ठीक है, लेकिन! ये तो रुके हुए हैं इनको मैं कैसे मारूं पहलवान कुश्ती उसी समय खेलता है जब दूसरा पहलवान ताल ठोंक कर चुनौती देता है, यदि वह बिना लड़े ही Surrender हो जाए तो फिर मजा नहीं आएगा। यही स्थिति उस समय राजा की हुई। वह राजा साथी से पूछता है। ये रुके कैसे? इससे तुम्हें क्या मतलब? शिकार करना है तो कर लो। साथी ने उत्तर दिया। तुम मजाक कर रहे हो? मजाक कैसे? आप तो भाग रहे थे, वे अपने आप रुक गए यहाँ पर, अब शिकार करना है आपको, शौक से करिए! साथी ने व्यंग भरे स्वर में कहा। नहीं मुझे यह जानना है कि ये रुके कैसे ? और बिल्कुल पास ही आकर खड़े हो गए। जीने की आशा ही छोड़ दी इन्होंने, इतने पास आ गए, पहले तो काँप रहे थे, और अब बिल्कुल आनंद के साथ खड़े हैं। ये क्या हो गया? इनके कानों में मंत्र तो नहीं फेंक दिया तुमने बताओ तो सही? राजा ने आश्चर्यपूर्वक पूछा। इससे क्या मतलब ? आपको जब शिकार करना ही है तो करते क्यों नहीं ? साथी ने उत्तर दिया। नहीं... नहीं तुम मुझे पहले यह बताओ ये रुके कैसे? राजा ने उत्कण्ठापूर्वक पूछा। आप सुनना चाहते हैं तो सुनिए! इन्हें रोकने में कारण है प्रेम की शक्ति, अहिंसा की शक्ति, दया-अभय-करुणा की शक्ति। राजन्! आप अपने पद की ओर भी जरा ध्यान दो, आपका कर्तव्य है, प्रजा की रक्षा करना, प्रजा का पालन करना, निरपराध पशुओं के प्रति जो आपने अपने हाथ में धनुष और बाण ले लिया है, वह निरपराध पशुओं की हिंसा के लिए नहीं बल्कि! उनकी रक्षा के लिए होना चाहिए, आपने राज्याभिषेक के समय क्या संकल्प लिया था? जरा याद तो करिये! कि मैं अनाथ-अशरण/दीन-हीन प्राणियों की रक्षा करूंगा, हमारे जीवित रहते हुए, किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हो सकता और वह आज भी आपके परिवार द्वारा दुहराया जाता है। क्षत्रियता आज भी छुपी नहीं है, भले ही आप छुपाते चले जाओ ये बात अलग है। इतना कहकर वह साथी चुप हो गया। आज भी राष्ट्रपति भवन में जिस समय राष्ट्रपति की नियुक्ति होती है, उस समय उसे यही संकल्प कराया जाता है, कि जब तक मैं इस पद पर रहूँगा, तब तक जनता की रक्षा करूंगा, देश के प्रति आस्था रखूँगा । देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक का उत्सर्ग कर दूँगा और यह एक बार नहीं तीन बार कहलवाया जाता है। महाराज तीन बार क्यों कहा जाता है ? तीन बार इसलिए कहा जाता है कि तीन बार कहने में बात वजनदार हो जाती है, बात प्रभावक हो जाती है। लेकिन, आप तीरकमान लिए, उन भोले मृगों के पीछे लगे हो प्रजापालक होकर। रक्षक होकर, भक्षक बन रहे हो। आप राजा हो या खाजा हकीकत तो यह है कि आपको पशुओं की रक्षा करनी थी। अहिंसामय अपना जीवन बनाना था, आज आपने अपने संकल्प का उल्लंघन किया, यह देखकर उनको हमने पास में बुला लिया, ताकि ज्यादा कष्ट न हो। उस साथी ने पुन: व्यंग्य किया। तो आपकी वाणी उन्हें कैसे समझ में आ गई ? राजा ने बात को समझने की दृष्टि से पूछा। दया की पुकार, रक्षा की पुकार सब को समझ में आती है बस! कान होना चाहिए कान के बिना भी समझ में आती है। ऐसी –भी वाणी है जो मन के माध्यम से, मन में भाव भी कर लें तो भी समझ में आती है, बस! समझने की दृष्टि चाहिए। साथी ने सारी बातों का खुलासा किया। -ओ हो. अहिंसा की यह शक्ति है। इतना कह कर वह सोचने लगा कि कुछ भी हो लेकिन आज तो मेरा अपमान हो गया, उसने मारा किसी को नहीं और वह महल की ओर चला गया। दूसरे दिन साथी से राजा कहता है कि यदि इस प्रकार की शक्ति तुम्हारे पास है, तो हमें बता दो क्यों सिंह भी आ सकता है। -हाँ. हाँ अवश्य आ सकता है। साथी ने कहा। -तो फिर बुलाओ, हम इसका भी चमत्कार देखेंगे। राजा ने गर्व से कहा। -हम सिंह को तो बुला सकते हैं, लेकिन नर सिंह को नहीं। जिस प्रकार मृग आए थे उसी प्रकार सिंह आएगा । साथी ने दृढ़तापूर्वक कहा। -एक शेर को पिंजड़े में बंद करके पाँच छह दिन भूखा रखा गया, उसको सताया गया, गुस्सा दिलाया गया, फिर उसके उपरान्त तारीख नियुक्त कर दी गई। समस्त प्रजाजन और दरबारीगण उपस्थित थे, फिर उनसे कहा गया - अगर तुम्हारे पास शक्ति है, अहिंसा का बल है तो इस शेर को ठीक कर दो और इसे शाकाहारी बनाओ। देख लीजिए! उस मनोविज्ञान का कितना बल है, एक जीव अगर दूसरे जीव को चाहता है तो हिंसक से हिंसक पशु भी अहिंसक बन जाता है लेकिन वह व्यक्ति निर्विकार होना चाहिए। विकार से ही विकार टकराता है, विकार विकार का संघर्ष है, विकार का और निर्विकार का संघर्ष तीन काल में संभव नहीं है, मिलना तभी संभव है जहाँ मिलने के लिए गुंजाइश रह जाए। दूध में पानी तो मिल सकता है पानी में दूध भी मिल सकता है लेकिन दूध में घी मिलता है क्या? पानी में घी मिल सकता है क्या? मैं पूछना चाहता हूँ! कि विकार से निर्विकार टकरा नहीं सकता वह विकार नीचे चला जाएगा। निर्विकार ऊपर आ जाएगा। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है। इसमें हम किसी प्रकार से, विचार ही नहीं कर सकते कि मिलावट वहाँ पर है, दोनों सजातीय जैसे लगते हैं, वर्ण सजातीय, गंध सजातीय और तरल पदार्थ इस अपेक्षा से सजातीय हो तो मिलावट संभव है। सोना, तांबा, पीतल इनमें मिलावट संभव है। निर्विकार किसी प्रकार नीचे नहीं जाएगा, विकार नीचे ही रहेगा। तो पानी पहले मत डालो पहले उस बर्तन में एक चम्मच घी डाली, उसका वजन कितना है, दस ग्राम समझ लो, अब उसके ऊपर दस किलो पानी डाल दो ताकि वह डूब जाए। क्या वह घी दब जाएगा? नहीं वह दस किलो पानी को दबाकर ऊपर आ करके सिंहासन पर बैठ जाएगा। दस ग्राम घी को दबाने की शक्ति एक क्विंटल पानी के पास नहीं है, आप समुद्र को उस के आ जाये और का नीचे चला जाये ऐसा नहीं होगा। विकार-विकारों का साम्य है, निर्विकार-विकारों का नहीं, नीचे का घी ऊपर आ जाए और ऊपर का नीचे चला जाए, ऐसा नहीं होगा। एक चम्मच घी के ऊपर एक किलो घी डालो तो वह मिल जाएगा, वह कहेगा ठीक है। लेकिन! विजातीय ऊपर आ गया, तो कहता है कि मेरे पास दया है, शक्ति है, उसको दबाकर ऊपर आने की। वह व्यक्ति जाता है तो साथी कहता है | यदि आप मेरी शक्ति देखना चाहते हो तो मैं तैयार हूँ और अगले ही पल सिंह दहाड़ता हुआ आया । तुझे यदि भूख मिटाना ही है तो ये जलेबियाँ खाकर मिटा ले और मांस खाना है तो मैं उपस्थित हूँ, साथी ने शेर से कहा। मुझे समय पर खाना नहीं मिलता जो भी मिल जाए उसे खाकर अपनी भूख मिटा सकता हूँ पेट भरने के उपरान्त मुझे कुछ नहीं चाहिए, सिंह बड़ी नम्रतापूर्वक बोला। यह सिंह की नीति है नरसिंह की नहीं। सिंह जब भूखा होगा, तो शिकार कर लेगा और उसे खा लेगा, वह छुप करके शिकार नहीं करता, खाने के उपरान्त शिकार नहीं करता, दूसरे के द्वारा किए गए शिकार को नहीं खाता, क्या-क्या बातें आ गई इसमें? बहुत सारी बातें आ गई महाराज! इसमें से मेरे पास कुछ नहीं है, लेकिन! नरसिंह में शेर की एक भी बात घटित नहीं होती। आप पीछे से हमला करते हो। और क्या करते हो ? छुप जाते ही दूसरे के द्वारा कमाए गए धन को हड़प लेते हो। वह साथी राजा से कहता है -मैं शेर को शाकाहारी बना कर ही रहूँगा भले आप मानो या ना मानो। -तुम्हें क्या चाहिए ? वह सिंह से बोला। -हमें खाना चाहिए, हम बहुत दिन से भूखे हैं, सिंह ने कहा। -तुम्हें भूख मिटाना है। -हाँ हमें भूख मिटाना है। -तो फिर थाली में गरम-गरम जलेबी हैं जितना चाहो खा लो और कढ़ाई में भी रखी हैं, खाने में कमी नहीं करना तुम्हारी पूरी व्यवस्था है, पीने के लिए दूध भी रखा है प्यासे नहीं रहना, साथी ने प्रेम-वात्सल्य के साथ सिंह से कहा। और वह अहिंसा का चमत्कार था, सिंह उठकर चुपचाप जलेबियाँ खाने लगता है, फिर वह साथी सिंह से पुन: कहता है.! -और कुछ चाहिए ? साथी ने कहा। -अब कुछ नहीं चाहिए मेरा पेट भर गया है, शेर ने तृप्तिपूर्वक कहा। सब देख रहे थे, सोच रहे थे कि पता नहीं ये दीवान जी शेर को अब क्या आदेश दे दें। फिर दीवान जी शेर से कहते हैं -अब जा कर इन सबको देख लो । राजा हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और कहता है कि मुझे आज तक इस बात पर विश्वास नहीं था कि हम अपनी सच्चे अहिंसक परिणामों से पशुओं के ऊपर, पेड़ पौधों के ऊपर, अनाथों के ऊपर, सब के ऊपर अपना प्रभाव डाल सकते हैं इसी को बोलते हैं आत्मीयता। हमारे पास ये जो शक्ति विद्यमान है, वह धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर चली जा रही है। यह दु:ख की बात है लेकिन सुख की भी ये बात है कि आज भी इस प्रकार की शक्ति है, इस प्रकार के आज व्यक्ति हैं जो मनोविज्ञान के माध्यम से सब कुछ कर सकते हैं। वस्तुत: आप विश्व में शांति चाहते हो तो दया धर्म का अनुपालन करो। वह मनोविज्ञान, जो जीव तत्व की तलस्पर्शी खोज करता है उसकी प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करो। उससे बहुत सारे समाधान मिलते हैं, जो आप लोगों के पास मन है उसके माध्यम से बहुत कुछ काम कर सकते हो, उसी मन के माध्यम से आप अपने आत्मतत्व को प्राप्त कर सकते हो। यह घटना दीवान अमरचंद जी के साथ जयपुर में घटी थी। इसी प्रकार की घटनायें समय समय पर घटती रही हैं। यह घटना अधिक पुरानी नहीं है किन्तु भौतिकवाद का विस्तार इतना बढ़ गया है कि अब इस पर कोई ध्यान नहीं देता। किन्तु वैज्ञानिकों को अब यह तथ्य, सत्य प्रतीत हुआ है कि हजारों वर्ष जो काम नहीं होगा वह इस प्रकार के संयत मन के द्वारा अल्पकाल में संभव है लेकिन मन को संयत करने के लिए निर्विकार बनने की आवश्यकता है। बस! अन्त में यही कहना है कि आप लोग तामस का विलोम कर दीजिए। समता पर ही हम सभी का विश्राम हो और सुसंगति पर हमारा पड़ाव हो, वहीं पर हमारी यात्रा की समाप्ति है। वहीं से मोक्ष की उपलब्धि का सूत्रपात है। दुर्ग : फरवरी १९८४ महावीर भगवान की जय
  5. समन्तभद्राचार्य की दिव्य घोषणा है कि धर्मी के अभाव में धर्म नहीं रह सकता और धर्म के अभाव में धर्मी नहीं रह सकता। आचार्यों, सन्तों ने हमारे ऊपर कितनी बड़ी कृपा की है उस कृपा का जो भार है उसे हम किसी भी प्रकार से उतार नहीं सकते। उनका हमारे ऊपर इतना बड़ा ऋण है उसे हम एक ही शर्त पर चुका सकते हैं कि हम उनकी बात को मानें, उनकी संस्कृति, परम्परा को निभायें। अन्यथा हम हमेशा ऋणी बने रहेंगे और हमारा यह दयनीय जीवन फिर सुधर नहीं सकेगा। समन्तभद्राचार्य जी की दिव्य घोषणा है कि धमों के अभाव में धर्म नहीं रह सकता और धर्म के अभाव में धर्मी नहीं रह सकता 'न धर्मों धार्मिकैर्बिना। परस्परोपग्रहो जीवानां।' यह सूत्र गुरु और शिष्य के बीच कैसे घटित होगा? तो आचार्य कहते हैं कि आज का मोक्षमार्गी भी गुरु की आज्ञानुसार चल कर गुरु के ऊपर उपकार कर सकता है। सम्यकदर्शन खरीदा नहीं जा सकता, वह बाहर से नहीं अन्दर से आता है। आचार्यों के उपदेशों से ग्रहण किया जाता है। सम्यकदर्शन के चार अंग स्वोमुखी हैं और चार अंग परोमुखी हैं, पर की अपेक्षा रखते हैं। आचार्यों ने करुणाभाव के साथ हमारे ऊपर कितनी बड़ी कृपा की है। उस कृपा का जो भार है, उसे हम किसी भी प्रकार से उतार नहीं सकते, आचार्यों का हमारे ऊपर इतना बड़ा ऋण है, उसे हम सिर्फ एक ही शर्त पर चुका सकते हैं कि हम उनकी बात को मानें, उनकी संस्कृति, परम्परा को निभायें अन्यथा हम उनके ऋणी ही बने रहेंगे और हमारा यह दयनीय जीवन तीन काल में भी सुधर नहीं सकेगा। यदि आप लोग अपने पूर्वजों को संतुष्ट करना चाहते हो तो वे और कुछ नहीं चाहते हैं सिर्फ उनकी बात को मानकर, उनकी संस्कृति परम्परा को तुम्हें निभाना होगा। आज तक जिन्होंने उनकी परम्परा के माध्यम से मुक्ति का लाभ लिया है, उनका कहना यही है कि परम्परा छोड़ दोगे तो मुक्ति का मार्ग छूट जाएगा। जिस समय हम उस रास्ते से चलते हैं उस समय रास्ता हमारे साथ चलता है। समन्तभद्राचार्य जी की दिव्य घोषणा है कि धर्मों के अभाव में धर्म नहीं रह सकता और धर्म के अभाव में धर्मी नहीं रह सकता, न धर्मों धार्मिकैर्बिना। धर्म की सुरक्षा चाहते हो तो धर्मात्मा बनो। धर्म जड़ नहीं है जिसकी सुरक्षा की जा सके। धर्म कोई जाति सम्प्रदाय नहीं। धर्म को हम खरीद नहीं सकते,धर्म एक चैतन्य परिणति है जिसकी सुरक्षा हम उस चैतन्य परिणति के माध्यम से ही कर सकते हैं। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। कागजी घोड़े दौड़ा कर भले ही आप संतोष कर लें, कि हमने धर्म का बहुत प्रचार किया है। आचार्य उमास्वामी जी द्रव्यों के उपकारों के बारे में विश्लेषण करते हुए जीव द्रव्य का वर्णन करते हुए कहते हैं 'परस्परोपग्रहो जीवानां'जीव का जीव के ऊपर उपकार किस प्रकार है ? उपग्रह का अर्थ 'दुखावसानकरणम्' दु:ख का अवसान करना ही उपग्रह है। दुख और सुख का संवेदन करने वाला सिर्फ जीव द्रव्य ही है। अब उपकार किसके ऊपर करें तो, वे कहते हैं कि उस व्यक्ति के ऊपर उपकार करो जो आपत्तिग्रस्त है, जिसके ऊपर संकट आया है। उसको जिसे किसी वस्तु की आवश्यकता है, उसे वह वस्तु देकर उसके ऊपर उपकार कर सकते हैं। अनादिकाल से जो भयभीत है, जिसे मोक्ष का मार्ग नहीं मिल रहा है, जो आत्मा का उद्धार नहीं कर पा रहा है। बहुत प्रयास करके वह अपने आप यहाँ तक आया है, किसी का आलम्बन लेकर नहीं आया है, एकमात्र अपना ही आलम्बन लेकर, चौरासी लाख योनियों को लाँघकर, यहाँ तक आया है, लेकिन अब उसकी गाड़ी रुक रही है और जिस अपेक्षा से रुक रही है, उसका दुख दूर कर देना ही सच्चा उपकार कहलाता है। एक प्रकार से छोटों के ऊपर बड़ों का उपकार है, वह उतारने का एक साधन है "परस्परोपग्रहो जीवानां"। यह सूत्र आचार्य उमास्वामी जी का है, इसकी टीका आचार्य पूज्यपाद जी ने बड़ी उदारता के साथ की है। किस प्रकार जैनत्व की, अनेकान्त की सुरक्षा होती है, उस व्याख्या के माध्यम से हमें अनेकान्तात्मक जैन दर्शन का हृदय समझ में आ जाता है। 'ऐसा विश्व में कोई भी पंथ नहीं है, ऐसा कोई भी दर्शन नहीं है, जिसने इतनी महान् उदारता का आलम्बन लिया हो, इस सूत्र में उन्होंने यह कहा है कि एक तरफ भगवान् हैं और एक तरफ पतित प्राणी है लेकिन उस पतित प्राणी का भी उपकार भगवान् के ऊपर हो सकता है। मेरे विचार से अनेकान्त के लिए इससे आगे गुंजाइश नहीं है।' समकक्ष वाले तो आपस में लेन-देन कर सकते हैं, लेकिन यह ध्यान रखें कि विषम कक्ष वाले भी कर सकते हैं। पावनता का पूर्ण रूप से अनुभव करने वाले भगवान् होते हैं और पतित, जिसका जीवन अधूरा है वह भी उनके ऊपर उपकार कर सकता है, इसको कहते हैं भगवान् महावीर का दर्शन। जिसमें किसी प्रकार अभिमान के लिए गुंजाइश नहीं है। जिसमें प्रत्येक आत्मा के महान्--महानतम अस्तित्व का कथन है। कोई व्यक्ति उपकार करता है तो उसकी गर्दन ऊपर हो जाती है, वह फिर नीचे की ओर देखता ही नहीं है किन्तु भगवान् के ऊपर जो आज का मोक्षमार्गी है, वह भी उपकार कर सकता है और इस बात को भगवान् भी मंजूर कर रहे हैं। लेकिन आपको यह बात सुनने में बड़ी विचित्र लगती होगी। सेठ जी नौकर के ऊपर, मुनीम जी के ऊपर तो कुछ न कुछ उपकार कर सकते हैं लेकिन मुनीम जी का उपकार उन सेठ जी के ऊपर कैसे होगा? तो आचार्य कहते हैं कि वह उनका काम हिसाब-किताब सही करें यही मुनीम जी का सेठ जी के ऊपर उपकार है। और सेठ जी के द्वारा उसे वेतन प्राप्त हो रहा है इस प्रकार एक दूसरे के ऊपर उपकार कर सकते हैं। "परस्परोपग्रहो जीवानां" यह सूत्र गुरु और शिष्य के बीच में कैसे घटित होगा? तो आचार्य कहते हैं आज का मोक्षमार्गी भी गुरु के ऊपर उपकार कर सकता है क्योंकि उनकी आज्ञानुसार चलकर वह धर्म की प्रभावना करता है, इसी का नाम है ऋण से मुक्त होना। अन्यथा हम तब तक ऋणी बने रहेंगे जब तक कि आर्ष मार्ग को नहीं अपनायेंगे, तब तक हम मोक्षमार्ग के प्रचारक - प्रसारक नहीं कहला सकेगे। केवल बातों-बातों से काम नहीं चलने वाला। 'न धर्मों धार्मिकैबिना' धर्म का प्रचार धर्मात्मा के माध्यम से ही होता है, मात्र धर्म का नाम लेने से नहीं। धर्मात्मा जहाँ भी रहेगा वहाँ उसके माध्यम से अहिंसा धर्म की, सत्य धर्म की प्रभावना नियम से होगी इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसे भले ही रागी द्वेषी न देखें पर भगवान् तो देख रहे हैं कि किसके द्वारा कितनी प्रभावना हुई है, शिष्य बिल्कुल ठीक-ठाक काम कर रहे हैं या नहीं। "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" इस सूत्र का विश्लेषण मै इसलिए बताना चाहँगा कि निर्वाण महोत्सव के दौरान जैन-समाज में एक प्रतीक बना है। और उस समय उसका बहुत प्रचार-प्रसार किया गया था, उस प्रतीक के बीचों बीच में उन्होंने एक ऐसा हाथ दिखाया है कि जैसे बिल्कुल महावीर का हाथ उतार दिया हो, अभय का प्रतीक है वह हाथ, उस प्रतीक के नीचे लिखा है ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्', कि किसी को आप भयभीत नहीं करें अभय दान दें। यह ध्यान रखें तीन दानों के लिए तो पैसों की आवश्यकता पड़ती है पर अभय दान के लिए धन-पैसे की जरूरत नहीं है और न ही शरीर की आवश्यकता है, बस! उज्ज्वल मन की आवश्यकता है और वह मन कहीं से खरीदना नहीं है अपने पास ही है, चाहें तो हम अभय दान कर सकते हैं, मारने वाले अपने अपकारक प्राणी का भी भला करना, उसके उद्धार की बात सोचना अभय दान है। भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है कि अभय दान के माध्यम से सबसे अधिक प्रभावना होती है। जिसके पास कुछ भी माया नहीं रहती, माया का अर्थ है अन्दर कुछ और बाहर कुछ और, तो जिसके मन में माया नहीं है वही व्यक्ति सबसे ज्यादा भगवान् महावीर स्वामी के मार्ग का प्रचारक है। आप अपनी दृष्टि में चोरी से बच रहे हैं, असत्य से बच सकते हैं, व्यभिचार से बच रहे हैं तो केवल बस इसी को धर्म समझने लगते हैं, कि हमने कभी झूठ नहीं बोला, कभी चोरी नहीं की, व्यभिचार नहीं किया पर मैं कहूँगा कि आपने सब कुछ किया है क्योंकि आपके पास परिग्रह है। इस परिग्रह के निमित्त से ही पाँचों पाप हुआ करते हैं और आप उसी को बढ़ाने में लगे हुए हैं। आप इतने पुण्यशाली नहीं हैं कि परिग्रह अपने आप आपके पास आ जाए। तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलभद्र नारायण आदि जो महापुरुष लोग होते हैं, उन्हें नियोग से पुण्य का लाभ मिलता है, भोग की सामग्री मिलती है। किन्तु आप लोगों को पाप करके परिग्रह एकत्रित करना पड़ता है। जितना परिग्रह आपके पास है, समझो उतना ही पाप एकत्रित है, आरम्भ के बिना परिग्रह का संकलन नहीं होता ऐसी स्थिति में आप भले ही समझते होंगे कि हम बहुत धर्मात्मा बनते चले जा रहे हैं, किन्तु ऐसा नहीं है। दान देने वाला व्यक्ति भी तब तक धर्मात्मा नहीं कहला सकता जब तक वह सही रूप से दान नहीं देता। कोई चोर बीस हजार रुपया चुराकर दस हजार धर्म के कार्य दानादिक में दे देता है, तो क्या वह सही दानी है ? नहीं अब वह आधा डाकू रह गया, अभी तो वह पूरा डाकू था और आगे का संकल्प छोड़ा नहीं इसलिए वह पूरा डाकू ही बना रहा। क्योंकि आगे चोरी का संकल्प ज्यों का त्यों है। चोरी करके दान करना धर्म का दिखावटी पन है, प्रदर्शन है, आचार्य कहते हैं कि जो ज्यादा आरंभी, विलासी है वह व्यक्ति धार्मिक क्षेत्र में निम्न स्तर पर है। और वह व्यक्ति अगले जीवन में यहाँ तक नीचे जा सकता है कि अधोगति की ओर भी उतर सकता है, भले ही वह बाहर से धर्म कर रहा हो तो भी चला जाएगा। यदि उसकी पाप प्रवृत्ति हट गई तो वह समाज के लिए वरदान सिद्ध हो जाता है। 'परस्परोपग्रहो जीवानां' का अर्थ यह हुआ कि हम दूसरे को तकलीफ दिये बिना, दूसरे की तकलीफ यथाशक्ति दूर करने का प्रयास करें। उसकी तकलीफ दूर करने में हमारे तन, मन, वचन तीनों लगें और इन पुण्यमयी शुभ भावों के माध्यम से हमें भी ऐसी प्रशस्त सामग्री मिल जाती है। बन्धुओ! कहाँ से तो हम आये हैं और पुण्य के उदय से हमें ये दुर्लभताएँ प्राप्त हुई हैं, ये दुर्लभताएँ भी क्षण-भंगुर हैं, कर्म के ऊपर आश्रित हैं। अत: प्राप्त हुई इन दुर्लभताओं का सदुपयोग करें। एक व्यक्ति के ऊपर बाँस गिर गया है, उसने गाली नहीं दी ध्यान रखना! और थोड़ा-सा कोई पीछे वाला यूं कर देता है तो आँखें लाल हो जाती हैं। ऊपर बाँस गिर गया तो भी उसकी आँखें लाल नहीं हुई और आँखें लाल किसके ऊपर करें, बाँस के ऊपर तो कर नहीं सकते। यदि इस प्रकार का तत्व ज्ञान आपको हो जाये कि हमारा तो कर्म का उदय है, ठीक है, अपने को क्या मतलब है। सामने वाला यदि लट्ट भी मार रहा हो तो उसके लिए भी रास्ता खुल जाएगा, वह कहेगा कि भैया! मैं तो मार रहा हूँ पर यह कुछ भी नहीं कह रहा है। अपने कर्म का उदय समझ रहा है। वास्तव में यह है धर्म का अनुशरण। अब जड़ को क्या कहें? उसी प्रकार जो मारने के लिए आता है, उसे जड़ समझो, वह तो अज्ञानी है, स्वरूप का बोध भी उसे नहीं है, धर्म का आचरण भी उसे मालूम नहीं है। कोई गाली दे रहा है देने दो, कोई मारने आया है आने दो वह मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। इस प्रकार का भाव धर्मात्मा के मन में जाग्रत होता है। सामने जो व्यक्ति आया है उसके प्रति वह धर्मात्मा सोचता है कि हे भगवन्! इसे सद्बुद्धि दो, ये भी केवलज्ञान को प्राप्त कर सके, सच्चे मार्ग पर आरूढ़ हो। बड़ी लम्बी-चौड़ी बातें हम करते चले जाते हैं किन्तु अहिंसा क्या है? सत्य क्या है ? हमारा धर्म क्या है? इतनी सी बातें आपके जीवन में क्या नहीं हो सकती? क्यों नहीं हो सकती, अवश्य हो सकती हैं। हम लोगों को आचार्य कई प्रकार से समझाते हैं, बोध देते हैं कि यह हमारी बात किसी भी प्रकार से मान लें, ये एक बार मंजूर हो जाए। इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि वे हमारा उत्थान चाहते हैं। माँ एक बार कहती है कि बेटा! मान ले मेरी बात को जब वह नहीं मानता है, तब वह माँ कहती है कि तू मानता नहीं है, जोर से कहती है फिर भी नहीं मानता है, आपको तो सब मालूम ही है। माँ यदि रोटी बना रही हो तो चूल्हे में से लाल-लाल अंगारा खींचना ही पड़ता है, तब वह मानता है, जब नहीं मानता है तब ही माँ को ऐसा करना पड़ता है। इस प्रकार आचार्य परमेष्ठी शब्दों के माध्यम से समझाते हैं, कभी प्रिय कभी अप्रिय, कभी भव्य कहते हैं तो कभी पागल कहते हैं कभी सुजान कहते हैं। सुजान कहने से तो आपका चेहरा फूल जाता है और मूर्ख कहने से आपको बुरा लगता है, आप कहते हैं कि देखो! हमें ये मूर्ख कह रहे हैं। आपको यह तो समझना चाहिए कि आचार्यों ने हमारे ऊपर कितना बड़ा उपकार किया है, अपना मौलिक समय निकाल कर बड़े-बड़े ग्रन्थों की रचना की। बन्धुओ! यदि आचार्यों ने ये ग्रन्थ लिखकर नहीं रखे होते तो पूर्व और पश्चिम दिशा तक याद नहीं रहती। माता-पिता कुछ क्षण के लिए ही काम आते हैं, किन्तु पवित्र जिनवाणी माता ये वीतरागी गुरु भव-भव से काम आ रहे हैं। महावीर स्वामी को मोक्ष गए करीब ढाई हजार वर्ष हो चुके हैं, उस समय के लिखे हुए ग्रन्थ हमें आज भी प्राप्त हो रहे हैं। युग के आदि से यह परम्परा चल रही है इस परम्परा के माध्यम से हमें जो कुछ लाभ मिला है, हमारा कर्तव्य है कि आगे के लिए इस मार्ग को संकीर्ण न बनाकर विस्तृत ही बनाए रखें तो यह कार्य बहुत महान् होगा, जिसके माध्यम से असंख्यात जीव अपना कल्याण करेंगे। काल का प्रभाव ऐसा बुरा पड़ता जा रहा है कि हम कुछ कह नहीं सकते, फिर भी धर्मात्मा से रहा नहीं जाता वह किसी भी प्रकार से उस मार्ग को जारी रखना चाहता है। वह अधर्मात्मा को ऊपर उठाने का प्रयास करता है। धर्मात्मा वह होता है जो सामने वाले अधर्मात्मा को अपने समान बनाता है। दाता भी ऐसा होना चाहिए जो सामने वाले को अपने समान देखे, अर्थात् तुम्हारे पास तो है ही नहीं, ले-ले यह मैं दे रहा हूँ, याद रख मैंने तेरे साथ उपकार किया है। बड़ा वह होता है जो छोटों को अपने समान बना लेता है, फिर छोटा यह न समझे कि आपने मुझे अपने समान तो बना लिया है, अब मैं आप से नीचे क्यों बैदूँ ? ऐसा समझना गलत है। उसका परम कर्तव्य है कि जो बड़ा है उसकी विनय करे किन्तु जो बड़ा है वह उससे विनय न चाहे, इसके माध्यम से प्रेम, वात्सल्य बढ़ता है। कई बातें हैं जिन्हें हम जीवन में उतारने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। हम आगे इसको धारण कर लेंगे इस प्रकार की भावना ठीक नहीं है क्योंकि आगे क्या होने वाला है इसका कोई पता नहीं है, अत: इसी में हमारी भलाई है कि भगवान् ने जो मार्ग हमें बताया है, शीघ्र ही हम उसका अनुसरण कर लें। जब तक हमारी बुद्धि ठीक-ठीक काम कर रही है, तब तक हम धर्मधारण कर सकते हैं और अल्प समय में ऐसा यदि कार्य कर लेते हैं तो हमारी यह बुद्धिमानी मानी जायेगी। यदि हम विषयों में लीन होकर अपनी शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति खो देंगे तो अन्त में धर्म का आधार नहीं ले सकेगे। जब से जीवन प्रारम्भ होता है तब से धर्म का पालन करना चाहिए, तब कहीं अंत में जाकर कुछ काम हो सकेगा। धर्म कोई हल्की-फुल्की चीज नहीं है जिसका पालन बुढ़ापे में हो सके। हम सभी संसारी लोगों की यह स्थिति हो रही है इसके उपरांत भी आचार्य देव करुणा करके कहते हैं कि बेटा! यह ठीक है अपनी बुद्धि के अनुसार तो तुमने ग्रहण कर लिया लेकिन थोड़ा विचार तो करो कि आगम में क्या लिखा है? आगम में सम्यकदर्शन के साथ-साथ आठ अंगों का निरूपण किया गया है, जिसमें चार अंग स्वाश्रित हैं और चार अंग पर की ओर दृष्टिपात करते हैं यानि पराश्रित हैं। नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा और अमूढ़दृष्टि, ये चार अपने लिए हैं, शेष चार भी अपने लिए ही हैं पर वे स्वोमुखी नहीं परोन्मुखी हैं। स्थितिकरण, उपगूहन वात्सल्य और प्रभावना, ये चारों अंग पर की अपेक्षा रखते हैं यानि इनका पालन सामने वाले साधमीं व्यक्ति के माध्यम से होता है। आचायों ने इन अंगों के माध्यम से धर्म के प्रचार-प्रसार की बात कही है। इन अंगों का पालन किसने कितना किया है? यह बात अलग है। हम लोगों की कुछ आदतें ऐसी हैं जिनके ऊपर हम विचार नहीं करते, जिस किसी के मुख से जो कुछ भी हम सुन लेते हैं, उसी को जिनवाणी का सच्चा स्वरूप समझ लेते हैं और समझ लेते हैं कि हमने धर्म श्रवण कर लिया। हमारे पास उपदेश और उपदेष्टा इन दोनों की परख होनी चाहिए। सच्चे देव कौन हैं ? शास्त्र और गुरु का स्वरूप क्या है ? धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाला कैसा होना चाहिए? ध्यान रखना मात्र आप ही लोगों ने धर्म पालन करने का ठेका नहीं ले रखा है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय भी धर्म श्रवण कर सकता है, जिसके पास मन नहीं है वह भी धर्म श्रवण करता है। श्रवण का अर्थ है कानों के माध्यम से सुन लेना और उसके लिए मन की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप सम्यकदर्शन की सुरक्षा और धर्म का आलम्बन लेना चाहते हो तो धर्म श्रवण के उपरान्त मन के माध्यम से सुनें और समझें। यह संसारी प्राणी मन का प्रयोग किए बिना ही धर्म का श्रवण कर रहा है और जिसने ग्रहण के बिना मात्र श्रवण किया है तो पूरा का पूरा धर्म नहीं कमा रहा है लेकिन सुनना ही छोड़ दो, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ। छोड़ें नहीं, जितना प्रयास किया उतना तो अच्छा ही है। सम्यकदर्शन किसी दुकान से नहीं खरीदा जा सकता,वह बाहर से नहीं आता किन्तु अन्दर से जागृत किया जाता है, आचार्यों के उपदेशों से ग्रहण किया जाता है। संत क्या कह रहे हैं, जब इसको समझोगे, तभी धर्म हासिल कर सकोगे नहीं तो नहीं। मैं सोचता हूँ बार-बार विचार करता हूँ कि आचार्यों ने धर्म को श्रवण करके धर्म ग्रहण करने की दुर्लभता बताई है। धर्म श्रवण करना अलग है और उसके ऊपर श्रद्धान करके तदनुकूल आचरण करना अलग है, यह संसारी प्राणी धर्म सुनता तो है लेकिन उसको मुख्य नहीं बनाता। तिलोयपण्णत्तिकार ने कहा है कि कुछ जीव समवसरण में जाकर भी धर्म श्रवण नहीं करते, यदि करते भी हैं तो मुख्य दृष्टि उनकी कुछ और ही रहती है। वहाँ पर बहुत प्रकार की नाट्यशालाएँ रहती हैं, अच्छे-अच्छे गार्डन रहते हैं, ठंडी-ठंडी हवा भी चलती है, इन्हीं इन्द्रिय विषय पोषक स्थानों पर जाकर कुछ जीव बैठ जाते हैं, वे समवसरण में प्रभु के पास तक जाते ही नहीं है। यहाँ पर भी धर्मशाला में से ही सुनलें आवाज तो आ रही है और मुँह से चाय भी पीते जाएँ, कान से तो सुनना है, क्या बात हो गई? अर्थ यह कि धर्म को हमने इतना सस्ता बना लिया है। कान अपना काम करें मुँह अपना काम करे भिन्नभिन्न तो है ही । लेकिन भैया! स्वाद लेने वाला तो एक ही है, जिस समय मुख से स्वाद लेगा उस समय वह अन्य इन्द्रियों से काम नहीं ले सकेगा। और धर्म श्रवण भी नहीं कर सकेगा। यह ध्यान रखो, आप यहाँ हैं और मन कहीं अन्यत्र हो तो वह मात्र श्रवण ही कहलायेगा, उसका ग्रहण नहीं हो सकेगा, इसलिए मनोयोग के साथ सुनना पड़ता है। धर्म ऊपर-ऊपर ही नहीं है वह तो आत्मा की अतल गहराई में छिपा हुआ है, जिसे खोजने के लिए, जिसे निकालने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता होती है। और गहराई में पहुँची हुई वस्तु को निकालने के लिए पानी में डूबना पड़ता है। डूबने के लिए तैरना सीखना अनिवार्य है फिर डूबना होता है, उसके लिए बहुत शक्ति, बहुत परिश्रम की आवश्यकता होती है। धर्म क्या है यह समझ में तो आ रहा है, लेकिन उसको ग्रहण करने में, खोजने में बहुत परिश्रम की आवश्यकता होती है। एक बार की बात है, जब मैं 9th क्लास में पढ़ता था। हाई स्कूल जाने के लिए तीन-चार मील जाना पड़ता था। दूसरे गाँव में वह स्कूल था। एक दिन की बात है, स्कूल लगने में सिर्फ पन्द्रह-बीस मिनट की देर थी, जल्दी ही स्कूल जाना चाहता था, लेकिन साइकिल में हवा नहीं थी। मैं साइकिल की दुकान पर पहुँचा और मैंने कहा कि भैया! थोड़ी साइकिल में हवा भरना है पंप लाओ, उनके पंप देने पर मैं साइकिल में हवा भरने लगा, दस-बीस बार पंप करने पर भी मैंने टायर दबाया तो हवा नहीं जा रही थी। मैंने सोचा कि क्या बात हो गई, कपड़े को लगाकर पुनः हवा भरने लगा लेकिन फिर वही बात हवा नहीं जा रही थी। वह दुकानदार मेरी स्थिति को देख रहा था, अपने आप यही कहेगा, मैं क्यों कहूँ? जब तीसरी बार देखा तो वही स्थिति, तो मैं इधर-उधर देखने लगा क्योंकि देर हो रही है और साइकिल में हवा नहीं हैं। तब दुकानदार बोला कि साइकिल पंचर तो नहीं है, मैंने कहा कि नहीं पंचर तो नहीं है। वह बोला, देखो तो सही, देखा तो पंचर नहीं मिला, जब पंचर नहीं है तो हवा क्यों नहीं जा रही है, तो उन्होंने कहा कि भैया! और कुछ नहीं है इसका वाल ट्यूब कटा है। जानते हो भैया वाल ट्यूब का अर्थ? वाल का अर्थ है छिद्र और उस छिद्र पर जब तक ट्यूब नहीं चढ़ाएंगे तब तक उसमें हवा नहीं भर सकते। टायर भी ठीक है हवा भरने वाला भी ठीक है, ट्यूब भी ठीक लेकिन मस्तिष्क ही ठीक नहीं है आपका बस! वाल ट्यूब खरीद लो। मैंने दस पैसे निकाल कर दे दिए और उन्होंने वाल ट्यूब दे दिया उसको लगाते ही, दस बार पंप से हवा पर्याप्त मात्रा में भर गई। हवा अंदर तो जाती लेकिन वाल ट्यूब कटी होने से वह पुन: बाहर आ जाती थी। उसी प्रकार आपके कानों में प्रवचन के शब्द अन्दर तो चले जाते हैं, किन्तु वाल ट्यूब नहीं होने के कारण बाहर आ जाते हैं बस, इतनी सी कमी है आपकी। मात्र दस पैसे खर्च करके एक वाल ट्यूब खरीद लो आपकी यात्रा बिल्कुल ठीक हो जायेगी। जैन धर्म की प्रभावना इसलिए नहीं हो पा रही है, कि जहाँ पर जो कुछ आवश्यक है, वह तो आपने किया, लेकिन एक वाल ट्यूब आप नहीं खरीद पा रहे हैं। धर्म के प्रचार के लिए लाखों रुपये खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। सहिष्णुता, प्रेम, दया एक दूसरे के प्रति वात्सल्य उमड़ आना, "गुणिषु प्रमोदं" वाली बात आज यहाँ नहीं है, और वह इसलिए नहीं है कि धर्म का यथार्थ स्वरूप हमें अभी समझ में नहीं आया उसी का यह फल है कि हम अपने जीवन को विषयों में, कषायों में समर्पित कर रहे हैं और जीवन का लम्बा समय हम यों ही समाप्त कर रहे हैं। "गंगा नहाए गंगादास, जमुना नहाए जमुनादास" वाली कहावत आज यहाँ पर चरितार्थ हो रही है। मौलिक जीवन में क्या किया, क्या धर्म का प्रचार किया, कितनी सच्चाई से व्रतों को पाला? इसे देखो, जानो और फिर यथार्थता का अनुकरण करो। आचार्य कुन्दकुन्द ने मुख्य रूप से साधु वर्ग को संबोधित करने के लिए अनेक प्रकार के साहित्य का समार्जन किया और आचार्य समन्तभद्र ने श्रावकों को सुधारने का प्रयास किया। सर्वप्रथम श्रावकों के लिए डेढ़ सौ श्लोक प्रमाण 'स्नकरण्डक श्रावकाचार' नामक ग्रन्थ लिखा। संसार से भयभीत श्रावक कैसा आचरण करें? श्रावक का आचार, विचार और व्यवहार कैसा होना चाहिए उसका संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित अच्छे ढंग से वर्णन किया है। श्रावकों के लिए हेय क्या है? उपादेय क्या है? इन सब बातों का ज्ञान इस छोटी सी पुस्तक से होता है। ध्यान रखें कुछ प्रसंगों में साधु से अच्छा श्रावकों को माना है। गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥ ३३॥ र.श्रा. मोही मुनि की अपेक्षा निर्मोही गृहस्थ अच्छा है, जिसने मोह को निकाल दिया है, मोह का वमन किया है, उदासीनता धारण की है वह गृहस्थ बहुत अच्छा है। लेकिन वह विषयी, कषायी मुनि गृहस्थ के समान जो परिग्रह लादता जा रहा है, वह मोक्षमार्गी नहीं है इतना कहने से गृहस्थ चार अंगुल ऊपर न चढ़े। यह लक्षण नहीं बाँधा है, यह अतिशयोक्ति भी नहीं हैं। जो विषयी, कषायी है, वह कैसा मुनि! यह कहा है। वह गृहस्थ अच्छा है उस मुनि से, अच्छा का अर्थ यह नहीं है कि वह घर पर बैठे-बैठे ही मुक्ति प्राप्त कर लेगा। यह तो गृहस्थ को आदर्श रख कर तुलना की है। इसके उपरान्त गृहस्थ को लथेड़ा है। उलझे हुए मुनियों के लिए सुलझे हुए गृहस्थों को आदर्श रूप में रखा है और उलझे हुए गृहस्थों के लिए सुलझे हुए पशुओं के उपदेश दिये हैं। स्वयंभूरमण द्वीप से स्वर्गों की पूर्ति हो जाती है, उन पंचम गुणस्थानवर्ती पशुओं के माध्यम से, यहाँ से तो बहुत कम जाते हैं। वहाँ से अगर मार्ग बंद हो जाए तो स्वर्ग खाली पड़ जाएगा। जिस प्रकार कोई सेठजी हैं और उनके मरने के बाद मान लो घर में कोई नहीं है वह दस खण्ड का मकान खाली रह जाता है, उसी प्रकार स्वर्ग के भवन खाली रह जाएँगे। आचार्य समन्तभद्र की दृष्टि में आपका जीवन पशुओं से भी गया बीता है। आपसे अच्छे तो पशु हैं। रामायण का उद्घाटक है जटायु पक्षी। वहीं से रामायण का प्रारम्भ होता है। सीता हरण के रहस्य को जानने वाला भी जटायु पक्षी था। रावण के विरोध में सर्वप्रथम आवाज उठाने वाला वह जटायु था, जिसके लिए राम का आशीर्वाद था। राम ने अपने पास उस जटायु पक्षी को रख रखा था। जो मांस भक्षी था। मांस भक्षी को देखकर आप दूर भाग जायेंगे लेकिन राम नहीं भागे थे। उस जटायु पक्षी ने चारण ऋद्धिधारी मुनि महाराज के चरणों के गंधोदक को सिर पर चढ़ाया था और अपने जीवन को कृत-कृत्य किया था। सम्यकदर्शन को धारण करके उसने व्रतों को भी धारण किया था। व्रती बनने के उपरान्त राम सीता ने अपने साथ रख कर उसका पालन पोषण किया था। सीता के ऊपर आई विपत्ति के समय उसने यथाशक्ति सीता की रक्षा की, और अन्त में अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। इसको कहते हैं-परस्परोपग्रहो जीवानाम्। उसने कहा नहीं कि कम से कम मेरा नाम तो लिख दो, लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। वीतरागता की दृष्टि में अपने आप नाम आ जाता है। अच्छाई कहीं छुपती नहीं और बुराई भी कहीं छुपती नहीं है। संसारी प्राणी को अपने आपको जटायु पक्षी के जीवन से ऊपर उठाना चाहिए। अहिंसा धर्म का पक्ष लेकर जटायु पक्षी ने रावण के साथ युद्ध करना मंजूर किया था। अंत में वह भले ही रावण से हार गया था, क्योंकि हाथी के साथ मक्खी का झगड़ा नहीं होता, लेकिन हाथी के साथ लड़ने वाला भी कुछ दम रखता है इसको कहते हैं सत्य का पक्ष । असत्य की तरफ भले ही हाथी हो और सत्य की तरफ मच्छर हो, भले ही वह हार जाये, लेकिन लड़ने का प्रयास वह अवश्य करता है। धर्म का पक्ष लेना आवश्यक हैं, धन का पक्ष लेने से आज तक यह अनर्थ हुआ है। जो सत्य है वही हमारा है, जो हमारा है वही सत्य है, ऐसा नहीं। जिन्होंने आगम का अध्ययन किया है उनका कहना सही हो सकता है।' रवीन्द्रनाथ टैगोर कवित्व के क्षेत्र में अच्छे कवि हुए हैं, उन्होंने अपने कविता में लिखा है- सत्य भले ही शूली पर टंगा हो फिर भी वह सत्य ही रहेगा और असत्य भले ही सिंहासन पर बैठा हो फिर भी वह असत्य ही रहेगा। सत्य की तरफ मात्र एक व्यक्ति है, इसलिए वह असत्य की कोटि में-आ जाए, ऐसा नहीं है और असत्य की ओर बहुत भीड़ भी हो तो भी वह सत्य की कोटि में नहीं आ सकेगा। यह पंचम काल की बलिहारी है कि सत्य को शूली पर टंगता ही देखा जाएगा। मैं समझता हूँ कि वह उसके ऊपर उपसर्ग है, और सत्यवान् के ऊपर ही उपसर्ग होता है लेकिन उपसर्ग के होने पर भी वह असत्य को स्वीकार नहीं करेगा, सत्य का ही प्रतिपादन करेगा और सत्य क्या है ? असत्य क्या है ? इन सब बातों का रहस्य दुनियाँ को अपने आप ही मालूम पड़ जाता है। धर्म की सुरक्षा के लिए एक व्यक्ति भी पर्याप्त है और उसी के माध्यम से हमें धर्म का लाभ मिल सकता है। धर्म लाभ प्राप्त करने के लिए हम सभी को कमर कसनी होगी यदि आप लोग अधर्मात्मा भी बन जाएँ तो एक धर्मात्मा ही धर्म की सुरक्षा कर लेगा। यह बात ध्यान रखना! धर्म की सुरक्षा में पशुओं का भी योगदान है। श्रावकाचारों में श्रावकों को समझाने के लिए जितना आदर्श पशुओं का है, उतना किसी गृहस्थ का नहीं। मातंग का उदाहरण है, उसमें उसकी अहिंसा के प्रति विश्वास को परिलक्षित किया गया है। धर्म पवित्र है, अनादि अनिधन है। धर्म शरीर के पीछे नहीं, धर्म आत्मा के पीछे है। धर्म में आत्मा है, आत्मा में धर्म है। शरीर में आत्मा होते हुए भी शरीर को कभी भी धर्म नहीं माना है। यह शरीर धर्म का साधन तब बन सकता है, जब वह विषय-कषाय से ऊपर उठ जाता है, तो धर्म के साथ-साथ उसकी भी पूजा हो जाती है, रत्नत्रय धारण करने पर शरीर भी पवित्र हो जाता है। स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता॥ १३१॥र.श्रा. स्वभाव से तो यह काया अशुचिमय है। अपवित्र है। भले आप इसको लाइफबॉय लगाओ, पियर्स सोप लगाओ, तना, हमाम आदि तमाम साबुनें लगाओ लेकिन एक घन्टे के बाद यह अपना गुण धर्म बता देगा और आपका जीवन इसी में बीत गया है। देह परसते होय आपावन, निशदिन मल जारी (बारह भावना) देह तो अपावन है, यदि पावन बनाने का लक्ष्य है तो धर्म को धारण करना आवश्यक है। आज तक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं हुआ जिसने धर्म को धारण किए बगैर शरीर को पवित्र बनाया हो। तपस्या के माध्यम से मुनि महाराज के शरीर पर जो मल एकत्रित हो जाता है, वह औषधि का काम कर जाता है। अन्दर तप की सुगंधी के कारण वह Divert हो जाता है। आप रात दिन सुगंधित पदार्थों को अपने शरीर पर लगाकर गंदा कर रहे हैं। शरीर के कुछ अवयवों से निरंतर मल झरता रहता है, मल का पिटारा यह घिनावना शरीर है। यदि आप शरीर के पीछे, रूप के पीछे मद करेंगे, कषाय करेंगे तो ध्यान रखना अनंत शरीर आपको और मिलते चले जायेंगे। कुल का अभिमान, जाति का अभिमान, वंश का अभिमान जो व्यक्ति करता है। वह सम्यकदर्शन को दूषित करता है। मद धारे तो येही दोष वसु, समकित को मल ठाने॥ (छहढाला, तीसरी ढाल) छहढाला की इन पंक्तियों का पाठ आप रोजाना करते हैं। उसमें कहा है कि आठ मदों को धारण करने वाला, सम्यकदर्शन बढ़ा नहीं रहा, किन्तु घटा रहा है। यदि ये मद आ जाते हैं, तो सम्यकदर्शन साफ हो जाता है, मात्र ऊपर की क्रिया रह जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। आप लोग जब तक अपने धर्म को नहीं पहचानोगे, रत्नत्रय अंगीकार नहीं करेंगे तब तक मद ही करते रहेंगे। मदवान व्यक्ति उन्मत्त कहलाता है। वह निज के स्वरूप को नहीं पहचान सकेगा। मद हमारे लिए खतरनाक है व्रतों में दोष लगाने वाला यह मद नरक में भी ले जाता है। अत: अन्त में में यही कहना चाहूँगा कि आज आप लोग दस पैसे खर्च करके धर्म रूपी वाल ट्यूब खरीद लीजिए, तो बहुत अच्छा होगा। आपका समय हो रहा है, आप धर्म श्रवण कर रहे हैं, बहुत अच्छा है, अब अंदर उतर जाय तो ठीक है क्योंकि आपकी मोक्ष यात्रा, अंदर टिकने से ही होना संभव है। धर्म यदि अपने अंदर उतर जाए तभी कुछ काम हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसलिए आठ मदों को छोड़ने का प्रयास आपको करना है। ध्यान रखें यदि सम्यकदर्शन निर्मल रहेगा तभी वह चारित्र के कार्य का निष्पादन करेगा। आप लोगों का महान् पुण्य का उदय है, जो इस प्रकार की दुर्लभ पर्याय प्राप्त हुई है, क्योंकि बारह भावना में मंगतराय जी कहते हैं नरकाया को सुरपति तरसे सो दुर्लभ प्राणी॥ (बारह भावना) इस पंक्ति को जब भी मैं स्मरण करता हूँ तो मुझे विलोमता नजर आती है सुरकाया को नरपति तरसे, सो दुर्लभ प्राणी? आप लोग, सुरकाया को तरस रहे हैं, जो व्यक्ति शरीर को ही सब कुछ समझता है, वही इस प्रकार सोच सकता है। क्योंकि वह तो दिव्य शरीर है और यह सड़ा-गला शरीर है। जो धर्म से विमुख होकर कार्य करेगा वह यही चाहेगा, इसलिए इस पंक्ति को थोड़ी होशियारी के साथ पढ़ा करो। इस काया को मिलने के उपरान्त कितना जीवन निकल गया है आपको मालूम तक नहीं है, कम से कम नरकाया की सार्थकता को समझो। विषय भोग के लिए यह काया नहीं मिली है। जो प्रमाद को छोड़कर जिस समय जाग्रत हुआ है, उसी समय उसने नरकाया की सार्थकता समझ ली। जब राजा श्रेणिक मरणोन्मुख हो जाता है, तब उसको अपने किये हुए अनर्थ का फल ज्ञान होता है और रोंगटे खड़े हो जाते हैं, आँखों से अश्रुधारा बहने लगती है कि हे भगवन्! मैंने अनर्थ तो कर लिया है, अब कोई रास्ता है ही नहीं! भगवान् कहते हैं, बस प्रायश्चित कर ले, सब कुछ ठीक हो जाएगा। ३३ सागर की आयु प्रमाण सप्तम पृथ्वी का बंध किया था। और बाद में विशुद्ध परिणामों से वह कितना रह गया? मात्र ८४ हजार वर्ष। यह सब सम्यकदर्शन की महिमा है आप लोग मद नहीं करें, जो मद नहीं करता है, वही सच्चा धर्मात्मा माना गया है। 'न धर्मों धार्मिकैबिना' इस कारिका के तीन चरण और देखें तो मालूम चल जाएगा। स्मयेन योऽन्यानत्येति, धर्मस्थान् गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं, न धर्मो धार्मिकैर्विना ॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार) मद के वशीभूत होकर के दूसरे धर्मात्मा को जो नीचा दिखाना चाहता है, वह धर्मात्मा नहीं है। इसलिए आप कभी भी मद को नहीं करें, जिसमें अपना और पर का कल्याण निहित है।
  6. रत्नत्रय वह अमूल्य निधि है जिसकी तुलना संसार की समस्त सम्पदा से भी नहीं की जा सकती। धर्म का सम्बन्ध देहाश्रित कम हुआ करता है आत्माश्रित ज्यादा। मैं तुम्हारे अण्डर में रहने वाला प्राणी जरूर हूँ, लेकिन मेरा प्रण है कि अन्याय करने वाले को कभी नहीं छोडूंगा, चाहे भले ही मेरे प्राण चले जायें। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि वह गृहस्थ उस मोही मुनि से भी श्रेष्ठ है जो मोक्षमार्ग पर आरुढ़ है। उलझे हुए मुनि से सुलझे हुए गृहस्थ आदर्शमय हैं तो उलझे हुए गृहस्थों से सुलझे हुए पशु श्रेष्ठ हैं। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा विरचित 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' है, जो कि श्रावकों के लिए एक संजीवनी वटी है, जिसके द्वारा श्रावकों की सब बीमारियाँ समाप्त हो जाती हैं, कहने को तो कह देते हैं कि श्रावकाचार है, किन्तु समन्तभद्र स्वामी ने इसे 'रत्नकरण्डक' माना है। आप लोगों के यहाँ, शक्ति अनुसार बहुमूल्य पदार्थों का संग्रह हुआ करता है। किसी के पास हीरे, माणिक्य, सोना रह सकता है, किन्तु उनको आप कहाँ पर रखते हैं, दो मिनट में मैं इस प्रसंग को समाप्त करना चाहूँगा, आप उन बहुमूल्य पदार्थों को Treasury में रखते हैं और उसमें अलीगढ़ कम्पनी वाला, एक अच्छा बड़ा सा ताला लगाते हैं और चाबी अपने पास रखते हैं, ताकि उन्हें कोई निकाल न सके। Treasury में रखकर भी क्या आप उन्हें ऐसे ही रख देते हैं ? नहीं Treasury के अन्दर एक अण्डर ग्राउण्ड रहता है, उसमें भी एक और पेटी रहती है, उस पेटी में भी एक छोटी सी पेटी और रहती है। इन सब पेटियों के ऊपर पुन: छोटे-छोटे ताले लगे रहते हैं, और ध्यान रखिये अन्तिम जो पेटी है, उस पेटी में एक डिब्बा रहता है, उस डिब्बे में एक और डिबिया रहती है, उस डिबिया में पुड़िया रहती है और अनेक प्रकार के कागजों की अन्दर-अन्दर और भी पुड़िया हैं। अन्तिम जो पुड़िया है उसमें जिस वर्ण के रंग का नग है, हीरा है, उससे विपरीत रंग का कागज रहता है। मान लीजिए नीलम का एक नग है तो उसको अच्छे लाल-लाल कागज में रखते हैं। जब पुड़िया खोलते चले जाते हैं, तब कहीं जाकर वह नग दिखाई देता है, उस नग को आप अपने हाथ भी नहीं लगाते दूर से ही ग्राहक को दिखाते हैं, इस प्रकार आप अपने नग की सुरक्षा करते हैं, एक की सुरक्षा के लिए और शोभा के लिए इतना प्रबन्ध हुआ करता है। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने इस ग्रन्थ में तीन वस्तुओं का वर्णन किया है। सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्रचारित्र इन तीन वस्तुओं की तुलना संसार की समस्त सम्पदा से भी नहीं कर सकते। दो वस्तुओं को तो रहने दीजिए, लेकिन मात्र सम्यकदर्शन की तुलना भी हम अन्य सम्पदा से नहीं कर सकते, त्रैलोक्य में, तीन काल में सम्यकदर्शन के अलावा हितकारी अन्य कोई वस्तु नहीं है, ये वस्तुएँ एक से बढ़कर एक हैं जिन्हें आप दुनियाँ में कहीं भी चले जाओ, किसी भी दुकान में चले जाओ, आप खरीद नहीं सकते। सुनना तो दूर रहा, ऐसी ये मौलिक वस्तुएँ हैं, रत्न हैं जिनकी प्राप्ति के लिए उन्होंने १५० श्लोकों की रचना की है। 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' का अर्थ केवल चारित्र पर, आचार संहिता या मात्र क्रियाकाण्ड वाली बात नहीं है। इस युग में समन्तभद्र एक ऐसे आचार्य हुए हैं, जो भगवान् की परीक्षा करने वाले थे, ऐसे आचार्य भिन्न-भिन्न महान् ग्रन्थों की रचना करते-करते क्रियाकाण्ड की बात कह कर के चले जाएं, यह सम्भव नहीं है। बल्कि उन्होंने इस ग्रन्थ में जो अपना अनुभव दिया है, वह अलौकिक है। यदि आप मुनि नहीं बन सकते हो, तो कोई बात नहीं, किन्तु 'स्नकरण्डक श्रावकाचार' के अनुरूप अपनी चर्या तो बना लीजिए। यदि आपने वैसी चर्या बना ली तो ‘समन्तभद्राचार्य' डके की चोट कहते हैं, कि कौन कह सकता है, कि प्राणी संसार में दीर्घकाल तक रुकेगा और कौन कह सकता है कि वह संसारी रहेगा, किन्तु वह अग्रगण्य रहेगा, प्रतिभा स्थानों में उसकी उन्नति होगी, शरीर की सुडौलता की अपेक्षा भी उन्नति होगी। हुकूमत (सत्ता) की प्राप्ति, मन्त्री, राजा, महाराजा आदि उच्च पदों की उपलब्धि ऐसे हुआ करती है, जैसे किसी को अस्पताल में, या बाजार में चश्मा खरीदने के उपरान्त उसके साथ-साथ क्या मिल जाता है, चश्मा रखने का Cover और यदि यह भी नहीं तो काँच को पोंछने के लिए मुलायम मखमल का कपड़ा तो मिल ही जाता है। यह अपने आप नहीं मिलता किन्तु उसके साथ जुड़ी हुई जो वस्तु है उसके साथ मिलता है। उसी प्रकार सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्र जिसके पास है, वह फिर कभी संसार में भिखमंगा नहीं रह सकता, वह किमिच्छक दान देने की क्षमता रखता है, किमिच्छक दान किसे कहते हैं ? चक्रवर्ती जब दिग्विजय करके आता है तो सारी की सारी प्रजा यह इच्छा रखती है कि प्रभु आ रहे हैं बहुत कुछ दान हमें देंगे। चक्रवर्ती के पास लोग हाथ जोड़ कर चले जाते हैं और जाते ही चक्रवर्ती सबकी झोली भर देता है। जो जिस वस्तु को चाहता है वह उसे मिल जाती है, इसको कहते हैं किमिच्छक दान। तो केवल क्रियाकाण्ड की रचना समन्तभद्राचार्य जी ने नहीं की किन्तु रत्नत्रय की स्तुति की है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में इन तीनों रत्नों को उन्होंने किस प्रकार रखा यह मैं कह रहा हूँ। आपने इन लौकिक रत्नों को जिनकी लाख दो लाख रुपये, जो भी कीमत है, उन्हें हजार, दो हजार रुपये वाली Treasury में रख दिया, किन्तु सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्ररूपी रत्नों को किसमें रखा है। तो समन्तभद्राचार्य' कहते हैं, कि भैया! तीन लोक में यह सरलता से नहीं मिलते, तो फिर उन्हें रखने के लिए कौन सी डिबिया चाहिए? बढ़िया से बढ़िया आत्मा रूपी करण्डक चाहिए, मतलब ? मतलब यह है कि आप लोगों ने रत्न ही नहीं देखे हैं, तो करण्डक की खोज कहाँ से करोगे। रत्नत्रय का बहुमान कितना है ? ये रत्न कितनी कठिनता से प्राप्त होते हैं, इस बात को सोचे बिना आजकल हवा ऐसी चल रही है कि कोई चारित्र की चर्चा करता जा रहा है, तो कोई मात्र सम्यकदर्शन अथवा सम्यकज्ञान की चर्चा कर रहा है। ‘समन्तभद्राचार्य' कहते हैं कि मोक्ष मार्ग इन तीनों की एकता में ही होगा, मात्र एक में ही नहीं। मोक्ष मार्ग वही है जो मुक्ति तक पहुँचा दे, इसलिए उन्होंने इसका नाम धर्म कहा है। ऐसे धर्म रूपी रत्नत्रय को नीचे नहीं रखना चाहिए। इस जगत में रत्नत्रय के बिना कोई साधन नहीं है, भगवान् के पास भी चले जाओ, तो भगवान् भी रक्षा नहीं कर सकेगे, हमारी रक्षा इन तीन रत्नों के द्वारा ही होने वाली है, वह सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्र का वर्णन करने वाला 'स्नकरण्डक श्रावकाचार' मात्र क्रिया काण्ड वाला नहीं है किन्तु वास्तव में जो क्रियाकाण्ड है उनसे छुड़ाने वाला यह ग्रन्थ है। कौन सी क्रिया समीचीन है, और कौन सी क्रिया असमीचीन है, इन सब बातों का ज्ञान हम इस 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' के माध्यम से कर सकते हैं। श्रावकों का यह परम कर्तव्य होता है यह जो १५० श्लोक प्रमाण 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' है, इसका पठन-पाठन हमेशा करें। हमें यह भी ज्ञान नहीं है कि हमारा ज्ञान कहाँ तक बढ़ सकता है? हमें यह भी बोध नहीं है कि हमारे पास कितना चारित्र होना चाहिए? हमें यह भी ख्याल नहीं है कि दूसरे के प्रति हमारा कैसा व्यवहार हो? यह सब सिखाता है स्नकरण्डक श्रावकाचार। जो व्यक्ति स्वयं नहीं चल सकता, वह जो गिरा हुआ है उसको कैसे उठा सकेगा? और यदि उठाता भी है तो उसका कोई महत्व नहीं है। आचार्य कहते हैं कि जो स्वयं बलिष्ठ है, स्थिर है, लेकिन! जिनके पास ज्ञान बल नहीं है, ज्ञान की अपेक्षा चारित्र में दृढ़ता नहीं है, उन्हें वह उस स्थान तक ले आए जहाँ पर वह है। सम्यक्त्व के आठ अंगों में, प्रभावना अंग के बारे में उन्होंने कहा है - अज्ञान तिमिर-व्याप्ति,-मपाकृत्य यथायथम्। जिनशासन-माहात्म्य,-प्रकाशः स्यात्प्रभावना॥ १८॥र. श्रा. अज्ञानरूपी अन्धकार के विस्तार को हटाकर जिनशासन का माहात्म्य यथाशक्ति प्रकट करना प्रभावना अंग है। अज्ञान एक घने अन्धकार के समान है, जिस किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसा अन्धकार आ जाए तो उसे हटाने में समर्थ कौन है, जिसका ज्ञान हमें आज तक नहीं रहा है, पथ क्या है ? पाथेय क्या है ? इसकी हमें पहचान नहीं है। जिस वस्तु की कमी है, उसकी पूर्ति करा देना, यही तात्कालिक प्रभावना मानी जाती है, उसको न करके यदि हम बातें मात्र करते चले जायें, तो कुछ भी नहीं होने वाला। इस दिशा में जैन समाज का बहुत ही शिथिलाचार चल रहा है, लेकिन! विशेष रूप से यह बात खटकती रहती है, कि हमारे आचारों में-विचारों में भी इतनी शिथिलता आती जा रही है, उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। यदि इस समय समन्तभद्राचार्य होते तो वे यही कहते कि अब श्रावकों के लिए कोई दूसरा श्रावकाचार लिखने की जरूरत है, ताकि! वह वर्तमान के नामधारी श्रावकों के लिए एक नया बोध दें, गृहस्थ श्रावक की महिमा बताते हुए वे कहते हैं - गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निमोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुनेः॥ ३३॥र. श्रा. सम्यकदर्शन के प्रकरण में यह श्लोक आया है इसमें मुनि को ऐसा गिरा दिया, ऐसा गिरा दिया कि कुछ पूछो मत! यह समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों किया? बिल्कुल ठीक है, जो व्यक्ति अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं करता तो वह व्यक्ति स्वयं गिर जाएगा, उठने का कोई उपाय ही नहीं। चौपात पर आप साईकिल पर जा रहे हैं जाते-जाते साईकिल Slip हो गई और आप धड़ाम से नीचे गिर गए और चौपात की बात है, चौपात है कितने लोग देखेंगे, सभी लोग देखेंगे वहाँ पर आप यह नहीं देखते कि पैर में लग गया है कि नहीं लगा, खून बह रहा है कि नहीं बह रहा और बिना देखे ही, किसी ने देखा तो नहीं, यहाँवहाँ देखकर जल्दी से साईकिल उठाकर भाग जाते हैं, मान लो कोई कहता भी है कि अरे! भैया लग गई वह कहता है कि नहीं नहीं। ऐसा क्यों होता है ? यह मर्यादा है, गिरना अच्छा नहीं माना जाता, वह भीतर से गिरना अच्छा नहीं समझता इसलिए लगी हुई चोट पर ध्यान नहीं देता हैं, उसी प्रकार आचार्य कहते हैं, यदि कोई मुनि लिंग धारण कर ले और मोही बन जाए, तो यहाँ पर कहने का मतलब यह है कि निर्मोहअवस्था को प्राप्त करने के लिए यह साधना थी लेकिन! निर्मोह अवस्था तो प्राप्त नहीं हुई, किन्तु उलझ गया मोह में, मायाजाल में, फैंस गया, तब उसके सामने उस गृहस्थ को लाकर रख देते हैं जो निर्मोही है और कह देते हैं कि अरे! तेरे से तो अच्छा यह गृहस्थ है जो कर्तव्य पर डटा है, लेकिन ‘समन्तभद्र महाराज ने ऐसा कहीं भी नहीं लिखा कि फिर तुम उस गृहस्थ की पूजा करो, यहाँ तक कहा है, कि यदि गृहस्थ है, श्रुत में पारंगत भी है, तो भी उसकी छाया मत पड़ने दीजिए अपने ऊपर, ऐसा क्यों कहा? गृहस्थ है, क्षायिक सम्यकद्रष्टि भी हो सकता है, ज्ञान भी है, तब फिर वह मुनि जाए उस गृहस्थ के पास और उसकी पूजा करे, नहीं फिर आपने तो कह दिया कि मोक्षमार्ग पर आरुढ़ की पूजा करनी चाहिए। वह गृहस्थ मोक्षमार्ग पर आरुढ़ हैं किन्तु साधु तो मोक्षमार्ग पर आरुढ़ नहीं रहा, इसलिए गृहस्थ की तो पूजा करनी चाहिए। किन्तु नहीं.नहीं, मेरा कहना तो यह है कि अरे! निर्मोहपने को प्राप्त कर ले, फिर उस मोही गृहस्थ के पास तीन काल में नहीं जाना। अभी तो आप गृहस्थ को मोक्षमार्ग पर आरुढ़ कह रहे थे और अब मोही कहने लगे हाँ.हाँ गृहस्थ जैसा मोही भी कोई नहीं। विषय कषायों में आमूलचूल रचा-पचा वह कैसे निर्मोही हो सकता? अपेक्षा की बात लेकर के चलना चाहिए। मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना अत्यन्त आवश्यक है उस मुनि के लिए उसके बिना लक्ष्य की पूर्ति, मंजिल की प्राप्ति नहीं हो सकती। एक बात और कहना चाहूँगा कि इस संसार में जितने भी स्कूल कॉलेज हैं, उन सब स्कूलों में, कॉलेजों में ३३ या ३६ नम्बर मिलने पर विद्यार्थी पास माना जाता है, ४४ अंक से ऊपर बढ़ गये तो Second Division मानी जाती है या ४६ नम्बर मिलने पर god Second यानि Near about first class मानी जाती है और यदि ६० नम्बर मिल जाते हैं तो कहना ही क्या? बड़े-बड़े प्रोफेसरों के द्वारा पुरुस्कृत हो जाते हैं और उसमें भी यदि ७० प्रतिशत के ऊपर चले जाते हैं तो फिर कहना ही क्या? फिर वह कुलपतियों के द्वारा भी सम्मानित हो जाता है और वे कहते हैं कि भैया! मैंने भी जीवन में इस कक्षा में इतने नम्बर नहीं पाए जो तुमने पा लिए, इसलिए हम कम से कम तुम्हारा सम्मान करके ही खुशियाँ मना लेते हैं। यह तो रही लौकिक क्षेत्र की बात। हमारे कुन्दकुन्द महाराज, समन्तभद्र महाराज, तब तक टोकते रहते हैं, तब तक कान पकड़ते हैं, जब तक १०० नम्बर में से एक भी नम्बर कम रहता है। कितना कठिन हो गया, सौ बाई सौ नम्बर लेने वाला कोई है यहाँ और जब तक उसे सौ बाई सौ नम्बर नहीं मिल जाते तब तक वह पास नहीं माना जाता। Supplementry से घिसते-घिसते पास होना बात अलग है। आप कहेंगे महाराज Fail का अर्थ फेल होता है, Supplementry का अर्थ फेल नहीं होता.हाँ भैया! यह परिभाषा बना दी गई है। जब हम पढ़ते थे, उस समय Supplementry नहीं थी और आज तो तीन-तीन विषयों में Supplementry आती है, यह सब लौकिक क्षेत्र में पास करने की बात है, कैसे भी उठा दो, घसीटते-घसीटते ले जाओ! लेकिन ऐसा यहाँ पर बिल्कुल भी नहीं होगा। जैनधर्म का अर्थ एक प्रकार से चलना है, चलने के लिए, विचारों के लिए और अधिगम के लिए इस प्रकार के प्रतिशत रखे गए हैं, इसमें एक भी नम्बर की कमी नहीं हो सकती। आप सुनो सोचो और चलो तो मालूम होगा कि कितना कठिन काम है यह। बिल्कुल ध्यान रखना, यदि थोड़ी भी कमी रह गई, तो फिर मंजिल नहीं मिल सकती। मंजिल की प्राप्ति के लिए पूरी की पूरी तैयारी करनी पड़ेगी किन्तु बच्चे बहुत होशियार होते हैं, ज्यों ही अप्रैल, मई आने लगती है, त्यों ही वे कहने लगते हैं कि हम इस साल परीक्षा में नहीं बैठेगे। क्यों नहीं बैठेगे भैया! हम तो Division बनाना चाहते हैं, क्योंकि फेल होने की संभावना रहती हैं और Division आ रही हो तो कह देते हैं कि हम तो Merit में आना चाहते हैं, यह सारी की सारी कमजोरियाँ यहाँ नहीं चलेंगी। जिस रत्नत्रय को महावीर भगवान् ने प्राप्त किया था, कुन्दकुन्दाचार्य ने प्राप्त किया था, उसी रत्नत्रय को हम लोगों ने प्राप्त किया है। वह काल.वह संहनन आज नहीं है फिर भी कोर्स वही है। कोई भी अन्तर नहीं है। आज कल के कैसे बच्चे हैं कोर्स के लिए हड़ताल करते हैं हम भी भगवान् के सामने हड़ताल कर लें.नहीं.नहीं यह संभव नहीं है। आठ अंग वाला सम्यकदर्शन है इतना काल व्यतीत हो गया इसलिए कम से कम कुछ अंगों में तो कमी कर दो, किन्तु ऐसा नहीं चलेगा और ज्ञान और चारित्र में भी किसी प्रकार की कमी नहीं चलेगी। जब भगवान महावीर जैसा सुख प्राप्त करना तुम्हारे लिए इष्ट है, तो भगवान महावीर बनकर ही काम करना पड़ेगा, जो मोक्षमार्ग महावीर के समय में था, वही मोक्षमार्ग आज है और आगे भी रहेगा, किन्तु आप लोगों की प्रवृत्तियाँ कितनी बिगड़ चुकीं हैं और वे प्रवृत्तियाँ इतनी अधिक मात्रा में बिगड़ चुकी हैं कि क्या बताऊँ ? बच्चे भी स्कूल से हमेशा छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ चाहते हैं, छुट्टी के नाम से विद्यार्थी ऐसे फूल जाते हैं, जैसे बसन्त में टेसू के फूल फूलते हैं। किन्तु! परिश्रम देखते ही मुरझा जाते हैं। आज इस कलिकाल में भी रत्नत्रय की प्ररूपणा ही नहीं बल्कि उसका पालन और अनुभव भी किया जा रहा है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि वह गृहस्थ उस मोही मुनि से भी श्रेष्ठ है, जो गृहस्थ निर्मोही है। आचार्य देव ने उलझे हुए मुनियों को सुलझे हुए गृहस्थों के उदाहरण दिये हैं और ऐसा कथन सुनकर गृहस्थ फूल न जाए इसलिए उलझे हुए गृहस्थों को सुलझे हुए पशुओं के भी उदाहरण दिये हैं। तथापि उलझे हुए मुनि का भी कितना महत्व है, इस बात को बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जब उलझा हुआ मुनि सुलझे हुए गृहस्थ के द्वार पर आहारार्थ पहुँचता है और यदि वह गृहस्थ तीन बार नमोऽस्तु कहकर विधिपूर्वक पड़गाहन करता है तब कहीं उसके यहाँ जाकर महाराज आहार करते हैं, अन्यथा नहीं। यह ध्यान रखना कि गृहस्थ की दुकान उन्हीं के माध्यम से चलने वाली है, इस प्रकार कहने का मतलब यह है कि जब तक तुलना नहीं की जाती तब तक व्यक्ति ऊपर नहीं उठता। अत: इस प्रकार की तुलना आवश्यक है। समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द देव एक स्थल पर कहते हैं जह कणयमग्गितवियं पि कणायसहावं ण तं परिच्घयदि । तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणितं॥१९१॥ (समयसार, संवराधिकार) जिस प्रकार अग्नि से तपाने के उपरान्त भी कनक अपने कनकत्व अर्थात् स्वर्णपने को नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार कर्मरूपी महान् अग्नि के द्वारा तपने के उपरान्त भी ज्ञानी लोग अपने ज्ञानीपने को नहीं छोड़ते हैं, जैसे पांडव, कितने थे ? पाँच थे (धर्म, भीम, अर्जुन,नकुल और सहदेव) जिसमें से धर्म, भीम और अर्जुन ये तीन तो मुक्त हो गए और शेष दो को मुक्ति का लाभ नहीं मिला। किन्तु सर्वार्थसिद्धि गए, यह सर्वार्थसिद्धि क्या वस्तु है ? तो आप जानते ही हैं षट्खण्डागम जैसे महान् ग्रन्थों की वाचना सुन रहे हैं। यह सबसे ज्यादा सुखमय और पुण्य के फल स्वरूप तैतीस सागर वाली आयु है, वहाँ पर दोनों तैतीस सागर के लिए अटक गए। यहाँ पर यह बात सोचनीय है कि जो नकुल और सहदेव सर्वार्थसिद्धि को गए हैं वे बिना रत्नत्रय के नहीं गए हैं और वे दोनों एक ही भवावतारी हैं। वहाँ से आकर नियम से मुक्त हो जायेंगे, रत्नत्रय का फल मुक्ति होता है, सो वह उन्हें मिला नहीं। क्या कमी रह गई उनके अन्दर, तो हमने पहले जो उदाहरण दिया था कि ९९ नम्बर तो मिल गए लेकिन! एक नम्बर कम रह गया, यह कमी क्यों रह गई? वे उलझ गये, अब हम गृहस्थों का उदाहरण तो उन्हें दे नहीं सकते। गृहस्थ कैसा भी मोक्षमार्ग पर बने रहे, कदाचित् दर्शन मोह का क्षय भी किसी प्रकार कर ले, तो भी सर्वार्थसिद्धि तीन काल में नहीं जा सकता.नहीं जा सकता.नहीं जा सकता। अभी-अभी पाँचवीं पुस्तक में पंडित जी कह रहे थे कि वह गृहस्थ-श्रावक कितना भी प्रयास करे, तो भी सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकता, फिर ऐसा कथन क्यों? तो वस्तुत: भूमिका का वर्णन है, उन दो मुनियों की तुलना अब गृहस्थों के साथ की जाय क्या? नहीं.नहीं उनकी तुलना अब उन मुक्त हुए पाण्डवों के साथ करेंगे, कहना यह होगा कि देखो, उन्होंने अपने संकल्प को छोड़ा नहीं वह अपने संकल्प से डिगे नहीं, ज्ञानी लोग अपने संकल्प से डिगते नहीं हैं, किसी भी प्रकार की कमी उन्होंने नहीं रखी और मोह का क्षय करके वे मोक्ष चले गए। उन जैसा शुभ कार्य तुमने किया नहीं। जिससे यह परिणाम निकला कि संसार का काल और बढ़ गया। संसार का एक अर्थ और समझना। संसार में चार गतियाँ हैं। गति से गत्यान्तर ले जाने में कारण है नामकर्म, और नामकर्म के साथ आयुकर्म का गठबन्धन रहता है, आयुकर्म ही संसार का कारण माना जाता है, इस आयुकर्म को ही आचार्यों ने संसार की संज्ञा दी है, अन्य कर्मों को नहीं, आयु है तो वह नियम से नाम कर्म का प्रबन्ध करेगा। इस प्रकार वह भव विपाकी प्रत्यय संसार में अटकाने वाली सामग्री बाद में देता जाएगा संसार में जो भी प्राणी अटके हुए हैं वे मात्र आयुकर्म की वजह से अटके हुए हैं। केवल ज्ञान होने के उपरान्त भी उस अनन्त शक्ति को आयुकर्म कह देता है कि चुप! बैठ जाओ, मेरे सामने कुछ नहीं चलेगा, जैसा हमने आपको अपने बन्धन में डाल दिया वैसा तुम्हें स्वीकार करना होगा। अनन्त चतुष्टय ले लो सब कुछ ले लो! अपने भी चतुष्टय चल रहे हैं, तुम अपने पास चतुष्टय रखो, किन्तु रहना पड़ेगा यही पर और इस आयु कर्म का जो बंध होता है, वह शुभ परिणामों के साथ ही होता है, शुद्धोपयोग को निरास्त्रव कहा है और शुभोपयोग को सास्त्रव कहा है। शुभोपयोग केवल संसार का ही कारण है ऐसी एकान्त धारणा नहीं बनाना चाहिए किन्तु वह परम्परा से मोक्ष का भी कारण है। शुभोपयोग के साथ आयुकर्म का बन्ध होने से उन्हें सर्वार्थसिद्धि जाना पड़ा और वह मोह के साथ ही चलता है। मोह भाव सो शुद्धोपयोग नहीं है, मोह सो पुण्य नहीं है, मोह सो शुभभाव नहीं है। किन्तु शुभभाव की भी क्या महिमा है ? तो आचार्य वीरसेन स्वामी जयधवला की प्रथम पुस्तक में कहते हैं | सुद्ध परिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तत्थयागुववत्तीदो। यदि शुभ और शुद्ध परिणामों में से कर्मों का क्षय न माना जाये फिर कर्मों का क्षय ही नहीं हो सकता। इन दोनों भावों के अलावा इस दुनियाँ में अन्य साधन नहीं है, जिससे कर्मों का क्षय कर सके। इसलिए क्या करना चाहिए? तो शुद्धोपयोग की भूमिका हो तो शुद्धोपयोग लिया जाये और यदि नहीं है तो शुभोपयोग अपना लिया जाये। किंतु ध्यान रखना ! रात के बारह बजे भूलकर भी शुद्धोपयोगी, अशुभोपयोग के पास नहीं जाता जिसको बोलते हैं, विषय कषाय में रचने रूप प्रवृत्ति, सहारा लेने योग्य नहीं है। पुण्य का आस्रव केवल संसार के लिए कारण है, ऐसी मान्यता अर्थों से मेल नहीं खाती। यदि इस प्रकार की धारणा किसी ने बना ली हो, तो उस धारणा को बदलना चाहिए, क्योंकि! यह भूमिका उनके लिए भी नहीं बन पाई, जो नकुल और सहदेव एक ही भवावतारी थे, शुद्धोपयोग की भूमिका से च्युत होकर उन्हें आयुकर्म का बंध हुआ। आयुकर्म बंधने के उपरान्त भले ही कोई उपशम श्रेणी चढ़ जाए लेकिन नीचे ही आना पड़ता है और जिस गति की आयु का बंध हुआ है, वहाँ जाना ही पड़ता है, इन्होंने शुद्धोपयोग की भूमिका में तैतीस सागर की आयु का बंध किया परिणाम स्वरूप इन्हें सर्वार्थसिद्धि में इतने काल तक रहना पड़ रहा है। फिर भी बालब्रह्मचारी रहते हैं। तत्वार्थसूत्र में एक सूत्र आया है - "परे प्रवीचारा:" (तत्वार्थसूत्र, अ. ४, सूत्र ६) अप्रवीचाराः परे, कौन? कल्पों से ऊपर जो विमान हैं, नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश, पाँच अनुतर विमानों में प्रवीचार नहीं होता, प्रवीचार का अर्थ है, मैथुन काम वासना का वहाँ पर कोई ठिकाना नहीं। ऐसा कहने के उपरान्त भी यह ध्यान रखना है कि वहाँ पर पुरुष वेद का अभाव नहीं है ऐसा क्यों हुआ? क्या कारण है ? यह बात अलग है कि पुरुष वेद का उदय तो रहेगा, क्योंकि वेदों का अभाव नवमें गुणस्थान के उपरान्त ही होता है और वह तो चतुर्थ गुणस्थान में है। अत: वेद तो रहेंगे लेकिन वेद का जो कार्य है वह कार्य नहीं होगा, फिर भी मैथुन संज्ञा मौजूद रहेगी। उस संज्ञा के प्रतिकार करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। उनको वेद के उदय में जैसे नीचे के स्वर्गों अथवा मनुष्यों में प्रवृत्ति होती है, वैसी उन लोगों में नहीं होती इसलिए वे बालब्रह्मचारी माने जाते हैं। इतने में ही आप समझ लो कि ब्रह्मचारी रह गये तो कितने कार्य से छुट्टी मिल गई, एक हाथ का उज्वल शरीर रहता है और तत्व चर्चा में ही अपना सम्पूर्ण काल व्यतीत करते हैं, फिर भी वह ऊपर से नीचे की ओर देख रहे होंगे," इस पपौराजी क्षेत्र में भीड़ क्यों हो रही है? वहाँ पर हम सभी चले जायें तो जल्दी हमारा कल्याण हो जाएगा। नरकाया को सुरपति तरसै, सो दुर्लभ प्राणी (बारह भावना) ऐसा क्यों हो रहा? इसलिए हो रहा कि वहाँ पर संयम नहीं है और यहाँ पर संयम है। स्वर्गों में मात्र चतुर्थ गुणस्थान तक ही उन्नति सम्भव है, लेकिन मनुष्य गति में तो चौदह गुणस्थान तक प्राप्त किये जाते हैं। आज वर्तमान में यहाँ पर चौदह गुणस्थान तो नहीं, किंतु ७ गुणस्थान अवश्य ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यदि आप छोटा सा भी संकल्प कर लोगे तो चतुर्थ गुणस्थान से पंचम समझते हैं जो कि श्रावक से भी गया बीता जीवन है, जहाँ पर जीवनपर्यन्त रत्नत्रय का पालन करने वाले मुनि भी पहुँच गये हैं और अब उन्हें वहाँ पर संयम की गंध भी नहीं आ रही है। तब आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि तुमने अपने ज्ञानीपने में बट्टा लगा लिया। आदिनाथ, भरत और बाहुबली इन तीनों ने पूर्व जन्म में मुनिव्रत धारण कर कठोर तपश्चरण किया था, फलस्वरूप तीनों सर्वार्थसिद्धि गए थे, वहाँ से चयकर, मुनि बनकर एक ही भव में मुक्त हो गए। यह जो उलझन है, इसका बड़ा कमाल हैं, मतलब यह कि सर्वार्थसिद्धि से सिद्धशिला की दूरी मात्र बारह योजन ही है, कोई देव चाहे कि वहीं से चला जाएं, जैसे आजकल अंतरिक्ष में चले जाते हैं। उसके साथ एक Machine और Shuttle रहती है, उसे नीचे उतार दिया जाता है किन्तु ऐसा यहाँ नहीं होता। इतना ही नहीं मेरु पर्वत की चोटी और सौधर्म स्वर्ग का जो पटल है उसमें एक बाल का ही अन्तर है, कोई चींटी पहुँच जाए, कोई भी व्यक्ति वहाँ से खिसक जाए, स्वर्ग में पहुँच जाए, कोई भी व्यक्ति वहाँ से बाल मात्र अन्तर का भी उल्लंघन नहीं कर सकता, क्योंकि वहाँ तक मध्य लोक की सीमा है और उसके उपरान्त ऊध्र्वलोक की सीमा है। ऊध्र्वलोक की सीमा में हवा अलग है वहाँ पर भी हवा है। वहाँ पर भी पानी है। वहाँ पर भी सब कुछ है। लेकिन व्यवस्था अलग है, वहाँ का वातावरण आप लोगों को हजम नहीं होने वाला। वहाँ पर जाने के लिए पासपोर्ट जो है, वह यहीं से बनाने पड़ते हैं। उस सर्वार्थसिद्धि को जाने के लिए रत्नत्रय का पासपोर्ट होना जरूरी है। सम्यकदर्शन और सम्यक्रचारित्र की बात फिर भी समझ में आ जाती है लेकिन ज्ञान के बारे में बड़ी सूक्ष्मता है, ज्ञान को मिथ्या होने में देर नहीं लगती। जो क्रोध के वशीभूत होकर, मान के वशीभूत होकर, लोभ के वशीभूत होकर कषाय कर देता है, तो उसका सम्यक्र धन कलंकित हो जाता है। उसका ज्ञान निर्मल नहीं माना जा सकता, वह भले ही चाहे अपने आप को सम्यकज्ञान कहता रहे। आचार्य कहते हैं उसका ज्ञान समीचीन नहीं रहा, क्योंकि डर के मारे, वह बदलता ही जा रहा है। यह बदलाहट, यह दल-बदलूपन व्यक्ति के अंदर विद्यमान गुणों को समाप्त कर देता है। सम्यकज्ञानी ही एक मात्र निष्पक्ष-निर्दलीय होता है, उसे दल पक्षपात से कोई मतलब नहीं रहता। आगमिक चर्या, आगम की बातें और आगम का यथार्थ श्रद्धान ही उसका पक्ष रहता है। जैसा वह रहता है, वैसा ही कहता है। उसकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं रहता। तीन लोक की सम्पति का भी उसे लोभ दिया जाय तो भी वह आगम के अर्थ में एक अक्षर का भी परिवर्तन नहीं कर सकता, इसी को आगम ग्रन्थों में सम्यकज्ञान कहा गया है। यह बात और विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार उलझे हुए मुनियों के लिए सुलझे हुए गृहस्थों के उदाहरण दिये हैं। उसी प्रकार उलझे हुए गृहस्थों के लिए सुलझे हुए पशुओं के भी उदाहरण दिए गए हैं। सुन रहे हो कि नहीं? रुनकरण्डक-श्रावकाचार में उदाहरण के लिए मेंढ़क आया है, कुत्ता आया है, शूकर आया है, मातंग आया है। मातंग किसे बोलते हैं ? चाण्डाल की। आज वह वर्ण नहीं है, जो इस प्रकार का हीन कार्य करता है, जिसे मात्र हिंसात्मक (फाँसी पर चढ़ाना) हीन कार्य करने के लिए नियुक्त किया जाता था। वे भी अहिंसात्मक के सिरमौर बन सकते हैं, और बने हैं। पूजन के लिए कोई सेठ साहूकार पुजारी का उदाहरण उन्हें नहीं मिला, जो मेंढ़क का नाम रखना पड़ा। स्वामी समन्तभद्र बहुत आगे के परीक्षक थे, इसलिए मोक्षमार्गस्थो कहकर उठा भी देते हैं, लेकिन कोई घमण्ड करे तो उसको पशुओं के सामने लाकर रख देते हैं। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि अर्हच्चरणासपर्या, महानुभावं महात्मनामवदत्। भेकः प्रमोदमत्तः, कुसुमेनैकेन राजगृहे॥१२०॥ एक भत भगवान् के चरणों की पूजन का इच्छुक एक छोटी सी पाँखुड़ी अपनी दाँतों तले दबाकर जा रहा है, फुदक-फुदक कर मुँह में लेकर वह मेंढ़क राजगृह नगर में पूजन की महिमा बतलाने वाला उत्तम श्रावक माना जाता है, अब यदि मेंढ़क के साथ आपकी तुलना की जाए तो क्या होगा भैया? यह बिल्कुल ठीक है कि भावों की बात है लेकिन आप लोग तो यही कहेंगे कि महाराज जमाना पलट गया है, इसलिए कुछ-कुछ चल जाता है। नहीं, बिल्कुल नहीं! अब ऐसा चलने वाला नहीं है। जब जैन कुल है तो मद्य, मांस, मधु की बात नहीं करनी चाहिए। किसी ने कहा, महाराज! सम्यकदर्शन के साथ इनके त्याग का कोई सम्बन्ध नहीं, तो वह व्यक्ति ऐसा कहकर शिथिलाचार पनपायेगा और एक दिन भार बनकर सम्पूर्ण समाज को डुबोने में कारण बन जाएगा। सप्त व्यसन, रात्रि भोजन, अभक्ष्य भक्षण और अनुपसेव्य चीजों का तो जैनी को हमेशा के लिए त्याग करना ही चाहिए। यदि कोई ऐसा उपदेश देता है कि मात्र सम्यकदर्शन को सुरक्षित रखो, त्याग अलग वस्तु है, सम्यकदर्शन अलग वस्तु है, बाह्य दुश्चरित्र से सम्यकदर्शन का कोई सम्बन्ध नहीं तो नियम से उसका गुणस्थान बदल जाएगा। उसमें कारण यह है कि उसकी उस प्रवृत्ति से उस उपदेश से सारी की सारी समाज उसका समर्थन करने लग जाएगी। सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्रचारित्र आत्मा की वह भीतरी परिणति है, जिसका अन्दाज हम इन चर्म चक्षुओं से नहीं लगा सकते। जाति कुल और परम्परा से बंधकर के धर्म नहीं चलता है। मैं जैन हूँ इसलिए मेरे पास चारित्र हो गया ऐसी कोई बात नहीं है। धर्म का सम्बन्ध देहाश्रित कम हुआ करता है बल्कि आत्माश्रित ज्यादा। एक मुनिराज आत्मा में लीन हैं, शान्ति के साथ गुफा में बैठे हुए हैं, तत्व चिन्तन चल रहा है, कहाँ पर क्या होने वाला है, कोई पता नहीं किसी को और किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं। यह गाथा उनके मानस पटल पर तैर रही है अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदा रूवी। णवि अत्थि मज्झ किंचिवि,अण्णं परमाणुमित्तंपि॥४३॥ मैं शुद्ध बुद्ध एक आत्म तत्व हूँ। निष्कलंक निरंजन ज्ञान दर्शन रूप उपयोग के अलावा अणु मात्र भी मेरा नहीं है। इस प्रकार शुद्धोपयोगमयी आकिंचन्य भावना भा रहे थे। इधर घटना दूसरी कि अभी-अभी एक सुख लाल व्यक्ति गुफा के अन्दर गया है, बहुत अच्छा शिकार है, मेरी सारी की दहाड़ एक शूकर ने सुनी, उस दहाड़ में सिंह का क्या उद्देश्य था यह भी वह समझ गया, किस ओर जाएगा और क्या करेगा इन सब बातों को शूकर तुरन्त समझ गया। शूकर शीघ्र ही सिंह के सामने आ धमका और कहता है-तुम उधर नहीं जा सकते, में जाऊँगा, सिंह ने दहाड़ते हुए कहा। कैसे जाओगे? मैं तो बीच में हूँ पहले मुझे अलग करो फिर बाद में ही गुफा में जा सकोगे, शूकर ने दृढ़ता से कहा, शेर गुस्से में बोला क्या कहता है ? जरा ध्यान से बोल, मैं वनराज हूँ। हाँ, तुम वनराज हो तो मैं भी वन में रहता हूँ, लेकिन आज राजा और प्रजा की बात है। राजा यदि अन्याय पर उतारू हो जाता है तो प्रजा उसे कभी नहीं छोड़ेगी। मैं तुम्हारे Under में रहने वाला प्राणी जरूर हूँ लेकिन मेरा प्रण है कि अन्याय करने वाले को कभी नहीं छोडूंगा चाहे मेरे प्राण भले ही चले जायें। शूकर ने नम्रतापूर्वक कहा-छोड़ दे रास्ता। शेर ने गर्वपूर्वक कहा। नहीं छोडूंगा, कदापि नहीं छोडूंगा। शूकर अपनी बात पर अड़ा रहा और कस्समकस्सा आरंभ हो गया। शूकर भी अधिक बलशाली था। एक दूसरे को उलट-पुलट करने लगे। कस्समकस्सा गुत्थम-गुत्था होते होते दोनों का अवसान हो जाता है, उसके बाद क्या हुआ तो आप कहेंगे - अति संक्लेश भावतें मर्यो घोर श्वभ्रसागर में परयो॥ (छहढाला, प्रथम ढाल) दोनों ने लड़ाई लड़ी और ऐसी लड़ाई लड़ी कि अपने आपकी चिंता भी नहीं की। और अभी-अभी पंडितजी कह ही रहे थे कि जो अपनी आत्मा की हत्या करता है वह सबसे ज्यादा पापी माना जाता है। शूकर ने भी अपने आपको कस्समकस्सा में डाल दिया और सिंह ने भी, समझ में यही आता है कि दोनों का रौद्रध्यान था और कृष्ण लेश्या भी थी, इसलिये दोनों नियम से उतर गये होंगे सीधे नरक में किन्तु आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि नहीं, एक ऊध्र्वगामी हुआ और एक अधोगामी। शूकर स्वर्ग गया और सिंह नरक में। शूकर का अध: पतन क्यों नहीं हुआ? तो शूकर का परिणाम शुभ था, और सिंह का अशुभ था, सिंह का भाव मुनिराज के ऊपर प्रहार करने का था, क्या बात कह दी? बड़ी अद्भुत बात कह दी, वह हमला करने वाला शूकर स्वर्ग चला गया, इस प्रकरण से स्पष्ट हो गया बन्धुओ! परिणामों के द्वारा ही उन्नति और अवनति हुआ करती है, ऐसा कौन-सा दान था? जो उस शूकर ने दिया था, यह ध्यान रखना दान देना मात्र श्रावकों पर ही निर्धारित है, ऐसी बात नहीं है। यहाँ पर पशुओं के उदाहरण दिए जा रहे हैं, उसने आहार दान नहीं दिया, उपकरण दान नहीं दिया, औषध दान का तो प्रश्न ही नहीं उठता, ऐसा कौन-सा महान् दान दिया जिससे उसकी उन्नति हुई, उसने आवास-वसतिका दान दिया था, आवासदान का मतलब क्या है ? तो जहाँ पर धर्म ध्यान किया जाता है, उस क्षेत्र की और ध्यान की रक्षा करना है। धर्म ध्यान करना या धर्म ध्यान करने वालों की सुरक्षा करना दोनों एक ही बात है। इसका मतलब यह नहीं कि धर्मध्यानी यह कह देते हैं कि भैया! मेरी रक्षा करना मैं सामायिक में बैठ रहा हूँ। धर्मध्यान में लीन उन मुनि महाराज को जब शरीर की ही चिंता नहीं तो बाहर क्या हो रहा है ? इसका विकल्प भी कैसे हो सकता है और मेरी कोई रक्षा करे ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं ? मेरी रक्षा संसारी प्राणी कैसे कर सकते हैं। मेरी रक्षा मेरे रत्नत्रय के द्वारा ही होगी और उस रत्नत्रय का पालन मैं कर ही रहा हूँ। वे मुनि शुभोपयोग की भूमिका से उठकर शुद्धोपयोग में ऐसे लीन हो गए,भीतर अपनी आत्मा की अनुभूति करने लगे और फिर उनका उपयोग डाँवाडोल नहीं हुआ निश्चिंत, निराकुल, एकदम शान्त भावों की विशुद्धता बढ़ती गई। यह है आवास दान का माहात्म्य, शूकर सोच रहा था कि कहीं मुनिराज के ऊपर उपसर्ग न हो जाए, यदि उपसर्ग हो गया तो सम्भव है जिस प्रकार नकुल और सहदेव उलझ गए थे उसी प्रकार ये भी उलझ सकते हैं, इस प्रकार के दान देने वाले शूकर को उन्होंने कितने ऊपर उठाया। धन्य है शूकर का आदर्श! लेकिन पशुओं में महान् होने पर भी सिंह का नाम तक नहीं लिया, बिल्कुल नीचे कर दिया उसको, क्योंकि उसके परिणाम बिगड़े हुए थे। पापमयी थे, क्या खायें, क्या नहीं? इसका भी ज्ञान नहीं था। आज विद्वानों के द्वारा बड़े-बड़े गुणस्थानों की चर्चा तो की जाती है, आत्मा परमात्मा की चर्चा की जाती है, लेकिन खान-पीन के बारे में पूछा जाये तो आप कहते हैं कि हमारे यहाँ तो महावीर भगवान् ने समता रखने के लिए कहा है इसलिए हमें जो कुछ भी मिलता है, उसमें हम समता रखकर खा लेते हैं.। ध्यान रखना भक्ष्य-अभक्ष्य में समता नहीं किन्तु कर्मों के उदय में अपने लिए जो कष्ट, सुख-दुख आ जाते हैं उनमें हर्ष-विषाद नहीं करते हुए, नहीं उलझते हुए आगे बढ़ना है। हमारे आराध्य प्रभु! महावीर ने यही कहा कि- तुम भीतर जाओ और... तुम भी... तर जाओ भगवान् महावीर के समान वे मुनिराज ऐसे भीतर चले गए कि उन्हें न देह की चिन्ता, न सिंह व्याघ्र और शूकर की चिन्ता। एकमात्र आत्मा की सतत आराधना चल रही थी। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - कश्चिदेव भवेत् गुरु: (आप्तमीमांसा/४) आत्मा का कोई भी वीतरागी साधन गुरु बन सकता है। लेकिन! आचार्य विद्यानन्दजी और भी आगे बढ़ गए और वे कहते हैं - कः भवेत् गुरुः, चित् एव गुरुः। (आप्तपरीक्षा/४) यानि कि आत्मा ही गुरु है। इस परम गुरुरूपी आत्मा के अलावा संसार में अन्य कोई शरण नहीं है। अन्दर से रत्नत्रयात्मक आत्मा ही शरण है और बाहर से पंचपरमेष्ठी और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की शरण है, इसके अलावा किसी की भी शरण नहीं है। आपका यदि कोई काम बिगाड़ता है तो आप पंचायत की शरण में चले जाते हैं, और कहते हैं कि मेरा यह काम निपटा दो। उसी प्रकार साधक का बाहर यदि काम बिगड़ रहा है तो पंच परमेष्ठी की शरण में जाओ और निवेदन करो कि महाराज! मेरा यह काम निपटा दो, क्योंकि! मैं तो अल्पज्ञ हूँ कुछ जानता नहीं हूँ। और यदि बाहर का काम निपट गया तो तुम भीतर चले जाओ। इस प्रकार भेद और अभेद रत्नत्रय आराधना की जाती है, इस प्रकार की आराधना करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रुनकरण्डक श्रावकाचार जैसी अमरकृति की रचना करके हम लोगों पर बड़ा उपकार किया है। महाराज जी (आचार्य ज्ञानसागरजी) कहा करते थे, यह रत्नकरण्डक श्रावकाचार छोटी कृति जरूर है, किन्तु! वास्तव में इसमें रत्नत्रय की स्तुति की गई है। इस कृति में ४२ श्लोकों के द्वारा, सम्यकदर्शन, उसके अंग और फल का वर्णन किया है। इस प्रकार का विशद वर्णन कहीं अन्यत्र देखने में नहीं मिला। सम्यकज्ञान की प्ररूपणा पाँच कारिकाओं के द्वारा की गई है, एक लाक्षणिक कारिका है और शेष चार कारिकाओं के द्वारा, चारों अनुयोगों का वर्णन किया है। वर्तमान में अनुयोगों के बारे में यदि प्रौढ़ और दार्शनिक प्ररूपणा मिलती है तो एकमात्र आचार्य समन्तभद्र की है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में सम्यकज्ञान के बारे में वे लिखते हैं - अन्यूनमनतिरिक्त, याथातथ्यं विना च विपरीतात्। निःसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ ४२॥र.श्रा. जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता से रहित, अधिकता से रहित और विपरीतता से रहित निस्सन्देह जानता है, उस ज्ञान को गणधर, श्रुतकेवली सम्यकज्ञान कहते हैं। इस प्रकार सम्यकज्ञान का कथन करने के उपरान्त सम्यक्रचारित्र के लिए ४ कारिकायें लिखी । जिस मुमुक्षु भव्य प्राणी ने अज्ञान रूपी मोहान्धकार को समाप्त करके सम्यकज्ञान रूपी प्रकाश पा लिया है वह व्यक्ति फिर - मोह तिमिरापहरेण, दर्शनलाभादवाप्त संज्ञान: । रागद्वेष निवृत्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधु :॥र.श्रा. सज्जन वही होता है, जो राग द्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र को अंगीकार करता है। बन्धुओ! मनुष्य जीवन की दुर्लभता आप जान ही रहे हैं, और अज्ञान को हटाने के लिए यदि सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान है तो राग द्वेष को दूर करने के लिए नियम से चारित्र की शरण लेनी चाहिए। यदि सकल चारित्र को आप नहीं अपना सकते तो कम से कम देश चारित्र को तो अपनाना ही चाहिए। यही एकमात्र भगवान् का उपदेश है, इसी से मुक्ति का लाभ होने वाला है। और अन्त में वही पंक्तियाँ पुन: दुहराता हूँ - तुम भीतर जाओ और... तुम भी... तर जाओ॥
  7. पवित्र संस्कारों के द्वारा ही पतित से पावन बना जा सकता है। जो व्यक्ति पापों से अपनी आत्मा को छुडाकर केवल विशुद्ध भावों के द्वारा अपनी आत्मा को संस्कारित करता है, वही संसार से ऊपर उठकर मोक्षसुख को पा पाता है। धर्म इसी आत्म-उत्थान का विज्ञान है। विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं, इन सभी धर्मों में एक धर्म वह भी है जो प्राणिमात्र के लिए पतित से पावन बनने का मार्ग बताता है, उस धर्म का नाम है-जैनधर्म। जैनधर्म प्राणिमात्र के कल्याण की भावना रखने वाला धर्म है, आज इस धर्म की उपासना करने वाले और इसके अनुरूप अपना जीवन बनाने वाले साधक बहुत विरले हैं। धर्म के प्रचारक और प्रसारक बहुत हैं, जो अपनी सारी शक्ति प्रचार-प्रसार में लगा देते हैं, स्वयं को पतित से पावन बनाने का प्रयास नहीं करते। हमारा प्रथम कर्तव्य यही है कि हम स्वयं पाप से ऊपर उठे, स्वयं पतित से पावन होने का प्रयास करें। इस कलियुग में पुण्यात्माओं का सान्निध्य दुर्लभ है। तीर्थकर जैसे महापुरुषों का साक्षात् उपदेश सुन पाना दुर्लभ है, अब वे यहाँ हमें उपदेश देने नहीं आयेंगे, उनका दर्शन और समागम अब यहाँ होना असंभव है, इसके उपरान्त भी अभी धर्म टिका हुआ है, पंचम काल के अंत तक रहेगा, बीच-बीच में उत्थान-पतन होते रहेंगे, पतित से पावन बनाने वाले इस धर्म के उपासक संख्या में भले ही अल्प हों, लेकिन गुणों की उपासना होती रहेगी, यही इस धर्म की उपलब्धि है। कोई व्यक्ति पतित से पावन कैसे बने? यह बात विचारणीय है, हमें ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अपने आपको प्रारंभ से ही पावन मानता है, उसमें पावन बनने की कोई गुंजाइश ही नहीं है, पावन से पावन बनने का प्रयास भी कौन करेगा? पेट भरने का प्रयास वही करता है जो भूखा है, जो तृप्त है, जिसका पेट भर गया है, उसे प्रयास करने की आवश्यकता ही क्या है? तो पहले हमें जानना होगा कि हम पतित हैं और पतित होने का कारण हमारे स्वयं के बुरे कर्म हैं। संसार में भटकाने वाले भी यही कर्म हैं। जैनधर्म के प्रथम तीर्थकर वृषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थकर महावीर तक सभी ने इन कर्मों से विमुख होकर अपनी आत्मा को परमात्मा बनाया है। हमें भी इन कर्मों से बचने का उपदेश दिया हैं। उन्होंने कहा कि पापी से नहीं बल्कि पाप से बचो, यही उच्च बनने का रास्ता है, यदि पापी से घृणा करोगे तो वह कभी पुण्यात्मा नहीं बन सकेगा और घृणा करने वाला स्वयं ही पतित हो जाएगा। इसलिए संसार की अनादिकालीन परम्परा के मूल कारण-भूत कर्म को नष्ट करना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। जब तक बीज बना रहेगा, वृक्ष की उत्पति भी होती रहेगी। धर्म के माध्यम से कर्मरूपी बीज को जला दिया जाए तो संसार-वृक्ष की उत्पत्ति संभव नहीं है। अब आप कहेंगे कि कर्म-बीज को जलाने के लिए क्या करें? इसकी साधना कैसे करें? तो बंधुओ! रत्नत्रय के माध्यम से यह कार्य संभव है। रत्नत्रय अर्थात् सम्यकदर्शन, ज्ञान और आचरण के माध्यम से हम अपनी आत्मा के अनादिकालीन कर्म संस्कारों को समाप्त कर सकते हैं। रत्नत्रय के पवित्र संस्कारों के द्वारा पाप के संस्कारों से मुक्त होकर आत्मा शुद्ध बन सकती है। पवित्र संस्कारों के द्वारा ही पतित से पावन बना जा सकता है। जो व्यक्ति पापों से अपनी आत्मा को छुड़ाकर केवल विशुद्ध भावों के द्वारा अपनी आत्मा को संस्कारित करता है, वही संसार से ऊपर उठ पाता है। यह मात्र कल्पना नहीं है, यह सत्य है, यही सच्चा विज्ञान है। जैसे मिट्टी ऊपर उठना चाहती है, अपना उद्धार करना चाहती है-तो एक दिन धरती माँ से पूछती है कि माँ मुझे लोग पददलित करते हैं, मुझे खोदते, रौदते और तरह-तरह की यातनाएँ देते हैं, क्या मेरे जीवन में कभी ऐसा अवसर आएगा कि मैं भी सभी की प्रेम-भाजन बनूँगी? क्या ऐसा विकास मेरा भी संभव है? तब धरती माँ समझाती है कि हाँ, संभव है? लेकिन इसमें बड़ी साधना बतायी जायेगी उस प्रक्रिया को अपनाना होगा, तब एक समय ऐसा आयेगा जब सभी तुझे प्यार से संभालकर ऊपर रखेंगे। यदि पतित से पावन बनने का विचार तेरे मन में आया है, तो जब भी कोई कुम्हार यहाँ पर आये, उसके हाथों में अपने को समर्पित कर देना, रोना चिल्लाना नहीं, उसके प्रति द्वेषभाव भी मत करना, वह जो प्रक्रिया बताये उसे ग्रहण करना, वह जैसा करे, करने देना, कुछ भी प्रतिक्रिया मत करना, यही पतित से पावन बनने का सूत्रपात होगा। अच्छी बात है, मिट्टी प्रतीक्षा करती है, एक दिन कुम्हार आता है और फावड़े से मिट्टी को खोदने लगता है, अब मिट्टी क्या कहे? सब सहन करती है। उसे माँ की वाणी पर विश्वास है, वह अपने भविष्य को विकसित देखना चाहती है, इसलिए अपने को कुम्हार के हाथों में सौंप देती है। फिर कुम्हार उसे ले जाकर पानी डाल-डालकर रौदता है और लौंदा बनाकर चाक पर चढ़ा देता है, मिट्टी घबराती है, सोचती है, अब क्या करूं? ऐसा कब तक सहन करूं? चाक पर घूमते-घूमते चक्कर आने लगा, पर उसे माँ की बात ध्यान में आ जाती है कि विकास के रास्ते में सब सहन करना ही श्रेयस्कर है, वह सब सहन करेगी उसे माँ पर विश्वास है, जो संतान अपनी माँ के बताये हुए सत्यमार्ग पर विश्वास नहीं रखती, उसका विकास अभी और आगे कभी भी संभव नहीं है। आप लोगों ने शिखर जी की वंदना की होगी। एक-एक कदम ऊँचाई पर चढ़ना होता है। व्यक्ति हो तो सीने में दर्द होने लगता है, लेकिन ध्यान रखो, उन्नति का रास्ता यही है, परिश्रम के बिना हम कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। जो एक-एक कदम उठाता हुआ आगे रखता चलता है विकास की ओर, वही सफल होता है। लक्ष्यवान साधक सभी बाधाओं को पार करता हुआ आगे बढ़ता है। मिट्टी विकास की ओर अग्रसर है, सब कुछ समता भाव से सहन कर रही है। तब एक दिन वह कुंभकार के योग और उपयोग के माध्यम से कुंभ का रूप धारण कर लेती है। सोचती है कि यह तो एक नयापन मेरे अंदर आ गया है, ऐसा प्रयोग तो कभी नहीं हुआ था, अब वह सारे कष्टों को भूल गयी, सारी यातनाएँ विस्मृत हो गयीं, चाक के ऊपर घड़े के रूप में मिट्टी बैठी है। फिर उसे वहाँ से भी उठाकर कुंभकार धूप में रख देता है, मानो उष्ण परिषह प्रारंभ हो गया, घड़ा धीरे-धीरे थोड़ा सूखने लगा, एक दिन जब कुंभकार ने उसे हाथ में लेकर पानी सींचकर चोट मारना प्रारंभ किया, तब कुंभ सोचने लगा कि अरे! यह एक नयी मुसीबत और आ गयी, अब पिटाई हो रही है, पर धरती माँ ने पहले ही समझा दिया था कि यह पिटाई नहीं है, यह तो अंदर सोई हुई शक्तियों को उद्घाटित किया जा रहा है। अभी तो यह Previous है, पूर्वाद्ध है, अभी कुंभ कच्चा है, Final Examination (अंतिम परीक्षा) भी होगा, अवे में तपना होगा। अंतिम अग्नि परीक्षा होगी, जैसे ही कुंभ को अवे की अग्नि में रखा जाता है। वह सोचता है कि यह तो हमारा विकास नहीं, लगता है विनाश हो रहा है, यह कौन-सी पद्धति है। इतना अवश्य है कि माँ की बात अहितकारी नहीं हो सकती, विकास की ओर जाने के लिए जलना भी होगा, यह सोचकर कुंभ कोई प्रतिक्रिया नहीं करता और अग्निपरीक्षा में उतीर्ण होकर आ जाता है। उसे बाहर निकालकर कुंभकार धीरे से बजाकर देखता है, सब ठीक है, अब कुंभ में जलधारण करने की शक्ति आ चुकी है, अब कोई क्रिया शेष नहीं रही, इसी जल धारण की क्षमता पाने के लिए मिट्टी से कुंभ का निर्माण हुआ है, फिर ज्येष्ठ के महीने में बड़े-बड़े सेठ साहूकार भी सोने-चाँदी के बर्तन नहीं चाहते, उस समय तो शांति और शीतलता देने वाला मिट्टी का घड़ा ही अच्छा लगता है, सभी उसे फूल के समान हाथ में लिए रहना पसंद करते हैं, कोई उसे नीचे रखना नहीं चाहता, ऊँचे स्टूल आदि पर रखते हैं, प्यार के साथ, संभाल करके। अब पटक नहीं सकते। अपना अहंकार गलाकर, मान-अपमान सहन कर यह मिट्टी का विकास संभव हुआ है, पतित से पावन ऐसे ही बना जाता है। प्रत्येक आत्मा इसी प्रकार संस्कारों के माध्यम से अपना उत्थान कर सकती है। सभी संस्कार जन्म से नहीं आते। संस्कार पूर्व कर्मों पर आधारित नहीं है। वह तो धर्म पर आधारित हैं। संस्कारित होने वाली आत्मा तो चेतना है। चेतन के माध्यम से ही चेतन पर संस्कार डाले जाते हैं। जो अनंतकालीन संसार के संस्कारों को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। ऐसे उत्थान की ओर, संसार से मोक्ष की ओर ले जाने वाले संस्कार ही वास्तविक संस्कार है। मिट्टी अपनी घड़े बनने की निजी क्षमता को नहीं पहचान पाने के कारण अनादिकाल से पददलित होती आ रही थी। कुंभकार के माध्यम से अपनी क्षमता को पहचानकर, अपने को संस्कारों के द्वारा संस्कारित करके, उसे प्रकट कर लेती है। वृषभनाथ जैसे, पाश्र्वनाथ जैसे, बाहुबली जैसे और भगवान् महावीर जैसे अनंत जो सिद्ध हुए हैं, वे भी अपनी क्षमता को पहचान कर रत्नत्रय के संस्कारों से संस्कारित होकर सिद्ध हुए हैं। पहले से ही सिद्ध भगवान् नहीं थे। सिद्ध होने की क्षमता मिट्टी में कुंभ के समान अव्यक्त शक्ति के रूप में हर प्राणी में हुआ करती है। जिसे सुसंस्कारों के माध्यम से प्रकट किया जा सकता है। सिद्धत्व की प्राप्ति तभी संभव होती है। यही जैनधर्म का मूलभूत सिद्धान्त है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा परमात्मा बन सकता है। बहुत कम आत्माएँ संस्कारों की महत्ता को जान पाती हैं। उसमें भी बहुत कम आत्माएँ संस्कारों के माध्यम से जीवन को सफलता की ओर ले जाती हैं। आज बातें करने वाले बहुत सारे लोग मिल जाते हैं, पर ध्यान रखना, आत्म-स्वरूप की पहचान जब तक नहीं होती, तब तक मात्र बातें कर लेने से निवाण नहीं होता। कर्म से संस्कारित यह आत्म-तत्व कैसे कर्म से मुक्त हो, कैसे इसका विकास हो, कैसे संस्कार डाले जायें? इन सब बातों के लिए आत्मपुरुषार्थ अपेक्षित है, शरीर से पृथक् आत्म-तत्व है, उस आत्म तत्व का विकास करना हमारा लक्ष्य है तो सबसे पहले शरीर को अपने से पृथक् जानना होगा, उसे साधन मानकर उसका उपयोग करना होगा, शरीर साध्य नहीं है, वह तो साधन है। आचार्य समन्तभद्र महाराज ने इस बात को बहुत अल्प शब्दों में कहा है कि- अर्थात् स्वभाव से तो यह शरीर अपवित्र है, गंदा है लेकिन जब कभी शरीराश्रित आत्मा में रत्नत्रय का आरोपण होता है तो रत्नत्रय के द्वारा पवित्र शरीर में पूज्यपना आ जाता है। ग्लानि नहीं होती, बल्कि गुणों के प्रति प्रीतिभाव होता है, यही समीचीन दृष्टि है। जो इंद्रियों का दास बना हुआ है, विषय सामग्री की प्राप्ति में ही जीवन व्यतीत कर रहा है। शरीर को ही आत्म-तत्व मानकर उसकी सेवा में उलझा है। उसे अभी अपना वास्तविक स्वरूप समझना चाहिए, आत्म तत्व की ओर दृष्टिपात करके सोई हुई शक्ति को उद्घाटित करना चाहिए। जो व्यक्ति आत्मा का विकास करना चाहता है, उसे शरीरगत पर्यायों में नहीं उलझना चाहिए, शरीर तो स्वभाव से ही अशुचि रूप रहेगा, विकास आत्मा का करना है, इसलिए संस्कार शरीर का नहीं अपितु आत्मा का संस्कार करना है। मिट्टी के ऊपर मिट्टी का संस्कार नहीं किया जाता, मिट्टी के ऊपर जल और अग्नि के संस्कार कुंभकार द्वारा डाले जाते हैं, विकास का मार्ग यही है। महापुराण में एक प्रसंग आता है, कर्मभूमि के प्रारंभ में आदिब्रह्मा वृषभनाथ भगवान ने अपने राज्यकाल में तीन वणों की स्थापना की, इसके बाद उन्हीं के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने एक चौथे ब्राह्मण वर्ण की स्थापना और की, उसका आधार संस्कार था, जन्म से कोई सर्वथा उच्च नहीं होता। उच्चता कर्म से आती है, मात्र जनेऊ पहनने से कोई उच्च नहीं होता किन्तु जिनवाणी की आज्ञा पालन करने वाला रत्नत्रय के द्वारा आत्मा को संस्कारित करके उच्चता को प्राप्त करता है। भरत चक्रवर्ती ने चौथा वर्ण बनाने से पहले परीक्षा ली, तीनों वणों को दरबार में बुलाया, चक्रवर्ती की आज्ञा थी, इसलिए सभी व्यक्ति भागकर आये, जीवरक्षा का थोड़ा भी विचार नहीं किया, पर कुछ व्यक्ति सीधे रास्ते से न आकर घूमकर आये और थोड़ा विलम्ब भी हुआ, चक्रवर्ती ने पूछा कि ऐसा क्या कारण है कि आप सीधे मार्ग से न आकर घूमकर आये। तब बताया गया कि पर्व के दिन हैं, सीधे रास्ते पर नये-नये कोमल अंकुर उग आये हैं, पैर रखने के लिए जगह नहीं है, भगवान् की वाणी में यह बात आयी है कि वनस्पति कायिक जीव अनंत हैं, यदि हम उस सीधे रास्ते से आते तो उन जीवों का विघात होता। जीव हमें भले ही दिखाई न देते हों लेकिन जिनेन्द्र भगवान् की वाणी अन्यथा नहीं हो सकती। सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते । आज्ञा सिद्धं तदग्र्ह्मं, नान्यथावादिनो जिनाः॥ अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा गया तत्व सूक्ष्म है, उसे किसी हेतु या तर्क के द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता। वह इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य होने पर भी भगवान् की आज्ञा से मानने योग्य है, इसलिए भले ही थोड़ा विलम्ब हो गया, अधिक चलना पड़ा, लेकिन जीवरक्षा के लिए लम्बे रास्ते से चलकर हम आये हैं। भरत चक्रवर्ती ने कहा- बहुत अच्छा, परीक्षा हो गयी, तुम लोग पाप से विरत हो, व्रती हो, जीवदया रखते हो। त्रस जीवों के साथ-साथ स्थावर जीवों की भी रक्षा का भाव रखने वाला व्रती होता है। इसलिए उनका एक अलग ब्राह्मण-वर्ण बना दिया। महापुराण में जिनसेनाचार्य महाराज ने उल्लेख किया है कि समाज की व्यवस्था के लिए, उसके उत्थान के लिए ही सभी वर्ण बनाये गये हैं लेकिन अब सब कथन मात्र रह गया है। दया का पालन नहीं होता, संयम भी नहीं रहा, मात्र विषय कषायों के बहाव में सभी बहते जा रहे हैं, इसे ही विकास मान रहे हैं। बंधुओ! ग्रन्थों के प्रकाशन या प्रचार-प्रसार अकेले से हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। जिनवाणी के अनुरूप आचरण भी करना होगा, ग्रन्थ तो हमें निग्रन्थ होने के लिए प्रेरित करते हैं। वीतरागता की उपासना करने वाला, रत्नत्रय की आराधना करने वाला ही संस्कारवान है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार के निर्जरा अधिकार में आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए तीन गाथाओं में बहुत सुंदर ढंग से उल्लेख किया है, प्रक्रिया बतायी है, आत्मा के साथ लगे हुए रागद्वेष रूपी कर्म कालिमा को दूर करने के लिए यदि कोई रसायन है, कोई औषधि है तो वह सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्र चारित्र रूप रत्नत्रय ही है, इस औषधि से भावित करके आत्मा को तप रूपी अग्नि में तपाया या संस्कारित किया जाता है, तब आत्मा परमात्मा बनती है, जिसे भी परमात्मा बनना है, उसे एक न एक दिन इसी प्रक्रिया को अपनाना होगा। अपनी पुत्रवधू से सासुजी ने कहा कि बेटा, दही जमाना है। शाम होने से पहले एक भगौनी को साफ-सुथरा करके माँजकर के उसमें दूध को जामन डालकर रख देना। सुबह-सुबह घी तैयार करना है, पुत्रवधू ने हाँ कह दिया, सुबह उठकर जब सासु ने देखा दंग रह गयी, दूध जमा नहीं था, फट गया था, बात क्या हुई? दूध कैसे फट गया? बहू से पूछा कि क्या किया था? बर्तन ठीक से माँजा था कि नहीं? बहू ने कहा- माँ ठीक से माँजा था, देखो चमक रहा है। बर्तन ऊपर से चमक रहा था लेकिन भीतर ज्यों का त्यों था, अंदर से नहीं माँजा गया, यही चूक रह गयी। बंधुओ! संस्कार डालना आवश्यक है, माँजना आवश्यक है, लेकिन संस्कार मात्र ऊपरऊपर से न डाले जायें, अन्यथा दूध भी चला गया, दही भी नहीं मिला, घी भी नहीं बन पाया, भीतरी संस्कार आवश्यक है, जिनवाणी के माध्यम से પદ્રવીર, સમવિર अपनी आत्मा को जो बाहर—भीतर सब तरह से रत्नत्रय के द्वारा संस्कारित करता है, माँजता है, वही अपने शुद्ध परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। बाह्य शरीर को माँजने वाला कभी भी आत्म-स्वरूप को उपलब्ध नहीं कर सकता । अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि जिनवाणी माँ ही ऐसी माँ है जो अपने बेटे को हमेशा जगाती रहती है, मोहरूपी निद्रा में सोया हुआ यह जीव जिनवाणी माँ पर विश्वास करे तो आत्मविकास कर सकता है। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की उपासना, धर्म की उपासना का एक मात्र लक्ष्य आत्म-कल्याण होना चाहिए। आत्म–उत्थान होना चाहिए। वही अधिष्ठान है/सुख का मृदु नवनीत/जिसका पुन: मंथन नहीं है/वही विज्ञान है ज्ञान है निज रीत/जिसका पुन: कथन नहीं है/ और वही उत्थान है/ प्रिय संगीत जिसका पुन: पतन नहीं है।
  8. आज्ञा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जो यहाँ पर आज्ञा पालन करता है वही किसी दूसरे को आज्ञा देगा तो उसकी आज्ञा का पालन दूसरे लोग करेंगे। अत: आज्ञा पालन करते रहना चाहिए। दूसरे अगर अपनी आज्ञा का पालन नहीं करते तो समझना या समाधान करना कि हमने कभी आज्ञा का पालन नहीं किया होगा इसलिए तो दूसरे भी हमारी आज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं। देवों में इन्द्रों के यहाँ आज्ञाभंग माला मुरझाना आदि लक्षण ये बताते हैं कि पुण्य क्षीण हो रहा है, आयु समाप्त होने वाली है ऐसा एक चिह्न है। इन्द्र वही बनता है जो देव, गुरु, शास्त्र की आज्ञा का पालन करता है अथवा करके गया है। स्वर्गों में भी इन्द्र की आज्ञा प्राप्त करके ही कार्य करने का अनुशासन रहता होगा। स्वयं जो आज्ञा में रहता है उसके साथ अनेकों लोग आज्ञा में रह जाते हैं। जो स्वयं आज्ञा में नहीं रहते उसके साथ कौन रहेगा सोचो - स्वप्न में क्या दिन में भी सोचो तो भी नहीं होगा वैसा जैसा तुम स्वयं सोचोगे। सम्बल तो उस व्यक्ति को दिया जाता है जो आज्ञा मानता है। आज्ञा नहीं मानने वालों को क्या सम्बल दूँगा? समाज, संघ, गुरु की प्रभावना तभी होती है जब गुरु या बड़ों की आज्ञा के अनुकूल रहते हैं। आज्ञा अमृत की तरह होती है जो बहुत सोच विचार कर दी जाती है। मन मारकर नहीं खुशी-खुशी आज्ञा का पालन होगा तो उन्हीं से सम्बन्ध रखोगे उन्हीं को आज्ञा प्रायश्चित देंगे। जिसने आज्ञा का उल्लंघन किया उसने आगम का उल्लंघन कर दिया। आज्ञा पालन करने पर ऐसे ऐसे पल्लवित होते हैं कि हजारों को मार्ग मिल जाता है। जैसे घर परिवार में बड़े होते हैं उनकी आज्ञा में सब चलते हैं। ऐसे ही मोक्षमार्ग में जो बड़े होते हैं उनकी आज्ञा में छोटों को चलना चाहिए। जो देव, शास्त्र, गुरु की अविनय अवज्ञा करेगा तो कितना भी क्षयोपशम हो उसकी कोई महत्ता नहीं होती है। जो गुरु कहते हैं उसमें हओ, हाँ होता है तो क्षयोपशम बढ़ता है। वात्सल्य और बड़ों की विनय के बिना कोई भी कार्य प्रशस्तता से नहीं हो पाते हैं। बड़ों की आज्ञा मुख्य होना चाहिए। जो आज्ञा में स्वयं नहीं रहता है उसकी आज्ञा में अन्य कोई भी रहना नहीं चाहता है। आज्ञा पुण्य के कारण मिलती है। गुरु शिष्य का इतना ही सम्बन्ध है, गुरु आज्ञा देते हैं शिष्य आज्ञा लेता है बस इतना ही ये कटु सत्य है। सत्य इतना सूक्ष्म होता है उसे समझना बहुत कठिन होता है। एक बार जो भोजन करता है वह योगी, दो बार जो भोजन करे वह भोगी, तीन बार जो भोजन करता है, वह रोगी और जो चार बार भोजन करे तो मृत्यु होगी। ८० साल के हो गये हैं जो उनको कम से कम अपना मुंह दो बार चलाने का अधिकार है यह आगम की आज्ञा है। आज्ञा न सामान्य रहती है और न विशेष।आज्ञा तो आज्ञा है। धरती पर ही आज्ञा रहती है, ऐसा भी नहीं है। किन्तु देवगति में भी आज्ञायें रहा करती हैं। आगम की आज्ञा पालन करने के फलस्वरूप उनके पास ऐसी शक्ति आ गई है कि देव, दानव, असुर या सुर सभी उनकी आज्ञा में २४ घंटे रहते हैं। हम आज्ञा देना तो चाहते हैं, लेकिन आज्ञा का पालन नहीं करना चाहते। हम बड़े तो बनना चाहते हैं, किन्तु बड़ों का काम नहीं करना चाहते। इन्द्र की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला कोई देव नहीं, सभी आज्ञाकारी हैं। पहले उन्होंने (इन्द्र ने) अपने जीवन को असंयम में व्यतीत न करके, संयम से व्यतीत किया और आज्ञा का ऐसा पालन किया, जिसे आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं। जब तक आज्ञा सम्यक्त्व नहीं होगा, तब तक हमारा चारित्र, चारित्र की संज्ञा नहीं पा सकता। आज्ञा के माध्यम से ही हमारा संयम असंख्यात गुणी निर्जरा के लिए कारण हो सकता है। विधि-विधान/संविधान का उल्लंघन एक प्रकार से महान् आपत्तिजनक हुआ करता है। आज्ञा के माध्यम से ही शासन सुचारु रूप से चलता है। जिसके माध्यम से स्व और पर का जीवन संरक्षित होता है, हजारों, लाखों, करोड़ों जनता का उसी में हित निहित रहता है।
  9. आस्था, अनुभव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अविनश्वर सुख के लिए आस्था की आवश्यकता है। आस्था हमेशा परिस्थिति लेकर चलती है। आस्था का वास्ता मिलेगा और वह रास्ता मिलेगा मार्ग में नहीं मंजिल में मिलेगा। अहित में हित का श्रद्धान जो हम कर चुके हैं उसे पहले छोड़ें। आस्था को मजबूत करो। संवेग निर्वेग भाव को रखते हुए अनुभव वृद्धों की ओर भी देखा करो। अनुभव तक पहुँचने के लिए आस्था रखकर निरंतर अध्ययन की आवश्यकता होती है। राग का अनुभव हो और वीतरागता विज्ञान की बात करो तो वह हल्की फुल्की सी लगती है। अनुभव की बात नहीं होती अनुभव तो किया जाता है मंथन के द्वारा वह दूसरे के काम नहीं आता । अनुभव हीन जीवन होने से आस्था जिस विषय में होनी चाहिए थी वह नहीं हो पाती। जहाँ अनुभव, विश्वास की कमी होती है वहाँ शिक्षा कोई काम की नहीं होती। भारत में टाइम नहीं समय चलता है। समय एक प्रकार से द्रव्य का स्वभाव है। समय का जो मूल्यांकन करता है वह मौलिक अनुभवी माना जाता है। मोक्षमार्ग में आस्था हो लेकिन विषयी सुख में नहीं क्षणिक सुख के गर्भ में दु:ख का ही अनुभव होता है। यदि हमारे पास श्रद्धा नहीं है तो हमारा वैराग्य किसी काम का नहीं है। श्रद्धान के साथ वैराग्य होता है। अस्थिरता व अनास्था होती है तो फल नहीं मिलता आस्था स्थिर हो जाती है तो उसका फल सामने आ जाता है।
  10. आत्मा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार नाम के पीछे, दाम के पीछे और काम के पीछे सभी लोग आतम राम को भूले हुए हैं। पर घर आत्मा के लिए परतन्त्रता है। अर्थ की पगचम्पी न करो, वह अर्थ तो सेवा के लिए हाजिर हुआ है उसकी आप सेवा न करो। अपनी सेवा करो। अपनी आत्मा के स्वभाव को भूल जाना और दूसरे पदार्थ को पकड़ना चोरी है। हम अनादिकाल से दूसरे पदार्थों को पकड़ने के कारण चोर ही बने हैं,साहूकार नहीं बने। ‘खुदा का बन्दा' बनना असान है किन्तु ‘खुद का बन्दा' बनना कठिन है। खुद के बन्दे बनो। शरीर की ओर नहीं आत्मा की ओर दृष्टि रहे। जैसे-ऋषभनाथ भगवान् की काया ५०० धनुष और भगवान् महावीर की काया ७ हाथ लेकिन आत्मिक दृष्टि से समान थे। दृढ़ विश्वास रखो। स्वाश्रित रहने का स्वप्न देखा करो दिन में भी रात में ही नहीं। अनासक्त भाव सांसारिक विषयों से आसक्त भाव अपने प्रति रखो। स्वप्न से ही विकास अधिक होगा। स्वप्न साकार हो इसके लिए सावधानी आवश्यक है। स्वप्न में एकाग्रता रहती टेंशन नहीं होता। स्वयं को पहले सम्हालो फिर दूसरे को। दूसरा संभलें या नहीं लेकिन अपने आपको तो सम्हाले रखो इससे पल पल वेतन बढ़ रहा है। अपने आपको नियंत्रण में रखते हुए दूसरे को भी नियंत्रण में रखना कठिन है। वेग कितना भी तेज हो लेकिन नियंत्रण में वह गिर नहीं सकता। जैसे-सरकस में मौत का कुआं। वह सरकस वाला असंयमी होकर भी मौत से नहीं डरता हम तो संयमी हैं। उसे ये भरोसा रहता है मैं मरूंगा नहीं तभी तो वह दिखा रहा है। आत्मा भार रहित है शरीर के कारण भार रखता है। इसको हल्का करना है, ऊपर उठना है तो जो कमियाँ हैं उन्हें अलग करो। दुनिया की छोटी से छोटी वस्तु भी हमारे आकर्षण का केन्द्र बन जाती है और तीन लोक की सम्पदा से भरा हुए ये व्यक्तित्व भी जो छिपा हुआ है, उसके बारे में हम कभी भी सोचते तक नहीं। विषय सामग्री जितनी फैलती चली जायेगी इस धरती पर व्यक्ति उतना ही परांगमुखी होता चला जायेगा, आत्मोन्मुखी तो हो ही नहीं सकता। पहले अन्तर्मुखी और उर्ध्वमुखी हुआ करते थे, आज बहिर्मुखी हो रहे हैं और बहिर्मुखी होना इस युग का सबसे बड़ा अभिशाप है। आज दूरदृष्टि की आवश्यकता है दूरदर्शन की नहीं क्योंकि दूरदर्शन को देखने से आंखों की ज्योति खराब होती है और दूरदृष्टि रखने से हमारा मानसिक स्तर बढ़ता चला जाता है। जितनी दूरदृष्टि रखोगे, चिंतन की धारा उतनी ही डीप तक पहुँच जायेगी और जितनी गहराई में पहुँचोगे उतने ही माणिक मोतियों का खजाना आपको मिलेगा। अंग से हटकर अंतरंग में भी जाने का प्रयास करो। वेग बढ़ाओ आवेग/उद्वेग नहीं। वेग बढ़ाओ, निर्वेग बढ़ाओ और संवेग बढ़ाओ। संवेग और निर्वेग का विकास यदि होता है तो अपने आप ही वह अपने आप में लीन हो जाता है। हमेशा-हमेशा आत्म तत्व को/ परमात्मतत्व को मुख्य बनाओ। जड़ गौण हो जाये, उस पर हाइलाईट मत दो। जड़ के ऊपर हाइलाईट देने से आत्मतत्व व प्रभुतत्व, ये दोनों गौण होने से अंधकार सामने आ जायेगा। आज जड़ लक्ष्मी का आदर और चेतन लक्ष्मी का अनादर हो रहा है। आज तक जड़ (अचेतन) को कभी पसीना नहीं आया, आत्मा को ही आयेगा। जिसका सीना है उसी को पसीना आता है। स्वहित के बिना विश्व हित सम्भव नहीं। अविनश्वर सुख शांति का वैभव, अनन्त गुणों का भण्डार तो हमारे भीतर ही है और हम इसे भूलकर बाहर हाथ पसार रहे हैं। अस्सी साल का वृद्ध भी दिन भर में कम से कम एक बार दर्पण देखने का अवश्य इच्छुक रहता है किन्तु आत्म-तत्व देखने के लिए आज तक किसी ने विचार नहीं किया। दूसरे का खण्डन नहीं, अपना मण्डन होना चाहिए। यह कोई नहीं सोचता कि ऐसा कौन सा दर्पण खरीद लू जिसमें मैं अपने आपका वास्तविक रूप देख सकूं। आकर्षण का केन्द्र शरीर न होकर उसमें रहने वाली आत्मा ही हो जाये। संसारी प्राणी ने आज तक पवित्रता का आदर नहीं किया है और अपवित्रता को ही गले लगाया है। यही कारण है कि उसे आत्म-तत्व का परिचय नहीं हुआ, जो ज्ञान दर्शन लक्षण वाला आत्मा है उसका दर्शन नहीं हुआ। पदार्थों की ओर होने वाली दौड़ ही व्यक्ति को कंगाल बनाती है, जो अपने में स्वस्थ है, उसके पास मौलिक सम्पदा आज भी है। बाहरी विषयों के साथ सम्बन्ध रखने वाला शुद्ध आत्मतत्व के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोच सकता । जो दुर्लभ वस्तु होती है उसको प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती है, इन कठिनाइयों को पार करना ही कुशलता है क्योंकि ध्रुव की ओर जाना है इसलिए इधर उधर की बातों से बचिए। जिसको अपनी कीर्ति, नाम की इच्छा नहीं रहती है, वही आत्मा की भक्ति कर सकता है। जब तक बालक कमजोर है तब तक ही पिता जी का हाथ पकड़ कर चलता है, बाद में स्वयं चलता है। इसी प्रकार प्रभु की भक्ति भी जब तक मोक्ष का रास्ता नहीं दिखे तब तक करना है, उसके बाद आत्मा की भक्ति करना है। जो आत्मा का दास है वह तकलीफ नहीं देता, जो आत्मा को दास बनाता है फिर उसका दुर्भाग्य ही है। ब्रह्मचारी आत्मा की ओर देखता है और विषयी शरीर की ओर देखता है। ब्रह्मचारी वह है जो दूसरों को पकड़ने की चेष्टा न कर अपने आपमें रमण करने की चेष्टा करे। आत्म-पथ में कठिनाइयाँ ही तो सफलता का भवन बनाती है अत: हमको आत्म प्रकाश की खोज हमेशा करना चाहिए। जो अपने निकट नहीं रहता वह अभ्यस्त और अभ्यास से दूर है। अपने आपको याद करना सबको आता है, स्वभाव को याद करना नहीं आता है। अपने आपको याद करते हैं तो भी पर्याय को, द्रव्य को, गुणों को लेकर नहीं करते। गुणों को याद करना ही दया है। मोह के उदय में स्वयं को गाफिल न होने देना ही आत्म पुरुषार्थ है। आत्मा समझ में नहीं आता तो अनात्मा को तो समझ लो। अन्य सम्पदा से प्रभावित होने पर आत्म सम्पदा अनादर को प्राप्त होती है। आत्मा के वैभव का दर्शन बाह्य सम्पदा के रहते हुए नहीं हो सकता। चक्रवर्ती को भी यह सम्पदा फेंकना पड़ी तभी आतम का वैभव मिला। सभी आत्म निर्भर हो जाओ, भार रहित हो जाओगे। आत्म परायणता मात्र व्रती का ही कार्य है। आत्म तत्व में परायण करने वाला पंचेन्द्रिय विषयों का रस छोड़ देता है। पर को भूलने की कला सीख लो स्व (आत्मतत्व) प्राप्त हो जायेगा। भीतर आगमन नहीं हुआ तो आगम से कुछ प्रयोजन नहीं सिद्ध होगा। यह मेरा है, मैं इसका हूँ ऐसा भाव जब तक नहीं छूटता तब तक आत्मा नहीं दिखेगी। स्व संवेदन को छोड़कर अन्य कुछ हमारा व्यक्तित्व नहीं है। बाह्य चित्र को देखते हुए उसे गौण करिये तभी अंतरंग दिखेगा। स्व में स्थिर होना स्वस्थ होना है स्वस्थ का जो भाव है वह स्वास्थ्य है। ऐश्वर्य का मोह सत्य से विचलित कर देता है। चारों गति रूप आवागमन से मुक्त होना ही सच्चा पुरुषार्थ है। यही कल्याणकारी है। शरीर का कल्याण नहीं करना है, हमें आत्मा का कल्याण करना है। वास्तव में आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए ही तुमने मानव शरीर धारण किया है। यदि तुम उस ओर नहीं चले तो तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा। देखो ! अब तक जो भूल हो गई है उसके लिए पछताने से कोई लाभ नहीं है। जीवन के जितने दिन बाकी हैं उन्हीं को दृढ़ संकल्प करके 'आत्म-चिंतन' में लगाकर जीवन को सफल कर लो। ऐसा नर भव बार-बार नहीं मिलने वाला। आकाश के फूलों से बन्ध्या के पुत्र के लिए सेहरा (मुकुट) बनाने का प्रयास करने वाला जैसे मूर्ख माना जाता है, वैसे ही रत्नत्रय अर्थात् महाव्रत को स्वीकार किये बिना जो आत्मध्यान करने की इच्छा करता है वह मूर्ख माना जाता है। शरीर के प्रति वैराग्य और जगत के प्रति संवेग ये दो बातें ही आत्म कल्याण के लिए आवश्यक है। लक्ष्य बनाओ भार उतारने का, बढ़ाने का नहीं और यह तभी हो सकता है जब आप याद रखेंगे-तेरा सो एक, जो तेरा है वह एक।
  11. आस्था विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आस्था के बिना भी जो चारित्र का पालन है, उससे भी कर्म निर्जरा नहीं होगी। अत: आस्था भी आवश्यक है। जैसे पृथ्वी आदि स्थावर जीवों का विस्तृत ज्ञान तो था अभव्यसेन मुनि को, लेकिन आस्था नहीं थी इसलिए कर्मनिर्जरा नहीं हुई। रेवती रानी ने उनको नमस्कार नहीं किया। हरी पर चले, झरने का जल लिया आदि। आस्था में प्रवेश करने के बाद निष्ठा दृढ़ होती है। आस्था का विषय भूलने में न आए प्रतिष्ठा से बचना है। श्रद्धा के आधार पर ही चारित्र का भवन निर्माण होता है। आस्था और बोध संयम के उपासक है। देव, शास्त्र, गुरु के प्रति श्रद्धा निष्ठा से कीर्ति अपने आप बढ़ती जाती है। गुणों के प्रति ही श्रद्धा होती है, शरीर के प्रति नहीं शरीर से तो मोह होता है। भक्ति करने से बाह्य रूप एवं अंतर का स्वरूप सुंदर स्वच्छ प्राप्त होता है। वैभव प्राप्त होना ही भक्ति का प्रयोजन नहीं है बल्कि भव बंधनरूपी कर्मों का क्षय होना मुख्य प्रयोजन है। धर्म की शुरूआत तब होती है जब लिए गये संकल्प के प्रति दृढ़ता और आस्था होती है। जब तक अहिंसा धर्म में आस्था और आत्मा की भावना नहीं होगी तब तक उन्नति नहीं होगी। जो आस्था और प्रतिज्ञा में कमजोर होता है वह कभी आत्मोन्नति नहीं कर सकता है। धारणा जिसकी पक्की होती है वह मंजिल प्राप्त कर लेता है। आस्था में कमी आने से ज्ञान में कमी आ जाती है और लिया हुआ संयम डाँवाडोल होने लगता है। आस्था ज्ञान और संयम में कमी होने से विकास तो दूर रहा उल्टे विनाश की ओर कदम बढ़ जाते हैं। आस्था कम आशा अधिक रखकर जीवन जीना ही भविष्य की चिन्ता का कारण है। आशा कम और आस्था/विश्वास अधिक होने पर भविष्य निश्चिंत होगा। विफलता हाथ लगने से मनुष्य निराश हो जाता है जबकि विश्वास/आस्था से ओतप्रोत चींटी भी पर्वत पर चढ़ जाती है। आस्था/विश्वास ही सफलता की नींव है। आस्था दु:ख सुख की अनुभूति से परे होती है। आस्था एवं प्रयोग के कदमों से सफलता की सीढ़ी सरलता से चढ़ सकते हैं। दृश्य को पाने के पहले दृश्य को देखने से भी सुख प्राप्त होता है इसी को आस्था कहते हैं। सांसारिक सुखों में निकांक्षित सम्यक दृष्टि आस्था नहीं रखता। सम्यक दृष्टि तो अर्थ सम्पत्ति में नहीं परमार्थ में आस्था रखता है। श्रद्धान उन गुप्त स्थानों तक ले जाता है, जहाँ आज तक नहीं गये। आचार्यों के वचनों पर जब विश्वास हो जाता है तब फाउण्डेशन/आधार हो जाता है फिर प्रासाद भी खड़ा होने में देर नहीं उद्धार होने में देर नहीं। विश्वास विषयों में नहीं होना चाहिए अपनी तरफ होना चाहिए। विश्वास के बिना निर्जरा नहीं होती। आस्था को अविनाशी बनाने के लिए परिणामों में कमी है। जो आस्था आप लोगों को हुई है उसको सुरक्षित रखने के लिए मदों से दूर हटने की चेष्टा करें। जब तक धर्म के प्रति आस्था नहीं होती तब तक धर्म की सुरक्षा भी नहीं होती है। आस्था को मजबूत करने के लिए आपको कोई दवा खाने की आवश्यकता नहीं। दृढ़ संकल्प ही आस्था को मजबूत करता है। आस्था की मजबूती ही जीवन की सफलता है आस्था को कमजोरमत होने दो। संकल्पों व्रतों को कमजोर मत होने दो । यदि आप अपनी आस्था को मजबूत करना चाहते हो तो आत्मसंयम के मार्ग में अपने कदम आगे बढ़ाओं अन्यथा आस्था मजबूत नहीं हो सकती। मोक्षमार्ग कोई पत्थरों का मार्ग नहीं है वह तो आस्था/विश्वास का मार्ग है। संकल्प, त्याग, वैराग्य, ध्यान, तप का मार्ग है और जिसमें आस्था ही प्रधान होती है। विश्वास, श्रद्धा, आस्था के आधार पर हम किसी भी जिज्ञासा को शान्त कर सकते हैं।
  12. आवश्यक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सामयिक के प्रति रुचि हो तो नींद आ नहीं सकती। रुचिपूर्वक आवश्यक करेंगे तो निर्जरा होगी अन्यथा कर्म निर्जरा का कोई साधन नहीं बनेगा। कर्म निर्जरा में कोई भी पीछे न रहे, इसमें आगे रहने का/बढ़ने का ही प्रयास करना चाहिए। जैसे भोजन थाली में विभिन्न व्यंजन अलग-अलग होते हैं, उनका स्वाद अलग-अलग आता है। उसी प्रकार प्रतिदिन षट् आवश्यकों का अलग-अलग आनंद लेना चाहिए। उत्साहपूर्वक ही संभव है। यह प्रफुल्लता के साथ होना। अनावश्यक में मन लगता है इसलिए तो आवश्यक में मन नहीं लगता। जिनको आवश्यक के दोषों का डर नहीं इसलिए उनकी आवश्यकों में निद्रा आदि आती है। आवश्यकों में अगर निद्रा आती है तो वह अनावश्यक हो गया। आवश्यकों में निद्रा के वशीभूत होने से भी वह अवश नहीं रहा अनावश हो गया। शरीर को ऐसी आदत में मत डालों। छह आवश्यकों में प्रमाद नहीं होना चाहिए। पहले निर्दोष सामयिक का प्रयास करना चाहिए उत्कृष्ट का नहीं। सामयिक के समय शुद्धात्मा का चिंतन कर ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए। आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान दूसरे के लिए नहीं अपने लिए होते हैं। उतना ही सीखो जो जन्म मरण के अभाव के लिए आवश्यक है। वही सीखने योग्य है जिसके द्वारा जन्म मृत्यु का क्षय हो जाता है। आवश्यकों में रत रहना भी बड़ी साधना है। ये पुण्य का उदय समझना। केवलज्ञान सामयिक में ही हुआ करता है भगवान जैसे बैठना शुरु कर दो। दृढ़ता और निष्ठा के साथ सामयिक करना चाहिए। आसमान को छूना आसान है लेकिन अंतर्मुहूर्त तक मन को स्थिर करना बहुत कठिन है। संसार में वश एक ही कार्य बचा है हम लोगों को करने को वह है समता सामयिक। सामयिक व्रत, व्रत शिरोमणि है क्योंकि सारे व्रतों में निर्दोषता इसी से आती है। निश्चय स्वाध्याय तप इसी में है। सभी विकल्पों का कारण यह देह है। अन्य व्रतों के साथ हमारा उपयोग बाहर रहता है लेकिन सामयिक के समय हमारा उपयोग अंतर्मुखी होता है। सामयिक अपनी ओर आने का सौभाग्य है।
  13. अपवाद विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अपवाद से जो व्यक्ति नहीं बचता वह कुछ काम नहीं कर सकता, भले ही उसमें सारी की सारी योग्यता हो। अपवाद होने के बाद अनुभव होते हैं तो वे अनुभव अच्छे नहीं माने जाते। औचित्य गुण मैंने इसलिए पकड़ रखा है कि कोई भी निर्णय जल्दी-जल्दी मत लो, सोच समझ कर विचार कर कोई कार्य करो।
  14. अपव्यय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जल्दबाजी बहुत बड़ी बीमारी है। स्वयं को खपाओ समय को बचाओ क्या करोगे? समय का अपव्यय न हो जितना आवश्यक है उतना समय दे दो। अपव्यय का अर्थ है जो ठीक-ठाक उपयोग न करके दुरुपयोग करें। आय के अनुसार व्यय करो, व्यय के अनुसार आय। अपव्यय के कारण आज लोग पीड़ित हैं। हम जिस ओर जा रहे हैं उसी ओर हवा चल रही है यह शुभ का प्रतीक है।हमारे कदम जल्दी-जल्दी आगे बढ़ते हैं। हम समय से बंधे हुए हैं समय को व्यर्थ नहीं करना। यंत्र का युग आ गया मंत्र-तंत्र चला गया और जीवन भटक गया। यंत्र जीवन नहीं देता। सबसे ज्यादा अपव्यय यंत्र से हो रहा है। सेठ साहूकार, गरीबों के उद्धार में अपने धन का उपयोग न करके घूमने और वाहनों के उद्धार में उपयोग करते हैं। एक अरब १५ करोड़ जनता की आपको चिन्ता नहीं है। गरीबों के पास शुद्ध हवा और भगवान् की दुआ है।
  15. अनुशासन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार श्रावक को मर्यादा एवं अनुशासन का पालन किसी के भय से नहीं बल्कि पाप के भय से करना चाहिए। जो पाप के भय से त्याग किया जाता है या अनुशासन में रहा जाता है वही सच्ची त्याग एवं अनुशासन माना जाता है। गुरु से, कानून से मत डरो, डरना ही है तो पाप से डरो। अनुशासन में रहना ही पाप भीरुता का प्रतीक है और पाप से भयभीत होने से सम्यग्दर्शन का संवेग भाव नाम का गुण प्रकट होता है। हम अनुशासन प्रिय है और हम अनुशासन ही चाहते हैं। लाड़ प्यार अलग वस्तु है, अनुशासन अलग वस्तु है इसलिए अनुशासन के स्थान पर अनुशासन करना और लाड़ प्यार के स्थान पर लाड़ प्यार। बच्चों को हमेशा लाड़ प्यार देते हैं तो वो बिगड़ जाते हैं। अनुशासन हीनता होगी तो कभी भी पाप का अन्त नहीं होगा। भगवान महावीर ने अनुशासन नहीं चलाया, आत्मानुशासन चलाया और आत्मानुशासन के लिए न देश की, न पर (दूसरे) की न वित्त (धन) की, न वैभव की और न किसी की आवश्यकता है।एक मात्र आवश्यकता है अपनी कषायों पर कुठाराघात करने की। अनुशासन और आत्मानुशासन अदभुत चीज है। अनुशासन चलाने वाले के भाव में कषाय भाव, मैं बड़ा और दूसरा छोटा इस प्रकार की कल्पना है और इस कल्पना को मिटाने के लिए महावीर भगवान का अवतरण हुआ, उन्होंने अनुशासन नहीं आत्मानुशासन चलाया। यह आत्मानुशासन ही विश्व में शांति, आनंद फैला सकता है। जो मात्र कषाय के वशीभूत होकर आत्मानुशासन न करके विश्व के ऊपर शासन चलाना चाहता है वह व्यक्ति खुद ही शासित नहीं। इसलिए विश्व को शासित कैसे होने देगा ? वह अनुशासन के लिए मात्र कहता जा रहा है। आत्मानुशासन मुझे बहुत प्रिय है। आपको भी प्रिय होना चाहिए और भगवान महावीर को तो अत्यंत प्रिय था ही। दूसरे पर अनुशासन करने के लिए तो बहुत परिश्रम उठाना पड़ता है पर आत्मा पर शासन करने के लिए किसी परिश्रम की आवश्यकता नहीं एक मात्र संकल्प की आवश्यकता है। जिस जीवन में अनुशासन का अभाव है वह सर्वथा निर्बल है। अनुशासन विहीन व्यक्ति सबसे गया बीता व्यक्ति है। शासन प्रशासन की तब आवश्यकता होती है जब अनुशासन और आत्मानुशासन नहीं रहता। लोकतंत्र शासन और राष्ट्रपति शासन की बात की जाती है कि कौन-सा शासन अच्छा है? तो आत्मानुशासन ही सर्वोपरि है। जिस प्रकार फूल की सुरक्षा काँटों से होती है वैसे ही व्रतों की रक्षा अनुशासन से होती है।
  16. ऐसी प्रतिभा और ऐसी क्षमता हमारे पास होते हुए भी हम मोह के कारण, वासना के कारण या कुछ कर्मों के कारण ऐसे जकड़ गये हैं, कि वह शक्ति बाहर की ओर नहीं आ पा रही है। प्रयास करेंगे तो अवश्य ही वह उद्घाटित हो सकेगी। वासना की जागृति, वासना की रक्षा व वासना की उन्नति होती है, तो एक मात्र जड़ के ऊपर हाइलाइट देने से होती है। जड़ को यदि आप पूरी आँख स्फारित करके देखते हैं, तो वह राग का कारण बन जाता है। प्रभु को एक बार अपनी दोनों आँखों से स्फारित करके देखो, आलस्य के साथ मत देखो, तो आपका वैशद्य ज्ञान निश्चित रूप से विशदता की ओर ही जायेगा। आकाश मार्ग से एक दंपत्ति मनोरंजन के साथ जा रहा है। पत्नी को उसके पति ने बहुत सारी बातें सुना रखी थी, जो गलत भी नहीं थीं। आत्मप्रशंसा भी नहीं थी। औरपर की उसमें आलोचना या निंदा भी नहीं थी। वस्तुस्थिति लगभग ठीक थी। इन सब बातों को सुनकर पत्नी ने सोचा-यह हमारा बहुत बड़ा सौभाग्य है, कि हमारा सम्बन्ध इस प्रकार के पति से हुआ। एक बार पत्नी ने पूछा-पतिदेव ऐसा भी कोई व्यक्ति है, जो आपके अण्डर में नहीं हो जान-बूझकर पूछ रही है क्या? जान-बूझकर नहीं। फिर क्यों पूछ रही है ? इसलिए पूछ रही हूँकि हमें सुनने में यही आया-प्रत्येक क्षेत्र में अपवाद भी हुआ करते हैं। वह अपवाद क्या वस्तु है ? लगता ऐसा है कि किसी व्यक्ति को देखकर पूछ रही हो। हाँ, यह कौन है ? किस ओर आपका इशारा है ? देखो, उस पेड़ के नीचे जो हैं, वे हमारे अंडर में नहीं हैं। आपके अंडर में नहीं है, तो फिर वे किसके अंडर में है ? पगली कहीं की, जब यह कहा-कि मेरे अंडर में जो नहीं रहता वह दूसरे के अंडर में भी नहीं रहता। यह निश्चित बात है। वे क्या करते हैं ? आप उनको अपने अंडर में क्यों नहीं रख सकते ? यह दूसरी बात है। मैं हठात् किसी को अपने अंडर में नहीं रखता हूँ। लेकिन यदि रहना चाहता है, तो आश्रय अवश्य देता हूँ। वे रहना नहीं चाहते। सब जगह अपनी-अपनी प्रशंसा की जाती है। प्रतिपक्ष की बात नहीं रखी जाती। जब यह पूछा गया, तो कहना आवश्यक होता है। अपने लड़के को आँखों से यदि नहीं भी दिखता है, तो भी उसे नयनसुख कहा जाता है। अपना लड़का रोता रहे, तो भी अशोक नाम रख लेते हैं। अपना लड़का काला भी हो, तो भी चन्द्रमा की उपमा फीकी पड़ती है। वह राजकुमार है। यह अपनत्व की बात है। वह अपने अंडर में नहीं तो फिर किसके पास रहता है ? क्या उसका जीवन किसी के पास नहीं? जिस किसी के पास रहना होता है। जहाँ पर रहना होता है, अपने आप एक-दूसरे से बाधित होते चले जाते हैं। वह निर्बाध अवस्था का अनुभव करते हैं। वे तीन लोक के नाथ हैं। सुना था, स्वामी आप तीन लोक के स्वामी हैं ? हूँ, अभी भी। लेकिन यह एक पक्ष की बात है। जिनके पास कोई नहीं रहता और कोई रहना भी नहीं चाहता। जबकि मेरे पास बहुत सारे लोग आ जाते हैं, तो शरण देना अनिवार्य है। लेकिन हमारी कुछ कमजोरी है, यह बात अलग है। यदि वे किसी के अंडर में नहीं रहते, तो उनका जीवन क्या है ? वे महान तपस्वी हैं। महान शक्तिशाली हैं। उनके पास वह शक्ति है, जो मेरे पास घुटने टेकते हैं, वे सारे के सारे मेरे सहित उनके चरणों में घुटने टेकते हैं। बस इतना ही अन्तर है। इसका अर्थ हो गया, तीन लोक उनके अंडर में हैं ? मैंने कब कहा कि तीन लोक इनके अंडर में नहीं है। मेरे अंडर में भी है। इसलिए आज तक हमने इस बात को नहीं बताया। वे कौन हैं, मालूम है आप लोगों को ? पति-पत्नी कौन हैं ? पति का नाम कामदेव और पत्नि का नाम रति है। ये दोनों विहार कर रहे थे। यह निश्चित है, कि एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक सारे के सारे जीव इनके अंडर में हैं। इनके वशीभूत हैं। चार संज्ञा रूपी बुखार से पीड़ित हैं। आप लोगों को कभी कभार बुखार आ जाता है, तो कहते हैं कि महाराज, आशीर्वाद दो। हम सोचते हैं कि कैसा आशीर्वाद ? महाराज, मैं शान्ति का आशीर्वाद दे दो, ताकि सब शान्ति हो जाय । वासना का ज्वर, जो अनन्तकाल से चढ़ा है। चाहे वह संज्ञी पंचेन्द्रिय अर्थात् मन सहित हो या फिर मन रहित। विकलेन्द्रिय हो या एकेन्द्रिय। चाहे पृथ्वीकायिक हो या वायुकायिक। कोई भी हो, सब उसी के अंडर में रहते हैं। लेकिन यह ध्यान रखना, इनकी संख्या सबसे बड़ी है। अनन्तानन्त के रूप में आ जाते हैं। सिद्धों की संख्या इतनी नहीं। इनकी संख्या का पार ही नहीं, और हमेशा-हमेशा इतनी ही बनी रहती है। इसलिए अपनी पत्नि के सामने कामदेव हमेशा-हमेशा अपनी आत्मा की बात करता रहता है। रति को ज्ञात हुआ-धन्य है यह जीवन, ऐसा भी रहा जा सकता है। और जाकर के दोनों ने नतमस्तक होकर नमोऽस्तु किया। आशीर्वाद की कोई बात नहीं थी। क्योंकि यह निश्चित है, जो स्वामी होता है, बड़ा होता है, उसके सामने जाकर नमोऽस्तु किया जाता है। हमें यह सोचना चाहिए-व्यक्ति, जिसे हम बड़ा मानते हैं, वह भी किसी के अंडर में रहता है। डायरेक्ट भी हम सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। लेकिन दुनियाँ की बात नहीं होना चाहिए। दुनियाँ से अतीत होने की बात होनी चाहिए। भत्तामर जी आप प्रतिदिन पढ़ते हैं- इसमें क्या आश्चर्य ? जिसका मन, जिसका चित्त, जिसका उपयोग अप्सरायें या रति से भी बढ़कर जो रूपशालिनी हैं, वे भी चलायमान नहीं कर सकीं। कितना अच्छा स्तवन है। जैसे कितना भी प्रलयकारी तूफान आ जाय तो भी आज तक मेरु पर्वत थोड़ा भी हिला नहीं। टूटा नहीं। वह ज्यों का त्यों खड़ा है। संभव है प्रलयकारी तूफान के द्वारा उसमें कुछ कमी आ सकती है। लेकिन हे भगवन्! आपका चित्त कभी भी विकारमार्ग को प्राप्त नहीं हो सकता। यह भगवान् को स्मरण करने की एक पद्धति है। मानतुंग महाराज अपने मान को छोड़कर नभ से भी उतुंग पहुँच गये हैं। ऐसे भगवान् की स्तुति करके अपने आप को कृतकृत्य बना लिया। अपने आपको उपकृत बना लिया। अपने आपको भाग्यशाली समझ लिया। आज आप लोग भत्तामर को प्रतिदिन याद करते हैं। थोड़े धीरे-धीरे याद किया करो। आपकी चाल उत्कल की चलती है, या राजधानी की होती है। ये सारे के सारे रेल के ही नाम बोल रहा हूँ। कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाता है ? पता नहीं। भक्तामर जी का अखण्ड पाठ करने के उपरान्त भी स्तुति के अर्थ की ओर आपका उपयोग नहीं जाता। तब आनन्द नहीं आयेगा। मैं इस पाठ का निषेध नहीं कर रहा हूँ। करिये, वर्षों हो गये, थोड़ा-सा अर्थ का स्वाद भी लेने का प्रयास कीजिये। महाराज, अर्थ की ओर हम चले जाते हैं, तो बहुत देर हो जाती है। रेल चूक रही है क्या ? एक पद का भी अर्थ सहित आप पाठ करते हैं, तो आनन्द की जो अनुभूति होगी, वह अलौकिक होगी। अर्थ याद होते हुए भी यदि जल्दी पढ़ेंगे, तो अर्थ का स्वाद नहीं आयेगा। भोजन करते समय यदि जल्दी-जल्दी खा जायें, तो पेट तो भर जायेगा। लेकिन स्वाद नहीं आ सकता। इसी तरह वहाँ पर एक शब्द बोला नहीं, और दूसरे शब्द की ओर चला गया, तो अर्थ गायब हो जाता है। इसलिए अर्थ की ओर चले जाते हैं, तो व्याघात हो जाता है। इतना अवश्य होता है, कि जब भगवान् की स्तुति या गुणानुवाद करते हैं, तब गुण का क्या अर्थ है ? यह अलौकिक गुण है। इस प्रकार के गुण अन्यत्र पाये नहीं जाते, ऐसा विचार रहता है। संसारी प्राणी शील से रहित है। और वे भगवान् शील के शिखर पर हैं। शैलेश बोलते हैं उनको। कर्मसिद्धान्त ग्रन्थों में उनको शैलेश कहा गया है। शील का ईश अर्थात् सुमेरु के समान उनका शील अडिग है। अकम्प है। अथवा शैलेश का अर्थ शील का पूर्णत: विकास होने से उनको शैलेश बोलते हैं। जब आत्मा का स्वभाव ज्ञात हो जाता है और उसके ऊपर मजबूती के साथ श्रद्धान टिक जाता है, तब रति कहती है-धन्य हैं, इनने अपने आप को किसी के सामने समर्पित या शरण के रूप में स्वीकार नहीं किया। रावण बड़े-बड़े व्यक्तियों को पछाड़ने की क्षमता रखता था। लेकिन, ज्यों ही व्रत की बात आ जाती है, हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है। इतना छोटा हो जाता है, कि वह बिल्कुल ही दण्डवत् कर देता है। मैं यह नहीं कह सकता, कि यह साहस की बात है। यह बाद की बात है, श्रद्धान की बात पहले होना चाहिए। साहस क्यों नहीं होता ? श्रद्धान कमजोर होने के कारण साहस नहीं होता। महाराज, ऐसा कोई आशीर्वाद दे दो, ताकि हमारा साहस बढ़ जाय। आपका तो स्वास्थ्य बढ़ रहा है। अभी साहस कैसे बढ़ेगा ? अपने आप के ऊपर विश्वास लाइये। अपने स्वरूप का चिन्तन करते-करते सम्यग्दर्शन ठोस बन जाता है। दृढ़ हो जाता है। फिर साहस करो, ऐसा करने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि स्वरूप बोध जिसको हो गया, वह अपनी शक्ति का प्रयोग करता ही रहता है। जैसे मिलेट्री सोई हुई नहीं रहती। वह हमेशा-हमेशा अपने प्रयोग करती ही रहती है। तालीम में भी तालीम करते रहते हैं। पहलवान लोग जिस प्रकार मैदान में आ जाते हैं, उसी समय नहीं, अपितु प्रतिदिन प्रयोग करते रहते हैं। विश्वास के माध्यम से प्रयोग करते हैं, तो साहस होता चला जाता है। जिस ओर हम बढ़ते हैं, देखते हैं, उसी ओर का एक प्रकार से आदर या बहुमान आता चला जाता है। गौण और मुख्य इसी का नाम है। गौण करते ही जो मुख्य सामने है, वह महत्वपूर्ण दिखने लग जाता है। गौण-मुख्य का अर्थ क्या है ? संक्षेप में बताओ महाराज। मुख्य का अर्थ हाइलाइट। आप फोटो लेते हैं। फोटो लेते समय एड़ी से लेकर चोटी तक वह व्यक्तित्व है आपके सामने। लेकिन कौन से अंग के ऊपर हाइलाइट देना है ? यह आपके ऊपर निर्धारित होता है। वही मुख्य माना जाता है। एक व्यक्ति मुख्य होता है और अड़ोस-पड़ोस में जो खड़े हैं, वे गौण हो जायेंगे। यद्यपि उस फोटो में आ जायेंगे, लेकिन मुख्य उसी का फोटो आयेगा, जिसके ऊपर आपने हाइलाइट की है। कई लोग पत्र में भी अंडर लाइन कर देते हैं। पत्रिका में तो करते ही हैं, पत्र में भी कर देते हैं। क्योंकि सर्वप्रथम उसी ओर ध्यान जाय। एक-एक पहलू के बारे में, स्वभाव के बारे में, गुणों के बारे में हाइलाइट के साथ यदि भगवान् की स्तुति करते हैं, तो एक श्लोक के द्वारा भी आप लोगों को बहुत ही आनन्द आ सकेगा। ४८ कड़ियों तक पहुँचते-पहुँचते आपको बहुत देर हो जायेगी। परन्तु आपको समय का पता नहीं चलेगा। जब मन ज्यादा लग जाता है, रम जाता है, तो समय का पता नहीं चलता। यह साहस की बात नहीं, यह विश्वास की बात है। यह दृढ़ता की बात है। विश्वास या द्रद्ता तब आती है, जब हम किसी वस्तु को सार्थक-अर्थ सहित देखना प्रारम्भ कर देते हैं। वस्तु स्वभाव धर्म कहा गया है। वस्तु का तो हमने नाम ले लिया, किन्तु स्वभाव की ओर दृष्टिपात नहीं किया तो धर्म का स्वाद नहीं आ पायेगा। मात्र खाना-पूर्ति नहीं करना चाहिए। खाने के द्वारा पूर्ति होना चाहिए। खाने के पूर्व भी वही दशा, खाते समय भी वही दशा, खाने के बाद भी वही दशा, यह बात है ? भोजन का महत्व भी तो समझो। अर्थ के द्वारा ही रस आता है। यो यत्र निवन्नासते स तत्र कुरुते रतिम्। यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति॥ यह अन्यत्र नहीं आता। यह इष्टोपदेश का श्लोक बहुत ही अच्छा है। आप लोग उच्चारित करते हैं और यहाँ पर अर्थ सहित पढ़ते हैं। आज समापन हुआ, ऐसा सुनते हैं हम भी। कितने बढ़िया हैं, पढ़ाने और पढ़ने वाले, दोनों समझे इस बात को। जो सिद्धोदय में रहता है, तो क्या वह अन्यत्र जाना चाहेगा ? दस दिन की बात थी, महाराज जल्दी मत करिये। यह अन्तिम उपसंहार का दिन है। यह ध्यान रखना, इसमें सब कुछ आ सकता है। भगवान् के स्वरूप के विषय में आपने पढ़ा-सुना-चिन्तन किया। संगोष्ठी की। दर्शन के माध्यम से भी आपने बहुत कुछ पाया। तुलना करिये, हमारा स्वरूप भी इस प्रकार होकर भी वर्तमान में हम क्यों बाधित होते चले जा रहे हैं ? क्योंकि प्रभावित होते चले जा रहे हैं, दूसरी वस्तु से ? जबकि यह वस्तु ऐसी अलौकिक है। भत्तामर के बारे में भी मुझे कुछ ऐसा ही लगता है। स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्रगुणेर्निबद्धां बस उसके उपरांत कौन-सा प्रारम्भ करें ? बीच की सभी कड़ियां आप लोग भूल जाते हैं। वैज्ञानिकों ने इस अवस्था को अवचेतन अवस्था कहा है। चेतन अवस्था नहीं, अवचेतन दशा। अवचेतन का अर्थ चेतना दशा नहीं, यही इसका प्रतीकार्थ है। जिसमें रस नहीं आता, जिसकी ओर उपयोग नहीं रहता, वही अवचेतन दशा मानी जाती है। स्तोत्र पढ़ते समय अर्थ की ओर जाने लग जायें, तो फिर बहुत धीरे-धीरे पढ़ा जायेगा। फिर भी थोड़े से स्पीड रख सकते हैं। णमो अरिहंताणां बार-बार बोलेंगे, तो अर्थ समझने की कोई आवश्यकता नहीं। उसी प्रकार इन स्तोत्र की कारिकाओं में भी यही बात है। अर्थ का अच्छी तरह चिन्तन किया जाय, तो स्तोत्र की कारिका आते ही अर्थ झलकने लग जाता है। इस प्रकार जब हम सोचते हैं, तो लगता है, रस तो कम निकालते हैं, और वैसे ही हम आगे बढ़ जाते हैं। रस के अभाव में शक्ति का निर्माण व दृढ़ता नहीं आती। ध्यान रखो, जितना पचेगा उतनी ही शरीर को स्फूर्ति मिलेगी। ताजगी मिलेगी। और एकाध दिन नहीं भी मिलेगी, तो भी उसके द्वारा काम चल जायेगा। दस दिन आप लोगों ने यहाँ पर पूर्ण किये। भगवान् के स्वरूप के बारे में आपने क्या समझा? कैसे भगवान् हैं ? तीन लोकों में अनूठे हैं। ऐसी उपमा हम किसी दूसरे को नहीं दे सकते। ऐसी प्रतिभा और ऐसी क्षमता हमारे पास होते हुए भी हम मोह के कारण, वासना के कारण या कुछ कर्मों के कारण ऐसे जकड़ गये हैं, कि वह शक्ति बाहर की ओर नहीं आ पा रही है। प्रयास करेंगे तो अवश्य ही वह उद्घाटित हो सकेगी। सब कुछ लखते पर नहीं, प्रभु में हास्य विलास। दर्पण रोया कब हंसा ?, यह कैसा संन्यास॥ यह सर्वोदय की देन है। सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में यह दोहा लिखा गया। वस्तुत: क्षेत्रों के भी प्रभाव रहते हैं। भगवान् का स्वरूप कैसा है ? तीन लोक के सारे चित्र-विचित्र उनकी आँखों के सामने हैं। राग की सामग्री भी है और द्वेष की सामग्री भी है। ग्लानि की सामग्री भी है। अतीत भी है, अनागत भी है और वर्तमान भी है। बैरी भी है, मित्र भी है। आज भले ही बैरी-मित्र नहीं है। यह सारा का सारा भरा हुआ है। इतिहास बैरी और मित्रों से भरा है। माँ भी है, बहिन भी है, भाई भी है, यह सारी की सारी तालिका है। माँ आ गई, तो माँ से पूछने लग जाते हैं-कैसी हैं ? क्या है? ऐसी लाखों माँ हैं। लेटेस्ट की बात होती है महाराज। जब वह अनन्तकालीन ज्ञान हो जायेगा तो सारे के सारे लेटेस्ट जैसे हो जायेंगे। वर्तमानवत हो जायेंगे। अब एक पर्याय में पुरानापन और एक पर्याय में नयापन नहीं, किन्तु अनन्तकाल पीछे जो घटना घटी थी, वह भी आज वर्तमान में घट रही है। इसमें कुछ नया-पुरानापन नहीं है। ज्ञान का विषय नया-पुराना नहीं होता। यद्यपि काल इतना व्यतीत हो गया, कि वह पर्याय पुरानी मानी जाती है, किन्तु वह काल की विवक्षा में है। अत: यह स्पष्ट है। प्रत्यक्ष कैसा होता है ? प्रत्यक्ष हमेशा-हमेशा विशद हुआ करता है। विशद का भाव वैशद्य माना जाता है। क्या अर्थ हुआ ? विशेषता के साथ ही जाना जाता है, देखा जाता है। किसी प्रकार के व्यवधान के बिना और किसी का सहारा लिये बिना, ऐसा प्रत्यक्ष अवभासन होता है, जो विशद अवभासन माना जाता है। इसीलिए सभी लेटेस्ट अर्थात् वर्तमानवत जानते हैं। जिस प्रकार हम वर्तमान को जानते हैं। उसी प्रकार वे अतीत और अनागत को जानते हैं। सब कुछ लखते, पर नहीं, उनमें हास्य-विलास। न राग है, न द्वेष है। न सुख है, न दुख। न संयोग है, न वियोग। मात्र उपयोग टंकोत्कीर्ण बना रहता है। उनके सामने कोई भी पदार्थ लेकर के जाओ, वे कभी भी हंसते नहीं, न ही रोते हैं। लेकिन दर्पण को देखने वाला अवश्य हंसता व रोता है। प्राय: करके पुरुष लोग मूंछों पर ताब देते हैं, दर्पण देखते समय। बार-बार क्यों बंकिम दृष्टि से देखते हो दर्पण में ? सोची, अतीत में कितने बार आप दर्पण में देखते हुए आये हो, वह केवली भगवान् के दर्पण में आ रहा है। यह सब कुछ होकर भी कोई प्रभाव नहीं होता। ज्ञेयों का प्रभाव ज्ञान के ऊपर नहीं पड़ता और ज्ञान का भी प्रभाव ज्ञेय पर नहीं पड़ता। मोह के कारण यह सब घटित हो जाता है, मोह को थोड़ा-सा गौण कर दो और हाइलाइट आप ज्ञान के ऊपर दो, तो बहुत ही अच्छी बात हो जायेगी। हाइलाइट समझ में आ गया। हमेशा-हमेशा आत्मतत्व को मुख्य बनाओ या परमात्मतत्व को मुख्य बनाओ। जड़ गौण हो जाय, उस पर हाइलाइट मत दो। जड़ के ऊपर हाइलाइट देने से आत्मतत्व व प्रभु तत्व, ये दोनों गौण होने से अंधकार सामने आ जायेगा। यह ध्यान रखो, वासना की जागृति, वासना की रक्षा व वासना की उन्नति होती है, तो एक मात्र जड़ के ऊपर हाइलाइट देने से होती है। जड़ को यदि आप पूरी आँख स्फारित करके देखते हैं, तो वह राग का कारण बन जाता है। प्रभु को एक बार अपनी दोनों आँख से स्फारित करके देखो, आलस्य के साथ मत देखो, तो आपको वैशद्य ज्ञान निश्चित रूप से विशदता की ओर ही जायेगा। और दुनियाँ गौण हो जाय, दुनियाँ के बारे में आप मौन हो जायें। अब बातें करते रहो अपनी आत्मा से। आपका मौन टूटेगा नहीं। प्रभु से आप बोलते रहिये, आपका मौन टूटेगा नहीं। क्योंकि दुनियाँ के साथ नहीं बोलने का नियम दिया जाता है, प्रभु के साथ बोलने का नहीं। प्रभु के साथ तो समय कम देते हो। महाराज, बोलते तो हैं ही नहीं वे। क्या आपने कभी बुलवाया है उनको ? महाराज, बहुत कोशिश की। ऐसे नहीं बोलते। उनकी भाषा समझने का प्रयास करो। टूटी-फूटी थोड़ी-सी भाषा आती है। उनकी भाषा कौन सी है क्या पता ? उनकी भाषा कौनसी है ? आप लोगों को मालूम नहीं है। हाइलाइट दीजिए उनको। जब आप फोन की बारीक-सी आवाज भी सुन लेते हैं, तो भगवान् की वाणी क्यों नहीं सुन सकते ? दिव्यध्वनि खिरती है, तब वहाँ पर आपके अन्यत्र के जो कनेक्शन हैं, वे समाप्त हो जाते हैं। तो प्रभु क्या बोल रहे हैं ? यह समझ में आने लग जाता है। अवाग्विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तम्। जब मुनि महाराज की यह स्थिति है, तो प्रभु की स्थिति क्या होगी ? आप समझो। तीन लोक के समस्त पदार्थ उन्हें दृष्टिगत हो रहे हैं। फिर भी उन्हें राग नहीं, द्वेष नहीं। और यहाँ थोड़ीसी बात सामने आ जाती है, तो राग और द्वेष होने लग जाता है। समझ में नहीं आता क्या करें ? हाइलाइट की कमी है। चिन्तन की मात्रा तो है, लेकिन बहुत कम समय के लिए है। एक मिनट के लिए भी जियो, लेकिन पूर्णत: जियो। क्योंकि मात्रा के अनुसार हम देखते हैं तो पर की मुख्यता में ज्यादा समय गुजर जाता है। और स्व को या प्रभु को बहुत कम समय मिलता है। और हाइलाइट कब किया जाता है ? पहले भी नहीं दिया जाता, और बाद में भी नहीं दिया जाता। जिस समय बटन दबाया जाता है आटोमेटिक, उसी समय हाइलाइट दिया जाता है। आप लोग बहुत समय जड़ तत्व पर देंगे। और जिस समय आत्मतत्व आ जाता है, उस समय बटन दबाते हैं। लेकिन वह ऐसे ही समाप्त हो जाता है। ऐसा फोटो खराब हो जाता है। दुबारा ले लेंगे। दुबारा क्या ले लोगे ? अब हाइलाइट यानि अर्पित तो मुख्य हो और अन्य जो पदार्थ है, वह ज्यादा लाइट में न आये। प्रभु तीन लोक के जाननहार हैं, फिर भी वे कभी रोते और हँसते नहीं हैं। मध्यस्थ रहते हैं। मध्यस्थ कैसे रह जाते हैं ? प्रभु को देखो अपने आप जान जाओगे। कैसे रहा जाता है ? हँसने वाले को देखो, तो हँसना आयेगा। रोने वाले को देखो, तो रोना आयेगा। उपहास करने वाले को देखो, तो दोनों बंद हो जायेंगे। अब आप लोग क्यों हँस रहे हैं ? तो क्या रोये हम लोग ? रोने के लिए नहीं कह रहा हूँ। लेकिन हँसने का कुछ अलग कारण लग रहा है। एक बार हंसना तो अच्छा माना जाता है। लेकिन बार-बार हँसना तो अच्छा नहीं। हँसी मत उड़ाओ भइया, हँसी नहीं उड़ाना चाहिए। हँसी उड़ाने का अर्थ उपहास का पात्र बनाया जाना। भगवान् के पास न हँसी है, न रोना। और न मुस्कान है। लेकिन ऐसा भद्र परिणाम, ऐसा प्रसन्न परिणाम दिखता है, जिसकी दुनियाँ में कोई नकल करना भी चाहे तो भी नहीं कर सकता। कुछ न कुछ अन्तर उसमें आ ही जाता है। सहज नहीं बन पाता। यदि प्रयास करना चाहें, तो कर सकते हैं। बाल अवस्था में महावीर ऐसे थे, जैसे ९० वर्ष के वृद्ध भी नहीं रहते। फिर भी प्रसन्न रहते थे। महावीर भगवान् की बहुत प्रशंसा होती थी, कि वह बहुत गंभीर बालक है। और गंभीर महावीर के लिए कन्या कहाँ से ले आयें ? स्थिति बड़ी विचित्र थी। बहुत गंभीर थी। लेकिन गंभीर होने का अर्थ यह नहीं, वह चिन्ता में थे। नहीं, स्वभाव से गंभीर या सहज रूप से गंभीर थे। स्वभाव से मार्दव जिसको बोलना चाहिए। स्वभाव से गंभीर। स्वभाव से मृदुता । स्वभाव से तत्वदृष्टि। स्वभाव से सब कुछ था। इसके पीछे पूर्वजन्म के संस्कार और साधना विद्यमान थी। दर्पण रोया कब हॅसा ? दर्पण की ओर देखते जाओ, अपने आप आपका रोना-हंसना सब समाप्त हो जायेगा। उसका जो उजाला, जो वैशद्य है, सब सामने आ जायेगा। दर्पण का उदाहरण इसीलिए दिया जा रहा है। दर्पण के समान विशदता कहीं देखने को नहीं मिलती। सब कुछ देखो, लेकिन उसमें अन्तर नहीं आयेगा। भगवान् आत्मस्थ इतने हो गये हैं, इतने भीतर चले गये हैं कि बाहरी प्रभाव अब उनके ऊपर नहीं पड़ सकता। इसी का नाम ब्रह्मचर्य है। जो ऐसे ब्रह्म में लीन हों, कि अब किसी भी अन्य पदार्थ में लीन नहीं हों। उनके ज्ञान के ऊपर, उनके आत्मा के ऊपर दुनियाँ की किसी भी शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ सकता। जानेंगे-देखेंगे, सब कुछ करेंगे। लेकिन इस सीमा के बाहर वे कभी नहीं जायेंगे। धन्य है ऐसे प्रभु को, जो ब्रह्मलीन हो गये हैं। उन्होंने श्रमणों के लिए इसी प्रकार का उपदेश दिया है। आत्मतत्व को प्रौढ़ता दी है। और सागार यानि गृहस्थों के लिए भी उपदेश दिया है। केवल श्रमणों के लिए नहीं। सागारों और अनगारों, दोनों के लिए उन्होंने उपदेश दिया है। सागारों के लिए कौन-सा धर्म बतलाया ? उनके लिए बताया दाणा पूयासीलमुववासो.। यह श्रावकों का चार प्रकार का धर्म है। इसमें सर्वप्रथम दान कहा गया है। दान कहने से आपकी दृष्टि सबसे पहले आहारदान की ओर ही चली जाती है। वह भी आवश्यक है। लेकिन इसका असर बहुत कम समय के लिए रहता है और आप लोग सस्ता ही लेना चाहते हैं। इसके उपरांत दूसरा औषधदान दिया। वह कितने दिन तक ? जब तक रोग दूर नहीं हुआ, तब तक। और कौन-सा दान है ? ज्ञानदान भी है। इसकी ज्ञानदान न बोलकर उपकरण दान बोलते हैं। मैं इसलिए बोल रहा हूँ कि वस्तुत: ज्ञानदान डायरेक्ट नहीं है। उपकरणदान या शास्त्रदान, जिसको बोलते हैं। उपकरणदान ही स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा है। उपकरण क्या है ? जो उपकार करे, सो उपकरण। जिस समय जिसके लिए जो उपयोग हो वह दीजिये, यह उपकरणदान है। जैसे आपने किसी को निमन्त्रण दिया। खाने वाला खाने में लीन हो जाता है और परोसने वाला देखता रहता है, खाने वाले को। पता नहीं चलता, किन्तु वह जान लेता है, किसको किस समय क्या परोसना है ? एक ही चीज बार-बार खा रहा है, तो उसको नहीं परोसेंगे। दूसरी चीज को परोसेंगे। क्योंकि वह चीज हानि कर सकती है। फिर भी इच्छा के अनुसार परोसते रहते हैं। लेकिन निगरानी रहती है, दृष्टि रहती है। बच्चों जैसा परोसने वाला नहीं रहता। परोसने वाला विवेकशील रहता है। इसी तरह सम्यग्दृष्टि बहुत जानकारी रखता है। सही जानकारी कि, कहाँ पर किस व्यक्ति को किन उपकरणों की आवश्यकता है ? उसके माध्यम से वह उनकी पूर्ति करके उसे धर्म के क्षेत्र में आगे बढ़ाता है। आज सबसे ज्यादा कमी यही है। जैन समाज समृद्ध होते हुए भी जिस समय जिस चीज की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति नहीं करता। और बहुत सीमित ही हम लोगों का दान का व्यवहार चल रहा है। हम पढ़ाना चाहते हैं, तो अपने बच्चों को भी पढ़ाओ, ठीक है। लेकिन हम दूसरों को पढ़ायेंगे। जिन्हें कुल परम्परा से शिक्षा प्राप्त नहीं है, उन्हें भी पढ़ाना चाहिए। तो उनकी विशुद्धि और बढ़ेगी। आत्मतत्व, आत्मधर्म का ज्ञान सीमित या घर तक नहीं रखना चाहिए। उपकरण-दान के बाद एक और आ जाता है अभयदान। समय कम होते हुए भी मैं इसकी विशेष रूप से व्याख्या करना चाहूँगा। अभयदान सबसे बड़ा दान माना जाता है। वह इतना बड़ा है, कि किसी भी जीव को हमारे निमित से भय न लगे। आज तो सभी भयभीत जीव हैं। किसी महान् व्यक्तित्व की प्रतीक्षा में हैं। कि कोई आयेगा और हमारे लिए अभयदान दे। इस संकट से मुक्त कराये। महावीर जैसे महान् व उदार आत्मा आ जावे, तो निश्चित ही हमारे बंधन छूट सकते हैं। हमारा यह बंध रुक सकता है। हमारा यह संकट छूट सकता है। हमारी यह आपदा छूट सकती है। आज करोड़ों-करोड़ों जानवरों के ऊपर संकट आया है, उनको खाते समय भी यह भान हो रहा है, कि हमारा अन्त अब निकट है। कोई महान् व्यक्तित्व ही इसे दूर कर सकता है। मान लीजिये, एक सामान्य व्यक्ति आराम से जी रहा है। लेकिन उससे कह दिया जाये, कि आपके दस साल मात्र शेष हैं। तो सब, अब वह दस साल, भयभीत होकर ही बितायेगा। उसी प्रकार उन पशुओं के भी एक-दो, एक-दो करके भाई-बहिन चले जाते हैं। उनके परिवार को ज्ञात तो होता होगा। मानली, आप अपने परिवार से किसी को भेज देते हैं, तो वह पहले पूछता है-हमें बताओ, कहाँ भेजा जा रहा है हमें ? परिवार वाले भी सोचते हैं-हमारे परिवार का लड़का कहाँ जा रहा है ? क्या पता। और वापस आयेगा या नहीं ? क्या पता। उसको भेजा जाता है और मालिक की जेब में पैसा आ जाता है। मालिक पैसे की ओर हाइलाइट करके देख लेता है। लेकिन उनके मातापिता, भाई-बहिन हैं, वे कहते होंगे, सोचते होंगे-हमारे परिवार का एक सदस्य निकल गया। दीपावली और दशहरा, ये उत्सव भी पर्व कुछ मायने नहीं रखते। बन्धुओं! ध्यान रखना, जो बली का बकरा होता है, उसी को ज्ञात होता है कि उस पर क्या बीत रही है। और जैसा कि भाई ने कहा-मेरे लिए समय ज्यादा नहीं, किन्तु उन प्राणियों की रक्षा के लिए भी सोचना आवश्यक है। कत्लखाने बन्द करो, कहने से कत्लखाने बन्द नहीं हो सकते। बल्कि जो प्राणी निराश्रित हैं, जिनके लिए कोई अभय देने वाला नहीं है, उनके लिए भी कुछ प्रबन्ध आवश्यक है। यद्यपि उनके लिये कोई एयर कंडीशन मकान की आवश्यकता नहीं होती। ये नदी-नालों का पानी पी लेते हैं। और अगर एक छप्पर मिल जाय तो ठीक, नहीं तो धरती माँ के ऊपर लेटकर-बैठकर ही अपना समय गुजार लेते हैं। एक-दो बार चारा और पानी की मात्र आवश्यकता होती है। उनके लिए कोई मालमलाई की आवश्यकता नहीं। भूसे की आवश्यकता है। बन्धुओं! चावल-चावल आप ले लो, भूसा उन्हें दे दी। वे इस प्रतीक्षा में होंगे कि हमें संकट से उबारने वाला कोई व्यक्ति आ जाये। आप लोग मनोरंजन में मस्त हैं। व्यर्थ पैसा खर्च कर रहे हैं। करोड़ों रुपये बहाते रहते हैं, आप लोग विषयों और कषायों में। लेकिन अभयदान के विषय में कोई सोचता है ? जो सोचता है वह सम्यग्दर्शन के बारे में विभिन्न पहलुओं से अध्ययन कर चुका है, यह ज्ञात होता है। क्योंकि तन, मन, धन, वचन इन सबको वह अपने व दूसरे के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में ही न्यौछावर करना चाहता है। धन का और कोई महत्व नहीं होता। धन के ऊपर तिलक लगाने से धन का विकास नहीं होता, ध्यान रखो। और धन की पूजा करने से धन नहीं आता, किन्तु धन का यथोचित स्थान पर उपयोग करने से ही उसका विकास होता है। अभयदान की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ कि वह जीव आपको पहचानेगा। और अगर वह कहीं दूर भी चला गया, तो भी वह आपको पहचान लेगा। यदि आप आपत्ति में होंगे तो वह आपकी सहायता करने का प्रयास करेगा। वह आप पर उपकार करेगा। ये जानवर मूक भले ही हों, बोलते नहीं है, लेकिन चेतना उनकी ऐसी ही है, जैसी आपके पास है। बल्कि मोह का प्रभाव आपकी चेतना के ऊपर ज्यादा हो सकता है। आपको हर चीज को देखकर यह भावना होती है, कि यह हमारे लिए आवश्यक है। लेकिन उनमें ऐसे भाव नहीं है। वे चाहते भी नहीं हैं। उनका जीवन प्रकृति पर आधारित जीवन है। वे आपके आश्रित रह रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं, कि आप जब कभी भी, जिस किसी को भी उन्हें बेंच दें। आप तो उनसे दूध लो, दही लो, घी लो, सब कुछ ले लो और अपने शरीर को पुष्ट बनाओ। यह काम में नहीं आयेगा। ध्यान रखना, पहले भी व्यापार होता था। तब सोच समझ करके गाय-भैंस बेचा करते थे। वे कभी मूल्य से नहीं बेचते थे। वैसे ही दिया करते थे। जो रक्षक होता था, उसके पास भेजा करते थे। जिस प्रकार आप लोगों के यहाँ विवाह सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार देखकर छान-बीनकर ही उन्हें दिया करते थे। जिससे वे जहाँ कहीं भी चले जायें आराम से अपना निर्वाह कर सकें। आज उन्हीं पशुओं पर आपत्ति की घड़ी आ चुकी है। आप लोगों के अविवेक का ही यह परिणाम है। अपितु, यह कहना चाहिए कि जो विशेष विवेकशील हैं वे इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। एक व्यक्ति अगर चार-पाँच लाख रुपया भी खर्च करता है, तो सी-डेढ़ सौ जानवरों की रक्षा आराम से हो सकती है। यह बात भी आपके ज्ञान में रहना चाहिए। कितने लोगों की रक्षा आप कर रहे हैं। जिस प्रकार आप किसी की मदद करते हैं, उसी प्रकार आप इन जीवों की भी रक्षा कर सकते हैं। मान ली, आप एक जानवर को गोद लेते हैं, तो भी बहुत बड़ा उपकार है, भाग्य है आप लोगों का। वह कभी भी किसी भी भव में छूटेगा नहीं। वह भव-भव में काम आयेगा। क्योंकि सबसे बड़ा यदि धर्म है, जो महावीर भगवान् ने कहा है, तो वह अहिंसा धर्म है। जीव दया धर्म है। धम्मी दयाविसुद्धो.। दया धर्म का मूल माना गया है। यदि मूल दया धर्म से ही आप लोग हाथ धोकर तत्वचर्चा में ज्यादा समय निकाल देते हैं, तो वह कोई कार्यकारी नहीं है। काम आने वाला तो जीवित धन है, उसमें आप लोग मुख्य रूप से काम करिये। उनका आप क्या उपकार कर रहे हैं ? उनके निमित से आप अपनी आत्मा का उपकार कर लेते हैं। यह भी अभिमान छोड़ देना चाहिए, कि मैंने उपकार किया। उपकार क्या किया ? यह उसका पुण्य था, तो आपने उसके अनुसार कर लिया। उसके निमित से आपको प्रशस्त रास्ता मिल गया। उसके निमित्त से आपने अपने सम्यग्दर्शन की रक्षा की। उनकी रक्षा से एक प्रकार से आपकी परीक्षा हो गई और उस परीक्षा में आपको अच्छे अंक मिल गये, इस कार्य को करने से। दया के विषय में जैन-जैनेतर सभी से मेरा कहना है, कि मात्र ज्ञान का ही प्रयोग न करें। दया का प्रयोग भी कर सकते हैं और आश्रयदान जिसको बोलते हैं, उसका भी प्रयोग कर सकते हैं। आहारदान भी है और ज्ञानदान भी है। जानवरों के लिए ज्ञानदान की क्या आवश्यकता है ? जानवरों के लिए पाठशाला खोलेंगे क्या ? क्या जानवर आपके संवेदन से उपकृत नहीं होते ? एक बार पहचान जायें तो पहचानते ही रहते हैं। आपका वेश बदल भी जाये, आपकी पर्याय बदल भी जाये, तो भी वह आपको नहीं भुला सकते। उनके पास इस प्रकार का कैमरा है, शक्ति है। उपयोग प्रत्येक के पास विद्यमान है। शील की रक्षा होनी चाहिए। आज जो माहौल चल रहा है, उसको देखते हुए लगता है, भारत, अमेरिका और इंग्लैंड एक जैसे हो जायेंगे। ऐसी हवा आ रही है, आज गर्भपात की हवा ऐसी घुस गयी है। शील को बिल्कुल बर्बाद कर रही है, क्योंकि खुल्लमखुल्ला शासन की ओर से इसको वैधानिक रूप दिया जा रहा है। कोई सजा नहीं, बल्कि पैसा और दिया जा रहा है। इससे विवेक बिल्कुल भ्रष्ट हो जायेगा, शील रहेगा ही नहीं। वात्सल्य, करुणा, दया व सम्यग्दर्शन, ये सब आस्था के विषय पर निर्धारित रहते हैं। इनको कोई भी नहीं छुयेगा। इनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहेंगे। सब सम्बन्ध टूट जायेंगे। शील के कारण ही आप लोगों का यह व्यवहार सुनियोजित चल रहा है। शील यदि यद्वा-तद्वा खो गया, तो यह सब काम समाप्त हो जायेगा। जैसा कि विदेशों में आज हो रहा है। दस वर्ष पूर्व सुना था, एक महिला ने अपने जीवन में ८० बार विवाह किया। एक साल में दो-तीन विवाह कर लिये। पुरुष तलाक नहीं देते हैं, महिलाओं में आपस में विश्वास नहीं। पैसा ले लिया और तलाक। फिर दूसरे और सम्बन्ध। सोचिये, उनके जीवन में क्या प्यार रहेगा ? लव मैरिज। पहले प्रेम उसके उपरान्त बंधन। यहाँ पर पहले बंध बाद में प्यार। भारतीय संस्कृति के अनुसार माता-पिता के द्वारा ही विवाह कराये जाते हैं। और यह अच्छा विवाह माना जाता है। लव मैरिज को भारतीय संस्कृति के अनुसार अच्छा नहीं माना जाता। इस फैशन से राष्ट्र उन्नत हो रहा है, ऐसा समझना गलत है। आगे जाकर दुख का अनुभव करना पड़ेगा। पश्चाताप करना पड़ेगा। आज अमेरिका सबसे बड़ा दुखी राष्ट्र माना जा रहा है, शील के अभाव के कारण। इसलिए उपवास यानि आत्मतत्व के पास आना। शरीर की जो अधीनता है, उसको कम करना और आत्मा के पास आना। जिसके कारण आत्मा की शक्ति बढ़ती चली जाती है। दान, भगवान् की पूजा, अर्थात् गुणों की उपासना, शील और उपवास ये चार धर्म गृहस्थों के मुख्य माने गये हैं। इसी के माध्यम से आपका यह सागारधर्म अच्छे ढंग से चलने वाला है। गृहस्थों का कर्तव्य होता है, कि अपने बच्चों के ऊपर संस्कार डाले। जैसा उन्होंने अपने जीवन में धर्म का समार्जन किया, उपासना की, आत्मतत्व के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसी प्रकार उनके ऊपर और जो होनहार हैं, जिनके पास योग्यता है, उन व्यक्तियों के ऊपर भी आप संस्कार डाल सकते हैं। मात्र जैनी के ऊपर ही डालना चाहिए, अजैन के ऊपर नहीं डालना चाहिए, ऐसी बात नहीं सोचना चाहिए। क्योंकि जैनाचार्यों ने कहा है-धर्म के संस्कार वहाँ पर भेजना चाहिए, वहाँ पर जा करके रखना चाहिए, जहाँ पर सभी को प्रकाश मिल सके। जिस प्रकार प्रकाश में प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। अन्धकार में उसका मूल्य और महत्व बढ़ जाता है। उसी प्रकार आज यदि आपका जीवन संस्कारित है, तो जो संस्कारहीन व्यक्ति हैं, उनको संस्कारित बनाने का प्रयास कर लीजिये। इसके द्वारा आपके तन का, मन का और धन का उपयोग अच्छा हो सकता है। कोई भूखा नहीं है और उसको आप खिलाते जा रहे हैं, तो यह क्रिया अपव्यय ही कहलायेगी। समय भी चला जायेगा और परिश्रम भी व्यर्थ जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह एक संस्कारित जीवन का निर्माण करे। इसी से धर्म आगे बढ़ सकता है। इसके माध्यम से स्व और पर, दोनों का कल्याण होता है। अभयदान देने का आप लोग विशेष रूप से ध्यान रखेंगे। क्योंकि समन्तभद्र स्वामी ने कहा अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्। यथायथम् यह शब्द बहुत ही मार्के का है। जिन शासन की, जैनेन्द्र शासन की महिमा उस समय हो सकती है, जब भोजन की आवश्यकता हो, तब भोजन। जिस समय आवास की आवश्यकता हो, उस समय आवास। जिस समय औषध की आवश्यकता हो, उस समय औषध। जिस समय अभयदान देना हो, उस समय अभयदान की पूर्ति होना चाहिए। ऐसे निराश्रित परिवार कई हैं। उनके बारे में आप कभी सोचते हैं क्या ? एक परिवार को आपने सुव्यवस्थित बना दिया, तो कितना बड़ा काम कर लिया, यह सोची। मान लो, आपने एकाध लाख रुपया खर्च करके एक परिवार, जिसमें कि चार-पाँच सदस्य हैं, को खड़ा कर दिया। व्यवसायादि में लगा दिया। तो वे व्यक्ति धर्म-कर्म करते हुए अपनी गुजर कर सकते हैं। आपने कितना बड़ा काम कर दिया। जीवन पर्यन्त उनका काम चालू हो जायेगा। धन का सदुपयोग ऐसे ही हुआ करता है। इस दिशा में जैन समाज बहुत मौन है। समय की कमी होने के कारण हाइलाइट भी समाप्त हो रही है। दस दिन में जो कुछ भी आपने अर्जन किया, श्रवण किया, उसको आगे बढ़ाने का अभ्यास करें। इसी प्रकार आपका मन सद्कार्य में लगा रहे। ऐसा आशीर्वाद। ॥अहिंसा परमो धर्म की जय। जैन धर्म कोई जातिपरक धर्म नहीं है। जैन धर्म उस बहती गंगा के समान है, जिसमें कोई भी व्यक्ति स्नान कर सकता है और अपने पापों को मिटा सकता है। उसमें अवगाहन करके अपने कषाय भावों को, विकारों को पृथक् कर हृदय एवं मन को, तन को भी स्वच्छ-साफ किया जा सकता है। जैन धर्म का आधार लेने के उपरान्त भी जो व्यक्ति केवल अहंकार-ममकार को पुष्ट बनाता है वह अपने जीवन काल में कभी भी धर्म का सही स्वाद नहीं ले सकता। उज्ज्वल भाव-धारा का नाम धर्म है। मर जाना अच्छा है, पर धर्म बिना जीना अच्छा नहीं, क्योंकि धर्म के अभाव में जीवन नहीं होता, केवल जीवन का अभिनय होता है, नाटक होता है और उसी में व्यक्ति अटका रहता है जबकि नाटक शब्द स्वयं कह रहा है न.अटक । नाटक.। वह ज्ञान जयवन्त रहे, जिस 'ज्ञान में तीन लोक व तीन लोक के विगत-अनागत वर्तमान पर्यायों सहित संसार के समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित हो रहे हैं। जिस प्रकार दर्पण के सामने जो कोई भी पदार्थ आ जाता है वह उसमें प्रतिबिंबित होता है, उसी प्रकार वह ज्ञान जयवन्त रहे, उस ज्ञान की जय -हो अर्थात् उस ज्ञान का सही-सही मूल्यांकन हों। जिसमें तीन लोक का प्रतिबिंब अनायास आ जाता है। मुमुक्षु सम्यग्दृष्टि की बात है वह जब कोई धार्मिक अनुष्ठान करता है तो उसके हृदय में आनन्द की बाढ़ आती है। ऐसे महान् विषम पंचमकाल में भी महान् सतयुग जैसा काल अनुभूत होता है, जिसका सहज ही आनन्द अनुभव होता है। जैनधर्म की विशालता को ध्यान में रखते हुए सभी जैनियों को धर्म का प्रचार-प्रसार जैनियों की सीमा तक ही नहीं करना चाहिए। जो कोई भी धर्म से स्खलित हैं, पथ से दूर हैं उन्हें धर्म मार्ग पर जाने का प्रयास करना चाहिए। जो पतित हैं उन्हें गले लगाना चाहिए। दान के बिना अहिंसा की रक्षा ना आज तक हुई है और न आगे होगी। पैसे वालों को भूदान, आवासदान, शैक्षणिकदान, आहारदान आदि सभी पर ध्यान देना जरूरी है। अभयदान का भी ध्यान रखें।
  17. अनुकूलता-प्रतिकूलता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संसारी प्राणी अनुकूलता चाहते हैं जितनी-जितनी अनुकूलता चाहते हैं उतना-उतना कूल (किनारा) दूर हो जाता है। अनुकूलता-प्रतिकूलता में हमारी दृष्टि कूल (किनारे) की ओर होना चाहिए। प्रतिकूलता में ही भगवान याद आते हैं। जो व्यक्ति कष्ट से डरता है उसे सफलता नहीं मिलती चाहे छोटा हो या बड़ा हो, उसे ये बात याद रखना है। कंकड़-पत्थर-शूल आदि पथ में रहते हैं, तो सावधानी से एक-एक पैर रखता है। फूल की महक आ जाये तो नशा चढ़ जाता है, आँखें बंद हो जाती हैं सुगंध में।
  18. अध्यात्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अध्यात्म से बढ़कर इस संसार में और कोई वस्तु नहीं है। जितने तुम दूसरे के संयोग से बचोगे उतने ही आप अध्यात्मनिष्ठ बनते जाओगे। लेकिन हम जितने संयोग की ओर गये दूसरे के तो फिर अध्यात्म उससे बहुत दूर हो जाता है। संयोग से छूटने का नाम मुक्ति है। जितने हम संयोग को पीठ दिखायेंगे उतने ही हम अपने पास आयेंगे। उपयोग के द्वारा सोचा जाता है तो बाहर का सोचा जाता है और जितने हम बाहर की सोचेंगे उतने ही हम अपने आपके अध्यात्म से हटेंगे। इसलिए हमें सबसे पहले संयोग को हटाना है। दूसरे के कर्ता, भोक्ता, स्वामी कभी मत बनो क्योंकि स्वामी बनने के बाद एक मात्र अभिमान की लहरें उस व्यक्ति के अंदर हिलोरें लेती हैं। हम इस शरीर रूपी घर में आकर बैठे हैं, ये घर तुम्हारा नहीं हैं। तुम तो घुसपैठियों की तरह आकर बैठे हो। यह अध्यात्म की परिभाषा है।
  19. सिद्धान्त ग्रन्थों में यही कहा है, तब तक उसकी बुद्धि की समीचीनता सिद्ध नहीं होती, जब तक पर को अपना मानकर उस पर अपना अधिकार रखने का प्रयास कर रहा है। आप लोगों को ज्ञात होगा। ज्ञात तो अवश्य है ही, कि जब आप दुकान से श्रीफल खरीदना चाहते हैं, उस समय आप श्रीफल एक हाथ में उठा लेते हैं और क्या करते हैं ? और पसन्द नहीं आया तो ढेर में से दूसरा उठाते हैं। इस प्रकार बाहर नहीं, भीतर के भाग को भी अनुमान का विषय बना लेते हैं। यह निर्णय लिया जाता है, कि जब तक नारियल गीला रहता है, तब तक पानी की पहिचान की जाती है। और जब सूख जाता है, तो स्वयं नारियल बोलने लग जाता है। जब तक वह नहीं बोलता, तब तक आप उसको हाथ में लेना पसन्द नहीं करते। उसने त्याग किया, तब ही बोला। क्या त्याग किया ? उसके ऊपर बहुत-सा मटेरियल है। सबको उसने कह दिया-मेरा और आपका अब से कोई सम्बन्ध नहीं। उसने बुद्धि का प्रयोग किया, क्योंकि जब तक मैं इस ऊपर के कवच के साथ सम्बन्ध रखूगा, तब तक मुझे कोई भी पूछेगा नहीं और बुद्धि के विकास के लिए भी मेरा कोई योगदान नहीं होगा। आयुर्वेद ग्रन्थों में श्रीफल के गुण बताये हैं। गोले के पास क्या गुण है ? मस्तिष्क का आकार उसका भी होता है और उसका तेल मस्तिष्क के लिए बुद्धिवर्धक होता है। लेकिन वह तेल कब आयेगा? जब उससे सम्बन्ध छोड़ देगा। सम्बन्ध कब छोड़ेगा ? जब पानी का अंश पूर्णत: सूख जायेगा। उसी प्रकार भीतर रहते हुए जिसने बाहरी और भीतरी परिग्रह का त्याग किया है, उसकी बोली को सुनने के लिए बहुत लोग लालायित हो जाते हैं। भगवान् की वाणी, गुरुओं की वाणी हम लोगों के कल्याण के लिए इसीलिए कारणभूत होती है। उनकी वाणी में पानी का अंश नहीं रहता। केवल बुद्धि के लिए वह उपयोग नहीं हेाती, अपितु वह ऐसा झकझोर देती है, कि वस्तुतत्व क्या है ? यह समझो। वस्तुत: देखा जाये तो त्याग होता ही नहीं। जो पराई चीज है, उसको त्यागने की क्या आवश्यकता है ? चोरी कर लें, इसके उपरान्त कह दें, मैं इसका त्याग कर रहा हूँ। जो चीज अपनी है ही नहीं, उसका क्या त्याग ? और जो अपनी चीज है, उसका त्याग कैसे ? अपनी चीज भी छोड़ दें और पराई जो चीज है उसको भी छोड़ दें, तो हम खाली बैठे क्या ? ऐसा नहीं। सिद्धान्त ग्रन्थों में यही कहा है, तब तक उसकी बुद्धि की समीचीनता सिद्ध नहीं होती, जब तक पर को अपना मानकर उस पर अपना अधिकार रखने का प्रयास कर रहा है। और जिस समय उसको ज्ञात हो जाता है, कि यह तो मेरा था ही नहीं, होगा भी नहीं और है भी नहीं। फिर उसका क्या किया जाय ? इसी को अध्यात्म बोलते हैं। बड़े-बड़े तपस्वी तप करके अभिमान इसलिए नहीं करते। यह तप कहाँ? शरीर को तपाना तप नहीं है, किन्तु ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान की निर्जरा है, ज्ञान ही रत्नत्रय है, ज्ञान ही संवर है, ज्ञान ही सर्वस्व है। और एक प्रकार से ज्ञान ही लिंग सिद्ध हो जाता है। भावलिंग व द्रव्यलिंग, दो प्रकार के लिंग होते हैं। द्रव्यलिंग वस्तुत: अपना है ही नहीं। भावलिंग हमारा है। वह भावलिंग दिखता नहीं, द्रव्य दिखता है। भीतर भाव के कारण उस द्रव्य को भी हम लिंग के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। यह त्याग की विशेषता है। पाषाण की खान से निकाल दिया गया पत्थर, तब भी पाषाण ही माना जाता है। इसके उपरान्त शिल्पी के माध्यम से रूप दिया जाता है। फिर भी वह भगवान् नहीं कहलाता। अपितु उसे पाषाण की मूर्ति कहा जाता है। लेकिन भगवान् नहीं माना जाता। इसलिए ध्यान रखना, जब तक भगवान् नहीं, तब तक उसका मूल्य है। और भगवान् बनने के उपरान्त भी मूल्य नहीं। मकराने में आप भगवान् नहीं खरीदते। जयपुर जाकर आप भगवान् नहीं खरीदते। सेठ साहूकारों से मेरा विशेष रूप से कहना है, वे भगवान् को नहीं खरीद सकते और खरीदने का भाव भी नहीं कर सकते। भगवान् की तो प्रार्थना करो, भगवान् की तो आराधना करो। हाँ, जिसमें भगवत्पन का आरोपण करना है, उससे पहले उसका मूल्य भी नहीं होता। शिल्पी लोग उसको पहले गढ़ करके रखते हैं। फिर न्यौछावर के रूप में दिये जाते हैं। मूल्य इसका इतना हो, तो ले लूगा, ऐसा नहीं होता। मतलब भावी नैगमनय की अपेक्षा से जिसको हम भगवान् बनाने जा रहे हैं, उसमें भी मूल्य का सवाल नहीं होता। यह इसलिए है, जिसका समग्र जीवन ही निर्विकार व निर्विकल्प है, उसकी क्या कीमत है ? संसारी प्राणी भिन्न-भिन्न वस्तुओं की जैसी कीमत करता है, उसी प्रकार अन्यत्र भी उसकी दृष्टि जाने लगती है। विधान तो यही है, उसका कोई मूल्य नहीं। भले ही न्यौछावर के रूप में दिया जाता हो। लेकिन एक बार प्रतिष्ठा हो जाती है, फिर न्यौछावर के लिए भी कुछ नहीं दिया जायेगा। अपने जीवन को ही उनके चरणों में न्यौछावर कर दिया जाता है। बलि बलि जाऊँ मन वच काय। भगवान् के चरणों में अपने आप को ही समर्पित कर देना है। स्वयं चेतना की मूर्ति को भी वह चरणों में अर्पित कर देता है। ऐसा मौलिक भगवद् रूप है। यह रूप क्यों बना है पाषाण की मूर्ति में ? ध्यान रखो, सम्यग्दृष्टि में वह पाषाण की मूर्ति नहीं रही। उसके इर्द-गिर्द परिसर में जाते ही उसके परिणामों में भगवद्रुप के ही परिणाम हो जाते हैं। यद्वा-तद्वा वहाँ बोल नहीं सकता, पूंछ नहीं सकता, ठहर नहीं सकता, बैठ नहीं सकता। भगवान् के सामने मौन संकल्प लेकर के बैठ जाता है। त्याग-तपस्या की वह मूर्ति हैं। हम मानते हैं, लेकिन वह मूर्ति त्याग-तपस्या की नहीं, स्वस्थ मूर्ति है। त्याग-तपस्या तो आरोपित है। उपयोग बाहर जा रहा था, उसको स्वस्थ किया है उसने। रागी व्यक्ति को कपड़े से वेष्टित करने के उपरान्त भी उसके अंग-अंग से राग फूटता है। और वह निर्वस्त्र हैं, इसको देखने से भी राग की बात नहीं आती। सम्यग्दृष्टि की बात है यह। ऐसा स्वस्थ भाव हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। स्वस्थ क्यों हुआ ? पर को अपनाने के भाव करने से अस्वस्थ भाव समाप्त हो गया। कोई अस्वस्थ हो जाता है, तो माथा बांध लेता है। अस्वस्थ हो जाता है तो कोट वगैरह अच्छे ढंग से पहन लेता है। और क्या कर लेता है ? माथे पर अमृतांजन और लगा लेता है। शरीर का त्याग तो किया नहीं जा सकता। किन्तु शरीर पर जो ओढ़ रखा है, उसका तो त्याग किया ही जा सकता है। शरीर का त्याग नहीं किया जा सकता और यदि किया जा सकता है, तो जैसे भगवान् खड़े हैं, वैसे ही खड़े हो जाना, काया का उत्सर्ग है, त्याग है। उससे मोह नहीं रखना, यही काय का त्याग है। मतलब उस मूर्ति को देखने से मोह का त्याग ज्ञात हो रहा है। त्याग, तपस्या का एक मार्ग है। त्याग के बिना तपस्या का कोई मार्ग नहीं माना जाता। और त्याग के बाद यदि तपस्या नहीं की जाती है, तो मार्ग अधूरा रहता है। तप और त्याग, त्याग और तपस्या। जिनवाणी पढ़ों तो वही एक बात मिलती है। भगवान् के दर्शन करो तो भी वही एक चित्र सामने आता है। गुरुओं की परिचर्या करो, तो वहाँ भी यही कथा मात्र सुनने को मिलती है। जोड़ने की बात नहीं है। यह कौनसा विश्वास है ? जिसका आज तक जोड़ने का भाव किया, जो आज तक बांधने का, चिपकाने का प्रयास किया और आज कौन-सी चेतना जागृत हो गई, कि बांधना उसके लिए अभिशाप सिद्ध हो गया। जोड़ना अब उसके लिए बीमारी का घर दिख रहा है। किसी भी प्रकार से उसको स्वीकार करना नहीं चाहता। चूंकि वह शरीर को भी छोड़ सकता है। अनुपात को तो झटकाया जा सकता है। लेकिन उपात को झटकाया नहीं जा सकता। और झटकाने से कुछ काम होता भी नहीं है। उसको काम में लो, लेकिन उसके प्रति ममत्व का त्याग करो। कायोत्सर्ग के बारे में शास्त्रों में अनेक शब्दों में उल्लेख है। एक स्थान पर अहम् का उत्सर्ग करना ही कायोत्सर्ग कहा है। यह बहुत महत्वपूर्ण शब्द है। संसारी प्राणी राग की भूमिका में पर को अपना कर उसमें अहंकार करता है। और कायोत्सर्ग में अहंकार का त्याग बताया है, यानि जितने समय के लिए वह कायोत्सर्ग लगता है, उतने समय के लिए वह काया के प्रति साक्षी बनकर खड़ा हो जाता है या बैठ जाता है। कायोत्सर्ग का अर्थ नासा दृष्टि नहीं, कायोत्सर्ग का अर्थ ध्यान नहीं, कायोत्सर्ग का अर्थ भली-भांति काय का विसर्जन करके बैठ जाना है। हमारे भगवान् हमेशा खड्गासन की मुद्रा में कायोत्सर्ग करते हुए मिलते हैं। कोई भी उनका अंग-उपांग ममत्व का प्रतीक नहीं होता। उनके हाथ नीचे की ओर आ जाते हैं, लम्बकोण बन जाता है। हमारे भगवान् के हाथ भी ऐसे ही नीचे की ओर झूल रहे हैं। और उनकी आँखें अन्यत्र किसी पर टिकी हुई नहीं हैं। एक मात्र निष्पन्द मुद्रा नजर आती है। क्या त्याग किया उन्होंने ? क्या त्याग करने को है, उनके पास ? मात्र नग्न काया या मात्र काया भी कह दो तो भी कोई बाधा नहीं है। नग्न कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। मात्र काया ही उनके पास है और काया के प्रति भी ममत्व नहीं है, तो वे काया को भी मात्र साक्षी बनकर देखते रहते हैं। जिसके लिए आज तक भरण-पोषण आदि क्रियायें करते आये हैं। उसको आज केवल देख रहे हैं। जैसे आप कोट उतार करके लटका दें, और उसको साक्षी होकर देखो। इसी प्रकार काय के प्रति जो ममत्व था उसकी उतारकर रख दिया। तजे तन अहमेव को.। अहं की जागृति जिससे होती थी, उसे उन्होंने छोड़ दिया। इधर आओ कहने से, वही व्यक्ति आता। वह समझता है कि, मुझे बुलाया जा रहा है। मुझे यहाँ से भेज रहे हैं। जितने समय तक रहता है, उतने समय तक राग का अर्जन होता चला जाता है। और जितने क्षण हम इन प्रत्ययों से अतीत होकर गुजार लेते हैं, वे त्याग-तपस्या के माने जाते हैं। भगवान् शान्त हैं। शब्द भी नहीं, स्पंदन भी नहीं। खड़े हैं, तो बस खड़े हैं। इस शरीर से हम काम लेते थे, लेते हैं, अब लेना नहीं चाहते। यही त्याग है। कल आयेगा आपको नवम अध्याय में, बाह्याभ्यन्तरोपथ्यो:॥ व्युत्सर्ग के बारे में कहा गया है। आप त्याग कर सकते हैं, करते चले जाओ। अब हमारे पास क्या रखा है ? कुछ भी तो नहीं रखा है। मत समझो, इसी के कारण तो बाजार मच जाता है, इसी के कारण तो बाजार वस जाता है। जब तक भुक्ति चलती है, तब तक बहुत प्रकार के द्रव्यों का सम्पादन व संयम आवश्यक होता है। और अन्तिम भुक्ति का भी जब त्याग किया जाता है, नियम रूप से नहीं, आजीवन तब अन्तिम उपकरण का त्याग माना जाता है। बाह्याभ्यन्तरोपाध्योः॥ अर्थात् उपधि का त्याग। अन्न को उपकरण के रूप में स्वीकार कर रहे थे। शरीर को भी उपकरण के रूप में स्वीकार कर रहे थे। शरीर को विलासिता का साधन नहीं बनाना चाहिए। वरन उपासना का साधन बनाना चाहिए। उपासना के लिए जब वह छुट्टी ले लेता है, तो कह देते हैं-तुम्हारे लिये जो योग्य द्रव्य था, वह अब हम नहीं देंगे। प्रत्याख्यान हो जाता है। अर्थात् त्याग हो जाता है। उपकरणों का त्याग किया जाता है। घड़ी-घंटे के लिए, एक-दो दिन के लिए, तीन दिन के लिए। बड़े-बड़े ऐसे साधु-संत होते हैं, जिनके लिए बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं पड़ती। प्रतिमायोग धारण करके चार माह के लिए स्थापना कर निष्ठापन के दिन ही उठते हैं। समझे कि नहीं। हाँ, यहाँ पर क्या हो रहा है ? वह भी चातुर्मास है और यह भी चातुर्मास है। एक वह साधना है, और एक यह साधना है। क्या करें, चतुर्थकाल की वह बात है। हीन संहनन की यह बात है। न तो आपको वहाँ कमण्डलु मिलेगा, न और कुछ मिलेगा। कोई ले जाना चाहे तो ले जाओ। चार माह के लिए उठे ही नहीं, तो पिच्छी की भी कोई आवश्यकता नहीं। शास्त्र की भी कोई आवश्यकता नहीं। महाराज, शान्त रहिये। मूलाचार की भेंट है यह तो, रहने दीजिये यहीं इसे। कोई मतलब नहीं। क्या त्याग, क्या तपस्या और क्या साधना ? बड़ा विचित्र-सा लगता है। कहीं स्वप्न में तो ऐसा नहीं लगता, लेकिन यह घटित है। एक वर्ष तक बाहुबली खड़े रहे, तो खड़े ही रहे। देखा नहीं, बोले नहीं, आहार के लिए उठे नहीं, घंटी बजा दो, तो भी कोई मतलब नहीं। क्या समझ रहे हैं आप ? प्रतीक्षा की कोई आवश्यकता नहीं। कैसा व्यवहार ? दुनियाँ से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। तीर्थकरों की दीक्षा के उपरान्त कहाँ पर वह चले जायेंगे, कोई पता नहीं ? किस क्षेत्र का भाग्य उदय होगा, कोई पता नहीं? कोई योजना नहीं, निमन्त्रण नहीं और नारियल चढ़ाना नहीं। महाराज, कितनी बार नारियल चढ़वाओगे ? जितनी बार करो, तो त्याग ही तो हो रहा है, आप लोगों का। एक बार हाँ कह दो न, कम से कम आश्वासन तो दे दी। काहे का आश्वासन ? आने का। कहाँ आने का ? अब आना और जाना ही तो समाप्त हो गया। अब कहाँ आना और कहाँ जाना ? महाराज, ऐसा तो मत कहो, बहुत बुरा लगता है। बुरा नहीं, बूरा लगना चाहिए। ज्ञान और राग के स्वरूप को समझो। कैसे लात मार दी उन्होंने ? यह कहने में आता है। उनको ज्ञान नहीं था क्या ? वे जो जड़ को लात मारते। गुस्सा में आने पर लात मारी जाती है। फेंक दिया। अरे फेंकते क्यों हो, ऐसे फिंक गये। ऐसे त्यक्त हो गये। छूट गये या पीछे रह गये। कोडी अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी। कितने हैं, आप गिनते रहिये। वह तो मुड़कर देख भी नहीं रहे और आप देख रहे हैं। देखने से वे मिल नहीं सकते। मुड़कर चले गये, क्या-क्या छोड़ा ? भगवन्! ऐसा कैसे कर दिया ? वे कहते हैं-क्या छोड़ने के लिए हमने जोड़ा था ? यह संयोग मात्र था। साता का उदय था और ऐसा ही नियोग था। समझ लो, कि वह जुड़ गया। अब जुड़ने के उपरान्त हमने भी कह दिया-मेरा नहीं। लेकिन अब त्याग हो गया। महाराज, इसको मत छोड़ो। इसको मत लात मारो। ऐसा मत करो। मैं पागलों के बीच में था, अब ज्ञात हो गया। लाखों सुनायें, लेकिन एक की भी नहीं सुनें। बहुत मनाया, लेकिन माने नहीं। चल दिया छोड़ घर बार, कुटुम्ब परिवार, धार मुनि बाना, समझाया वीर न माना। अथवा उठ गया दाना पानी..। दोनों उठ गये। जब तक था, तब तक था। लेकिन अब दाना-पानी उठ गया। इसका अर्थ क्या ज्ञान हो गया ? छूट गया। राग क्यों करते हो ? अपना हो, तो राग करो। अपना है ही नहीं, तो किसके ऊपर आप राग कर रहे हैं ? दिन का हो या रात का, सपना सपना होय। सपना अपना सा लगे, किन्तु न अपना होय। लगता है, सपना आया है। यदि अपना है, तो अपनाने के उपरान्त दफनाओ क्यों ? बल्कि, दफनाने के पूर्व ही सोच लेना चाहिए। हमारा अपनाना वस्तुत: स्थायी नहीं है। जो स्थायी नहीं है, उसको अपनाना संयोग मात्र है। ऐसा समझो। एक बार कहा था, दोबारा कहना चाहता हूँ- फूल राग का घर रहा, काँटा रहा विराग। तभी फूल का पतन हो, जाग सके तो जाग॥ फूल खिल जाते हैं। उम्र ढल जाती है, तो गिर जाते हैं। धूमिल हो जाते हैं। पुन: कली के रूप में एक फल और आ जाता है। पुनः खिलता है और चला जाता है। वर्षों पहले की बात है। इस नाटक को, वेष को धारण करने का दृश्य वह देखता है। उन्हीं फूलों के बीच में कांटे भी हैं। वे सब जानते हैं। लेकिन कांटा कभी भी फूलवत् गिरता नहीं। फूल का पतन हो जाता है। तो फूल जाता है, वह रागी माना जाता है। जो फूलता नहीं और द्वेष भी नहीं करता, वह तटस्थ रह जाता है। वह काँटा बना रहता है। वहीं का वहीं रहता है। वह वैराग्य का रूप धारण किये हुए है। उससे किसी को भी राग नहीं होता और उसको दुनियाँ से कुछ राग नहीं होता। कभी पतझड़ हुआ, कभी बसंत आया। उसने किसी का स्वागत नहीं किया। वे आये और चले गये। यही वस्तु स्वरूप है। यह एक पेड़ खड़ा है। जंगल में खड़ा है। कब से खड़ा है ? अकेला खड़ा है। उसको देखने के लिए गर्मी के दिनों में कोई नहीं जाता और कश्मीर की हरियाली सबको सुहानी लगती है। वहाँ हजारों-लाखों रुपया खर्च करके जाते हैं। वस्तु स्वरूप को यदि देखना चाहते हो, तो कश्मीर में रहकर तीनों ऋतुओं का दृश्य देख लेना चाहिए। गर्मी के दिनों में उसकी क्या दशा है ? वर्षा के दिन में उसकी क्या दशा है ? गिरने के पूर्व उसकी क्या दशा है ? अच्छे-अच्छे वस्त्रों के द्वारा सजाया जाता है। फूलहार पहना दिया जाता है और इत्र वगैरह भी लगा दिया जाता है। कैंवर साहब, अब राजा साहब कहलाने लग जाते हैं। लेकिन, उनका वह सब उतार दो, तो ऐसा लगेगा। जैसे गर्मी के दिनों का वृक्ष हो। उसमें और इसमें कोई अन्तर नहीं है। आप बनियान वगैरह मात्र पहनकर फोटो नहीं लेते, अपितु अच्छे ढंग से सज-धज कर लेते हैं। किन्तु यह फोटो नहीं, एक्स रे है। इसमें कितनी भी सज-धज कर लो, जो होगा, वही तो आयेगा। क्यों भैया, क्या बात हो गई ? एक्सरे लेते समय तो ऊपर की मुद्रा अर्थात् चैन, मुकुटादि कुछ भी नहीं आयेगा। एक्सरे में बाहर का कुछ भी नहीं आता। आपके भीतरी पार्टस् मात्र आते हैं। भीतरी पार्टस् वही सही दर्शन है। सारा का सारा ज्ञान है। ज्ञान अर्थात् पाजिटिव और दर्शन अर्थात् नेगिटिव। दर्शन में साकारता नहीं, निराकारता रहती है। एक्सरे का एक बार दर्शन कर ली, तो वैराग्य हो जायेगा। आपका अस्तित्व, यह तो स्वप्न की भांति हैं, इसका त्याग करो। ठीक है, नहीं तो वह आपको छोड़ कर ही चला जाने वाला है। मांसलता एक्सरे में नहीं आती। रूप-कुरूपता एक्सरे में नहीं आती। धनाढयता नहीं आती। दुबला-पतलापन भी एक्सरे में नहीं आता। दुबला का अर्थ क्या होता है ? दो बल वाला। आप लोग क्या मानते हैं। उल्टा मानते हैं। दुबला-पतला का अर्थ एक ही मानते हैं। लेकिन वह एक्सरे में नहीं आता। मात्र वही भीतरी पार्टस् आ जाते हैं। अध्यात्म की दृष्टि में आपका रूप यह नहीं है। आत्मा का स्वरूप यह नहीं है। आप न सुरूप हैं, न कुरूप। उसको एक बार दर्शन करने का जो सौभाग्य प्राप्त कर ले और जिन्होंने सौभाग्य प्राप्त कर लिया, उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर ली, तो भी धन्य है। कभी-कभी आहार के उपरान्त हम कुल्ला करते हैं, तब तक एकाध भजन हो जाता है। उसमें कहते हैं-महाराज, यह कुछ समझ में नहीं आता, महल को कैसे आपने छोड़ा ? महाराज, आपने ऐसे ऐश्वर्य को कैसे छोड़ा? जो कपड़ा फट रहा है, उसको भी पैबंद लगाकर पहनना चाहते हैं। महाराज, आपने पकवान् को कैसे छोड़ा ? हमसे तो सड़ी-गली सब्जी भी नहीं छूटती। सेब का फल है। मानली, वह आधा सड़ गया है, तो भी काटकर खा लेंगे। जिधर अच्छा है, उधर का ले लेते हैं। ऐसा फोकट में थोड़े ही आता है। बात समझ में नहीं आ रही है, कैसे चौरासी लाख हाथी, चौदह रत्न, करोड़ों घोड़े और सब सज-धज कर बैठे हैं और मन उचट जाता है, क्या बात हो गई ? यह पागलपन जैसा लगता है, परन्तु है नहीं। दुनियाँ पागल भले ही हो। लेकिन जब रहस्योद्घाटन हो जाता है, तब ज्ञानी वहाँ पर एक मिनट भी रहने के लिए तैयार नहीं होगा। बैठो-बैठो कहो, तो भी उठ जाता है। ठहरो.ठहरो कहो, तो भी चला जाता है। थोड़े धीरे-धीरे चलो, तो भाग जाता है। उनके लिए पालकी ले आते हैं। तीर्थकरों के लिए पालकी है। अन्यों के लिए कोई पालकी नहीं आती, फिर भी पार हो जाते हैं सभी। संसार में मुड़कर पीछे देखते तक नहीं। उनको स्वप्न भी नहीं आता। क्योंकि मन से, वचन से, काय से उसका त्याग कर दिया। त्याग नहीं, अपितु अपने से राग कर लिया है। तो अपने आप ही त्याग हो जाता है। भोग-सामग्री ताकती रह जाती है और वह पहुँच गये उस पार। भोग सामग्री का मूल्य तब तक ही है, जब तक भोक्ता उपस्थित रहता है। भोक्ता जब उपस्थित नहीं रहता, तो वह फीकी-फीकी पड़ने लग जाती है। जब बारात आपके घर से आकर चली जाती है, तो क्या होता है ? आप अपने अनुभव तो बताओ ? महाराज, सब कुछ रहता है। मात्र लड़की चली जाती है, तो घर खाली हो जाता है। ऐसा लगता है, कि घर खाने को आ रहा है। क्या घर भी खाने को आता है, खाने को दौड़ता है ? किसको खाने को दौड़ता है ? उसको भूख लगी है ? सोचने की बात है, कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती। इसी तरह चेतना जब चली जाती है, तो भोग्य सामग्री वैसी की वैसी रह जाती है। बन्धुओं। जब तक यह आत्मा है, चेतन द्रव्य है, तब तक इस शरीर का कुछ मूल्य भी है। अन्यथा यहाँ पर कोई कुछ पूछने के लिए भी नहीं आता। मानली, कोई व्यक्ति सेठ-साहूकार आदि भी हो, और वह यदि मर जाये तो उसे ले जाने के उपरान्त हम जमीन को भी धो लेंगे। धोयेंगे नहीं, तो बैठेगे नहीं वहाँ पर। क्या हो गया ? अभी तक तो एक भी दिन धोया नहीं और उनके मरने से क्यों धोया गया ? सेठ-साहूकार भी अस्पर्श हो गये ? प्रत्येक घर का सदस्य यह मानता है, कि भैय्या जल्दी से ले जाओ और धोओ। जैसे छुआछूत की बीमारी लग गई हो। सब को धोओ। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा नहीं महाराज, लोग ऐसा मानते हैं, कि बाद में वह छूने योग्य नहीं होता। कितने भी अच्छे वस्त्र क्यों न हों, यदि शव को एक बार पहना दिये, तो उनको कोई भी लेना पसन्द नहीं करेगा। नर्मदा के तरफ चले जाते हैं, तो देखने को मिलता है कि सारे के सारे नये वस्त्र वहीं छोड़कर चले जाते हैं। उनको कोई छूता तक नहीं। ऐसा क्यों हुआ ? अच्छा नहीं माना जाता। जब वैराग्य हो जाता है, तो ऐसा ही होता है। श्रृंगार भी अच्छा नहीं लगता। छुओ नहीं। और रागी को क्या लगता है ? जल्दी-जल्दी छोड़ दो इसको, तो हम रख लें। राग होता है तो भोग-सामग्री होती है। लेकिन सही भोक्ता तो मात्र ज्ञान होता है। वह सोचता है, कि मेरे कैसे कर्म का उदय था, जो इसके पीछे पड़कर जीवन को ही गाँवा दिया ? चमकीला और बिना चमकीला पत्थर, दोनों समान रहते हैं। जो चमकीला नहीं है, उसको चटनी बांटने के काम में ले लेते हैं और जो चमकीला होता है उसको अपने आप को चमकीला बनाने के लिए गले में बांध लेते हैं। मतलब, गले में पत्थर बांधते हैं और कुछ नहीं बांधा जाता। महाराज! आप पत्थर कह रहे हैं ? क्या कह रहे हैं ? आप इसका मूल्य क्या समझते हैं ? जयपुर के जौहरी बाजार में आकर देख लो, कितना मूल्य होता है ? यह मूल्य निर्धारण तो आप लोगों के द्वारा किया गया है। उसका मूल्य उमास्वामी महाराज ने पंचम अध्याय में कहा है रूपिणः पुद्गलाः॥ चाहे चमकीला हो या चमकीला नहीं हो, सभी रूपी हैं। रूप, रस, स्पर्श, गन्ध वाला पुदूल है। वह जड़ होता है। उसमें रखा गया मूल्य तब तक ही होता है, जब तक राग होता है। यह ध्यान रखो, यदि राग रहते हुए भी उसकी मात्रा बढ़ जायेगी, तो वह अपने आप ही कंकर-पत्थर जैसा हो जायेगा। सोना बहुत कम मात्रा में मिलता है, इसलिए सोना है। और यदि सोने के ढेर में आपको ले जायें, तो क्या ? जहाँ पर कमोवेशीपन नजर आता है, वही पर बड़े-बड़े अहमिन्द्र बन जायेंगे, अन्यथा सब समान हो जायेंगे। देखो, यदि सारे के सारे करोड़पति हो जायें, तो एक करोड़पति दूसरे करोड़पति के लिए क्या समझेंगे ? कोई कीमत नहीं। क्या कह रहे हो ? सोच लो जरा। सारे के सारे अरबपति हो जायेंगे, तो भी यही हाल होगा। करोड़पति हो, और अरबपति हो, तो अरबपति का साफा फर्राता रहता है। करोड़पति का साफा भी फर्राता रहता है, लखपति के सामने। लखपति का साफा भी फर्राता रहता है, हजारपति के सामने। हजारपति का भी साफा फर्राता है उसके सामने जो आज का आज लाकर खाता है। आज लाकर खाने वाला भी भिखारी के सामने कहता है, कि अपने परिश्रम की खाता हूँ। तू भी काम करके खा। एक-दूसरे के लिए यह व्यवस्था है। जब स्वरूप का बोध होता है, तो न कोई करोड़पति है, न अरबपति। न लखपति है, न हजारपति। न छोटा है, न बड़ा है। न कोई रूपवान् है, न कोई कुरूपी। न कोई ज्ञानी, न कोई अज्ञानी। कोई अन्तर नहीं। सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया॥ शुद्धनय का आलम्बन ले लो, तो सारे के सारे शुद्ध नजर आयेंगे। कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं। ये जो भी विषमतायें हैं, केवल अशुद्ध निश्चयनय या व्यवहारनय अथवा बाहरी उपचारनय की विषय बन जाती हैं। धन्य हैं वे, जिनके आँख के ऊपर केवल एक शुद्ध निश्चयनय का चश्मा लगा है, वे सब ही जीवों को एक ही दृष्टि से देखते हैं। जहाँ एक समान देखा, कि रागद्वेष नहीं रहे। जहाँ भेद हुआ नहीं, कि रागद्वेष प्रारम्भ हुआ। विकल्प पैदा हो गये। विवाह के बाद पति-पत्नी में प्रेम होता है। लेकिन जब संतान उत्पन्न हो जाती है, तो उनका प्रेम बंट जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दर्शन व ज्ञान ये दो उपयोग रहे तो कुछ भी नहीं होगा। बीच में कोई आ गया, तो बस। उसके माध्यम से कुछ आदर मिला, प्रेम मिला। उसमें ऐसा घुलमिल जाता है कि दर्शन व ज्ञान को भूल जाता है। और दर-दर भटकने लग जाता है। पुत्र की रक्षा के लिए सात-समुन्दर को पार करने की भी तैयारियां प्रारम्भ कर देता है। पुत्ररत्न बहुत दिनों तक नहीं मिला था। मिल गया, तो फूला नहीं समाता। मिठाई बांटने लग जात है। दूसरे दिन सोचने लग जाता है-इसके लिए दस खण्ड का मकान चाहिए। इसके लिए जमीन चाहिए। इसके लिए जायजाद चाहिए। इसके लिए दुकान चाहिए। नौकर चाहिए, चाकर चाहिए। यह चाहिए, वह चाहिए। मैं यहाँ पर बैटुंगा, तो यह सब हो नहीं सकता। लाला तू यहीं पर बैठ जा। पत्नी को कह देता है-तू इसको संभाल ले, मैं जाकर आता हूँ। और सात समुन्दर पार हो गया। घर छोड़ा, बार छोड़ा। बार का मतलब क्या ? वाड़ी, जे घर के सामने होती है। उसको बार बोलते हैं। घर छोड़ा, बार छोड़ा, परिवार छोड़ और प्यार छोड़ा, सब छोड़ा। यहीं का यहीं। और धुन लग गई। भटकता-भटकता चला जाता है। मेरा कर्तव्य है, यह तो ठीक है। लेकिन कब तक कर्तव्य है ? जब तक मैं घर में रहूँ, तब तक। फिर तो ठीक है, अन्तिम घड़ी तक कोई छोड़ेगा नहीं। क्या समझते हो? तीर्थकर क्यों त्यागें, संयम से क्यों अनुरागे.? सोचो, विचार करो, भरा हुआ है, फिर भी उसको छोड़ने का विकल्प क्यों आया ? भेदविज्ञान की यही एक मात्र करामात है। हर्ष नहीं, विषाद नहीं, एक मात्र वैराग्य भरा हुआ है। संवेग से परिपूर्ण वह जीवन किसी से प्रभावित नहीं होता। और किसी से प्रभावित नहीं होना ही रागी के लिए एक अवसर प्रदान करता है, यह सोचने के लिए कि क्या बात है ? सब कुछ होते हुए भी क्यों इधर आ गये ? रहस्य समझना हो, तो कुछ समय के लिए यहाँ रहो। पूछने की कोई आवश्यकता नहीं ? क्योंकि इन्हीं समस्याओं के कारण विकल्प होते हैं। लेकिन अब उनको कोई भी संकल्प नहीं, विकल्प नहीं। कल की चिन्ता नहीं। अरे, कल की चिन्ता क्या करते हो ? चिन्ता करने वाले चिन्ता करें। लेकिन कल कोई वस्तु नहीं। आज आराम के साथ रहता है जंगल में भी। कल नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। वस्तु कैसे नहीं है ? भरी हुई हैं वस्तुएं। जमाना ही भरा हुआ है। जहाँ कहीं भी चले जाओ, सभी जगह विषय मिलते रहते हैं। धन्य हैं वे, जिन्होंने इस रहस्य को समझा। उत्तम त्याग वहीं है, जहाँ किसी के प्रति राग नहीं रहता। जो राग करता है, वह बंध को प्राप्त होता है। राग से मुक्त वह होता है, जो वीतराग होता है। इस प्रकार का बंध व मोक्ष तत्व का संक्षेप में यह व्याख्यान है। भगवान् ने कहा-किसी भी पदार्थ के प्रति राग और द्वेष मत करो, यही एक मात्र सही त्याग व तपस्या है। परद्रव्य को छोड़ना यह वस्तुतः भीतरी राग को छोड़ने का एक बाहरी/औपचारिक उपाय है और कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार ऑपरेशन के पहले इंजेक्शन लगाना होता है, तो स्प्रिट के द्वारा कुछ जगह को साफ कर लेते हैं। यह कोई उपचार नहीं है। यह कोई ट्रीटमेन्ट नहीं है। कोई चिकित्सा नहीं है। यह कोई पैथी नहीं है। केवल उस स्थान को शुद्ध कर लिया गया, ताकि हम इंजेक्शन लगा सकें। बस इतना ही बाहरी त्याग का अर्थ है। बाहरी त्याग का अर्थ, केवल स्प्रिट लगाकर उस स्थान को साफ करने का प्रयास कर दिया गया। भीतर से यदि राग का विमोचन होता है, तो संयमलब्धि स्थान बन जाते हैं। नहीं तो ऐसा लगते हुए भी, कि हम तो पार हो गये, ऊपर चढ़ गये, लेकिन होता नहीं। कब नीचे आ जाता है ? कब ऊपर चला जाता है ? यह सब भीतर के भावों पर ही आधारित होता है। वस्तु हाथ में नहीं, वस्तु के प्रति राग हुआ नहीं, कि वह नीचे आ गया। और वस्तु वहीं की वहीं है। यदि राग छोड़ दिया, तो वह ऊपर चढ़ गया। जैसे, थर्मामीटर में पारा रहता है। उसको आपने टच भर कर दिया तो क्या वह आपके भीतर घुस गया ? थर्मामीटर कहीं घुसा तो है नहीं। यहाँ टच करा दिया, तो उसमें बुखार चढ़ गया। ध्यान रखना, थर्मामीटर में बुखार नहीं चढ़ा। बुखार तो आपमें ही है। थर्मामीटर बता रहा है, कि १०६डिग्री बुखार है। मानलो, किसी ने गाली सुना दी, तो पारा चढ़ गया। दूसरा भी वहीं पर बैठा है, उसको नहीं चढ़ा। क्योंकि उसने स्वीकार नहीं किया। त्याग होने के उपरान्त जिसके जीवन में यह दशा हमेशा बनी रहती है, तो निश्चित रूप से असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा करता हुआ, अवश्य ही कुछ दिनों में या वर्षों में या भवों में वह मुक्त होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। यहाँ का व्यक्ति जो निर्वाण को प्राप्त होता है, वह आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त मुक्त हो सकता है। इतनी कम उम्र में वह मुक्त हो सकता है। महाराज! ऐसा भी कोई रास्ता है क्या ? हाँ, रास्ता है। आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त में मुक्त होने की बात कही है। यहाँ से सीधे विदेह चला जायेगा, लेकिन सम्यग्दर्शन छूटेगा। यह ध्यान रखना। वहाँ पर आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त के बाद मुनि बनेगा और मुक्त हो जायेगा। किसी को पता ही नहीं लगेगा, कि कहाँ गया हमारा दोस्त ? ऐसे भी रास्ते हैं ? राग और द्वेष, विषय और कषाय, बन्ध और मोक्ष ये समझ में आ जायें, तो सब सरल है। लांग लाइन से आप चलोगे, तो कुछ होने वाला नहीं है। त्याग वस्तुत: बाहरी नहीं वरन् भीतर चेतन में जो राग, द्वेष, मद, मत्सर आदि हैं, उन्हीं का त्याग करना है। उनके प्रति अहम् बुद्धि छोड़ देना है। इसी त्याग को उत्तमत्याग संज्ञा दी गई है। वह ख्याति, पूजा व लाभ के लिए नहीं किया जाता, वरन् आत्मोन्नति के लिए, कर्म निर्जरा के लिए किया जाता है। उस त्याग को हम बार-बार नमस्कार करते हैं, जिसके माध्यम से हमारा विकास अवश्यंभावी है। अहिंसा परमो धर्म की जय...
  20. प्रभावना अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार प्रभावना अंग का पालन करना श्रावक और साधु दोनों के लिए अनिवार्य है। जिनधर्म के माहात्म्य का ज्ञानादि के द्वारा प्रकट करना प्रभावना अंग है। श्रावकों को दान, पूजा आदि के माध्यम से धर्म की प्रभावना करना चाहिए और साधु को ज्ञान और तप आदि से जैनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए। पूजा, विधानादि के माध्यम से श्रावक धर्मध्यान करता हुआ अपने प्रभावना अंग को पुष्ट बनाता रहता है। शास्त्र स्वाध्याय का उद्देश्य कर्म निर्जरा होना चाहिए एवं जिनशासन की प्रभावना में इसका उपयोग करना चाहिए तभी इसका यथोचित फल प्राप्त होता है। प्रभावना किसी को नीचे दिखाने के लिए नहीं बल्कि वीतराग धर्म की महिमा दर्शाने के लिए की जाती है। मंदिर आदि निर्माण करवाने में भावना गलत नहीं होनी चाहिए, बल्कि उससे धर्म की प्रभावना होनी चाहिए। धार्मिक अनुष्ठान के माध्यम से अपनी प्रभावना नहीं बल्कि धर्म की प्रभावना हो, ऐसी भावना रखना चाहिए। भगवान ने तो धर्म की प्रभावना की है, हम नहीं करेंगे तो क्या होगा ? ऐसा नहीं सोचना चाहिए बल्कि यथाशक्ति धर्म की प्रभावना करना चाहिए तभी हमारा सम्यक दर्शन निर्मल होगा। आलस्य से बचने का सबसे अच्छा तरीका है धर्म की प्रभावना करते रहना।
  21. वात्सल्य अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार माँ का प्रेम बेटे पर अकृत्रिम होता है गाय का बछड़े से जो स्नेह है, वह बिना प्रशिक्षण के सहज होता है, इसी का नाम वात्सल्य है। सहजता में जो रस आता है वह कृत्रिमता में नहीं आता। जैसे पेड़ के ही पके आम के रस एवं पाल में पके आम के रस में अंतर होता है। श्री रामचन्द्रजी ने वज़कर्ण के प्रति वात्सल्य होने के कारण राजा सिंहोदर को बाँध लिया था। आज वात्सल्य के अभाव में धर्म की अप्रभावना हो रही है। भटके हुए को सहारा सहानुभुति देते हुए पुनः रास्ते पर लाना ऐसा कार्य वात्सल्य अंग वाला ही कर सकता है। गुरुओं के प्रति वात्सल्य नहीं रखा जाता बल्कि उनके प्रति भक्ति भाव से समर्पित होना होता है। वात्सल्य अंग का पालन करने से हमारा सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है। गाय जो अपने बछड़े के प्रति भाव रखती है, वह अन्य किसी पशु से ज्ञात नहीं होता। वत्स से वात्सल्य शब्द की उत्पत्ति होती है। वत्स के प्रति जो गाय का प्रेमभाव है, वही वात्सल्य है। सभी जीवों के प्रति वात्सल्य एवं मैत्री का भाव रखने से तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है। सोलहकारण भावनाओं में जो वत्सलत्व शब्द आया है, उसका अर्थ है प्रकर्ष रूप से जो भगवान के वचन मिले हैं, उसके प्रति एवं उसमें आस्था रखने वालों के प्रति वात्सल्य भाव का होना। जब तक मुक्ति न हो तब तक मोक्षमार्गी को अपने साधर्मियों से हिल-मिल कर रहना चाहिए। चारणऋद्धि धारी मुनिराज कभी अकेले नहीं मिलते, वे सहधर्मी साथ-साथ ही चलते हैं। सधर्मी से कभी विसंवाद न करें, वात्सल्य की कमी के कारण ही विसंवाद होता है। वात्सल्य अंग आपस की कलुषताओं से बचा लेता है। व्यवहार में वात्सल्य के बिना एक पल भी चल नहीं सकता। व्यवहार में एक-दूसरे के साथ हिल-मिलकर चलेंगे तो विश्व का कल्याण होने में देर नहीं लगेगी। जिसने पूर्व पर्याय में वात्सल्य की भावना भायी ऐसे तीर्थकर बालक को अब शचि आदि गोद से नीचे नहीं रखने देती। जब छोटे बड़ों की विनय/आदर करते हैं, उन्हें सम्मान देते हैं तब बड़ों से उन्हें अपने आप वात्सल्य मिल जाता है। वात्सल्य के अभाव में हमारा व्यवहार तपे हुए दूध के समान है, उसे कोई छूना भी पसंद नहीं करेगा। वात्सल्य अंग के धारी गुरुदेव खोट पर चोट लगाते हैं और अंदर से सपोर्ट देते रहते हैं। वात्सल्य के अभाव में व्यवहार अभिशाप सिद्ध हो जायेगा। धर्म की प्रभावना वात्सल्य के बिना हो ही नहीं सकती। मिथ्यात्व रागादि सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों में प्रीति को छोड़कर रागादि-विकल्पों की उपाधि रहित अभेद रत्नत्रय में प्रीति करना निश्चय वात्सल्य अंग है। जो व्यवहार वात्सल्य में निष्णात रहता है, वही निश्चय वात्सल्य को प्राप्त करता है। वात्सल्य अंग में विष्णुकुमार मुनिराज प्रसिद्ध हुए हैं। वीतराग मार्ग पर बढ़ने पर भी कुछ राग विद्यमान रहता है, इस वात्सल्य पर्व (रक्षाबंधन पर्व) से ज्ञात होता है। वीतरागी अपने लिए कठोर होते हैं लेकिन सबके लिए नहीं यह भी इस वात्सल्य पर्व (रक्षाबंधन पर्व) से ज्ञात होता है। जैसे शरीर में आठ अंग होते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन में आठ अंग होते हैं, उनमें वात्सल्य को हृदय की उपमा दी गई है। गाय वत्स (बछड़े) को सींग नहीं दिखा सकती बल्कि जिव्हा के माध्यम से लाड़ करती है लार (जीभ से चाटती है) के माध्यम से प्यार करती है। लाड़ सारी कलुषताओं से बचा देता है। गरिष्ट से गरिष्ट पदार्थ भी लार के माध्यम से पच जाता है। वात्सल्य अंग से रोता हुआ व्यक्ति भी हँसने लगता है। वात्सल्य के बिना एक पल भी चल नहीं सकता इसके माध्यम से तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है। लार को लालारस कहा जाता है, लालारस के स्थान पर लावारस आ जावेगा तो क्या होगा ? लावा से समुद्र भी सूखने को हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में लालारस, वात्सल्य से परिचित हो। एक दूसरे का व्यवहार पच जाए इसलिए सम्यग्दर्शन में वात्सल्य अंग रखा है। छोटे बड़ों की विनय करें और बड़े छोटों को वात्सल्य दें, तभी समाज में विकास हो सकता है। जिसके प्रति वात्सल्य रहता है, उन्हें सिर पर ना बिठायें। भगवान से वात्सल्य नहीं होता उनके प्रति भक्ति की जाती है। दूसरे के दुख को देखकर आँखों में पानी आना धर्म प्रिय की निशानी है। धन प्रिय बहुत बन लिया अब धर्म प्रिय भी बनो। स्व के साथ पर को भी देखना चाहिए। आज विष्णुकुमार महाराज जैसा नहीं कर सकते क्योंकि उतनी ऋद्धि, सिद्धि नहीं है, फिर भी जितना है उतना सहधर्मी के प्रति तो कर सकते हैं। अन्य जीवों को भी सहारा देकर ऊपर उठाना चाहिए यदि उनके पास निजी उपादान होगा तो वह उन्नति कर जावेंगे। वे सैनिक सीमा के पार रहकर विपक्षियों को भगाते रहते हैं, तब कभी हम और आप यहाँ शांति से धर्मध्यान कर सकते हैं। सक्रिय अनुकम्पा के बिना सम्यग्दर्शन टिक नहीं सकता। काव्य में भी यदि वात्सल्य रस नहीं है तो सूखा, नीरस-सा लगता है, आनंद नहीं आता। गुरु का वात्सल्य अनुशासन से भरा हुआ होता है, वे खोट पर चोट करते हैं और अंदर से सपोर्ट भी देते हैं। आप विनय करिये तो आपको वात्सल्य मिलेगा। पाने में लिए कुछ तो देना पड़ेगा। दूसरे के गुणों को देखने का प्रयास करिये यही वात्सल्य भावना है। रुक्मणि से प्रद्युम्न को वात्सल्य तब मिला जब वह विद्या के माध्यम से बच्चा बन गया।
  22. स्थितिकरण अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार धर्म स्नेही जनों के द्वारा सम्यग्दर्शन अथवा चारित्र से भी विचलित होते हुए पुरुषों का पुन: धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण अंग है। यदि हम दूसरे को उठाना चाहते हैं तो हमें ऊँचे स्तर पर खड़े होना आवश्यक है। कर्मों के योग में ऐसे निमित्त जुड़ते हैं कि जिसके द्वारा सम्यग्दर्शन में स्खलन आ जाता है, वैसे भी स्खलित होना तो मानव का स्वभाव ही है। धर्मात्मा पर आई हुई आपत्ति को श्रद्धा, विवेक व चारित्र के माध्यम से दूर करना स्थितिकरण अंग कहलाता है। राहगीर गिरे को उठाता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में साथ चलने वाले गिर जावें तो उन्हें उठाकर साथ लेकर चलते जाओ, इसी का नाम स्थितिकरण है। निश्चय से उन्मार्ग में जाते हुए अपने मन को पुन: सन्मार्ग में स्थिर करना स्थितिकरण कहलाता है। अपने भाव बार-बार गिर जाते हैं, उन्हें पुन: स्वयं संभाल लेना बुद्धिमत्ता है। स्थितिकरण के लिए ज्यादा ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, अंदर से भाव होना चाहिए, वात्सल्य के साथ टूटे-फूटे शब्द भी काम कर जाते हैं। स्थितिकरण अंग में वारिषेण मुनिराज प्रसिद्ध हैं।
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