शरीर विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- शरीरमय आत्मा नहीं है, बल्कि शरीर में आत्मा है जैसे पाषाणमय सोना नहीं है, बल्कि पाषाण में सोना है।
- यह शरीर काम रूपी सर्प का घर है और यह शरीर संयम का साधन भी है।
- शरीर सुख की आकांक्षा रखोगे तो काम का प्रकोप बढ़ेगा।
- शरीर में सुख को विष मिश्रित अन्न समझकर छोड़ देना चाहिए।
- शरीर सुख एवं शरीर का संस्कार मोक्षमार्ग में बाधक है।
- यह प्राणी शरीर को पुष्ट बनाना चाहता है पर ज्ञान को पुष्ट बनाना नहीं चाहता।
- मैं शरीर वाला हूँ ही नहीं ऐसा श्रद्धान बना लो ऐसा श्रद्धावान जीव आत्मस्थ हो जाता है। वह चलते हुये भी नहीं चलता, देखते हुये भी नहीं देखता, कर्म बंध से मुक्त रहता है।
- शरीर से हमेशा विकल्प ही होते हैं। पित्त की अधिकता से स्वप्न में अग्नि दिखती है, वात की अधिकता से हवा में उड़ना दिखता है और कफ की अधिकता से पानी दिखता है।
- अनर्थ का मूल कारण यह शरीर ही है। जो इस शरीर को नियंत्रण में रखकर इससे धर्म साधन करता है, वह अशरीरी बन सकता है।
- कुछ भी पदार्थ डालो इस शरीर में फिर भी नाली की भाँति गंदा हो जाता है। यह शरीर धन आदि आपत्तियों का घर है साढ़े साती का ग्रह उसी को लग सकता है जिसके पास परिग्रह हो ।
- शरीर को आचार्यों ने हीनस्थान कहा है, क्योंकि इससे हीन कार्य किए हैं, इसलिए यह अब छूटता नहीं है। उसमें रहने वाले सब पिंजरे के पंछी के समान हैं।
- हमने इस शरीर को अपना हेतु समझा है, तभी तो उससे बड़ा अनुबंध है। सल्लेखना के बाद भी वह प्राप्त हो जाता है।
- बच्चे की भाँति शरीर को सुला दो, फिर भीतर आत्मा से काम लो। शरीर पर ज्यादा दया करना अविवेक है।
- शरीर से व्यवस्थित काम लेते रहना एक महान् कला है।