Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. तप, दोषों की निवृत्ति के लिए परम रसायन है। मिट्टी भी तपकर ही पूज्य बनती है। अग्नि की तपन को पार करके ही वह पात्र के रूप में उपयोगी बन जाती है। भारत भूमि का एक-एक कण तपस्वियों की पद-रज से पुनीत बन चुका है। तप की प्रशंसा केवल इन महर्षियों, योगियों और तपोभूत पुरुषों द्वारा ही नहीं गायी गयी। अन्य पुरुषों, कवियों ने भी तप की यशोगाथा गायी है। राष्ट्रकवि स्वर्गीय 'मैथिलीशरण गुप्त' ने लिखा- हैनारायणा नारायणा धन्य है नर साधना | इन्द्रपद ने की है जिसकी शुभाराधना || भोगासक्त देवों ने भी इस तप-साधना की प्रशंसा की है। वे स्वर्गों से उतरकर उनका कीर्तन-पूजन करने के लिये आते हैं जो नर से नारायण बनने की साधना में लगे हैं। तप, दोषों की निवृत्ति के लिये परम रसायन है। मिट्टी भी तपकर ही पूज्य बनती है। जब वह अग्नि की तपन को पार कर लेती है तब पक्के पात्र घड़े आदि का रूप धारण कर लेती है और आदर प्राप्त करती है। कहा भी है-‘पहले कष्ट फिर मिष्ट'। पदार्थ की महत्ता वेदना सहकर ही होती है। आप दुखी होने पर सुख का रास्ता ढूँढ़ते हैं और साधु समागम में आते हैं। साधु-समागम में सुख मानकर भी यदि कुछ प्राप्त नहीं करते तो आपका आना व्यर्थ ही होगा। जिस भू-तल पर हम रहते हैं वह एक प्रकार का जंक्शन है। प्रत्येक दिशा में यहाँ से मार्ग जाते हैं। यहाँ से नरक की ओर यात्रा की जा सकती है, स्वर्ग जाया जा सकता है, पशु-योनि को पाया जा सकता है मनुष्य भी पुनः हुआ जा सकता है और परमात्मा पद की उपलब्धि भी की जा सकती है। जहाँ भी जाना चाहें, जा सकते हैं। साधना स्वाश्रित है। गृहस्थी में आतप है, कष्ट है, छटपटाहट है। जैसे पूड़ी कड़ाही में छटपटाती है, वही दशा गृहस्थ की होती है। तप द्वारा उस कष्ट का निवारण संभव है। एक बार गृहस्थ अवस्था में मेरी बाँह मोच गयी थी, मैंने स्लोन्स बाम लगायी। उससे सारा दर्द धीरे-धीरे जाता रहा। इसी तरह संसार की वेदना को मिटाने के लिये तप रूपी बाम का उपयोग करना होगा। कार्य सिद्धि के लिए तप अपनाना ही होगा। लोहे की छड़ आदि जब टेढ़ी हो जाये तो केवल तपाकर ही उसे सीधा बनाया जा सकता है अन्यथा सभी साधन व्यर्थ हो जाते हैं। उसी प्रकार विषय और कषाय के टेढ़ेपन की निवृत्ति के लिये आत्मा को तपाना ही एकमात्र अव्यर्थ साधन है। इच्छा का निरोध कौन करें? वानर? नहीं नर, केवल नर। वानर तो पशु है। नारकी भी नहीं कर सकते। देव भी नहीं कर सकते। ये सब तो अपनी गलती का प्रायश्चित कर सकते हैं। साधना तो केवल नर ही कर सकता है। धन्य है नर साधना ! नर-पद एक ऐसा मैदान है जहाँ पर नारायण बनने का खेल खेला जा सकता है। अभी कुछ दिन पहले एक सज्जन कह रहे थे‘धन्य है हमारी यह सुहाग नगरी! फिरोजाबाद! इसने आचार्य महावीरकीर्ति जैसी मूर्ति को उत्पन्न किया है।” ठीक है महावीरकीर्ति महाराज यहाँ पैदा हुए और उन्होंने साधना द्वारा अपना कल्याण किया, किन्तु आपको क्या मिला? आप भी महावीरकीर्ति महाराज जैसे बने क्या? महावीरकीर्ति महाराज जैसे तपस्वी आपके लिये आदर्श तो बन सकते हैं आपकी कालिमा का संकेत दे सकते हैं किन्तु वे स्वयं आपकी कालिमा मिटा नहीं सकते। दर्पण आपके मुख पर लगे धब्बे को दिखा सकता है लेकिन वह धब्बा जब भी मिटेगा आपके प्रयास से ही मिटेगा। आपको यह मनुष्य जीवन मिला है तो साधना करनी ही चाहिए, अन्यथा आप जानते ही हैं कि ‘तप' का विलोम 'पत' होता है अर्थात् गिरना। साधना के अभाव में पतन ही होगा। इच्छाएँ प्रत्येक के पास हैं किन्तु इच्छा का निरोध केवल तप द्वारा ही संभव है। यदि इच्छाओं का निरोध नहीं हुआ, तो ऐसा तप भी तप नहीं कहा जायेगा।‘तपसा निर्जरा च' अर्थात् तप से निर्जरा भी होती है। यदि तप करने से आकुलता हो और निर्जरा न हो तो वह तप भी तप नहीं है। साधन वही है जो साध्य को, दिशा/लक्ष्य/मंजिल दिला दे सके, कारण वही साधकतम है जो कार्य को सम्पन्न करा दे। औषधि वही है जो रोग की निवृत्ति कर दे। तप वही है जो नर से नारायण बना दे। गृहस्थ भी घर में थोड़ी-बहुत साधना कर सकता है किन्तु आज तो वह भी नहीं होती। आज का गृहस्थ तो राग-द्वेष और विषय-कषाय में अनुरक्त रह कर उपास्य की मात्र शाब्दिक उपासना कर रहा है। एक राजा था। वह अपने राज्य में दुष्टों का निग्रह करता था और शिष्ट प्रजा का पालन करता था। एक बार लोगों ने राजा से शिकायत की- महाराज, आपके राज्य में एक व्यक्ति ऐसा पैदा हो गया है जो आपकी आज्ञा का पालन नहीं करता और न ही आपका राज्य छोड़ना चाहता है। उसे राजा ने बुलाकर बड़े प्रेम से उसकी आवश्यकताओं की जानकारी ली। एक-एक करके उसने अपनी ढेरों आवश्यकताएँ राजा के सामने रखी। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह व्यक्ति इतनी इच्छाएँ तो रखता है परंतु पुरुषार्थ कुछ भी नहीं करना चाहता। आवश्यकता आविष्कार की जननी है, परंतु आज तो आविष्कार जितने अधिक हो रहे हैं उतनी ही अधिक आवश्यकताएँ बढ़ रही हैं। राजा को उस व्यक्ति की इतनी प्रबल इच्छाएँ देख कर उसे अपने राज्य से निकल जाने का आदेश देना पड़ा। इच्छाओं के कारण उस व्यक्ति को हमेशा दुख झेलना पडा। अत: केवल आवश्यकता की वस्तुएँ रखी, शेष से नाता तोड़ लो। उपासना वासना नहीं है। उपासना में तो वासना का निरोध है। वासना के निरोध से ही उपास्य से सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। कुछ समयसार पाठी सज्जन मेरे पास आते हैं कहते हैं, महाराज, हमें तो कुछ इच्छा है ही नहीं। न खाने की इच्छा है, न पीने की इच्छा है और न कोई अन्य इच्छा होती है। सब कुछ सानंद चल रहा है। उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। अगर खाने की इच्छा नहीं है तो फिर लड्डू आदि मुँह में ही क्यों डाले जा रहे हैं, कान में या और किसी के मुँह में क्यों नहीं डाल देते। बिना इच्छा के ये सब क्रियाएँ कैसे चल सकती हैं। प्रवृत्ति इच्छा के बिना नहीं होती। प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग पर जाना ही श्रेयस्कर है।
  2. त्याग के पहले जागृति परम अपेक्षणीय है। निजी सम्पत्ति की पहचान जब हो जाती है तब विषय-सामग्री निरर्थक लगती है और उसका त्याग सहज सरलता से हो जाता है। यथाशक्ति त्याग को 'शक्तितस्त्याग' कहते हैं। शक्ति अनुलध्य यथाशक्ति अर्थात् शक्ति की सीमा को पार न करना और साथ ही अपनी शक्ति को नहीं छिपाना इसे यथाशक्ति कहते हैं और इस शक्ति के अनुरूप त्याग करना ही शक्तितस्त्याग कहा जाता है। भारत में जितने भी देवों के उपासक हैं, चाहे वे वृषभ के उपासक हों, चाहे वे राम के उपासक हों अथवा बुद्ध के उपासक हों, सभी त्याग को सर्वाधिक महत्व देते हैं। ऐसे ही महावीर के भी उपासक हैं, किन्तु महावीर के उपासकों की विशेषता यही है कि उनके त्याग में शर्त नहीं है, हठग्राहिता नहीं है। यदि त्याग में कोई शर्त है तो वह त्याग महावीर का कहा हुआ त्याग नहीं है। सामान्य रूप से त्याग की आवश्यकता हर क्षेत्र में है। रोग की निवृत्ति के लिए, स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए, जीवन जीने के लिए और इतना ही नहीं, मरण के लिए भी त्याग की आवश्यकता है। जो ग्रहण किया है उसी का त्याग होता है, पहले ग्रहण, फिर त्याग, यह क्रम है। ग्रहण होने के कारण ही त्याग का प्रश्न उठता है। अब त्याग किसका किया जाये? तो अनर्थ की जड़ का त्याग अर्थात् हेय का त्याग किया जाये। कूड़ा-कचरा, मल आदि ये सब हेय पदार्थ हैं। इन हेय पदार्थों के त्याग में कोई शर्त नहीं होती, न ही कोई मुहूर्त निकलवाना होता है, क्योंकि इनके त्याग के बिना न सुख है, न शान्ति। इन्हें त्यागे बिना तो जीवन भी असम्भव हो जायेगा। त्याग करने में दो बातों का ध्यान रखना परम अपेक्षणीय है। पहला यह कि दूसरों की देखा-देखी त्याग नहीं करना और दूसरा ये कि अपनी शक्ति की सीमा का उल्लंघन नहीं करना, क्योंकि इससे सुख के स्थान पर कष्ट की ही आशंका अधिक है। त्याग में कोई शर्त नहीं होनी चाहिए। किन्तु हमेशा से आप लोगों का त्याग शर्त युक्त रहा है। दान के समय भी आपका ध्यान आदान में लगा रहता है। यदि कोई व्यक्ति सौ रुपये के सवा सौ रुपये प्राप्त करने के लिये त्याग करता है तो वह कोई त्याग नहीं माना जायेगा। यह दान नहीं है, आदान है। एक विद्वान् ने लिखा है कि दान तो ऐसा देना चाहिए जो दूसरे हाथ को भी मालूम न पड़े। यदि त्याग किये हुए पदार्थ में लिप्सा लगी रही, इच्छा बनी रही, यदि इस पदार्थ के भोगने की वासना हमारे मन में चलती रही और अधिक प्राप्ति की आकांक्षा बनी रही तो यह त्याग नहीं कहलायेगा। बाह्य मलों के साथ-साथ अंतरंग में रागद्वेष रूपी मल भी विद्यमान है जो हमारी आत्मा के साथ अनादि काल से लगा हुआ है। इसका त्याग करना/छोड़ना ही वास्तविक त्याग है। ऐसे पदार्थों का त्याग करना ही श्रेयस्कर है जिनसे रागद्वेष, विषय-कषायों की पुष्टि होती है। अजमेर में एक सज्जन मेरे पास आये और बोले- महाराज, मेरा तो भाव-पूजा में मन लगता है, द्रव्य-पूजन में नहीं। तो मैंने कहा, भइया, ये तो दान से बचने के लिए पगडण्डियाँ हैं। पेट-पूजा के लिए कोई भाव-पूजा की बात नहीं करता। इसी तरह भगवान की पूजा के लिये सस्ते पदार्थों का उपयोग करना और खाने-पीने के लिये उत्तम से उत्तम पदार्थ लेना यह भी सही त्याग नहीं है। जब भगवान को चढ़ाया हुआ द्रव्य भोगना नहीं है तब उनके लिये सुरभित सुगंधित पदार्थ क्यों चढ़ाना, ये हमारे मन की विचित्रता है। पूजा का मतलब तो यह है कि भगवान के सम्मुख गद्गद् होकर विषयों और कषायों का समर्पण किया जाये। जब तक इस प्रकार का समग्र-समर्पण नहीं होता, तब तक पूजा की सार्थकता नहीं है। त्याग के पहले जागृति परम अपेक्षणीय है। निजी सम्पत्ति की पहिचान जब हो जाती है, उस समय विषय-सामग्री कूड़ा-कचरा बन जाती है और उसका त्याग सहज हो जाता है। इस कूड़े-कचरे के हटने पर अपनी अन्तरंग की मणि अलौकिक ज्योति के साथ प्रकाशित हो उठती है। त्याग से ही आत्मारूपी हीरा चमक उठता है। जैसे कूड़ा-कचरा जब साफ हो जाता है तब जल निर्बाध प्रवाहित होने लगता है। इसी प्रकार विषय-भोगों का कूड़ा-कचरा जब हट जाता है तो ज्ञान की धारा निबधि अन्दर की ओर प्रवाहित होने लगती है। आतम के अहित विषय-कषाय, इनमें मेरी परिणित न जाये। और यह राग-आग दहै सदा तातें समामृत सेइये। चिर भजे विषय-कषाय अब तो त्याग निज-पद वेइये। ये राग तपन पैदा करता है। विषय-कषाय हमें जलाने वाले हैं। यह हमारा पद नहीं है। यह 'पर' पद है। अपने पद में आओ। आज तक हम आस्त्रव में जीवित रहे हैं। निर्जरा कभी हमारा लक्ष्य नहीं रहा। इसलिये दुख उठाते रहे। जब तक हम भोगों का विमोचन नहीं करेंगे, उपास्य नहीं बन पायेंगे। योग जीवन है, भोग मरण है। योग सिद्धत्व को प्रशस्त करने वाला है और भोग नरक की ओर ले जाने वाला है। आस्था जागृत करो। विश्वास/आस्था के अभाव में ही हम स्व-पद की ओर प्रयाण नहीं कर पाये हैं। त्याग के प्रति अपनी आस्था मजबूत करो ताकि शाश्वत सुख को प्राप्त कर सको ।
  3. धर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार धर्म को मात्र सुनना सार्थक नहीं है, बल्कि उसके पालन करने में ही सार्थकता है। संसार में चाहे कोई सुखी रहे, चाहे दु:खी रहे उसे धर्म ही करने योग्य है। अविनश्वर सुख पाने के लिए धर्म का ही अनुष्ठान करो। धर्मात्मा को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। पुण्यशाली व्यक्तियों पर भी पूर्व कर्म के उदय से आपत्तियाँ आ जाती हैं। बैंक में पैसा जमा है तो वह बढ़ता ही जावेगा, भले आप कुछ पुरुषार्थ करो या न करो। वैसे ही धर्म करते जाओ तो सुख भले न चाहो लेकिन मिलता ही जावेगा। धर्म कभी भी इन्द्रिय सुख का भी विघातक नहीं हो सकता। धर्म का फल बिन माँगे मिलता है और अचिंत्य फल मिलता है। कल्पवृक्ष या चिंतामणि रत्न के सामने चिंतन करना पड़ता है, माँगना पड़ता है, लेकिन धर्म का फल आप सो रहे तो भी मिलेगा, उसमें कभी भी घटा-बढ़ी नहीं हो सकती। धर्म करिये, चिंता न करिये, सब कुछ उपलब्ध होगा। जैसे वृक्ष की शरण में जाने से छाया माँगनी नहीं पड़ती अपने आप मिलती है। धर्म को छोड़कर धनोपार्जन करते रहना मनुष्य के लिए अभिशाप सिद्ध होगा। धर्म की रक्षा प्रयोग से ही होती है, मात्र कोरे ज्ञान से नहीं। आप समय निकालकर भगवान् के पास आ तो जाते हो, लेकिन मन को घर में ही छोड़ आते हो। एक बार मन के साथ आओ तो धर्म समझ में आयेगा। लोगों की साधारणतया से धारणा बन जाती है कि जब से धर्म करना प्रारम्भ किया है, तब से विध्न आना प्रारम्भ हो गये हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि धर्म के कारण आपत्ति आ रही है, बल्कि अब कर्म की निर्जरा प्रारम्भ हो गयी है, ऐसा श्रद्धान रखना चाहिए। तोता रटन्त का नहीं बल्कि आत्मरमण का नाम धर्म है। धर्म ही परम रस का रसायन है, धर्म ही समस्त निधियों का निधान है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, धर्म ही कामधेनु गाय है और धर्म ही चिन्तामणि रत्न है। जिनेश्वर के द्वारा कहे हुए धर्म को प्राप्त होकर दृढ़ बुद्धि के धारक सम्यक दृष्टि हुए हैं, वे ही धन्य हैं। इन्द्रिय सुख को दु:ख मानना ही धर्म की शुरुआत है। इन्द्रिय सुख की सामग्री को इकट्ठा करना यानि धर्म से विमुख होना है। धर्मानुराग राग नहीं है, बल्कि विषयों को भुलाने वाला है। धर्मानुराग उदित होते सूर्य की लालिमा जैसा है, जो संसार विषयों से जगाता है/बचाता है। धर्म वस्तुत: एक अजेय शस्त्र है। धर्म के बिना जीवन में कुछ हॉसिल नहीं किया जा सकता। यदि धर्म की रक्षा की है तो आपकी भी रक्षा हो सकती है। दर्शन का नाम धर्म है। प्रदर्शन तो मात्र धर्म की ओर आकर्षित करने का उपाय है। साधु को अपने आत्म धर्म के अलावा किसी की आवश्यकता नहीं होती। धर्म के माध्यम से ही संतोष मिलता है, धन से नहीं। आशा का नियंत्रण धन से नहीं बल्कि धर्म से किया जा सकता है। किसी के खून को चूसकर अपने खून को बढ़ाना धर्म नहीं माना जाता। धर्म के स्थानों में यदि मान कषाय करोगे तो ध्यान रखना सद्गति नहीं मिलेगी। धर्म का सेवन भी प्रत्येक व्यक्ति को भोजन की तरह करना चाहिए। सुख-दु:ख की अपेक्षा नहीं रखना ही धर्म की सही सेवा है। अन्याय का पक्ष भगवान् नहीं लेते लेकिन धर्म की परीक्षा अवश्य होती है। धन कमाने की स्पर्धा की जगह धर्म कमाने की स्पर्धा में लगे रहो। इसमें जितना तन, मन व धन लगेगा वह सबसे बड़ा सदुपयोग होगा। प्रचलन में धर्म आवेगा तो बढ़ेगा। क्षत्रिय ही धर्म की रक्षा कर सकता है। स्वयं जीते हुए जीने वालों को सहयोग देना धर्म है। धर्म का मायना बहुत विस्तृत है। कर्तव्य निष्ठा के बिना धर्म की गंध नहीं आ सकती। कर्तव्य ही सही ज्ञान है, सम्यग्ज्ञान है। जो कुछ कार्य या चेष्टायें अपने को अच्छी नहीं लगती वह दूसरों को भी अच्छी नहीं लगती ऐसा समझना धर्म है। हमारी भावना धर्ममय हो जाती है तो प्रकृति साथ देती चली जाती है। प्रकाश प्रदान करो प्रकाश में मत आओ। जब धर्म का कार्य कर रहे हो तो धर्म का ही नाम होना चाहिए। आपका नाम तो TEMPORARY है। धर्म रूपी ऊष्मा के साथ जीवित रहो यह अपूर्णदशा से पूर्णदशा की ओर जाने का रास्ता है। हमेशा धर्मध्यान का वातावरण बना रहे ऐसा सम्यक दृष्टि सोचता रहता है। धार्मिक क्षेत्र में शक्ति को छुपाओगे तो आगे फिर शक्ति कम प्राप्त होगी। संसार में सब कुछ सुलभ है, एक मात्र धर्म ही दुर्लभ है। उसे पाने के लिए यदि सब कुछ त्यागना पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए। धर्म को स्वीकार करते ही संतुष्टि (आत्मसंतुष्टि) उपलब्ध होने लगती है। धर्म को जितने अंशों में स्वीकारोगे उतनी संतुष्टि प्राप्त होगी। पशु-पक्षी भी धर्म से संतुष्टि का अनुभव करते हैं और अपना हिंसक भाव छोड़ देते हैं। धर्म के अलावा प्राणी को तीन लोक में और कोई संतुष्टि नहीं दे सकता। जो विषय/कषायों की सामग्री के बीच में रहकर भी धर्म रूपी कील का सहारा लेता है वह बच जाता है। संसार में भी मुक्ति का अनुभव किया जा सकता है पर्याय को गौण करना पड़ता है। धर्म दिखाने और किसी पर मेहरबानी करने के लिए नहीं किया जाता बल्कि कर्मक्षय के लिए किया जाता है। धर्म शुद्धवृत्ति का नाम है, इसे स्वयं में प्रकट करना होता है, इसे थोपा नहीं जा सकता। जो धर्म, कर्म विनाशक नहीं होता वह समीचीन धर्म नहीं हो सकता। विषय/कषायों को छोड़कर जो धर्म को स्वीकार कर लेता है, उसे वर्तमान में आत्मसंतुष्टि प्राप्त हो जाती है एवं कर्मों की निर्जरा भी प्रारम्भ हो जाती है बाद में मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। धर्म, भाव परक होता है लेकिन बाह्य क्रियाओं से भीतरी भाव धर्म का ज्ञान होता है। धर्मात्मा संख्यात ही होंगे अधर्मात्मा असंख्यात होते हैं। एक धर्म की पार्टी है एक अनंत की पार्टी है। आप धर्मात्मा हैं तो आपको यह श्रद्धान कर लेना चाहिए कि कर्म की निर्जरा प्रारम्भ हो गयी है। धर्मध्यान करना बहुत कठिन है और महंगा भी है।
  4. जिस प्रकार ललाट पर तिलक के अभाव में स्त्री का सम्पूर्ण श्रृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के नहीं होने पर जैसे मंदिर की कोई शोभा नहीं है, उसी प्रकार बिना संवेग के सम्यक दर्शन कार्यकारी नहीं है। संवेग सम्यक दृष्टि साधक का अलंकार है। संवेग का मतलब है संसार से भयभीत होना, डरना। आत्मा के अनन्त गुणों में यह संवेग भी एक गुण है। पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि सम्यक दर्शन दो प्रकार का है- सराग सम्यक दर्शन और वीतराग सम्यक दर्शन। संवेग, सराग सम्यक दर्शन के चार लक्षणों में से एक है। जैसे ललाट पर तिलक के अभाव में स्त्री का श्रृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के न होने पर मंदिर की कोई शोभा नहीं है। वैसे ही बिना संवेग के सम्यक दर्शन कार्यकारी नहीं है। संवेग, सम्यक दृष्टि साधक का अलंकार है। संवेग एक उदासीन दशा है जिसमें रोना भी नहीं है, हँसना भी नहीं है, पलायन भी नहीं है, बैठना भी नहीं है, दूर भी नहीं हटना है और आलिंगन भी नहीं करना है। यह जो आत्मा की अनन्य स्थिति है वह सद्गृहस्थ से लेकर मोक्ष-मार्ग पर आरूढ़ मुनि महाराज तक में प्रादुभूत होती है। मुनि पग-पग पर डरता है और सावधान रहकर जीवन जीता है। वह अपने आहारविहार में, उठने, बैठने और लेटने की सभी क्रियाओं में सदैव जाग्रत रहता है, सजग रहता है। यदि ऐसा न हो तो वह साधु न होकर स्वादु बन जायेगा। साधु का रास्ता तो मनन और चिंतन का रास्ता है। उसकी यात्रा अपरिचित वस्तु (आत्मा) से परिचय प्राप्त करने का उत्कृष्ट प्रयास है। ऐसे संवेग-समन्वित साधु के दर्शन दुर्लभ हैं। आप कहते हैं कि हम ‘वीर' की सन्तान हैं। बात सही है। आप 'वीर' की सन्तान तो अवश्य हैं, किन्तु उनके अनुयायी नहीं। सही अर्थों में आप 'वीर' की सन्तान तभी कहे जायेंगे जब उनके बताये मार्ग का अनुसरण करेंगे। संवेग का प्रारम्भ कहाँ? जब दृष्टि नासाग्र हो, केवल अपने लक्ष्य की ओर हो, और अविराम गति से मार्ग पर चले। आपने सर्कस देखा होगा। सर्कस में तार पर चलने वाला न ताली बजाने वालों की ओर देखता है और न ही लाठी लेकर खड़े आदमी को देखता है। उसका उद्देश्य इधर-उधर देखना नहीं है उसका उद्देश्य तो एकमात्र संतुलन बनाये रखना और अपने लक्ष्य पर पहुँचना होता है। यही बात संवेग की है। सम्यक दर्शन के बिना पाप से डरना नहीं होता। संसार से ' भीति' सम्यक दर्शन का अनन्य अंग है। वीतराग सम्यक दर्शन में ये 'संवेग' अधिक घनीभूत होता है। संवेग अनुभव और श्रद्धा के साथ जुड़ा हुआ है। इस संवेग की प्राप्ति अति दुर्लभ है। वीतरागता से पूर्व यह प्रस्फुटित होता है और फिर वीतरागता उसका कार्य बन जाती है। संवेग के प्रादुभूत होने पर सभी बाहरी आकांक्षाएँ छूट जाती हैं। जहाँ संवेग होता है वहाँ विषयों की ओर रुचि नहीं रह जाती, उदासीनता आ जाती है। भरत चक्रवर्ती का वर्णन सही रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। उनके भोगों का वर्णन तो किया जाता है किन्तु उनकी उदासीनता की बात कोई नहीं करता। एक व्यक्ति अपने बारह बच्चों के बीच रहकर बड़ा दुखी होता है। उसकी पत्नी उससे कहती है- भरत जी इतने बड़े परिवार के बीच कैसे रहते होंगे। जहाँ छियानवे हजार रानियाँ, अनेक बच्चे और अपार सम्पदा थी। उनके परिणामों में तो कभी क्लेश हुआ हो, ऐसा सुना ही नहीं गया। वह व्यक्ति भरत जी की परीक्षा लेने पहुँच जाता है, भरत जी सारी बात सुनकर उसे अपने रनिवास में भेज देते हैं। उस व्यक्ति के हाथ पर तेल से भरा हुआ कटोरा रख दिया जाता है और कह दिया जाता है कि सब कुछ देख आओ, लेकिन इस कटोरे में से एक बूंद भी नीचे नहीं गिरनी चाहिए अन्यथा मृत्युदण्ड दिया जायेगा। वह व्यक्ति सब कुछ देख आया पर उसका देखना न देखने के बराबर ही रहा, सारे समय बूंद गिर जाने का भय बना रहा। तब भरतजी ने उसे समझाया, ‘मित्र, जागृति लाओ, सोची, समझो। ये नव निधियाँ, चौदह रत्न, ये छियानवे हजार रानियाँ, ये सब मेरी नहीं हैं। मेरी निधि तो मेरे अंतरंग में छिपी हुई है- ऐसा विचार करके ही मैं इन सबके बीच शांत भाव से रहता हूँ। रत्नत्रय ही हमारी अमूल्य निधि है। इसे ही बचाना है। इसको लूटने के लिये कर्म चोर सर्वत्र घूम रहे हैं। जाग जाओ, सो जाओगे तो तुम्हारी निधि ही लुट जायेगी। कर्म चोर चहुँ ओर सरवस लूटें सुध नहीं। संवेगधारी व्यक्ति अलौकिक आनन्द की अनुभूति करता है। चाहे वह कहीं भी रहे, किन्तु संवेग से रहित व्यक्ति स्वर्ग सुखों के बीच भी दुख का अनुभव करता है और दुखी ही रहता है |
  5. ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। उसे सुखाया नहीं जा सकता, बदला जा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान का नाश नहीं किया जा सकता है। उसे स्व-पर कल्याण की दिशा में प्रवाहित किया जा सकता है। यही ज्ञानोपयोग है। 'अभीक्ष्णज्ञानोपयोग' शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना है- अभीक्षण + ज्ञान + उपयोग अर्थात् निरन्तर ज्ञान का उपयोग करना ही अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है। आत्मा के अनन्त गुण हैं और उनके कार्य भी अलग-अलग हैं। ज्ञान गुण इन सभी की पहिचान कराता है। सुख जो आत्मा का एक गुण है उसकी अनुभूति भी ज्ञान द्वारा ही संभव है। ज्ञान ही वह गुण है जिसकी सहायता से पाषाण में से स्वर्ण को, खान में से हीरा, पन्ना आदि को पृथक् किया जा सकता है। अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ही वह साधन है जिसके द्वारा आत्मा की अनुभूति और समुन्नति होती है। उसका विकास किया जा सकता है। आज तक इस ज्ञान की धारा का प्राय: दुरुपयोग ही किया गया है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। जैसे गंगा नदी के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उस प्रवाह के मार्ग को हम बदल सकते हैं। उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उसे स्व-पर हित के लिये उपयोग में लाया जा सकता है। ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है, सुख है, उन्नति है। ज्ञान के सदुपयोग के लिये जागृति परम आवश्यक है। हमारी हालत उस कबूतर की तरह हो रही है जो पेड़ पर बैठा है और पेड़ के नीचे बैठी हुई बिल्ली को देखकर अपना होश-हवास खो देता है। अपने पंखों की शक्ति को भूल बैठता है और स्वयं घबराकर उस बिल्ली के समक्ष गिर जाता है तो उसमें दोष कबूतर का ही है। हम ज्ञान की कदर नहीं कर रहे बल्कि जो ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं उन ज्ञेय पदार्थों की कदर कर रहे हैं। होना इससे विपरीत चाहिए था अर्थात् ज्ञान की कदर होना चाहिए। ज्ञेयों के संकलन मात्र में यदि हम ज्ञान को लगा दें और उनके समक्ष अपने को हीन मानने लग जायें, तो वह ज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञान का सदुपयोग तो यह है कि हम अन्तर्यात्रा प्रारम्भ कर दें और यह अन्तर्यात्रा एक बार नहीं, दो बार नहीं, बार-बार अभीक्षण करने का प्रयास करें। वह अभीक्षण ज्ञानोपयोग केवल ज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, आत्म-मल को धोने वाला है। जैसे प्रभात बेला की लालिमा के साथ ही बहुत कुछ अंधकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा आत्मा का अंधकार भी विनष्ट हो जाता है और केवल ज्ञान रूपी सूर्य उदित होता है। अत: ज्ञानोपयोग सतत चलना चाहिए। ‘उपयोग' का दूसरा अर्थ है चेतना। अर्थात् अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग अपनी खोज चेतना की उपलब्धि का अमोघ साधन है। इसके द्वारा जीव अपनी असली सम्पत्ति को बढ़ाता है, उसे प्राप्त करता है, उसके पास पहुँचता है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान मात्र नहीं है। शब्दों की पूजा करने से ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, सरस्वती की पूजा का मतलब तो अपनी पूजा से है, स्वात्मा की उपासना से है। शाब्दिक ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं है, इससे सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। शाब्दिक ज्ञान तो केवल शीशी के लेबिल की तरह है, यदि कोई लेबिल मात्र घोंट कर पी जाय तो क्या इससे स्वास्थ्य-लाभ हो जायेगा? क्या रोग मिट जायेगा? नहीं, कभी नहीं। अक्षर ज्ञानधारी बहुभाषाविद् पण्डित नहीं है। वास्तविक पण्डित तो वह है जो अपनी आत्मा का अवलोकन करता है। स्वात्मानं पश्यति य: सः पण्डितः। पढ़-पढ़ के पण्डित बन जाये, किन्तु निज वस्तु की खबर न हो तो क्या वह पण्डित है? अक्षरों के ज्ञानी अक्षर का अर्थ भी नहीं समझ पाते। 'क्षर' अर्थात् नाश होने वाला और 'अ' के मायने ‘नहीं' अर्थात् मैं अविनाशी हूँ, अजर-अमर हूँ, यह अर्थ है अक्षर का, किन्तु आज का पंडित केवल शब्दों को पकड़ कर भटक जाता है। शब्द तो केवल माध्यम है अपनी आत्मा को जानने के लिए, अन्दर जाने के लिए। किन्तु हमारी दशा उस पंडित की तरह है जो तैरना न जानकर अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। एक पंडित काशी से पढ़कर आये। देखा, नदी किनारे मल्लाह भगवान की स्तुति में संलग्न है। बोले- ए मल्लाह ! ले चलेगा नाव में, नदी के पार। मल्लाह ने उसे नाव में बैठा लिया। अब चलते-चलते पंडित जी रौब झाड़ने लगे अपने अक्षर ज्ञान का। मल्लाह से बोले- कुछ पढ़ा लिखा भी है? अक्षर लिखना जानता है? मल्लाह तो पढ़ा-लिखा था ही नहीं, सो कहने लगापंडितजी मुझे अक्षर ज्ञान नहीं है। पंडित बोले-तब तो बिना पढ़े तुम्हारा आधा जीवन ही व्यर्थ हो गया। अभी नदी में थोड़े और चले थे कि अचानक तूफान आ गया, पंडित जी घबराने लगे। नाविक बोला-पंडितजी मैं अक्षर लिखना नहीं जानता किन्तु तैरना जरूर जानता हूँ। अक्षर ज्ञान न होने से मेरा तो आधा जीवन गया, परन्तु तैरना न जानने से तो आपका सारा जीवन ही व्यर्थ हो गया। हमें तैरना भी आना चाहिए। तैरना नहीं आयेगा तो हम संसार समुद्र से पार नहीं हो सकते। अत: दूसरों का सहारा ज्यादा मत ढूँढ़ो। शब्द भी एक तरह का सहारा है। उसके सहारे, अपना सहारा लो। अन्तर्यात्रा प्रारम्भ करो। ज्ञेयों का संकलन मात्र तो ज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञेयों में मत उलझो, ज्ञेयों के ज्ञाता को प्राप्त करो। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से ही ‘मैं कौन हूँ? इसका उत्तर प्राप्त हो सकता है। परमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै। दूग ज्ञान सुख बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो बिखै। मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं। चित पिण्ड चंड अखण्ड सुगुणा, करण्ड च्युत पुनि कलनितें ॥ शुद्धोपयोग की यह दशा इसी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। अत: मात्र साक्षर बने रहने से कोई लाभ नहीं है। 'साक्षर' का विलोम ‘राक्षस' होता है। साक्षर मात्र बने रहने से राक्षस बन जाने का भी भय है। अत: अन्तर्यात्रा भी प्रारम्भ करें, ज्ञान का निरन्तर उपयोग करें अपने को शुद्ध बनाने के लिए। हम अमूर्त हैं, हमें छुआ नहीं जा सकता, हमें चखा नहीं जा सकता, हमें खूंघा नहीं जा सकता, किन्तु फिर भी हम मूर्त बने हुए हैं क्योंकि हमारा ज्ञान मूर्त में संजोया हुआ है। अपने उस अमूर्त स्वरूप की उपलब्धि, ज्ञान की धारा को अन्दर आत्मा की ओर मोड़ने पर ही सम्भव है।
  6. धन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अर्थ के लिए जीवन नहीं बल्कि जीवन चलाने के लिए कुछ अर्थ रख लें तो ठीक है। संग्रह का विरोध नहीं, परिग्रह का विरोध है। संग्रह इसलिए किया जाता है कि समय आने पर उसे बांट दिया जावे और चमड़ी जावे पर दमड़ी ना जाये इस वृत्ति का नाम है परिग्रह। ज्यादा अर्थ आने से भी परमार्थ छूट जाता है इसमें ब्रेक लगाना भी आना चाहिए नहीं तो गड्डे में चले जाओगे। आपके जीवन में धन है तो ठीक है पर यदि आप का धन कमाने में जीवन चला जायेगा तो क्या होगा ? नाव जब तक पानी में तैरती है तब तक ठीक है और यदि नाव में पानी आ जाता है तो नाव में हाहाकार मच जाता है। यह धन का संयोग तो संयोग है, पर हाथ की रेखायें मैल नहीं होती उन रेखाओं में पुरुषार्थ लिखा होता है, भाग्य बनाया जाता है। वह धन पैसा किस काम का जो गले का फंदा बन जावे। धन को उतना ही ग्रहण करना चाहिए जितना उपादेय हो, भोजन जैसा ही। धन के त्याग से धर्म प्रभावना होती है, धन से नहीं। धन से सम्बन्ध उतना ही रखो, जैसे दीपक जलाते वक्त माचिस से तीली निकालते हैं, अंगुली, अंगूठा उससे दूर रखते हैं और ज्यादा गड़बड़ करे तो तीली को फेंक देते हैं। ठीक उसी प्रकार धन रखो लेकिन आँख बंद होने से पहले फेंक दो। छोड़ जाओगे तिजोरी में तो रखवाली करने आना पडेगा, कुंडलीमार बनकर। इतना ही अर्थ (धन) अपने पास रखो जिससे परमार्थ का दरवाजा बंद न हो सके। भगवान् ने जिस ओर से मुख फेर लिया आपने उस ओर मुख कर लिया। आप जोड़ने में लगे हैं लेकिन अपार धन राशि केवल पूर्व सात्विक साधना से प्राप्त होती है। पूर्व में जो महाव्रती बनते हैं वे ही अगले भव में चक्रवर्ती आदि पद प्राप्त करते हैं। आप अहिंसा का आधार लेकर साधना करो, धन-लक्ष्मी तो आपके पीछे-पीछे आवेगी। यदि मल संचय रोग का कारण बनता है तो धन संचय दोष का कारण बनता है। युक्तिपूर्वक तन, मन एवं धन का उपयोग किया जाता है वरन् पाप का बंध होता है। धन विषयों में लगाओगे तो पाप बंध होगा और पाप से कमाई सम्पदा भी नष्ट हो जाती है। आप लोग पुण्य के फलों में रचो-पचो नहीं, इसे धर्म में लगा देते हैं तो अगले भव में अच्छे अच्छे पद प्राप्त होते हैं। अपना द्रव्य तो शाश्वत है, इस नश्वर द्रव्य (धन) के बारे में मत सोचो इसे प्रभु के चरणों में चढ़ा दो। इस प्राण (जान) से रहित सम्पदा की रक्षा में आपके प्राण भी जा सकते हैं। धनवान बनने से पहले ये सोचिये कि धन क्या है? धन पाप है तो क्या आप पापी होना चाहोगे ? धन कमाने से पहले उसके सदुपयोग की बात सोच लो। आपका धन बैंक में है, वह परिग्रह है, वहाँ से पाप की नाली आप तक हर क्षण आती रहती है। शुद्ध धन (सात्विक धन) के द्वारा सजनों की भी संपत्तियाँ विशेष नहीं बढ़ती हैं, जैसे नदियाँ शुद्ध जल से कभी भी परिपूर्ण नहीं होती। "वैधानिक तो, पहले बनो फिर धनिक बनो"। धन चाहते हो तो आशा अवश्य आवेगी, फिर उससे जलोगे ही।
  7. द्वादशांग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार द्वादशांग को सुनने वाले मुनि होते हैं, उन्हें "विस्तार सम्यकदर्शन" प्राप्त होता है।
  8. 'निरतिचार' शब्द बड़े माके का शब्द है। व्रत के पालने में यदि कोई गड़बड़ न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी छाप पड़ती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस व्रत और व्रती के संपर्क में आ जाते हैं वे भी तिर जाते हैं। शील से अभिप्राय स्वभाव से है। स्वभाव की उपलब्धि के लिए निरतिचार व्रत का पालन करना ही शीलव्रतेष्वनतिचार कहलाता है। व्रत से अभिप्राय नियम, कानून अथवा अनुशासन से है। जिस जीवन में अनुशासन का अभाव है वह जीवन निर्बल है। निरतिचार व्रत पालन से एक अद्भुत बल की प्राप्ति जीवन में होती है। निरतिचार का मतलब ही यह है कि जीवन अस्तव्यस्त न हो, शान्त और सबल हो। रावण के विषय में यह विख्यात है कि वह दुराचारी था किन्तु वह अपने जीवन में एक प्रतिज्ञा में आबद्ध भी था। उसका व्रत था कि वह किसी नारी पर बलात्कार नहीं करेगा, उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे नहीं भोगेगा और यही कारण था कि वह सीता का हरण तो कर लाया, किन्तु उनका शील भंग नहीं कर पाया। इसका कारण केवल उसका व्रत था, उसकी प्रतिज्ञा थी। यद्यपि यह सही है कि यदि वह सीताजी के साथ बलात्कार का प्रयास भी करता तो भस्मसात् हो जाता किन्तु उसकी प्रतिज्ञा ने उसे ऐसा करने से रोक लिया। ये ‘निरतिचार' शब्द बड़े मार्के का शब्द है। व्रत के पालन में यदि कोई गड़बड़ न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी गहरी छाप पड़ती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस व्रत और व्रती के संपर्क में आ जाते हैं वे प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकते। जैसे कस्तूरी को अपनी सुगन्ध के लिए किसी तरह की प्रतिज्ञा नहीं करनी पड़ती, उसकी सुगन्ध तो स्वत: चारों ओर व्याप्त हो जाती है। वैसी ही इस व्रत की महिमा है। 'अतिचार' और 'अनाचार' में भी बड़ा अन्तर है। 'अतिचार' दोष है जो लगाया नहीं जाता, प्रमादवश लग जाता है, किन्तु अनाचार तो सम्पूर्ण व्रत को विनष्ट करने की क्रिया है। मुनिराज निरतिचार व्रत के पालन में पूर्ण सचेष्ट रहते हैं। जैसे कई चुंगी चौकियाँ पार कर गाड़ी यथास्थान पहुँच जाती है उसी प्रकार मुनिराज को भी बतीस अन्तराय टालकर निर्दोष आहार और अन्य उपकरण आदि ग्रहण करना पड़ते हैं। निरतिचार व्रत पालन की महिमा अद्भुत है। एक भिक्षुक था। झोली लेकर एक द्वार पर पहुँचा रोटी माँगने। रूखा जवाब मिलने पर भी नाराज नहीं हुआ बल्कि आगे चला गया। एक थानेदार को उस पर तरस आ गया और उसने उस भिक्षुक को रोटी देने के लिए बुलाया। पर भिक्षुक थोड़ा आगे जा चुका था। इसलिए उसने एक नौकर को रोटी देने भेज दिया। ‘मैं रिश्वत का अन्न नहीं खाता भइया!” ऐसा कहकर वह भिक्षुक आगे बढ़ गया। नौकर ने वापिस आकर थानेदार को भिक्षुक द्वारा कही गयी बात सुना दी और वे शब्द उस थानेदार के मन में गहरे उतर गये। उसने सदा-सदा के लिए रिश्वत लेना छोड़ दिया। भिक्षुक की प्रतिज्ञा ने, उसके निर्दोष व्रत ने थानेदार की जिंदगी सुधार दी। जो लोग गलत तरीके से रुपये कमाते हैं वे दान देने में अधिक उदारता दिखाते हैं। वे सोचते हैं कि इसी तरह थोड़ा धर्म इकट्ठा कर लिया जाय, किन्तु धर्म ऐसे नहीं मिलता। धर्म तो अपने श्रम से निदष रोटी कमा कर दान देने में ही है। अंग्रेजी में कहावत है कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जीता, उससे भी ऊँचा एक जीवन है जो व्रत साधना से उसे प्राप्त हो सकता है। आज हम मात्र शरीर के भरण-पोषण में लगे हैं। व्रत, नियम और अनुशासन के प्रति भी हमारी रुचि होनी चाहिए। अनुशासन विहीन व्यक्ति सबसे गया बीता व्यक्ति है। अरे भइया! तीर्थकर भी अपने जीवन में व्रतों का निर्दोष पालन करते हैं। हमें भी करना चाहिए! हमारे व्रत ऐसे हों, जो स्वयं को सुखकर हों और दूसरों को भी सुखकर हों। एक सज्जन जो संभवत: ब्राह्मण थे मुझसे कहने लगे-महाराज, आप बड़े निर्दयी हैं। देने वाले दाता का आप आहार नहीं लेते। तो मैंने उन्हें समझाया-भइया! देने वाले और लेने वाले दोनों व्यक्तियों के कर्म का क्षयोपशम होना चाहिए। दाता का तो दानान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना आवश्यक है पर लेने वाले का भी भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना चाहिए। दाता लेने वाले के साथ जबर्दस्ती नहीं कर सकता क्योंकि लेने वाले के भी कुछ नियम, प्रतिज्ञायें होती हैं। जिन्हें पूरा करके ही वह आहार ग्रहण करता है। सारांश यही है कि सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना चाहिए, वे व्रत नियम बड़े मौलिक हैं। सभी यदि व्रत ग्रहण करके उनका निर्दोष पालन करते रहें, तो कोई कारण नहीं कि सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न न हों।
  9. द्रष्टि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार स्वरूप की ओर द्रष्टि रखने से जीव अनंत सुख का भोता हो जाता है। जिस वस्तु से वीतरागता प्राप्त हो सकती है, उसी वस्तु से रागी व्यक्ति राग प्राप्त कर लेता है, यह द्रष्टि का ही परिणाम है। सम्यक् रूप से दृष्टि रखने से ही उद्धार होगा। निश्चय दृष्टि आते ही व्यवहार के सारे भूत उतर जाते हैं। सम्यकद्रष्टि को अपनी पहचान में कुशलता रखनी चाहिए। स्व की पहचान के बिना श्रद्धान मजबूत नहीं बनता एवं सही दिशा में कदम भी नहीं उठते। मोक्षमार्ग में जब स्वयं अपने दोषों का गुरु के सामने बखान करें तभी योग्य प्रायश्चित मिल सकता है। बाह्य शरीर को जड़ मान लो तो क्रोध व राग-द्वेष नहीं होगा। यह ज्ञाता-दूष्टापन बहुत महत्वपूर्ण है। हमारी दृष्टि के कारण ही वीतरागता में भी राग दिखता है एवं राग में भी वीतरागता दिखती है। श्रावक मुनि के पीछे चलता है और उसकी दृष्टि हमेशा मुनिव्रत की ओर ही लगी रहती है। जितने पदार्थ के गुण हैं, उनमें पक्षपात न करना, मोहित न होना अमूढ़दृष्टित्व अंग है। विशेष रूप से तत्व चिन्तन होने पर विषय-सुखों से दृष्टि हट जाती है।
  10. विनय जब अंतरंग में प्रादुभूत हो जाती है तो उसकी ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है, आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भूत होती है और व्यवहार में प्रदर्शित होती है। विनय का महत्व अनुपम है। यह वह सोपान है जिस पर आरूढ़ होकर साधक मुक्ति की मंजिल तक पहुँच सकता है। विनय आत्मा का गुण है। यह विनय नामक गुण तत्व-मंथन से ही उपलब्ध हो सकता है। विनय का अर्थ है-सम्मान, आदर, पूजा आदि। विनय से हम आदर और पूजा तो प्राप्त करते ही हैं, साथ ही, सभी विरोधियों पर विजय भी प्राप्त कर सकते हैं। क्रोधी, कामी, मायावी, लोभी सभी विनय द्वारा वश में किये जा सकते हैं। विनयी दूसरों को भलीभाँति समझ पाता है और उसकी चाह यही रहती है कि दूसरा भी अपना विकास करें। अविनय में शक्ति का बिखराव है, विनय में शक्ति का केन्द्रीकरण है। कोई आलोचना भी करें तो हम उसकी चिन्ता न करें। विनयी आदमी वही है जो गाली देने वाले के प्रति भी विनय का व्यवहार करता है। एक जंगल में दो पेड़ खड़े हैं-एक बड़ का और दूसरा बेंत का। बड़ का पेड़ घमण्ड में चूर है। वह बेंत के पेड़ से कहता है- तुम्हारे जीवन से क्या लाभ है? तुम किसी को छाया तक नहीं दे सकते और फल तथा फूल का तो तुम पर नाम ही नहीं। मुझे देखो, मैं कितनों को छाया देता हूँ यदि मुझे कोई काट भी ले तो मेरी लकड़ी से बैठने के लिए सुन्दर आसनों का निर्माण हो सकता है। तुम्हारी लकड़ी से तो दूसरों को पीटा ही जा सकता है। सब कुछ सुनकर भी बेंत का पेड़ मौन रहा। थोड़ी देर में मौसम ऐसा हो जाता है कि तूफान और वर्षा दोनों साथ-साथ प्रारम्भ हो जाते हैं। कुछ ही क्षणों में बेंत का पेड़ साष्टांग दण्डवत् करने लगता है, झुक जाता है किन्तु बड़ का पेड़ ज्यों का त्यों खड़ा रहा। देखते-देखते ही पाँच मिनट में तूफान का वेग उसे उखाड़कर फेंक देता है। बेंत का पेड़ जो झुक गया था, तूफान के निकल जाने पर फिर ज्यों का त्यों खड़ा हो गया। विनय की जीत हुई, अविनय हार गया। जो अकड़ता है, गर्व करता है उसकी दशा बिगड़ती ही है। हमें शब्दों की विनय भी सीखना चाहिए। शब्दों की अविनय से कभी-कभी बडी हानि हो जाती है। एक भारतीय सज्जन एक बार अमेरिका गये। वहाँ उन्हें एक सभा में बोलना था। लोग उन्हें देखकर हँसने लगे और जब वे बोलने के लिये खड़े हुए तो हँसी और अधिक बढ़ने लगी। उन भारतीय सज्जन को थोड़ा क्रोध आ गया, मंच पर जाते ही उनका पहला वाक्य था ‘पचास प्रतिशत अमेरिकन मूर्ख होते हैं।' अब क्या था। सारी सभा में हलचल मच गई और सभा अनुशासन से बाहर हो गई। पर तत्काल ही उन भारतीय सज्जन ने थोड़ा विचार कर कहना शुरू किया- क्षमा करें, पचास प्रतिशत अमेरिकन मूर्ख नहीं होते। इन शब्दों को सुनकर सभा में फिर शान्ति हो गई और सब लोग यथास्थान बैठ गये। देखो, अर्थ में कोई अन्तर नहीं था, केवल शब्द-विनय द्वारा वह भारतीय सबको शान्त करने में सफल हो गया। विनय जब अन्तरंग में प्रादुभूत हो जाती है तो उसकी ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है, आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भूत होती है और व्यवहार में भी प्रदर्शित होती है। विनय गुण से समन्वित व्यक्ति की केवल यही भावना होती है कि सभी में यह गुण उद्भूत हो जाय। सभी विकास की चरम सीमा प्राप्त कर लें। मुझसे एक सज्जन ने एक दिन प्रश्न किया, महाराज, आप अपने पास आने वाले व्यक्ति से बैठने को भी नहीं पूछते बुरा लगता है, आप में इतनी भी विनय नहीं महाराज। मैंने उनकी बात बड़े ध्यान से सुनी और कहा- भैया, साधु की विनय और आपकी विनय एक-सी कैसे हो सकती है? आपको मैं कैसे कहूँ - आइये, बैठिए। क्या यह स्थान मेरा है? और मान लो कोई केवल दर्शन मात्र के लिए आया हो तो? इसी तरह मैं किसी से जाने को भी कैसे कह सकता हूँ? मैं आने-जाने की अनुमोदना कैसे कर सकता हूँ? कोई मान लो रेल या मोटर से प्रस्थान करना चाहता हो, तो मैं उन वाहनों की अनुमोदना कैसे करूं जिनका मैं वर्षों पूर्व त्याग कर चुका हूँ। और मान लो कोई केवल परीक्षा करना चाहता हो, तो उसकी विजय हो गयी और मैं पराजित हो जाऊँगा। आचार्यों का उपदेश मुनियों के लिए केवल इतना ही है कि वे हाथ से कल्याण का संकेत करें और मुख का प्रसाद बिखेर दें। इससे ज्यादा उन्हें कुछ और नहीं करना है। ‘‘मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनेयेषु।।' यह सूत्र है। तब मुनि आपके प्रति कैसे अविनय की भावना रख सकता है? उसे तो कोई गाली भी दे तो भी वह सबके प्रति मैत्री-भाव ही रखता है। जंगल में दंगल नहीं करता, मंगल में अमंगल नहीं करता। वह तो सभी के प्रति मंगल-भावना से ओतप्रोत है। सो धर्म मुनिन कर धरिये, तिनकी करतूति उच्चरिये। ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी॥ — छहढाला साधु की मुद्रा तो ऐसी वीतरागतामय होती है जो दूसरों को आत्मानुभव का प्रबल साधन बन जाती है। फिर एक बात और भी है। अगर किसी को बिठाना दूसरों को अनुचित मालूम पड़े अथवा स्थान इतना भर जाय कि फिर कोई जगह ही अवशेष न रहे तो, ऐसे में मुनि महाराज वहाँ से उठना पसन्द करेंगे अथवा उपसर्ग समझ कर बैठे रहेंगे, तो भी उनकी मुद्रा ऐसी होगी कि देखने वाला भी उनकी साधना और तपस्या को समझ कर शिक्षा ले सके। बिच्छू के पास एक डंक होता है। जो व्यक्ति उसे पकड़ने का प्रयास करता है, वह उसको डंक मार ही देता है। एक बार ऐसा हुआ। एक मनुष्य जा रहा था, उसने देखा, कीचड़ में एक बिच्छू फैसा हुआ है। उसने उसे हाथ से जैसे ही बाहर निकालना चाहा, बिच्छू ने डंक मारने रूप प्रसाद ही दिया, और कई बार उसे निकालने की कोशिश में वह डंक मारता रहा। तब लोगों ने उससे कहा- बावले हो गये हो। ऐसा क्यों किया तुमने? अरे भाई बिच्छू ने अपना काम किया और मैंने अपना काम किया, इसमें मेरा बावलापन क्या? उस आदमी ने ये उत्तर दिया। इसी प्रकार मुनिराज भी अपना काम करते हैं। वे तो मंगल की कामना करते हैं और गाली देने वाले उन्हें गाली देने का काम करते हैं। तब तुम कैसे कह सकते हो कि साधु किसी के प्रति अविनय का भाव रख सकता है। शास्त्रों में अभावों की बात आई है। जिसमें प्राग्भाव का तात्पर्य है पूर्व पर्याय का वर्तमान में अभाव और प्रध्वंसाभाव का अभिप्राय है वर्तमान पर्याय में भावी पर्याय का अभाव। इसका मतलब है कि जो उन्नत है वह गिर भी सकता है और जो पतित है वह उठ भी सकता है। और यही कारण है कि सभी आचार्य महान् तपस्वी भी त्रिकालवर्ती तीर्थकरों को नमोऽस्तु प्रस्तुत करते हैं और भविष्यत् काल के तीर्थकरों को नमोऽस्तु करने में भावी नय की अपेक्षा सामान्य संसारी जीव भी शामिल हो जाते हैं, तब किसी की अविनय का प्रश्न ही नहीं है। आपकी अनंत शक्ति को भी सारे तपस्वियों ने पहिचान लिया है, चाहे आप पहिचाने अथवा नहीं। आप सभी में केवलज्ञान की शक्ति विद्यमान है यह बात भी कुन्दकुन्दादि महान् आचार्यों द्वारा पहचान ली गई है। अपने विनय गुण का विकास करो। विनय गुण से असाध्य कार्य भी सहज साध्य बन जाते हैं। यह विनय गुण ग्राह्य है, उपास्य है, आराध्य है। भगवान् महावीर कहते हैं- मेरी उपासना चाहे न करो, विनय गुण की उपासना जरूर करो। विनय का अर्थ यह नहीं है कि आप भगवान के समक्ष तो विनय करें और पास-पड़ोस में अविनय का प्रदर्शन करें। अपने पड़ोसी की भी यथायोग्य विनय करो। कोई घर पर आ जाये तो उसका सम्मान करो। "मानेन तृप्ति न तु भोजनेन" अर्थात् सम्मान से तृप्ति होती है, भोजन से नहीं। अत: विनय करना सीखी, विनय गुण आपको सिद्धत्व प्राप्त करा देगा।
  11. ज्ञानेंद्र गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को शत-शत नमन करता हूं..... हे वात्सल्य रत्नाकर गुरुवर एक महापुरुष के अंदर सहज स्वाभाविक असीम गुणों के भंडार से समय-समय पर गुणरत्न प्रकट होते रहते हैं और उस विराट व्यक्तित्व को चमकातेे रहते हैं। विद्याधर में एक तरफ वैराग्य की ऊर्जा वृद्धिंगत हो रही थी तो दूसरी तरफ व्यावहारिक गुण भी अपनी सुगंधी फैलाते जा रहे थे। परिवार के सदस्यों से उसे गहरा लगाव था, वे प्रत्येक सदस्य का बड़ा ही ख्याल रखते थे। उसकी संवेदनाएं महापुरुषत्व की आधारशिलाएं स्थापित कर रही थी। इसका एक छोटा सा संस्मरण बड़े भाई महावीर जी ने सुनाया वह मैं लिख रहा हूं- जब छोटा भाई अनंतनाथ (योगसागर जी) 3 वर्ष के थे, तब उन्हें रीकेट्स नामक रोग हो गया था। इसमें हाथ पांव सूखते चले गए और पेट बड़ा हो गया था। शरीर की हड्डी- हड्डी दिखने लगी थी। बहुत इलाज करने के उपरांत भी रोग ठीक नहीं हुआ, तब हम सभी समझ गए कि यह बच नहीं पाएगा। सुंदर गोरा बदन रोग होने के कारण फीका और विद्रूप लगने लगा था। उसकी हालत देखकर घर के सभी लोग दुखी थे किंतु विद्याधर कुछ ज्यादा ही दुखी था उस वक्त विद्याधर 13 वर्ष का था। इस दुख के कारण विद्याधर खेलने नहीं आता था। दूर के एक ग्रामीण वैद्य के बारे में पता चला तो उन्हें लाकर दिखाया गया। उन्होंने दवाई दी और कहा- इसे 1 साल तक सुबह से 12:00 बजे तक धूप में बैठाना है तब ऐसा ही किया गया। इससे अनंतनाथ के शरीर की चमड़ी काली पड़ गई किंतु रोग भाग गया। और अनंत नाथ स्वस्थ हो गया उसके शरीर वर्ण को देखकर विद्याधर दुखी रहता था और पिता जी को बोलता था- अन्ना अच्छे डॉक्टर को दिखाओ ना। घर पर कोई भी डॉक्टर वैद्य आता तो उनसे पूछता- मेरा भाई ठीक कब होगा ? जल्दी स्वस्थ करो ना। उसकी रुग्ण हालत में विद्याधर और मैं सेवा करते थे। विद्याधर तो कहीं जाता ही नहीं था, वैसे भी घर में कोई भी बीमार पड़ता तो विद्याधर सबसे ज्यादा सेवा करता था। इस तरह बचपन का वह भ्रात प्रेम आज असीम स्वरूप में बदलकर जगत के प्राणियों पर बरस रहा है। अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  12. दर्शन विशुद्धि मात्र सम्यक् दर्शन नहीं है। दृष्टि में निर्मलता होना दर्शन विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्व चिंतन से। कार्य से कारण की महत्ता अधिक है क्योंकि यदि कारण न हो तो कार्य निष्पन्न नहीं होगा। फूल न हो तो फल की प्राप्ति नहीं होगी। कुछ लोग ऐसे भगवान् की कल्पना करते हैं जो उनकी सब शुभाशुभ इच्छाओं की पूर्ति करें। ‘‘खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान' ऐसा लोग कहते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर को बहुत से लोग भगवान् मानने को तैयार नहीं। किन्तु सत्य/तथ्य ये हैं कि भगवान् बनने के पहले तो शुभाशुभ कार्य किए जा सकते हैं, भगवान बनने के बाद नहीं। भगवान् महावीर जब पूर्व जीवन में नंदराज चक्रवर्ती थे, तब उनको एक विकल्प हुआ कि मैं सम्पूर्ण प्राणियों का कल्याण करूं और इसी विकल्प के फलस्वरूप उन्हें तीर्थकर प्रकृति का बंध हुआ। कल्याण करने के लिये भी बंधन स्वीकार करना पड़ा। ये बंधन चेष्टा पूर्वक किया जाता है तो इस बंधन के पश्चात् मुक्ति होती है। यदि माँ केवल अपनी ही ओर देखे, तो बच्चों का पालन सम्भव नहीं होगा। ‘पर' के कल्याण में भी ‘स्व' कल्याण निहित है। ये बात दूसरी है कि फिर दूसरे का कल्याण हो अथवा न भी हो। किसान की भावना यही रहती है कि ‘वृष्टि समय पर हुआ करें।” और वृष्टि तो जब भी होगी सभी के खेतों पर होगी किन्तु जब किसान फसल काटता है तो अपनी ही काटता है, किसी दूसरे की नहीं। अर्थात् कल्याण सबका चाहता है किन्तु पूर्ति अपने ही स्वार्थ की करता है। दर्शन-विशुद्धि मात्र सम्यक दर्शन नहीं है। दृष्टि में निर्मलता का होना दर्शन-विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्व चिन्तन से। हमारी दृष्टि बड़ी दोषपूर्ण है। हम देखते तो अनेक वस्तुएँ हैं किन्तु उन्हें हम साफ नहीं देख पाते। हमारी आँखों पर किसी न किसी रंग का चश्मा लगा हुआ है। प्रकाश का रंग कैसा है? आप बतायें। क्या यह लाल है? क्या हरा या पीला है? नहीं, प्रकाश का कोई वर्ण नहीं। वह तो वर्णातीत है, किन्तु विभिन्न रंग वाले काँच के संपर्क से हम उस प्रकाश को लाल, पीला या हरा कहते हैं। इसी प्रकार हमारा या हमारी आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है? 'अवणोंऽह' मेरा कोई वर्ण नहीं, 'अरसोऽहं" मुझ में कोई रस नहीं 'अस्पशोंऽहं" मुझे छुआ नहीं जा सकता। यह मेरा स्वरूप है। किन्तु इस स्वयं को आप पहिचान नहीं पाते। यही है हमारी दृष्टि का दोष। हम पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की धारणा बनाते हैं। कुछ पदार्थों को हम इष्ट मानते हैं जिन्हें हम हितकारी समझते हैं। कुछ पदार्थों को अनिष्ट मानते हैं, जिन्हें अहितकारी समझते हैं। पर वास्तव में कोई पदार्थ न इष्ट है और न अनिष्ट है। इष्ट-अनिष्ट की कल्पना भी हमारी दृष्टि का दोष है। इसी प्रकार जैनाचार्यों ने बताया है कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न। ऊपर का आवरण ये शरीर केवल एक छिलके के समान है यह उन्होंने अनुभव द्वारा बताया है किन्तु हम अनुभव की बात भी नहीं मानते। हमारी स्थिति बच्चे जैसी है। दीपक जलता है तो बच्चे को यह समझाया जाता है कि इसे छूना नहीं। उसे दीपक से बचाने की भी चेष्टा की जाती है किन्तु फिर भी वह बच्चा उस दीपक पर हाथ धर ही देता है और जब एक बार जल जाता है तो फिर वह उस दीपक के पास अपना हाथ नहीं ले जाता। हमारी दृष्टि का परिमार्जन तभी समझा जायेगा, जब हम प्रत्येक वस्तु को उसके असली रूप में देखें/समझे। यह दर्शन-विशुद्धि लाखों करोड़ों मनुष्यों में से किसी एक को होती है, किन्तु होगी ये विशुद्धि केवल मन्दकषाय में ही। शास्त्रीय भाषा में दर्शन-विशुद्धि चौथे गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक हो सकती है। सद्गृहस्थ की अवस्था से लेकर उत्कृष्ट मुनि की अवस्था तक यह विशुद्धि होती है। एक बार प्रारम्भ हो जाने पर फिर श्रेणी में भी तीर्थकर प्रकृति का बंध हो सकता है किन्तु होगा मंद कषाय के सद्भाव में। दूसरे के कल्याण की भावना का विकल्प जब होगा, तभी तीर्थकर प्रकृति का बंध होगा। तीर्थकर प्रकृति एक ऐसा निकाचित बंध है जो नियम से मोक्ष ही ले जायेगा। कल शास्त्री जी मेरे पास आये थे। साथ में गोम्मटसार की कुछ प्रतियाँ लाये थे। उसमें एक बात बड़े मार्के की देखने को मिली। तीर्थकर प्रकृति का उदय चौदहवें गुणस्थान में भी रहता है। जब जीव मोक्ष की ओर प्रयाण करता है तब यह तीर्थकर प्रकृति अपनी विजयपताका फहराते हुए चलती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कषायों से ही कर्मबंध होता है और कषायों से ही कर्मों का निर्मूलन होता है। जैसे पानी से ही कीचड़ बनता है और पानी में ही घुलकर यह गंगा के जल का भाग बन जाता है जिसे लोग सिर पर चढ़ाते हैं और उसका आचमन करते हैं। ‘काँटा ही काँटें को निकालता है, यह सभी जानते हैं। दर्शन-विशुद्धि भावना और सम्यक्रदर्शन में एक मौलिक अन्तर है। दर्शन विशुद्धि में केवल तत्वचिंतन ही होता है, पंचेंद्रियों के विषयों का चिन्तन नहीं चलता, किन्तु सम्यक दर्शन में विषय चिन्तन भी सम्भव है। दर्शन-विशुद्धि भावना चार स्थितियों में भायी जा सकती है। प्रथम मरण के समय, द्वितीय भगवान के सम्मुख, तृतीय अप्रमत्त अवस्था में और चौथे कषाय के मन्दोदय में। तीर्थकर प्रकृति पुण्य का फल है पुण्यफला अरहंता। किन्तु इसके लिये पुण्य कार्य पहले होना चाहिए। प्रवृत्ति ही निवृत्ति की साधिका है। राग से ही वीतरागता की ओर प्रयाण होता है। एक सज्जन ने मुझ से कहा-‘‘महाराज, आप एक लंगोटी लगा लें तो अच्छा हो, क्योंकि आपके रूप को देखकर राग की उत्पत्ति होती है।” मैंने कहा-भैया, तुम जो चमकीलेभडकीले कपड़े पहिनते हो, उससे राग बढ़ता है अथवा यथाजात अवस्था से। नग्न दिगंबर रूप तो परम वीतरागता का साधक है। विशुद्धि में आवरण कैसा? विशुद्धि में तो किसी भी प्रकार का बाहरी आवरण बाधक है, साधक को वह किसी अवस्था में ही नहीं सकता। अन्तरंग का दर्शन तो यथाजात रूप द्वारा ही हो सकता है, फिर भी यदि इस रूप को देख कर किसी को राग का प्रादुर्भाव हो, तो मैं क्या कर सकता हूँ। देखने वाला भले ही मेरे रूप को न देखना चाहे तो अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ले। पानी किसी को कीचड़ थोड़े ही बनाना चाहता है। जिसकी इच्छा कीचड़ बनने की हुई उसकी सहायता अवश्य कर देता है। पानी एक ही है। जब वह मिट्टी में गिरता है तो उसे कीचड़ बना देता है। जब वह बालू में गिरता है तो उसे सुन्दर कणदार रेत में परिवर्तित कर देता है। वही पानी जब पत्थर पर गिरता है तो उसके रूपरंग को निखार देता है। पानी एक ही है, किन्तु जो जैसा बनना चाहता है उसकी वैसी ही सहायता कर देता है। इसी प्रकार नग्न रूप वीतरागता को पुष्ट करता है किन्तु यदि कोई उससे राग का पाठ ग्रहण करना चाहें, तो ग्रहण करें, इसमें उस नग्न रूप का क्या दोष? ये तो दृष्टि का खेल है।
  13. आचार्य कुन्दकुन्द के रहते हुए भी आचार्य समन्तभद्र का महत्व एवं लोकोपकार किसी प्रकार कम नहीं है। हमारे लिए आचार्य कुन्दकुन्द पिता तुल्य हैं और आचार्य समन्तभद्र करुणामयी माँ के समान हैं। वही समन्तभद्र आचार्य कहते हैं कि - देशयामि समीचीनं धर्मम् कर्मनिवर्हणम्। संसार दुखतः सत्त्वान् यो धरत्युक्तमे सुखे॥ रत्नकरण्डक श्रावकाचार- २ अर्थात् मैं समीचीन धर्म का उपदेश करूंगा। यह समीचीन धर्म कैसा है ?‘कर्मनिवहणम्' अर्थात् कर्मों का निर्मूलन करने वाला है और 'सत्वान् प्राणियों को संसार के दुखों से उबारकर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला है। आचार्य श्री ने यहाँ ‘सत्वान्' कहा, अकेला 'जैनान्' नहीं कहा। इससे सिद्ध होता है कि धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष से संबंधित नहीं है। धर्म निर्बन्ध है, निस्सीम है सूर्य के प्रकाश की तरह। सूर्य के प्रकाश को हम बंधन युक्त कर लेते हैं, दीवारें खींचकर, दरवाजे बनाकर, खिड़कियाँ लगाकर। इसी तरह आज धर्म के चारों ओर भी सम्प्रदायों की दीवारें सीमाएँ खींच दी गयी हैं। गंगा नदी हिमालय से प्रारम्भ होकर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोंलें करते हैं, उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं, उसका जल पीकर जीवन-रक्षा करते हैं, अपने पेड़-पौधों को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगा नदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा सम्प्रदाय की नहीं है, वह सभी की है। यदि कोई उसे अपना बतावे तो गंगा का इसमें क्या दोष? ऐसे ही भगवान वृषभदेव अथवा भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जाति-विशेष का आधिपत्य संभव नहीं है। यदि कोई आधिपत्य रखता है तो यह उसकी अज्ञानता है। धर्म और धर्म को प्रतिपादित करने वाले महापुरुष सम्पूर्ण लोक की अक्षय निधि हैं। महावीर भगवान् की सभा में क्या केवल जैन ही बैठते थे ? नहीं, उनकी धर्मसभा में देव, देवी, मनुष्य, स्त्रियाँ, पशु-पक्षी सभी को स्थान मिला हुआ था। अत: धर्म किसी परिधि से बँधा हुआ नहीं है। उसका क्षेत्र प्राणी मात्र तक विस्तृत है। आचार्य महाराज अगले श्लोक में धर्म की परिभाषा का विवेचन करते हैं, वे लिखते हैं कि - सद्द्वृष्टि ज्ञान-वृत्तानि धर्मं, धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः॥ रत्नकरण्डक श्रावकाचार - ३ अर्थात् (धर्मेश्वरा) गणधर परमेष्ठी, (सद्दूष्टि ज्ञानवृत्तानि) समीचीन दृष्टि, ज्ञान और सद्आचरण के समन्वित रूप को (धर्म विदु:) धर्म कहते हैं। इसके विपरीत अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र (भवपद्धति:) संसार पद्धति को बढ़ाने वाले (भवन्ति) हैं। सम्यक दर्शन अकेला मोक्षमार्ग नहीं है किन्तु सम्यक दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्र चारित्र का समन्वित रूप ही मोक्षमार्ग है। वही धर्म है। औषधि पर आस्था, औषधि का ज्ञान और औषधि को पीने से ही रोगमुक्ति संभव है। इतना अवश्य है कि जैनाचार्यों ने सद्दृष्टि पर सर्वाधिक बल दिया है। यदि दृष्टि में विकार है तो निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव ही है। मोटरकार, चाहे कितनी अच्छी हो वह आज ही फैक्टरी से बनकर बाहर क्यों न आयी हो, किन्तु यदि उसका चालक मदहोश है तो वह गंतव्य तक पहुँच नहीं पायेगा। वह कार को कहीं भी टकराकर चकनाचूर कर देगा। चालक का होश ठीक होना अनिवार्य है, तभी मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग का पथिक जब तक होश में नहीं है, जब तक उसकी मोह नींद का उपशमन नहीं हुआ, तब तक लक्ष्य की सिद्धि अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। मिथ्यात्व रूपी विकार, दृष्टि से निकलना चाहिए तभी दृष्टि समीचीन बनेगी, और तभी ज्ञान भी सुज्ञान बन पायेगा। फिर रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशम से आचरण भी परिवर्तित करना होगा, तब मोक्षमार्ग की यात्रा निर्बाध पूरी होगी। ज्ञान-रहित आचरण लाभप्रद न होकर हानिकारक ही सिद्ध होता है। रोगी की परिचर्या करने वाला यदि यह नहीं जानता है कि रोगी को औषधि का सेवन कैसे कराया जाए तो रोगी का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। अत: समीचीन दृष्टि, समीचीन ज्ञान और समीचीन आचरण का समन्वित रूप ही धर्म है। यही मोक्षमार्ग है।
  14. ?? डोंगरगांव में पंचकल्याणक महोत्सव की तैयारियां जोरों पर?? जगत गुरु आचार्य परमेष्ठी गुरुदेव श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार रामटेक महाराष्ट्र से होकर सम्भवता डोंगरगांव छत्तीसगढ़ (लगभग 200 किलोमीटर) की ओर चल रहा हैं! ❄ छतीसगढ़ की पावन धरा पर संस्कारधानी धर्मनगरी डोंगरगांव में नवनिर्मित अजितनाथ जिनायल जिसमे चौबीसी की मनोहारी वेदी शिखरावली के साथ विशाल मानस्तम्भ का प्राण प्रतिष्ठा पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव का कार्यक्रम 09 नवम्बर से 15 नवम्बर तक अयोध्यानगरी जेंट्स क्लब मैदान में परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्यश्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज ससंघ 38 मुनिराज के सानिध्य में होने जा रहा है। ❄ प्रतिष्ठाचार्य श्री जय कुमार जी शास्त्री भोपाल के कुशल निर्देशन में सम्पन होगा जिसमें भगवान के जन्म बाल क्रिया से मोक्ष तक का वर्णन होगा और 15 नवम्बर को विशाल फेरी जुलूस गजरथ (ऐरावत हाथी) बग्घी घोड़े बाजे गाजे के साथ निकाला जाएगा सभी नगरवासियो से सहयोग और धर्मलाभ की कामना करते है ।। ❄ आचार्य श्री अभी रामटेक से डोंगरगांव के लिए विहार कर चुके है । 4 नवम्बर की शाम को संभवतः डोंगरगांव प्रवेश हो सकता है श्रावको द्वारा विशाल अगुवानी की तैयारी चल रही है| ❄ वंदनीय माँ 105 अपूर्व मति जी ससंघ करेंगी अपने आराध्य गुरुदेव की मंगल आगवानी..! ❄डोंगरगांव में पधारने के लिये के मार्ग- ?ट्रेन द्वारा? राजनंदगांव(RJN) जंक्शन, डोंगरगांव के सबसे करीब का रेलवे स्टेशन है जो की मुंबई-हावड़ा रेलवे रूट में आता है | राजनंदगांव से डोंगरगांव की दूरी 26KM है, यहाँ से हर 10 मिनट में डोंगरगांव के लिए बस का साधन उपलब्ध है | ?रोड द्वारा? डोंगरगांव आप बाय रोड भी आसानी से पहुच सकते है डोंगरगांव से मुख्य शहरो की दूरी इस प्रकार है - 1)राजनंदगांव(छ.ग.) - 26KM 2)दुर्ग-भिलाई(छ.ग.)- 50KM 3)रायपुर(छ.ग.)- 100KM 4)नागपुर(महा.)-200KM 5)गोंदिया(महा.)-100KM ?प्लेन द्वारा? रायपुर, डोंगरगांव से सबसे करीब का एअरपोर्ट है जो डोंगरगांव से 100KM दूरी में स्थित है |
  15. राजनांदगांव/डोंगरगांव. दिगबर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी का डोंगरगांव प्रवेश शनिवार को सुबह 8 बजे होगा। अपने मुनिसंघ के साथ पद यात्रा कर डोंगरगांव पहुंच रहे आचार्यों की आगवानी के लिए डोंगरगांव शहर की सीमा पर मोहड़ चौक से विशाल जन समुदाय के साथ उनका डोंगरगांव प्रवेश होगा। डोंगरगांव में नवनिर्मित जैन मंदिर में मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा सहित मंदिर प्रांगण में निर्मित मान स्तंभ पूजन और गजरथ पंचकल्याण महोत्सव के वृहद कार्यक्रम जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी के उपस्थिति में होगा। शनिवार सुबह 6 बजे अरसीटोला से विहार आयोजन के लिए जैन तीर्थस्थली रामटेक (महाराष्ट्र) से डोंगरगांव के लिए निकले मुनिसंघों की टोली आचार्य श्री की अगुवाई में डोंगरगांव छुरिया मार्ग पर ग्राम अरसीटोला पहुंच गई है और रात्रि विश्राम के बाद शनिवार सुबह 6 बजे अरसीटोला से विहार करेगी और मुनिसंघ में शामिल 37 मुनियों के साथ चल रहे आचार्य विद्यासागरजी का मंगल प्रवेश डोंगरगांव की सीमा पर मोहड़ चौक के समीप शनिवार सुबह 8 बजे होगा। 9 से 15 नवम्बर तक पंच कल्याणक महोत्सव इस मंगल प्रवेश के लिए पूरे देश से पहुंच हुए जैन समाज के साथ ही डोंगरगांव जैन समाज सहित स्थानीय नागरिकों की उपस्थिति के बीच डोंगरगांव आगमन होगा। डोंगरगांव में आगामी 9 से 15 नवम्बर तक जेन्ट्स क्लब मैदान में आयोजित पंच कल्याणक महोत्सव के लिए पधारे आचार्यों के आगमन को लेकर स्थानीय स्तर पर बड़ी तैयारी की जा रही है। वृहद पंडाल में हजारों लोगों के बीच आयोजित कार्यक्रम में प्रतिदिन विविध विषयों और जैन दर्शन पर आधारित कार्यक्रम होंगे। कार्यक्रम के लिए डोंगरगांव के अलावा राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के गुरू भक्तों का जमावड़ा डोंगरगांव में हो चुका है। मुनिवरों की आहार चर्चा के लिए चौका सजाने दूर-दराज से लगातार भक्त डोंगरगांव नगर में माहौल धार्मिक वातावरणमय हो गया है। मूर्ति स्थापना की तैयारी अंतिम चरण में तोरण-पताका और रंग रोगन के बीच और जैन समुदाय के लोगों के लिए यह क्षण स्वर्णिम इतिहास गढऩे का हो रहा है। विशाल जैन मंदिर में मूर्ति स्थापना की तैयारी अंतिम चरण में है। पंच कल्याणक जैसे वृहद कार्यक्रम का संपादन वर्षों बाद डोंगरगांव में किया जा रहा है। इस कार्यक्रम की सफलता और आचार्य के आगमन को यादगार बनाने जैन समाज के साथ ही सभी नागरिकों एवं अन्य समाजों द्वारा भी विशेष योगदान दिए जा रहे हैं। https://www.patrika.com/bhilai-news/rajnandgaon-acharya-vidyasagar-enters-in-dongargaon-on-saturday-mornin-1964564/
  16. दोष विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संसारी प्राणी अपनी कमजोरी को बताना नहीं चाहता इसलिए दूसरे को दोष देता है। दोष दृष्टि वाले की नेत्र ज्योति कमजोर भी हो तो उसे दूसरे की कमी दिखाई दे जाती है, चाँद में भी दाग दिख जाता है। चन्द्रमा तुम्हारी चाँदनी ही तुम्हें दागदार बता रही है, गर चाँदनी न होती तो दाग दिखते ही नहीं। छोटी-सी कमजोरी पर ध्यान न देने से जीवन का विकास रुक जाता है। गुरु हमारे छोटे-छोटे दोषों को भी दिखाते हैं तो वे हम पर दया कर रहे हैं, ऐसा समझना चाहिए। जिस हेतु से दोष आ रहे हैं, उस हेतु के कारण को ही दूर करने से दोषों से मुक्त हुआ जा सकता है। दूसरों में दोष देखना, दोषों की कथा करना, जिनका यह भोजन है, समझना वह अपने दोषों को पुष्ट कर रहा है। परनिंदा रूप भोजन करने वाले में राग-द्वेष आदि अजीर्ण रोग हमेशा बना ही रहता है। खुरापात ही जिनकी खुराक हो, वे बैल, श्वान और चूहे के समान हैं। जैसे चूहे खुरापात से जमीन खोदकर सुरंग बनाकर दूसरे के घर में घुस जाते हैं। दोष लगना तो सरल है, राग-द्वेष की कोठरी में बैठकर सदा सफेद (दाग रहित) नहीं रहा जा सकता। चन्द्रमा का दाग उसकी प्रभा के कारण संसार को देखने के लिए मिला लेकिन चन्द्रमा जैसा गुण कोई प्राप्त नहीं कर पाता। शरद पूर्णिमा के चाँद से औषधियाँ निर्मित होती हैं। यह गुण संसारी प्राणी प्राप्त नहीं कर पाता जबकि उसके दाग की आलोचना कर बैठता है। रागी को साधु में दोष तो दिखते हैं लेकिन वह एक बार साधु बनकर देख ले तो उसे ज्ञात हो साधु बनना कितना कठिन है। क्या करें? सफेद कपड़े पर एक छोटा-सा दाग दिख ही जाता है उसकी सफेदी नहीं दिखती। दोष तो अंधा भी देख लेता है, पर गुणों को प्राप्त नहीं कर पाता। दूसरों के दोषों को देखकर मौन धारण कर लेना चाहिए। कोई राग-द्वेष कर रहा है तो एकान्त से वह दोषी नहीं है, क्योंकि उसके कर्म का भी उदय है, ऐसा समझना चाहिए। दोषों का त्याग, गुणों का ग्रहण तभी संभव है, जब हम दोष को दोष के रूप में एवं गुण को गुण के रूप में स्वीकार करेंगे। संसार में तीन प्रकार के पदार्थ होते हैं-हेय (छोड़ने योग्य), उपादेय (ग्रहण करने योग्य) एवं ज्ञेय (जानने योग्य)। ऋण, वृण् (घाव), अग्नि, कषाय के छोटे से कण को भी कम नहीं समझना चाहिए। बुरे कार्यों में अंधा, गूँगा, लंगड़ा, लूला, बहरे बन जाओ, अर्थात् बुरा कार्य न देखो, न सुनो और न करो, न ही बुरे कार्य की अनुमोदना करो। बुरे विचारों से बचने का सही उपाय है कि उन्हें छोड़कर अब जो पाना चाहते हो, मन को उसी ओर लगाइए।
  17. देशनालब्धि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार देशनालब्धि का अर्थ गुरु के मुख से कहा हुआ, सुनना है और उपदेश का अर्थ किसी से भी सुनना होता है। अनादि मिथ्यादृष्टि को देशनालब्घि पूर्वक ही सम्यकदर्शन हुआ करता है। प्रभु की धर्म-देशना को सुनकर तिर्यञ्च भी अपना कल्याण कर लेते हैं। प्रभु की दिव्य-देशना सभी जीवों को अपनी-अपनी भाषा में सुनाई देती है।
  18. वर्तमान में इस दुषम पंचम कलिकाल में जहाँ चहुँ ओर विनाश का हिंसक ताण्डव दृष्टिगोचर हो रहा है। वहीं काम, क्रोध, मोह-माया, तृष्णा, वैमनस्य एवं भोगलिप्सादि दुष्प्रवृत्तियों ने मानव मात्र को अपने नाग-पाश में बाँध रखा है। वातावरण अत्यन्त विषाक्त होता जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व में लोग अपनी आत्महंता प्रवृत्तियों में संलग्न दिखाई दे रहे हैं। मानवता करुण क्रन्दन कर रही है। भद्रजन निरन्तर परम सत्ता से अपने उत्थान व विश्व कल्याण हेतु तथा इस सृष्टि की अनमोल कृति की रक्षा हेतु प्रार्थना में रत हैं। प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाती, फिर परमेश्वर तो दयानिधान हैं उनकी करुणा त्रैलोक्य में विख्यात है। आखिर प्रार्थना उस ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता तक पहुँची एवं परम सत्ता ने भद्र जनों की पुकार पर करुणा वश कुछ उपाय का निर्णय लिया। यकायक एक तीक्ष्ण विद्युत प्रभा कोंधी एवं लुप्त हो गई। लेकिन परम सत्ता को संकेत मिल गया। उसने अपने चैतन्य के अनमोल खजाने की ओर दृष्टिपात किया और एक दुर्लभ रत्न उस रत्न राशि में से ढूँढ़ा जिसकी विद्युत आभा अत्यन्त आलोकित थी। दुर्लभ रत्न देखा गया, परखा गया फिर प्रकृति सत्ता सन्तुष्ट हुई। १० अक्टूवर १९४६, सम्वत् २००३ की आश्विन मास की वह पावन शरद पूर्णिमा, तिस पर निर्मल विमल उज्ज्वल शीतल चन्द्र किरणें चहुँ ओर व्याप्त, वह अर्द्ध निशा का सन्नाटा। जब समस्त चराचर निद्रा-देवी के आगोश में मस्त था। ऐसे मोहक वातावरण में हिंसा व दुनीतियों से जन्म दिनांक १०/११ अक्टूबर १९४६ आश्विन शुक्ला १५ वि.सं. २००३ समय-रात्रि करीब १५० पर बुधवार-गुरुवार की रात्रि स्थान-ग्राम सदलगा, जिला-बेलगाँव, प्रान्त-कर्नाटक। संत्रस्त मानवता को त्राण दिलाने हेतु भव्य जीवों को काल के विकराल भय से अभय प्रदान करने हेतु एवं सम्पूर्ण मानवता को फिर अहिंसा का सन्देश देकर सन्मार्ग पर चलाने हेतु मार्ग प्रशस्त हुआ। प्रकृति ने उस अनमोल विद्याधर रूपी रत्न को विद्याधरों के लोक से धरती पर अवतरित होने हेतु सुमंगल अवसर प्रदान किया। ज्योतिश्चक्रे तु लोकस्य, सर्वस्योक्तं शुभाशुभम्। ज्योतिर्ज्ञानं तु यो वेद, स याति परमां गतिम् ॥ शैशव कब बीता ? कैसे गुजर गए वे अनमोल क्षण ? मातृ एवं पितृ सत्ता सांसारिक व्यामोह की अर्द्ध चेतनावस्था में लीन रही। उन्होंने उस दुर्लभ रत्न की आभा में अपने को विस्मृत कर दिया। लेकिन पुष्प की सौरभ अन्य लोगों के लिए होती है। पुष्प देव सत्ता को भी प्रिय रहते हैं फिर वह रत्न पुष्प तो एक विशिष्ट उद्देश्य हेतु प्रस्फुटित हो रहा था। यौवन का आगमन हुआ। अचानक देव योग से चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी, ऋद्धिधारक सरीखे तपोनिधि आचार्य की तप सुरभि वातावरण में व्याप्त हुई। विद्याधररूपी रत्न के नथुनों में जो पहुँची सौरभ, और जीवन उद्देश्य को पूर्ण करने की दिशा में चेतना अग्रसर हुई, फिर ब्रह्मचर्य व्रत धारण हुआ योग मार्ग की दिशा में कदम बढ़ाना प्रारम्भ हुआ। आचार्य देशभूषणजी ने एक और बालक को ब्रह्मचर्य व्रत देकर दिगम्बर श्रमण परम्परा पर चलने हेतु प्रथम सीढ़ी चढ़ने का सौभाग्य प्रदान किया। - दीक्षा - दिनांक ३० जून, १९६८ मध्याहृ, १% से ४ बजे तक स्थान-श्री बड़े धड़े की नसियां अजमेर (राजस्थान) साधु समागम, एकांत चिंतन, मनन, स्वाध्याय ने वैराग्य रूपी पौधे का सिंचन प्रारम्भ कर स्वर्णिम आभा युक्त नगरी, सभी धर्म मतावलम्बियों का संगम स्थल अजमेर नगर। जहाँ की धर्म प्राण जनता परम श्रद्धेय आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के अथाह ज्ञान समुद्र की जल राशि से सुधामृत का पान कर रही थी। श्रमसाध्य यात्रा से कलान्त थकी हारी काया लेकिन अत्यन्त आतरिक उत्साह, समेटे विद्यारत्न जा पहुँचे अपने परम शिक्षक के पास। कुशल कारीगर के पास जिससे कि वह नर रत्न तराशा जाकर अपने आभामय स्वरूप की प्राप्ति हो सके। चन्द क्षण, क्षणिक अल्प वार्ता, दो परम आत्माओं का मिलन सहज समागम विद्या रूपी दीपक प्रज्ज्वलित होने को तत्पर एवं ज्ञान रूपी दीपक लौ को प्रज्ज्वलित करने को तत्पर। इस तरह गुरुवर्य ज्ञानसागर से विद्योपलब्धि प्राप्त कर वह रत्न बन गया विद्या सागर। दीक्षा पूर्व की देवराज इन्द्र के वैभव समान शोभा यात्राओं को अत्यन्त उत्साह से जन साधारण ही नहीं अपितु सूक्ष्म लोक की देवात्मायें, ऋषि मुनि एवं दिवंगत दिव्यात्मायें व भद्रजन भी देखकर अपने नयन तृप्त कर रहे थे। फिर आखिर आ पहुँची वह अनमोल घड़ी, दीक्षा संस्कार की विधि प्रारम्भ हुई। स्थानीय बड़े घड़े की नसियां में मुनि श्रावक श्राविकाओं का चतुर्विध संघ विद्यमान एक विशाल पाण्डाल में। जैसे किसी तीर्थकर का समवसरण हो। हर धड़कन उद्वेलित थी हर सांस वैराग्य की सुरभि से आप्लावित थी। ग्रीष्म की ज्वाला अपने चरमोत्कर्ष पर थी। अन्ततोगत्वा दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ, दिगम्बर वेश धारण हुआ और देवराज इन्द्र भी रोक नहीं सके अपने को, स्वर्गलोक से मेघ कुमारों को साथ ले आ पहुँचे अभिवादन को चन्द क्षणों में ही निर्मल जल राशि बरसा कर ग्रीष्म ऋतु की तपन से व्याकुल हृदयों को शीतलता प्रदान करने लगे। क्यों न हो जब विद्याधर से विद्यासागर बने प्रकृति के अनमोल चैतन्य नर रत्न ने अहिंसा के परम संदेश को जन जन तक पहुँचाने का संकल्प लिए और शिवपथ पर आरूढ़ हो चले दिगम्बर वेश धारण कर वह महामुनि। ऐसे दुर्लभ सन्त पहिले तो इस युग में दृष्टिगोचर ही नहीं होते फिर उनका सहज समागम उपलब्ध हो जाये यह हमारा परम सौभाग्य है। धन्य है वे कर पात्र जिन्होंने ऐसे महान् सन्त के चरण वन्दन कर उनके श्री चरणों में अपना आपादमस्तक झुका कर चरण रज ग्रहण की। निश्चय ही बड़े भागी हैं उनके वे भक्त जो निरन्तर तन-मन धन से उनकी भक्ति में तत्पर हैं लीन हैं। क्यों नहीं प्रकृति उन पर अपना वरद् हस्त रख कर श्री व समृद्धि से उन्हें परिपूर्ण करेगी। ज्योतिष विज्ञान उन भव्यात्माओं के चर्चा का विषय है जो स्वयं ज्योति: स्वरूप है। भास्कर सदृश स्वयं जो प्रचण्ड तेजोमयीप्रभा से युक्त है मति श्रुत अवधि व कैवल्य की ज्ञान राशि जिनकी ज्योति आभा है। सन्त तो स्वयं ज्योतिर्मय एवं त्रिकालज्ञ होते हैं समस्त चराचर व सकल ब्रह्माण्ड की क्रियाओं का ज्ञान उन्हें हस्त कमलवत् होता है। स्वात्मलीन ऐसी परम चैतन्य आत्माओं के सम्बन्ध में कुछ कहना व लिखना सूर्य को दीपक दिखलाने के समान है इसे अपनी अल्पज्ञता नहीं तो और क्या कहूँ। मेरा प्रिय विषय रहा है ज्योतिष। आचार्य श्री के प्रति श्रद्धाभाव व कुछ मित्रों का आग्रह। मन का पंछी उड़ चला ज्योतिष के स्वप्न लोक में और जा पहुँचा ब्रह्माण्ड के ऊध्र्वलोक स्थित विद्याधरों की पावन सूक्ष्म शरीरी बस्ती में। विचरण करने लगा। आकाशस्थ ग्रह स्थिति का अवलोकन करने लगा। जन्म चक्र के कोष्ठों में लिपि बद्ध ग्रह राशि व उनकी आकाशस्थ स्थिति को निहारने लगा और इस तरह पूज्य आचार्य श्री के जन्म चक्र, दीक्षा चक्र व आचार्य पद प्राप्ति के समय की ग्रह स्थिति का चक्र बना फिर कुछ लिखा जा सका। आचार्यपद दिनांक - २२ नवम्बर, १९७२, सायंकाल करीब ४ से ५ बजे तक स्थान - नसीराबाद (राजस्थान) यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम् ॥ जब तत्व वाला चर राशि का कर्क लग्न। लग्न में बलवान शनि व प्लूटो। लग्नेश भाग्य भवन में स्थित। जल सी शुचिता, सौम्यता व शीतलता प्रदान करता हुआ। शनि कठोर तपश्चर्या पूर्ण जीवन जीने को बाध्य करता हुआ-दृढ़ निश्चयी होने का द्योतक बना है। तृतीय सप्तम व दशम भाव पर शनि की पूर्ण दृष्टि, अतएव भ्रातृ सुख न्यून। स्वयं को पत्नी सुख नहीं। भ्रमणशील एवं भिक्षावृत्ति से जीवनयापन, उत्कृष्ट श्रम तत्पश्चात् सफलता। अन्य लोगों पर पूर्ण प्रभावी, आत्मध्यान में लीनता का द्योतक। कर्क राशि स्थित लग्न में प्लूटो परम आध्यात्मिक उपलब्धियां प्रदान करने वाला एवं धर्माराधना में निरन्तर अग्रसर रखने वाला परम आर्ष मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाला है। द्वितीयेश सूर्य की तृतीय भाव में बुध की उच्च राशि में स्थिति परम साहसी व जातक को अतीन्द्रिय क्षमता से सम्पन्न बनाती है। पराक्रमी एवं पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित श्रमण मार्ग पर चलते हुए मोक्ष गामी चेतना होने का संकेत देती है। नेपच्यून का साथ चेतना को उतरोत्तर प्रगति व परम समाधि को उपलब्ध होने की ओर एवं निरन्तर उग्र तपस्या में लीन रह धर्माराधना में सक्रिय रखता है। तात्पर्य है कि पूर्ण संन्यासी योग घटित होता है। सूर्य एवं चन्द्रमा परस्पर आमने सामने है। एतद् द्वारा स्वभाव में मधुरता युक्त दृढ़ निश्चयी व निरन्तर तीर्थाटन व तीर्थोद्धार करने वाला प्रवासी व भ्रमण शील व्यक्तित्व होना बतलाता है यहीं श्री कण्ठ योग घटित होता है जिसका तात्पर्य है ऐसा व्यक्ति शिव सम्प्रदाय (ऋषभनाथ) में दिगम्बरी जैनेश्वरी दीक्षा में दीक्षित होता है। चन्द्रमा पर नेपच्यून की दृष्टि की वजह से स्वप्निल कायिक विकास व मानसिक सिद्धियों की उपलब्धि संभव होती है। निरन्तर सद्धर्माराधना में प्रवीण क्रियाशील रहता है ऐसा पुरुष। उत्कृष्ट काव्य रचना में भी रत रहता है। तुला राशि में बुध व गुरु की युति चतुर्थ भाव में है व मंगल भी साथ है। मोक्षाधि पति बुध, धर्माधिपति गुरु व राज्याधिपति मंगल तीनों बलवान ग्रहों के प्रभाव से ऐसा व्यक्ति महाकवि, लेखक, आगम ज्ञान का धारक, पूर्ण पाण्डित्य से युक्त वत्ता, होता है। यह निरन्तर गूढ़ ज्ञानाभ्यास में रत रहकर गुरु पद अर्थात् धर्माधिपति या धर्माचार्य के पद को सुशोभित करता है। अनेक विद्यायों जैसे न्याय, छन्द, व्याकरण, दर्शन, योग आदि में उत्कृष्ट विद्वता अर्जन करता है। दशम भाव पर उत्त ग्रहों की दृष्टिवश, जातक अपनी रचनाओं व सम्यक् आचरण के बल पर तथा निरन्तर अध्यापन द्वारा ज्ञान प्रदान करता हुआ समाज को उपकृत करता है। सत्ता, न्याय व शासन करने की क्षमता भी यही योग प्रदान करता है, इसी वजह से निभीक व्यक्तित्व प्रकट हुआ है। यहाँ कारण है कि आप आचार्य पद से विभूषित होकर एक बहुत विशाल मुनि, आर्यिकाओं, ब्रह्मचारी, श्रावक-श्राविकाओं के संघ प्रमुख बने है एवं अपनी धीर वीर गम्भीर वाणी में प्रवचनों के माध्यम से लोकोपकार में संलग्न है। विद्वज्जनों, भद्रजनों, जैन एवं अजैन जन साधारण द्वारा ही नहीं, साधु संन्यासियों, ज्ञानियों एवं शासन सत्ता में प्रमुख व्यक्तियों द्वारा भी वन्दनीय हैं। मिथुन राशि पर गुरु की दृष्टि उत्तम गायन शैली हेतु कण्ठ में सरसता व मधुरता प्रदान करती है। पंचम भाव में मंगल की राशि में शुक्र व केतु की युति एवं मंगल शुक्र का परावर्तन योग है। एकादश भाव में बहुत अच्छी स्थिति का राहू है। वृश्चिक के पृष्ठ भाग में स्थित तीक्ष्णता के समान अपनी वय के उत्तरार्द्ध में इस व्यक्तित्व का जाज्वल्यमान व दैदीप्यमान होना संभव है। लेकिन उत्कृष्ट प्रयासों द्वारा ही सफलता मिले। वृश्चिक दंश का योग भी जन्म पत्रिका में भाषित है। इसके अतिरिक्त वृषभ राहु जो स्वयं अमृत पायी है, अमरत्व प्रदान करने में कुछ भी कृपणता नहीं दिखा रहा है। अर्थात् अमरत्व को उपलब्ध होंगे। शनि से मंगल बुध गुरु का केन्द्र योग, सूर्य शनि का त्रिरेकादश योग, सूर्य चन्द्र का सम सप्तम योग, चन्द्र राशि से त्रिकोण में शनि, तृतीय में सूर्य व उससे नवम में राहु की स्थिति, लग्न स्थित कर्क गत शनि की स्थिति इस जातक को पूर्ण वैराग्य युक्त महान् त्यागी, संन्यासी, परमज्ञानी, परीषह जयी एवं शिव स्वरूप दिगम्बर वेष धारण कर मुनि बन विचरण करने का स्पष्ट योग दर्शाती है। आपकी दिगम्बर मुनि दीक्षा दिनांक ३० जून, १९६८ आषाढ शुक्ला पंचमी वि.सं. २०२५ को अजमेर नगर राजस्थान में मध्याह्न डेढ़ से चार बजे तक सम्पन्न हुई। लेखक स्वयं उपस्थित होकर उस भव्य दृश्य का अवलोकन कर रहा था। प्रमुख दीक्षा संस्कार के वक्त आकाश में तुला लग्न गतिमान था। गुरु व चन्द्र को सिंह राशि में एकादश भाव में युति व स्थिति थी। सप्तम भाव में मंगल की राशि में शनि था। अष्टम भाव में वृष राशि में मित्र क्षेत्री बुध। नवम भाव में सूर्य, मंगल व शुक्र बुध की राशि में स्थित थे। षष्ठ भाव में राहु व द्वादश भाव में केतु स्थित थे। यह स्थिति पूर्ण काल सर्प योग बनाती है। द्वादश भाव में स्थित केतु मोक्ष प्रदाता बन रहा है। सप्तम भाव का शनि अपनी उच्च राशि पर दृष्टिपात कर टंकोत्कीर्ण तपस्या के मार्ग पर अग्रसर कर निरन्तर भ्रमणशील जीवन व्यतीत करने का, वैराग्यमयी, श्रमण संस्कृति की श्रेष्ठ स्थिति में दिगम्बर मुनि वेष धारण कर लेने को बाध्य कर रहा है। ऐसा दृढ़ निश्चय केवल शनि ग्रह ही प्रदान कर सकता है। मिथुन राशि में शुक्र, सूर्य, मंगल निरन्तर धर्म वृद्धि, भाग्य वृद्धि व यश वृद्धि के सूचक बन रहे हैं। तीनों ग्रह वायु तत्व के माध्यम द्वारा दिगम्बरत्व भूषित इस ऋषि के तपोमयी जीवन व ज्ञान की सुरभि चहुँ और विस्तीर्ण करने को उद्यत है। एकादश भाव में गुरु व चन्द्र की स्थिति सूर्य की राशि में अपने मकसद अर्थात् ध्येय में पूर्ण सफलता का निर्देश कर रही है। इन्हीं ग्रहों की सूर्य मंगल शुक्र से त्रिरेकादश व बुध से केन्द्र योग स्थिति परम ज्ञान को उपलब्ध होने का योग बना रही है। इस भूखण्ड पर ही नहीं अपितु दिगदिगांतर में वैराग्यमयी तपोपूर्ण श्रमण संस्कृति की कीर्ति का सत्-संदेश प्रसारित करने का संकेत दे रही है जो अनेक प्राणियों को सन्मार्ग पर अग्रसर होने को प्रेरित करती रहेगी। आपको दिनांक २२.११.१९७२ को सायंकाल करीब ४ से ५ बजे के बीच अपने दीक्षा गुरु आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज द्वारा आचार्य पद से विभूषित किया गया। क्या ही विचित्र दृश्य था। गुरु स्वयं शिष्य को अपना अदृश्य मुकुट पहना रहे हैं अपना पद प्रदान कर रहे हैं एवं स्वयं शिष्य के कदमों में विराज कर नमन कर रहे हैं। प्रसंग वश लिख रहा हूँकि जिन्हें अध्यात्म मार्ग का ज्ञान है वे जानते हैं कि अन्त में सभी पद संन्यासी की मुक्ति में बाधक हैं। ऋषि-मुनि जन परम निर्लिप्त, आत्मस्थ रहते हुए परम जाग्रत व आत्मचिंतन में तल्लीन रहते हुए पंचभूतमयी काया के कलेवर का त्याग करते हैं। आचार्य पूज्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज तो स्वयं ज्ञानवारिधि थे परम ज्ञानी थे भला वे इस सुअवसर का त्याग कैसे कर सकते थे। जिन आँखों ने यह दृश्य देखा था आज भी उनका रोम-रोम उस दृश्य की स्मृति मात्र से तरंगायित हो जाता है। उस समय उस दिन आकाश में मेष लग्न उदित था ग्रहस्थितिनुसार वृष राशि में शनि, मिथुन राशि में चन्द्र व केतु, तुला राशि में स्वग्रहो शुक्र व मंगल, वृश्चिक राशि में सूर्य व बुध तथा धनु राशि में गुरु व राहु उपस्थित थे। मेष लग्न पर बलवान् शुक्र व मेषाधिपति मंगल की पूर्ण दृष्टि है अतः अधिकार व उच्च पद प्राप्ति का योग शनि की दशम दृष्टि कुम्भ राशि पर इसमें सहायक। गुरु की पूर्ण दृष्टि लग्न पर। तात्पर्य है कि यह स्थिति आचार्य पद दिलाने का हेतु बनी। घुमन्तु जीवन चन्द्र केतु की स्थिति से मन की शक्तियों पर विजय एवं शुक्र मंगल दृढ़ निश्चय व मधुरता युक्त शासन क्षमता में वृद्धि का संकेत देती है। अष्टमस्थ सूर्य व बुध पर शनि की दृष्टि तपोमयी जीवन विरत व संन्यास योग की प्रत्यक्ष झलक देती है। नवम् भावस्थ स्वग्रही धनु राशि का गुरु निरन्तर भाग्य वृद्धि, धर्म वृद्धि व उज्ज्वल कीर्तिं प्रदान करती है। यही स्थिति चन्द्र से दृष्ट होने से सत् धर्म एवं पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित धर्म की प्रभावना करने का निर्देश देती है। यही स्थिति लोक पूजित, श्रेष्ठ लब्धिधारक व ऊध्र्वलोक हेतु निरन्तर प्रयासरत रखती है। आपकी जन्म पत्रिका में, जन्माङ्गचक्र, दीक्षाङ्गचक्र व आचार्यङ्गग चक्र में बहुत कुछ समानता है। सूर्य का शनि से दृष्ट होना, दिगम्बर संन्यासी वेष धारण करने का योग है। जन्म व आचार्य चक्र में मेष राशि लग्न व दशमस्थ अपने स्वामी से दृष्ट है। जन्म व दीक्षा दोनों चक्रों में सूर्य शनि त्रिरेकादश योग है। चन्द्र व शनि एक दूसरे में नवम पंचम अर्थात् त्रिकोण में है। ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार शनि चन्द्र की युति प्रतियुति दृष्टि, सूर्य शनि की युति—प्रतियुति दृष्टि एवं गुरु मंगल व बुध की युति-प्रतियुति दृष्टि प्रवज्या लेकर, वैराग्यपूर्ण साधुमार्ग पर चलने की क्षमता प्रदान करती है। तीर्थकर महावीर, श्री गौतम बुद्ध, श्री नानकदेव, महर्षि रमण शंकराचार्य आदि अनेक महान् पुरुषों के जन्म चक्रों को देखें तो उत्त योग प्रत्यक्ष देखने को मिलते हैं। इसके अतिरिक्त पूर्ण व खण्डित रूप से निम्न योग भी आपके जन्म चक्र में घटित दिखाई देते हैं। केमद्रुम योग, काल सर्प योग, श्रीकण्ठ योग, शुभवेसियोग, पुष्कल योग, सरस्वती योग, श्रीनाथ योग, महायोग, शंख व दाम योग, शौर्य व अम्बुधि योग आदि पूर्ण व आंशिक रूप से आपके जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। इनसे स्पष्ट आभास होता है कि इनके रूप में ससम्मान भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करने वाला, घुमन्तु जीवन जीने वाला शिव स्वरूप दिगम्बर श्रमण सम्प्रदाय में दीक्षित, सुन्दर गुणनिधि, शासन कर्ता, शुभ वाणी युक्त श्रेष्ठ पद धारक, सत्य वक्ता, लोक पूजित, शास्त्रार्थ पारंगत, पूर्ण पाण्डित्ययुक्त काव्य-नाटक, गद्य-पद्य रचना में निपुण, निरन्तर धर्माराधना द्वारा आर्ष व आगम मार्ग पर चलने वाला, ब्रह्मज्ञान पारायण, धर्माचार्य, सौम्य व सात्विक ब्रह्म तेज युक्त, जितेन्द्रिय, परोपकारी, ऋद्धि-सिद्धि धारक, तीर्थोद्धारक आदि गुणों से विभूषित एक महान् आत्मा अवतरित हुई है। जो निरन्तर अपनी दिव्य देशना द्वारा जैन-अजैन सभी धर्ममतावलम्बियों को सत्य व सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करेगी। ये ऋषि अनेकों का जीवन बदलेंगे। उन्हें परमार्थ ज्ञान की ओर बढ़ने में पूर्ण साधक होंगे। वदन-कमलमङ्कः कामिनीसङ्ग शून्यः, तदसि जगति देवी वीतरागस्त्वमेव ॥ अतिरित इसके यदि हम पाराशरी पद्धति, विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी व कालचक्र दशान्तर्गत उत्त जन्म पत्रिका का अध्ययन करें तो भी उत्तरोत्तर धर्म मय प्रगति युक्त जीवन का संकेत मिलता है एवं परम चैतन्यमयी अवस्था में समाधि घटित भाषित होती है अर्थात् देह त्याग संभव होता है। आयुष्य के सम्बन्ध में कई मत-मतान्तर ज्योतिष में प्रचलित है तथापि कालचक्र की परिधिनुसार ७२ से ७६ वर्ष के मध्य आप इस पंचभूत काया का त्याग कर सकेंगे। कुछ असाता वेदनीय से शारीरिक व्याधि से यदि मुक्त हों तो ८६ वर्ष तक जीवन धारा प्रवाहित हो सकेगी। ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार अष्टमेश, लग्नेश व दशमेश १-४-५-७-९-१० वें भाग में स्थित हो तो दीर्घायु योग होता है-शुभ ग्रह भी इन्हीं भावों में हो तो भी दीर्घायुयोग होता है। आचार्य श्री जी के जन्म चक्र में अष्टमेश शनि लग्न में, लग्रेश चन्द्रमा नवम् भाव में व दशमेश मंगल चतुर्थ भाव में स्थित है साथ ही शुभ ग्रह भी चतुर्थ पंचम व नवम् भाव में है। सूर्य तीसरे भाव में व राहु एकादश भाव में स्थित है अत: दीर्घायु योग स्पष्ट है। अन्त में श्री जिनेन्द्रदेव से विनम्र प्रार्थना है कि आप चिरायु हों, शतायु हों एवं अपनी धवलकीर्तियुक्त धर्मध्वजा को धर्माकाश में उन्मुक्त रूप से फहराते हुए विचरण करें। मुमुक्षुओं की ज्ञान पिपासा का अपनी अमृतमयी वाणी से तृप्त करें। परमोत्कृष्ट कैवल्ययुत मुक्त अवस्था को उपलब्ध होवें। तीर्थकरों के समान तीर्थोद्धारक बने, धर्म की पुर्नस्थापना कर निरन्तर अनन्त काल तक शरद्-पूर्णिमा के चन्द्र की उज्ज्वल ज्योत्सनाओं से साधकों के शिवपथ को आलोकित करते हुए अभिवंदित होवें। प्रस्तुत विवेचन में अपनी अल्प प्रज्ञा व उपलब्ध तथ्यों के आधार पर संक्षिप्त रूप से लिख सका हूँ, यह भी संभव हुआ है, आचार्य श्री के प्रति विनयी भावों व श्रद्धा वश एवं अन्य सन्तों, भद्रजनों व मित्रों के आग्रह के कारण। इसमें एक साधक की नजर है, एक भविष्य वक्ता का कथन है एक मोक्षाभिलाषी जिन भत के भाव हैं। त्रुटियां अवश्यम्भावी है। विज्ञ-जन संशोधन कर पढ़ें एवं संभव हो तो मुझे भी अवगत कराने का कष्ट करें। ) क्योंकि संत तो स्वयं मानस के पार आत्मस्थ जीवन जीते हैं उनके प्रति कुछ कहना, व लिखना अत्यन्त कठिन है। तथापि क्षुद्र (शूद्र) प्रयास है अत: अनुपयुक्त यदि कुछ लगे तो सुहृदयी पाठक मुझे क्षमा प्रदान करें।
  19. देश विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भारत के अंदर भले महाभारत हो, लेकिन बाहर भारत एक हो। भारत के पास सभी अंग हैं लेकिन हृदय नहीं है। मैं भगवान् से प्रार्थना करता हूँ कि हे भगवान्! इन हृदय शून्य भारतवासियों को हृदय दे दो। मांस निर्यात रुक जावेगा तो भारत का इतिहास बन जावेगा। मांस निर्यात, स्वतंत्रता के नाम पर महान् अभिशाप है, कलंक है। आदमियों का नाम भारत देश नहीं है, बल्कि संस्कृति का नाम भारत देश है। गाँधीजी ने कहा था यह आंदोलन विश्व की स्वतंत्रता के लिए है। महान् व्यक्तियों का उद्देश्य विश्व के लिए होता है, संकीर्ण नहीं होता। भारत कभी खोटा काम करके उन्नत नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे कार्यों में साधु, संतों का आशीर्वाद नहीं मिलेगा। सत्य का समर्थन नहीं करना यानि असत्य का समर्थन करना है। मनुष्य तो जियें पर पशु-पक्षियों को भी जीने दें, यही लोकतंत्र है। देश को धन, प्रासाद से नहीं बल्कि अहिंसा से समृद्ध बनाइए। विदेश में विदेह की बात नहीं मिलती। सूख-सूख कर सोंठ जैसे बन जाओगे तो भी वहाँ सुख नहीं मिलता। नोट से आप वोट नहीं मांगिये बल्कि अहिंसा की बात करिये, पशुओं में संरक्षण की बात करिये। डिब्बे का दूध देशवासियों की बुद्धि को भ्रष्ट करने वाला है। चेतन धन (पशुधन) का बेचना जिस देश में होगा उस देश का कभी भी विकास नहीं हो सकता । जो मनु के, भगवान् के कहे अनुसार चलता है वही मनुष्य है। विदेशी संस्कार नंबर से चलते हैं, देशी भारतीय संस्कार नाम से चलते हैं। भारत को स्वतंत्रता मिली नहीं है बल्कि मान ली गयी है। प्रतिभा रत भारत चाहिए दूसरा भारत, महाभारत नहीं चाहिए। उन्नत भारत के लिए उन्नत भावना को संस्कारित करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय पक्ष को लेकर कार्य करना चाहिए पक्ष/विपक्ष को छोड़कर। स्वतंत्रता का अर्थ अपना तंत्र होता है स्वच्छदता नहीं। योग्यता के बिना स्वतंत्रता लाभप्रद नहीं हो सकती। मोबाइल, फोन के साथ देशावकाशिक व्रत पल ही नहीं सकता।
  20. दुःख विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार यदि आप दु:ख भोगना नहीं चाहते हो तो, जिससे दु:ख होता है, ऐसे कार्य करना छोड़ दो। जब आप दुख से डरते हो तो जहाँ दु:ख है वहाँ क्यों जाते हो ? दु:ख से डरने से दुख नहीं छूटेगा, बल्कि दुख के कारण छोड़ देने पर दु:ख स्वतः ही छूट जाता है।
  21. दण्ड विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार व्यवहार में शरीर को दण्डित किया जाता है और निश्चय में भावों को दण्डित किया जाता है। धन का, समय का अपव्यय करना सबसे बड़ा दण्ड माना जाता है।
  22. यह संसारी प्राणी सुख चाहते हुए भी सुख का रास्ता भूला हुआ है। उसे सुख का रास्ता बताने वाले आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्टपाहुड ग्रन्थ के मोक्षपाहुड में कहा है। जो आर्त रौद्र में लिप्त संसारी प्राणी है, उनके लिए कहा है। वे कहते हैं कि अब तक मैंने जो कुछ विवेचन किया, वह श्रमणों के लिए था, अब मैं श्रावकों का सम्यक्त्व क्या होता है ? उसके बारे में बताता हूँ। जो प्राणी मोक्ष को चाह रहा है, उसको मालूम नहीं कि आचार्य क्या कहेंगे ? पर आचार्य जानते हैं कि यह प्राणी भागता हुआ आया है। अत: मैं इसको मोक्ष का मार्ग न बताऊँ तो टूट जायेगा। अत: वे श्रावकों के बारे में बताते हैं। श्रावक वह होता है जो समाधि का उम्मीदवार होता है, वह समाधि प्राप्त करने की शिक्षा प्राप्त कर रहा है। उस समाधि को प्राप्त करने की इच्छा भगवान् अभिनन्दन जब तक गृहस्थ में रहे, तब तक न कर सके। जब उन्होंने दोनों प्रकार की ग्रन्थियों को हटा दिया, तभी समाधि को प्राप्त किया। अत: इसीलिए वे पूज्य हैं। वही बात आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो समाधि को प्राप्त करना चाहते हैं, इसकी प्राप्ति कैसे हो? इसकी शिक्षा कहा मिलेगी ? श्रावकों को बहुत मीठे वचनों से सम्बोधन करते हैं कि हिंसा से रहित जो धर्म है वही वास्तविक धर्म है। जहाँ हिंसा है, हिंसा करते हैं, वहाँ धर्म नहीं है। अहिंसा रूप धर्म का श्रद्धान सम्यक्त्व है। अठारह दोषों से रहित अरहंत पर श्रद्धान सम्यक्त्व है और निग्रन्थ पर श्रद्धान सम्यग्दर्शन है पर दोनों अलगअलग हैं। लक्ष्य एक है, पर पात्र दो हैं। पात्र सुख चाहते हैं। रोगी का महत्व नहीं डॉक्टर का महत्व है। पात्र कहता है कि अनादि काल से भटक रहा हूँ, भगवन्! आपको तरण-तारण समझकर आया हूँ, कुछ रास्ता बताओ। आचार्य रास्ता बताएँगे, समाधि का विश्लेषण करेंगे। जिसका बाहर के साथ Attachment है, उसके लिए समाधि को अपनाना बहुत मुश्किल है। लेकिन डॉक्टर तभी कहलाएगा, जब रोग से मुक्त करेगा, वरना तो कैसे डॉक्टर ? भत्तामर स्तोत्र में स्वामी मानतुंगाचार्य ने कहा है कि इसमें कोई विस्मय नहीं है कि आपके पास कोई आ जाये, दर्शन करे और आप जैसा बन जाये। यह तो लोहे और पारसमणी का सम्बन्ध होने पर सोना बनेगा। भगवान् का सानिध्य पाकर भगवान बन जाये, इसमें विस्मय नहीं। विस्मय की बात यह है कि भगवान का सान्निध्य पाकर भी भगवान न बने। भक्ति के द्वारा भी मुक्ति होती है, पर भक्ति से ही मुक्ति हो, सो यह बात नहीं। भगवान की भक्ति से रास्ता दिख सकता है। भगवान दर्पण के समान हैं, उससे कालिमा दिखेगी, पर दर्पण कालिमा को नहीं मिटाएगा। हमें ही मिटानी होगी। दर्पण देखने के बाद उसकी Value नहीं, उसके बाद हाथ की आवश्यकता है। हाथ ही कालिमा को मिटाएगा। भगवान महावीर का दर्शन समाधि का कारण है, समाधि नहीं। संसारी प्राणियों को देव दर्शन करना आवश्यक है। दर्पण में काँच के पीछे लेप है, तभी उसमें प्रतिबिम्बित होता है, सामान्य काँच में नहीं। परन्तु दर्पण में काँच के पीछे वाला लेप दिखाई नहीं देता। लेप की तरफ देखने से मुख भी नहीं दिखता, उस पर लगी कालिमा को नहीं ढूँढ सकता। अरहंत देव दर्पण हैं, काँच नहीं। दर्पण में जाकर अपने दोष देखेंगे, तुलना करेंगे। दूसरों को देखकर दोष दूर नहीं कर सकते हैं। असाधारण भगवान् का मुख देखकर ही दोष दूर कर सकते हैं, सदोष को देखने से दोष दूर नहीं होंगे। दर्पण में धूली लगी होगी तो मुख पर भी धूली ही नजर आएगी। यह दर्पण सदोष है आप लोगों का अपना काम जो होगा, वह सिद्ध परमेष्ठी को देखकर नहीं होगा, अरहंत भगवान् के द्वारा ही होगा। आप लोगों को आँखों के द्वारा अरहंत भगवान् देखने में आते हैं। आपको अपने आप में तल्लीन होने की विधि मालूम नहीं है। अरहंत का लक्षण है निग्रन्थ साधुओं में कोई अन्तर नहीं, साधु इन्हें भी कहा है और उन्हें भी कहा है। पुलाक वकुश आदि भेष साधक के कहे हैं। यथा रूप धारी है। जैसे-जैसे गुण बढ़ते गये तैसे-तैसे Quality में अन्तर आ गया। किन्तु विद्यार्थी नाम ही उनका है! एम.ए. का पढ़ने वाला तथा प्राइमरी में पढ़ने वाला दोनों है तो विद्यार्थी ही, परन्तु एम.ए. वाला भले ही सोलहवीं कक्षा में फैल हो जाये पर प्राइमरी वाले को तो पढ़ा ही सकता है। यह सिद्ध है कि आप लोग अभी अधूरे हैं, इसीलिए महावीर भगवान् का आलम्बन आवश्यक है। ध्यान रखो कि आलम्बन किस लिए है। दर्पण की आवश्यकता मात्र मनोरंजन के लिए नहीं, दोष मिटाने के लिए है। हिंसा रहित धर्म और अठारह दोषों से रहित जो अरहंत है, वही आप्त है। मोक्ष मार्ग के नेता सिद्ध नहीं हैं। संसारी प्राणियों को सद्बोधन देने वाले अरहंत नेता है। वे आप्त १८ दोषों से दूर हैं। जिसके राग-द्वेष-मोह नहीं है, वे आप्त बन सकते हैं। महावीर में श्रद्धान वही रखता है, जो बिल्कुल उज्ज्वल बनना चाहता है, निर्गुणी बनना चाहता है, जीवन के बारे में विचार करना चाहता है। व्यापकता को अपनाएँ बिना दुनियाँ का उद्धार नहीं हो सकता है। दवाई पी लेगा, तो रोग अवश्य मिटेगा। भगवान् कुन्दकुन्द ने श्रावकों को नहीं भूला है। समाधि की उत्पति के लिए दोनों ग्रन्थियों को हटा लिया है। आचार्य समन्तभद्र भगवान शांतिनाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे भगवन्! जो मनुष्य चक्र प्राप्त करते हैं उसे आपने समाप्त कर दिया, पर बाद में आपने मोह रूपी चक्र को भी ढूँढ कर कैसे समाप्त किया? नरेन्द्र के पास जो चक्र है, तथा मोह चक्र है-दोनों पौदूलिक हैं, दोनों मूर्त हैं, दोनों में स्पर्श रस गन्ध वर्ण मौजूद है। आत्मा पर प्रहार करने वाला नरेन्द्र चक्र नहीं, मोह चक्र है। औदारिक शरीर पर नरेन्द्र चक्र का प्रभाव पड़ सकता है। पर तैजस, कार्मण पर, सूक्ष्म शरीर पर नहीं। नरेन्द्र चक्र से मोह चक्र को नहीं जीत सकते। अत: भगवान शांतिनाथ ने उसको फेंक दिया और मोह चक्र को जीतने के लिए समाधि प्राप्त करने के लिए निग्रन्थ अवस्था को धारण किया। कर्मों की तरफ मत देखो, राग द्वेष कम करो। मोहरूपी अविद्या अपने आप चली जायेगी। मोहनीय विद्यमान है, तो सारी फौज विद्यमान है। मोहनीय कर्म नि:शस्त्र है, मात्र सामने खड़ा है। आठों कर्म नि:शत होते ही जहर से रहित सर्प के समान हो जाते हैं। जहरीला दांत टूट जाता है। जब बांसुरी (बीन) बजने लगती है, सर्प नाचने लगता है। बांसुरी वाला सर्प को नहीं मारता। क्योंकि अब उसमें जहर का प्रभाव नहीं है। उसी प्रकार मोह का प्रभाव वीतराग परिणामों पर नहीं पड़ता है। लड़ाई मोह के साथ है, उसके साथ लड़कर भी राग द्वेष नहीं करना है, वही वास्तविक समाधि है। जो जानता है, जो जाना जा रहा है, ये दोनों समयवर्ती पर्यायें हैं। किन्तु ज्ञानी इन दोनों में कभी आकांक्षा, राग-द्वेष नहीं करता है। आचार्य कुन्दकुन्द पात्र को पथ पर ले जाने की चेष्टा करते हैं। राग-द्वेष, मोह की वजह से होता है। किन्तु आत्म समर्पण कर रही है कर्मों की फौज। कर्म उदय में आ रहे हैं, वीतराग परिणामों पर कोई प्रभाव नहीं। समाधि में बैठा व्यक्ति क्या देख रहा है कि सारे संसारी पदार्थ आत्मा से भिन्नभिन्न हैं। शरीर के लिए जो इष्ट अनिष्ट बनते हैं। यह शरीर भी आत्मा से भिन्न है, तादात्म्य को लेकर नहीं है। मोह के अस्तित्व में भी समाधि हो सकती है, होती है। इसके बाद जो शरीर कर्मों के द्वारा बनता है, ये द्रव्य कर्म भी आत्मा से भिन्न है। इनसे नाता सम्बन्ध नहीं है। जिन ८ कर्मों के निमित्त राग द्वेष हैं, वे आत्मा से पृथक् हैं। जो राग द्वेष होते हैं, जो इन्द्रियाँ ज्ञान रूप हैं, वे भी आत्मा से भिन्न हैं। औपपादिक ज्ञान किस काम का। वैकालिक सम्बन्ध उपयोग के साथ है। मति-श्रुतावधि मन:पर्यय ज्ञान भी भिन्न हैं, तेरे नहीं हैं। क्षणिक पर्यायें है। अन्तिम सीढ़ी यह है कि वर्तमान में जो जान रहा है, वह भी तेरा नहीं, जो जाना जायेगा, वह भी तेरा नहीं। ज्ञान गुण, ज्ञेय गुण है, वह भी तेरा नहीं। उसको भी भूल जा, अर्थ पर्याय भी तेरा नहीं, क्षणिक है। फिर मोह भाग जायेगा। मात्र सामने भगवान् विराजमान हैं, जिनका आलम्बन लेना है। वह आत्मानुभूति कैसे हो सकती है? महान् दैदीप्यमान दीपक जल रहा है। पर दिखने में नहीं आ रहा है। उसके दिखे बिना अन्धकार छाया हुआ है। दूसरे से लाइट मांग रहे हैं, पर सर्च लाइट जो तेरे पास है, उसका बटन दबाना नहीं चाहता है। समाधि रूप चक्र को लेकर मोह का संहार कर। अपने आप में तल्लीन हो जाओगे तो तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। मोह चपरासी बन जायेगा, वरना तो राजा महाराजा बना रहेगा। लालसा, आकांक्षा को छोड़कर आगे बढ़ जाओ, जहाँ प्रकाश, समाधि, आनन्द की लहर है। अन्त में मैं यही कहूँगा। ज्योत्सना जगे तम टले, नव चेतना है। विज्ञान-सूरज-छटा, तब देखना है ॥ देखे जहाँ परम पावन है प्रकाश। उल्लास, हृास, सहसा लसता विलास ॥
×
×
  • Create New...