श्रावक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- डॉ. जे. को. वी. जर्मनी ने कहा है कि भारत से ही जैनधर्म और बौद्धधर्म चल रहे हैं पर जैनधर्म की परम्परा अभी भी चल रही है जबकि बौद्धों के अनुयायी इतने नहीं हैं। क्योंकि बौद्धधर्म में मात्र साधु धर्म है श्रावक धर्म नहीं। जबकि जैनियों में साधु धर्म भी है और श्रावक धर्म भी और साधु से श्रावक धर्म वाले ज्यादा हैं। इसलिए दो पहियों (श्रावक, साधु) से जिनशासन रूपी रथ आगे बढ़ता जा रहा है।
- दोनों पहियों को साथ-साथ चलना होता है यदि एक भी रुक गया तो दोनों को रुकना होगा।
- श्रावक धर्म में कमी आने से श्रमण, साधु धर्म में भी कमी आ जावेगी। श्रावक आज अपना कर्तव्य भूलता जा रहा है।
- श्रावक और साधु में तालमेल बिना धर्म नहीं चल सकता।
- श्रावक को कमजोर नहीं समझना चाहिए, वह एक का नहीं बहुतों का निर्वाह करता है।
- श्रावक समाज के साथ भी चलता है धर्म संस्कार भी पालता है एवं हमेशा-हमेशा मुनि बनने के भाव बनाये रखता है।
- श्रावक को यदि जीवन में सात्विकता रखनी है, दया का पालन करना है तो उसे पशुपालन करना चाहिए।
- जीवित धन नहीं रखोगे तो महान् हानि होगी।
- श्रावक का जीवन रागमय होता है लेकिन वह वीतराग का अनुरागी भी अवश्य होता है। वीतरागता की ओर बढ़ने का भाव हमेशा बनाये रखता है।
- श्रावक को भी दया का पालन करना चाहिए। जब तक दया धर्म है तभी तक सब कुछ है।
- त्रैकालिक सावधानी रखने की वृत्ति श्रावक में होना चाहिए।
- श्रावकों को पानी विधिवत् छानना, जिवाणी डालना जिनवाणी का सार है।
- श्रावकों में से ही ये अकलंक, जिनसेन जैसे रत्न आये थे। घुंटी में ही ये संस्कार पिलाये जाते हैं प्राण जावे पर प्रण न जावे ऐसे संस्कार डाले जाते हैं।
- गृहस्थ/श्रावक को हर क्षण कर्म बंध इसलिए होता रहता है क्योंकि उसका इन्द्रिय और मन का संयम नहीं रहता। संकल्प में अभाव के तत्सम्बन्धी बंध होता ही रहता है।