समता/समाधि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- समाधि का अर्थ मन, वचन एवं काय से ऊपर उठना होता है। समाधि का अर्थ है समतामय जीवन ।
- मान को छोड़ना अनिवार्य होता है तभी समाधि प्राप्त होती है।
- जानते हुए भी प्रतिकार का भाव न आना ही समता है, कायरता का नाम समता नहीं है।
- मोक्षमार्ग में सबसे अच्छी औषधि समता ही है।
- जीवन में सुरक्षा कवच का नाम समता है।
- समता के अभाव में जीवन भारमय/दु:खमय प्रतीत होता है।
- सुहावने, असुहावने दोनों प्रकार के शब्दों को सुनकर समता रखना नाम सामायिक कहलाती है और हमेशा समता रखना काल सामायिक है।
- साधक निर्विकल्प समाधि के द्वारा अंतर्मुहुर्त में काय, विषयों एवं कर्म इन तीनों को घातता है।
- षट्-रसों से परहेज रखना लेकिन आत्मा का रस, समता रस खूब लो रात दिन इसमें कोई परहेज नहीं।
- कम परिश्रम में ज्यादा लाभ समता से ही होता है।
- समता जहाँ पर आ गयी वहीं धर्म-ध्यान है।
- सल्लेखना में कर्म की उदीरणा नहीं हो सकती क्योंकि यह बुद्धिपूर्वक होती है।
- समता के साथ मरण करने पर मनुष्यायु का भी बंध हो सकता है, लेकिन अभी इस पंचमकाल में मनुष्य से मनुष्य होगा तो मिथ्यात्व के साथ होगा।
- जन्म-मरण, सुख-दु:ख, निंदा-प्रशंसा, योग-वियोग एवं वन-भवन में समता रखने वाला ही सच्चा साधु माना जाता है।
- समता साधु की सबसे बड़ी पूँजी है।
- समता स्वभाव है, मूलगुण है, इसलिए साधुओं को हमेशा समतामय बने रहना चाहिए। समता भाव रखो! यह एक ऐसी औषधि है जो स्वयं एवं दूसरों को भी प्रभावित करती है। किसी चीज का प्रतिकार मत करो, इसे ही उपेक्षा संयम कहते हैं।
- यह सब अच्छा-बुरा मेरे कर्मों के उदय से हो रहा है। ऐसा सोचता हुआ जो समता रखता है वह वीर कहलाता है, इसमें बहुत आमदनी होती है। कर्मोदय को हटाया नहीं जा सकता, उसको समता से सहन करके निर्जरित किया जा सकता है।