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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • व्रत

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    व्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. पाँच पापों का त्याग किए बिना व्रती नहीं बन सकते।
    2. विरति दो प्रकार की होती है, सकल विरति और देशव्रती। देशव्रती श्रावक का धर्म है और सकलव्रती होना मुनि धर्म है।
    3. एक व्यक्ति व्रती बन जाता है तो सारा परिवार प्रासुक/सात्विक हो जाता है। इससे जीवन में, परिवार में व्रत पलने लगता है, फिर आत्मा की बात रुचने लगती है।
    4. जिनके यहाँ सात्विक जीवन बना रहता है, उनके परिवार में व्रती आते रहते हैं।
    5. व्रत पालना विश्वास के साथ होता है, उसी विश्वास का नाम सम्यग्दर्शन है।
    6. विश्वास की कमी होने से व्रतों में कमी आ जाती है।
    7. हमारा जीवन संयत और संतुलित रहे तभी लक्ष्य प्राप्त होगा।
    8. व्रत ऐसा पक्का होना चाहिए जैसे कपड़े पर लगा पक्का रंग,जो कपड़ा फटने के बाद भी रहता है, उड़ता नहीं।
    9. व्रतियों को हमेशा अशुचि भावना का चिंतन करना चाहिए।
    10. व्रत पालन करने के लिए दृढ़ श्रद्धान की आवश्यकता होती है।
    11. सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन सुरक्षित हो तभी विरति सार्थक है।
    12. व्रती हमेशा माया, मिथ्या और निदान रूप तीनों शल्यों से रहित होता है।
    13. सम्यक दर्शन के अभाव में पाँच पापों का त्याग सम्यकचारित्र नहीं कहलाता।
    14. श्रावक के १२ व्रत होते हैं, जब उन्हें अंगीकार करता है, तभी वह व्रती माना जाता है। एक पाप के त्याग करने से व्रती संज्ञा को प्राप्त नहीं हो सकता।
    15. व्रत के बिना समितियों का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि व्रत की रक्षा के लिए समिति होती है।
    16. व्रत होने के बाद भी मैं व्रती हूँ, इस प्रकार का विकल्प नहीं रहता, इसका नाम निश्चय व्रत है, जो कि शुभाशुभ रागादि विकल्प से रहित होता है।
    17. व्रतों में दृढ़ रहना, सदाचार का पालन करना और तत्वों का चिन्तन करना धर्म-ध्यान का लक्षण है।
    18. प्रायश्चित के बिना व्रतों का कोई महत्व नहीं होता।

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